मन में एक विश्चास हो

चल आज

इन उमड़ते-घुमड़ते बादलों

में जीवन का

एक मधुर चित्र बनायें।

सूरज की रंगीनियां

बादलों की अठखेलियां

किरणों से बनायें।

दूरियां कितनी भी हों,

जब हाथ में हाथ हो,

मन में एक विश्चास हो,

सहज-सरल-सरस

भाव हों,

बस , हम और आप हों।

 

हां हूं मैं बगुला भक्त

यह हमारी कैसी प्रवृत्ति हो गई है

कि एक बार कोई धारणा बना लेते हैं

तो बदलते ही नहीं।

कभी देख लिया होगा

किसी ने, किसी समय

एक बगुले को, एक टांग पर खड़ा

मीन का भोजन ढूंढते

बस उसी दिन से

हमने बगुले के प्रति

एक नकारात्मक सोच तैयार कर ली।

बीच सागर में

एक टांग पर खड़ा बगुला

इस विस्तृत जल राशि

को निहार रहा है

एकाग्रचित्त, वासी,

अपने में मग्न ।

सोच रहा है

कि जानते नहीं थे क्या तुम

कि जल में मीन ही नहीं होती

माणिक भी होते हैं।

किन्तु मैंने तो 

अपनी उदर पूर्ति के लिए

केवल मीन का ही भक्षण किया

जो तुम भी करते हो।

माणिक-मोती नहीं चुने मैंने

जिनके लिए तुम समुद्र मंथन कर बैठते हो।

और अपने भाईयों से ही युद्ध कर बैठते हो।

अपने ही भ्राताओं से युद्ध कर बैठे।

किसी प्रलोभन में नहीं रहा मैं कभी।

बस एक आदत सी थी मेरी

यूं ही खड़ा होना अच्छा लगता था मुझे

जल की तरलता को अनुभव करता

और चुपचाप बहता रहता।

तुमने भक्त कहा मुझे

अच्छा लगा था

पर जब इंसानों की तुलना के लिए

इसे एक मुहावरा बना दिया

बस उसी दिन आहत हुआ था।

पर अब तो आदत हो गई है

ऐसी बातें सुनने की

बुरा नहीं मानता मैं

क्योंकि

अपने आप को भी जानता हूं

और उपहास करने वालों को भी

भली भांति पहचानता हूं।

 

प्रीत,रीत,मनमीत,विश्वास सब है अभी भी यहां

बेवजह व्याकुल रहने की आदत सी हो गई है

बेवजह बुराईयां जताने की आदत सी हो गई है

प्रीत,रीत,मनमीत,विश्वास सब है अभी भी यहां

बेवजह इनको नकारने की आदत सी हो गई है।

तलाश

वे और थे

जो मंज़िल की तलाश में

भटका करते थे।

आज तो

 मंज़िल मेरी तलाश में है।

क्योंकि

मंज़िल तक

कोई पहुंचता ही नहीं।

बस बातों का यह युग है

हाथ में लतवार लेकर अमन की बात करते हैं

प्रगति के नाम पर विज्ञापनों में बात करते हैं

आश्वासनों, वादों, इरादों, हादसों का यह युग है

हवा-हवाई में नियमित मन की बात करते हैं

धागों का रिश्ता
कहने को कच्चे धागों का रिश्ता, पर मज़बूत बड़ा होता है

निःस्वार्थ भावों से जुड़ा यह रिश्ता बहुत अनमोल होता है

भाई यादों में जीता है जब बहना दूर चली चली जाती है

राखी-दूज पर मिलने आती है, तब आनन्द दूना होता है।

नेताजी का आसन

नेताजी ने कुर्सी त्याग दी

और भूमि पर आसन बिछाकर बैठ गये।

हमने पूछा, ऐसा क्यों किया आपने।

वैसे तो हमें पता है,

कि आपकी औकात ज़मीन की ही है,

किन्तु

कुर्सी त्यागना तो बहुत महानता की बात है,

कैसे किया आपने यह साहस।

नेताजी मुस्कुराये, बोले,

क्या तुम्हें भी बताना पड़ेगा,

कि कुर्सी की चार टांगे होती हैं

और इंसान की दो।

कोई भी, कभी भी पकड़कर

कोई-सी भी टांग खींच देता था।

अब हम भूमि पर, आसन जमाकर

पालथी मारकर बैठ गये हैं,

कोई  दिखाये हमारी टांग खींचकर।

समझदारी की बात यह

कि कुर्सी के पीछे

तो लोग भागते-छीनते दिखाई देते हैं,

कभी आपने देखा है किसी को

आसन छीनते।

अब गांधी जी भी तो

भूमि पर आसन जमाकर ही बैठते थे,

कोई चला उनकी राह पर

आज तक मांगा उनका आसन किसी ने क्या।

नहीं न !

अब मैं नेताजी को क्या समझाती,

गांधी जी का आसन तो उनके साथ ही चला गया।

और नेताजी आपका आसन ,

आधुनिक भारतीय राजनीति का आसन है,

आप पालथी मारे यूं ही बैठे रह जायेंगे,

और जनता कब आपके नीचे से

आपका आसन खींचकर चलती बनेगी,

आपको पता भी नहीं चलेगा।

 

जब चाहिए वरदान तब शीश नवाएं

जब-जब चाहिए वरदान तब तब करते पूजा का विधान

दुर्गा, चण्डी, गौरी सबके आगे शीश नवाएं करते सम्मान

पर्व बीते, भूले अब सब, उठ गई चौकी, चल अब चौके में

तुलसी जी कह गये,नारी ताड़न की अधिकारी यह ले मान।।

चल आज लड़की-लड़की खेलें

चल आज लड़की-लड़की खेलें।

-

साल में

तीन सौ पैंसठ दिन।

कुछ तुम्हारे नाम

कुछ हमारे नाम

कुछ इसके नाम

कुछ उसके नाम।

रोज़ सोचना पड़ता है

आज का दिन

किसके नाम?

कुछ झुनझुने लेकर

घूमते हैं हम।

आम से खास बनाने की

चाह लिए

जूझते हैं हम।

समस्याओं से भागते

कुछ नारे

गूंथते हैं हम।

कभी सरकार को कोसते

कभी हालात पर बोलते

नित नये नारे

जोड़ते हैं हम।

हालात को समझते नहीं

खोखले नारों से हटते नहीं

वास्तविकता के धरातल पर

चलते नहीं

सच्चाई को परखते नहीं

ज़िन्दगी को समझते नहीं

उधेड़-बुन में लगे हैं

मन से जुड़ते नहीं

जो करना चाहिए

वह करते नहीं

बस बेचारगी का मज़ा लेते हैं

फिर आनन्द से

अगले दिन पर लिखने के लिए

मचलते हैं।

 

हांजी बजट बिगड़ गया

हांजी , बजट बिगड़ गया। सुना है इधर मंहगाई बहुत हो गई है। आलू पच्चीस रूपये किलो, प्याज भी पच्चीस तीस रूपये किलो और  टमाटर भी। अब बताईये भला आम आदमी जाये तो जाये कहां और  खाये तो खाये क्या। अब महीने में चार पांच किलो प्याज, इतने ही आलू टमाटर का तो खर्चा हो ही जाता है।सिलेंडर भी शायद 14_16 रूपये मंहगा हो रहा है।  कहां से लाये आम आदमी इतने पैसे , कैसे भरे बच्चों का पेट और  कैसे जिये इस मंहगाई के ज़माने में। 

घर में जितने सदस्य हैं उनसे ज़्यादा मोबाईल घर में हैं। बीस पच्चीस रूपये महीने के नहीं, हज़ारों के। और  हर वर्ष नये फीचर्स के साथ नया मोबाईल तो लेना ही पड़ता है। यहां मंहगाई की बात कहां से गई। हर मोबाईल का हर महीने का बिल हज़ार पंद्रह सौ रूपये तो ही जाता है। नैट भी चाहिए। यह तो आज के जीवन की मूलभूत आवश्यकताएं हैं। जितने सदस्य उतनी गाड़ियां। और  एकफोर व्हीलरभी रखना ही पड़ता है। अब समय किसके पास है कि एक दूसरे को लिफ्ट दें  सबका अपना अपना समय और  सुविधाएं। और  स्टेटस भी तो कोई चीज़ है। अब पैट्रोल पर महीने का पांच सात हज़ार खर्च हो भी जाता है तो क्या। 18 वर्ष से छोटे बच्चों को तो आजकल गाड़ी देनी ही पड़ती है। साईकिल का युग तो रह नहीं गया। चालान होगा तो भुगत लेंगे। कई तरीके आते हैं। अब यहां मंहगाई कहां से आड़े गई। हर महीने एक दो आउटिंग तो हो ही जाती है। अब घर के चार पांच लोग बाहर घूमने जाएंगे , खाएंगे पीयेंगे तो पांच सात हज़ार तो खर्च हो ही जाता है। भई कमा किस लिए रहे हैं। महीने में एकाध फिल्म। अब जन्मदिन अथवा किसी शुभ दिन पर हलवा पूरी का तो ज़माना रह नहीं गया। अच्छा आयोजन तो करना ही पड़ता है। हज़ारों नहीं, लाखों में भी खर्च हो सकता है। तब क्या। और  मरण_पुण्य तिथि पर तो शायद इससे भी ज़्यादा। और  शादी_ब्याह की तो बात ही मत कीजिए, आजकल तो दस बीस लाख से नीचे की बात ही नहीं है। 

लेकिन आलू प्याज टमाटर मंहगा हो गया है। बजट बिगड़ गया।

खेल फिर शुरू हो जाता है

कभी कभी, समझ नहीं पाती हूं

कि मैं

आतंकित होकर चिल्लती हूं

या आतंक पैदा करने के लिए।

तुमसे डरकर चिल्लती हूं

या तुम्हें डराने के लिए।

लेकिन इतना जानती हूं

कि मेरे भीतर एक डर है

एक औरत होने का डर।

और यह डर

तुम सबने पैदा किया है

तुम्हारा प्यार, तुम्हारी मनुहार

पराया सा अपनापन

और तुम्हारी फ़टकार

फिर मौके बे मौके

उपेक्षा दर्शाता तुम्हारा तिरस्कार

निरन्तर मुझे डराते रहते हैं।

और तुम , अपने अलग अलग रूपों में

विवश करते रहते हो मुझे

चिल्लाते रहने के लिए।

फिर एक समय आता है

कि थककर मेरी चिल्लाहट

रूदन में बदल जाती है।

और तुम मुझे

पुचकारने लगते हो।

*******

खेल, फिर शुरू हो जाता है।

विचलित करती है यह बात

मां को जब भी लाड़ आता है

तो कहती है

तू तो मेरा कमाउ पूत है।

 

पिता के हाथ में जब

अपनी मेहनत की कमाई रखती हूं

तो एक बार तो शर्म और संकोच से

उनकी आंखें डबडबा जाती हैं

फिर सिर पर हाथ फेरकर

दुलारते हुए कहते हैं

मुझे बड़ा नाज़ है

अपने इस होनहार बेटे पर।

 

किन्तु

मुझे विचलित करती है यह बात

कि मेरे माता पिता को जब भी

मुझ पर गर्व होता है

तो वे मुझे

बेटा कहकर सम्बोधित क्यों करते हैं

बेटी मानकर गर्व क्यों नहीं कर पाते।

मेरा नाम श्रमिक है

कहते हैं

पैरों के नीचे

ज़मीन हो

और सिर पर छत

तो ज़िन्दगी

आसान हो जाती है।

किन्तु

जिनके पैरों के नीचे

छत हो

और सिर पर

खुला आसमान

उनका क्या !!!

 

 

 

 

आंखें फ़ेर लीं

अपनों से अपनेपन की चाह में

जीवन-भर लगे रहे हम राह में

जब जिसने चाहा आंखें फ़ेर लीं

कहीं कोई नहीं था हमारी परवाह में

काश ! पहाड़-सी होती मेरी ज़िन्दगी

काश !  पहाड़-सी होती मेरी ज़िन्दगी

 

ज़रा-ज़रा सी बात पर

यूं ही

भरभराकर

नहीं गिर जाते ये पहाड़।

अपने अन्त:करण में

असंख्य ज्वालामुखी समेटे

बांटते हैं

नदियों की तरलता

झरनों की शरारत

नहरों का लचीलापन।

कौन कहेगा इन्हें देखकर

कि इतने भाप्रवण होते हैं ये पहाड़।

 

पहाड़ों की विशालता

अपने सामने

किसी को बौना नहीं करती।

अपने सीने पर बसाये

एक पूरी दुनिया

ज़मीन से उठकर

कितनी सरलता से

छू लेते हैं आकाश को।

बादलों को सहलाते-दुलारते

बिजली-वर्षा-आंधी

सहते-सहते

कमज़ोर नहीं हो जाते यह पहाड़।

आकाश को छूकर

ज़मीन को नहीं भूल जाते ये पहाड़।

 

ज़रा-ज़रा सी बात पर

सागर की तरह

उफ़न नहीं पड़ते ये पहाड़।

नदियों-नहरों की तरह

अपने तटबन्धों को नहीं तोड़ते।

बार-बार अपना रास्ता नहीं बदलते

नहरों-झीलों-तालाबों की तरह

झट-से लुप्त नहीं हो जाते।

और मावन-मन की तरह

जगह-जगह नहीं भटकते।

अपनी स्थिरता में

अविचल हैं ये पहाड़।

 

अपने पैरों से रौंद कर भी

रौंद नहीं सकते तुम पहाड़।

 

पहाड़ों को उजाड़ कर भी

उजाड़ नहीं सकते तुम पहाड़।

 

पहाड़ की उंचाई

तो शायद

आंख-भर नाप भी लो

लेकिन नहीं जान सकते कभी

कितने गहरे हैं ये पहाड़।

 

बहुत बड़ी चाहत है मेरी

काश !

पहाड़-सी होती मेरी ज़िन्दगी।

 

 

शिकायतों का  पुलिंदा

शिकायतों का

पुलिंदा है मेरे पास।

है तो सबके पास

बस सच बोलने का

मेरा ही ठेका है।

काश!

कि शिकायतें

आपसे होतीं

किसी और से होतीं,

इससे-उससे होतीं,

तब मैं कितनी प्रसन्न होती,

बिखेर देती

सारे जहाँ में।

इसकी, उसकी

बुराईयाँ कर-कर मन भरती।

किन्तु

क्या करुँ

सारी शिकायतें

अपने-आपसे ही हैं।

जहाँ बोलना चाहिए

वहाँ चुप्पी साध लेती हूँ

जहाँ मौन रहना चाहिए

वहाँ बक-झक कर जाती हूँ।

हँसते-हँसते

रोने लग जाती हूँ,

रोते-रोते हँस लेती हूँ।

न खड़े होने का सलीका

न बैठने का

न बात करने का,

बहक-बहक जाती हूँँ

मन कहीं टिकता नहीं

बस

उलझी-उलझी रह जाती हूँ।

 

जूझना पड़ता है अकेलेपन से

कभी-कभी दूरियां

रिश्तों को पास ले आती है

उलझे रिश्तों को सुलझाती हैं

राहें बदलकर जीवन में

आस ले आती हैं

कभी तो चलें साथ-साथ

और कभी-कभी 

चुनकर चलें दो राहें,

जीवन आसान कर जाती हैं।

जीवन सदैव

सहारों से नहीं चलता

ये सीख दे जाती हैं

कदम-दर-कदम

जूझना पड़ता है

अकेलेपन से,

ढूंढनी पड़ती हैं

आप ही जीवन की राहें

अंधेरों और उजालों में

पहचान हो पाती है,

कठोर धरातल पर तब

ज़िन्दगी आसान हो जाती है।

फिर मुड़कर देखना एक बार

छूटे हाथ फिर जुड़ते हैं

और ज़िन्दगी

सहज-सहज हो जाती है।

 

 

इक फूल-सा ख्वाबों में

जब भी
उनसे मिलने को मन करता है

इक फूल-सा ख्वाबों में
खिलता नज़र आता है।

पतझड़ में भी
बहार की आस जगती है
आकाश गंगा में
फूलों का झरना नज़र आता है।

फूल तो खिले नहीं
पर जीवन-मकरन्द का
सौन्दर्य नज़र आता है।

तितलियों की छोटी-छोटी उड़ान में
भावों का सागर
चांद पर टहलता नज़र आता है।

चिड़िया की चहक में
न जाने कितने गीत बजते हैं
उनके मिलन की आस में
मन गीत गुनगुनाता नज़र आता है।

सांझ ढले
जब मन स्मृतियों के साये में ढलता है
तब लुक-छुप करती रंगीनियों में
मन बहकता नज़र आता है।

जब-जब तेरी स्मृतियों से
बच निकलने की कोशिश की
मन बहकता-सा नज़र आता है।

कोरोना का अनुभव

कोरोना का अनुभव अद्भुत, अकल्पनीय था। पति पहले ही स्वस्थ नहीं थे, मार्च में हुए हृदयाघात के कारण। 28 मई रात्रि पति को ज्वर हुआ। बदलते मौसम में उन्हें अक्सर ज्वर होता है, अपने  डाक्टर को फ़ोन किया तो उन्होंने दवाई दे दी। तीन दिन में बुखार उतर गया। किन्तु कमज़ोरी इतनी बढ़ गई कि अस्पताल हार्ट स्पैश्लिस्ट के पास चैकअप ज़रूरी दिख रहा था। जानते थे कि अस्पताल पहले नैगेटिव रिपोर्ट मांगेगे। इसलिए 2 जून को कोरोना टैस्ट करवाया। दुर्भाग्यवश पाज़िटिव रिपोर्ट आ गई। साथ ही मुझे और मेरे बेटे को भी ज्वर हुआ। उसी दिन हमने टैस्ट करवाया। पति की हालत उसी रात गम्भीर हुई, सुबह पांच बजे एमरजैंसी में एडमिट हुए। मैं, बेटा बाहर खड़े उनकी रिपोर्ट की प्रतीक्षा कर रहे थे। शुरु की सारी रिपोर्टस ठीक रहीं। नौ बज रहे थे। शेष रिपोर्ट्स समय लेकर मिलनी थीं। बेटे के मोबाईल पर आवाज़ आई और पाया कि हम दोनों की रिपोर्ट पाज़िटिव है। हमने मुड़कर नहीं देखा, और अस्पताल से निकल गये। डाक्टर से फोन पर बात की, मिलना तो था ही नहीं, क्योंकि कोविड वार्ड में थे। उनका सोडियम बहुत गिर गया था। बहू की रिपोर्ट नैगेटिव थी, अतः उसे पहले ही मायके भेज दिया जहां वह एकान्तवास हुई। उसका परिवार पिछले माह ही कोविड भुगत चुका था। एक ही दिन में हम हिस्सों में बंट गये।

तीसरे दिन आंचल को भी बुखार हुआ और पोती धारा को भी। बिना टैस्ट ही जान गये कि उन्हें भी कोविड हो गया है। अब सवाल था वापिस कैसे लाया जाये। बेटे का एक मित्र, जिसे कोविड हो चुका था, उन दोनों को घर छोड़कर गया। बस इतना रहा कि मुझे एक ही दिन बुखार रहा। बेटे को दस दिन और धारा और आंचल को चार दिन। बुखार बढ़ता तो कभी तीनों मिलकर धारा की पट्टियां करते तो कभी मैं और आंचल मिलकर बेटे की। खाना बाहर से आने लगा। फल, जूस आदि आंचल के घर से देकर जाते। तीन रात लगातार बिजली जाती रही। नया इन्वर्टर धोखा दे गया। एक फे़स से एक ए. सी. चल रहा था। और हम चारों, मैं, बेटा, बहू और पोती एक ही डबल बैड पर रात काटते। इतनी हिम्मत नहीं कि एक फ़ोल्डिंग बैड लगा लें या नीचे ही बिस्तर बिछा लें।

पांचवे दिन पति का अस्पताल से डिस्चार्ज था। समस्या वही, हम जा नहीं सकते, और और कोविड रोगी को  डिस्चार्ज करवाने और उन्हें लेकर कौन आये। फिर बेटे के मित्र और बहू के पिता ने सब किया। लेकिन चार दिन बाद फिर अस्पताल एडमिट हुए, इस बार हमारे दस दिन बीत चुके थे, और डाक्टर ने कहा कोई बात नहीं, आप लोग आ जाईये। साथ ही बेटे का माइग्रेन शुरु हो गया। बच्चे कब तक छुट्टी लेते। वर्क फ्राम होम ही है किन्तु 8-10 घंटे पी. सी. पर।

अपने मकान मालिक को हमने पहले ही दिन बता दिया था। वे बोल बोले बैस्ट आॅफ़ लक्क। नियमित दूध लेने वाले हम लोग पांच दिन तक दूध लेने नहीं गये। प्रातः लगभग 7 बजे हम 6 परिवार एक साथ दूध लेते हैं। किसी ने नहीं पूछा। दूध वाले ने उनसे पूछा कि उपर की आंटी जी चार-पांच दिन से दूध लेने नहीं आईं, उनके घर में सब ठीक तो है न। फिर दूधवाला अपने-आप ही हमारा दूध, ब्रैड, पनीर रखने लगा।

महीना बीत गया। रिकवरी मोड में तो हैं किन्तु पोस्ट कोविड समस्याएं भी हैं। देखते हैं कब तक जीवन पटरी पर उतरता है।

  

आज़ादी की क्या कीमत

कहां समझे हम आज़ादी की क्या कीमत होती है।

कहां समझे हम बलिदानों की क्या कीमत होती है।

मिली हमें बन्द आंखों में आज़ादी, झोली में पाई हमने

कहां समझे हम राष्ट््भक्ति की क्या कीमत होती है।

 

मैं उपवास नहीं करती

मैं उपवास नहीं करती।

वह वाला

उपवास नहीं करती

जिसमें बन्धन हो।

मैंने देखा है

जो उपवास करते हैं

सारा दिन

ध्यान रहता है

अरे कुछ नहीं खाना

कुछ नहीं पीना।

अथवा

यह खाना और

यह पीना।

विशेष प्रकार का भोजन

स्वाद

कभी नमक रहित

कभी मिष्ठान्न सहित।

किस समय, किस रूप में,

यही चर्चा रहती है

दो दिन।

फिर

विशेष पूजा-पाठ,

सामग्री,

चाहे-अनचाहे

सबको उलझाना।

मैं बस मस्ती में जीती हूँ,

अपने कर्मों का

ध्यान करती हूँ,

अपनी ही

भूल-चूक पर

स्वयँ प्रायश्चित कर लेती हूँ

और अपने-आपको

स्वयँ क्षमा करती हूँ।

 

कर्म कर और फल की चिन्ता कर

कहते हैं,

कहते क्या हैं

सुना है मैंने,

न-न

पता नहीं

कितनी पुस्तकों में

पढ़ा और गुना है मैंने।

बहुत समय पहले

कोई आये थे

और कह गये

कर्म किये जा

फल की चिन्ता मत कर।

पता नहीं

उन्होंने ऐसा क्यों कहा

मैं आज तक

समझ नहीं पाई।

अब आम का पेड़ बोयेंगे

तो आम तो देखने पड़ेंगे।

वैसे भी

किसी और ने भी तो कहा है

कि बोया पेड़ बबूल का

तो आम कहां से पाये।

 

सब बस कहने की ही बाते हैं

 

जो फल की चिन्ता नहीं करते

वे कर्म की भी चिन्ता नहीं करते

 

ज़माना बदल गया है

युग नया है

मुफ्तखोरी की आदत न डाल

कर्म कर और फल

के लिए खाद-पानी डाल

पेड़ पर चढ़

पर डाल न काट।

उपर बैठकर न देख

जमीनी सच्चाईओं पर उतर

कर्म कर पर फल न पाकर

हार न मान।

बस कर्म कर और

फल की चिन्ता कर।

 

यादों के पृष्ठ सिलती रही

ज़िन्दगी,

मेरे लिए

यादों के पृष्ठ लिखती रही।

और मैं उन्हें

सबसे छुपाकर,

एक धागे में सिलती रही।

 

कुछ अनुभव थे,

कुछ उपदेश,

कुछ दिशा-निर्देश,

सालों का हिसाब-बेहिसाब,

कभी पढ़ती,

कभी बिखरती रही।

 

समय की आंधियों में

लिखावट मिट गई,

पृष्ठ जर्जर हुए,

यादें मिट गईं।

 

तब कहीं जाकर

मेरी ज़िन्दगी शुरू हुई।