कुछ और नाम न रख लें
समाचार पत्र
कभी मोहल्ले की
रौनक हुआ करते थे।
एक आप लेते थे
एक पड़ोसियों से
मांगकर पढ़ा करते थे।
पूरे घर की
माँग हुआ करते थे।
दिनों-दिन
बातचीत का
आधार हुआ करते थे,
चैपाल और काॅफ़ी हाउस में
काफ़ी से ज़्यादा गर्म
चर्चा का आधार हुआ करते थे।
विश्वास का
नाम हुआ करते थे।
ज्ञान-विज्ञान की
खान हुआ करते थे।
नित नये काॅलम
पूरे परिवार के
मनोरंजन का
आधार हुआ करते थे।
-
मानों
युग बदल गया।
अब
समाचार पत्रों में
सब मिलता है
बस
समाचार नहीं मिलते।
कोई मुद्दे,
कोई भाव नहीं मिलते।
पृष्ठ घटते गये
विज्ञापन बढ़ते गये।
चार पन्नों को
उलट-पुलटकर
पलभर में रख देते हैं।
चित्र बड़े हो रहे हैं
पर कुछ बोलते नहीें।
बस
डराते हैं
धमकाते हैं
और चले जाते हैं।
कहानियाँ रह गईं
सत्य कहीं बिखर गया।
अन्त में लिखा रहता है
अनेक जगह
इन समाचारों/विचारों का
हमारा कोई दायित्व नहीं।
तो फिर
इनका
कुछ और नाम न रख लें।
ज़िन्दगी ज़िन्दगी हो उठी
प्रकृति में
बिखरे सौन्दर्य को
अपनी आँखों में
समेटकर
मैंने आँखें बन्द कर लीं।
हवाओं की
रमणीयता को
चेहरे से छूकर
बस गहरी साँस भर ली।
आकर्षक बसन्त के
सुहाने मौसम की
बासन्ती चादर
मन पर ओढ़ ली।
सुरम्य घाटियों सी गहराई
मन के भावों से जोड़ ली।
और यूँ ज़िन्दगी
सच में ज़िन्दगी हो उठी।
खून का असली रंग
हमारे यहाँ
रगों में बहते खून की
बहुत बात होती है।
किसी का खून खानदानी,
किसी का उजला,
किसी का काला
किसी का अपना
और किसी का पराया।
तब आसानी से
कह देते हैं
अपना तो खून ही
ख़राब निकला।
और
ऐसा नीच खून
तो हमारा खून
हो ही नहीं सकता।
-
लेकिन
काश! हम समझ पाते
कि रगों में बहते खून का
कोई रंग नहीं होता
खून का रंग तब होता है
जब वह किसी के काम आये।
फिर अपना हो या पराया,
खानदानी हो या काला,
खून का असली रंग
तभी पहचान में आता है।
लाल, नीला या काला
होने से कभी
कोई फ़र्क नहीं पड़ता।
मित्रता
कृष्ण और सुदामा की मित्रता
यह नहीं
कि एक धनी ने
निर्धन की मदद की,
बल्कि यह
कि मददगार ने
मदद करके
एहसान जताने का
अवसर नहीं दिया।
मेरा नाम श्रमिक है
कहते हैं
पैरों के नीचे
ज़मीन हो
और सिर पर छत
तो ज़िन्दगी
आसान हो जाती है।
किन्तु
जिनके पैरों के नीचे
छत हो
और सिर पर
खुला आसमान
उनका क्या !!!
कैसा दुर्भाग्य है मेरा
कैसा दुर्भाग्य है मेरा
कि जब तक
मेरे साथ दो बैल
और ग़रीबी की रेखा न हो
मुझे कोई पहचानता ही नहीं।
जब तक
मैं असहाय, शोषित न दिखूँ
मुझे कोई किसान
मानता ही नहीं।
मेरी
इस हरी-भरी दुनियाँ में
एक सुख भरा संसार भी है
लहलहाती कृषि
और भरा-पूरा
परिवार भी है।
गुरूर नहीं है मुझे
पर गर्व करता हूँ
कि अन्न उपजाता हूँ
ग्रीष्म-शिशिर सब झेलता हूँ,
आशाओं में जीता हूँ
आशाएँ बांटता हूँ।
दुख-सुख तो
आने-जाने हैं।
अरबों-खरबों के बड़े-बड़े महल
अक्सर भरभराकर गिर जाते हैं,
तो कृषि की
असामयिक आपदा के लिए
हम सदैव तैयार रहते हैं,
हमारे लिए
दान-दया की बात कौन करता है
हम नहीं जानते।
अपने बल पर जीते हैं
श्रम ही हमारा धर्म है
बस इतना ही हम मानते।
होने का एहसास
साथ-साथ होकर भी
आस-पास होकर भी
दिन-रात होकर भी
अक्सर साथ नहीं होते ।n
और मीलों दूर बैठै भी
देश-दुनिया बेखबर
दिला जाते हैं
साथ-साथ
अपने आस-पास
होने का एहसास।
भीतर तक
दीवारों में दरारें होना
ज़रूरी तो नहींए
ज़रा
मिट्टी की परत
हिलने से ही
दुनिया
भीतर तक
झांक लेती है।
अनजाने ही
दरारों से
झांकने की
यूँ आदत तो नहीं
किन्तु
कुछ सुराख
इतने महीन होते हैं
कि
अनजाने ही
दिल में
मिट्टी दरक जाती है।
आदतें ठीक नहीं मेरी
जानती हूँ
बहुत-सी आदतें
तो ठीक नहीं मेरी
पर
कोई अफ़सोस नहीं होता मुझे।
दुनिया-भर की
अच्छाईयों का ठेका
मेरा ही तो नहीं।
कुछ तुम ही
बदल जाओ
मेरे लिए।
जिन्दगी संवारती हूं
भीतर ही भीतर
न जाने कितने रंग
बिखरे पड़े हैं,
कितना अधूरापन
खंगालता है मन,
कितनी कहानियां
कही-अनकही रह जाती हैं,
कितने रंग बदरंग हो जाते हैं।
आज उतारती हूं
सबको
तूलिका से।
अपना मन भरमाती हूं,
दबी-घुटी कामनाओं को
रंग देती हूं,
भावों को पटल पर
निखारती हूं,
तूलिका से जिन्दगी संवारती हूं।
अवसान एवं उदित
यह कैसा समय है,
अंधेरे उजालों को
डराने में लगे हैं,
अपने पंख फैलाने में लगे हैं।
दूर जा रही रोशनियां,
अंधेरे निकट आने में लगे हैं।
अक्सर मैंने पाया है,
अवसान एवं उदित में
ज़्यादा अन्तर नहीं होता।
दोनों ही तम-प्रकाश से
जूझते प्रतीत होते हैं मुझे।
एक रोशनी-रंगीनियां समेटकर
निकल लेता है,
किसी पथ पर,
किसी और को
रोशनी बांटने के लिए।
और दूसरा
बिखरी रोशनी-रंगीनियों को
एक धुरी में बांधकर
फिर बिखेरता है
धरा पर।
चलो, आज एक नई कोशिश करें,
दोनों में ही रंगीनियां-रोशनी ढूंढे।
अंधेरे सिमटने लगेंगें
रोशनियां बिखरने लगेंगी।
डर-डर कर जी रहे हैं
खुले आसमान के नीचे
विघ्न-बाधाओं को लांघकर
समुद्र मापकर
आकाश और धरा को नापकर,
हवाओं को बांधकर,
मानव समझ बैठा था
स्वयं को विधाता, सर्वशक्तिमान।
और आज
अपनी ही करनी से,
अपनी ही कथनी से,
अपने ही कर्मों से,
अपने लिए, आप ही,
तैयार कर लिया है कारागार।
सीमाओं में रहना सीख रहा है,
अपनापन अपनाना सीख रहा है।
उच्च विचार पता नहीं,
पर सादा जीवन जी रहा है।
इच्छाओं पर प्रतिबन्ध लगा है।
आशाओं पर तुषारापात हुआ है।
चाबी अपने पास है
पर खोलने से डरा हुआ है।
दूरियों में जी रहा है
नज़दीकियों से भाग रहा है।
हर पल मर-मर कर जी रहा है,
हर पल डर-डर कर जी रहा है।
देश और ध्वज
देश
केवल एक देश नहीं होता
देश होता है
एक भाव, पूजा, अर्चना,
और भक्ति का आधार।
-
ध्वज
केवल एक ध्वज नहीं होता
ध्वज होता है प्रतीक
देश की आन, बान,
सम्मान और शान का।
.
और यह देश भारत है
और है आकाश में लहराता
हमारा तिरंगा
और जब वह भारत हो
और हो हमारा तिरंगा
तब शीश स्वयं झुकता है
शीश मान से उठता है
जब आकाश में लहराता है तिरंगा।
.
रंगों की आभा बिखेरता
शक्ति, साहस
सत्य और शांति का संदेश देता
हमारे मन में
गौरव का भाव जगाता है तिरंगा।
.
जब हम
निरखते हैं तिरंगे की आभा,
गीत गाते हैं
भारत के गौरव के,
शस्य-श्यामला
धरा की बात करते हैं
तल से अतल तक विस्तार से
गर्वोन्नत होते हैं
तब हमारा शीश झुकता है
उन वीरों की स्मृति में
जिनके रक्त से सिंची थी यह धरा।
.
स्वर्णिम आज़ादी का
उपहार दे गये हमें।
आत्मसम्मान, स्वाभिमान
का भान दे गये हमें
देश के लिए जिएँ
देश के लिए मरें
यह ज्ञान दे गये हमें।
-
स्वर्णिम आज़ादी का
उपहार दे गये हमें।
आत्मसम्मान, स्वाभिमान
का भान दे गये हमें
हम सब कैसे एक हैं
उलझता है बालपन
पूछता है कुछ प्रश्न
लिखा है पुस्तकों में
और पढ़ते हैं हम,
हम सब एक हैं,
हम सब एक हैं।
साथ-साथ रहते
साथ-साथ पढ़ते
एक से कपड़े पहन,
खाते-पीते , खेलते।
फिर आज
यह क्या हो गया
इसे हिन्दू बना दिया गया
मुझे मुसलमान
और इसे इसाई।
और कुछ मित्र बने हैं
सिख, जैनी, बौद्ध।
फिर कह रहे हैं
हम सब एक हैं।
बच्चे हैं हम।
समझ नहीं पा रहे हैं
कल तक भी तो
हम सब एक-से थे।
फिर आज
यूं
अलग-अलग बनाकर
क्यों कह रहे हैं
हम सब एक हैं,
हम सब एक हैं।
आत्मश्लाघा का आनन्द
अच्छा लगता है
जब
किसी-किसी एक दिन
पूरे साल में
बड़े सम्मान से
स्मरण करते हो मुझे।
मुझे ज्ञात होता है
कितनी महत्वपूर्ण हूं मैं
कितनी गुणी, जगद्जननी
मां, सुता, देवी, त्याग की मूर्ति,
इतने शब्द, इतनी सराहना
लबालब भर जाता है मेरा मन
और उलीचने लगते हैं भाव।
फिर
सालती हैं
यह स्मृतियां पूरे साल।
सम्मान पत्र
व्यंग्योक्तियों से
महिमा-मण्डित होने लगते हैं।
रसोई में टांग देती हूं
सम्मान-पत्रों को
हल्दी-नमक से
तिलक करती हूं सारा साल]
कभी-कभी
बर्तनों की धुलाई में
मिट जाती है लिखाई
निकल बह जाते हैं
नाली से
लुगदी बन फंसतीं है कहीं
और फिर पूरा वर्ष
निकल जाता है
सफ़ाई अभियान में।
वर्ष में कई बार याद आता है
नारी तू नारायणी।
और हम चहक उठते हैं
मिले इस कुछ दिवसीय सम्मान से।
अपना गुणगान
आप ही करने लगते हैं।
आत्मश्लाघा का भी तो
एक अपना ही आनन्द होता है।
प्रेम की एक नवीन धारा
हां, प्रेम सच्चा रहे,
हां , प्रेम सच्चा रहे,
हर मुस्कुराहट में
हर आहट में
रूदन में या स्मित में
प्रेम की धारा बही
मन की शुष्क भूमि पर
प्रेम-रस की
एक नवीन छाया पड़ी।
पल-पल मानांे बोलता है
हर पल नवरस घोलता है
एक संगीत गूंजता है
हास की वाणी बोलता है
दूरियां सिमटने लगीं
आहटें मिटने लगीं
सबका मन
प्रेम की बोली बोलता है
दिन-रात का भान न रहा
दिन में भी
चंदा चांदनी बिखेरने लगा
टिमटिमाने लगे तारे
रवि रात में भी घाम देने लगा
इन पलों का एहसास
शब्दातीत होने लगा
बस इतना ही
हां, प्रेम सच्चा रहे
हां, प्रेम सच्चा लगे
मन तो बहकेगा ही
कभी बादलों के बीच से झांकता है चांद।
न जाने किस आस में
तारे उसके आगे-पीछे घूम रहे,
तब रूप बदलने लगा ये चांद।
कुछ रंगीनियां बरसती हैं गगन से]
धरा का मन शोख हो उठा ।
तिरती पल्लवों पर लाज की बूंदे
झुकते हैं और धरा को चूमते हैं।
धरा शर्माई-सी,
आनन्द में
पक्षियों के कलरव से गूंजता है गगन।
अब मन तो बहकेगा ही
अब आप ही बताईये
क्या करें।
शुष्कता को जीवन में रोपते हैं
भावहीन मन,
उजड़े-बिखरे रिश्ते,
नेह के अभाव में
अर्थहीन जीवन,
किसी निर्जन वन-कानन में
अन्तिम सांसे गिन रहे
किसी सूखे वृक्ष-सा
टूटता है, बिखरता है।
बस
वृक्ष नहीं काटने,
वृक्ष नहीं काटने,
सोच-सोचकर हम
शुष्कता को जीवन में
रोपते रहते हैं।
रसहीन ठूंठ को पकड़े,
अपनी जड़ें छोड़ चुके,
दीमक लगी जड़ों को
न जाने किस आस में
सींचते रहते हैं।
समय कहता है,
पहचान कर
मृत और जीवन्त में।
नवजीवन के लिए
नवसंचार करना ही होगा।
रोपने होंगे नये वृ़क्ष,
जैसे सूखे वृक्षों पर फल नहीं आते
पक्षी बसेरा नहीं बनाते
वैसे ही मृत आकांक्षाओं पर
जीवन नहीं चलता।
भावुक न बन।
अन्तर्मन का पंछी
अन्तर्मन का पंछी
कब क्या बोले,
क्या जानें।
कुछ टुक-टुक
कुछ कुट-कुट
कुछ उलझे, कुछ सुलझे
किससे क्या कह डाले
कब क्या सुन ले
आैर किससे क्या कह डाले
क्या जानें।
यूं तो पोथी-पोथी पढ़ता
आैर बात नासमझों-सी करता।
कब किसका चुग्गा
चुग डाले
आैर कब
माणिक –मोती ठुकराकर चल दे
क्या जाने।
भावों की लेखी
लिख डाले
किस भाषा में
किन शब्दों में
न हम जानें।
शांति और सन्नाटा
हम अक्सर सन्नाटे और
शांति को एक समझ बैठते हैं।
शांति भीतर होती है,
और सन्नाटा !!
बाहर का सन्नाटा
जब भीतर पसरता है
बाहर से भीतर तक घेरता है,
तब तोड़ता है।
अन्तर्मन झिंझोड़ता है।
सन्नाटे में अक्सर
कुछ अशांत ध्वनियां होती हैं।
हवाएं चीरती हैं
पत्ते खड़खड़ाते हैं,
चिलचिलाती धूप में
बेवजह सनसनाती आवाज़ें,
लम्बी सूनी सड़कें
डराती हैं,
आंधियां अक्सर भीतर तक
झकझोरती हैं,
बड़ी दूर से आती हैं
कुत्ते की रोने की आवाज़ें,
बिल्लियां रिरियाती है।
पक्षियों की सहज बोली
चीख-सी लगने लगती है,
चेहरे बदनुमा दिखने लगते हैं।
हम वजह-बेवजह
अन्दर ही अन्दर घुटते हैं,
सोच-समझ
कुंद होने लगती है,
तब शांति की तलाश में निकलते हैं
किन्तु भीतर का सन्नाटा छोड़ता नहीं।
कोई न मिले
तो अपने-आपको
अपने साथ ही बांटिये,
अपने-आप से मिलिए,
लड़िए, झगड़िए, रूठिए,मनाईये।
कुछ खट्टा-मीठा, मिर्चीनुमा बनाईये
खाईए, और सन्नाटे को तोड़ डालिए।
चल आज लड़की-लड़की खेलें
चल आज लड़की-लड़की खेलें।
-
साल में
तीन सौ पैंसठ दिन।
कुछ तुम्हारे नाम
कुछ हमारे नाम
कुछ इसके नाम
कुछ उसके नाम।
रोज़ सोचना पड़ता है
आज का दिन
किसके नाम?
कुछ झुनझुने लेकर
घूमते हैं हम।
आम से खास बनाने की
चाह लिए
जूझते हैं हम।
समस्याओं से भागते
कुछ नारे
गूंथते हैं हम।
कभी सरकार को कोसते
कभी हालात पर बोलते
नित नये नारे
जोड़ते हैं हम।
हालात को समझते नहीं
खोखले नारों से हटते नहीं
वास्तविकता के धरातल पर
चलते नहीं
सच्चाई को परखते नहीं
ज़िन्दगी को समझते नहीं
उधेड़-बुन में लगे हैं
मन से जुड़ते नहीं
जो करना चाहिए
वह करते नहीं
बस बेचारगी का मज़ा लेते हैं
फिर आनन्द से
अगले दिन पर लिखने के लिए
मचलते हैं।
नारी स्वाधीनता की बात
मैं अक्सर
नारी स्वाधीनता की
बहुत बात करती हूँ।
रूढ़ियों के विरुद्ध
बहुत आलेख लिखती हूँ।
पर अक्सर
यह भी सोचती हूँ
कि समाज और जीवन की
सच्चाई से
हम मुँह तो मोड़ नहीं सकते।
जीवन तो जीवन है
उसकी धार के विपरीत
तो जा नहीं सकते।
वैवाहिक संस्था को हम
नकार तो नहीं सकते।
मानती हूँ मैं
कि नारी-हित में
शिक्षा से बड़ी कोई बात नहीं।
किन्तु परिवार को हम
बेड़ियाँ क्यों मानने लगे हैं
रिश्तों में हम
जकड़न क्यों महसूस करने लगे हैं।
पर्व-त्यौहार
क्यों हमें चुभने लगे हैं,
रीति-रिवाज़ों से क्यों हम
कतराने लगे हैं।
परिवार और शिक्षा
कोई समानान्तर रेखाएँ नहीं।
जीवन का आधार हैं ये
भरा-पूरा संसार हैं ये।
रूढ़ियों को हटायें
हाथ थाम आगे बढ़ाएँ।
जीवन को सरल-सुगम बनाएँ।
कुछ तो हुआ होगा
कुछ तो हुआ होगा
जो हाथों में मशालें उठीं
कुछ तो किया होगा
जो सड़कों पर आहें उगीं
कुछ तो जला होगा
जो नारों से गलियां गूंजीं
कुछ तो सहा होगा
जो शहर-शहर भीड़ उमड़ी
इतना आसान नहीं लगता मुझे
कि शहर-शहर
किसी एक बात को लेकर
किसी को यूं भड़काया जा सके
युवक ही नहीं
युवतियों को भी उकसाया जा सके
पुस्तकालयों में पढ़ते बच्चे
कैसे सड़कों पर आ बैठे
नहीं जानते हम, नहीं पढ़ते हम
नहीं समझते हम
सुनी-सुनाई, अधकचरी सूचनाओं से
भड़कते हम।
बस , कचरा परोसा जा रहा
गली-गली परनाले बहते
हम उसे उंडेल उंडेल कर
नाक सिकुड़ते, भौं मरोड़ते
सच्चाई के पीछे भागते
तो हाथ जलते
कहां से शुरू हो रहा
और कहां होगा अन्त
नहीं जानते हम।
कोशिश तो करते हैं
लिखने की
कोशिश तो करते हैं
पर क्या करें हे राम!
छुट्टी के दिन करने होते हैं
घर के बचे-खुचे कुछ काम।
धूप बुलाती आंगन में
ले ले, ले ले विटामिन डी
एक बजे तक सेंकते हैं
धूप जी-भरकर जी।
फिर करके भारी-भारी भोजन
लेते हैं लम्बी नींद जी।
संध्या समय
मंथन पढ़ते-पढ़ते ही
रह जाते हैं हम
जब तक सोंचे
कमेंट करें
आठ बज जाते हैं जी।
फिर भी
लिखने की
कोशिश तो करते हैं
पर क्या करें हे राम!
कानून तोड़ना अधिकार हमारा
अधिकारों की बात करें
कर्तव्यो का ज्ञान नहीं,
पढ़े-लिखे अज्ञानी
इनको कौन दे ज्ञान यहां।
कानून तोड़ना अधिकार हमारा।
पकड़े गये अगर
ले-देकर बात करेंगे,
फिर महफिल में बीन बजेगी
रिश्वतखोरी बहुत बढ़ गई,
भ्रष्टाचारी बहुत हो गये,
कैसे अब यह देश चलेगा।
आरोपों की झड़ी लगेगी,
लेने वाला अपराधी है
देने वाला कब होगा ?
दीप प्रज्वलित कर न पाई
मैं चाहकर भी
दीप प्रज्वलित कर न पाई।
घृत भी था, दीप भी था,
पर भाव ला न पाई,
मैं चाहकर भी
दीप प्रज्वलित कर न पाई।
लौ भीतर कौंधती थी,
सोचती रह गई,
समय कब बीत गया
जान ही न पाई।
मैं चाहकर भी
दीप प्रज्वलित कर न पाई।
मित्रों ने गीत गाये,
झूम-झूम नाचे गाये,
कहीं से आरती की धुन,
कहीं से ढोल की थाप
बुला रही थी मुझे
दुख मना रहे हैं या खुशियां
समझ न पाई।
कुछ अफ़वाहें
हवा में प्रदूषण फैला रही थी।
समस्या से जूझ रहे इंसानों को छोड़
धर्म-जाति का विष फैला रही थीं।
लोग सड़कों पर उतर आये,
कुछ पटाखे फोड़े,
पटाखों की रोशनाई
दिल दहला रहीं थी,
आवाज़ें कान फोड़ती थी।
अंधेरी रात में
दूर तक दीप जगमगाये,
पुलिस के सायरन की आवाज़ें
कान चीरती थीं।
दीप हाथ में था
ज्योति थी,
हाथ में जलती शलाका
कब अंगुलियों को छू गई
देख ही न पाई।
सीत्कार कर मैं पीछे हटी,
हाथ से दीप छूटा
भीतर कहीं कुछ और टूटा।
क्या कहूं , कैसे कहूं।
पर ध्यान कहीं और था।
घृत भी था, दीप भी था,
पर भाव ला न पाई,
मैं चाहकर भी
दीप प्रज्वलित कर न पाई।
उतर कभी धरा पर
अक्सर मन करता है
पूछूं चांद से
कहीं दूर
गगन में चमकता है
उतर कभी धरा पर
फिर देख कैसे
अंधेरा लीलता है,
भरपूर रोशनी में भी
कैसे अंधेरा बोलता है।
मुझको क्या करना है
मुझको कल पेपर देना है
कोई नकल करवा दे रे।
पढ़ते-पढ़ते सो जाती हूं,
कोई मुझको उठवा दे रे।
अंग्रेज, गणित भूगोल समझ न आये
कोई मुझको समझा दे रे।
नामों की सूची इतनी लम्बी
कोई तो मुझको याद करवा दे रे ।
क्या करना है मुझको
कि सूरज और चंदा कितनी दूर।
क्या करना है मुझको
कि दुनिया में कितने देश और कितनी दूर।
हे इन्द्र देवता
कल शहर में
भारी बारिश करवा दे रे।
जाम लगे और सड़कें बन्द हों,
पेपर रूकवा दे रे।
क्यों इतने युद्ध हुए
किसने करवाये
क्यों करवाये
कोई मुझको बतला दे रे।
पढ़-पढ़कर सर चकराता है
कोई मुझको
अदरक वाली चाय पिलवा दे रे।
जीवन के कितने पल
वियोग-संयोग भाग्य के लेखे
अपने-पराये कब किसने देखे
दुःख-सुख तो आने-जाने हैं
जीवन के कितने पल किसने देखे।