आसमान में छेद
पता नहीं कौन शायर कह गया
आसमां में छेद क्यों नहीं हो सकता
एक पत्थर तो तबीयत से उछाला होता यारो ।
पता नहीं किस युग का था वह शायर।
उछालकर देखा था क्या उसने कभी पत्थर।
बड़ा काम तो हम ज़िन्दगी में
कभी कर नहीं पाये
सोचा, चलो आज कुछ नया करते हैं
उस शायर की इच्छा पूरी करते हैं।
एक क्यों,
तबीयत से कई पत्थर उछालते हैं,
आसमान में एक नहीं
अनेक छेद करते हैं।
पर शायद
युग बदल गया था
या हमें
पत्थर उछालने का
तरीका पता नहीं था
हमने तो अभी बस
एक ही पत्थर उठाया था
उछालने की नौबत भी नहीं आई थी
सैंकड़ों पत्थर लौट आये हमारे पास।
लगता है
उस शायर का शेर
सबने पसन्द कर लिया है
और हमारी तरह
सभी पत्थर उछालने में लगे हैं
और हम तो
अपना ही सिर फोड़ने में लगे हैं।
अपनी-अपनी कयामत
किसी दिन।
आसमान टूट पड़े
धरती हिल जाये
सागर उफ़न पड़े
दुनिया डूबने लगे
शायद
इसे ही कहते हैं न कयामत।
नहीं रे !!
सबकी ज़िन्दगी की
अपनी-अपनी कयामत भी होती है।
न आसमान गिरता है
न धरा फ़टती है
न सागर सूखता है
फिर भी
आ जाती है कयामत।
कोई एक बात,
कोई एक शब्द, एक चुटकी,
एक कसक,
कोई नाराज़गी,
कुछ दूरियाॅं
कोई मन-मुटाव,
आॅंख-भर का इशारा
और हो जाती है कयामत।
जीवन पथ
जीवन पथ की क्या बात करें
कुछ कंकड़, कुछ पत्थर,
कुछ फूल बिछे, कुछ कांटे उलझे।
पग-पग पर थी बाधाएॅं
पग-पग पर द्वार उन्मुक्त मिले।
वादों की, बातों की धूम रही,
कुछ निभ गये, कुछ छूट गये।
अपनों की अपनों से बात हुई
कभी मन मिला, कभी बिखर गये।
जीवन तो चलता ही रहता है
कभी रुकते-रुकते, कभी भाग लिये।
कब कौन मिला, कितने छूट गये
याद नहीं अब, कितना तो भूल गये।
कितने कागज़ रंगीन हुए
कितनों पर स्याही बिखर गई,
कभी कुछ भी न लिख पाने की पीर हुई।
उलझी, बिखरी, खट्टी-मीठी
जैसी भी हैं
सब अपनी हैं,
टुकड़ों-टुकड़ों में बिखर गईं।
कहते हैं
हाथों की रेखाओं में
भाग्य लिखा रहता है
मुट्ठियां खोलीं
तो उलझी-उलझी सी महसूस हुईं।
कितने दिन बाकी हैं,
कितने बीत गये
सोच-सोचकर नहीं सोचती,
पर मन पर हावी हो गये।
खुशियों के पल
खुशियों के पल
बड़े अनमोल हुआ करते हैं।
पर पता नहीं
कैसे होते हैं,
किस रंग,
किस ढंग के होते हैं।
शायद अदृश्य
छोटे-छोटे होते हैं।
हाथों में आते ही
खिसकने लगते हैं
बन्द मुट्ठियों से
रिसने लगते हैं।
कभी सूखी रेत से
दिखते हैं
कभी बरसते पानी-सी
धरा को छूते ही
बिखर-बिखर जाते हैं।
कभी मन में उमंग,
कभी अवसाद भर जाते हैं।
पर कैसे भी होते हैं
पल-भर के भी होते हैं
जैसे भी होते हैं
अच्छे ही होते हैं।
मेरी ज़िन्दगी की हकीकत
क्या करोगे
मेरी ज़िन्दगी की हकीकत जानकर।
कोई कहानी,
कोई उपन्यास लिखना चाहोगे।
नहीं लिख पाओगे
बहुत उलझ जाओगे
इतने कथानक, इतनी घटनाएॅं
न जाने कितने जन्मों के किस्से
कहाॅं तक पढ़ पाओगे।
एक के ऊपर एक शब्द
एक के ऊपर एक कथा
नहीं जोड़-तोड़ पाओगे।
कभी देखा है
जब कलम की स्याही
चुक जाती है
तो हम बार-बार
घसीटते हैं उसे,
शायद लिख ले, लिख ले,
कोरा पृष्ठ फटने लगता है
उस घसीटने से,
फिर अचानक ही
कलम से ढेर-सी स्याही छूट जाती है,
सब काला,नीला, हरा, लाल
हो जाता है
और मेरी कहानी पूरी हो जाती है।
ओ नादान!
न समझ पाओगे तुम
इन किस्सों को।
न उलझो मुझसे।
इसलिए
रहने दो मेरी ज़िन्दगी की हकीकत
मेरे ही पास।
ये आंखें
ज़रा-ज़रा-सी बात पर बहक जाती हैं ये आंखें।
ज़रा-ज़रा-सी बात पर भर आती हैं ये आंखें।
मुझसे न पूछना कभी
आंखों में नमी क्यों है,
इनकी तो आदत ही हो गई है,
न जाने क्यों
हर समय तरल रहती हैं ये आंखें।
अच्छे-बुरे की समझ कहाॅं
इन आंखों को
बिन समझे ही बरस पड़ती हैं ये आंखें।
पता नहीं कैसी हैं ये आंखें।
दिल-दिमाग से ज़्यादा देख लेती हैं ये आंखें।
जो न समझना चाहिए
वह भी न झट-से समझ लेती हैं ये आंखें।
बहुत कोशिश करती हूॅं
झुकाकर रखूॅं इन आंखों को
न जाने कैसे खुलकर
चिहुॅंक पड़ती हैं ये आंखें।
किसी और को क्या कहूॅं,
ज़रा बचकर रहना,
आंखें तरेरकर
मुझसे ही कह देती हैं ये आंखें।
फूल खिलाए उपवन में
दो फूल खिलाए उपवन में
उपवन मेरा महक गया
.
फूलों पर तितली बैठी
मन में एक उमंग उठी
.
कुछ पात झरे उपवन में
धरा खुशियों से बहक उठी
.
कुछ भाव बने इकरार के
मन मेरा बिखर गया
.
सपनों में मैं जीने लगी
अश्रुओं से सपना टूट गया
.
कोई झाॅंक न ले मेरी आंखों में
आॅंखों को मैंने मूॅंद लिया।
.
कोई प्यार के बोल बोल गया
मानों जीवन में विष घोल गया।
.
जीवन का सबसे बड़ा झूठ लगा
कोई रिश्तों में मीठा बोल गया
मुस्कुराते हुए फूल
किसी ने कहा
कुछ कहते हैं मुस्कुराते हुए फूल।
न,न, बहुत कुछ कहते हैं
मुस्कुराते हुए फूल।
अब क्या बताएॅं आपको
दिल छीन कर ले जाते हैं
मुस्कुराते हुए फूल।
हम तो उपवन में
यूॅं ही घूम रहे थे
हमें रोककर बहुत कुछ बोले
मुस्कुराते हुए फूल।
ज़िन्दगी का पूरा दर्शन
समझा जाते हैं
ये मुस्कुराते हुए फूल।
कहते हैं
कांटों से नहीं तुम्हारा पाला पड़ा कभी
डालियों पर ही नहीं
ज़िन्दगी की गलियों में भी
कांटें छुपे रहते हैं फूलों के बीच।
यूॅं तो कहते हैं
हॅंस-बोलकर जिया करो
फूल-फूल की महक पिया करो,
किन्तु अवसर मिलते ही
चुभा जाते हैं कांटे कितने ही फूल।
चेतावनी भी दे जाते हैं
मुस्कुराते हुए फूल।
झरते हुए फूलों की पत्तियाॅं
मुस्कुरा-मुस्कुरा कर
कहती हैं,
देख लिया हमें
धरा पर मिट रहे हैं,
ध्यान रखना, बहुत धोखा देते हैं
मुस्कुराते हुए फूल।
वक्त के मरहम
कहने भर की ही बात है
कि वक्त के मरहम से
हर जख़्म भर जाया करता है।
ज़िन्दगी की हर चोट की
अपनी-अपनी पीड़ा होती है
जो केवल वही समझ पाता है
जिसने चोट खाई हो।
किन्तु, चोट
जितनी गहरी हो
वक्त भी
उतना ही बेरहम हो जाता है।
और हम इंसानों की फ़ितरत !
कुरेद-कुरेद कर
जख़्मों को ताज़ा बनाये रखते हैं।
पीड़ा का अपना ही
आनन्द होता है।
धागा प्रेम का
रहिमन धागा प्रेम का
कब का गया है टूट।
गांठें मार-मार,
रहें हैं रस्सियाॅं खींच।
रस्सियाॅं भी अब गल गईं
धागा-धागा बिखर रहा।
गांठों को सहेजकर
बंधे नहीं अब मन की डोर।
न जाने किस आस में
बैठे हाथों को जोड़।
जो छूट गया
उसे छोड़कर
अब तो आगे बढ़।
प्रेम-प्यार के किस्से
हो गये अब तो झूठ
हीर-रांझा, लैला-मजनूं
को जाओ अब तुम भूल।
रस्सियों का अब गया ज़माना
कसकर हाथ पकड़कर घूम।
जब से मुस्कुराना देखा हमारा
जब से मुस्कुराना देखा हमारा
न जाने क्यों आप चिन्तित दिखे
-
हमारे उपवन में फूल सुन्दर खिले
तुम्हारी खुशियों पर क्यों पाला पड़ा
-
चली थी चाॅंद-तारों को बांध मुट्ठी में मैं
तुम क्यों कोहरे की चादर लेकर चले
-
बारिश की बूंदों से आह्लादित था मेरा मन
तुम क्यों आंधी-तूफ़ान लेकर आगे बढ़े
-
भाग-दौड़ तो ज़िन्दगी में लगी रहती है
तुम क्यों राहों में कांटे बिछाते चले।
-
अब और क्या-क्या बताएॅं तुम्हें
-
हमने अपना दर्द छिपा लिया था
झूठी मुस्कुराहटों में
तुम कभी भी तो यह न समझ पाये।
ध्वनियां विचलित करती हैं मुझे
कुछ ध्वनियां
विचलित करती हैं मुझे
मानों
कोई पुकार है
कहीं दूर से
अपना है या अजनबी
नहीं समझ पाती मैं।
कोई इस पार है
या उस पार
नहीं परख पाती मैं।
शब्दरहित ये आवाजे़ं
भीतर जाकर
कहीं ठहर-सी जाती हैं
कोई अनहोनी है,
या किसी अच्छे पल की आहट
नहीं बता पाती मैं।
कुछ ध्वनियां
मेरे भीतर भी बिखरती हैं
और बाहर की ध्वनियों से बंधकर
एक नया संसार रचती हैं
अच्छा या बुरा
दुख या सुख
समय बतायेगा।
जीवन के नवीन रंग
प्रकृति
नित नये कलेवर में
अवतरित होती है
रोज़ बदलती है रंग।
कभी धूप
उदास सी खिलती है
कभी दमकती,
कभी बहकती-सी,
बादलों संग
लुका-छिपी खेलती।
बादल
अपने रंगों में मग्न
कभी गहरे कालिमा लिए,
कभी झक श्वेत,
आंखें चुंधिया जाते हैं।
और जब बरसते हैं
तो आंखों के मोती-से
मन भिगो-भिगो जाते हैं
कभी सतरंगी
ले आते हैं इन्द्रधनुष
नित नये रंगों संग
मन बहक-बहक जाता है।
प्रात में जब सूर्य-रश्मियां
नयनों में उतरती हैं
पंछियों का कलरव
नित नव संगीत रचता है,
तब हर दिन
जीवन नया-सा लगता है।
मधुर भावों की आहट
गुलाबी ठंड शीत की
आने लगी है।
हल्की-हल्की धूप में
मन लगता है,
धूप में नमी सुहाने लगी है।
कुहासे में छुपने लगी है दुनिया
दूर-दृष्टि गड़बड़ाने लगी है।
रेशमी हवाएं
मन को छूकर निकल जाती हैं
मधुर भावों की आहट
सपने दिखाने लगी है।
रातें लम्बी
दिन छोटे हो गये
नींद अब अच्छी आने लगी है।
चाय बनाकर पिला दे कोई,
इतनी-सी आस
सताने लगी है।
छिल जाती है कई ज़िन्दगियाॅं
कोई विशेष
वैज्ञानिक जानकारी तो नहीं मुझे,
पर सुना है
कि नसों, नाड़ियों में
रक्त बहता है,
हम देख नहीं सकते
बस एक अनुभव है
जानकारी मात्र।
कहते हैं,
जब व्यवधान आ जाता है
इन नसों, नाड़ियों में
तो वैसे ही साफ़ करवानी पड़ती हैं
ये नसें, नाड़ियाॅं
जैसे हमारे घरों की नालियाॅं ,
अन्तर बस इतना ही
कि घरों की
नालियों की सफ़ाई में
एक छोटा-सा मूल्य देना पड़ता है,
अन्यथा
और रास्ते भी निकल आते हैं प्रवाह के।
किन्तु जब रुकती हैं
देह की नसें, नाड़ियाॅं
तो छिल जाती है ज़िन्दगी
और
साथ जुड़ी कई ज़िन्दगियाॅं।
मैला मन में जमे
नसों-नाड़ियों में
या नालियों में,
समय रहते साफ़ करते रहें
नहीं तो
तो छिल जाती है ज़िन्दगी
और
साथ जुड़ी कई ज़िन्दगियाॅं।
शब्द अधूरे-से
प्रेम, प्यार
दो टूटू-फूटे-से शब्द
अधूरे-से लगते हैं।
पता नहीं क्यों
हम तरसते रहते हैं
इन अधूरे शब्दों को
पूरा करने के लिए
ज़िन्दगी-भर।
कहाॅं समझ पाता है कोई
हमारी भावनाओं को।
कहाॅं मिल पाता है कोई
जो इन
अधूरे शब्दों को
पूरा करने के लिए
अपना समर्पण दे।
यूॅं ही बीत जाती है
ज़िन्दगी।
जीना चाहती हूं
छोड़ आई हूं
पिछले वर्ष की कटु स्मृतियों को
पिछले ही वर्ष में।
जीना चाहती हूं
इस नये वर्ष में कुछ खुशियों
उमंग, आशाओं संग।
ज़िन्दगी कोई दौड़ नहीं
कि कभी हार गये
कभी जीत गये
बस मन में आशा लिए
भावनाओं का संसार बसता है।
जो छूट गया, सो छूट गया
नये की कल्पना में
अब मन रमता है।
द्वार खोल हवाएं परख रही हूं।
अंधेरे में रोशनियां ढूंढने लगी हूं।
अपने-आपको
अपने बन्धन से मुक्त करती हूं
नये जीवन की आस में
आगे बढ़ती हूं।
कल से डर-डरकर जीते हैं हम
आज को समझ नहीं पाते
और कल में जीने लगते हैं हम।
कल किसने देखा
कौन रहेगा, कौन मरेगा
कहां जान पाते हैं हम।
कल की चिन्ता में नींद नहीं आती
आज में जाग नहीं पाते हैं हम।
कल के दुख-सुख की चिन्ता करते
आज को पीड़ा से भर लेते हैं हम।
बोये तो फूलों के पौधे थे
पता नहीं फूल आयेंगे या कांटे
चिन्ता में
सर पर हाथ धरे बैठे रहते हैं हम।
धूप खिली है, चमक रही है चांदनी
फूलों से घर महक रहा
नहीं देखते हम।
कल किसी ने न देखा
पर कल से डर-डरकर जीते हैं हम।
.
कल किसी ने न देखा
लेकिन कल में ही जी रहे हैं हम।
झूठ न बोल
इतना बड़ा झूठ न बोल
कि याद नहीं अब कुछ
न जाने कितने जख़्म हैं
रिसते हैं
टीस देते हैं
कहीं दूर से पुकारते हैं
आंसू हम छिपाते हैं
डायरी के धुंधलाते पन्नों पर
उंगलियां घुमाते-घुमाते
कितने ही उपन्यास
भीतर लिखे जाते हैं।
अपने-आपको ही नकारते हैं
न जाने कैसे
ज़िन्दगी
जीते-जीते हार जाते हैं।
ज़िन्दगी की पूरी कहानी
लिखने को तो
ज़िन्दगी की
पूरी कहानी लिख दूं
दो शब्दों में।
लेकिन नयनों में आये भाव
तुम नहीं समझते।
चेहरे पर लिखीं
लकीरें तुम नहीं पढ़ते।
भावनाओं का ज्वार
तुम नहीं पकड़ते।
तो क्या आस करूं तुमसे
कि मेरी ज़िन्दगी की कहानी
दो शब्दों की ज़बानी
तुम कहां समझोगे।
मौसम बदलता है या मन
मौसम बदलता है या मन
समझ नहीं पाते हैं हम।
कभी शीत ऋतु में भी
मन चहकता है
कभी बसन्त भी
बहार लेकर नहीं आता।
ग्रीष्म में मन में
कोमल-कोमल भाव
करवट लेने लगते हैं
तब तपन का
एहसास नहीं होता
और शीत ऋतु में
मन जलता है।
मौसम बदलता है या मन
समझ नहीं पाते हैं हम।
बिखरती है ज़िन्दगी
अपनों के बीच
निकलती है ज़िन्दगी,
न जाने कैसे-कैसे
बिखरती है ज़िन्दगी।
बहुत बार रोता है मन
कहने को कहता है मन।
किससे कहें
कैसे कहें
कौन समझेगा यहां
अपनों के बीच
जब बीतती है ज़िन्दगी।
शब्दों को शब्द नहीं दे पाते
आंखों से आंसू नहीं बहते
किसी को समझा नहीं पाते।
लेकिन
जीवन के कुछ
अनमोल संयोग भी होते हैं
जब बिन बोले ही
मन की बातों को
कुछ गैर समझ लेते हैं
सान्त्वना के वे पल
जीवन को
मधुर-मधुर भाव दे जाते हैं।
अपनों से बढ़कर
अपनापन दे जाते हैं।
जीवन का गणित
बालपन से ही
हमें सिखा दी जाती हैं
जीवन जीने के लिए
अलग-अलग तरह की
न जाने कितनी गणनाएं,
जिनका हल
किसी भी गणित में
नहीं मिलता।
.
लेकिन ज़िन्दगी की
अपनी गणनाएं होती हैं
जो अक्सर हमें
समझ ही नहीं आतीं।
यहां चलने वाला
जमा-घटाव, गुणा-भाग
और न जाने कितने फ़ार्मूले
समझ से बाहर रहते हैं।
.
ज़िन्दगी
हमारे जीवन में
कब क्या जमा कर देगी
और कब क्या घटा देगी,
हम सोच ही नहीं सकते।
.
क्या ऐसा हो सकता है
कि गणित के
विषय को
हम जीवन से ही निकाल दें,
यदि सम्भव हो
तो ज़रूर बताना मुझे।
ज़िन्दगी के साथ एक और तकरार
अक्सर मन करता है
ज़िन्दगी
तुझसे शिकायत करुं।
न जाने कहां-कहां से
सवाल उठा लाती है
और मेरे जीने में
अवरोध बनाने लगती है।
जब शिकायत करती हूं
तो कहती है
बस
सवाल एक छोटा-सा था।
लेकिन,
तुम्हारा एक छोटा-सा सवाल
मेरे पूरे जीवन को
झिंझोड़कर रख देता है।
उत्तर तो बहुत होते हैं
मेरे पास,
लेकिन देने से कतराती हूं,
क्योंकि
तर्क-वितर्क
कभी ख़त्म नहीं होते,
और मैं
आराम से जीना चाहती हूं।
बस इतना समझ ले
ज़िन्दगी
तुझसे
हारी नहीं हूं मैं
इतनी भी बेचारी नहीं हूं मैं।
जीवन के पल
जीवन के
कितने पल हैं
कोई न जाने।
कर्म कैसे-कैसे किये
कितने अच्छे
कितने बुरे
कौन बतलाए।
समय बीत जाता है
न समझ में आता है
कौन समझाये।
सोच हमारी ऐसी
अब आपको
क्या-क्या बतलाएं।
न थे, न हैं, न रहेंगे,
जानते हैं
तब भी मन
चिन्तन करता है हरपल,
पहले क्या थे,
अब क्या हैं,
कल क्या होंगे,
सोच-सोच मन घबराये।
जो बीत गया
कुछ चुभता है
कुछ रुचता है।
जो है,
उसकी चलाचल
रहती है।
आने वाले को
कोई न जाने
बस कुछ सपने
कुछ अपने
कुछ तेरे, कुछ मेरे
बिन जाने, बिन समझे
जीवन
यूं ही बीता जाये।
कह रहा है आइना
कह रहा है आईना
ज़रा रंग बदलकर देख
अपना मन बदलकर देख।
देख अपने-आपको
बार-बार देख।
न देख औरों की नज़र से
अपने-आपको,
बस अपने आईने में देख।
एक नहीं
अनेक आईने लेकर देख।
देख ज़रा
कितने तेरे भाव हैं
कितने हैं तेरे रूप।
तेरे भीतर
कितना सच है
और कितना है झूठ।
झेल सके तो झेल
नहीं तो
आईने को तोड़कर देख।
नये-नये रूप देख
नये-नये भाव देख
साहस कर
अपने-आपको परखकर देख।
देख-देख
अपने-आपको आईने में देख।
ज़िन्दगी प्रश्न या उत्तर
जिन्हें हम
ज़िन्दगी के सवाल समझकर
उलझे बैठे रहते हैं
वास्तव में
वे सवाल नहीं होते
निर्णय होते हैं
प्रथम और अन्तिम।
ज़िन्दगी
आपसे
न सवाल पूछती है
न किसी
उत्तर की
अपेक्षा लेकर चलती है।
बस हमें समझाती है
सुलझाती है
और अक्सर
उलझाती भी है।
और हम नासमझ
अपने को
कुछ ज़्यादा ही
बुद्धिमान समझ बैठे हैं
कि ज़िन्दगी से ही
नाराज़ बैठे हैं।
खेल दिखाती है ज़िन्दगी
क्या-क्या खेल दिखाती है ज़िन्दगी।
कभी हरी-भरी,
कभी तेवर दिखाती है ज़िन्दगी।
कभी दौड़ती-भागती,
कभी ठहरी-ठहरी-सी लगती है ज़िन्दगी।
कभी संवरी-संवरी,
कभी बिखरी-बिखरी-सी लगती है जिन्दगी।
स्मृतियों के सागर में उलझाकर,
भटकाती भी है ज़िन्दगी।
हँसा-हँसाकर खूब रुलाती है ज़िन्दगी।
पथरीली राहों पर चलना सिखाती है ज़िन्दगी।
एक गलत मोड़, एक अन्त का संकेत
दे जाती है ज़िन्दगी।
आकाश और धरा एक साथ
दिखा जाती है ज़िन्दगी।
कभी-कभी ठोकर मारकर
गिरा भी देती है ज़िन्दगी।
समय कटता नहीं,
अब घड़ी से नहीं चलती है ज़िन्दगी।
अपनों से नेह मिले
तो सरस-सरस-सी लगती है ज़िन्दगी।
डगमगाये नहीं कदम कभी
डगमगाये नहीं कदम कभी!!!
.
कैसे, किस गुरूर में
कह जाते हैं हम।
.
जीवन के टेढ़े-मेढ़े रास्ते
मन पर मौसम की मार
सफ़लता-असफ़लता की
सीढ़ियों पर चढ़ते-उतरते
अनचाही अव्यवस्थाएँ
गलत मोड़ काटते
अनजाने, अनचाहे गतिरोध
बन्द गलियों पर रुकते
लौट सकने के लिए
राहें नहीं मिलतीं।
भटकन कभी नहीं रुकती।
ज़िन्दगी निकल जाती है
नये रास्तों की तलाश में।
.
कैसे कह दूँ
डगमगाये नहीं कदम कभी!!!
दिल का दिन
हमें
रचनाकारों से
ज्ञात हुआ
दिल का भी दिन होता है।
असमंजस में हैं हम
अपना दिल देखें
या सामने वाले का टटोलें।
एक छोटे-से दिल को
रक्त के आवागमन से
समय नहीं मिलता
और हम, उस पर
पता नहीं
क्या-क्या थोप देते हैं।
हर बात हम दिल के नाम
बोल देते हैं।
अपना दिल तो आज तक
समझ नहीं आया
औरों के दिलों का
पूरा हिसाब रखते हैं।
दिल टूटता है
दिल बिखरता है
दिल रोता है
दिल मसोसता है
दिल प्रेम-प्यार के
किस्से झेलता है।
विरह की आग में
तड़पता है
जलता है दिल
भावों में भटकता है दिल
सपने भी देखता है
ईष्र्या-द्वेष से भरा यह दिल
न जाने
किन गलियों में भटकता है।
तूफ़ान उठता है दिल में
ज्वार-भाटा
उछालें मारता है।
वैसे कभी-कभी
हँसता-गाता
गुनगुनाता, खिलखिलाता
मस्ती भी करता है।
कैसा है यह दिल
नहीं सम्हलता है।
और इतने बोझ के बाद
जब रक्त वाहिनियों में
रक्त जमता है
तब दिमाग खनकता है।
यार !
जिसे ले जाना है
ले जाओ मेरा दिल
हम
बिना दिल ही
चैन की नींद सो लेंगे।