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बस जीवन बीता जाता है

 

सब जीवन बीता जाता है ।

कुछ सुख के कुछ दुख के

पल आते हैं, जाते हैं,

कभी धूप, कभी झड़़ी ।

कभी होती है घनघोर घटा,

तब भी जीवन बीता जाता है ।

कभी आस में, कभी विश्‍वास में,

कभी घात में, कभी आघात में,

बस जीवन बीता जाता है ।

हंसते-हंसते आंसू आते,

रोते-रोते खिल-खिल करते ।

चढ़़ी धूप में पानी गिरता,

घनघोर घटाएं मन आतप करतीं ।

फिर भी जीवन बीता जाता है ।

नित नये रंगों से जीवन-चित्र संवरता

बस यूं ही जीवन बीता जाता है ।

 

एक अपनापन यूं ही

सुबह-शाम मिलते रहिए

दुआ-सलाम करते रहिए

बुलाते रहिए अपने  घर

काफ़ी-चाय पिलाते रहिए

न स्वर्ण रहा न स्वर्णाभा रही

कुन्दन अब रहा किसका मन

बहके-बहके हैं यहां कदम

न स्वर्ण रहा न स्वर्णाभा रही

पारस पत्थर करता है क्रन्दन

एक ज्योति

रातें

सदैव काली ही होती हैं

किन्तु उनके पीछे

प्रकाशमान होती है

एक ज्योति

राहें आलोकित करती

पथ प्रदर्शित करती

उभरती हैं किरणें

धीरे-धीरे

एक चक्र तैयार करतीं

हमारे हृदय में

दिव्य आभा का संचार करतीं

जीवनामृत प्रदान करतीं।

बताते हैं क्या कीजिए

सुना है ज्ञान, ध्यान, स्नान एक अनुष्ठान है, नियम, काल, भाव से कीजिए

तुलसी-नीम डालिए, स्वच्छ जल लीजिए, मंत्र पढ़िए, राम-राम कीजिए।।

शून्य तापमान, शीतकाल, शीतल जल, काम इतना कीजिए बस चुपचाप

चेहरे को चमकाईए, क्रीम लगाईए, और हे राम ! हे राम ! कीजिए ।।

मन के मन्दिर ध्वस्त हुए हैं

मन के मन्दिर ध्वस्त हुए हैं,नव-नव मन्दिर गढ़ते हैं

अरबों-खरबों की बारिश है,धर्म के गढ़ फिर सजते हैं

आज नहीं तो कल होगा धर्मों का कोई नाम नया होगा

आयुधों पर बैठे हम, कैसी मानवता की बातें करते हैं

 

जीवन यूं ही चलता है

पीतल की एक गगरी होती

मुस्कानों की नगरी होती

सुबह शाम की बात यह होती

जल-जीवन की बात यह होती

जीवन यूं ही चलता है

कुछ रूकता है, कुछ बहता है

धूप-छांव सब सहता है।

छोड़ो राहें मेरी

मां देखती राह,

मुझको पानी लेकर

जल्दी घर जाना है

न कर तू चिन्ता मेरी

जीवन यूं ही चलता है

सहज-सहज सब लगता है।

कभी हंसता है, कभी सहता है।

न कर तू चिन्ता मेरी।

सहज-सहज सब लगता है।

 

बस बातें करने में उलझे हैं हम

किस विवशता में कौन है, कहां है, कब समझे हैं हम।

दिखता कुछ और, अर्थ कुछ और, नहीं समझे हैं हम।

मां-बेटे-से लगते हैं, जीवनगत समस्याओं में उलझे,

नहीं इनका मददगार, बस बातें करने में उलझे हैं हम।

 

मर्यादाओं की चादर ओढ़े

मर्यादाओं की चादर में लिपटी खड़ी है नारी

न इधर राह न उधर राह, देख रही है नारी

किसको पूछे, किससे  कह दे मन की व्यथा

फ़टी-पुरानी, उधड़ी चादर ओढ़े खड़ी है नारी

यह जीवन है

कुछ गांठें जीवन-भर

टीस देती हैं

और अन्‍त में

एक बड़ी गांठ बनकर

जीवन ले लेती हैं।

जीवन-भर

गांठों को उकेरते रहें

खोलते

या किसी से

खुलवाते रहें,

बेहिचक बांटते रहें

गांठों की रिक्‍तता,

या उनके भीतर

जमा मवाद उकेरते रहें,

तो बड़ी गांठें नहीं लेंगी जीवन

नहीं देंगी जीवन-भर का अवसाद।

आज़ादी की क्या कीमत

कहां समझे हम आज़ादी की क्या कीमत होती है।

कहां समझे हम बलिदानों की क्या कीमत होती है।

मिली हमें बन्द आंखों में आज़ादी, झोली में पाई हमने

कहां समझे हम राष्ट््भक्ति की क्या कीमत होती है।

 

चांद मानों मुस्कुराया

चांद मानों हड़बड़ाया

बादलों की धमक से।

सूरज की रोशनी मिट चुकी थी,

चांद मानों लड़खड़ाया

अंधेरे की धमक से।

लहरों में मची खलबली,

देख तरु लड़खड़ाने लगे।

जल में देख प्रतिबिम्ब,

चांद मानों मुस्कुराया

अपनी ही चमक से।

अंधेरों में भी रोशनी होती है,

चमक होती है, दमक होती है,

यह समझाया हमें चांद ने

अपनेपन से  मनन  से ।

कहां गई वह गिद्ध-दृष्टि

बने बनाये मुहावरों के फेर में पड़कर हम यूं ही गिद्धों को नोचने में लगे हैं

पर्यावरणिकों से पूछिये ज़रा, गिद्धों की कमी से हम भी तो मरने लगे हैं

कहां गई हमारी वह गिद्ध-दृष्टि जो अच्छे और बुरे को पहचानती थी

स्वच्छता-अभियान के इस महानायक को हम यूं ही कोसने में लगे हैं

अजीब होती हैं  ये हवाएँ भी

अजीब होती हैं

ये हवाएँ भी।

बहुत रुख बदलती हैं

ये हवाएँ भी।

फूलों से गुज़रती

मदमाती हैं

ये हवाएँ भी।

बादलों संग आती हैं

तो झरती-झरती-सी लगती हैं

ये हवाएँ भी।

मन उदास हो तो

सर्द-सर्द लगती हैं

ये हवाएँ भी।

और जब मन में झड़ी हो

तो भिगो-भिगो जाती हैं

ये हवाएँ भी।

क्रोध में बहुत बिखरती हैं

ये हवाएँ भी।

सागर में उठते बवंडर-सा

भीतर ही भीतर

सब तहस-नहस कर जाती हैं

ये हवाएं भी।

इन हवाओं से बचकर रहना

बहुत आशिकाना होती हैं

ये हवाएँ भी।

 

मेरे देश को रावणों की ज़रूरत है

मेरे देश को रावणों की ज़रूरत है।

चौराहे पर रीता, बैठक में मीता

दफ्तर में नीता, मन्दिर में गीता

वन वन सीता,

कहती है

रावण आओ, मुझे बचाओ

अपहरण कर लो मेरा

अशोक वाटिका बनवाओ।

 

ऋषि मुनियों की, विद्वानों की

बलशाली बाहुबलियों की

पितृभक्तों-मातृभक्तों की

सत्यवादी, मर्यादावादी, वचनबद्धों की

अगणित गाथाएं हैं।

वेद-ज्ञाता, जन-जन के हितकारी

धर्मों के नायक और गायक

भीष्म प्रतिज्ञाधारी, राजाज्ञा के अनुचारी

धर्मों के गायक और नायक

वचनों से भारी।

कर्म बड़े हैं, धर्म बड़े हैं

नियम बड़े हैं, कर्म बड़े हैं।

नाक काट लो, देह बांट लो

संदेह करो और त्याग करो।

वस्त्र उतार लो, वस्त्र चढ़ा दो।

श्रापित कर दो, शिला बना दो।

मुक्ति दिला दो। परीक्षा ले लो।

कथा बना लो।चरित्र गिरा दो।

 

देवी बना दो, पूजा कर लो

विसर्जित कर दो।

हरम सजा लो, भोग लगा लो।

नाच नचा लो, दुकान सजा लो।

भाव लगा लो। बेचो-बेचो और खरीदो।

बलात् बिठा लो, बलात् भगा लो।

मूर्ख बहुत था रावण।

जीत चुका था जीवन ,हार चुकी थी मौत।

विश्व-विजेता, ज्ञानी-ध्यानी

ऋद्धि-सिद्धि का स्वामी।

 

न चेहरा देखा, न स्पर्श किया।

पत्नी बना लूं, हरम सजा लूं

दासी बना लूं

बिना स्वीकृति कैसे छू लूं

सोचा करता था रावण।

मूर्ख बहुत था रावण।

 

सुरक्षा दी, सुविधाएं दी

इच्छा पूछी, विनम्र बना था रावण।

दूर दूर रहता था रावण।

मूर्ख बहुत था रावण।

 

धर्म-विरोधी, काण्ड-विरोधी

निर्मम, निर्दयी, हत्यारा,

असुर बुद्धि था रावण।

पर औरत को औरत माना

मूर्ख बहुत था रावण।

 

अपमान हुआ था एक बहन का

था लगाया दांव पर सिहांसन।

राजा था, बलशाली था

पर याचक बन बैठा था रावण

मूर्ख बहुत था रावण।

आवागमन में बीत जाता है सारा जीवन

झुलसते हैं पांव, सीजता है मन, तपता है सूरज, पर प्यास तो बुझानी है

न कोई प्रतियोगिता, न जीवटता, विवशता है हमारी, बस इतनी कहानी है

इसी आवागमन में बीत जाता है सारा जीवन, न कोई यहां समाधान सुझाये

और भी पहलू हैं जिन्दगी के, न जानें हम, बस इतनी सी बात बतानी है

प्रकृति का सौन्दर्य निरख

सांसें

जब रुकती हैं,

मन भीगता है,

कहीं दर्द होता है,

अकेलापन सालता है।

तब प्रकृति

अपने अनुपम रूप में

बुलाती है

समझाती है,

खिलते हैं फूल,

तितलियां पंख फैलाती हैं,

चिड़िया चहकती है,

डालियां

झुक-झुक मन मदमाती हैं।

सब कहती हैं

समय बदलता है।

धूप है तो बरसात भी।

आंधी है तो पतझड़ भी।

सूखा है तो ताल भी।

मन मत हो उदास

प्रकृति का सौन्दर्य निरख।

आनन्द में रह।

 

नभ से झरते रंगों में

पत्तों पर बूंदें टिकती हैं कोने में रूकती हैं,  फिर गिरती हैं

मानों रूक-रूक कर कुछ सोच रही, फिर आगे बढ़ती हैं

नभ से झरते रंगों की रंगीनियों में सज-धज कर बैठी हैं ज्‍यों

पल-भर में आती हैं, जाती हैं, मैं ढूंढ रही, कहां खो जाती हैं

चिंगारी दर चिंगारी सुलगती

अच्छी नहीं लगती

घर के किसी कोने में

चुपचाप जलती अगरबत्ती।

मना करती थी मेरी मां

फूंक मारकर बुझाने के लिए

अगरबत्ती।

मुंह की फूंक से

जूठी हो जाती है।

हाथ की हवा देकर

बुझाई जाती है अगरबत्ती।

डब्बी में सहेजकर

रखी जाती है अगरबत्ती।

खुली नहीं छोड़ी जाती

उड़ जायेगी खुशबू

टूट जायेगी

टूटने नहीं देनी है अगरबत्ती।

क्योंकि सीधी खड़ी कर

लपट दिखाकर

जलानी होती है अगरबत्ती।

लेकिन जल्दी चुक जाती है

मज़ा नहीं देती

लपट के साथ जलती अगरबत्ती।

फिर गिर जाये कहीं

तो सब जला देगी अगरबत्ती।

इसलिए

लपट दिखाकर

अदृश्य धुएं में लिपटी

चिंगारी दर चिंगारी सुलगती

किसी कोने में सजानी होती है अगरबत्ती।

रोज़ डांट खाती हूं मैं।

लपट सहित जलती

छोड़ देती हूं अगरबत्ती।

झूला झुलाये जिन्‍दगी

कहीं झूला झुलाये जिन्‍दगी

कभी उपर तो कभी नीचे

लेकर आये जिन्‍दगी

रस्सियों पर झूलती

दूर से तो दिखती है

आनन्‍द देती जिन्‍दगी

बैठना कभी झूले पर

आकाश और  धरा

एक साथ दिखा देती है जिन्‍दगी

कभी हाथ छूटा, कभी तार टूटी

तो दिन में ही

तारे दिखा देती है जिन्‍दगी

सम्‍हलकर बैठना जरा

कभी-कभी सीधे

उपर भी ले जाती है जिन्‍दगी

 

 

विश्वास का धागा

 भाई-बहन का प्यार है राखी

रिश्तों की मधुर सौगात है राखी

विश्वास का एक धागा होता है

अनुपम रिश्तों का आधार है राखी

आंखें फ़ेर लीं

अपनों से अपनेपन की चाह में

जीवन-भर लगे रहे हम राह में

जब जिसने चाहा आंखें फ़ेर लीं

कहीं कोई नहीं था हमारी परवाह में

चिड़िया फूल रंग और मन

 

चिड़िया की कुहुक-कुहुक, फूलों की महक-महक

राग बजे मधुर-मधुर, मन गया बहक-बहक

सरगम की तान छिड़ी, साज़ बजे, राग बने

सतरंगी आभा छाई , ताल बजे ठुमुक-ठुमुक