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चल न मन,पतंग बन

आकाश छूने की तमन्ना है

पतंग में।

एक पतली सी डोर के सहारे

यह जानते हुए भी

कि कट सकती है,

फट सकती है,

लूट ली जा सकती है

तारों में उलझकर रह सकती है

टूटकर धरा पर मिट्टी में मिल सकती है।

किन्तु उन्मुक्त गगन

जीवन का उत्साह

खुली उड़ान,

उत्सव का आनन्द

उल्लास और उमंग।

पवन की गति,

कुछ हाथों की यति

रंगों की मति

राहें नहीं रोकते।

  *    *    *    *

चल न मन,

पतंग बन।

जीवन अंधेरे और रोशनियों के बीच

अंधेरे को चीरती

ये झिलमिलाती रोशनियां,

अनायास,

उड़ती हैं

आकाश की ओर।

एक चमक और आकर्षण के साथ,

कुछ नये ध्वन्यात्मक स्वर बिखेरतीं,

फिर लौट आती हैं धरा पर,

धीरे-धीरे सिमटती हैं,

एक चमक के साथ,

कभी-कभी

धमाकेदार आवाज़ के साथ,

फिर अंधेरे में घिर जाती हैं।

 

जीवन जब

अंधेरे और रोशनियों में उलझता है,

तब चमक भी होती है,

चिंगारियां भी,

कुछ मधुर ध्वनियां भी

और धमाके भी,

आकाश और धरा के बीच

जीवन ऐसे ही चलता है।

 

वनचर इंसानों के भीतर

कहते हैं

प्रकृति स्वयंमेव ही

संतुलन करती है।

रक्षक-भक्षक स्वयं ही

सर्जित करती है।

कभी इंसान

वनचर था,

हिंसक जीवों के संग।

फिर वन छूट गये

वनचरों के लिए।

किन्तु समय बदला

इंसान ने छूटे वनों में

फिर बढ़ना शुरु कर दिया

और अपने भीतर भी

बसा लिए वनचर ।

और वनचर शहरों में दिखने लगे।

कुछ स्वयं आ पहुंचे

और कुछ को हम ले आये

सुरक्षा, मनोरजंन के लिए।

.

अब प्रतीक्षा करते हैं

इंसान फिर वनों में बसता है

या वनचर इंसानों के भीतर।

  

कहते हैं

प्रकृति स्वयंमेव ही

संतुलन करती है।

रक्षक-भक्षक स्वयं ही

सर्जित करती है।

कभी इंसान

वनचर था,

हिंसक जीवों के संग।

फिर वन छूट गये

वनचरों के लिए।

किन्तु समय बदला

इंसान ने छूटे वनों में

फिर बढ़ना शुरु कर दिया

और अपने भीतर भी

बसा लिए वनचर ।

और वनचर शहरों में दिखने लगे।

कुछ स्वयं आ पहुंचे

और कुछ को हम ले आये

सुरक्षा, मनोरजंन के लिए।

.

अब प्रतीक्षा करते हैं

इंसान फिर वनों में बसता है

या वनचर इंसानों के भीतर।

  

पवित्रता के  मापदण्ड

पवित्रता के

मापदण्ड होते हैं

कहीं कम

कहीं ज़्यादा होते हैं।

लेकिन हर

किसी के लिए

नहीं होते हैं।

फिर

तोलते हैं

न जाने

किस तराजू में

हर बार

नये-नये माप

और दण्ड होते हैं।

जानती हूँ

अधिकांश को

मेरी यह बात

समझ नहीं आई होगी

क्योंकि

युगों-युगों से

बन रहे

इन माप और दण्डों को

आज तक

कौन समझ पाया है

जिसके माथे जड़े हैं

वह भी

वास्तविकता

कहाँ जान पाया है।

 

बस नेह की धरा चाहिए

यहां पत्थरों में फूल खिल रहे हैं
और वहां
देखो तो
इंसान पत्थर दिल हुए जा रहे हैं।
बस !!
एक बुरी-सी बात कह कर
ले ली न वाह –वाह !!!
अभी तो
पूरी भी नहीं हुई
मेरी बात
और  आपने
पता नहीं क्या-क्या सोच लिया।
कहां हैं इंसान पत्थर दिल
नहीं हैं इंसान पत्थर दिल
दिलों में भी फूल खिलते हैं
फूल क्या पूरे बाग-बगीचे
महकते हैं
बस नेह की धरा चाहिए
अपनेपन की पौध डालिये
विश्चवास के नीर से सींचिए
थोड़ी देख-भाल कीजिए
प्यार-मनुहार से संवारिये

फिर देखिये
पत्थर भी पिघलेंगे
पत्थरों में भी फूल खिलेंगे।
पर इंसान नहीं हैं
पत्थर दिल !!!!
 

अंदाज़ उनका

उलझा कर गया अंदाज़ उनका

बहका कर गया अंदाज़ उनका

अंधेरे में रोशनियाँ हैं चमक रही

पराया कर गया अंदाज़ उनका

जब मूक रहे तब मूर्ख कहलाये

जब मूक रहे तब मूर्ख कहलाये

बोले तो हम बड़बोले बन जायें

यूं ही क्यों चिन्तन करता रे मन !

जिसको जो कहना है कहते जायें

मेरा क्रोध

मेरा क्रोध

एक सरल सहज अनुभूति है

मान क्‍यों नहीं लेते तुम

 

खुशियों की कोई उम्र नहीं होती

उम्र का तकाज़ा मत देना मुझे,

कि जी चुके अपनी ज़िन्दगी,

अब भगवान-भजन के दिन हैं।

 

जीते तो हैं हम,

पर वास्तव में

ज़िन्दगी शुरु कब होती है,

कहां समझ पाते हैं हम।

कर्म किये जा, कर्म किये जा,

बस कर्म किये जा।

जीवन के आनन्द, खुशियों को

एक झोले में समेटते रहते हैं,

जब समय मिलेगा

भोग लेंगे।

और किसी खूंटी पर टांग कर

अक्सर भूल जाते हैं।

और जब-जब झोले को

पलटना चाहते हैं,

पता लगता है,

खुशियों की भी

एक्सपायरी डेट होती है।

 

या फिर,

फिर कर्मों की सूची

और उम्र का तकाज़ा मिलता है।

 

पर खुशियों की कोई उम्र

 नहीं होती,

बस जीने का सलीका आना चाहिए।

 

खुशियां अर्जित कर ले

परेशानियों की गठरी बांध गंगा में विसर्जित कर दे

व्याकुलताओं को कांट छांट गंगा में विसर्जित कर दे

कुछ देर के लिए छोड़ कर तो देख जिन्दगी के पचड़े

जो मन में आये कर, छोटी छोटी खुशियां अर्जित कर ले।

 

और भर दे पिचकारी में

शब्दों में नवरस घोल और भर दे पिचकारी में
स्नेह की बोली बोल और भर दे पिचकारी में
आशाओं-विश्वासों के रंग बना, फिर जल में डाल
इस रंग को रिश्तों में घोल और भर दे पिचकारी में
मन की सारी बातें खोल और भर दे पिचकारी में
मन की बगिया में फूल खिला, और भर दे पिचकारी में
अगली-पिछली भूल, नये भाव जगा,और भर दे पिचकारी में
हंसी-ठिठोली की महफिल रख और भर दे पिचकारी में
सब पर रंग चढ़ा, सबके रंग उड़ा, और भर दे पिचकारी में
मीठे में मिर्ची डाल, मिर्ची में मीठा घोल और भर दे पिचकारी में
इन्द्रधनुष को रोक, रंगों के ढक्कन खोल और भर दे पिचकारी में
मीठा-सा कोई गीत सुना, नई धुन बना और भर दे पिचकारी में

भावों के तार मिला, सुर सजा और भर दे पिचकारी में
तारों की झिलमिल, चंदा की चांदनी धरा पर ला और भर दे पिचकारी में
बच्चे की किलकारी में चिड़िया की चहक मिला और भर  दे पिचकारी में
छन्द की चिन्ता छोड़, टूटा फूटा जोड़ और भर दे पिचकारी में
मात्राओं के बन्धन तोड़, कर ले तू भी होड़ और भर दे पिचकारी में
भावों के तार मिला, सुर सजा और भर दे पिचकारी में
तारों की झिलमिल, चंदा की चांदनी धरा पर ला और भर दे पिचकारी में
बच्चे की किलकारी में चिड़िया की चहक मिला और भर  दे पिचकारी में
इतना ही सूझा है जब और सूझेगा तब फिर भर दूंगी पिचकारी में

 

अठखेलियां करते बादल

आकाश में अठखेलियां करते देखो बादल

ज्‍यों मां से हाथ छुड़ाकर भागे देखो बादल

डांट पड़ी तो रो दिये, मां का आंचल भीगा

शरारती-से, जाने कहां गये ज़रा देखो बादल

बाल-मन की बात

हाथ जोड़कर तुम क्या मांग रहे मुझको कुछ भी नहीं पता
बैठा था गर्मी की छुट्टी की आस में, क्या की थी मैंने खता
मैं तो बस मांगूं एक टी.वी., एक पी.सी, एक आई फोन 6
और मांगू, गुम हो जाये चाबी स्कूल की, और मेरा बस्ता

वास्तविकता से परे

किसका संधान तू करने चली

फूलों से तेरी कमान सजी

पर्वतों पर तू दूर खड़ी

अकेली ही अकेली

किस युद्ध में तू तनी

कौन-सा अभ्यास है

क्या यह प्रयास है

इस तरह तू क्यों है सजी

वास्तविकता से परे

तेरी यह रूप सज्जा

पल्लू उड़ रहा, सम्हाल

बाजूबंद, करघनी, गजरा

मांगटीका लगाकर यूँ कैसे खड़ी

धीरज से कमान तान

आगे-पीछे  देख-परख

सम्हल कर रख कदम

आगे खाई है सामने पहाड़

अब गिरी, अब गिरी, तब गिरी

या तो वेश बदल या लौट चल।

 

काश! यह दुनिया कोई सपना होती

काश!

यह दुनिया कोई सपना होती,

न तेरी होती न मेरी होती।

न किस्से होते

न कोई कहानी होती।

न झगड़ा, न लफ़ड़ा।

न मेरा न तेरा,

ये दुनिया कितनी अच्छी होती।

न जात-पात,

न धर्म-कर्म, न भेद-भाव।

आकाश भी अपना,

जमीन भी अपनी होती,

बहक-बहक कर,

चहक-चहक कर,

दिन-भर मीठे गीत सुनाते।

रात-रात भर

तारों संग

टिम-टिम-टिम-टिम घूमा करते,

सबका अपना चंदा होता,

चांदनी से न कोई शिकायत  होती।

सब कुछ अपना-अपना लगता।

काश!

यह दुनिया कोई सपना होती,

न तेरी होती न मेरी होती।

 

 

 

मत विश्वास कर परछाईयों पर

कौन  कहता है दर्पण सदैव सच बताता है

हम जो देखना चाहें अक्सर वही दिखाता है

मत विश्वास कर इन परछाईयों-अक्सों पर

बायें को दायां और दायें को बायां बताता है

सच्चाई से भाग रहे

मुख देखें बात करें।

सुख देखें बात करें।

सच्चाई से भाग रहे,

धन देखें बात करें।

मुखौटे चढ़ाए बेधड़क घूमते हैं

अब

मुखौटे हाथ में लिए घूमते हैं।

डर नहीं रह गया अब,

कोई खींच के उतार न दे मुखौटा

और कोई देख न ले असली चेहरा

तो, कहां छिपते फिरेंगे।

मुखौटों की कीमत पहले भी थी

अब भी है।

फ़र्क बस इतना है

कि अब खुलेआम

बोली लगाये घूमते हैं।

मुखौटे हाथ में लिए घूमते हैं।

बेचते ही नहीं,

खरीदते भी हैं ।

और ज़रूरत आन पड़े

तो बड़ों बड़ों के मुखौटे

अपने चेहरे पर चढ़ाए

बेधड़क घूमते हैं।

किसी का भी चेहरा नोचकर

उसका मुखौटा बना

अपने चेहरे पर

चढ़ाए घूमते हैं।

जो इन मुखौटों से मिल सकता है

वह असली चेहरा कहां दे पाता कीमत

इसलिए

अपना असली चेहरा  

बगल में दबाये घूमते हैं।

जीवन संवर-संवर जाता है

बादलों की ओट से

निरखता है सूरज।

बदलियों को

रँगों से भरता

ताक-झाँक

करता है सूरज।

सूरज से रँग बरसें

हाथों में थामकर

जीवन को रंगीन बनायें।

लहरें रंग-बिरँगी

मानों कोई स्वर-लहरी

जीवन-संगीत संवार लें।

जब मिलकर हाथ बंधते हैं

तब आकाश

हाथों में ठहर-ठहर जाता है।

अंधेरे से निपटते हैं

जीवन संवर-संवर जाता है।

 

जब एक तिनका फंसता है

दांत में

जब एक तिनका फंस जाता है

हम लगे रहते हैं

जिह्वा से, सूई से,

एक और तिनके से

उसे निकालने में।

 

किन्तु , इधर

कुछ ऐसा फंसने लगा है गले में

जिसे, आज हम

देख तो नहीं पा रहे हैं,

जो धीरे-धीरे, अदृश्य,

एक अभेद्य दीवार बनकर

घेर रहा है हमें चारों आेर से।

और हम नादान

उसे दांत का–सा तिनका समझकर

कुछ बड़े तिनकों को जोड़-जोड़कर

आनन्दित हो रहे हैं।

किन्तु बस

इतना ही समझना बाकी रह गया है

कि जो कृत्य हम कर रहे हैं

न तो तिनके से काम चलने वाला है

न सूई से और न ही जिह्वा से।

सीधे झाड़ू ही फ़िरेगा

हमारे जीवन के रंगों पर।

 

ठिठुरी ठिठुरी धूप है कुहासे से है लड़ रही

ठिठुरी ठिठुरी धूप है, कुहासे से है लड़ रही

भाव भी हैं सो रहे, कलम हाथ से खिसक रही

दिन-रात का भाव एकमेक हो रहा यहां देखो

कौन करे अब काम, इस बात पर चर्चा हो रही

अच्छा ही हुआ

अच्छा ही हुआ

कोई समझा नहीं।

कुछ शब्द थे

जो मैं यूॅं ही कह बैठी,

मन का गुबार निकाल बैठी।

कहना कुछ था

कह कुछ बैठी।

न नाराज़गी थी

न थी कोई खुशी।

पर कुछ तो था

जो मैं कह बैठी।

बहुत कुछ होता है

जो नहीं कहना चाहिए

बस मन ही मन में

कुढ़ते रहना चाहिए

अन्तर्मन जले तो जले

पर दुनिया को

कुछ भी पता न चले।

वैसे भी मेरी बातें

कहाॅं समझ आती हैं

किसी को।

पर

ऐसा कुछ तो था

जो नहीं कहना चाहिए था

मैं यूॅं ही कह बैठी।

 

 

पूछती है मुझसे मेरी कलम

राष्ट्र भक्ति के गीत लिखने के लिए कलम उठाती हूं जब जब

पूछती है मुझसे मेरी कलम, देश हित में तूने क्‍या किया अब तक

भ्रष्ट्राचार, झूठ, रिश्वतखोरी,अनैतकिता के विरूद्ध क्या लड़ी कभी

गीत लिखकर महान बनने की कोशिश करोगे कवि तुम कब तक

कहां समझ पाता है कोई

न आकाश की समझ

न धरा की,

अक्सर नहीं दिखाई देता

किनारा कोई।

हर साल,बार-बार,

जिन्दगी  यूं भी तिरती है,

कहां समझ पाता है कोई।

सुना है दुनिया बहुत बड़ी है,

देखते हैं, पानी पर रेंगती

हमारी इस दुनिया को,

कहां मिल पाता है किनारा कोई।

सुना है,

आकाश से निहारते हैं हमें,

अट्टालिकाओं से जांचते हैं

इस जल- प्रलय को।

जब पानी उतर जाता है

तब बताता है कोई।

विमानों में उड़ते

देख लेते हैं गहराई तक

कितने डूबे, कितने तिर रहे,

फिर वहीं से घोषणाएं करते हैं

नहीं मरेगा

भूखा या डूबकर कोई।

पानी में रहकर

तरसते हैं दो घूंट पानी के लिए,

कब तक

हमारा तमाशा बनाएगा हर कोई।

अब न दिखाना किसी घर का सपना,

न फेंकना आकाश से

रोटियों के टुकड़े,

जी रहे हैं, अपने हाल में

आप ही जी लेंगे हम

न दिखाना अब

दया हम पर आप में से कोई।

कुशल रहें सब, स्वस्थ रहें

कुशल रहें सब, स्वस्थ रहें सब, यही कामना करते हैं

आनी-जानी तो लगी रहेगी, हम यूं ही डरते रहते हैं

कौन है अपना, कौन पराया, कहां जान पाते हैं हम

जो सुख-दुख के हों  साथी, वे ही अपने लगने लगते हैं

इशारों में ही बात हो गई

मेरे हाथ आज लगे

जिन्न और चिराग।

पूछा मैंने

क्या करोगे तुम मेरे

सारे काम-काज।

बोले, खोपड़ी तेरी

क्या घूम गई है

जो हमसे करते बात।

ज्ञात हो चुकी हमको

तुम्हारी सारी घात।

बहुत कर चुके रगड़ाई हमारी।

बहुत लगाये ढक्कन।

किन्तु अब हम

बुद्धिमान हो गये।

बोतल बड़ी-बड़ी हो गई,

लेन-देन की बात हो गई,

न रगड़ाई और न ढक्कन।

बस देता जा और लेता जा।

लाता जा और पाता जा।

भर दे बोतल, काम करा ले।

काम करा ले बोतल भर दे।

इशारों में ही बात हो गई

समझ आ गई तो ठीक

नहीं आई तो

जाकर अपना माथा पीट।

 

झूठी-सच्ची ख़बरें बुनते

नाम नहीं, पहचान नहीं, करने दो मुझको काम

क्यों मेरी फ़ोटो खींच रहे, मिलते हैं कितने दाम।

कहीं की बात कहीं करें और झूठी-सच्ची ख़बरें बुनते

समझो तुम, मिल-जुलकर चलता है घर का काम

युगे-युगे

मां ने कहा मीठे वचन बोलाकर

अमृत होता है इनमें

सुनने वाले को जीवन देते हैं ।

-

पिता ने कहा

चुप रहा कर

ज़माने की धार-से बोलने लगी है  अभी से।

वैसे भी

लड़कियों का कम बोलना ही

अच्छा होता है।

-

यह सब लिखते हुए

मैं बताना तो नहीं चाहती थी

अपनी लड़की होने की बात।

क्योंकि यह पता लगते ही

कि बात कहने वाली लड़की है,

सुनने वाले की भंगिमा

बदल जाती है।

-

पर अब जब बात निकल ही गई,

तो बता दूं

लड़की नहीं, शादीशुदा ओैरत हूं मैं।

-

पति ने कहा,

कुछ पढ़ा-लिखाकर,

ज़माने से जुड़।

अखबार,

बस रसोई में बिछाने

और रोटी बांधने के लिए ही नहीं होता,

ज़माने भर की जानकारियां होती हैं इसमें,

कुछ अपना दायरा बढ़ा।

-

मां की गोद में थी

तब मां की सुनती थी।

पिता का शासनकाल था

तब उनका कहना माना।

और अब, जब

पति-परमेश्वर कह रहे हैं

तब उनका कहना सिर-माथे।

मां के दिये, सभी धर्म-ग्रंथ

उठाकर रख दिये मैंने ताक पर,

जिन्हें, मेरे समाज की हर औरत

पढ़ती चली आई है

पतिव्रता,

सती-सीता-सावित्री बनने के लिए।

और सुबह की चाय के साथ

समाचार बीनने लगी।

-  

माईक्रोवेव के युग में

मेरी रसोई

मिट्टी के तेल के पीपों से भर गई।

मेरा सारा घर

आग की लपटों से घिर गया।

आदिम युग में

किस तरह भूना जाता होगा

मादा ज़िंदा मांस,

मेरी जानकारी बढ़ी।

 

औरत होने के नाते

मेरी भी हिस्सेदारी थी इस आग में।

किन्तु, कहीं कुछ गलत हो गया।

आग, मेरे भीतर प्रवेश कर गई।

भागने लगी मैं पानी की तलाश में।

एक फावड़ा ओैर एक खाली घड़ा

रख दिया गया मेरे सामने

जा, हिम्मत है तो कुंआं खोद

ओैर पानी ला।

भरे कुंएं तो कूदकर जान देने के लिए होते हैं।

-

अविवाहित युवतियां

लड़के मांगती हैं मुझसे।

पैदाकर ऐसे लड़के

जो बिना दहेज के शादी कर लें।

या फिर रोज़-रोज़ की नौटंकी से तंग आकर

आत्महत्या के बारे में

विमर्श करती हैं मेरे घर के पंखों से।

मैं पंखे हटा भी दूं,

तो और भी कई रास्ते हैं विमर्श के।

-

मेरे द्वार पर हर समय

खट्-खट् होने लगी है।

घर से निकाल दी गई औरतें

रोती हैं मेरे द्वार पर,

शरण मांगती हैं रात-आधी रात।

टी वी, फ्रिज, स्कूटर,

पैसा मांगती हैं मुझसे।

आदमी की भूख से कैसे निपटें

राह पूछती हैं मुझसे।

-

मेरे घर में

औरतें ही औरतें हो गईं हैं।

-

बीसियों बलात्कारी औरतों के चेहरे

मेरे घर की दीवारों पर

चिपक गये हैं तहकीकात के लिए।

पुलिसवाले,

कोंच-कोंचकर पूछ रहे हैं

उनसे उनकी कहानी।

फिर करके पूछते हैं,

ऐसे ही हुआ था न।

-

निरीह बच्चियां

बार-बार रास्ता भूल जाती हैं

स्कूल का।

ओढ़ने लगती हैं चूनरी।

मां-बाप इत्मीनान की सांस लेते हैं।

-

अस्पतालों में छांटें जाते हैं

लड़के ओैर लड़कियां।

लड़के घर भेज दिये जाते हैं

और लड़कियां

पुनर्जन्म के लिए।

-

अपने ही चाचा-ताउ से

चचेरों-ममेरों से, ससुर-जेठ

यानी जो भी नाते हैं नर से

बचकर रहना चाहिए

कब उसे किससे ‘काम’ पड़े

कौन जाने

फिर पांच वर्ष की बच्ची हो

अथवा अस्सी वर्ष की बुढ़िया

सब काम आ जाती है।

 

यह मैं क्या कर बैठी !

यूंही सबकी मान बैठती हूं।

कुछ अपने मन का करती।

कुछ गुनती, कुछ बुनती, कुछ गाती।

कुछ सोती, कुछ खाती।

मुझे क्या !

कोई मरे या जिये,

मस्तराम घोल पताशा पीये।

यही सोच मैंने छोड़ दी अखबार,

और इस बार, अपने मन से

उतार लिए,

ताक पर से मां के दिये सभी धर्मग्रंथ।

पर यह कैसे हो गया?

इस बीच,

अखबार की हर खबर

यहां भी छप चुकी थी।

यहां भी तिरस्कृत,

घर से निकाली जा रहीं थीं औरतेंै

अपहरण, चीरहरण की शिकार,

निर्वासित हो रही थीं औरतें।

शिला और देवी बन रहीं थीं औरतें।

अंधी, गूंगी, बहरीं,

यहां भी मर रहीं थीं औरतें।

-

इस बीच

पूछ बैठी मुझसे

मेरी युवा होती बेटी

मां क्या पढूं मैं।

मैं खबरों से बाहर लिकली,

बोली,

किसी का बताया

कुछ मत पढ़ना, कुछ मत करना।

जिन्दगी आप पढ़ायेगी तुझे पाठ।

बनी-बनाई राहों पर मत चलना।

किसी के कदमों का अनुगमन मत करना।

जिन्दगी का पाठ आप तैयार करना।

छोड़कर जाना अपने कदमों के निशान

कि सारा इतिहास, पुराण

और धर्म मिट जाये।

मिट जाये वर्तमान।

और मिट जाये

भविप्य के लिए तैयार की जा रही आचार-संहिता,

जिसमें सती, श्रापित, अपमानित

होती हैं औरतें।

शिला मत बनना।

बनाकर जाना शिलाएं ,

कि युग बदल जाये।

 

 

कहां गई तुम्हारी अम्मां

छोटी-सी छतरी तानी मैंने।

दाना-चुग्गा लाउंगा,

तुमको मैं खिलाउंगा।

मां कहती है,

बारिश में भीगो न,

ठंडी लग जायेगी।

मेरी मां तो

मुझको गुस्सा करती,

कहां गई तुम्हारी अम्मां।

ऐसे कैसे बैठे हो,

अपने घर जाओ,

कम्बल मैं दे जाउंगा।

कल जब धूप खिलेगा

तब आना

साथ-साथ खेलेंगे,

मेरे घर चलना,

मां से मैं मिलवाउंगा।

सरस-सरस लगती है ज़िन्दगी

जल सी भीगी-भीगी है ज़िन्दगी

कहीं सरल, कहीं धीमे-धीमे

आगे बढ़ती है ज़िन्दगी।

तरल-तरल भाव सी

बहकती है ज़िन्दगी

राहों में धार-सी बहती है ज़िन्दगी

चलें हिल-मिल

कितनी सुहावनी लगती है ज़िन्दगी

किसी और से क्या लेना

जब आप हैं हमारे साथ ज़िन्दगी

आज भीग ले अन्तर्मन,

कदम-दर-कदम

मिलाकर चलना सिखाती है ज़िन्दगी

राहें सूनी हैं तो क्या,

तुम साथ हो

तब सरस-सरस लगती है ज़िन्दगी।

आगे बढ़ते रहें

तो आप ही खुलने लगती हैं मंजिलें ज़िन्दगी