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जिए एक नई विधा छन्दमुक्त ग़ज़ल

आज ग़ज़ल लिखने के लिए एक मिसरा मिला

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जाम नजरों से मुझको पिलाओ न तुम

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अब हम गज़ल तो लिखते नहीं

तो कौन कहता है कि मिसरे पर छन्दमुक्त रचना नहीं लिखी जा सकती

लीजिए एक नई विधा छन्दमुक्त ग़ज़ल

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जाम नजरों से मुझको पिलाओ न तुम

कुछ बढ़िया से कट ग्लास लेकर आओ तुम।

अब तो लाॅक डाउन भी खुल गया,

गिलास न होने के

बहाने न बनाओ तुम।

गर जाम नज़रों से पिलाओगे,

तो आंख से आंख  कैसे मिलाओगे तुम।

किसी को टेढ़ी नज़र से देखने

का मज़ा कैसे पाओगे तुम।

आंखों में आंखें डालकर

बात करने का मज़ा ही अलग है,

उसे कैसे छीन पाओगे तुम।

नज़रें फे़रकर कभी निकलेंगे

तो आंख से मोती कैसे लुढ़काओगे तुम।

कभी आंख झुकाओगे,

कभी आंख ही आंख में शरमाओगे,

कभी आंख बन्द कर,

कैसे फिर सपनों में आओगे तुम।

और कहीं नशेमन में आंख मूंद ली

तो आंसुओं की जगह

बह रहे सोमरस को दुनिया से

कैसे छुपाओगे तुम।

जीवन की यही असली कहानी है
आज आपको दिल की सच्ची बात बतानी है

काम का मन नहीं, सुबह से चादर तानी है

पल-पल बदले है सोच, पल-पल बदले भाव

शायद हर जीवन की यही असली कहानी है।

आस नहीं छोड़ी मैंने

प्रकृति के नियमों को

हम बदल नहीं सकते।

जीवन का आवागमन

तो जारी है।

मुझको जाना है,

नव-अंकुरण को आना है।

आस नहीं छोड़ी मैंने।

विश्वास नहीं छोड़ा मैंने।

धरा का आसरा लेकर,

आकाश ताकता हूं।

अपनी जड़ों को

फिर से आजमाता हूं।

अंकुरण तो होना ही है,

बनना और मिटना

नियम प्रकृति का,

मुझको भी जाना है।

न उदास हो,

नव-अंकुरण फूटेंगे,

यह क्रम जारी रहेगा,

 

ज़िन्दगी के गीत

ज़िन्दगी के कदमों की तरह

बड़ा कठिन होता है

सितार के तारों को साधना।

बड़ा कठिन होता है

इनका पेंच बांधना।

यूँ तो मोतियों के सहारे

बांधी जाती हैं तारें

किन्तु ज़रा-सा

ढिलाई या कसाव

नहीं सह पातीं

जैसे प्यार में ज़िन्दगी।

मंद्र, मध्य, तार सप्तक की तरह

अलग-अलग भावों में

बहती है ज़िन्दगी।

तबले की थाप के बिना

नहीं सजते सितार के सुर

वैसे ही अपनों के साथ

उलझती है जिन्दगी

कभी भागती, कभी रुकती

कभी तानें छेड़ती,

राग गाती,

झाले-सी दनादन बजती,

लड़ती-झगड़ती

मन को आनन्द देती है ज़िन्दगी।

 

हम सब कैसे एक हैं

उलझता है बालपन

पूछता है कुछ प्रश्न

 लिखा है पुस्तकों में

और पढ़ते हैं हम,

हम सब एक हैं,

हम सब एक हैं।

साथ-साथ रहते

साथ-साथ पढ़ते

एक से कपड़े पहन,

खाते-पीते , खेलते।

फिर आज

यह क्या हो गया

इसे हिन्दू बना दिया गया

मुझे मुसलमान

और इसे इसाई।

और कुछ मित्र बने हैं

सिख, जैनी, बौद्ध।

फिर कह रहे हैं

हम सब एक हैं।

बच्चे हैं हम।

समझ नहीं पा रहे हैं

 

कल तक भी तो

हम सब एक-से थे।

 

फिर आज

यूं

अलग-अलग बनाकर

क्यों कह रहे हैं

हम सब एक हैं,

हम सब एक हैं।

 

 

गलत और सही

कहते हैं

अन्त सही तो सब सही।

किन्तु मेरे गले ऐसे

बोध-भाव नहीं उतरते।

शायद जीवन की कड़वाहटें हैं

या कुछ और।

किन्तु यदि

प्रारम्भ सही न हो तो

अन्त कैसे हो सकता है सही।

 

प्रेम-सम्बन्ध

 

दो क्षणिकाएं

******-******

प्रेम-सम्बन्ध

कदम बहके

चेहरा खिले

यूं ही मुस्काये

होंठों पर चुप्पी

पर आंखें

कहां मानें

सब कह डालें।

*-*

प्रेम-सम्बन्ध

मानों बहता दरिया

शीतल समीर

बहकते फूल

खिलता पराग

ठण्डी छांव

आकाश से

बरसते तुषार।

 

बूंद-बूंद से घट भरता था

जिन ढूंढा तिन पाईया

गहरे पानी पैठ,

बात पुरानी हो गई।

आंख में अब

पानी कहां रहा।

मन की सीप फूट गई।

दिल-सागर-नदिया

उथले-उथले हो गये।

तलछट में क्या ढूंढ रहे।

बूंद-बूंद से घट भरता था।

जब सीपी पर गिरती थी,

तब माणिक-मोती ढलता था।

अब ये कैसा मन है

या तो सब वीराना

सूखा-सूखा-सा रहता है,

और जब मन में

कुछ फंसता है,

तो अतिवृष्टि

सब साथ बहा ले जाती है,

कुछ भी तो नहीं बचता है।

 

 

समझिए समय की दरकार

 

हाथ मिलाना मना है, समझाया था, कीजिए नमस्कार।

चेहरों के भाव परखिए, आंखों के भाव समझिए सरकार।

कौन जाने किसके हाथों में कांटें छुपे हैं, कहां चुभेंगें,

मन को परखना सीखिए, यही है समय की दरकार।

कुछ छूट गया जीवन में

गांव तक कौन सी राह जाती है कभी देखी नहीं मैंने

वह तरूवर, कुंआ, बाग-बगीचे, पनघट, देखे नहीं मैंने

पीपल की छाया, चौपालों का जमघट, नानी-दादी के किस्से

लगता है कुछ छूट गया जीवन में, जो पाया नहीं मैंने

मानव के धोखे में मत आ जाना

समझाया था न तुझको

जब तक मैं न लौटूं

नीड़ से बाहर मत जाना

मानव के 

धोखे में मत आ जाना।

फैला चारों ओर प्रदूषण

कहीं चोट मत खा जाना।

कहां गये सब संगी साथी

कहां ढूंढे अब उनको।

समझाकर गई थी न

सब साथ-साथ ही रहना।

इस मानव के धोखे में मत आ जाना।

उजाड़ दिये हैं रैन बसेरे

कहां बनाएं नीड़।

न फल मिलता है

न जल मिलता है

न कोई डाले चुग्गा।

हाथों में पिंजरे है

पकड़ पकड़ कर हमको

इनमें डाल रहे हैं

कोई अभयारण्य बना रहे हैं,

परिवारों से नाता टूटे

अपने जैसा मान लिया है।

फिर कहते हैं, देखो देखो

हम जीवों की रक्षा करते हैं।

चलो चलो

कहीं और चलें

इन शहरों से दूर।

करो उड़ान की तैयारी

हमने अब यह ठान लिया है।

बारिश की बूंदे अलमस्त सी

बारिश की बूंदे अलमस्त सी, बहकी-बहकी घूम रहीं

पत्तों-पत्तों पर सर-सर करतीं, इधर-उधर हैं झूम रहीं

मैंने रोका, हाथों पर रख, उनको अपने घर ले आई मैं

पता नहीं कब भागीं, कहां गईं, मैं घर-भर में ढूंढ रही

ज़िन्दगी में एक सबक

अंधेरे में भी रोशनी की एक चमक होती है

रोशनी में भी अंधेरे की एक लहर होती है

देखने वाली आंखें ही देख पाती हैं इन्हें

सहेज लें इन्हें, ज़िन्दगी में एक सबक होती है

 

 

 

जिन्दगी कोई तकरार नहीं है

जिन्दगी गणित का कोई दो दूनी चार नहीं है

गुणा-भाग अगर कभी छूट गया तो हार नहीं है

कभी धूप है तो कभी छांव और कभी है आंधी

सुख-दुख में बीतेगी, जिन्दगी कोई तकरार नहीं है

एक किरण लेकर चला हूँ

रोशनियों को चुराकर चला हूँ,

सिर पर उठाकर चला हूँ

जब जहां अवसर मिलेगा

रोश्नियां बिखेरने का

वादा करके चला हूँ

अंधेरों की आदत बनने लगी है,

उनसे दो-दो हाथ करने चला हूँ

जानता हूं, है कठिन मार्ग

पर अकेल ही अकेले चला हूँ

दूर-दूर तक

न राहें हैं, न आसमां, न जमीं,

सब तलाशने चला हूं।

ठोकरों की तो आदत हो गई है,

राहों को समतल बनाने चला हूँ

कोई तो मिलेगा राहों में,

जो संग-संग चलेगा,

साथ उम्मीद की, हौंसलों की भी

एक किरण लेकर चला हूँ

प्रभास है जीवन

हास है, परिहास है, विश्वास है जीवन

हर दिन एक नया प्रयास है जीवन

सूरज भी चंदा के पीछे छिप जाता है,

आप मुस्कुरा दें तो तो प्रभास है जीवन

सजावट रह गईं हैं पुस्तकें

दीवाने खास की सजावट बनकर रह गईं हैं पुस्तकें
बन्द अलमारियों की वस्तु बनकर रह गई हैं पुस्तकें
चार दिन में धूल झाड़ने का काम रह गई हैं पुस्तकें
कोई रद्दी में न बेच दे,छुपा कर रखनी पड़ती हैं पुस्तकें।

 

कांगड़ी बोली में छन्दमुक्त कविता

चल मनां अज्ज सिमले चलिए,

पहाड़ां दी रौनक निरखिए।

बसा‘च जाणा कि

छुक-छुक गड्डी करनी।

टेडे-फेटे मोड़़ा‘च न डरयां,

सिर खिड़किया ते बा‘र न कड्यां,

चल मनां अज्ज सिमले चलिए।

-

माल रोडे दे चक्कर कटणे

मुंडु-कुड़ियां सारे दिखणे।

भेडुआं साई फुदकदियां छोरियां,

चुक्की लैंदियां मणा दियां बोरियां।

बालज़ीस दा डोसा खादा

जे न खादे हिमानी दे छोले-भटूरे

तां सिमले दी सैर मनदे अधूरे।

रिज मदानां गांधी दा बुत

लकड़ियां दे बैंचां पर बैठी

खांदे मुंगफली खूब।

गोल चक्कर बणी गया हुण

गुफ़ा, आशियाना रैस्टोरैंट।

लक्कड़ बजारा जाणा जरूर

लकड़िया दी सोटी लैणी हजूर।

जाखू जांगें तां लई जाणी सोटी,

चड़दे-चड़दे गोडे भजदे,

बणदी सा‘रा कन्ने

बांदरां जो नठाणे‘, कम्मे औंदी।

स्कैंडल पाईंट पर खड़े लालाजी

बोलदे इक ने इक चला जी।

मौसम कोई बी होये जी

करना नीं कदी परोसा जी।

सुएटर-छतरी लई ने चलना

नईं ता सीत लई ने हटणा।

यादां बड़ियां मेरे बाॅल

पर बोलदे लिखणा 26 लाईनां‘च हाल।

 

 

हिन्दी अनुवाद

चल मन आज शिमला चलें,

पहाडों की रौनक देखें।

बस में जाना या

छुक-छुक गाड़ी करनी।

टेढ़े-मेढ़े मोड़ों से न डरना

सिर खिड़की से बाहर न निकालना

चल मन आज शिमला चलें।

 

माल रोड के चक्कर काटने

लड़के-लड़कियां सब देखने

भेड़ों की तरह फुदकती हैं लड़कियां

उठा लेती हैं मनों की बोरियां।

बालज़ीस का डोसा खाया

और यदि न खाये हिमानी के भटूरे

तो शिमले की सैर मानेंगे अधूरे।

रिज मैदान पर गांधी का बुत।

लकड़ियों के बैंचों पर बैठकर

खाई मूंगफ़ली खूब।

गोल चक्कर बन गया अब

गुफ़ा, आशियाना रैस्टोरैंट।

लक्कड़ बाज़ार जाना ज़रूर।

लकड़ी की लाठी लेना  हज़ूर।

जाखू जायेंगे तो ले जाना लाठी,

चढ़ते-चढ़ते घुटने टूटते

साथ बनती है सहारा,

बंदरों को भगाने में आती काम।

स्कैंडल प्वाईंट पर खड़े लालाजी

कहते हैं एक के साथ एक चलो जी।

मौसम कोई भी हो

करना नहीं कभी भरोसा,

स्वैटर-छाता लेकर चलना,

नहीं तो शीत लेकर हटना।

यादें बहुत हैं मेरे पास

पर कहते हैं 26 पंक्तियों में लिखना है हाल।

 

 

 

 

 

घबराना मत

सूरत पर तो जाना मत

मौसम-सी बदले है अब

लाल-पीले रहते हरदम

चश्मा उतरे घबराना मत

टूटे घरों में कोई नहीं बसता

दिल न हुआ,

कोई तरबूज का टुकड़ा हो गया ।

एक इधर गया,

एक उधर गया,

इतनी सफाई से काटा ,

कि दिल बाग-बाग हो गया।

-

जिसे देखो

आजकल

दिल हाथ में लिए घूमते हैं  ,

ज़रा सम्‍हाल कर रखिए अपने दिल को,

कभी कभी अजनबी लोग,

दिल में यूं ही घर बसा लिया करते हैं,

और फिर जीवन भर का रोग लगा जाते हैं ।

-

वैसे दिल के टुकड़े कर लिए

आराम हो गया ।

न किसी के इंतज़ार में हैं ।

न किसी के दीदार में हैं ।

टूटे घरों में कोई नहीं बसता ।

जीवन में एक ठीक-सा विराम हो गया ।

 

जब चाहिए वरदान तब शीश नवाएं

जब-जब चाहिए वरदान तब तब करते पूजा का विधान

दुर्गा, चण्डी, गौरी सबके आगे शीश नवाएं करते सम्मान

पर्व बीते, भूले अब सब, उठ गई चौकी, चल अब चौके में

तुलसी जी कह गये,नारी ताड़न की अधिकारी यह ले मान।।

जीवन की नैया ऐसी भी होती है

जल इतना

विस्तारित होता है

जाना पहली बार।

अपने छूटे,

घर-वर टूटे।

लकड़ी से घर चलता था।

लकड़ी से घर बनता था।

लकड़ी से चूल्हा जलता था,

लकड़ी की चौखट के भीतर

ठहरी-ठहरी-सी थी ज़िन्दगी।

निडर भाव से जीते थे,

अपनों के दम पर जीते थे।

पर लकड़ी कब लाठी बन जाती है,

राह हमें दिखलाती है,

जाना पहली बार।

अब राहें अकेली दिखती हैं,

अब, राहें बिखरी दिखती हैं,

पानी में कहां-कहां तिरती हैं।

इस विस्तारित सूनेपन में

राहें आप बनानी है,

जीवन की नैया ऐसी भी होती है,

जाना पहली बार।

अब देखें, कब तक लाठी चलती है,

अब देखें, किसकी लाठी चलती है।

खामोशियां भी बोलती है

नई बात। अब कहते हैं मौन रहकर अपनी बात कहना सीखिए, खामोशियाँ भी बोलती हैं। यह भी भला कोई बात हुई। ईश्वर ने गज़ भर की जिह्वा दी किसलिए है, बोलने के लिए ही न, शब्दाभिव्यक्ति के लिए ही तो। आपने तो कह दिया कि खामोशियाँ बोलती हैं, मैंने तो सदैव धोखा ही खाया यह सोचकर कि मेरी खामोशियाँ समझी जायेगी। न जी न, सरासर झूठ, धोखा, छल, फ़रेब और सारे पर्यायवाची शब्द आप अपने आप देख लीजिएगा व्याकरण में।

मैंने तो खामोशियों को कभी बोलते नहीं सुना। हाँ, हम संकेत का प्रयास करते हैं अपनी खामोशी से। चेहरे के हाव-भाव से स्वीकृति-अस्वीकृति, मुस्कान से सहमति-असहमति, सिर से सहमति-असहमति। लेकिन बहुत बार सामने वाला जानबूझकर उपेक्षा कर जाता है क्योंकि उसे हमें महत्व देना ही नहीं है। वह तो कह जाता है तुम बोली नहीं तो मैंने समझा तुम्हारी मना है।

कहते हैं प्यार-व्यार में बड़ी खामोशियाँ होती हैं। यह भी सरासर झूठ है। इतने प्यार-भरे गाने हैं तो क्या वे सब झूठे हैं? जो आनन्द अच्छे, सुन्दर, मन से जुड़े शब्दों से बात करने में आता है वह चुप्पी में कहाँ, और यदि किसी ने आपकी चुप्पी न समझी तो गये काम से। अपना ऐसा कोई इरादा नहीं है।

मेरी बात बड़े ध्यान से सुनिए और समझिए। खामोशी की भाषा अभिव्यक्ति करने वाले से अधिक समझने वाले पर निर्भर करती है। शायद स्पष्ट ही कहना पड़ेगा, गोलमाल अथवा शब्दों की खामोशी से काम नहीं चलने वाला।

मेरा अभिप्राय यह कि जिस व्यक्ति के साथ हम खामोशी की भाषा में अथवा खामोश अभिव्यक्ति में अपनी बात कहना चाह रहे हैं, वह कितना समझदार है, वह खामोशी की कितनी भाषा जानता है, उसकी कौन-सी डिग्री ली है इस खामोशी की भाषा समझने में। बस यहीं हम लोग मात खा जाते हैं।

इस भीड़ में, इस शोर में, जो जितना ऊँचा बोलता है, जितना चिल्लाता है उसकी आवाज़ उतनी ही सुनी जाती है, वही सफ़ल होता है। चुप रहने वाले को गूँगा, अज्ञानी, मूर्ख समझा जाता है।

ध्यान रहे, मैं खामोशी की भाषा न बोलना जानती हूँ और न समझती हूँ, मुझे अपने शब्दों पर, अपनी अभिव्यक्ति पर, अपने भावों पर पूरा विश्वास है और ईश प्रदत्त गज़-भर की जिह्वा पर भी।