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जीवन के रंग

द्वार पर आहट हुई,

कुछ रंग खड़े थे

कुछ रंग उदास-से पड़े थे।

मैंने पूछा

कहां रहे पूरे साल ?

बोले,

हम तो यहीं थे

तुम्हारे आस-पास।

बस तुम ही

तारीखें गिनते हो,

दिन परखते हो,

तब खुशियां मनाते हो

मानों प्रायोजित-सी

हर दिन होली-सा देखो

हर रात दीपावली जगमगाओ

जीवन में रंगों की आहट पकड़ो।

हां, जीवन के रंग बहुत हैं

कभी ग़म, कभी खुशी

के संग बहुत हैं,

पर ये आना-जाना तो लगा रहेगा

बस जीवन में

रंगों की हर आहट  पकड़ो।

हर दिन होली-सा रंगीन मिलेगा

हर दिन जीवन का रंग खिलेगा।

बस

मन से रंगों की हर आहट पकड़ो।

 

पहचान नहीं

धन-दौलत थी तो खुले द्वार थे हमारे लिए

जब लुट गई थी द्वार बन्द हुए हमारे लिए

नाम भूल गये, रिश्ते छूट गये, पहचान नहीं

जब दौलत लौटी, हार लिए खड़े हमारे लिए

कैसा बिखराव है यह

 

मन घुटता है ,बेवजह।

कुछ भीतर रिसता है,बेवजह।

उधेड़ नहीं पाती

पुरानी तरपाई।

स्‍वयं ही टूटकर

बिखरती है ।

समेटती लगती हूं

पुराने धागों को,

जो किसी काम के नहीं।

कितनी भी सलवटें निकाल लूं

किन्‍तु ,तहों के निशान

अक्‍सर जाते नहीं।

क्‍यों होता है मेरे साथ ऐसा,

कहना कुछ और चाहती हूं

कह कुछ और जाती हूं।

बात आज की है,

और कल की बात कहकर

कहानी को पलट जाती हूं,

कि कहीं कोई

समझ न ले मेरे मन को,

मेरे आज को

या मेरे बीते कल को ।

शायद इसीलिए

उलट-पलट जाती हूं।

कहना कुछ और चाहती हूं,

कह कुछ और जाती हूं।

यह सिलसिला

‘गर ज़िन्दगी भर  चलेगा,

तो कहां तक, और कब तक ।

 

 

स्मृतियां सदैव मधुर नहीं होतीं
आओगे जब तुम साजना

द्वार पर खड़ी नहीं मिलूंगी मैं

घर-बाहर संवारती नहीं दिखूंगी मैं।

भाव मिट जाते हैं

इच्छाएं मर जाती हैं

सब अधूरा-सा लगता है

जब तुम वादे नहीं निभाते,

कहकर भी नहीं आते।

मन उखड़ा-उखड़ा-सा रहता है।

प्रतीक्षा के पल

सदैव मोहक नहीं होते,

स्मृतियां सदैव मधुर नहीं होतीं।

समय के साथ

स्मृतियां धुल जाती हैं

नेह-भाव पर

धूल जम जाती है।

ज़िन्दगी ठहर-सी जाती है।

इस ठहरी हुई ज़िन्दगी में ही

अपने लिए फूल चुनती हूं।

नहीं कोई आस रखती किसी से,

अपने लिए जीती हूं

अपने लिए हंसती हूं।

  

नयनों में घिर आये बादल

धूप खिली, मौसम खुशनुमा, घूम रहे बादल

हवाएं चलीं-चलीं, गगन पर छितराए बादल

कुछ बूंदें बरसी, मन महका-बहका-पगला

तुम रूठे, नयनों में गहरे घिर आये बादल

 

कहत हैं रेत से घर नहीं बनते

मन से

अपनी राहों पर चलती हूं

दूर तक छूटे

अपने ही पद-चिन्हों को

परखती हूं

कहत हैं रेत से घर नहीं बनते

नहीं छूटते रेत पर निशान,

सागर पलटता है

और सब समेट ले जाता है

हवाएं उड़ती हैं और

सब समतल दिखता है,

किन्तु भीतर कितने उजड़े घर

कितने गहरे निशान छूटे हैं

कौन जानता है,

कहीं गहराई में

भीतर ही भीतर पलते

छूटे चिन्ह

कुछ पल के लिए

मन में गहरे तक रहते हैं

कौन चला, कहां चला, कहां से आया

कौन जाने

यूं ही, एक भटकन है

निरखती हूं, परखती हूं

लौट-लौट देखती हूं

पर बस अपने ही

निशान नहीं मिलते।

प्रेम प्रतीक बनाये मानव

चहक-चहक कर

फुदक-फुदक कर

चल आज नया खेल हम खेंलें।

प्रेम प्रतीक बनाये मानव,

चल हम इस पर इठला कर देखें।

तू क्या देखे टुकुर-टुकुर,

तू क्या देखे इधर-उधर,

कुछ बदला है, कुछ बदलेगा।

कर लो तुम सब स्वीकार अगर,

मौसम बदलेगा,

नव-पल्लव तो आयेंगे।

अभी चलें कहीं और

लौटकर अगले मौसम में,

घर हम यहीं बनायेंगे।

धरा पर पांव टिकते नहीं

और चाहिये और चाहिए की भूख में छूट रहे हैं अवसर

धरा पर पांव टिकते नहीं, आकाश को छू पाते नहीं अक्सर

यह भी चाहिये, वह भी चाहिए, लगी है यहां बस भाग-दौड़

क्या छोड़ें, क्या लें लें, इसी उधेड़-बुन में रह जाते हैं अक्सर

फूल तो फूल हैं

फूल तो फूल हैं
कहीं भी खिलते हैं।
कभी नयनों में द्युतिमान होते हैं
 कभी गालों पर महकते हैं
कभी उपवन को सुरभित करते हैं,
तो कभी मन को 
आनन्दित करते हैं,
मन के मधुर भावों को
साकार कर देते हैं
शब्द को भाव देते हैं
और भाव को अर्थ।
प्रेम-भाव का समर्पण हैं,
कभी किसी की याद में
गुलदानों में लगे-लगे 
मुरझा जाते हैं।
यही फूल स्वागत भी करते हैं
और अन्तिम यात्रा भी। 
और कभी किसी की 
स्मृतियों में जीते हैं
ठहरते हैं उन पर आंसू 
ओस की बूंदों से।

चंचल हैं सागर की लहरें

चंचल हैं सागर की लहरें।

कुछ कहना चाहती हैं।

किनारे तक आती हैं,

किन्तु नहीं मिलता किनारा,

लौट जाती हैं,

अपने-आपमें,

कभी बिखर कर,

कभी सिमट कर।

 

 

हादसा

यह रचना मैंने उस समय लिखी थी जब 1987 में चौधरी चरण सिंह की मृत्यु हुई थी और उसी समय लालडू में दो बसों से उतारकर 43 और 47 सिखों को मौत के घाट उतार दिया था।)

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भूचाल, बाढ़, सूखा।

सामूहिक हत्याएं, साम्प्रदायिक दंगे।

दुर्घटनाएं और दुर्घटनाएं।

लाखों लोग दब गये, बह गये, मर गये।

बचे घायल, बेघर।

 

प्रशासन निर्दोष। प्राकृतिक प्रकोप।

खानदानी शत्रुता। शरारती तत्व।

विदेशी हाथ।

 

सरकार का कर्त्तव्य

आंकड़े और न्यायिक जांच।

पदयात्राएं, आयोग और सुझाव।

चोट और मौत के अनुसार राहत।

 

विपक्षी दल

बन्द का आह्वान।

फिर दंगे, फिर मौत।

 

सवा सौ करोड़ में

ऐसी रोज़मर्रा की घटनाएं

हादसा नहीं हुआ करतीं।

 

हादसा तब हुआ

जब एक नब्बे वर्षीय युवा,

राजनीति में सक्रिय

स्वतन्त्रता सेनानी

सच्चा देशभक्त

सर्वगुण सम्पन्न चरित्र

असमय, बेमौत चल बसा

अस्पताल में

दस वर्षों की लम्बी प्रतीक्षा के बाद।

हादसा ! बस उसी दिन हुआ।

 

देश शोक संतप्त।

देश का एक कर्णधार कम हुआ।

हादसे का दर्द

बड़ा गहरा है

देश के दिल में।

क्षतिपूर्ति असम्भव।

और दवा -

 सरकारी अवकाश,

राजकीय शोक, झुके झण्डे

घाट और समाधियां,

गीता, रामायण, बाईबल, कुरान, ग्रंथ साहिब

सब आकाशवाणी और दूरदर्शन पर।

अब हर वर्ष

इस हादसे का दर्द बोलेगा

देश के दिल में

नारों, भाषणों, श्रद्धांजलियों

और शोक संदेशों के साथ।

 

ईश्वर उनकी दिवंगत आत्मा को

शांति देना।

अनुप्रास अलंकार छन्दमुक्त रचना

अभी भी अक्तूबर में
ठहर ठहर कर
बेमौसम बारिश।
लौट लौट कर 
आती सर्दी।
और ये ओले 
रात फिर रजाई बाहर आई।
धुले कपड़े धूप में सुखाये।
पर खबरों ने खराब किया मन।
बेमौसम बारिश
बरबाद कर गई फ़सलें।
किसानों को कर्ज़
चुकाने में हुई चूक।
सरकार ने सदा की तरह
वो वादे किये
जो जानते थे सब
न निभायेगी सरकार
और टीवी वाले टंकार कर रहे हैं
नेताओं के निराले वादे।
और इस बीच
कितने किसानों ने
कड़वे आंसू पीकर
कर ली अपनी जीवन लीला समाप्त।
और हमने कागज़-कलम उठा ली
किसी कविता मंच पर
कविता लिखने के लिए।


 

नेताजी का आसन

नेताजी ने कुर्सी त्याग दी

और भूमि पर आसन बिछाकर बैठ गये।

हमने पूछा, ऐसा क्यों किया आपने।

वैसे तो हमें पता है,

कि आपकी औकात ज़मीन की ही है,

किन्तु

कुर्सी त्यागना तो बहुत महानता की बात है,

कैसे किया आपने यह साहस।

नेताजी मुस्कुराये, बोले,

क्या तुम्हें भी बताना पड़ेगा,

कि कुर्सी की चार टांगे होती हैं

और इंसान की दो।

कोई भी, कभी भी पकड़कर

कोई-सी भी टांग खींच देता था।

अब हम भूमि पर, आसन जमाकर

पालथी मारकर बैठ गये हैं,

कोई  दिखाये हमारी टांग खींचकर।

समझदारी की बात यह

कि कुर्सी के पीछे

तो लोग भागते-छीनते दिखाई देते हैं,

कभी आपने देखा है किसी को

आसन छीनते।

अब गांधी जी भी तो

भूमि पर आसन जमाकर ही बैठते थे,

कोई चला उनकी राह पर

आज तक मांगा उनका आसन किसी ने क्या।

नहीं न !

अब मैं नेताजी को क्या समझाती,

गांधी जी का आसन तो उनके साथ ही चला गया।

और नेताजी आपका आसन ,

आधुनिक भारतीय राजनीति का आसन है,

आप पालथी मारे यूं ही बैठे रह जायेंगे,

और जनता कब आपके नीचे से

आपका आसन खींचकर चलती बनेगी,

आपको पता भी नहीं चलेगा।

 

दिमाग़ की बत्ती गुल पड़ी है

मैं भाषण देता हूं

मैं राशन देता हूं

मैं झाड़ू देता हूं

मैं पैसे देता हूं

रोटी दी मैंने

मैंने गैस दिया

पहले कर्ज़ दिये

फिर सब माफ़ किया

टैक्स माफ़ किये मैंने

फिर टैक्स लगाये

मैंने दुनिया देखी

मैंने ढोल बजाये

नये नोट बनाये

अच्छे दिन मैं लाया

सारी दुनिया को बताया

ये बेईमानों का देश था,

चोर-उचक्कों का हर वेश था

मैंने सब बदल दिया

बेटी-बेटी करते-करते

लाखों-लाखों लुट गये

पर बेटी वहीं पड़ी है।

सूची बहुत लम्बी है

यहीं विराम लेते हैं

और अगले पड़ाव पर चलते हैं।

*-*-*-*-*-*-*-**-

चुनावों का अब बिगुल बजा

किसका-किसका ढोल बजा

किसको चुन लें, किसको छोड़ें

हर बार यही कहानी है

कभी ज़्यादा कभी कम पानी है

दिमाग़ की बत्ती गुल पड़ी है

आंखों पर पट्टी बंधी है

बस बातें करके सो जायेंगे

और सुबह फिर वही राग गायेंगे।

सुविधानुसार रीतियों का पालन कर रहे हैं

पढ़ा है ग्रंथों में मैंने

कृष्ण ने

गोकुलवासियों की रक्षा के लिए

अतिवृष्टि से उनकी सुरक्षा के लिए

गोवर्धन को

एक अंगुली पर उठाकर

प्रलय से बचाया था।

किसे, क्यों हराया था,

नहीं सोचेंगे हम।

विचारणीय यह

कि गोवर्धन-पूजा

प्रतीक थी

प्रकृति की सुरक्षा की,

अन्न-जल-प्राणी के महत्व की,

पर्यावरण की रक्षा की।

.

आज पर्वत दरक रहे हैं,

चिन्ता नहीं करते हम।

लेकिन

गोबर के पर्वत को

56 अन्नकूट का भोग लगाकर

प्रसन्न कर रहे हैं।

पशु-पक्षी भूख से मर रहे हैं।

अति-वृष्टि, अल्प-वृष्टि रुकती नहीं।

नदियां प्रदूषण का भंडार बन रही हैं।

संरक्षण नहीं कर पाते हम

बस सुविधानुसार

रीतियों का पालन कर रहे हैं।

 

 

जब से मुस्कुराना देखा हमारा

जब से मुस्कुराना देखा हमारा

जाने क्यों आप चिन्तित दिखे

-

हमारे उपवन में फूल सुन्दर खिले

तुम्हारी खुशियों पर क्यों पाला पड़ा

-

चली थी चाॅंद-तारों को बांध मुट्ठी में मैं

तुम क्यों कोहरे की चादर लेकर चले

-

बारिश की बूंदों से आह्लादित था मेरा मन

तुम क्यों आंधी-तूफ़ान लेकर आगे बढ़े

-

भाग-दौड़ तो ज़िन्दगी में लगी रहती है

तुम क्यों राहों में कांटे बिछाते चले।

-

अब और क्या-क्या बताएॅं तुम्हें

-

हमने अपना दर्द छिपा लिया था

झूठी मुस्कुराहटों में

तुम कभी भी तो यह समझ पाये।

 

आदान-प्रदान का युग है
जरूरी नहीं कि शिखर पर बैठा हर इंसान उत्थान का प्रतीक हो

जाने कौन-सी सीढ़ियां चढ़ा, कहां पग धरा, अनुगमन की लीक हो

पद, पदक, सम्मान, उपाधियाँ सदा उपलब्धियों की प्रतीक नहीं होते

आदान-प्रदान का युग है, ले-देकर काम चल रहा, यही सीख हो

नारी स्वाधीनता की  बात

मैं अक्सर

नारी स्वाधीनता की

बहुत बात करती हूँ।

रूढ़ियों के विरुद्ध

बहुत आलेख लिखती हूँ।

पर अक्सर

यह भी सोचती हूँ

कि समाज और जीवन की

सच्चाई से

हम मुँह तो मोड़ नहीं सकते।

जीवन तो जीवन है

उसकी धार के विपरीत

तो जा नहीं सकते।

वैवाहिक संस्था को हम

नकार तो नहीं सकते।

मानती हूँ मैं

कि नारी-हित में

शिक्षा से बड़ी कोई बात नहीं।

किन्तु परिवार को हम

बेड़ियाँ क्यों मानने लगे हैं

रिश्तों में हम

जकड़न क्यों महसूस करने लगे हैं।

पर्व-त्यौहार

क्यों हमें चुभने लगे हैं,

रीति-रिवाज़ों से क्यों हम

कतराने लगे हैं।

परिवार और शिक्षा

कोई समानान्तर रेखाएँ नहीं।

जीवन का आधार हैं ये

भरा-पूरा संसार हैं ये।

रूढ़ियों को हटायें

हाथ थाम आगे बढ़ाएँ।

जीवन को सरल-सुगम बनाएँ।

 

प्रकृति जब तेवर दिखाती है

जीवन-अंकुरण

प्रकृति का स्व-नियम है।

नई राहें

आप ढूंढती है प्रकृति।

जिजीविषा, न जाने

किसके भीतर कहां तक है,

इंसान कहां समझ पाया।

 

जीवन में हम

बनाते रह जाते हैं

नियम कानून,

बांधते हैं सरहदें,

कहां किसका अधिकार,

कौन अनधिकार।

प्रकृति

जब तेवर दिखाती है,

सब उलट-पुलट कर जाती है।

हालात तो यही कहते हैं,

किसी दिन रात में उगेगा सूरज

और दिन में दिखेंगें तारे।

अपना-अपना सूरज

द्वार पर पैर रखते ही निशि को माँ की नाराज़गी का सामना करना पड़ा, ‘‘अगर कल से इस तरह घर लौटने में आधी रात की न तो आगे से घर से लौटना बन्द कर दूँगी। रोज़ समझाती हूँ पर तेरे कान में बात नहीं पड़ती लड़की।’’

निशि डरते-डरते माँ के निकट आ खड़ी हुई, ‘‘लेकिन मम्मी मैं तो आपसे पूछकर ही गई थी यहीं पड़ोस में नीरा के घर। दूर थोड़े ही जाती हूँ और अभी तो अंधेरा भी नहीं हुआ। देखो धूप........।’’

माँ ने झल्लाकर बात काटी, ‘‘हाँ, अंधेरा तो तब होगा जब किसी दिन नाक कटवा लायेगी हमारी।’’

‘‘इसकी ज़बान ज़्यादा चलने लगी है मम्मी’’, अन्दर से नितिन की आवाज़ आई।

‘‘तू कौन होता है बीच में बोलने वाला?’’निशि को छोटे भाई का हस्तक्षेप अच्छा नहीं लगा।

नितिन उठकर बाहर आया और निशि की चोटी खींचता हुआ बोला, ‘‘मम्मी, इसे समझाओ मैं कौन होता हूँ बोलने वाला।’’

बाल खिंचने से हुई निशि की पीड़ा माँ के तीखे स्वर में दबकर रह गई, ‘‘क्यों भाई नहीं है तेरा। यह तेरी चिन्ता नहीं करेगा तो कौन करेगा? कल को दुनियादारी तो इसे ही निभानी है। कौन सम्हालेगा अगर कोई ऊँच-नीच हो गई तो?’’

माँ की शह पर नितिन का यह रोब निशि के असहनीय था, किन्तु इससे पूर्व कि वह कुछ बोले, माँ नितिन की ओर उन्मुख हुई, ‘‘और तू यहाँ इस समय घर में बैठा क्या कर रहा ह? सूरज अभी ढला नहीं कि तू घर में मुँह छुपाकर बैठ जाता है। जा, बाहर जाकर दोस्तों के साथ खेल। शाम को ज़रा घूमा-फिराकर सेहत बनती है।’’

और निशि! अवाक् खड़ी थी। पूछना चाहती थी कि जब उसकी आधी रात हो जाती है, तब भाई का सूरज भी नहीं ढलता। ऐसा कैसे सम्भव है? क्या सबका सूरज अलग-अलग होता है? उसका और नितिन का सूरज एक साथ क्यों नहीं डूबता?

क्यों? क्यों?

वह घूम रही है, पूछ रही है, चिल्ला रही है, ‘‘बताओ, मेरा सूरज अलग क्यों डूबता है? क्यों डूबता है मेरा सूरज इतनी जल्दी? क्यों डूब जाता है मेरा सूरज धूप रहते?

 क्यों? क्यों?

पर कोई उत्तर नहीं देता। सब सुनते हैं और हँसते हैं। धरती-आकाश, पेड़-पौधे, चाँद-तारे, फूल-पत्थर, सब हँसते हैं,

बौरा गई है लड़की, इतना भी नहीं जानती कि लड़के और लड़कियों का सूरज अलग-अलग होता है।

पर निशि सच में ही बौरा गई है। हाथ फैलाए सूरज की ओर दौड़ रही है और कहती है मैं अपना सूरज डूबने नहीं दूँगी।

  

कृष्ण एक अवतार बचा है ले लो

अपने जन्मदिवस पर,

आनन्द पूर्वक,

परिवार के साथ,

आनन्दमय वातावरण में,

आनन्द मना रही थी।

पता नहीं कहां से

कृष्ण जी पधारे,

बोले, परसों मेरा भी जन्मदिन था।

करोड़ों लोगों ने मनाया।
मैं बोली

 तो मेरे पास क्या करने आये हो?

मैंने तो नहीं मनाया।

बोले,

 इसी लिए तो तुम्हें ही

अपना आशीष देने आया हूं,

बोले] जुग-जुग जीओ बेटा।

पहले तो मैंने उन्हें डांट दिया,

अपना उच्चारण तो ठीक करो,

जुग नहीं होता, युग होता है।

इससे पहले कि वह

डर कर चले जाते,

मैंने रोक लिया और पूछा,

हे कृष्ण! यह तो बताओ

कौन से युग में जीउं ?

मेरे इस प्रश्न पर कृष्ण जी

तांक-झांक करने लगे।

मैंने कहा, केक खाओ,

और मेरे प्रश्न सुलझाओ।

 

हर युग में आये तुम।

हर युग में छाये तुम।

 

पर मेरी समझ कुछ छोटी है

बुद्धि ज़रा मोटी है।

कुछ समझाओ मुझे तुम।

पढ़ा है मैंने

24 अवतार लिए तुमने।

कहते हैं

सतयुग सबसे अच्छा था,

फिर भी पांच अवतार लिये तुमने।

दुष्टों का संहार किया

अच्छों को वरदान दिया।

त्रेता युग में तीन रूप लिये

और द्वापर में अकेले ही चले आये।

 

कहते हैं,

यह कलियुग है,

घोर पाप-अपराध का युग है।

मुझे क्या लेना

किस युग में तुमने क्या किया।

किसे दण्ड दिया,

और किसे अपराध मुक्त किया।

एक अवतार बचा है

ले लो, ले लो,

नयी दुनिया देखो

इस युग में जीओ,

केक खाओ और मौज करो।

 

दो पंछी

गुपचुप, छुपछुपकर बैठे दो पंछी

नेह-नीर में भीग रहे दो पंछी

घन बरसे, मन हरषे, देख रहे

साथ-साथ बैठे खुश हैं दो पंछी

प्रेम-प्यार की बात न करना

प्रेम-प्यार की बात न करना,

घृणा के बीज हम बो रहे हैं।

.

सम्बन्धों का मान नहीं अब,

दीवारें हम अब चिन रहे हैं।

.

काले-गोरे की बात चल रही,

चेहरों को रंगों से पोत रहे हैं

.

अमीर-गरीब की बात कर रहे,

पैसे से दुनिया को तोल रहे हैं

.

कौन है सच्चा, कौन है झूठा,

बिन जाने हम कोस रहे हैं।

.

पढ़ना-लिखना बात पुरानी

सुनी-सुनाई पर चल रहे हैं।

.

सर्वधर्म समभाव भूल गये,

भेद-भाव हम ढो रहे हैं।

.

अपने-अपने रूप चुन लिए,

किस्से रोज़ नये बुन रहे हैं।

-

राजनीति का ज्ञान नहीं है

चर्चा में हम लगे हुए हैं।  

 

ठहरी-ठहरी-सी है ज़िन्दगी

सपनों से हम डरने लगे हैं।

दिल में भ्रम पलने लगे हैं ।

ठहरी-ठहरी-सी है ज़िन्दगी

अपने ही अब खलने लगे हैं।

 

अरे अपने भीतर जांच

शब्दों की क्या बात करें, ये मन बड़ा वाचाल है

इधर-उधर भटकता रहता, न अपना पूछे हाल है

तांक-झांक की आदत बुरी, अरे अपने भीतर जांच

है सबका हाल यही, तभी तो सब यहां बेहाल हैं

 

मर रहा है आम आदमी : कहीं अपनों हाथों

हम एक-दूसरे को नहीं जानते

नहीं जानते

किस देश, धर्म के हैं सामने वाले

शायद हम अपनी

या उनकी

धरती को भी नहीं पहचानते।

जंगल, पहाड़, नदियां सब एक-सी,

एक देश से

दूसरे देश में आती-जाती हैं।

पंछी बिना पूछे, बिना जाने

देश-दुनिया बदल लेते हैं।

किसने हमारा क्या लूट लिया

क्या बिगाड़ दिया,

नहीं जानते हम।

जानते हैं तो बस इतना

कि कभी दो देश बसे थे

कुछ जातियां बंटी थीं

कुछ धर्म जन्मे थे

किसी को सत्ता चाहिये थी

किसी को अधिकार।

और वे सब तमाशबीन बनकर

उंचे सिंहासनों पर बैठे हैं

शायद एक साथ,

जहां उन्हें कोई छू भी नहीं सकता।

वे अपने घरों में

बारूद की खेती करते हैं

और उसकी फ़सल

हमारे हाथों में थमा देते हैं।

हमारे घर, खेत, शहर

जंगल बन रहे हैं।

जाने-अनजाने

हम भी उन्हीं फ़सलों की बुआई

अपने घर-आंगन में करने लगे हैं

अपनी मौत का सामान जमा करने लगे हैं

मर रहा है आम आदमी

कहीं अपनों से

और कहीं अपने ही हाथों

कहीं भी, किसी भी रूप में।

खास नहीं आम ही होता है आदमी

खास कहां होता है आदमी

आम ही होता है आदमी।

 

जो आम नहीं होता

वह नहीं होता है आदमी।

वह होता है

कोई बड़ा पद,

कोई उंची कुर्सी,

कोई नाम,

मीडिया में चमकता,

अखबारों में दमकता,

करोड़ों में खेलता,

किसी सौदे में उलझा,

कहीं झंडे गाढ़ता,

लम्बी-लम्बी हांकता

विमान से नीचे झांकता

योजनाओं पर रोटियां सेंकता,

कुर्सियों की

अदला-बदली का खेल खेलता,

अक्सर पूछता है

कहां रहता है आम आदमी,

कैसा दिखता है आम आदमी।

क्यों राहों में आता है आम आदमी।

बस प्यार किया जाता है

मन है कि

आकाश हुआ जाता है

विश्वास हुआ जाता है

तुम्हारे साथ

एक एहसास हुआ जाता है

घनघारे घटाओं में

यूं ही निराकार जिया जाता है

क्षणिक है यह रूप

भाव, पिघलेंगे

हवा बहेगी

सूरत, मिट जायेगी

तो क्या

मन में तो अंकित है इक रूप

बस,

उससे ही जिया जाता है

यूं ही, रहा जाता है

बस प्यार, किया जाता है

करते रहते हैं  बातें
बढ़ती आबादी को रोक नहीं पाते

योजनाओं पर अरबों खर्च कर जाते

शिक्षा और जानकारियों की है कमी

बैठे-बैठे बस करते रहते हैं हम बातें

पीछे से झांकती है दुनिया

कुछ तो घटा होगा

जो यह पत्थर उठे होंगे।

कुछ तो टूटा होगा

जो यह घुटने फूटे होंगे।

कुछ तो मन में गुबार होगा

जो यूं हाथ उठे होंगे।

फिर, कश्मीर हो या कन्याकुमारी

कोई फ़र्क नहीं पड़ता।

वह कौन-सी बात है

जो शब्दों में नहीं ढाली जा सकी,

कलम ने हाथ खींच लिया
और हाथ में पत्थर थमा दिया।

अरे ! अबला-सबला-विमला-कमला

की बात मत करो,

मत करो बात लाज, ममता, नेह की।

एक आवरण में छिपे हैं भाव

कौन समझेगा ?

न यूं ही आरोप-प्रत्यारोप में उलझो।

कहीं, कुछ तो बिखरा होगा।

कुछ तो हुआ होगा ऐसा

कि चुप्पी साधे सब देख रहे हैं

न रोक रहे हैं, न टोक रहे हैं,

कि पीछे से झांकती है दुनिया

न रोकती है, न मदद करती है

न राह दिखाती है

तमाशबीन हैं सब।

कुछ शब्दों के, कुछ नयनों के।

क्यों ? क्यों ?