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ज़िन्दगी निकल जाती है

कहाँ जान पाये हम

किसका ध्वंस उचित है

और किसका पालन।

कौन सा कर्म सार्थक होगा

और कौन-सा देगा विद्वेष।

जीवन-भर समझ नहीं पाते

कौन अपना, कौन पराया

किसके हित में

कौन है

और किससे होगा अहित।

कौन अपना ही अरि

और कौन है मित्र।

जब बुद्धि पलटती है

तब कहाँ स्मरण रहते हैं

किसी के

उपदेश और निर्देश।

धर्म और अधर्म की

गाँठे बन जाती हैं

उन्हें ही

बांधते और सुलझाते

ज़िन्दगी निकल जाती है

और एक नये

युद्धघोष की सम्भावना

बन जाती है।

 

मेरे देश को रावणों की ज़रूरत है

मेरे देश को रावणों की ज़रूरत है।

चौराहे पर रीता, बैठक में मीता

दफ्तर में नीता, मन्दिर में गीता

वन वन सीता,

कहती है

रावण आओ, मुझे बचाओ

अपहरण कर लो मेरा

अशोक वाटिका बनवाओ।

 

ऋषि मुनियों की, विद्वानों की

बलशाली बाहुबलियों की

पितृभक्तों-मातृभक्तों की

सत्यवादी, मर्यादावादी, वचनबद्धों की

अगणित गाथाएं हैं।

वेद-ज्ञाता, जन-जन के हितकारी

धर्मों के नायक और गायक

भीष्म प्रतिज्ञाधारी, राजाज्ञा के अनुचारी

धर्मों के गायक और नायक

वचनों से भारी।

कर्म बड़े हैं, धर्म बड़े हैं

नियम बड़े हैं, कर्म बड़े हैं।

नाक काट लो, देह बांट लो

संदेह करो और त्याग करो।

वस्त्र उतार लो, वस्त्र चढ़ा दो।

श्रापित कर दो, शिला बना दो।

मुक्ति दिला दो। परीक्षा ले लो।

कथा बना लो।चरित्र गिरा दो।

 

देवी बना दो, पूजा कर लो

विसर्जित कर दो।

हरम सजा लो, भोग लगा लो।

नाच नचा लो, दुकान सजा लो।

भाव लगा लो। बेचो-बेचो और खरीदो।

बलात् बिठा लो, बलात् भगा लो।

मूर्ख बहुत था रावण।

जीत चुका था जीवन ,हार चुकी थी मौत।

विश्व-विजेता, ज्ञानी-ध्यानी

ऋद्धि-सिद्धि का स्वामी।

 

न चेहरा देखा, न स्पर्श किया।

पत्नी बना लूं, हरम सजा लूं

दासी बना लूं

बिना स्वीकृति कैसे छू लूं

सोचा करता था रावण।

मूर्ख बहुत था रावण।

 

सुरक्षा दी, सुविधाएं दी

इच्छा पूछी, विनम्र बना था रावण।

दूर दूर रहता था रावण।

मूर्ख बहुत था रावण।

 

धर्म-विरोधी, काण्ड-विरोधी

निर्मम, निर्दयी, हत्यारा,

असुर बुद्धि था रावण।

पर औरत को औरत माना

मूर्ख बहुत था रावण।

 

अपमान हुआ था एक बहन का

था लगाया दांव पर सिहांसन।

राजा था, बलशाली था

पर याचक बन बैठा था रावण

मूर्ख बहुत था रावण।

बालपन-सा था कभी

बालपन-सा था कभी निर्दोष मन

अब देखो साधता है हर दोष मन

कहां खो गई वो सादगी वो भोलापन

ढू्ंढता है दूसरों में हर खोट मन

शरद

हाइकु

शरद ऋतु

मीठी मीठी बयार

मन मुदित

-

कण बरसें

शरद की चांदनी

मन हुलसे

-

शरद ऋतु

चंदा की चांदनी

मन हुलसा

-

ओस के कण

पत्तों पर बहकते

भाव बिखरे

 

अभिलाषाओं के कसीदे

आकाश पर अभिलाषाओं के कसीदे कढ़े थे
भावनाओं के ज्वार से माणिक-मोती जड़े थे
न जाने कब एक धागा छूटा हाथ से मेरे
समय से पहले ही सारे ख्वाब ज़मीन पर पड़े थे

कभी कुछ नहीं बदलता

एक वर्ष

और गया मेरे जीवन से।

.

अथवा

यह कहना शायद

ज़्यादा अच्छा लगेगा,

कि

एक वर्ष

और मिला जीने के लिए।

.

जीवन एक रेखा है,

जिस पर हम

बढ़ते हैं,

चलते तो आगे हैं,

पर पता नहीं क्यों,

पीछे मुड़कर

देखने लगते हैं।

.

समस्याओं,

उलझनों से जूझते,

बीत रहा था 2020

जैसे रोज़, हर रोज़

प्रतीक्षा करते थे

एक नये वर्ष की,

खटखटाएगा द्वार।

भीतर आकर

सहलायेगा माथा।

न निराश हो,

आ गया हूं अब मैं

सब बदल दूंगा।

.

पर मुझे अक्सर लगता है,

कभी कुछ नहीं बदलता।

कुछ हेर-फ़ेर के साथ

ज़िन्दगी, दोहराती है,

बस हमारी समझ का फ़ेर है।

 

हिन्दी की हम बात करें

शिक्षा से बाहर हुई, काम काज की भाषा नहीं, हम मानें या न मानें

हिन्दी की हम बात करें , बच्चे पढ़ते अंग्रेज़ी में, यह तो हम हैं जाने

विश्वगुरू बनने चले , अपने घर में मान नहीं है अपनी ही भाषा का

वैज्ञानिक भाषा को रोमन में लिखकर हम अपने को हिन्दीवाला मानें

बुढ़िया सठिया गई है

प्रेम मनुहार की बात करती हूं वो मुझे दवाईयों का बक्सा दिखाता है।

तीज त्योहार पर सोलह श्रृंगार करती हूं वो मुझे आईना दिखाता है।

याद दिलाती हूं वो यौवन के दिन,छिप छिप कर मिलना,रूठना-मनाना ।

कहता है बुढ़िया सठिया गई है, पागलखाने का रास्ता दिखाता है।

आत्मविश्वास :यह अंहकार नहीं है

आत्मविश्वास की डोर लिए चलते हैं यह अभिमान नहीं है।

स्वाभिमान हमारा सम्बल है यह दर्प का आधार नहीं है।

साहस दिखलाया आत्मनिर्भरता का, मार्ग यह सुगम नहीं,

अस्तित्व बनाकर अपना, जीते हैं, यह अंहकार नहीं है।

 

सागर की गहराईयों सा मन

सागर की गहराईयों सा मन।

सागर के सीने में

अनगिन मणि-रत्नम्

कौन ढूंढ पाया है आज तलक।

.

मन में रहते भाव-संगम

उलझे-उलझे, बिखरे-बिखरे,

कौन समझ पाया है

आज तलक।

.

लहरें आती हैं जाती हैं,

हिचकोले लेती नाव।

जग-जगत् में

मन भागम-भाग किया करता है,

कहां मिलता आराम।

.

खुले नयनों पर वश है अपना,

देखें या न देखें।

पर बन्द नयन

न जाने क्या-क्या दिखला जाते हैं,

अनजाने-अनचाहे भाव सुना जाते हैं,

जिनसे बचना चाहें,

वे सब रूप दिखा जाते हैं।

अगला-पिछला, अच्छा-बुरा

सब हाल बता जाते हैं,

अनचाहे मोड़ों पर खड़ा कर

कभी हंसी देकर,

तो कभी रूलाकर चले जाते हैं।

 

 

सूखी धरती करे पुकार

वातानुकूलित भवनों में बैठकर जल की योजनाएं बनाते हैं

खेल के मैदानों पर अपने मनोरंजन के लिए पानी बहाते हैं

बोतलों में बन्द पानी पी पीकर, सूखी धरती को तर करेंगे

सबको समान सुविधाएं मिलेंगी, सुनते हैं कुछ ऐसा कहते हैं

गगन 1

गगन के आंचल में

चांद खेलता।

बिखेरता चांदनी,

जीवन हमारा

दमकता।

 

बचाकर रखी है भीतर तरलता

कितना भी काट लो, कुछ है, जो जड़ें  जमाये रखता है

न भीतर से टूटने देता है, मन में इक आस बनाये रखता है

बचाकर रखी है भीतर तरलता, नयी पौध तो पनपेगी ही,

धरा से जुड़े हैं तो कदम संभलेंगे, यह विश्वास जगाये रखता है

 

खण्डित दर्पण सच बोलता है

कहते हैं
खण्डित दर्पण में
चेहरा देखना अपशकुन होता है।
शायद इसलिए
कि इस खण्डित दर्पण के
टुकड़ों में
हमें अपने
सारे असली चेहरे
दिखाई देने लगते हैं
और हम समझ नहीं पाते
कहां जाकर
अपना यह चेहरा छुपायें।
*-*-**-*-
एक बात और
जब दर्पण टूटता है
तो अक्सर खरोंच भी
पड़ जाया करती है
फिर चेहरे नहीं दिखते
खरोंचे सालती हैं जीवन-भर।
*-*-*-*-*-
एक बात और
कहते हैं दर्पण सच बोलता है
पर मेरी मानों
तो दर्पण पर
भरोसा मत करना कभी
उल्टे को सीधा
और सीधे को उल्टा दिखाता है

 

सुन्दर इंद्रधनुष लाये बादल
शरारती से न जाने कहां -कहां जायें पगलाये बादल

कही धूप, कहीं छांव कहीं यूं ही समय बितायें बादल

कभी-कभी बड़ी अकड़ दिखाते, यहां-वहां छुप जाते

डांट पड़ी तब जलधार संग सुन्दर इंद्रधनुष लाये बादल

सबके सपनों की गठरी बांधे

परदे में रहती थी पर परदे से बाहर की दुनिया समझाती थी मां

अक्षर ज्ञान नहीं था पर पढ़े-लिखों से ज्यादा ज्ञान रखती थी मां

सबके सपनों की गठरी बांधे,  जाने कब सोती थी कब उठती थी

घर भर में फिरकी सी घूमती पल भर में सब निपटा लेती थी मां

समझिए समय की दरकार

 

हाथ मिलाना मना है, समझाया था, कीजिए नमस्कार।

चेहरों के भाव परखिए, आंखों के भाव समझिए सरकार।

कौन जाने किसके हाथों में कांटें छुपे हैं, कहां चुभेंगें,

मन को परखना सीखिए, यही है समय की दरकार।

सोने की  हैं ये कुर्सियां

सरकार अपनी आ गई है चल अब तोड़ाे जी ये कुर्सियां

काम-धाम छोड़-छाड़कर अब सोने की  हैं जी ये कुर्सियां

पांच साल का टिकट कटा है हमरे इस आसन का

कई पीढ़ियों का बजट बनाकर देंगी देखो जी ये कुर्सियां

कैसे आया बसन्त

बसन्त यूँ ही नहीं आ जाता

कि वर्ष, तिथि, दिन बदले

और लीजिए

आ गया बसन्त।

-

मन के उपवन में

सुमधुर भावों की रिमझिम

कुछ ओस की बूंदें बहकीं

कुछ खुशबू कुछ रंगों के संग

कहीं दूर कोयल कूक उठी।

 

असमंजस

भीड़ से बचते हैं हम

लेकिन

अकेलापन पूछता है

क्या तुम्हारा कोई नहीं।

क्या कहूं

अपने-आप से

या अकेलेपन से।

भीड़ इतनी

कि अपने-पराये की पहचान

कहीं खो गई है।

या तो सब अपने-से लगते हैं

या कोई नहीं।

और भीड़ का तो

कोई चेहरा भी नहीं,

किसे कहूं अपना

और किसे छोड़ दूं।

 

यह कैसा असमंजस है।

 

उधारों पर दुनिया चलती है

सिक्कों का अब मोल कहाँ

मिट्टी से तो लगते हैं।

पैसे की अब बात कहाँ

रंगे कार्ड-से मिलते हैं।

बचत गई अब कागज़ में

हिसाब कहाँ अब मिलते हैं।

खन-खन करते सिक्के

मुट्ठी में रख लेते थे।

पाँच-दस पैसे से ही तो

नवाब हम हुआ करते थे।

गुल्लक कब की टूट गई

बचत हमारी गोल हुई।

मंहगाई-टैक्सों की चालों से

बुद्धि हमारी भ्रष्ट हुई।

पैसे-पैसे को मोहताज हुए,

किससे मांगें, किसको दे दें।

उधारों पर दुनिया चलती है

शान इसी से बनती है।

 

मन के पिंजरे खोल रे मनवा

मन विहग!

मन के पिंजरे खोल रे मनवा,

मन के बंधन तोड़ रे मनवा।

कुछ तो टूटेगा,

कुछ तो बिखरेगा,

कुछ तो बदलेगा।

गगन विशाल,

उड़ान बड़ी है,

पंख मिले छोटे,

कुछ कतरे गये।

कुछ टूटे,

कुछ बिखर गये।

चाहत न छोड़,

मन को न मोड़,

उड़ान भर,

आज नहीं तो कल,

कल नहीं तो कभी,

या फिर अभी

चाहतों को जोड़,

मन को न मोड़।

उड़ान भर।

न डर, बस

मन के पिंजरे खोल रे मनवा,

मन के बंधन तोड़ रे मनवा।

वहीं के वहीं खड़े हैं

क्यों पूछते हो

कहाँ आ गये।

अक्सर लगता है

जहाँ से चले थे

वहीं के वहीं खड़े हैं

कदम ठहरे से

भाव सहमे से

प्रश्न झुंझलाते से

उत्तर नाकाम।

न लहरों में

लहरें

न हवाओं में

सिरहन

न बातों में

मिठास

न अपनों से

अपनापन

भावहीन-सा मन

क्यों पूछते हो

कहाँ आ गये

एक अर्थहीन

ठहराव में जी रहे हैं

क्यों पूछते हो

कहाँ आ गये।

अक्सर लगता है

जहाँ से चले थे

वहीं के वहीं खड़े हैं।

 

जिन्दगी की आग में सिंकी मां

बहुत याद आती हैं

मां के हाथ की वो दो सूखी रोटियां

आम की फांक के साथ

अखबार के पन्ने में लपेटकर दिया करती थी

स्कूल के लिए।

और उन दो सूखी रोटियों की ताकत से

हम दिन भर मस्त रहते थे।

आम की फांक को तब तक चूसते थे

जब तक उसकी जान नहीं निकल जाती थी।

चूल्हे की आग में तपी रोटियां

एक बेनामी सी दाल-सब्जी

अजब-गजब स्वाद वाली

कटोरियां भर-भर पी जाते थे

आग में भुने आलू-कचालू

नमक के साथ निगल जाते थे।

चूल्हे को घेरकर बैठे

बतियाते, हंसते, लड़ते,

झीना-झपटी करते।

अपनी थाली से ज्यादा स्वाद

दूसरे की थाली में आता था।

रात की बची रोटियों का करारापन

चाय के प्याले के साथ।

और तड़का भात नाश्ते में

खट्टी-मीठी चटनियां

गुड़-शक्कर का मीठा

चूरी के साथ खा जाते थे पूरी रोटी।

जिन्दगी की आग में सिंकी मां,

और उसके हाथ की बनी रोटियों से मिली

संघर्ष की पौष्टिकता

आज भी भीतर ज्वलन्त है।

छप्पन भोग बनाने-खाने के बाद भी

तरसती हूं इस स्वाद के लिए।

बनाने की कोशिश करती हूं

पर वह स्वाद तो मां के साथ चला गया।

अगर आपके घर में हो ऐसी रोटियां और ऐसा स्वाद

तो मुझे ज़रूर न्यौता देना

किस असमंजस में पड़ी है ज़िन्दगी

गत-आगत के मोह से जुड़ी है ज़िन्दगी

स्मृतियों के जोड़ पर खड़ी है ज़िन्दगी

मीठी-खट्टी जो भी हैं, हैं तो सब अपनी

जाने किस असमंजस में पड़ी है ज़िन्दगी

कौन किसी का होता है
पत्थर संग्रहालयों में सुरक्षित हैं जीवन सड़कों पर रोता है

अरबों-खरबों से खेल रहे हम रुपया हवा हो रहा होता है

किसकी मूरत, किसकी सूरत, न पहचानी, बस नाम दे रहे

बस शोर मचाए बैठे हैं, यहाँ अब कौन किसी का होता है

कंधों पर सिर लिए घूमते हैं

इस रचना में पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग किया गया है, पर्यायवाची शब्दों में भी अर्थ भेद होता है, इसी अर्थ भेद के कारण मुहावरे बनते हैं, ऐसा मैं समझती हूं, इसी दृष्टि से इस रचना का सृजन हुआ है

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सुनते हैं

अक्ल घास चरने गई है

मति मारी गई है

और समझ भ्रष्ट हो गई है

विवेक-अविवेक का अन्तर

भूल गये हैं

और मनीषा, प्रज्ञा, मेधा 

हमारे ऋषि-मुनियों की

धरोहर हुआ करती थीं

जिन्हें हम सम्हाल नहीं पाये

अपनी धरोहर को।

 बुद्धि-विवेक कहीं राह में छूट गये

और हम

यूं ही

कंधों पर सिर लिए घूमते हैं।

 

 

प्राकृतिक सौन्दर्य

प्रतिबिम्बित होती किरणों की प्रतिच्छाया शोभित है
फूलों की दमकती गुलाबी आभा से मन मोहित है
तितली बैठी धूप सेंकती, फूलों से अनुराग बंधा
मोहक, सुन्दर, सौम्य छवि देख मन आलोकित है

सखियाँ झूला झूलें
हिलमिल सखियाँ झूला झूलें 

कभी धरा, कभी गगन छू लें

फुहारें मन मुदित कर रहीं

खुशियों के भर-भर घूंट पी लें

ज़िन्दगी ज़िन्दगी हो उठी

प्रकृति में

बिखरे सौन्दर्य को

अपनी आँखों में

समेटकर

मैंने आँखें बन्द कर लीं।

हवाओं की

रमणीयता को

चेहरे से छूकर

बस गहरी साँस भर ली।

आकर्षक बसन्त के

सुहाने मौसम की

बासन्ती चादर

मन पर ओढ़ ली।

सुरम्य घाटियों सी गहराई

मन के भावों से जोड़ ली।

और यूँ ज़िन्दगी

सच में ज़िन्दगी हो उठी।