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आत्मविश्वास :यह अंहकार नहीं है

आत्मविश्वास की डोर लिए चलते हैं यह अभिमान नहीं है।

स्वाभिमान हमारा सम्बल है यह दर्प का आधार नहीं है।

साहस दिखलाया आत्मनिर्भरता का, मार्ग यह सुगम नहीं,

अस्तित्व बनाकर अपना, जीते हैं, यह अंहकार नहीं है।

 

सागर की गहराईयों सा मन

सागर की गहराईयों सा मन।

सागर के सीने में

अनगिन मणि-रत्नम्

कौन ढूंढ पाया है आज तलक।

.

मन में रहते भाव-संगम

उलझे-उलझे, बिखरे-बिखरे,

कौन समझ पाया है

आज तलक।

.

लहरें आती हैं जाती हैं,

हिचकोले लेती नाव।

जग-जगत् में

मन भागम-भाग किया करता है,

कहां मिलता आराम।

.

खुले नयनों पर वश है अपना,

देखें या न देखें।

पर बन्द नयन

न जाने क्या-क्या दिखला जाते हैं,

अनजाने-अनचाहे भाव सुना जाते हैं,

जिनसे बचना चाहें,

वे सब रूप दिखा जाते हैं।

अगला-पिछला, अच्छा-बुरा

सब हाल बता जाते हैं,

अनचाहे मोड़ों पर खड़ा कर

कभी हंसी देकर,

तो कभी रूलाकर चले जाते हैं।

 

 

सूखी धरती करे पुकार

वातानुकूलित भवनों में बैठकर जल की योजनाएं बनाते हैं

खेल के मैदानों पर अपने मनोरंजन के लिए पानी बहाते हैं

बोतलों में बन्द पानी पी पीकर, सूखी धरती को तर करेंगे

सबको समान सुविधाएं मिलेंगी, सुनते हैं कुछ ऐसा कहते हैं

समय यूँ ही बीत जाता है

एकान्त

कभी-कभी अच्छा लगता है।

सूनापन

मन में रमता है।

जल, धरा, गगन

मानों परस्पर बातें करते हैं,

जीवन छलकता है।

नाव रुकी, ठहरी-ठहरी-सी

परख रही हवाएँ

जीवन यूँ ही चलता है।

अंधेरा, रोशनी,

जीवन में धुंधलापन

बहकता है।

हाथों में डोरी

कुछ सवाल बुनती है

कभी उधेड़ती है

कभी समेटती है

समय यूँ ही बीत जाता है।

     

गगन 1

गगन के आंचल में

चांद खेलता।

बिखेरता चांदनी,

जीवन हमारा

दमकता।

 

बचाकर रखी है भीतर तरलता

कितना भी काट लो, कुछ है, जो जड़ें  जमाये रखता है

न भीतर से टूटने देता है, मन में इक आस बनाये रखता है

बचाकर रखी है भीतर तरलता, नयी पौध तो पनपेगी ही,

धरा से जुड़े हैं तो कदम संभलेंगे, यह विश्वास जगाये रखता है

 

खण्डित दर्पण सच बोलता है

कहते हैं
खण्डित दर्पण में
चेहरा देखना अपशकुन होता है।
शायद इसलिए
कि इस खण्डित दर्पण के
टुकड़ों में
हमें अपने
सारे असली चेहरे
दिखाई देने लगते हैं
और हम समझ नहीं पाते
कहां जाकर
अपना यह चेहरा छुपायें।
*-*-**-*-
एक बात और
जब दर्पण टूटता है
तो अक्सर खरोंच भी
पड़ जाया करती है
फिर चेहरे नहीं दिखते
खरोंचे सालती हैं जीवन-भर।
*-*-*-*-*-
एक बात और
कहते हैं दर्पण सच बोलता है
पर मेरी मानों
तो दर्पण पर
भरोसा मत करना कभी
उल्टे को सीधा
और सीधे को उल्टा दिखाता है

 

सुन्दर इंद्रधनुष लाये बादल
शरारती से न जाने कहां -कहां जायें पगलाये बादल

कही धूप, कहीं छांव कहीं यूं ही समय बितायें बादल

कभी-कभी बड़ी अकड़ दिखाते, यहां-वहां छुप जाते

डांट पड़ी तब जलधार संग सुन्दर इंद्रधनुष लाये बादल

सबके सपनों की गठरी बांधे

परदे में रहती थी पर परदे से बाहर की दुनिया समझाती थी मां

अक्षर ज्ञान नहीं था पर पढ़े-लिखों से ज्यादा ज्ञान रखती थी मां

सबके सपनों की गठरी बांधे,  जाने कब सोती थी कब उठती थी

घर भर में फिरकी सी घूमती पल भर में सब निपटा लेती थी मां

समझिए समय की दरकार

 

हाथ मिलाना मना है, समझाया था, कीजिए नमस्कार।

चेहरों के भाव परखिए, आंखों के भाव समझिए सरकार।

कौन जाने किसके हाथों में कांटें छुपे हैं, कहां चुभेंगें,

मन को परखना सीखिए, यही है समय की दरकार।

सोने की  हैं ये कुर्सियां

सरकार अपनी आ गई है चल अब तोड़ाे जी ये कुर्सियां

काम-धाम छोड़-छाड़कर अब सोने की  हैं जी ये कुर्सियां

पांच साल का टिकट कटा है हमरे इस आसन का

कई पीढ़ियों का बजट बनाकर देंगी देखो जी ये कुर्सियां

कैसे आया बसन्त

बसन्त यूँ ही नहीं आ जाता

कि वर्ष, तिथि, दिन बदले

और लीजिए

आ गया बसन्त।

-

मन के उपवन में

सुमधुर भावों की रिमझिम

कुछ ओस की बूंदें बहकीं

कुछ खुशबू कुछ रंगों के संग

कहीं दूर कोयल कूक उठी।

 

असमंजस

भीड़ से बचते हैं हम

लेकिन

अकेलापन पूछता है

क्या तुम्हारा कोई नहीं।

क्या कहूं

अपने-आप से

या अकेलेपन से।

भीड़ इतनी

कि अपने-पराये की पहचान

कहीं खो गई है।

या तो सब अपने-से लगते हैं

या कोई नहीं।

और भीड़ का तो

कोई चेहरा भी नहीं,

किसे कहूं अपना

और किसे छोड़ दूं।

 

यह कैसा असमंजस है।

 

उधारों पर दुनिया चलती है

सिक्कों का अब मोल कहाँ

मिट्टी से तो लगते हैं।

पैसे की अब बात कहाँ

रंगे कार्ड-से मिलते हैं।

बचत गई अब कागज़ में

हिसाब कहाँ अब मिलते हैं।

खन-खन करते सिक्के

मुट्ठी में रख लेते थे।

पाँच-दस पैसे से ही तो

नवाब हम हुआ करते थे।

गुल्लक कब की टूट गई

बचत हमारी गोल हुई।

मंहगाई-टैक्सों की चालों से

बुद्धि हमारी भ्रष्ट हुई।

पैसे-पैसे को मोहताज हुए,

किससे मांगें, किसको दे दें।

उधारों पर दुनिया चलती है

शान इसी से बनती है।

 

मन के पिंजरे खोल रे मनवा

मन विहग!

मन के पिंजरे खोल रे मनवा,

मन के बंधन तोड़ रे मनवा।

कुछ तो टूटेगा,

कुछ तो बिखरेगा,

कुछ तो बदलेगा।

गगन विशाल,

उड़ान बड़ी है,

पंख मिले छोटे,

कुछ कतरे गये।

कुछ टूटे,

कुछ बिखर गये।

चाहत न छोड़,

मन को न मोड़,

उड़ान भर,

आज नहीं तो कल,

कल नहीं तो कभी,

या फिर अभी

चाहतों को जोड़,

मन को न मोड़।

उड़ान भर।

न डर, बस

मन के पिंजरे खोल रे मनवा,

मन के बंधन तोड़ रे मनवा।

भारत की है हिन्दी बोली

अच्छा लगता है मुझे

हिन्दी में बात करना।

अच्छा लगता है मुझे

किसी को हिन्दी में

बात करते हुए सुनना।

अच्छा लगता है मुझे

जब कोई बताता है

कि हिन्दी एक वैज्ञानिक भाषा है,

जहाॅं जो कहा जाता है

वही लिखा जाता है

और वही सुना जाता है।

अच्छा लगता है मुझे

जब कोई कहता है

विश्व में

सर्वाधिक बोली-समझी जाने वाली

भाषाओं में एक है

हमारी हिन्दी भाषा।

 

किन्तु उस समय

मेरा मन

उदास हो जाता है

जब कोई कहता है

हिन्दी एक कठिन भाषा है

इसे सरल होना चाहिए,

अकारण ही

अन्य भाषाओं के

निरर्थक शब्दों का समावेश

चुभता है मुझे।

अपने शब्दों को

कठिन बताकर

विदेशी नवीन शब्दों को

ग्रहण कर लेते हैं हम

किन्तु हिन्दी के जाने-पहचाने शब्द

छोड़ जाते हैं हम।

 

रोमन में लिखते

हिन्दी वर्णमाला को भूल रहे हैं हम।

मानक वर्णमाला कहीं खो गई है

42, 48, 52 के चक्कर में फ़ंसे हुए हैं हम।

 

वैज्ञानिक भाषा की बात करें

बच्चों को कैसे समझाएॅं हम।

उच्चारण, लेखन का सम्बन्ध टूट गया

कुछ भी लिखते

कुछ भी बोल रहे हम।

चन्द्रबिन्दु गायब हो गये

अनुस्वर न जाने कहॉं खो गये

उच्चारण को भ्रष्ट किया,

सरलता के नाम पर

शुद्ध शब्दों से भाग रहें हम।

शिक्षा से दूर हो गई,

माध्यम भी न रह गई,

ऑनलाईन अंग्रेज़ी के माध्यम से

हिन्दी लिख-पढ़ सीख रहे हम।

अंग्रेज़ी में हिन्दी  लिखकर

उनसे हिन्दी मॉंग रहे हम।

अनुवाद की भाषा बनकर रह गई,

इंग्लिश-विंग्लिश लिखकर

गूगल से  कहते हिन्दी दे दो,

हिन्दी दे दो।

 

न जाने किस विवशता में

हिन्दी के बारे में न सोच रहे हैं हम।

 

चलो, आज

हिन्दी के लिए एक आन्दोलन करें

शिक्षा का माध्यम बने हिन्दी

जन-जन की भाषा बने हिन्दी

हर मन की भाषा बने हिन्दी

अपनी पहचान बने हिन्दी।

 

लेकिन फिर भी

हिन्दी सबसे प्यारी बोली।

हिन्दी सबसे न्यारी बोली।

भारत की है हिन्दी बोली।

वहीं के वहीं खड़े हैं

क्यों पूछते हो

कहाँ आ गये।

अक्सर लगता है

जहाँ से चले थे

वहीं के वहीं खड़े हैं

कदम ठहरे से

भाव सहमे से

प्रश्न झुंझलाते से

उत्तर नाकाम।

न लहरों में

लहरें

न हवाओं में

सिरहन

न बातों में

मिठास

न अपनों से

अपनापन

भावहीन-सा मन

क्यों पूछते हो

कहाँ आ गये

एक अर्थहीन

ठहराव में जी रहे हैं

क्यों पूछते हो

कहाँ आ गये।

अक्सर लगता है

जहाँ से चले थे

वहीं के वहीं खड़े हैं।

 

जिन्दगी की आग में सिंकी मां

बहुत याद आती हैं

मां के हाथ की वो दो सूखी रोटियां

आम की फांक के साथ

अखबार के पन्ने में लपेटकर दिया करती थी

स्कूल के लिए।

और उन दो सूखी रोटियों की ताकत से

हम दिन भर मस्त रहते थे।

आम की फांक को तब तक चूसते थे

जब तक उसकी जान नहीं निकल जाती थी।

चूल्हे की आग में तपी रोटियां

एक बेनामी सी दाल-सब्जी

अजब-गजब स्वाद वाली

कटोरियां भर-भर पी जाते थे

आग में भुने आलू-कचालू

नमक के साथ निगल जाते थे।

चूल्हे को घेरकर बैठे

बतियाते, हंसते, लड़ते,

झीना-झपटी करते।

अपनी थाली से ज्यादा स्वाद

दूसरे की थाली में आता था।

रात की बची रोटियों का करारापन

चाय के प्याले के साथ।

और तड़का भात नाश्ते में

खट्टी-मीठी चटनियां

गुड़-शक्कर का मीठा

चूरी के साथ खा जाते थे पूरी रोटी।

जिन्दगी की आग में सिंकी मां,

और उसके हाथ की बनी रोटियों से मिली

संघर्ष की पौष्टिकता

आज भी भीतर ज्वलन्त है।

छप्पन भोग बनाने-खाने के बाद भी

तरसती हूं इस स्वाद के लिए।

बनाने की कोशिश करती हूं

पर वह स्वाद तो मां के साथ चला गया।

अगर आपके घर में हो ऐसी रोटियां और ऐसा स्वाद

तो मुझे ज़रूर न्यौता देना

किस असमंजस में पड़ी है ज़िन्दगी

गत-आगत के मोह से जुड़ी है ज़िन्दगी

स्मृतियों के जोड़ पर खड़ी है ज़िन्दगी

मीठी-खट्टी जो भी हैं, हैं तो सब अपनी

जाने किस असमंजस में पड़ी है ज़िन्दगी

कौन किसी का होता है
पत्थर संग्रहालयों में सुरक्षित हैं जीवन सड़कों पर रोता है

अरबों-खरबों से खेल रहे हम रुपया हवा हो रहा होता है

किसकी मूरत, किसकी सूरत, न पहचानी, बस नाम दे रहे

बस शोर मचाए बैठे हैं, यहाँ अब कौन किसी का होता है

कंधों पर सिर लिए घूमते हैं

इस रचना में पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग किया गया है, पर्यायवाची शब्दों में भी अर्थ भेद होता है, इसी अर्थ भेद के कारण मुहावरे बनते हैं, ऐसा मैं समझती हूं, इसी दृष्टि से इस रचना का सृजन हुआ है

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सुनते हैं

अक्ल घास चरने गई है

मति मारी गई है

और समझ भ्रष्ट हो गई है

विवेक-अविवेक का अन्तर

भूल गये हैं

और मनीषा, प्रज्ञा, मेधा 

हमारे ऋषि-मुनियों की

धरोहर हुआ करती थीं

जिन्हें हम सम्हाल नहीं पाये

अपनी धरोहर को।

 बुद्धि-विवेक कहीं राह में छूट गये

और हम

यूं ही

कंधों पर सिर लिए घूमते हैं।

 

 

प्राकृतिक सौन्दर्य

प्रतिबिम्बित होती किरणों की प्रतिच्छाया शोभित है
फूलों की दमकती गुलाबी आभा से मन मोहित है
तितली बैठी धूप सेंकती, फूलों से अनुराग बंधा
मोहक, सुन्दर, सौम्य छवि देख मन आलोकित है

सखियाँ झूला झूलें
हिलमिल सखियाँ झूला झूलें 

कभी धरा, कभी गगन छू लें

फुहारें मन मुदित कर रहीं

खुशियों के भर-भर घूंट पी लें

ज़िन्दगी ज़िन्दगी हो उठी

प्रकृति में

बिखरे सौन्दर्य को

अपनी आँखों में

समेटकर

मैंने आँखें बन्द कर लीं।

हवाओं की

रमणीयता को

चेहरे से छूकर

बस गहरी साँस भर ली।

आकर्षक बसन्त के

सुहाने मौसम की

बासन्ती चादर

मन पर ओढ़ ली।

सुरम्य घाटियों सी गहराई

मन के भावों से जोड़ ली।

और यूँ ज़िन्दगी

सच में ज़िन्दगी हो उठी।

 

 

मन वन-उपवन में

यहीं कहीं

वन-उपवन में

घन-सघन वन में

उड़ता है मन

तिेतली के संग।

न गगन की उड़ान है

न बादलों की छुअन है

न चांद तारों की चाहत है

इधर-उधर

रंगों से बातें होती हैं

पुष्पों-से भाव

खिल- खिल खिलते हैं

पत्ती-पत्ती छूते हैं

तृण-कंटक हैं तो क्या,

वट-पीपल तो क्या,

सब अपने-से लगते हैं।

बस यहीं कहीं

आस-पास

ढूंढता है मन अपनापन

तितली के संग-संग

घूमता है मन

सुन्दर वन-उपवन में।

कैसे होगा तारण

आज डूबने का मन है कहां डूबें बता रे मन

सागर-दरिया में जल है किन्तु वहां है मीन

जो कर्म किये बैठे हैं इस जहां में हम लोग

चुल्लू-भर पानी में डूब मरें तभी तो होगा तारण

मेरी वीणा के तारों में ऐसी झंकार

काल की रेखाओं में

सुप्त होकर रह गये थे

मेरे मन के भाव।

दूरियों ने

मन रिक्त कर दिया था

सिक्त कर दिया था

आहत भावनाओं ने।

बसन्त की गुलाबी हवाएँ

उन्मादित नहीं करतीं थीं

न सावन की घटाएँ

पुकारती थीं

न सुनाती थीं प्रेम कथाएँ।

कोई भाव

नहीं आता था मन में

मधुर-मधुर रिमझिम से।

अपने एकान्त में

नहीं सुनना चाहती थी मैं

कोई भी पुकार।

.

किन्तु अनायास

मन में कुछ राग बजे

आँखों में झिलमिल भाव खिले

हुई अंगुलियों में सरसराहट

हृदय प्रकम्पित हुआ,

सुर-साज सजे।

तो क्या

वह लौट आया मेरे जीवन में

जिसे भूल चुकी थी मैं

और कौन देता

मेरी वीणा के तारों में

ऐसी झंकार।

 

 

संगीतकार हूं मैं

 

एक मधुर संगीतकार हूं  कोई तो मुझको सुन लो जी।

टर्र टर्र करता हूं  एक नया राग है तुम गुन लो जी।

हरी भरी बगिया में बैठा हूं गीता गाता हूं आनन्दित हूं,

गायन प्रतियोगिता के लिए मुझसे एक नई धुन लो जी।

कोशिश तो करते हैं

लिखने की

कोशिश तो करते हैं

पर क्या करें हे राम!

छुट्टी के दिन करने होते हैं

घर के बचे-खुचे कुछ काम।

धूप बुलाती आंगन में

ले ले, ले ले विटामिन डी

एक बजे तक सेंकते हैं

धूप जी-भरकर जी।

फिर करके भारी-भारी भोजन

लेते हैं लम्बी नींद जी।

संध्या समय

मंथन पढ़ते-पढ़ते ही

रह जाते हैं हम

जब तक सोंचे

कमेंट करें

आठ बज जाते हैं जी।

फिर भी

लिखने की

कोशिश तो करते हैं

पर क्या करें हे राम!

 

बस जूझना पड़ता है

मछलियां गहरे पानी में मिलती हैं

किसी मछुआरे से पूछना।

माणिक-मोती पाने के लिए भी

गहरे सागर में

उतरना पड़ता है,

किसी ज्ञानी से बूझना।

किश्तियां भी

मझधार में ही डूबती हैं

किसी नाविक से पूछना।

तल-अतल की गहराईयों में

छिपा है ज्ञान का अपरिमित भंडार,

किसी वेद-ध्यानी से पूछना।

पाताल लोक से

चंद्र-मणि पाने के लिए

कौन-सी राह जाती है,

किसी अध्यवसायी से पूछना।

.

उपलब्धियों को पाने के लिए

गहरे पानी में 

उतरना ही पड़ता है।

जूझना पड़ता है,

सागर की लहरों से,

सहना पड़ता है

मझधार के वेग को,

और आकाश से पाताल

तक का सफ़र तय करना पड़ता है।

और इन कोशिशों के बीच

जीवन में विष मिलेगा

या अमृत,

यह कोई नहीं जानता।

बस जूझना पड़ता है।