दिल चीज़ क्या है
आज किसी ने पूछा
‘‘दिल चीज़ क्या है’’?
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अब क्या-क्या बताएँ आपको
बड़़ी बुरी चीज़ है ये दिल।
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हाय!!
कहीं सनम दिल दे बैठे
कहीं टूट गया दिल
किसी पर दिल आ गया,
किसी को देखकर
धड़कने रुक जाती हैं
तो कहीं तेज़ हो जाती हैं
कहीं लग जाता है किसी का दिल
टूट जाता है, फ़ट जाता है
बिखर-बिखर जाता है
तो कोई बेदिल हो जाता है सनम।
पागल, दीवाना है दिल
मचलता, बहकता है दिल
रिश्तों का बन्धन है
इंसानियत का मन्दिर है
ये दिल।
कहीं हो जाते हैं
दिल के हज़ार टुकड़े
और किसी -किसी का
दिल ही खो ही जाता है।
कभी हो जाती है
दिलों की अदला-बदली।
फिर भी ज़िन्दा हैं जनाब!
ग़जब !
और कुछ भी हो
धड़कता बहुत है यह दिल।
इसलिए
अपनी धड़कनों का ध्यान रखना।
वैसे तो सुना है
मिनट-भर में
72 बार
धड़कता है यह दिल।
लेकिन
ज़रा-सी ऊँच-नीच होने पर
लाखों लेकर जाता है
यह दिल।
इसलिए
ज़रा सम्हलकर रहिए
इधर-उधर मत भटकने दीजिए
अपने दिल को।
अहं सर्वत्र रचयिते : एक व्यंग्य
हम कविता लिखते हैं।
कविता को गज़ल, गज़ल को गीत, गीत को नवगीत, नवगीत को मुक्त छन्द, मुक्त छन्द को मुक्तक और चतुष्पदी बनाना जानते हैं। और इन सबको गद्य की विविध विधाओं में परिवर्तित करना भी जानते हैं।
अर्थात् , मैं ही लेखक हूँ, मैं ही कवि, गीतकार, गज़लकार, साहित्यकार, गद्य-पद्य की रचयिता, , प्रकाशक, मुद्रक, विक्रेता, क्रेता, आलोचक, समीक्षक भी मैं ही हूँ।
मैं ही संचालक हूँ, मैं ही प्रशासक हूँ।
सब मंचों पर मैं ही हूँ।
इस हेतु समय-समय पर हम कार्यशालाएँ भी आयोजित करते हैं।
अहं सर्वत्र रचयिते।
जरा सी रोशनी के लिए
जरा सी रोशनी के लिए
सूरज धरा पर उतारने में लगे हैं
जरा सी रोशनी के लिए
दीप से घर जलाने में लगे हैं
ज़रा-सी रोशनी के लिए
हाथ पर लौ रखकर घुमाने में लगे हैं
ज़रा-सी रोशनी के लिए
चांद-तारों को बहकाने में लगे हैं
ज़रा-सी रोशनी के लिए
आज की नहीं
कल की बात करने में लगे हैं
ज़रा -सी रोशनी के लिए
यूं ही शोर मचाने में लगे हैं।
.
यार ! छोड़ न !!
ट्यूब लाईट जला ले,
या फिर
सी एफ़ एल लगवा ले।।।
कोशिश तो करते हैं
लिखने की
कोशिश तो करते हैं
पर क्या करें हे राम!
छुट्टी के दिन करने होते हैं
घर के बचे-खुचे कुछ काम।
धूप बुलाती आंगन में
ले ले, ले ले विटामिन डी
एक बजे तक सेंकते हैं
धूप जी-भरकर जी।
फिर करके भारी-भारी भोजन
लेते हैं लम्बी नींद जी।
संध्या समय
मंथन पढ़ते-पढ़ते ही
रह जाते हैं हम
जब तक सोंचे
कमेंट करें
आठ बज जाते हैं जी।
फिर भी
लिखने की
कोशिश तो करते हैं
पर क्या करें हे राम!
चोर-चोर मौसरे भाई
कहते हैं
चोर-चोर मौसरे भाई।
यह बात मेरी तो
कभी समझ न आई।
कितने भाई?
केवल मौसेरे ही क्यों भाई?
चचेरे, ममेरे की गिनती
क्यों नहीं आई?
और सगे कोई कम हैं,
उनकी बात क्यों न उठाई?
किसने देखे, किसने जाने
किसने पहचाने?
यूँ ही बदनाम किया
न जाने किसने यह
कहावत बनाई।
आधी रात होने को आई
और मेरी कविता
अभी तक न बन पाई।
और जब बात चोरों की है
तब क्या मौसेरे
और क्या चचेरे
सबसे डर कर रहना भाई।
बात चोरों की चली है
तो दरवाज़े-खिड़कियाँ
सब अच्छे से बन्द हैं
ज़रा देख लेना भाई।
एक शुरूआत की ज़रूरत है
सुना और पढ़ा है मैंने
कि कोई
पाप का घड़ा हुआ करता था
और सब
हाथ पर हाथ धरे
प्रतीक्षा में बैठे रहते थे
कि एक दिन तो भरेगा
और फूटेगा] तब देखेंगे।
मैं समझ नहीं पाई
आज तक
कि हम प्रतीक्षा क्यों करते हैं
कि पहले तो घड़ा भरे
फिर फूटे, फिर देखेंगे,
बतायेगा कोई मुझे
कि क्या देखेंगे ?
और यह भी
कि अगर घड़ा भरकर
फूटता है
तो उसका क्या किया जाता था।
और अगर घड़ा भरता ही जाता था
भरता ही जाता था
और फूटता नहीं था
तब क्या करते थे ?
पलायन का यह स्वर
मुझे भाता नहीं
इंतज़ार करना मुझे आता नहीं
आह्वान करती हूं,
घरों से बाहर निकलिए
घड़ों की शवयात्रा निकालिए।
श्मशान घाट में जाकर
सारे घड़े फोड़ डालिए।
बस पाप को नापना नहीं।
छोटा-बड़ा जांचना नहीं।
बस एक शुरूआत की ज़रूरत है।
बस एक से शुरूआत की ज़रूरत है।।।
झूठ का ज़माना है
एक अर्थहीन रचना
सजन रे झूठ मत बोलो
कौन बोला, कौन बोला
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सजन रे झूठ मत बोलो
कौन बोला, कौन बोला
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झूठ का ज़माना है
सच को क्यों आजमाना है
इधर की उधर कर
उधर की इधर कर
बस ऐसे ही नाम कमाना है
सच में अड़ंगे हैं
इधर-उधर हो रहे दंगे हैं
झूठ से आवृत्त करो
मन की हरमन करो,
नैनों की है बात यहां
टिम-टिम देखो करते
यहां-वहां अटके
टेढ़े -टेढ़े भटके
किसी से नैन-मटक्के
कहीं देख न ले सजन
बिगड़ा ये ज़माना है
किसे –किसे बताना है
कैसे किसी को समझाना है
छोड़ो ये ढकोसले
क्यों किसी को आजमाना है
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झूठ बोलो, झूठ बोलो
कौन बोला, कौन बोला
समय जब कटता नहीं
काम है नहीं कोई
इसलिए इधर की उधर
उधर की इधर
करने में लगे हैं हम आजकल ।
अपना नहीं,
औरों का चरित्र निहारने में
लगे हैं आजकल।
पांव धरा पर टिकते नहीं
आकाश को छूने की चाहत
करने लगे हैं हम आजकल।
समय जब कटता नहीं
हर किसी की बखिया उधेड़ने में
लगे रहते हैं हम आजकल।
और कुछ न हो तो
नई पीढ़ी को कोसने में
लगे हैं हम आजकल।
सुनाई देता नहीं, दिखाई देता नहीं
आवाज़ लड़खड़ाती है,
पर सारी दुनिया को
राह दिखाने में लगे हैं हम आजकल।
कंधों पर सिर लिए घूमते हैं
इस रचना में पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग किया गया है, पर्यायवाची शब्दों में भी अर्थ भेद होता है, इसी अर्थ भेद के कारण मुहावरे बनते हैं, ऐसा मैं समझती हूं, इसी दृष्टि से इस रचना का सृजन हुआ है
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सुनते हैं
अक्ल घास चरने गई है
मति मारी गई है
और समझ भ्रष्ट हो गई है
विवेक-अविवेक का अन्तर
भूल गये हैं
और मनीषा, प्रज्ञा, मेधा
हमारे ऋषि-मुनियों की
धरोहर हुआ करती थीं
जिन्हें हम सम्हाल नहीं पाये
अपनी धरोहर को।
बुद्धि-विवेक कहीं राह में छूट गये
और हम
यूं ही
कंधों पर सिर लिए घूमते हैं।
हमने न कभी डर-डर कर जीवन जिया है
प्यार क्यों किया है ?
किया है तो किया है।
प्यार किया है
तो इकरार भी किया है।
कभी रूठने
कभी मनाने का
लाड़ भी किया है।
प्यार भरी निगाहों से
छूते रहे हमें,
हमने कब
इंकार किया है।
जाने-अनजाने
हमारे चेहरे पर
खिल आई उनकी
मुस्कुराहटें,
हमने मानने से
कब इंकार किया है।
कहते हैं
लोग जानेंगे तो
चार बातें करेंगे,
हमने न कभी
डर-डर कर
जीवन जिया है।
न समझना हाथ चलते नहीं हैं
हाथों में मेंहदी लगी,
यह न समझना हाथ चलते नहीं हैं ।
केवल बेलन ही नहीं
छुरियां और कांटे भी
इन्हीं हाथों से सजते यहीं हैं ।
नमक-मिर्च लगाना भी आता है ।
और यदि किसी की दाल न गलती हो,
तो बड़ों-बड़ों की
दाल गलाना भी हमें आता है।
बिना गैस-तीली
आग लगाना भी हमें आता है।
अब आपसे क्या छुपाना
दिल तो बड़ों-बड़ों के जलाये हैं,
और न जाने
कितने दिलजले तो आज भी
आगे-पीछे घूम रहे हैं ,
और जलने वाले
आज भी जल रहे हैं।
तड़के की जैसी खुशबू हम रचते हैं,
बड़े-बड़े महारथी
हमारे आगे पानी भरते हैं।
मेंहदी तो इक बहाना है ।
आज घर का सारा काम
उनसे जो करवाना है।
कभी हमारी रचना पर आया कीजिए
समीक्षा कीजिए, जांच कीजिए, पड़ताल कीजिए।
इसी बहाने कभी-कभार रचना पर आया कीजिए।
बहुत आशाएं तो हम करते नहीं समीक्षकों से,
बहुत खूब, बहुत सुन्दर ही लिख जाया कीजिए।
काम की कर लें अदला-बदली
धरने पर बैठे हैं हम, रोटी आज बनाओ तुम।
छुट्टी हमको चाहिए, रसोई आज सम्हालो तुम।
झाड़ू, पोचा, बर्तन, कपड़े, सब करना होगा,
हम अखबार पढ़ेंगें, धूप में मटर छीलना तुम।
जिए एक नई विधा छन्दमुक्त ग़ज़ल
आज ग़ज़ल लिखने के लिए एक मिसरा मिला
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जाम नजरों से मुझको पिलाओ न तुम।
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अब हम गज़ल तो लिखते नहीं
तो कौन कहता है कि मिसरे पर छन्दमुक्त रचना नहीं लिखी जा सकती
लीजिए एक नई विधा छन्दमुक्त ग़ज़ल
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जाम नजरों से मुझको पिलाओ न तुम।
कुछ बढ़िया से कट ग्लास लेकर आओ तुम।
अब तो लाॅक डाउन भी खुल गया,
गिलास न होने के
बहाने न बनाओ तुम।
‘गर जाम नज़रों से पिलाओगे,
तो आंख से आंख कैसे मिलाओगे तुम।
किसी को टेढ़ी नज़र से देखने
का मज़ा कैसे पाओगे तुम।
आंखों में आंखें डालकर
बात करने का मज़ा ही अलग है,
उसे कैसे छीन पाओगे तुम।
नज़रें फे़रकर कभी निकलेंगे
तो आंख से मोती कैसे लुढ़काओगे तुम।
कभी आंख झुकाओगे,
कभी आंख ही आंख में शरमाओगे,
कभी आंख बन्द कर,
कैसे फिर सपनों में आओगे तुम।
और कहीं नशेमन में आंख मूंद ली
तो आंसुओं की जगह
बह रहे सोमरस को दुनिया से
कैसे छुपाओगे तुम।
हम तो रह गये पांच जमाती
क्या बतलाएं आज अपनी पीड़ा, टीचर मार-मार रही पढ़ाती
घर आने पर मां कहती गृह कार्य दिखला, बेलन मार लिखाती
पढ़ ले, पढ़ ले,कोई कहता टीचर बन ले, कोई कहता डाक्टर
नहीं ककहरा समझ में आया, हम तो रह गये पांच जमाती
न इधर मिली न उधर मिली
नहीं जा पाये हम शाला, बाहर पड़ा था गहरा पाला
राह में इधर आई गउशाला, और उधर आई मधुशाला
एक कदम इधर जाता था, एक कदम उधर जाता था
न इधर मिली, न उधर मिली, हम रह गये हाला-बेहाला
अतिथि तुम तिथि देकर आना
शीत बहुत है, अतिथि तुम तिथि देकर आना
रेवड़ी, मूगफ़ली, गचक अच्छे से लेकर आना
लोहड़ी आने वाली है, खिचड़ी भी पकनी है
पकाकर हम ही खिलाएंगे, जल्दी-जल्दी जाना
दुनिया नित नये रंग बदले
इधर केशों ने रंग बदला और उधर सम्बोधन भी बदल गये
कल तक जो कहते थे बहनजी उनके हम अम्मां जी हो गये
दुनिया नित नये रंग बदले, हमने देखा, परखा, भोगा है जी
तो हमने भी केशों का रंग बदला, अब हम आंटी जी हो गये
मंचों पर बने रहने के लिए
अब तो हमको भी आनन-फ़ानन में कविता लिखना आ गया
बिना लय-ताल के प्रदत्त शीर्षक पर गीत रचना आ गया
जानते हैं सब वाह-वाह करके किनारा कर लेते हैं बिना पढ़े
मंचों पर बने रहने के लिए हमें भी यह सब करना आ गया
कहीं अंग्रेज़ी के कहीं हिन्दी के फूल
कहीं अंग्रेज़ी के कहीं हिन्दी के फूल बना रहे हैं राजाजी
हरदम केतली चढ़ा अपनी वीरता दिखा रहे हैं राजाजी
पानी खौल गया, आग बुझी, कभी भड़क गई देखो ज़रा
फीकी, बासी चाय पिला-पिलाकर बहका रहे हैं राजाजी
अच्छी नींद लेने के लिए
अच्छी नींद लेने के लिए बस एक सरकारी कुर्सी चाहिए
कुछ चाय-नाश्ता और कमरे में एक ए सी होना चाहिए
फ़ाईलों को बनाईये तकिया, पैर मेज़ पर ज़रा टिकाईये
काम तो होता रहेगा, टालने का तरीका आना चाहिए
“आपने “कुच्छछ” किया है क्या”
आज बहुत परेशान, चिन्तित हूं, दुखी हूं वह जिसे अंग्रेज़ी में कहते हैं Hurt हूं।
पूछिए क्यों ?
पूछिए , पूछिए।
जले पर नमन छिड़किए।
हमारी समस्या का आनन्द लीजिए।
ऐसा सुनते हैं कि दो-तीन या चार दिन पहले कोई हिन्दी दिवस गुज़र गया। यह भी सुनते हैं कि यह गुज़र कर हर वर्ष वापिस लौट आता है और मनाया भी जाता है। बहुत वर्ष पहले जब मै शिमला में थी तब की धुंधली-धुंधली यादें हैं इस दिन के आने और गुज़रने की। फेसबुक ने तो परेशान करके रख दिया है। जिसे देखो वही हिन्दी दिवस के कवि सम्मेलन में कविता पढ़ रहा है, कोई सम्मान ले रहा है कोई प्रतीक चिन्ह लेकर मुझे चिढ़ा रहा है, किसी की पुस्तकों का विमोचन हो रहा है, किसी पर ‘‘हार’’ चढ़ रहे हैं तो कोई सीधे-सीधे मुझे अंगूठा दिखा रहा है। यहां तक कि विदेशी धरती पर भी हिन्दी का दिन मनाया जा रहा है।
हं हं हं हं !!
ऐसे थोड़े-ई होता है।
हमारे साथ तो सदा ही बुरी रही।
इस बहाने कुछ चटपटी यादें।
बड़ी शान से पीएचडी करते रहे और बैंक में क्लर्क बन बैठे। हमसे पहले ही हमारी चर्चा हमारी फ़ाईल से बैंक में पहुंच चुकी थी। मेरी पहचान हुई ‘‘हिन्दी वाली ’’।
यह कथा 1980 से 2000 के बीच की है।
हिन्दी भाषा और साहित्य मुझे विद्यालय से ही अच्छा लगता था। मेरा उच्चारण स्पष्ट था, हिन्दी बोलना भी मुझे पसन्द था। अध्ययन के साथ मेरी शब्दावली की क्षमता भी बढ़ी और मेरी हिन्दी और भी अच्छी होती गई।
पहली घटना मेरे साथ कुछ ऐसे घटी। कुछ परिचित-अपरिचित मित्रों के साथ बैठी थी। बातचीत चल रही थी। एक युवक मेरी ओर बड़े आश्चर्य से देख रहा था। मैं कुछ सकपका रही थी। अचानक वह युवक सबकी बात बीच में रोककर मुझे सम्बोधित करते हुए बोला
“आपने “कुच्छछ” किया है क्या” ?
हम घबराकर उठ खड़े हुए, ...........30 साल तक...... इश्क-मुहब्बत तो करनी नहीं आई शादी हुई नहीं, इन्होंने हमारी कौन-सी चोरी पकड़ ली ? मैंने तो कोई अपराध, हत्या, चोरी-डकैती नहीं की।
मैं चौंककर बोली, “मैंने क्या किया है”!
वह बोला “नहीं-नहीं, मेरा मतलब आपने हिन्दी में “कुच्छ्छ“ किया है क्या ?
आह ! जान में जान आई। मैं बहुत रोब से बोली, जी हां मैंने हिन्दी में एम.ए.,एम.फ़िल की है, पी.एच.डी.कर रही हूं।
“तभ्भ्भी, आप इतनी हिन्दी मार रही हैं।“
सब खिलखिलाकर हंस पड़े,
अरे ! इसकी तो आदत ही है हिन्दी झाड़ने की। हमें तो अब आदत हो गई है।
धीरे-धीरे मैं “हिन्दीवाली” होती गई। सदैव अच्छी, शुद्ध हिन्दी बोलना मेरा पहला अपराध था।
मेरा दूसरा अपराध था कि मैंने “हिन्दीवाली” होकर भी हिन्दी के क्षेत्र में नौकरी नहीं की। जिसने हिन्दी में “कुच्छछ” किया है उसे केवल हिन्दी अध्यापक, प्राध्यापक, हिन्दी अनुवादक अथवा हिन्दी अधिकारी ही होना चाहिए।
उसे हिन्दी का सर्वज्ञ भी होना चाहिए। हिन्दी के प्रत्येक शब्द का अर्थ ज्ञात होना चाहिए और एक अच्छा अनुवादक भी।
शब्दकोष से अंग्रेज़ी के कठिनतम शब्द ढूंढकर लाये जाते और मुझसे उनका अर्थ पूछा जाता। मैं जब यह कहती कि मुझे नहीं पता तो सामूहिक तिरस्कारपूर्ण स्वर होता था ‘‘हं, फिर आपकी पी. एच. डी. का क्या फ़ायदा’’
हमारा हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में कार्य करना, लेखन, सब भाड़ में , बस ''बेचारी ''
ऐसी स्थिति में हम एक दया का पात्र होते हैं, ''बेचारी '' । पूरे बीस वर्ष यह torcher भुगता और आज भी भोग रही हूं।
हांजी बजट बिगड़ गया
हांजी , बजट बिगड़ गया। सुना है इधर मंहगाई बहुत हो गई है। आलू पच्चीस रूपये किलो, प्याज भी पच्चीस तीस रूपये किलो और टमाटर भी। अब बताईये भला आम आदमी जाये तो जाये कहां और खाये तो खाये क्या। अब महीने में चार पांच किलो प्याज, इतने ही आलू टमाटर का तो खर्चा हो ही जाता है।सिलेंडर भी शायद 14_16 रूपये मंहगा हो रहा है। कहां से लाये आम आदमी इतने पैसे , कैसे भरे बच्चों का पेट और कैसे जिये इस मंहगाई के ज़माने में।
घर में जितने सदस्य हैं उनसे ज़्यादा मोबाईल घर में हैं। बीस पच्चीस रूपये महीने के नहीं, हज़ारों के। और हर वर्ष नये फीचर्स के साथ नया मोबाईल तो लेना ही पड़ता है। यहां मंहगाई की बात कहां से आ गई। हर मोबाईल का हर महीने का बिल हज़ार पंद्रह सौ रूपये तो आ ही जाता है। नैट भी चाहिए। यह तो आज के जीवन की मूलभूत आवश्यकताएं हैं। जितने सदस्य उतनी गाड़ियां। और एक “फोर व्हीलर” भी रखना ही पड़ता है। अब समय किसके पास है कि एक दूसरे को लिफ्ट दें सबका अपना अपना समय और सुविधाएं। और स्टेटस भी तो कोई चीज़ है। अब पैट्रोल पर महीने का पांच सात हज़ार खर्च हो भी जाता है तो क्या। 18 वर्ष से छोटे बच्चों को तो आजकल गाड़ी देनी ही पड़ती है। साईकिल का युग तो रह नहीं गया। चालान होगा तो भुगत लेंगे। कई तरीके आते हैं। अब यहां मंहगाई कहां से आड़े आ गई। हर महीने एक दो आउटिंग तो हो ही जाती है। अब घर के चार पांच लोग बाहर घूमने जाएंगे , खाएंगे पीयेंगे तो पांच सात हज़ार तो खर्च हो ही जाता है। भई कमा किस लिए रहे हैं। महीने में एकाध फिल्म। अब जन्मदिन अथवा किसी शुभ दिन पर हलवा पूरी का तो ज़माना रह नहीं गया। अच्छा आयोजन तो करना ही पड़ता है। हज़ारों नहीं, लाखों में भी खर्च हो सकता है। तब क्या। और मरण_पुण्य तिथि पर तो शायद इससे भी ज़्यादा। और शादी_ब्याह की तो बात ही मत कीजिए, आजकल तो दस बीस लाख से नीचे की बात ही नहीं है।
लेकिन आलू प्याज टमाटर मंहगा हो गया है। बजट बिगड़ गया।