विश्व की सर्वश्रेष्ठ कृति

वह, अपने आप को

विश्व की

सर्वश्रेष्ठ कृति समझता है।

उसके पास

दो बड़े-बड़े हाथ हैं।

और अपने इन

बड़े-बड़े दो हाथों पर

बड़ा गर्व है उसे।

अपने इन बड़े बड़े दो हाथों से

बड़े-बड़े काम कर लेता है वह।

ये गगनचुम्बी इमारतें,

उंचे-उंचे बांध, धुआं उगलती चिमनियां,

सब, उसके, इन्हीं हाथों की देन हैं ।

चांद-तारों को छू लेने का

दम भरता है वह।

प्रकृति को अपने पक्ष में

बदल लेने की क्षमता रखता है वह।

अपने-आपको

जगत-नियन्ता समझने लगा है वह।

बौना कर लिया है उसने

सबको अपने सामने ।

पैर की ठोकर में है

उसके सारी दुनिया।

किन्तु

जब उसके पेट में

भूख का कीड़ा कुलबुलाता है

तब उसके, 

यही दो बड़े-बड़े हाथ

कंपकंपाने लगते हैं

और वह अपने इन

बड़े-बड़े दो हाथों को

एक औरत के आगे फैलाता है

और गिड़गिड़ाता है

भूख लगी है, दो रोटी बना दे।

भूख लगी है, दो रोटी खिला दे।

चलो खिचड़ी पकाएॅं

वैसे तो

रोगियों का भोजन है

खिचड़ी,

स्वादहीन,

कोई खाना नहीं चाहता।

किन्तु जब

हमारे-तुम्हारे बीच पकती है

कोई खिचड़ी

तो सारी दुनिया के कान

खड़े हो जाते हैं,

मुहॅं का स्वाद

चटपटा हो जाता है

कहानियाॅं बनती हैं

मिर्च-मसाले से

जिह्वा जलने लगती है,

घूमने लगते हैं आस-पास

जाने-अनजाने लोग।

क्या पकाया, क्या पकाया?

अब क्या बताएॅं

तुम भी आ जाओ

हमारे गुट में

मिल-बैठ नई खिचड़ी पकायेंगे।

 

 

आवरण से समस्याएं नहीं सुलझतीं

समझ नहीं आया मुझे,

किसके विरोध में

तीर-तलवार लिए खड़ी हो तुम।

या इंस्टा, फ़ेसबुक पर

लाईक लेने के लिए

सजी-धजी चली हो तुम।

साड़ी, कुंडल, करघनी, तीर

मैचिंग-वैचिंग पहन चली,

लगता है

किसी पार्लर से सीधी आ रही हो

कैट-वाॅक करती

अपने-आपको

रानी झांसी समझ रही हो तुम।

तिरछी कमान, नयनों के तीर से

किसे घायल करने के लिए

ये नौटंकी रूप धरकर

चली आ रही हो तुम।

.

लगता है

ज़िन्दगी से पाला नहीं पड़ा तुम्हारा।

तुम्हें बता दूं

ज़िन्दगी की लड़ाईयां

तीर-तलवार से नहीं लड़ी जातीं

क्या नहीं जानती हो तुम।

ज़िन्दगी तो आप ही दोधारी तलवार है

शायद आज तक चली नहीं हो तुम।

कभी झंझावात, कभी आंधी

कभी घाम तीखी,

शायद झेली नहीं हो तुम।

.

कल्पनाओं से ज़िन्दगी नहीं चलती।

आवरण से समस्याएं नहीं सुलझतीं।

भेष बदलने से पहचान नहीं छुपती।

अपनी पहचान से गरिमा नहीं घटती।

इतना समझ लो बस तुम।

 

आस लगाई

जिस-जिससे आस लगाई

उस-उसने बोला भाई।

-

मैं लेकर आया था

हार सुनहरा

बाद में वो बहुत पछताई।

फिर वो लौट-लौटकर आई

बार-बार हमसे आंख मिलाई।

हमने भी आंखें टेढ़ी कर लीं,

फिर वो लेकर राखी आई।

हमने भी धमकाया उसको

हम न तेरे भाई, हम न तेरे साईं।

बोले, अगर फिर लौटकर आई

तो  बुला लायेंगे तेरी माई।

 

नहीं करूंगी इंतज़ार

मैं नहीं करूंगी

इंतज़ार तेरा कयामत तक।

.

कयामत की बात

नहीं करती मैं।

कयामत होने का

इंतज़ार नहीं करती मैं।

यह ज़िन्दगी

बड़ी हसीन है।

इसलिए

बात करती हूं

ज़िन्दगी की।

सपनों की।

अपनों की।

पल-पल की

खुशियों की।

मिलन की आस में

जीती हूं,

इंतज़ार की घड़ियों में

कोई आनन्द

नहीं मिलता है मुझे।

.

आना है तो आ,

नहीं तो

जहां जाना है वहां जा।

मैं नहीं करूंगी

इंतज़ार तेरा कयामत तक।


 

अगर तुम न होते

अगर तुम न होते

तो दिन में रात होती।

अगर तुम न होते

तो बिन बादल बरसात होती।

अगर तुम न होते

तो सुबह सांझ-सी,

और सांझ

सुबह-सी होती।

अगर तुम न होते

तो कहां

मन में गुलाब खिलते

कहां कांटों की चुभन होती।

अगर तुम न होते

तो मेरे जीवन में

कहां किसी की परछाईं न होती।

अगर तुम न होते

तो ज़िन्दगी

कितनी निराश होती।

अगर तुम न होते

तो भावों की कहां बाढ़ होती।

अगर तुम न होते

तो मन में कहां

नदी-सी तरलता

और पहाड़-सी गरिमा होती।

अगर तुम न होते

तो ज़िन्दगी में

इन्द्रधनुषी रंग न होते ।

अगर तुम न होते

कहां लरजती ओस की बूंदें

कहां चमकती चंदा की चांदनी

और कहां

सुन्दरता की चर्चा होती।

.

अगर तुम न होते

-

ओ मेरे सूरज, मेरे भानु

मेरे दिवाकर, मेरे भास्कर

 मेरे दिनेश, मेरे रवि

मेरे अरुण

-

अगर तुम न होते।

अगर तुम न होते ।

अगर तुम न होते ।

 

चींटियों के पंख

सुना है

चींटियों की

मौत आती है

तो पर निकल आते हैं।

.

किन्तु चिड़िया के

पर नहीं निकलते

तब मौत आती है।

.

कभी-कभी

इंसान के भी

पर निकल आते हैं

अदृश्य।

उसे आप ही नहीं पता होता

कि वह कब

आसमान में उड़ रहा है

और कब धराशायी हो जाता है।

क्योंकि

उसकी दृष्टि

अपने से ज़्यादा

औरों के

पर गिनने पर रहती है।

 

दिल चीज़ क्या है

आज किसी ने पूछा

‘‘दिल चीज़ क्या है’’?

-

अब क्या-क्या बताएँ आपको

बड़़ी बुरी चीज़ है ये दिल।

-

हाय!!

कहीं सनम दिल दे बैठे

कहीं टूट गया दिल

किसी पर दिल आ गया,

किसी को देखकर

धड़कने रुक जाती हैं

तो कहीं तेज़ हो जाती हैं

कहीं लग जाता है किसी का दिल

टूट जाता है, फ़ट जाता है

बिखर-बिखर जाता है

तो कोई बेदिल हो जाता है सनम।

पागल, दीवाना है दिल

मचलता, बहकता है दिल

रिश्तों का बन्धन है

इंसानियत का मन्दिर है

ये दिल।

कहीं हो जाते हैं

दिल के हज़ार टुकड़े

और किसी -किसी का

दिल ही खो ही जाता है।

कभी हो जाती है

दिलों की अदला-बदली।

 फिर भी ज़िन्दा हैं जनाब!

ग़जब !

और कुछ भी हो

धड़कता बहुत है यह दिल।

इसलिए

अपनी धड़कनों का ध्यान रखना।

वैसे तो सुना है

मिनट-भर में

72 बार

धड़कता है यह दिल।

लेकिन

ज़रा-सी ऊँच-नीच होने पर

लाखों लेकर जाता है

यह दिल।

इसलिए

ज़रा सम्हलकर रहिए

इधर-उधर मत भटकने दीजिए

अपने दिल को।

 

अहं सर्वत्र रचयिते : एक व्यंग्य

हम कविता लिखते हैं।

कविता को गज़ल, गज़ल को गीत, गीत को नवगीत, नवगीत को मुक्त छन्द, मुक्त छन्द को मुक्तक और चतुष्पदी बनाना जानते हैं। और इन सबको गद्य की विविध विधाओं में परिवर्तित करना भी जानते हैं।

अर्थात् , मैं ही लेखक हूँ, मैं ही कवि, गीतकार, गज़लकार, साहित्यकार, गद्य-पद्य की रचयिता, , प्रकाशक, मुद्रक, विक्रेता, क्रेता, आलोचक, समीक्षक भी मैं ही हूँ।

मैं ही संचालक हूँ, मैं ही प्रशासक हूँ।

सब मंचों पर मैं ही हूँ।

इस हेतु समय-समय पर हम कार्यशालाएँ भी आयोजित करते हैं।

अहं सर्वत्र रचयिते।

 

  

जरा सी रोशनी के लिए

जरा सी रोशनी के लिए

सूरज धरा पर उतारने में लगे हैं

जरा सी रोशनी के लिए

दीप से घर जलाने में लगे हैं

ज़रा-सी रोशनी के लिए

हाथ पर लौ रखकर घुमाने में लगे हैं

ज़रा-सी रोशनी के लिए

चांद-तारों को बहकाने में लगे हैं

ज़रा-सी रोशनी के लिए

आज की नहीं

कल की बात करने में लगे हैं

ज़रा -सी रोशनी के लिए

यूं ही शोर मचाने में लगे हैं।

.

यार ! छोड़ न !!

ट्यूब लाईट जला ले,

या फिर

सी एफ़ एल लगवा ले।।।

 

कवियों की पंगत लगी

  कवियों की पंगत लगी, बैठे करें विचार

तू मेरी वाह कर, मैं तेरी, ऐसे करें प्रचार

भीड़ मैं कर लूंगा, तू अनुदान जुटा प्यारे

रचना कैसी भी हो, सब चलती है यार

कोशिश तो करते हैं

लिखने की

कोशिश तो करते हैं

पर क्या करें हे राम!

छुट्टी के दिन करने होते हैं

घर के बचे-खुचे कुछ काम।

धूप बुलाती आंगन में

ले ले, ले ले विटामिन डी

एक बजे तक सेंकते हैं

धूप जी-भरकर जी।

फिर करके भारी-भारी भोजन

लेते हैं लम्बी नींद जी।

संध्या समय

मंथन पढ़ते-पढ़ते ही

रह जाते हैं हम

जब तक सोंचे

कमेंट करें

आठ बज जाते हैं जी।

फिर भी

लिखने की

कोशिश तो करते हैं

पर क्या करें हे राम!

 

चोर-चोर मौसरे भाई

कहते हैं

चोर-चोर मौसरे भाई।

यह बात मेरी तो

कभी समझ न आई।

कितने भाई?

केवल मौसेरे ही क्यों भाई?

चचेरे, ममेरे की गिनती

क्यों नहीं आई?

और सगे कोई कम हैं,

उनकी बात क्यों न उठाई?

किसने देखे, किसने जाने

किसने पहचाने?

यूँ ही बदनाम किया

न जाने किसने यह

कहावत बनाई।

आधी रात होने को आई

और मेरी कविता

अभी तक न बन पाई।

और जब बात चोरों की है

तब क्या मौसेरे

और क्या चचेरे

सबसे डर कर रहना भाई।

बात चोरों की चली है

तो दरवाज़े-खिड़कियाँ

सब अच्छे से बन्द हैं

ज़रा देख लेना भाई।

 

एक शुरूआत की ज़रूरत है

सुना और पढ़ा है मैंने

कि कोई

पाप का घड़ा हुआ करता था

और सब

हाथ पर हाथ धरे

प्रतीक्षा में बैठे रहते थे

कि एक दिन तो भरेगा

और फूटेगा] तब देखेंगे।

 

मैं समझ नहीं पाई

आज तक

कि हम प्रतीक्षा क्यों करते हैं

कि पहले तो घड़ा भरे

फिर फूटे, फिर देखेंगे,

बतायेगा कोई मुझे

कि क्या देखेंगे ?

 

और यह भी 

कि अगर घड़ा भरकर

फूटता है

तो उसका क्या किया जाता था।

 

और अगर घड़ा भरता ही जाता था

भरता ही जाता था

और फूटता नहीं था

तब क्या करते थे ?

पलायन का यह स्वर

मुझे भाता नहीं

इंतज़ार करना मुझे आता नहीं

आह्वान करती हूं,

घरों से बाहर निकलिए

घड़ों की शवयात्रा निकालिए।

श्मशान घाट में जाकर

सारे घड़े फोड़ डालिए।

बस पाप को नापना नहीं।

छोटा-बड़ा जांचना नहीं।

बस एक शुरूआत की ज़रूरत है।

बस एक से शुरूआत की ज़रूरत है।।।

  

एकाकी हो गये हैं

अकारण

ही सोचते रहना ठीक नहीं होता

किन्तु खाली दिमाग़ करे भी तो क्या करे।

किसी के फ़टे में टाँग अड़ाने के

दिन तो अब चले गये

अपनी ही ढपली बजाने में लगे रहते हैं।

समय ने

ऐसी चाल बदली

कि सब

अपने अन्दर तो अन्दर

बाहर भी एकाकी हो गये हैं।

शाम को काॅफ़ी हाउस में

या माॅल रोड पर

कंधे से कंधे टकराती भीड़

सब कहीं खो गई है।

पान की दुकान की

खिलखिलाहटें

गोलगप्पे-टिक्की पर

मिर्च से सीं-सीं करती आवाजे़ं

सिर से सिर जोड़कर

खुसुर-पुसुर करती आवाजे़ं

सब कहीं गुम हो गई हैं।

सड़क किनारे

गप्पबाजी करते,

पार्क में खेलते बच्चों के समूह

नहीं दिखते अब।

बन्दर का नाच, भालू का खेल

या रस्सी पर चलती लड़की

अब आते ही नहीं ये सब

जिनका कौशल देखने के  लिए

सड़कों पर

जमघट  लगते थे कभी।

अब तो बस

दो ही दल बचे हैं

जो अब भी चल रहे हैं

एक तो टिड्डी दल

और दूसरे केवल दल

यानी दलदल।

ज़रा सम्हल के।

 

झूठ का ज़माना है

एक अर्थहीन रचना

सजन रे झूठ मत बोलो

कौन बोला, कौन बोला

-

सजन रे झूठ मत बोलो

कौन बोला, कौन बोला

-

झूठ का ज़माना है

सच को क्यों आजमाना है

इधर की उधर कर

उधर की इधर कर

बस ऐसे ही नाम कमाना है

सच में अड़ंगे हैं

इधर-उधर हो रहे दंगे हैं

झूठ से आवृत्त करो

मन की हरमन करो,

नैनों की है बात यहां

टिम-टिम देखो करते

यहां-वहां अटके

टेढ़े -टेढ़े भटके

किसी से नैन-मटक्के

कहीं देख न ले सजन

बिगड़ा ये ज़माना है

किसे –किसे बताना है

कैसे किसी को समझाना है

छोड़ो ये ढकोसले

क्‍यों किसी को आजमाना है

-

झूठ बोलो, झूठ बोलो

कौन बोला, कौन बोला

 

 

 

 

समय जब कटता नहीं

काम है नहीं कोई

इसलिए इधर की उधर

उधर की इधर

करने में लगे हैं हम आजकल ।

अपना नहीं,

औरों का चरित्र निहारने में

लगे हैं आजकल।

पांव धरा पर टिकते नहीं

आकाश को छूने की चाहत

करने लगे हैं हम आजकल।

समय जब कटता नहीं

हर किसी की बखिया उधेड़ने में
लगे रहते हैं हम आजकल।

और कुछ न हो तो

नई पीढ़ी को कोसने में

लगे हैं हम आजकल।

सुनाई देता नहीं, दिखाई देता नहीं

आवाज़ लड़खड़ाती है,

पर सारी दुनिया को

राह दिखाने में लगे हैं हम आजकल।

 

कंधों पर सिर लिए घूमते हैं

इस रचना में पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग किया गया है, पर्यायवाची शब्दों में भी अर्थ भेद होता है, इसी अर्थ भेद के कारण मुहावरे बनते हैं, ऐसा मैं समझती हूं, इसी दृष्टि से इस रचना का सृजन हुआ है

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सुनते हैं

अक्ल घास चरने गई है

मति मारी गई है

और समझ भ्रष्ट हो गई है

विवेक-अविवेक का अन्तर

भूल गये हैं

और मनीषा, प्रज्ञा, मेधा 

हमारे ऋषि-मुनियों की

धरोहर हुआ करती थीं

जिन्हें हम सम्हाल नहीं पाये

अपनी धरोहर को।

 बुद्धि-विवेक कहीं राह में छूट गये

और हम

यूं ही

कंधों पर सिर लिए घूमते हैं।

 

 

क्षमा-मंत्र

कोई मांगने ही नहीं आता

हम तो

क्षमाओं का पिटारा लिए

कब से खड़े हैं।

सबकी ग़लतियां तलाश रहे हैं

भरने के लिए

टोकरा उठाये घूम रहे हैं।

आपको बता दें

हम तो दूध के धुले हैं,

महान हैं, श्रेष्ठ हैं,

सर्वश्रेष्ठ हैं,

और इनके

जितने पर्यायवाची हैं

सब हैं।

और समझिए

कितने दानी , महादानी हैं,

क्षमाओं का पिटारा लिए घूम रहे हैं,

कोई तो ले ले, ले ले, ले ले।

 

हमने न कभी डर-डर कर जीवन जिया है

प्यार क्यों किया है ?

किया है तो किया है।

प्यार किया है

तो इकरार भी किया है।

कभी रूठने

कभी मनाने का

लाड़ भी किया है।

प्यार भरी निगाहों से

छूते रहे हमें,

हमने कब

इंकार किया है।

जाने-अनजाने

हमारे चेहरे पर

खिल आई उनकी

मुस्कुराहटें,

हमने मानने से

कब इंकार किया है।

कहते हैं

लोग जानेंगे तो

चार बातें करेंगे,

हमने न कभी

डर-डर कर

जीवन जिया है।

 

 

 

न समझना हाथ चलते नहीं हैं

हाथों में मेंहदी लगी,

यह न समझना हाथ चलते नहीं हैं

केवल बेलन ही नहीं

छुरियां और कांटे भी

इन्हीं हाथों से सजते यहीं हैं

नमक-मिर्च लगाना भी आता है

और यदि किसी की दाल न गलती हो,

तो बड़ों-बड़ों की

दाल गलाना भी हमें आता है।

बिना गैस-तीली

आग लगाना भी हमें आता है।

अब आपसे क्या छुपाना

दिल तो बड़ों-बड़ों के जलाये हैं,

और  न जाने

कितने दिलजले तो  आज भी

आगे-पीछे घूम रहे हैं ,

और जलने वाले

आज भी जल रहे हैं।
तड़के की जैसी खुशबू हम रचते हैं,

बड़े-बड़े महारथी

हमारे आगे पानी भरते हैं।

मेंहदी तो इक बहाना है

आज घर का सारा काम

उनसे जो करवाना है।

 

 

कभी हमारी रचना पर आया कीजिए

समीक्षा कीजिए, जांच कीजिए, पड़ताल कीजिए।

इसी बहाने कभी-कभार रचना पर आया कीजिए।

बहुत आशाएं तो हम करते नहीं समीक्षकों से,

बहुत खूब, बहुत सुन्दर ही लिख जाया कीजिए।

कुछ मीठे बोल बोलकर तो देखते

कुछ मीठे बोल

बोलकर तो देखते

हम यूं ही

तुम्हारे लिए

दिल के दरवाज़े खोल देते।

क्या पाया तुमने

यूं हमारा दिल

लहू-लुहान करके।

रिक्त मिला !

कुछ सूखे रक्त कण !

न किसी का नाम

न कोई पहचान !

-

इतना भी न जान पाये हमें

कि हम कोई भी बात

दिल में नहीं रखते थे।

अब, इसमें

हमारा क्या दोष

कि

शब्दों पर तुम्हारी

पकड़ ही न थी।

 

 

 

काम की कर लें अदला-बदली

धरने पर बैठे हैं हम, रोटी आज बनाओ तुम।

छुट्टी हमको चाहिए, रसोई आज सम्हालो तुम।

झाड़ू, पोचा, बर्तन, कपड़े, सब करना होगा,

हम अखबार पढ़ेंगें, धूप में मटर छीलना तुम।

जिए एक नई विधा छन्दमुक्त ग़ज़ल

आज ग़ज़ल लिखने के लिए एक मिसरा मिला

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जाम नजरों से मुझको पिलाओ न तुम

*******************

अब हम गज़ल तो लिखते नहीं

तो कौन कहता है कि मिसरे पर छन्दमुक्त रचना नहीं लिखी जा सकती

लीजिए एक नई विधा छन्दमुक्त ग़ज़ल

*******************

जाम नजरों से मुझको पिलाओ न तुम

कुछ बढ़िया से कट ग्लास लेकर आओ तुम।

अब तो लाॅक डाउन भी खुल गया,

गिलास न होने के

बहाने न बनाओ तुम।

गर जाम नज़रों से पिलाओगे,

तो आंख से आंख  कैसे मिलाओगे तुम।

किसी को टेढ़ी नज़र से देखने

का मज़ा कैसे पाओगे तुम।

आंखों में आंखें डालकर

बात करने का मज़ा ही अलग है,

उसे कैसे छीन पाओगे तुम।

नज़रें फे़रकर कभी निकलेंगे

तो आंख से मोती कैसे लुढ़काओगे तुम।

कभी आंख झुकाओगे,

कभी आंख ही आंख में शरमाओगे,

कभी आंख बन्द कर,

कैसे फिर सपनों में आओगे तुम।

और कहीं नशेमन में आंख मूंद ली

तो आंसुओं की जगह

बह रहे सोमरस को दुनिया से

कैसे छुपाओगे तुम।

हम तो रह गये पांच जमाती

क्या बतलाएं आज अपनी पीड़ा, टीचर मार-मार रही पढ़ाती

घर आने पर मां कहती गृह कार्य दिखला, बेलन मार लिखाती

पढ़ ले, पढ़ ले,कोई कहता टीचर बन ले, कोई कहता डाक्टर

नहीं ककहरा समझ में आया, हम तो रह गये पांच जमाती

अपनी बत्‍ती गुल हो जाती है

बड़ा हर्ष होता है जब दफ्तर में बिजली गुल हो जाती है

काम छोड़ कर चाय-पानी की अच्‍छी दावत हो जाती है

इधर-उधर भटकते, इसकी-उसकी चुगली करते, दिन बीते

काम नहीं, वेतन नहीं, यह सुनकर अपनी बत्‍ती गुल हो जाती है

न इधर मिली न उधर मिली

नहीं जा पाये हम शाला, बाहर पड़ा था गहरा पाला

राह में इधर आई गउशाला, और उधर आई मधुशाला

एक कदम इधर जाता था, एक कदम उधर जाता था

न इधर मिली, न उधर मिली, हम रह गये हाला-बेहाला

अतिथि तुम तिथि देकर आना

शीत बहुत है, अतिथि तुम तिथि देकर आना

रेवड़ी, मूगफ़ली, गचक अच्‍छे से लेकर आना

लोहड़ी आने वाली है, खिचड़ी भी पकनी है

पकाकर हम ही खिलाएंगे, जल्‍दी-जल्‍दी जाना

दुनिया नित नये रंग बदले

इधर केशों ने रंग बदला और उधर सम्बोधन भी बदल गये

कल तक जो कहते थे बहनजी उनके हम अम्मां जी हो गये

दुनिया नित नये रंग बदले, हमने देखा, परखा, भोगा है जी

तो हमने भी केशों का रंग बदला, अब हम आंटी जी हो गये