Share Me
तुम्हारी वंशी की धुन पर विश्व संगीत रचता है
तुम्हारे चक्र की गति पर जीवन चक्र चलता है
दूध-दहीं माखन, गैया-मैया, ग्वाल-बाल सब
तुम्हारी शंख-ध्वनि से मन में सब बसता है।
Share Me
Write a comment
More Articles
आंखों देखी दुनिया
कथा है
कि मिट्टी खाने पर
यशोदा ने कृष्ण को
मुँह खोलकर
दिखाने के लिए कहा था
और यशोदा ने
कृष्ण के मुँह में
ब्रह्माण्ड के दर्शन किये थे।
कुछ ऐसा ही ब्रह्माण्ड
हमारी आंखों के भीतर भी है
जिसे हम देख नहीं पाते,
किसी और को क्या दिखाना
हम स्वयं ही
समझ भी नहीं पाते।
बड़ी प्रचलित कहावत है
आंखों देखी दुनिया।
किन्तु आश्चर्य कि
हम दुनिया को
कभी भी खुली आंखों से
देख नहीं पाते।
जब भी दुनिया को समझना होता है
हम आंखें बन्द कर लेते हैं
और शिकायत करते हैं
हमारी समझ से बाहर है यह दुनिया।
Share Me
झाड़ पर चढ़ा करता है आदमी
सुना है झाड़ पर चढ़ा करता है आदमी
देखूं ज़रा कहां-कहां पड़ा है आदमी
घास, चारा, दाना-पानी सब खा गया
देखूं अब किस जुगाड़ में लगा है आदमी
Share Me
मन उदास-उदास क्यों है
हवाएं बहक रहीं
मौसम सुहाना है
सावन में पंछी कूक रहे
वृक्षों पर
डाली-डाली
पल्लव झूम रहे
कहीं रिमझिम-रिमझिम
तो कहीं फुहारें
मन सरस-सरस
कोयल कूके
पिया-पिया
मैं निहार रही सूनी राहें
कब लौटोगे पिया
और तुम पूछ रहे
मन उदास-उदास क्यों है ?
Share Me
इन आंखों का क्या करूं
शब्दों को बदल देने की
कला जानती हूं,
अपनी अभिव्यक्ति को
अनभिव्यक्ति बनाने की
कला जानती हूं ।
पर इन आंखों का क्या करूं
जो सदैव
सही समय पर
धोखा दे जाती हैं।
रोकने पर भी
न जाने
क्या-क्या कह जाती हैं।
जहां चुप रहना चाहिए
वहां बोलने लगती हैं
और जहां बोलना चाहिए
वहां
उठती-गिरती, इधर-उधर
ताक-झांक करती
धोखा देकर ही रहती हैं।
और कुछ न सूझे तो
गंगा-यमुना बहने लगती है।
Share Me
तू लौट जा अपने ठौर
हे पंछी, प्रकृति प्रदत्त स्रोत छोड़कर तू कहां आया रे !
ये मानव निर्मित स्रोत हैं यहां न जल न छाया रे !
तृषित जग, तृषित भाव, तृषित मानव मन हैं यहां
तू लौट जा अपने ठौर,! न कर यहां जीवन जाया रे !
Share Me
कशमकश
कशमकश
इस बात की नहीं
कि जो मुझे मिला
जितना मुझे मिला
उसके लिए
ईश्वर को धन्यवाद दूँ,
कशमकश इस बात की
कि कहीं
तुम्हें
मुझसे ज़्यादा तो नहीं मिल गया।
Share Me
जीवन की डोर पकड़
पुष्प-पल्लवविहीन वृक्षों का
अपना ही
एक सौन्दर्य होता है।
कुछ बिखरी
कुछ उलझी-सुलझी
किसी छत्रछाया-सी
बिना झुके,
मानों गगन को थामे
क्षितिज से रंगीनियाँ
सहेजकर छानतीं,
भोर की मुस्कान बाँटतीं
मानों कह रही
राही बढ़े चल
कुछ पल विश्राम कर
न डर, रह निडर
जीवन की डोर पकड़
राहों पर बढ़ता चल।
Share Me
दैवीय सौन्दर्य
रंगों की शोखियों से
मन चंचल हुआ।
रक्त वर्ण संग
बासन्तिका,
मानों हवा में लहरें
किलोल कर रहीं।
आंखें अपलक
निहारतीं।
काश!
यहीं,
इसी सौन्दर्य में
ठहर जाये सब।
कहते हैं
क्षणभंगुर है जीवन।
स्वीकार है
यह क्षणभंगुर जीवन,
इस दैवीय सौन्दर्य के साथ।
Share Me
उनकी तरह बोलना ना सीख जायें
कभी गांधी जी के
तीन बन्दरों ने संदेश दिया था
बुरा मत बोलो, बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो।
सुना है मैंने
ऐसा ही कुछ संदेश
जैन, बौद्ध, सिक्ख, हिन्दू
मतावलम्बियों ने भी दिये थे,
कुछ मर्यादाओं, नैतिकता, गरिमा
की बात करते थे वे।
पुस्तकों में भी छपता था यही सब।
बच्चों को आज भी पढ़ाते हैं हम यह पाठ।
किन्तु अब ज्ञात हुआ
कि यह सब कथन
आम आदमी के लिए होते हैं
बड़े लोग इन सबसे उपर होते हैं।
वे जो आज देश के कर्णधार
कहलाते हैं
भारत के महिमामयी गणतन्त्र को
आजमाने बैठे हैं
राजनीति के मोर्चे पर हाथ
चलाने बैठे हैं
उनको मत सुनना, उनको मत देखना
उनसे मत बोलना
क्योंकि
भारत का महिमामयी लोकतन्त्र,
अब राजनीति का
अखाड़ा हो गया
दल अब दलदल में धंसे
मर्यादाओं की बस्ती
उजड़ गई
भाषा की नेकी बिखर गई
शब्दों की महिमा
गलित हुई
संसद की गरिमा भंग हुई
किसने किसको क्या कह डाला
सुनने में डर लगता है
प्रेम-प्यार-अपनापन कहीं छिटक गया
घृणा, विद्वेष, विभाजन की आंधी
सब निगल गई
कभी इनके पदचिन्हों के
अनुसरण की बात करते थे,
अब हम बस इतनी चिन्ता करते हैं
हम अपनी मर्यादा में रह पायें
सब देखें, सब सुनें,
मगर,उनकी तरह
बोलना ना सीख जायें
Share Me
पीछे से झांकती है दुनिया
कुछ तो घटा होगा
जो यह पत्थर उठे होंगे।
कुछ तो टूटा होगा
जो यह घुटने फूटे होंगे।
कुछ तो मन में गुबार होगा
जो यूं हाथ उठे होंगे।
फिर, कश्मीर हो या कन्याकुमारी
कोई फ़र्क नहीं पड़ता।
वह कौन-सी बात है
जो शब्दों में नहीं ढाली जा सकी,
कलम ने हाथ खींच लिया
और हाथ में पत्थर थमा दिया।
अरे ! अबला-सबला-विमला-कमला
की बात मत करो,
मत करो बात लाज, ममता, नेह की।
एक आवरण में छिपे हैं भाव
कौन समझेगा ?
न यूं ही आरोप-प्रत्यारोप में उलझो।
कहीं, कुछ तो बिखरा होगा।
कुछ तो हुआ होगा ऐसा
कि चुप्पी साधे सब देख रहे हैं
न रोक रहे हैं, न टोक रहे हैं,
कि पीछे से झांकती है दुनिया
न रोकती है, न मदद करती है
न राह दिखाती है
तमाशबीन हैं सब।
कुछ शब्दों के, कुछ नयनों के।
क्यों ? क्यों ?