खोज रहा हूं उस नेता को

खोज रहा हूं उस नेता को
हर पांच साल में आता है
एक रोटी का टुकड़ा
एक घर की चाबी लाता है
कुछ नये सपने दिखलाता, 
पैसे देने की बातें करता
देश-विदेश घूमकर आता
वेश बदल-बदलकर आता
बड़ी-बड़ी गाड़ी में आता
खूब भीड़ साथ में लाता
रोज़गार का वादा करता
अरबों-खरबों की बातें करता
नारों-हथियारों की बातें करता
जात-पात, धर्म, आरक्षण 
का मतलब बतलाता
वोटों का मतलब समझाता
कारड बनवाने की बातें करता
हाथ में परचा थमा कर जाता
बच्चों के गाल बजाकर जाता
बस मैं-मैं-मैं-मैं करता
अच्छी-अच्छी बातें करता
थाली में रोटी आयेगी
लड़की देखो स्कूल जायेगी।


कभी-कभी कहता है
रोटी खाउंगा, पानी पीउंगा।
खाली थाली बजा रहे हैं
ढोल पीटकर बता रहे हैं
पिछले पांच साल से बैठे हैं
अगले पांच साल की आस में।
 

चल न मन,पतंग बन

आकाश छूने की तमन्ना है

पतंग में।

एक पतली सी डोर के सहारे

यह जानते हुए भी

कि कट सकती है,

फट सकती है,

लूट ली जा सकती है

तारों में उलझकर रह सकती है

टूटकर धरा पर मिट्टी में मिल सकती है।

किन्तु उन्मुक्त गगन

जीवन का उत्साह

खुली उड़ान,

उत्सव का आनन्द

उल्लास और उमंग।

पवन की गति,

कुछ हाथों की यति

रंगों की मति

राहें नहीं रोकते।

  *    *    *    *

चल न मन,

पतंग बन।

क्‍यों करें किसी से गिले

कांटों के संग फूल खिले

अनजाने कुछ मीत मिले

सारी बातें आनी जानी हैं

क्‍यों करें किसी से गिले

कैसा बिखराव है यह

 

मन घुटता है ,बेवजह।

कुछ भीतर रिसता है,बेवजह।

उधेड़ नहीं पाती

पुरानी तरपाई।

स्‍वयं ही टूटकर

बिखरती है ।

समेटती लगती हूं

पुराने धागों को,

जो किसी काम के नहीं।

कितनी भी सलवटें निकाल लूं

किन्‍तु ,तहों के निशान

अक्‍सर जाते नहीं।

क्‍यों होता है मेरे साथ ऐसा,

कहना कुछ और चाहती हूं

कह कुछ और जाती हूं।

बात आज की है,

और कल की बात कहकर

कहानी को पलट जाती हूं,

कि कहीं कोई

समझ न ले मेरे मन को,

मेरे आज को

या मेरे बीते कल को ।

शायद इसीलिए

उलट-पलट जाती हूं।

कहना कुछ और चाहती हूं,

कह कुछ और जाती हूं।

यह सिलसिला

‘गर ज़िन्दगी भर  चलेगा,

तो कहां तक, और कब तक ।

 

 

बालपन को जी लें

अपनी छाया को पुकारा, चल आ जा बालपन को फिर से जी लें

यादों का झुरमुट खोला, चल कंचे, गोली खेलें, पापड़, इमली पी लें

कैसे कैसे दिन थे वे सड़कों पर छुपन छुपाई, गुल्ली डंडा खेला करते

वो निर्बोध प्यार की हंसी ठिठोली, चल उन लम्हों को फिर से जी लें

न इधर मिली न उधर मिली

नहीं जा पाये हम शाला, बाहर पड़ा था गहरा पाला

राह में इधर आई गउशाला, और उधर आई मधुशाला

एक कदम इधर जाता था, एक कदम उधर जाता था

न इधर मिली, न उधर मिली, हम रह गये हाला-बेहाला

लड़कियों के विवाह की आयु सम्बन्धी कानून

 

अभी-अभी लड़कियों के विवाह की आयु बढ़ाने का कानून पारित हुआ। क्या इससे लड़कियों के जीवन पर कोई सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा? क्या हर परिवार सरकार की बात मानकर 21 वर्ष से पूर्व अपनी बेटी का विवाह नहीं करेंगा?

भारत में बाल विवाह अधिनियम 1929 में बना था, जो 1947 में संशोधित हुआ। 1949 में लड़कियों की विवाह की आयु 15 वर्ष और पुनः 1978 में 18 वर्ष नियत की गई। इस तरह के कानून केवल पुस्तकों में रह जाते हैं, पढ़ाए जाते हैं किन्तु गहराई से लागू नहीं होते। तो इस अधिनियम को लागू कैसे करवाया जाये, इस पर भी क्या विचार हो रहा है, शायद नहीं।

 देश में क्या कोई ऐसी संस्थाएँ हैं जो 137 करोड़ जनसंख्या वाले देश में होने वाले प्रत्येक विवाह की जांच कर सके? नहीं।  मात्र विवाह की आयु बढ़ाने से महिलाओं के जीवन में कोई अन्तर नहीं आने वाला,

क्या हम जानते हैं कि किसी भी विद्यालय में लड़के-लड़कियों का औसत प्रायः 55-45 होता है जो महाविद्यालय में आकर 40-60 अथवा 30-70 हो जाता है और उच्च शिक्षा में शायद 10-90। यह विकसित शहरों की स्थिति है जहाँ विवाह देर से ही होते हैं।

 इतने वर्ष बीत जाने पर अभी तक बाल-विवाह पर रोक नहीं लगाई जा सकी है तो मात्र कानूनन आयु बढ़ाने से कोई लाभ नहीं हो सकता। देश में आज भी कितने विवाह पंजीकृत होते हैं?

विवाह पंजीकरण अनिवार्य होने पर भी आज भी केवल शहरों में ही किसी सीमा तक विवाह पंजीकृत करवाये जाते हैं जहाँ आयु सीमा की जांच हो सकती है किन्तु विवाहोपरान्त ही पंजीकरण करवाया जाता है, पहले नहीं। अर्थात् यदि कहीं किसी ने कम आयु में विवाह किया तो वे पंजीकरण करवायेंगे ही नहीं। तो यह अधिनियम इतने बड़े देश में कार्यान्वित कैसे होगा? हमारे पास कोई उत्तर नहीं है। आंकड़ों के अनुसार देश में प्रतिदिन औसतन 30,000 विवाह होते हैं। बेघरबार, बंजारों आदि की गणना इनमें नहीं है। मात्र विवाह की आयु बढ़ाने से महिलाओं के जीवन में कोई अन्तर नहीं आ सकता। हाँ, शहरों में जहाँ शिक्षा के अवसर हैं, वहाँ लड़कियाँ पढ़ भी रही हैं, आत्मनिर्भर भी हो रही हैं और उनके विवाह की आयु भी अधिक है। कानून क्या कहता है, इस पर कोई विचार नहीं करता। किन्तु यह बात पूरे देश पर लागू नहीं होती।

और यदि लड़कियाँ उच्च शिक्षा प्राप्त भी कर लेती हैं तो वे उसका कितना लाभ उठाती हैं यह भी हम जानते हैं।

इतने वर्ष बीत जाने पर अभी तक बाल.विवाह पर रोक नहीं लग पाई है तो मात्र कानूनन आयु बढ़ाने से कोई लाभ नहीं हो सकता। देश में आज भी कितने विवाह पंजीकृत होते हैं?

लड़कियों को कुपोषण से बचाने, पढ़ाई व स्वाबलम्बन के उचित अवसर देने हेतु मात्र विवाह कानून में संशोधन से कोई लाभ नहीं होने वालाए जब तक कि हमारी सोच नहीं बदलती, शिक्षा, स्वाबलम्बन के प्रति दिशाएं सकारात्मक नहीं होतीं। इस परिवर्तन के लिए आवश्यक हैं हम स्वयं आगे बढ़ें, अपने आस-पास के लोगों को जाग्रत करें और इन कानूनों के प्रचार-प्रसार में सहयोग दें।

यह हास्यास्पद है कि बाल विवाह निषेध संशोधन विधेयक संसदीय समिति के 31 सदस्यों में केवल एक महिला है।

 

इल्जाम बहुत हैं

इल्जाम बहुत हैं

कि कुछ लोग पत्थर दिल हुआ करते हैं।

पर यूं ही तो नहीं हो जाते होंगे

इंसान

पत्थर दिल ।

कुछ आहत होती होंगी संवेदनाएं,

समाज से मिली होंगी ठोकरें,

किया होगा किसी ने कपट

बिखरे होंगे सपने

और फिर टूटा होगा दिल।

तब  सीमाएं लांघकर

दर्द आंसुओं में बदल जाता है

और ज़माने से छुपाने के लिए

जब आंख में बंध जाता है

तो दिल पत्थर का बन जाता है।

इन पत्थरों पर अंकित होती हैं

भावनाएं,

कविताएं और शायरी।

कभी निकट होकर देखना,

तराशने की कोशिश जरूर करना

न जाने कितने माणिक मोती मिल जायें,

सदियों की जमी बर्फ पिघल जाये,

एक और पावन पवित्र गंगा बह जाये

और पत्थरों के बीच चमन महक जाये।

रिश्तों का असमंजस

कुछ रिश्ते

फूलों की तरह होते हैं

और कुछ कांटों की तरह।

फूलों को सहेज लीजिए

कांटों को उखाड़ फेंकिए।

नहीं तो, बहुत

असमंजस की स्थिति

बनी रहती है।

किन्तु, कुछ कांटे

फूलों के रूप में आते हैं ,

और कुछ फूल

कांटों की तरह

दिखाई देते हैं।

और कभी कभी,

दोनों

साथ-साथ उलझे भी रहते हैं।

बड़ा मुश्किल होता है परखना।

पर परखना तो पड़ता ही है।

 

कर लो नारी पर वार

जब कुछ न लिखने को मिले तो कर लो नारी पर वार।

वाह-वाही भरपूर मिलेगी, वैसे समझते उसको लाचार।

कल तक माँ-माँ लिख नहीं अघाते थे सारे साहित्यकार

आज उसी में खोट दिखे, समझती देखो पति को दास

पत्नी भी माँ है क्यों कभी नहीं देख पाते हो तुम

यदि माता-पिता को वृद्धाश्रम भेजा, किसका है यह दोष

परिवारों में निर्णय पर हावी होते सदा पुरुष के भाव

जब मन में आता है कर लेते नारी के चरित्र पर प्रहार।

लिखने से पहले मुड़ अपनी पत्नी पर दृष्टि डालें एक बार ।

अपने बच्चों की माँ के मान की भी सोच लिया करो कभी कभार

 

मेरे मित्र

उपर वाला

बहुत रिश्ते बांधकर देता है

लेकिन कहता है

कुछ तो अपने लिए

आप भी मेहनत कर

इसलिए जिन्दगी में

दोस्त आप ही ढूंढने पड़ते हैं

लेकिन कभी-कभी उपरवाला भी

दया दिखाता है

और एक अच्छा दोस्त झोली में

डालकर चला जाता है

लेकिन उसे समझना

और पहचानना आप ही पड़ता है।

.

कब क्या कह बैठती हूं

और क्या कहना चाहती हूं

अपने-आप ही समझ नहीं पाती

शब्द खिसकते है

कुछ अर्थ बनते हैं

भाव संवरते हैं

और कभी-कभी लापरवाही

अर्थ को अनर्थ बना देती है

.

सब कहते हैं मुझे

कम बोला कर, कम बोला कर

.

पर न जाने कितने दिन रह गये हैं

जीवन के बोलने के लिए

.

मन करता है

जी भर कर बोलूं

बस बोलती रहूं,  बस बोलती रहूं

.

लेकिन ज्यादा बोलने की आदत

बहुत बार कुछ का कुछ

कहला देती है

जो मेरा अभिप्राय नहीं होता

लेकिन

जब मैं आप ही नहीं समझ पाती

तो किसी और को

कैसे समझा सकती हूं

.

किन्तु सोचती हूं

मेरे मित्र

मेरे भाव को समझेंगे

.

हास-परिहास को समझेंगे

न कि

शब्दों का बुरा मानेंगे

उलझन को सुलझा देंगे

कान खींचोंगे मेरे

आंख तरेरेंगे

न कोई

लकीर बनने दोगे अनबन की।

.

कई बार यूं ही

खिंची लकीर भी

गहरी होती चली जाती है

फिर दरार बनती है

उस पर दीवार चिनती है

इतना होने से पहले ही

सुलझा लेने चाहिए

बेमतलब मामले

तुम मेरे कान खींचो

और मै तुम्हारे

 

 

 

न समझना हाथ चलते नहीं हैं

हाथों में मेंहदी लगी,

यह न समझना हाथ चलते नहीं हैं

केवल बेलन ही नहीं

छुरियां और कांटे भी

इन्हीं हाथों से सजते यहीं हैं

नमक-मिर्च लगाना भी आता है

और यदि किसी की दाल न गलती हो,

तो बड़ों-बड़ों की

दाल गलाना भी हमें आता है।

बिना गैस-तीली

आग लगाना भी हमें आता है।

अब आपसे क्या छुपाना

दिल तो बड़ों-बड़ों के जलाये हैं,

और  न जाने

कितने दिलजले तो  आज भी

आगे-पीछे घूम रहे हैं ,

और जलने वाले

आज भी जल रहे हैं।
तड़के की जैसी खुशबू हम रचते हैं,

बड़े-बड़े महारथी

हमारे आगे पानी भरते हैं।

मेंहदी तो इक बहाना है

आज घर का सारा काम

उनसे जो करवाना है।

 

 

जीवन का राग

रात में सूर्य रश्मियां द्वार खटखटाती हैं
दिन भर जीवन का राग सुनाती हैं
शाम ढलते ढलते सुर साज़ बदल जाते हैं
तब चंद्र किरणें थपथपाकर सुलाती हैं

प्रकाश तम में कहीं सिमटा है

मन में आज एक द्वंद्व है,

सब उल्टा-सुल्टा।

चांद-सितारे मानों भीतर,

सूरज कहीं गायब है।

धरा-गगन एकमेक हुए,

न अन्तर कोई दिखता है।

आंख मूंद जगत को निरखें,

कौन, कहां, कहीं दिखता है।

सब सूना-सूना-सा लगता है,

मन न जाने कहां भटकता है।

सुख-दुख से परे हुआ है मन,

प्रकाश तम में कहीं सिमटा है।

 

हमको छुट्टा दे सरकार
रंजोगम में डूब गये हैं, गोलगप्पे हो गये बीस के चार

कितने खायें, कैसे खायें, नोट मिला है दो हज़ार

कहता है भैया हमसे, सारे खाओ या फिर जाओ

हम ढाई आने के ग्राहक हैं, हमको छुट्टा दे सरकार

मदमाता शरमाता अम्बर

रंगों की पोटली लेकर देखो आया मदमाता अम्बर

भोर के साथ रंगों की पोटली बिखरी, शरमाता अम्बर

रवि को देख श्वेताभा के अवगुंठन में छिपता, भागता

सांझ ढले चांद-तारों संग अठखेलियां कर भरमाता अम्बर

 

काम की कर लें अदला-बदली

धरने पर बैठे हैं हम, रोटी आज बनाओ तुम।

छुट्टी हमको चाहिए, रसोई आज सम्हालो तुम।

झाड़ू, पोचा, बर्तन, कपड़े, सब करना होगा,

हम अखबार पढ़ेंगें, धूप में मटर छीलना तुम।

भावों की छप-छपाक

यूं ही जीवन जीना है।

नयनों से छलकी एक बूंद

कभी-कभी

सागर के जल-सी गहरी होती है,

भावों की छप-छपाक

न  जाने क्या-क्या कह जाती है।

और कभी ओस की बूंद-सी

झट-से ओझल हो जाती है।

हो सकता है

माणिक-मोती मिल जायें,

या फिर

किसी नागफ़नी में उलझे-से रह जायें।

कौन जाने, कब

फूलों की सुगंध से मन महक उठे,

तरल-तरल से भाव छलक उठें।

इसी निराश-आस-विश्वास में

ज़िन्दगी बीतती चली जाती है।

 

 

अलगाव

द्वंद्व में फ़ंसी मै सोचती हूं,

मैं और तुम कितने एक हैं,

पर दो भी हैं।

शायद इसीलिए एक हैं।

नहीं ! शायद

एक होने के लिए दो हैं।

पहले एक हैं या पहले दो ?

एक ज़्यादा हैं या दो ?

या केवल एक ही हैं,

या केवल दो ही।

इस एक और दो के

द्वंद्व के बीच,

कहीं मैंने जाना,

कि हम

न एक रह गये हैं

न ही दो।

हम दोनों

एक-एक हो गये हैं।

 

दीप प्रज्वलित कर न पाई

मैं चाहकर भी

दीप प्रज्वलित कर न पाई।

घृत भी था, दीप भी था,

पर भाव ला न पाई,

मैं चाहकर भी

दीप प्रज्वलित कर न पाई।

लौ भीतर कौंधती थी,

सोचती रह गई,

समय कब बीत गया

जान ही न पाई।

मैं चाहकर भी

दीप प्रज्वलित कर न पाई।

मित्रों ने गीत गाये,

झूम-झूम नाचे गाये,

कहीं से आरती की धुन,

कहीं से ढोल की थाप

बुला रही थी मुझे

दुख मना रहे हैं या खुशियां

समझ न पाई।

कुछ अफ़वाहें

हवा में प्रदूषण फैला रही थी।

समस्या से जूझ रहे इंसानों को छोड़

धर्म-जाति का विष फैला रही थीं।

लोग सड़कों पर उतर आये,

कुछ पटाखे फोड़े,

पटाखों की रोशनाई

दिल दहला रहीं थी,

आवाज़ें कान फोड़ती थी।

अंधेरी रात में

दूर तक दीप जगमगाये,

पुलिस के सायरन की आवाज़ें

कान चीरती थीं।

दीप हाथ में था

ज्योति थी,

हाथ में जलती शलाका

कब अंगुलियों को छू गई

देख ही न पाई।

सीत्कार कर मैं पीछे हटी,

हाथ से दीप छूटा

भीतर कहीं कुछ और टूटा।

क्या कहूं , कैसे कहूं।

पर ध्यान कहीं और था।

घृत भी था, दीप भी था,

पर भाव ला न पाई,

मैं चाहकर भी

दीप प्रज्वलित कर न पाई।

 

मन तो बहकेगा ही

कभी बादलों के बीच से झांकता है चांद।

न जाने किस आस में

तारे उसके आगे-पीछे घूम रहे,

तब रूप बदलने लगा ये चांद।

कुछ रंगीनियां बरसती हैं गगन से]

धरा का मन शोख हो उठा ।

तिरती पल्लवों पर लाज की बूंदे

झुकते हैं और धरा को चूमते हैं।

धरा शर्माई-सी,

 आनन्द में

पक्षियों के कलरव से गूंजता है गगन।

 

अब मन  तो  बहकेगा  ही

अब  आप  ही   बताईये

क्या करें।

 

त्रिवेणी विधा में रचना

दर्पण में अपने ही चेहरे को देखकर मुस्कुरा देती हूं

फिर उसी मुस्कान को तुम्हारे चेहरे पर लगा देती हूं

पर तुम कहां समझते हो मैंने क्या कहा है तुमसे

जीवन की  नवीन शुरुआत

 जीवन के कुछ पल

अनमोल हुआ करते हैं,

बड़ी मुश्किल से

हाथ आते हैं

जब हम

सारे दायित्वों को

लांघकर

केवल अपने लिए

जीने की कोशिश करते हैं।

नहीं अच्छा लगता

किसी का हस्तक्षेप

किसी का अपनापन

किसी की निकटता

न करे कोई

हमारी वृद्धावस्था की चिन्ता

हमारी हँसी-ठिठोली में

न बने बाधा कोई

न सोचे कोई हमारे लिए

गर्मी-सर्दी या रोग,

अब लेने दो हमें

टेढ़ेपन का आनन्द

ये जीवन की

एक नवीन शुरुआत है।