भोर की आस

चिड़िया आई

कहती है

भोर हुई,

उठ जा, भोर हुई।

आ मेरे संग

चल नये तराने गा,

रंगों से

मन में रंगीनीयाँ ला।

चल

एक उड़ान भर

मन में उमंग ला।

धरा पर पाँव रख।

गगन की आस रख।

जीवन में भाव रख।

रात की बात कर

भोर की आस रख।

चल मेरे संग उड़ान भर।

 

वन्दे मातरम् कहें

चलो

आज कुछ नया-सा करें

न करें दुआ-सलाम

न प्रणाम

बस, वन्दे मातरम् कहें।

देश-भक्ति के गीत गायें

पर सत्य का मार्ग भी अपनाएं।

शहीदों की याद में

स्मारक बनाएं

किन्तु उनसे मिली

धरोहर का मान बढ़ाएं।

न जाति पूछें, न धर्म बताएं

बस केवल

इंसानियत का पाठ पढ़ाएं।

झूठे जयकारों से कुछ नहीं होता

नारों-वादों कहावतों से कुछ नहीं होता

बदलना है अगर देश को

तो चलो यारो

आज अपने-आप को परखें

अपनी गद्दारी,

अपनी ईमानदारी को परखें

अपनी जेब टटोलें

पड़ी रेज़गारी को खोलें

और अलग करें

वे सारे सिक्के

जो खोटे हैं।

घर में कुछ दर्पण लगवा लें

प्रात: प्रतिदिन अपना चेहरा

भली-भांति परखें

फिर किसी और को दिखाने का साहस करें।

कौन है राजा, कौन है रंक

जीत हार की बात न करना

गाड़ी यहां अड़ी हुई है।

कितने आगे कितने पीछे,

किसकी आगे, किसकी पीछे,

जांच अभी चली हुई है।

दोपहिए पर बैठे पांच,

चौपहिए में दस-दस बैठें,

फिर दौड़ रहे बाजी लेकर,

कानून तोड़ना हक है मेरा

देखें, किसकी दाल यहां गली हुई है।

गली-गली में शोर मचा है

मार-काट यहां मची हुई है।

कौन है राजा, कौन है रंक

जांच अभी चली हुई है।

राजा कहता मैं हूं रंक,

रंक पूछ रहा तो मैं हूं कौन

बात-बात में ठनी हुई है।

सड़कों पर सैलाब उमड़ता

कौन सही है कौन नहीं है,

आज यहां हैं कल वहां थे,

क्यों सोचे हम,

हमको क्या पड़ी हुई है।

कल हम थे, कल भी होंगे,

यही समझकर

अपनी जेब भरी हुई है।

 

अभी तो चल रही दाल-रोटी

जिस दिन अटकेगी

उस दिन हम देखेंगे

कहां-कहां गड़बड़ी हुई है।

अभी क्या जल्दी पड़ी हुई है।

 

जीवन में यह उलट-पलट होती है

बहुत छोटी हूं मैं

कुछ समझने के लिए।

पर

इतनी छोटी भी तो नहीं

कि कुछ भी समझ न आये।

मेरे आस-पास लोग कहते हैं

हर औरत मां होती है

बहन होती है,पत्नी होती है

बेटी और सखा होती है।

फिर मुझे देखकर कहते हैं

देखो,कष्टों में भी मुस्कुरा लेती है

ममतामयी, देवी है देवी।

मुझे नहीं पता

औरत क्या, मां क्या,

बेटी क्या, बहन क्या, देवी क्या

और ममता क्या होती है।

मुझे नहीं पता

मेरी गोद यह में कौन है

बेटा है, भाई है

पति है, या कोई और।

बहुत सी बातें

नहीं समझ पाती हूं

और जो समझ जाती हूं

वह भी कहां समझ पाती हूं।

लोग कहते हैं, देखो

भाई की देख-भाल करती है।

बड़ा होकर यही तो है

इसकी रक्षा करेगा

राखी बंधवायेगा, हाथ पीले करेगा,

अपने घर भेजेगा।

कोई समझायेगा मुझे

जीवन में  यह उलट-पलट कैसे होती है।

बहुत सी बातें

नहीं समझ पाती हूं

और जो समझ जाती हूं

वह भी कहां समझ पाती हूं।

पूजा में हाथ जुड़ते नहीं

पूजा में हाथ जुड़ते नहीं,

आराधना में सिर झुकते नहीं

मंदिरों में जुटी भीड़ में

भक्ति भाव दिखते नहीं

पंक्तियां तोड़-तोड़कर

दर्शन कर रहे,

वी आई पी पास बनवा कर

आगे बढ़ रहे

पण्डित चढ़ावे की थाली देखकर

प्रसाद बांट रहे,

फिल्मी गीतों की धुनों पर

भजन बज रहे,

प्रायोजित हो गई हैं 

प्रदर्शन और सजावट

बन गई है पूजा और भक्ति,

शब्दों से लड़ते हैं हम

इंसानियत को भूलकर

जी रहे

सच्चाई की राह पर हम चलते नहीं

इंसानियत की पूजा हम करते नहीं

पत्थरों को जोड़-जोड़कर

कुछ पत्थरों के लिए लड़ मरते हैं

पर किसी डूबते को

तिनका का सहारा

हम दे सकते नहीं

शिक्षा के नाम पर पाखण्ड

बांटने से कतराते नहीं

लेकिन शिक्षा के नाम पर

हम आगे आते नहीं

कैसे बढ़ेगा देश आगे

जब तक

पिछले कुछ किस्से भूलकर

हम आगे आते नहीं

अनूठी है यह दुनिया

 अनूठी है यह दुनिया, अनोखे यहां के लोग।

पहचान नहीं हो पाई कौन हैं  अपने लोग।

कष्टों में दिखते नहीं, वैसे संसार भरा-पूरा,

कहने को अनुपम, अप्रतिम, सर्वोत्तम हैं ये लोग।

उनकी तरह बोलना ना सीख जायें

कभी गांधी जी के

तीन बन्दरों ने संदेश दिया था

बुरा मत बोलो, बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो।

सुना है मैंने

ऐसा ही कुछ संदेश

जैन, बौद्ध, सिक्ख, हिन्दू

मतावलम्बियों ने भी दिये थे,

कुछ मर्यादाओं, नैतिकता, गरिमा

की बात करते थे वे।

पुस्तकों में भी छपता था यही सब।

बच्चों को आज भी पढ़ाते हैं हम यह पाठ।

किन्तु अब ज्ञात हुआ

कि यह सब कथन

आम आदमी के लिए होते हैं

बड़े लोग इन सबसे उपर होते हैं।

वे जो आज देश के कर्णधार

कहलाते हैं

भारत के महिमामयी गणतन्त्र को

आजमाने बैठे हैं

राजनीति के मोर्चे पर हाथ

चलाने बैठे हैं

उनको मत सुनना, उनको मत देखना

उनसे मत बोलना

क्योंकि

भारत का महिमामयी लोकतन्त्र,

अब राजनीति का

अखाड़ा हो गया

दल अब दलदल में धंसे

मर्यादाओं की बस्ती

उजड़ गई

भाषा की नेकी बिखर गई

शब्दों की महिमा

गलित हुई

संसद की गरिमा भंग हुई

किसने किसको क्या कह डाला

सुनने में डर लगता है

प्रेम-प्यार-अपनापन कहीं छिटक गया

घृणा, विद्वेष, विभाजन की आंधी

सब निगल गई

कभी इनके पदचिन्हों के

अनुसरण की बात करते थे,

अब हम बस इतनी चिन्ता करते हैं

हम अपनी मर्यादा में रह पायें

सब देखें, सब सुनें,

मगर,उनकी तरह
बोलना ना सीख जायें

जीवन यूं ही चलता है

पीतल की एक गगरी होती

मुस्कानों की नगरी होती

सुबह शाम की बात यह होती

जल-जीवन की बात यह होती

जीवन यूं ही चलता है

कुछ रूकता है, कुछ बहता है

धूप-छांव सब सहता है।

छोड़ो राहें मेरी

मां देखती राह,

मुझको पानी लेकर

जल्दी घर जाना है

न कर तू चिन्ता मेरी

जीवन यूं ही चलता है

सहज-सहज सब लगता है।

कभी हंसता है, कभी सहता है।

न कर तू चिन्ता मेरी।

सहज-सहज सब लगता है।

 

नहीं बोलती नहीं बोलती

नहीं बोलती नहीं बोलती ,

जा जा अब मैं नहीं बोलती,

जब देखो सब मुझको गुस्‍सा करते।

दादी कहती छोरी है री,

कम बोला कर कम बोला कर।

मां कहती है पढ़ ले पढ़ ले।

भाई बोला छोटा हूं तो क्‍या,

तू लड़की है मैं लड़का।

मैं तेरा रक्षक।

क्‍या करना है मुझसे पूछ।

क्‍या कहना है मुझसे पूछ।

न कर बकबक न कर झकझक।

पापा कहते दुनिया बुरी,

सम्‍हलकर रहना ,

सोच-समझकर कहना,

रखना ज़बान छोटी ।

 

दिन भर चिडि़या सी चींचीं करती।

कोयल कू कू कू कू करती।

कौआ कां कां कां कां करता।

टामी भौं भौं भौं भौं  करता।

उनको कोई कुछ नहीं कहता।

मुझको ही सब डांट पिलाते।

मैं पेड़ पर चढ़ जाउंगी।

चिडि़या संग रोटी खाउंगी।

वहीं कहीं सो जाउंगी।

फिर मुझसे मिलने आना,

गीत मधुर सुनाउंगी।

 

 

एक किरण लेकर चला हूँ

रोशनियों को चुराकर चला हूँ,

सिर पर उठाकर चला हूँ

जब जहां अवसर मिलेगा

रोश्नियां बिखेरने का

वादा करके चला हूँ

अंधेरों की आदत बनने लगी है,

उनसे दो-दो हाथ करने चला हूँ

जानता हूं, है कठिन मार्ग

पर अकेल ही अकेले चला हूँ

दूर-दूर तक

न राहें हैं, न आसमां, न जमीं,

सब तलाशने चला हूं।

ठोकरों की तो आदत हो गई है,

राहों को समतल बनाने चला हूँ

कोई तो मिलेगा राहों में,

जो संग-संग चलेगा,

साथ उम्मीद की, हौंसलों की भी

एक किरण लेकर चला हूँ

त्रिवेणी विधा में रचना २

चेहरे अब अपने ही चेहरे पहचानते नहीं

मोहरे अब चालें चलना जानते ही नहीं

रीति बदल गई है यहां प्रहार करने की

खामोशियां भी बोलती है

नई बात। अब कहते हैं मौन रहकर अपनी बात कहना सीखिए, खामोशियाँ भी बोलती हैं। यह भी भला कोई बात हुई। ईश्वर ने गज़ भर की जिह्वा दी किसलिए है, बोलने के लिए ही न, शब्दाभिव्यक्ति के लिए ही तो। आपने तो कह दिया कि खामोशियाँ बोलती हैं, मैंने तो सदैव धोखा ही खाया यह सोचकर कि मेरी खामोशियाँ समझी जायेगी। न जी न, सरासर झूठ, धोखा, छल, फ़रेब और सारे पर्यायवाची शब्द आप अपने आप देख लीजिएगा व्याकरण में।

मैंने तो खामोशियों को कभी बोलते नहीं सुना। हाँ, हम संकेत का प्रयास करते हैं अपनी खामोशी से। चेहरे के हाव-भाव से स्वीकृति-अस्वीकृति, मुस्कान से सहमति-असहमति, सिर से सहमति-असहमति। लेकिन बहुत बार सामने वाला जानबूझकर उपेक्षा कर जाता है क्योंकि उसे हमें महत्व देना ही नहीं है। वह तो कह जाता है तुम बोली नहीं तो मैंने समझा तुम्हारी मना है।

कहते हैं प्यार-व्यार में बड़ी खामोशियाँ होती हैं। यह भी सरासर झूठ है। इतने प्यार-भरे गाने हैं तो क्या वे सब झूठे हैं? जो आनन्द अच्छे, सुन्दर, मन से जुड़े शब्दों से बात करने में आता है वह चुप्पी में कहाँ, और यदि किसी ने आपकी चुप्पी न समझी तो गये काम से। अपना ऐसा कोई इरादा नहीं है।

मेरी बात बड़े ध्यान से सुनिए और समझिए। खामोशी की भाषा अभिव्यक्ति करने वाले से अधिक समझने वाले पर निर्भर करती है। शायद स्पष्ट ही कहना पड़ेगा, गोलमाल अथवा शब्दों की खामोशी से काम नहीं चलने वाला।

मेरा अभिप्राय यह कि जिस व्यक्ति के साथ हम खामोशी की भाषा में अथवा खामोश अभिव्यक्ति में अपनी बात कहना चाह रहे हैं, वह कितना समझदार है, वह खामोशी की कितनी भाषा जानता है, उसकी कौन-सी डिग्री ली है इस खामोशी की भाषा समझने में। बस यहीं हम लोग मात खा जाते हैं।

इस भीड़ में, इस शोर में, जो जितना ऊँचा बोलता है, जितना चिल्लाता है उसकी आवाज़ उतनी ही सुनी जाती है, वही सफ़ल होता है। चुप रहने वाले को गूँगा, अज्ञानी, मूर्ख समझा जाता है।

ध्यान रहे, मैं खामोशी की भाषा न बोलना जानती हूँ और न समझती हूँ, मुझे अपने शब्दों पर, अपनी अभिव्यक्ति पर, अपने भावों पर पूरा विश्वास है और ईश प्रदत्त गज़-भर की जिह्वा पर भी।

  

किसी के मन न भाती है
पुस्तकों पर सिर रखकर नींद बहुत अच्छी आती है

सपनों में परीक्षा देती, परिणाम की चिन्ता जाती है

सब कहते हैं पढ़-पढ़ ले, जीवन में कुछ अच्छा कर ले

कुछ भी कर लें, बन लें, तो भी किसी के मन न भाती है

दीप तले अंधेरा ढूंढते हैं हम

रोशनी की चकाचौंध में अक्सर अंधकार के भाव को भूल बैठते हैं हम

सूरज की दमक में अक्सर रात्रि के आगमन से मुंह मोड़ बैठते हैं हम

तम की आहट भर से बौखलाकर रोशनी के लिए हाथ जला बैठते हैं

ज्योति प्रज्वलित है, फिर भी दीप तले अंधेरा ही ढूंढने बैठते हैं हम

कुछ छूट गया जीवन में

गांव तक कौन सी राह जाती है कभी देखी नहीं मैंने

वह तरूवर, कुंआ, बाग-बगीचे, पनघट, देखे नहीं मैंने

पीपल की छाया, चौपालों का जमघट, नानी-दादी के किस्से

लगता है कुछ छूट गया जीवन में, जो पाया नहीं मैंने

बेटी दिवस पर एक रचना

 

बेटियों के बस्तों में

किताबों के साथ

रख दी जाती हैं कुछ सतर्कताएं,

कुछ वर्जनाएं,

कुछ आदेश, और कुछ संदेश।

डर, चिन्ता, असुरक्षा की भावना,

जिन्हें

पैदा होते ही पिला देते हैं

हम उन्हें

घुट्टी की तरह।

बस यहीं नहीं रूकते हम।

और बोझा भरते हैं हम,

परम्पराओं, रीति-रिवाज़

संस्कार, मान्यताओं,

सहनशीलता और चुप्पी का।

 

इनके बोझ तले

दब जाती हैं

उनकी पुस्तकें।

कक्षाएं थम जाती हैं।

हम चाहते हैं

बेटियां आगे बढ़ें,

बेटियां खूब पढें,   

बेबाक, बिन्दास।

पर हमारा नज़र रहती है

हर समय

बेटी की नज़र पर।

 

जैसे ही कोई घटना

घटती है हमारे आस-पास,

हम बेटियों का बस्ता

और भारी कर देते हैं,

और भारी कर देते हैं।

कब दब जाती हैं,

उस भार के नीचे,

सांस घुटती है उनकी,

कराहती हैं,

बिलखती हैं

आज़ादी के लिए

पर हम समझ ही नहीं पाते

उनका कष्ट,

इस अनचाहे बोझ तले,

 कंधे झुक जाते हैं उनके,

और हम कहते हैं,

देखो, कितनी विनम्र

परम्परावदी है यह।

छोटा-सा जीवन है हंस ले मना

छोटा-सा जीवन है हंस ले मना     

जीवन में

बार-बार अवसर नहीं मिलते,

धूप ज्यादा हो

तो सदैव बादल नहीं घिरते,

चांद कभी कहीं नहीं जाता

बस हमारी ही समझ का फेर है

कभी पूर्णिमा

कभी ईद और कभी अमावस

की बात करते हैं

निभा सको तो निभा लो

हर मौसम को जीवन में

यूं जीने के अवसर

बार-बार नहीं मिलते

रूठने-मनाने का

सिला तो जीवन-भर चला रहता है

अपनों को मनाने के

अवसर बार -बार नहीं मिलते

कहते हैं छोटा-सा जीवन है

हंस ले मना,

यूं अकारण

खुश रहने के अवसर

बार-बार नहीं मिलते

 

 

 

यह जीवन है

कुछ गांठें जीवन-भर

टीस देती हैं

और अन्‍त में

एक बड़ी गांठ बनकर

जीवन ले लेती हैं।

जीवन-भर

गांठों को उकेरते रहें

खोलते

या किसी से

खुलवाते रहें,

बेहिचक बांटते रहें

गांठों की रिक्‍तता,

या उनके भीतर

जमा मवाद उकेरते रहें,

तो बड़ी गांठें नहीं लेंगी जीवन

नहीं देंगी जीवन-भर का अवसाद।

मुस्कानों को नहीं छीन सकता कोई

ज़िन्दगियाँ पानी-पानी हो रहीं

जंग खातीं काली-काली हो रहीं

मुस्कानों को नहीं छीन सकता कोई

चाहें थालियाँ खाली-खाली हो रहीं।

जीवन की नश्वरता का सार

अंगुलियों से छूने की कोशिश में भागती हैं ये ओस की बूंदें

पत्तियों पर झिलमिलाती, झूला झूलती हैं ये ओस की बूंदें

जीवन की नश्वरता का सार समझा जाती हैं ये ओस की बूंदें

मौसम बदलते ही कहीं लुप्त होने लगती हैं ये ओस की बूंदे

भोर का सूरज

भोर का सूरज जीवन की आस देता है

भोर का सूरज रोशनी का भास देता है

सुबह से शाम तक ढलते हैं जीवन के रंग

भोर का सूरज नये दिन का विश्वास देता है

गुनगुनाता है चांद

शाम से ही

गुनगुना रहा है चांद।

रोज ही की बात है

शाम से ही

गुनगुनाता है चांद।

सितारों की उलझनों में

वृक्षों की आड़ में

नभ की गहराती नीलिमा में

पत्‍तों के झरोखों से,

अटपटी रात में

कभी इधर से,

कभी उधर से

झांकता है चांद।

छुप-छुपकर देखता है

सुनता है,

समझता है सब चांद।

कुछ वादे, कुछ इरादे

जीवन भर

साथ निभाने की बातें

प्रेम, प्‍यार के किस्‍से,

कुछ सच्‍चे, कुछ झूठे

कुछ मरने-जीने की बातें

सब जानता है

इसीलिए तो

रोज ही की बात है

शाम से ही

गुनगुनाता है चांद

 

 

 

मन गया बहक बहक

चिड़िया की कुहुक-कुहुक, फूलों की महक-महक

तुम बोले मधुर मधुर, मन गया बहक बहक

सरगम की तान उठी, साज़ बजे, राग बने,

सतरंगी आभा छाई, ताल बजे ठुमक ठुमक