असमंजस में नई पीढ़ी

आज हमारी पीढ़ी तीन कालखण्डों में जी रही है।

एक वह जो हमारे पूर्वज हमें सौंप गये। दूसरा हमारा स्वयं का विकसित वर्तमान और  तीसरा हमारी भावी पीढ़ी  जिसमें हम अपना भूत, वर्तमान एवं भविष्य तीनों खोजते हैं।

वर्तमान समाज की सबसे कठिन समस्या है इन तीनों के मध्य सामंजस्य बिठाना। अतीत हमें छोड़ता नहीं, वर्तमान हमारी आवश्यकता है। और  भविष्य हमें अपने हाथ से निकलता दिखाई दे रहा है।

एक असमंजस की स्थिति है। धर्म, परम्परा, संस्कृति, रीति रिवाज़, संस्कार, व्यवहार, जो हमें पूर्वजों से मिले हैं उनकी गठरी अपनी पीठ पर बांधे हम विवश से घूम रहे हैं। न ढोने की स्थिति में हैं और  न परित्याग कर सकते हैं क्योंकि हमारी कथनी और  करनी में अन्तर है। हम उस गठरी का परित्याग करना तो चाहते हैं किन्तु समाज से डरते हैं। और  इस चिन्ता में भी रहते हैं कि इसमें न जाने कब कुछ काम का मिल जाये। अपनी आवश्यकतानुसार, सुविधानुसार उसमें कांट छांट कर लेते हैं। अपनी जीवन शैली को सरल सहज, सुविधाजनक बनाने के लिए कुछ जोड़ लेते हैं कुछ छोड़ देते हैं। और  जो मनभावन प्रतीत नहीं होता उसे तिरोहित कर देते हैं। उनका गुणगान तो करते हैं किन्तु निभा नहीं पाते।

इसका दुष्परिणाम हमारी भावी पीढ़ी भुगत रही है। हमने अपनी पीठ की गठरी के साथ साथ अपने समय की भी एक गठरी भी तैयार कर ली है और  हम चाहते हैं कि हमारी भावी पीढ़ी अपनी नवीन जीवन शैली के साथ इन दोनों के बीच संतुलन एवं सामंजस्य स्थापित करे। उसका अपना एक नवीन, आधुनिक, विकसित, वैज्ञानिक समाज है जहां हमने स्वयं उसे भेजा है। किन्तु उसे हम स्वतन्त्रतापूर्वक आगे बढ़ने नहीं दे रहे, अपनी तीनों गठरियों का बोझ उनके कंधे पर लाद कर चले हैं।

  

2008 में नयना देवी मन्दिर में हुआ हादसा

नैना देवी में हादसा हुआ। श्रावण मेला था। समाचारों की विश्वसनीयता के अनुसार वहां लगभग बीस हज़ार लोग उपस्थित थे। पहाड़ी स्थान। उबड़-खाबड़, टेढ़े-मेढ़े संकरे रास्ते। सावन का महीना। मूसलाधार बारिष। ऐसी परिस्थितियों में एक हादसा  हुआ। क्यों हुआ कोई नहीं जानता। कभी जांच समिति की रिपोर्ट आयेगी तब भी किसी को पता नहीं लगेगा।

  किन्तु जैसा कि कहा गया कि शायद कोई अफवाह फैली कि पत्थर खिसक रहे हैं अथवा रेलिंग टूटी। यह भी कहा गया कि कुछ लोगों ने रेंलिंग से मन्दिर की छत पर चढ़ने का प्रयास किया तब यह हादसा हुआ।

 किन्तु कारण कोई भी रहा हो, हादसा तो हो ही गया। वैसे भी ऐसी परिस्थ्तिियों मंे हादसों की सम्भावनाएं बनी ही रहती हैं। किन्तु ऐसी ही परिस्थितियों में आम आदमी की क्या भूमिका हो सकती है अथवा होनी चाहिए। जैसा कि कहा गया वहां बीस हज़ार दर्शनार्थी थे। उनके अतिरिक्त स्थानीय निवासी, पंडित-पुजारी; मार्ग में दुकानें-घर एवं भंडारों आदि में भी सैंकड़ों लोग रहे होंगे। बीस हज़ार में से लगभग एक सौ पचास लोग कुचल कर मारे गये और लगभग दो सौ लोग घायल हुए। अर्थात्  उसके बाद भी वहां सुरक्षित बच गये लगभग बीस हज़ार लोग थे। किन्तु जैसा कि ऐसी परिस्थितियों में सदैव होता आया है उन हताहत लोगों की व्यवस्था के लिए पुलिस नहीं आई, सरकार ने कुछ नहीं किया, व्यवस्था नहीं थी, चिकित्सा सुविधाएं नहीं थीं, सहायता नहीं मिली, जो भी हुआ बहुत देर से हुआ, पर्याप्त नहीं हुआ, यह नहीं हुआ, वह नहीं हुआ; आदि -इत्यादि शिकायतें समाचार चैनलों, समाचार-पत्रों एवं लोगों ने की।

 किन्तु प्रश्न यह है कि हादसा क्यों हुआ और हादसे के बाद की परिस्थितियों के लिए कौन उत्तरदायी है ?

निश्चित रूप से इस हादसे के लिए वहां उपस्थित बीस हज़ार लोग ही उत्तरदायी हैं। यह कोई प्राकृतिक हादसा नहीं था, उन्हीं बीस हज़ार लोगों द्वारा उत्पे्ररित हादसा था यह। लोग मंदिरों में दर्शनों के लिए भक्ति-भाव के साथ जाते हैं। सत्य, ईमानदारी, प्रेम, सेवाभाव का पाठ पढ़ते हैं। ढेर सारे मंत्र, सूक्तियां, चालीसे, श्लोक कंठस्थ होते हैं। किन्तु ऐसी ही परिस्थितियों में सब भूल जाते हैं। ऐसे अवसरों पर सब जल्दी में रहते हैं। कोई भी कतार में, व्यवस्था में बना रहना नहीं चाहता। कतार तोड़कर, पैसे देकर, गलत रास्तों से हम लोग आगे बढ़ने का प्रयास करते हैं। जहां दो हज़ार का स्थान है वहां हम बीस हज़ार या दो लाख एकत्र हो जाते हैं फिर कहते हैं हादसा हो गया। सरकार की गलती है, पुलिस नहीं थी, व्यवस्था नहीं थी। सड़कें ठीक नहीं थीं। अब सरकार को चाहिए कि नैना देवी जैसे पहाड़ी रास्तों पर राजपथ का निर्माण करवाये। किन्तु इस चर्चा से अधिक महत्वपूर्ण यह है कि जो  150 लोग मारे गये और दो सौ घायल हुए उन्हें किसने मारा और किसके कारण ये लोग घायल हुए? निश्चय ही वहां उपस्थित बीस हज़ार लोग ही इन सबकी मौत के अपराधी हैं। उपरान्त हादसे के सब लोग एक-दूसरे को रौंदकर घर की ओर जान बचाकर भाग चले। किसी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा कि उन्होंने किसके सिर अथवा पीठ पर  पैर रखकर अपनी जान बचाई है। सम्भव है अपने ही माता-पिता, भाई-बहन अथवा किसी अन्य परिचित को रौंदकर ही वे अपने घर सुरक्षित पहुंचे हों। जो गिर गये उन्हें किसी ने नहीं उठाया क्योंकि यह तो सरकार का, पुलिस का, स्वयंसेवकों का कार्य है आम आदमी का नहीं, हमारा-आपका नहीं। हम-आप जो वहां बीस हज़ार की भीड़ के रूप में उपस्थित थे किसी की जान बचाने का, घायल को उठाने का, मरे को मरघट पंहुचाने का हमारा दायित्व नहीं है। हम भीड़ बनकर किसी की जान तो ले सकते हेैं किन्तु किसी की जान नहीं बचा सकते। आग लगा सकते हैं, गाड़ियां जला सकते हैं, हत्या कर सकते हैं,  बलात्कार ओैर लूट-पाट कर सकते हैं किन्तु उन व्यवस्थाओं एवं प्रबन्धनों में हाथ नहीं बंटा सकते जहां होम करते हाथ जलते हों। जहां कोई उपलब्धि नहीं हैं वहां कुछ क्यों किया जाये।

  भंडारों में लाखों रुपये व्यय करके, देसी घी की रोटियां तो खिला सकते हैं, करोड़ों रुपयों की मूर्तियां-छत्र, सिंहासन दान कर सकते हैं किन्तु ऐसे भीड़ वाले स्थानों पर होने वाली आकस्मिक दुर्घटनाओं से निपटने के लिए आपदा-प्रबन्धन में अपना योगदान देने में हम कतरा जाते हैं। धर्म के नाम पर दान मांगने वाले प्रायः आपका द्वार खटखटाते होंगे, मंदिरों के निर्माण के लिए, भगवती जागरण, जगराता, भंडारा, राम-लीला के लिए रसीदें काट कर पैसा मांगने में युवा से लेकर वृद्धों तक को कभी कोई संकोच नहीं होता, किन्तु किसी अस्पताल के निर्माण के लिए, शिक्षा-संस्थानों हेतु, भीड़-भीड़ वाले स्थानों पर आपातकालीन सेवाओं की व्यवस्था हेतु एक आम आदमी का तो क्या किसी बड़ी से बड़ी धार्मिक संस्था को  भी कभी अपना महत्त योगदान प्रदान करते कभी नहीं देखा गया। किसी भी मन्दिर की सीढ़ियां चढ़ते जाईये और उस सीढ़ी पर किसी की स्मृति में बनवाने वाले का तथा जिसके नाम पर सीढ़ी बनवाई गई है, का नाम पढ़ते जाईये। ऐसे ही कितने नाम आपको द्वारों, पंखों, मार्गों आदि पर उकेरित भी मिल जायेंगे। किन्तु मैंने आज तक किसी अस्पताल अथवा विद्यालय में इस तरह के दानी का नाम नहीं देखा।

हम भीड़ बनकर तमाशा बना कते हैं, तमाशा देख सकते हैं, तमाशे में किसी को झुलसता देखकर आंखें मूंद लेते हैं क्योंकि यह तो सरकार का काम है।

  

पता नहीं ज़िन्दगी में क्या बनना है

तुम्हें ज़िन्दगी में कुछ बनना है कि नहीं? अंग्रेज़ी में बस 70 अंक और गणित में 75। अकेले तुम हो जिसके 70 अंक हैं, सब बच्चों के 80 से ज़्यादा हैं।  हिन्दी में 95 आ भी गये तो क्या तीर मार लोगे, शिक्षक महोदय वरूण को सारी कक्षा के सामने डांटते हुए बोले। चपड़ासी भी नहीं बन पाओगे इस तरह तो, आजकल चपड़ासी को भी अच्छी इंग्लिश आनी चाहिए, क्या करोगे ज़िन्दगी में। अपने पापा को बुलाकर लाना कल।

वरूण डरता-डरता घर पहुंचा । मां जानती थी कि आज अर्द्धवार्षिक परीक्षा का रिपोर्ट कार्ड होगा। बच्चे का उतरा चेहरा देखकर कुछ नहीं बोली, बस ,खाना खिलाकर खेलने भेज दिया। फिर बैग से रिपोर्ट कार्ड निकाल कर देखा और दौड़कर बाहर से वरूण को बांह खींचकर ले आई और गुस्से से बोली, रिपोर्ट कार्ड क्यों नहीं दिखाया ?वरूण रोने लगा, लेकिन मां ने पुचकार कर पकड़ लिया, अरे ,मैंने तो शाबाशी देने के लिए बुलाया है। इतने अच्छे अंक आये हैं रोता क्यों है? हिन्दी में 95 । वाह! अंगे्रज़ी में कुछ कम हैं पर कोई बात नहीं, कौन-सा अंगे्रज़ी का टीचर बनना है। और गणित में भी ठीक हैं। पापा भी खुश हो जायेंगे। वरूण बोला किन्तु मां, सर तो कहते हैं 100 आने चाहिए।

100? कोई रूपये हैं कि सौ के सौ आ जायेंगे, तू चिन्ता न कर।

संध्या पापा की आवाज़ सुनकर दरवाजे़ के पीछे छिप-सा गया। लेकिन वरूण हैरान था कि पापा भी खुश हैं। आवाज़ दी, कहां हो वरूण, लो तुम्हारी पसन्द की मिठाई लाया हूं। वरूण फिर भी सहमा-सा था। पापा उसके मुंह में गुलाबजामुन डालते हुए बोले , वाह बेटा अंग्रेज़ी में 70 अंक, मेरे तो सात आते थे, हा हा ।

और वरूण अचम्भित-सा खड़ा था समझ नहीं पा रहा था कि उसके अंक कैसे हैं।

   

सम्बन्धों का सम्मान
हमारे पारिवारिक-सामाजिक सम्बन्धों में एक शब्द बहुत महत्व रखता है –“जैसा,जैसे,“समान क्या आपका किन्हीं सम्बन्धों के बीच इन शब्दों का सामना हुआ है।

सीधे-सीधे अपने मन की बात कहती हूं।

किसी ने मुझसे पूछा क्या यह आपकी बेटी है?”

मैंने कहा जी नहीं, मेरी बहू है।

उन्होंने मुझे कुछ तिरस्कार, कुछ उपेक्षा भरी दृष्टि से देखा और  बोले, बहू भी तो बेटी-समान ही होती है। क्या आप अपनी बहू को बेटी-जैसी नहीं मानते

मैंने कहा ,नहीं, मैं अपनी बहू को, बेटी जैसीनहीं मानती। बहू ही मानती हूं

उनके लिए एवं समाज के लिए मेरा यह उत्तर पर्याप्त नकारात्मक है।

 

मेरे इस कथन पर मुझे बहुत उपदेश मिले, तिरस्कार-पूर्ण भाव मिले, और मुझे समझाया गया कि सास-बहू में आज इसीलिए इतनी खटपट होती है क्योंकि सासें बहुंओं को अपनाती ही नहीं।

मैंने अपना स्पष्टीकरण देने का प्रयास किया कि मैंने अपनाया है अपनी बहू को बहू के रूप में, बहू के अधिकार के रूप में , उसकी जो ‘‘पोस्’’ है उसी पर। इसी सम्बन्ध को बनाये रखने में हमारी गरिमा है, किन्तु प्रायः मेरा उत्तर किसी की समझ में नहीं आता। घर में कहते हैं तू क्यों सबसे पंगा लेती है, कहने दे जो कोई कहता है। मेरा प्रश्न है कि हर क्षेत्र के सम्बन्धों की अपनी गरिमा, रूप होता है, उस पर अन्य सम्बन्ध क्यों थोपे जाते हैं ? हम पारिवारिकसामाजिक सम्बन्धों में यह जैसा”, “समानजैसे शब्दों का प्रयोग क्यों करने लगे हैं। जो सम्बन्ध हैं, उनको उसी रूप में सम्मान क्यों नहीं दे पाते।

मैं कार्यरत हूं। अनेक बार कोई सहकर्मी कह देता है आप तो मेरी मां जैसी हैं।कोई कहता है आप तो हमारी बड़ी बहन जैसी हैं, किसी का वाक्य होता है : “मैं तो आपके बेटे जैसा हूं।

 मैं कहती हूं नहीं, आप केवल मेरे सहकर्मी हैं।

मेरा यह उत्तर नकारात्मक ही नहीं हास्यास्पद भी होता है।

हम अपने बच्चों को कहते हैं: भाभी को मां समान समझना, देवर को बेटे समान मानना। सास-ससुर की माता-पिता समान सेवा करना। एक महिला अपने ढाई वर्ष के बेटे को पड़ोस की दो वर्ष की बच्ची के लिए कह रही है, बेटा यह तेरी दीदी है। लेकिन साली को बहन समान समझना यह मैंने कभी नहीं सुना।

और  सबसे बड़ी बात: बेटी को बेटा जैसा मानें। जहां तक मेरी  समझ कहती है इसका अभिप्राय यह कि बेटे और बेटी के अधिकार समान रहें। तो मैंने कभी किसी को यह कहते नहीं सुना कि बेटे को बेटी जैसा मानें, जब समानता की बात करनी है तो दोनों ओर से की जा सकती है, अर्थात हम कहीं तो भेद-भाव लेकर चल ही रहे हैं।

हम वे ही रिश्ते क्यों मानें, जो वास्तव में हैं, उन्हीं सम्बन्धों में पूर्ण सम्मान दें, अधिकार एवं अपनत्व दें, तो क्या सम्बन्धों में ज़्यादा गहराई, ज़्यादा अपनत्व, ज़्यादा विश्वास का भाव नहीं उपजेगा।

क्या सामाजिक पारिवारिक सम्बन्धों को लेकर हमारे मन में कोई डर, कोई खौफ़ है जो हम हर सम्बन्ध पर एक लबादा ओढ़ाने में लगे हैं, अथवा परत-दर-परत चढ़ाने में लगे हैं।

लोग कहते हैं कि हम सम्बन्धों का नाम देकर सम्मान-भाव प्रदर्शित करते हैं। मेरा प्रश्र होता है कि जो सम्बन्ध वास्तव में है, उस पर कोई और  सम्बन्ध लादकर क्या हम वास्तविक सम्बन्धों का अपमान नहीं कर रहे।
  

ब्लाकिंग ब्लाकिंग

अब क्या लिखें आज मन की बात। लिखने में संकोच भी होता है और लिखे बिना रहा भी नहीं जा सकता। अब हर किसी से तो अपने मन की पीड़ा बांटी नहीं जा सकती। कुछ ही तो मित्र हैं जिनसे मन की बात कह लेती हूं।

तो लीजिए कल फिर एक दुर्घटना घट गई एक मंच पर मेरे साथ। बहुत-बहुत ध्यान रखती  हूं प्रतिक्रियाएं लिखते समय, किन्तु इस बार एक अन्य रूप में मेरी प्रतिक्रिया मुझे धोखा दे गई।

 हुआ यूं कि एक कवि महोदय की रचना मुझे बहुत पसन्द आई। हम प्रंशसा में प्रायः  लिख देते हैं: ‘‘बहुत अच्छी रचना’’, ‘‘सुन्दर रचना’’, आदि-आदि। मैं लिख गई ‘‘ बहुत सुन्दर, बहुत खूबसूरत’’ ^^रचना** शब्द कापी-पेस्ट में छूट गया।

मेरा ध्यान नहीं गया कि कवि महोदय ने अपनी कविता के साथ अपना सुन्दर-सा चित्र भी लगाया था।

लीजिए हो गई हमसे गलती से मिस्टेक। कवि महोदय की प्रसन्नता का पारावार नहीं, पहले मैत्री संदेश आया, हमने देखा कि उनके 123 मित्र हमारी भी सूची में हैं, कविताएं तो उनकी हम पसन्द करते ही थे। हमने सहर्ष स्वीकृति प्रदान कर दी।

बस !! लगा संदेश बाक्स घनघनाने, आने लगे चित्र पर चित्र, कविताओं पर कविताएं, प्रशंसा के अम्बार, रात दस बजे मैसेंजर बजने लगा। मेरी वाॅल से मेरी ही फ़ोटो उठा-उठाकर मेरे संदेश बाक्स में आने लगीं। समझाया, लिखा, कहा पर कोई प्रभाव नहीं।

वेसे तो हम ऐसे मित्रों को  Block कर देते हैं किन्तु इस बार एक नया उपाय सूझा।

हमने अपना आधार कार्ड भेज दिया,

अब हम Blocked  हैं।

  

होलिका दहन की कथा: मेरी समझ मेरी सोच

एक अजीब-सा भटकाव है मेरी सोच में

मेरे दिमाग में

आपसे आज साझा करना चाहती हूं।

असमंजस में रहती हूं।

बात कुछ और चल रही होती है

और मैं अर्थ कुछ और निकाल लेती हूं।

जब होली का पर्व आता है तो हमें मस्ती सूझती है, रंग-रंगोली की याद आती है, हंसी-ठिठोली की याद आती है, राधा-कृष्ण की होली की मस्ती भरी कथाओं की बात होती है, इन्द्रधनुषी रंग सजने लगते हैं, मिठाईयों और  पकवानों की सुगन्ध से घर महकने लगते हैं। यद्यपि होली का सम्बन्ध कृषि से भी है किन्तु हम लोग क्योंकि कृषि व्यवसाय से जुड़े हुए नहीं हैं अत: होली के पर्व को इस रूप में नहीं देखते।

किन्तु मुझे केवल उस होलिका की याद आती है जो अपने बड़े भाई हिरण्यकशिपु के आदेशानुसार प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर अग्नि में बैठ गई थी और  जल मरी थी। उसके पास एक वरदानमयी चुनरी थी जिसे ओढ़ने से वह आग से नहीं जल सकती थी, किन्तु उस समय हवा चली और  चुनरी उड़ गई। इसका कारण यह बताया जाता है कि होलिका को चुनरी अच्छे कार्य करने के लिए मिली थी, किन्तु वह बुरा कार्य कर रही थी इसलिए चुनरी उड़ी और होलिका जल मरी।

ये चुनरियां क्यों उड़ती हैं ?  चुनरियां कब-कब उड़ती हैं

अब देखिए बात होली की चल रही थी और  मुझे चुनरी की याद आ गई और वह भी उड़ने वाली चुनरी की । अब आप इसे मेरे दिमाग की भटकन ही तो कहेंगे।

 लेकिन मैं क्या कर सकती हूं। जब भी चुनरी की बात उठती है, मुझे होलिका जलती हुई दिखाई देती है, और दिखाई देती है उसकी उड़ती हुई वरदानमयी चुनरी । शायद वैसी ही कोई चुनरी जो हम कन्याओं का पूजन करके उन्हें उढ़ाते हैं और आशीष देते हैं। किन्तु कभी देखा है आपने कि इन कन्याओं की चुनरी कब, कहां और कैसे कैसे उड़ जाती है। शायद नहीं।

क्योंकि ये सब किस्से कहानियां इतने आम हो चुके हैं कि हमें इसमें कुछ भी अनहोनी नहीं लगती।

 

देखिए, मैं फिर भटक गई बात से और आपने रोका नहीं मुझे।

बात तो चुनरी की  और होलिका की चुनरी की कर रही थी और मैं होनी-अनहोनी की बात कर बैठी।

 फिर लौटती हूं अपनी बात की ओर

इस कथा से जोड़कर होली को बुराई पर अच्छाई, अधर्म पर धर्म एवं असत्य पर सत्य की विजय के प्रतीक-स्वरूप भी मनाया जाता है। अधिकांश ग्रंथों एवं पाठ्य- पुस्तकों में होलिका को बुराई का प्रतीक बताकर प्रस्तुत किया जाता है। होली से एक दिन पूर्व होलिका-दहन किया जाता है। यदि इस होलिका-दहन पर्व को मनाने की विधि को  हम सीधे शब्दों में लिखें तो हम होली से एक दिन पूर्व एक कन्या की हत्या का प्रतीक-स्वरूप एक उत्सव मनाते हैं। मेरी दृष्टि में यह उत्सव लगभग वैसा ही है जैसे कि दशहरे के अवसर पर रावण-दहन का उत्सव।

 

होलिका की बात मेरे लिए स्त्री-पुरूष रूप में नहीं है, केवल इतना है कि हमारी सोच एक ही तरह से क्यों चलती है? प्रह्लाद को तो नहीं मरना था, उसे तो हिरण्यकशिपु ने और भी बहुत बार मारने का प्रयास किया था किन्तु वह नहीं मरा था,  तो इस बार भी नहीं मरा। किन्तु ये पौराणिक कथाएं वर्तमान में क्या बन चुकी हैं मुझे तो नहीं पता। होलिका एक छोटी सी बालिका थी। बुरा तो हिरण्यकशिपु था, मेरी समझ में  होलिका का तो एक अस्त्र के रूप में उसने प्रयोग किया था।

और एक अन्य बात यह कि मैंने अपने आलेख में चुनरी का एक अन्य प्रतीक के रूप में भी प्रयोग करने का प्रयास किया है किन्तु सम्भवतः वह प्रतीक धर्म-अधर्म,  बुराई-अच्छाई, स्त्री-पुरूष के चिन्तन के बीच उभर ही नहीं पाया।

होलिका-दहन  के अवसर पर उपले जलाने की भी परंपरा है। गाय के गोबर से बने उपलों के मध्य  में छेद होता है जिसमें  मूँज की रस्सी डाल कर माला बनाई जाती है। एक माला में सात उपले होते हैं। होली में आग लगाने से पूर्व इस माला को भाइयों के सिर के ऊपर से सात बार घुमा कर फेंक दिया जाता है। रात्रि को होलिका-दहन के समय यह माला होलिका के साथ जला दी जाती है। जिससे यह माना जाता है कि  होली के साथ भाइयों पर लगी बुरी नज़र भी जल जाए।  अर्थात बहन की चिता में भाईयों की बुरी नज़र उतारी जाती है।

इस कथा की किस रूप में व्याख्या की जाये ?

होलिका  के पास एक वरदानमयी चुनरी थी जिसे पहनकर उसे आग नहीं जला सकती थी। किन्‍तु वह एक अत्याचारी,  बुरे  भाई की बहिन थी  जिसने राजाज्ञा का पालन किया था। उसकी आयु क्या थी ? क्‍या वह जानती थी  भाई के अत्याचारों, अन्याय को अथवा प्रह्लाद की ईश्वर भक्ति को और अपने वरदान या श्राप को। पता नहीं । क्या वह जानती थी कि उसके बड़े भाई ने उसे प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि में बैठने के लिए क्यों कहा है ? यदि वह राजाज्ञा का पालन नहीं करती तब भी मरती और  पालन किया तो भी मरी।

किन्‍तु वह भी बुरी थी इसी कारण उसने भाई की आज्ञा का पालन किया। अग्नि देवता आगे आये थे प्रह्लाद की रक्षा के लिए। किन्तु होलिका की चुनरी न बचा पाये, और होलिका जल मरी।  वैसे भी चुनरी की ओर  ध्यान ही कहां जाता हैहर पल तो उड़ रही हैं चुनरियां। और हम ! हमारे लिए एक पर्व हो जाता है।  एक औरत जलती है  उसकी चुनरी उड़ती है और हम आग जलाकर खुशियां मनाते हैं।

देखिए, मैं फिर भटक गई बात से और आपने रोका नहीं मुझे।

  जिस दिन होलिका जली थी उस दिन बुराई का अन्त नहीं हुआ था, हिरण्यकशिपु उस दिन भी जीवित ही था, केवल होलिका जली थी, जिसके जलने की खुशी में हम होली मनाते हैं। फिर वह दिन बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक कैसे बन गया ? क्या केवल इसलिए कि एक निरीह कन्या जल मरी क्योंकि उसने भाई की राजाज्ञा का पालन किया था, जो सम्भवत: प्रत्येक वस्तुस्थति से अनभिज्ञ थी। और यदि जानती भी तो भी क्‍यों  

होलिका-दहन एवं होली के पर्व में मैं कभी भी एकरूपता नहीं समझ पाई।

अब आग तो बस आग होती है  जलाती है और जिसे बचाना हो बचा भी लेती है। अब देखिए न, अग्नि देव सीता को ले आये थे सुरक्षित बाहर, पवित्र बताया था उसे। और राम ने अपनाया था। किन्तु कहां बच पाई थी उसकी भी चुनरी , घर से बेघर हुई थी अपमानित होकर। फिर मांगा गया था उससे पवित्रता का प्रमाण। और वह समा गई थी धरा में एक आग लिए।

कहते हैं धरा के भीतर भी आग है।

आग मेरे भीतर भी धधकती है।

देखिए, मैं फिर भटक गई बात से और आपने रोका नहीं मुझे।

यह भी जानती हूं कि एेसे प्रश्नों के कोई उत्तर नहीं होते क्योंकि हम कोई प्रश्न करते ही नहीं, उत्तर चाहते ही नहीं, बस अच्छे-से निभाना जानते हैं, फिर वह अर्थहीन हो अथवा सार्थक !!

मैंने अपने आलेख में चुनरी का एक अन्य प्रतीक के रूप में भी प्रयोग करने का प्रयास किया है किन्तु सम्भवतः वह प्रतीक धर्म.अधर्म,  बुराई.अच्छाई, स्त्री.पुरूष के चिन्तन के बीच उभर ही नहीं पाया।

   

शब्द  भावहीन होते हैं

कुछ भावों के

शब्द नहीं होते

और कुछ शब्द

भावहीन होते हैं

तरसता है मन।

हम वहीं के वहीं ठहरे रह गये

जीवन में क्या बनोगे

क्या बनना चाहते हो

अक्सर पूछे जाते थे

ऐसे सवाल।

अपने आस-पास

देखते हुए

अथवा बड़ों की सलाह से

मिले थे कुछ बनने के आधार।

रट गईं थी हमें

बताईं गईं कुछ राहें और काम,

और जब भी कोई पूछता था

हम ले देते थे

कोई भी एक-दो नाम।

किन्तु मन तब डरने लगा

जब हमारे सामने

दी जाने लगीं ढेरों मिसालें

अनगिनत उदाहरण।

किसी की जीवनियाँ,

किसी की आहुति,

किसी की सेवा

और किसी का समर्पण।

कोई सच्चा, कोई त्यागी,

कोई महापुरुष।

इन सबको समझने

और आत्मसात करने में

जीवन चला गया

और हम

वहीं के वहीं ठहरे रह गये।

 

किसने मेरी तक़दीर लिखी

न जाने कौन था वह

जिसने मेरी तक़दीर लिखी

ढूँढ रही हूँ उसे

जिसने मेरी तस्वीर बनाई।

मिले कभी तो  पूछूँगी,

किसी जल्दी में थे क्या

आधा-अधूरा लिखा पन्ना

छोड़कर चल दिये।

आधे काॅलम मुझे खाली मिले।

अब बताओ भला

ऐसे कैसे जीऊँ भरपूर ज़िन्दगी।

मिलो तो कभी,

अपनी तक़दीर देना मेरे हाथ

फिर बताऊँगी तुम्हें

कैसे बीतती है ऐसे

आधी-अधूरी ज़िन्दगी।

न कुछ बदला है न बदलेगा

कांटा डाले देखो बैठे नेताजी

वोट का तोल लगाने बैठे नेताजी

-

नेताजी के रंग बदल गये

खाने-पीने के ढंग बदल गये

-

नोट दिखाकर ललचा रहे हैं

वोट हमसे मांग रहे हैं।

-

इसको ऐसे समझो जी,

नोटों का चारा बनता

वोटों का झांसा डलता

मछली को दाना डलता

-

पहले मछली को दाना डालेंगे

उससे अपने काम निकलवा लेंगे

होगी  मछली ज्यों ही मोटी

होगी किस्मत उसकी  खोटी

-

दाना-पानी सब बन्द होगा

नदिया का पानी सूखेगा

फिर कांटे से इनको बाहर लायेंगे

काट-काटकर खायेंगे

प्रीत-भोज में मिलते हैं

पांच साल किसने देखे

आना-जाना लगा रहेगा

न कुछ बदला है, न बदलेगा।

 

अन्तर्मन की आवाजें

 

अन्तर्मन की आवाजें अब कानों तक पहुंचती नहीं

सन्नाटे को चीरकर आती आवाजें अन्तर्मन को भेदती नहीं

यूं तो पत्ता भी खड़के, तो हम तलवार उठा लिया करते हैं

पर बडे़-बडे़ झंझावातों में उजडे़ चमन की बातें झकझोरती नहीं

छोटी-छोटी बातों पर

छोटी-छोटी बातों पर

अक्सर यूँ ही

उदासी घिर आती है

जीवन में।

तब मन करता है

कोई सहला दे सर

आँखों में छिपे आँसू पी ले

एक मुस्कुराहट दे जाये।

पर सच में

जीवन में

कहाँ होता है ऐसा।

-

आ गया है

अपने-आपको

आप ही सम्हालना।

नहीं बनना मुझे नारायणी

लालसा है मेरी

एक ऐसे जीवन की

एक ऐसा जीवन जीने की

जहाँ मैं रहूँ

सदा एक आम इंसान।

नहीं चाहिए

कोई पदवी कोई सम्मान

कोई वन्दन कोई अभिनन्दन।

रिश्तों में बाँध-बाँधकर मुझे

सूली पर चढ़ाते रहते हो।

रिश्ते निभाते-निभाते

जीवन बीत जाता है

पर कहाँ कुछ समझ आता है,

जोड़-तोड़-मोड़ में

सब कुछ उलझा-उलझा-सा

रह जाता है।

शताब्दियों से

एकत्र की गई

सम्मानों की, बलिदान की

एहसान की चुनरियाँ

उढ़ा देते हो मुझे।

इतनी आकांक्षाएँ

इतनी आशाएँ

जता देते हो मुझे।

पूरी नहीं कर पाती मैं

कहीं तो हारती मैं

कहीं तो मन मारती मैं।

अपने मन से कभी

कुछ सोच ही नहीं पाती मैं।

दुर्गा, काली, सीता, राधा, चण्डी,

नारायणी, देवी,

चंदा, चांदनी, रूपमती

झांसी की रानी, पद्मावती

और न जाने क्या-क्या

सब बना डालते हो मुझे।

किन्तु कभी एक नारी की तरह

भी जीने दो मुझे।

नहीं जीतना यह संसार मुझे।

दो रोटी खाकर,

धूप सेंकती,

अपने मन से सोती-जागती

एक आम नारी रहने दो मुझे।

नहीं हूँ मैं नारायणी।

नहीं बनना मुझे नारायणी ।

 

मुहब्बतों की कहानियां

मुझे इश्तहार सी लगती हैं

ये मुहब्बतों की कहानियां

कृत्रिम सजावट के साथ

बनठन कर खिंचे चित्र

आँखों तक खिंची

लम्बी मुस्कान

हाथों में यूँ हाथ

मानों

कहीं छोड़कर न भाग जाये।

 

कैसे आया बसन्त

बसन्त यूँ ही नहीं आ जाता

कि वर्ष, तिथि, दिन बदले

और लीजिए

आ गया बसन्त।

-

मन के उपवन में

सुमधुर भावों की रिमझिम

कुछ ओस की बूंदें बहकीं

कुछ खुशबू कुछ रंगों के संग

कहीं दूर कोयल कूक उठी।

 

क्यों करना दु:ख करना यारो

जरा, अनुभव, पतझड़ की बातें

मत करना यारो

मदमस्त मौमस की

मस्ती हम लूट रहे हैं

जो रीत गया

उसका क्यों है दु:ख करना यारो

 

भावों में भंवर

भावों में भी

भंवर बनते हैं

एक बार फ़ंसने पर

निकलना बहुत कठिन होता है।

 

खामोश शब्द

भावों को

आकार देने का प्रयास

निरर्थक रहता है अक्सर

शब्द भी

खामोश हो जाते हैं तब

 

यह वह मेरा सूरज तो नहीं

यह वह सूरज तो नहीं

जिसकी मैं बात किया करती थी।

यह वह सूरज भी नहीं

जो अक्सर

मेरे सपनों में आया करता था।

यह वह सूरज तो नहीं

जो मुझे राह दिखाया करता था।

यह वह सूरज भी नहीं

जो मेरी राहें आलोकित

किया करता था।

यह वह सूरज भी नहीं

जिस पर मैं विश्वास किया करती थी।

यह वह सूरज भी नहीं

जो मुझे रोज़ मिला करता था।

 

गली-गली ढूंढ रही

मेरा सूरज कहां गया।

यह सूरज तो राहों से भटक गया।

अंधेरे-रोशनी की

पहचान भूल गया।

जहां रोशनी चाहिए

वहां अंधेरा पसरता है,

किसी के घर में

झांके बिना ही निकल जाता है,

और कहीं आग बरसाता है।

मेरा सूरज तो ऐसा नासमझ नहीं था।

 

कल मिला बड़े दिनों के बाद।

पूछा मैंने कहाँ गये,

ऐसे कैसे हो गये।

 

सूरज मुस्काया,

समय के साथ चलना सीख।

नज़र बदल, सड़क बदल

कुछ कांटे बिछा, कुछ ज़हर उगल।

न अंधेरे से डर

न रोशनी की चाहत रख

जो मिले, उसे निगल

आगे बढ़, सबकी खींच।

न आस रख, न विश्वास रख

न जी का जंजाल रख।

सबको तोड़, अपने को जोड़

बस ऐसा जीवन जी

इशारा कर दिया मैंने

शेष अपनी बुद्धि लगा

और मस्त जीवन जी।

 

कुछ शब्द

कुछ दूरियों को

कदमों से नापने में

सालों लग जाते हैं

और कुछ शब्द

सब दूरियाँ मिटाकर

निकट लाकर खड़ा कर देते हैं।

 

विश्व-शांति के लिए

विश्व-शांति के लिए

बनाने पड़ते हैं आयुध

रचनी पड़ती हैं कूटनीतियाँ

धर्म, जाति

और देश के नाम पर

बाँटना पड़ता है,

चिननी पड़ती हैं

संदेह की दीवारें

अपनी सुरक्षा के नाम पर

युद्धों का

आह्वान करना पड़ता है

देश की रक्षा की

सौगन्ध उठाकर

झोंक दिये जाते हैं

युद्धों में

अनजान, अपरिचित,

किसी एक की लालसा,

महत्वाकांक्षा

ले डूबती है

पूरी मानवता

पूरा इतिहास।

फागुन आया

बादलों के बीच से

चाँद झांकने लगा

हवाएँ मुखरित हुईं

रवि-किरणों के

आलोक में

प्रकृति गुनगुनाई

मन में

जैसे तान छिड़ी,

लो फागुन आया।

आँख मूंद सपनों में जीने लगती हूँ

खिड़की से सूनी राहों को तकती हूँ

उन राहों पर मन ही मन चलती हूँ

भटकन है, ठहराव है, झंझावात हैं

आँख मूंद सपनों में जीने लगती हूँ।

एक मानवता को बसाने में

ये धुएँ का गुबार

और चमकती रोशनियाँ

पीढ़ियों को लील जाती हैं

अपना-पराया नहीं पहचानतीं

बस विध्वंस को जानती हैं।

किसी गोलमेज़ पर

चर्चा अधूरी रह जाती है

और परिणामस्वरूप

धमाके होने लगते हैं

बम फटने लगते हैं

लोग सड़कों-राहों पर

मरने लगते हैं।

क्यों, कैसे, किसलिए

कुछ नहीं होता।

शताब्दियाँ लग जाती हैं

एक मानवता को बसाने में

और पल लगता है

उसको उजाड़ कर चले जाने में।

फिर मलबों के ढेर में

खोजते हैं

इंसान और इंसानियत,

कुछ रुपये फेंकते हैं

उनके मुँह पर

ज़हरीले आंसुओं से सींचते हैं

उनके घावों को

बदले की आग में झोंकते हैं

उनकी मानसिकता को

और फिर एक

गोलमेज़ सजाने लगते हैं।

 

वनचर इंसानों के भीतर

कहते हैं

प्रकृति स्वयंमेव ही

संतुलन करती है।

रक्षक-भक्षक स्वयं ही

सर्जित करती है।

कभी इंसान

वनचर था,

हिंसक जीवों के संग।

फिर वन छूट गये

वनचरों के लिए।

किन्तु समय बदला

इंसान ने छूटे वनों में

फिर बढ़ना शुरु कर दिया

और अपने भीतर भी

बसा लिए वनचर ।

और वनचर शहरों में दिखने लगे।

कुछ स्वयं आ पहुंचे

और कुछ को हम ले आये

सुरक्षा, मनोरजंन के लिए।

.

अब प्रतीक्षा करते हैं

इंसान फिर वनों में बसता है

या वनचर इंसानों के भीतर।

  

कहते हैं

प्रकृति स्वयंमेव ही

संतुलन करती है।

रक्षक-भक्षक स्वयं ही

सर्जित करती है।

कभी इंसान

वनचर था,

हिंसक जीवों के संग।

फिर वन छूट गये

वनचरों के लिए।

किन्तु समय बदला

इंसान ने छूटे वनों में

फिर बढ़ना शुरु कर दिया

और अपने भीतर भी

बसा लिए वनचर ।

और वनचर शहरों में दिखने लगे।

कुछ स्वयं आ पहुंचे

और कुछ को हम ले आये

सुरक्षा, मनोरजंन के लिए।

.

अब प्रतीक्षा करते हैं

इंसान फिर वनों में बसता है

या वनचर इंसानों के भीतर।

  

बस विश्वास देना

कभी दुख हो तो बस साथ देना

दया मत दिखलाना बस हाथ देना

पीड़ा बढ़ जाती है जब दूरियाँ हों

आँसू मत बहाना बस विश्वास देना

इच्छाएँ हज़ार

छोटा-सा मन इच्छाएँ हज़ार

पग-पग पर रुकावटें हज़ार

ठोकरों से हम घबराए नहीं

नहीं बदलते राहें हम बार-बार

ईश्वर के रूप में चिकित्सक

कहते हैं

जीवन में निरोगी काया से

बड़ा कोई सुख नहीं

और रोग से बड़ा

कोई दुख नहीं।

जीवन का भी तो

कोई भरोसा नहीं

आज है कल नहीं।

किन्तु

जब जीवन है

तब रोग और मौत

दोनों के ही दुख से

कहाँ बच पाया है कोई।

किन्तु

कहते हैं

ईश्वर के रूप में

चिकित्सक आते हैं

भाग्य-लेख तो वे भी

नहीं मिटा पाते हैं

किन्तु

अपने जीवन को

दांव पर लगाकर

हमें जीने की आस,

एक विश्वास

और साहस का

डोज़ दे जाते हैं

और हम

यूँ ही मुस्कुरा जाते हैं।

    

जब भी दूध देखा

सुना ही है

कि भारत में कभी

दूध-घी की

नदियाँ बहा करती थीं।

हमने तो नहीं देखीं।

बहती होंगी किसी युग में।

हमने तो

दूध को सदा

टीन के पीपों से ही

बहते देखा है।

हम तो समझ ही नहीं पाये

कि दूध के लिए

दुधारु पशुओं का नाम

क्यों लिया जाता है।

कैसे उनका दूध समा जाता है

बन्द पीपों में

थैलियों में और बोतलों में।

हमने तो जब भी दूध देखा

सदा पीपों में, थैलियों में

बन्द बोतलों में ही देखा।

 

 

जीवन चलता तोल-मोल से

सड़कों पर बाज़ार बिछा है

रोज़ सजाते, रोज़ हटाते।

आज  हरी हैं

कल बासी हो जायेंगी।

आस लिए बैठे रहते हैं

देखें कब तक बिक जायेंगी

ग्राहक आते-जाते

कभी ख़रीदें, कभी सुनाते।

धरा से उगती

धरा पर सजती

धरा पर बिकती।

धूप-छांव में ढलता जीवन

सांझ-सवेरे कब हो जाती।

तोल-मोल से काम चले

और जीवन चलता तोल-मोल से

यूँ ही दिन ढलते रहते हैं