सिंदूरी शाम

अक्सर मुझे लगता है

दिन भर

आकाश में घूमता-घूमता

सूरज भी

थक जाता है

और संध्या होते ही

बेरंग-सा होने लगता है

हमारी ही तरह।

ठिठके-से कदम

धीमी चाल

अपने गंतव्य की ओर बढ़ता।

जैसे हम

थके-से

द्वार खटखटाते हैं

और परिवार को देखकर

हमारे क्लांत चेहरे पर

मुस्कान छा जाती है

दिनभर की थकान

उड़नछू हो जाती है

कुछ वैसे ही सूरज

जब बढ़ता है

अस्ताचल की ओर

गगन

चाँद-तारों संग

बिखेरने लगता है

इतने रंग

कि सांझ सराबोर हो जाती है

रंगों से।

और

बेरंग-सा सूरज

अनायास झूम उठता है

उस सिंदूरी शाम में

जाते-जाते हमें भी रंगीनियों से

भर जाता है।

 

वहीं के वहीं खड़े हैं

क्यों पूछते हो

कहाँ आ गये।

अक्सर लगता है

जहाँ से चले थे

वहीं के वहीं खड़े हैं

कदम ठहरे से

भाव सहमे से

प्रश्न झुंझलाते से

उत्तर नाकाम।

न लहरों में

लहरें

न हवाओं में

सिरहन

न बातों में

मिठास

न अपनों से

अपनापन

भावहीन-सा मन

क्यों पूछते हो

कहाँ आ गये

एक अर्थहीन

ठहराव में जी रहे हैं

क्यों पूछते हो

कहाँ आ गये।

अक्सर लगता है

जहाँ से चले थे

वहीं के वहीं खड़े हैं।

 

शिकायतों का  पुलिंदा

शिकायतों का

पुलिंदा है मेरे पास।

है तो सबके पास

बस सच बोलने का

मेरा ही ठेका है।

काश!

कि शिकायतें

आपसे होतीं

किसी और से होतीं,

इससे-उससे होतीं,

तब मैं कितनी प्रसन्न होती,

बिखेर देती

सारे जहाँ में।

इसकी, उसकी

बुराईयाँ कर-कर मन भरती।

किन्तु

क्या करुँ

सारी शिकायतें

अपने-आपसे ही हैं।

जहाँ बोलना चाहिए

वहाँ चुप्पी साध लेती हूँ

जहाँ मौन रहना चाहिए

वहाँ बक-झक कर जाती हूँ।

हँसते-हँसते

रोने लग जाती हूँ,

रोते-रोते हँस लेती हूँ।

न खड़े होने का सलीका

न बैठने का

न बात करने का,

बहक-बहक जाती हूँँ

मन कहीं टिकता नहीं

बस

उलझी-उलझी रह जाती हूँ।

 

पशु-पक्षियों का आयात-निर्यात

अभयारण्य

बड़े होते जा रहे हैं

हमारे घर छोटे।

हथियार

ज़्यादा होते जा रहे हैं

प्रेम-व्यवहार ओछे।

पढ़ा करते थे

हम पुस्तकों में

प्रकृति में पूरक हैं

सभी जीव-जन्तु

परस्पर।

कौन किसका भक्षक

कौन किसका रक्षक

तय था सब

पहले से ही।

किन्तु

हम मानव हैं

अपने में उत्कृष्ट,

प्रकृति-संचालन को भी

ले लिया अपने हाथ में।

पहले वन काट-काटकर

घर बना लिए

अब घरों में

वन बना रहे हैं

पौधे तो

रोपित कर ही रहे थे

अब पशु-पक्षियों के

आयात-निर्यात करने का

समय आ गया है।

 

यादें: शिमला की बारिश की

न जाने वे कैसे लोग हैं

जो बारिश की

सौंधी खुशबू से

मदहोश हो जाते हैं

प्रेम-प्यार के

किस्सों में खो जाते हैं।

विरह और श्रृंगार की

बातों में रो जाते हैं।

सर्द सांसों से

खुशियों में

आंसुओं के

बीज बो जाते हैं।

और कितने तो

भीग जाने के डर से,

घरों में छुपकर सो जाते हैं।

यह भी कोई ज़िन्दगी है भला !

.

 

कभी तेज़, कभी धीमी

कभी मूसलाधार

बेपरवाह हम और बारिश !

पानी से भरी सड़क पर

छप-छपाक कर चलना

छींटे उछालना

तन-मन भीग-भीग जाना

चप्पल पानी में बहाना

कभी भागना-दौड़ना

कभी रुककर

पेड़ों से झरती बूँदों को

अंजुरी में सम्हालना

बरसती बूंदों से

सिहरती पत्तियों को

सहलाना

चीड़-देवदार की

नुकीली पत्तियों से

झरती एक-एक बूँद को

निरखना

उतराईयों पर

तेज़ दौड़ते पानी से

रेस लगाना।

और फिर

रुकती-रुकती बरसात,

बादलों के बीच से

रास्ता खोजता सूरज

रंगों की आभा बिखेरता

मानों प्रकृति

नये कलेवर में

अवतरित होती है

एक नवीन आभा लिए।

हरे-भरे वृक्ष

मानों नहा-धोकर

नये कपड़े पहन कर

धूप सेंकने आ खड़े हों।

स्मृतियों के खण्डहर

कुछ

अनचाही स्मृतियाँ

कब खंडहर बन जाती हैं

पता ही नहीं लग पाता

और हम

उन्हीं खंडहरों पर

साल-दर-साल

लीपा-पोती

करते रहते हैं

अन्दर-ही-अन्दर

दीमक पालते रहते हैं

देखने में लगती हैं

ऊँची मीनारें

किन्तु एक हाथ से

ढह जाती हैं।

प्रसन्न रहते हैं हम

इन खंडहरों के बारे में

बात करते हुए

सुनहरे अतीत के साक्षी

और इस अतीत को लेकर

हम इतने

भ्रमित रहते हैं

कि वर्तमान की

रोशनियों को

नकार बैठते हैं।

 

 

 

किसने मेरी तक़दीर लिखी

न जाने कौन था वह

जिसने मेरी तक़दीर लिखी

ढूँढ रही हूँ उसे

जिसने मेरी तस्वीर बनाई।

मिले कभी तो  पूछूँगी,

किसी जल्दी में थे क्या

आधा-अधूरा लिखा पन्ना

छोड़कर चल दिये।

आधे काॅलम मुझे खाली मिले।

अब बताओ भला

ऐसे कैसे जीऊँ भरपूर ज़िन्दगी।

मिलो तो कभी,

अपनी तक़दीर देना मेरे हाथ

फिर बताऊँगी तुम्हें

कैसे बीतती है ऐसे

आधी-अधूरी ज़िन्दगी।

छोटी-छोटी बातों पर

छोटी-छोटी बातों पर

अक्सर यूँ ही

उदासी घिर आती है

जीवन में।

तब मन करता है

कोई सहला दे सर

आँखों में छिपे आँसू पी ले

एक मुस्कुराहट दे जाये।

पर सच में

जीवन में

कहाँ होता है ऐसा।

-

आ गया है

अपने-आपको

आप ही सम्हालना।

यह वह मेरा सूरज तो नहीं

यह वह सूरज तो नहीं

जिसकी मैं बात किया करती थी।

यह वह सूरज भी नहीं

जो अक्सर

मेरे सपनों में आया करता था।

यह वह सूरज तो नहीं

जो मुझे राह दिखाया करता था।

यह वह सूरज भी नहीं

जो मेरी राहें आलोकित

किया करता था।

यह वह सूरज भी नहीं

जिस पर मैं विश्वास किया करती थी।

यह वह सूरज भी नहीं

जो मुझे रोज़ मिला करता था।

 

गली-गली ढूंढ रही

मेरा सूरज कहां गया।

यह सूरज तो राहों से भटक गया।

अंधेरे-रोशनी की

पहचान भूल गया।

जहां रोशनी चाहिए

वहां अंधेरा पसरता है,

किसी के घर में

झांके बिना ही निकल जाता है,

और कहीं आग बरसाता है।

मेरा सूरज तो ऐसा नासमझ नहीं था।

 

कल मिला बड़े दिनों के बाद।

पूछा मैंने कहाँ गये,

ऐसे कैसे हो गये।

 

सूरज मुस्काया,

समय के साथ चलना सीख।

नज़र बदल, सड़क बदल

कुछ कांटे बिछा, कुछ ज़हर उगल।

न अंधेरे से डर

न रोशनी की चाहत रख

जो मिले, उसे निगल

आगे बढ़, सबकी खींच।

न आस रख, न विश्वास रख

न जी का जंजाल रख।

सबको तोड़, अपने को जोड़

बस ऐसा जीवन जी

इशारा कर दिया मैंने

शेष अपनी बुद्धि लगा

और मस्त जीवन जी।

 

प्रेम की एक नवीन धारा

हां, प्रेम सच्चा रहे,

 

हां , प्रेम सच्चा रहे,

हर मुस्कुराहट में

हर आहट में

रूदन में या स्मित में

प्रेम की धारा बही

मन की शुष्क भूमि पर

प्रेम-रस की

एक नवीन छाया पड़ी।

पल-पल मानांे बोलता है

हर पल नवरस घोलता है

एक संगीत गूंजता है

हास की वाणी बोलता है

दूरियां सिमटने लगीं

आहटें मिटने लगीं

सबका मन

प्रेम की बोली बोलता है

दिन-रात का भान न रहा

दिन में भी

चंदा चांदनी बिखेरने लगा

टिमटिमाने लगे तारे

रवि रात में भी घाम देने लगा

इन पलों का एहसास

शब्दातीत होने लगा

बस इतना ही

हां, प्रेम सच्चा रहे

हां, प्रेम सच्चा लगे

 

अन्तर्मन का पंछी

अन्तर्मन का पंछी

कब क्या बोले,

क्या जानें।

कुछ टुक-टुक

कुछ कुट-कुट

कुछ उलझे, कुछ सुलझे

किससे क्या कह डाले

कब क्या सुन ले

आैर किससे क्या कह डाले

क्या जानें।

यूं तो पोथी-पोथी पढ़ता

आैर बात नासमझों-सी करता।

कब किसका चुग्गा

चुग डाले

आैर कब

माणिक –मोती ठुकराकर चल दे

क्या जाने।

भावों की लेखी

लिख डाले

किस भाषा में

किन शब्दों में

न हम जानें।   

 

 

शांति और सन्नाटा

हम अक्सर सन्नाटे और

शांति को एक समझ बैठते हैं।

 

शांति भीतर होती है,

और सन्नाटा !!

 

बाहर का सन्नाटा

जब भीतर पसरता है

बाहर से भीतर तक घेरता है,

तब तोड़ता है।

अन्तर्मन झिंझोड़ता है।

 

सन्नाटे में अक्सर

कुछ अशांत ध्वनियां होती हैं।

 

हवाएं चीरती हैं

पत्ते खड़खड़ाते हैं,

चिलचिलाती धूप में

बेवजह सनसनाती आवाज़ें,

लम्बी सूनी सड़कें

डराती हैं,

आंधियां अक्सर भीतर तक

झकझोरती हैं,

बड़ी दूर से आती हैं

कुत्ते की रोने की आवाज़ें,

बिल्लियां रिरियाती है।

पक्षियों की सहज बोली

चीख-सी लगने लगती है,

चेहरे बदनुमा दिखने लगते हैं।

 

हम वजह-बेवजह

अन्दर ही अन्दर घुटते हैं,

सोच-समझ

कुंद होने लगती है,

तब शांति की तलाश में निकलते हैं

किन्तु भीतर का सन्नाटा छोड़ता नहीं।

 

कोई न मिले

तो अपने-आपको

अपने साथ ही बांटिये,

अपने-आप से मिलिए,

लड़िए, झगड़िए, रूठिए,मनाईये।

कुछ खट्टा-मीठा, मिर्चीनुमा बनाईये

खाईए, और सन्नाटे को तोड़ डालिए।

मन सूना लगता है

दुनिया चाहे सम्मान दे, पर अपने मन को परखिए।

क्या पाया, क्या खाया, क्या गंवाया, जांच कीजिए।

कीर्ति पताकाएँ लहराती हैं, महिमा-गान हो रहा,

फिर भी मन सूना लगता है, इसका कारण जांचिए।

हालात कहाँ बदलते हैं

वर्ष बदलते हैं

दिन-रात बदलते हैं

पर हालात कहाँ बदलते हैं।

 

नया साल आ जाने पर

लगता था

कुछ तो बदलेगा,

यह जानते हुए भी

कि ऐसा सोचना ही

निरर्थक है।

आस-पास

जैसे सब ठहर गया हो।

मन की ऋतुएँ

नहीं बदलतीं अब,

शीत, बसन्त, ग्रीष्म हो

या  हो पतझड़

कोई नयी आस लेकर

नहीं आते अब,

किसी परिवर्तन का

एहसास नहीं कराते अब।

बन्द खिड़कियों से

न मदमाती हवाएँ

रिझाती हैं

और न रिमझिम बरसात

मन को लुभाती है।

 

एक ख़ौफ़ में जीते हैं

डरे-डरे से।

नये-नये नाम

फिर से डराने लगे हैं

हम अन्दर ही अन्दर

घबराने लगे हैं।

द्वार फिर बन्द होने लगे हैं

बाहर निकलने से डरने लगे हैं,

आशाओं-आकांक्षाओं के दम

घुटने लगे हैं

हम पिंजरों के जीव

बनने लगे हैं।

 

 

 

अब मौन को मुखर कीजिए

बस अब बहुत हो चुका,

अब मौन को मुखर कीजिए

कुछ तो बोलिए

न मुंह बन्द कीजिए।

संकेतों की भाषा

कोई समझता नहीं

बोलकर ही भाव दीजिए।

खामोशियां घुटती हैं कहीं

ज़रा ज़ोर से बोलकर

आवाज़ दीजिए।

जो मन न भाए

उसका

खुलकर विरोध कीजिए।

यह सोचकर

कि बुरा लगेगा किसी को

अपना मन मत उदास कीजिए।

बुरे को बुरा कहकर

स्पष्ट भाव दीजिए,

और यही सुनने की

हिम्मत भी

अपने अन्दर पैदा कीजिए।

चुप्पी को सब समझते हैं कमज़ोरी

चिल्लाकर जवाब दीजिए।

कलम की नोक तीखी कीजिए

शब्दों को आवाज़ कीजिए।

मौन को मुखर कीजिए।

 

पीछे मुड़कर क्या देखना

साल बीता] काल बीता

ऐसे ही कुछ हाल बीता।

कभी खुश हुए

कभी उदास रहे,

कभी काम किया

कभी आराम किया।

जीवन का आनन्द लिया।

कोई मिला,

कोई बिछड़ गया।

कोई आया] कोई चला गया।

कुछ मित्र बने] कुछ रूठ गये।

सम्बन्धों को आयाम मिला

कभी अलगाव का भाव मिला।

जीवन में भटकल-अटकन,

पिछले को रोते रहते

नया कुछ मिला नहीं।

जब नया मिला तो

पिछला तो  छूटा नहीं।

हार-जीत भी चली रही

दिल की बात दिल में रही।

नफरत दिल में पाले

प्रेम-प्यार की बात करें ।

लिखने को मन करता है

बात मुहब्बत की

पर बुन आती हैं नाराज़गियां।

बिन जाने हम बोल रहे।

देख रहे हम

हेर-फ़ेर कर वही कहानी।

गिन-गिनकर दिन बीते

बनते जाते साल]

पीछे मुड़कर क्या देखना

विधि चलती अपनी चाल।

 

 

बड़े मसले हैं रोटी के

बड़े मसले हैं रोटी के।

रोटी बनाने

और खाने से पहले

एक लम्बी प्रक्रिया से

गुज़रना पड़ता है

हम महिलाओं को।

इस जग में

कौन समझा है

हमारा दर्द।

बस थाली में रोटी देखते ही

टूट पड़ते हैं।

मिट्टी से लेकर

रसोई तक पहुंचते-पहुंचते

किसे कितना दर्द होता है

और कितना आनन्द मिलता है

कौन समझ पाता है।

जब बच्चा

रोटी का पहला कौर खाता है

तब मां का आनन्द

कौन समझ पाता है।

जब किसी की आंखों में

तृप्ति दिखती है

तब रोटी बनाने की

मानों कीमत मिल जाती है।

लेकिन बस

इतना ही समझ नहीं आया

मुझे आज तक

कि रोटी गोल ही क्यों।

ठीक है

दुनिया गोल, धरती गोल

सूरज-चंदा गोल,

नज़रें गोल,

जीवन का पहिया गोल

पता नहीं और कितने गोल।

तो भले-मानुष

रोटी चपटी ही खा लो।

वही स्वाद मिलेगा।

   

 

हमारी अपनी आवाज़ें  गायब हो गई हैं

आवाज़ें निरन्तर गूंजती हैं

मेरे आस-पास।

कभी धीमी, कभी तेज़।

कुछ सुनाई देती हैं

कुछ नहीं।

हमारे कान फ़टते हैं

दुनिया भर की

आवाज़ें सुनते-सुनते।

इस शोर में

इतना खो गये हैं हम

कि अपनी ही आवाज़ से

कतराने में लगे हैं

अपनी ही आवाज़ को

भुलाने में लगे हैं।

हमारे भीतर का सच

झूठ बनने लगा है

दूर से आती आवाज़ों से

मन भरमाने में लगे हैं।

छोटी-छोटी आवाज़ों से

मिलने वाला आनन्द

कहीं खो गया है

हम बस यूं ही

चिल्लाने में लगे हैं।

गुमराह करती

आवाजों के पीछे

हम भागने में लगे हैं।

ऊँची आवाज़ें

हमारी नियामक हो गई हैं

हमारी अपनी आवाज़ें

कहीं गायब हो गई हैं।

  

ईर्ष्‍या होती है चाँद से

ईर्ष्‍या होती है चाँद से 

जब देखो

मनचाहा घूमता है

इधर-उधर डोलता

घर-घर झांकता

साथ चाँदनी लिए।

चांँदनी को देखो

निरखती है दूर गगन से

धरा तक आते-आते

बिखर-बिखर जाती है।

हाथ बढ़ाकर

थामना चाहती हूँ

चाँदनी या चाँद को।

दोनों ही चंचल

अपना रूप बदल

इधर-उधर हो जाते हैं

झुरमुट में उलझे

झांक-झांक मुस्काते हैं

मुझको पास बुलाते हैं

और फिर

यहीं-कहीं छिप जाते हैं।

   

 

 

नेह के मोती

अपने मन से,

अपने भाव से,

अपने वचनों से,

मज़बूत बांधी थी डोरी,

पिरोये थे

नेह के मोती,

रिश्तों की आस,

भावों का सागर,

अथाह विश्वास।

-

किन्तु

समय की धार

बहुत तीखी होती है।

-

अकेले

मेरे हाथ में नहीं थी

यह डोर।

हाथों-हाथ

घिसती रही

रगड़ खाती रही

गांठें पड़ती रहीं

और बिखरते रहे मोती।

और जब माला टूटती है

मोती बिखरते हैं

तो कुछ मोती तो

खो ही जाते हैं

कितना भी सम्हाल लें

बस यादें रह जाती हैं।

 

 

 

मन चंचल करती तन्हाईयां

जीवन की धार में

कुछ चमकते पल हैं

कुछ झिलमिलाती रोशनियां

कुछ अवलम्ब हैं

तो कुछ

एकाकीपन की झलकियां

स्मृतियों को संजोये

मन लेता अंगड़ाईयां

मन को विह्वल करती

बहती हैं पुरवाईयां

कुछ ठिठके-ठिठके से पल हैं

कुछ मन चंचल करती तन्हाईयां

 

 

 

प्रकृति का सौन्दर्य निरख

सांसें

जब रुकती हैं,

मन भीगता है,

कहीं दर्द होता है,

अकेलापन सालता है।

तब प्रकृति

अपने अनुपम रूप में

बुलाती है

समझाती है,

खिलते हैं फूल,

तितलियां पंख फैलाती हैं,

चिड़िया चहकती है,

डालियां

झुक-झुक मन मदमाती हैं।

सब कहती हैं

समय बदलता है।

धूप है तो बरसात भी।

आंधी है तो पतझड़ भी।

सूखा है तो ताल भी।

मन मत हो उदास

प्रकृति का सौन्दर्य निरख।

आनन्द में रह।

 

अजीब होती हैं  ये हवाएँ भी

अजीब होती हैं

ये हवाएँ भी।

बहुत रुख बदलती हैं

ये हवाएँ भी।

फूलों से गुज़रती

मदमाती हैं

ये हवाएँ भी।

बादलों संग आती हैं

तो झरती-झरती-सी लगती हैं

ये हवाएँ भी।

मन उदास हो तो

सर्द-सर्द लगती हैं

ये हवाएँ भी।

और जब मन में झड़ी हो

तो भिगो-भिगो जाती हैं

ये हवाएँ भी।

क्रोध में बहुत बिखरती हैं

ये हवाएँ भी।

सागर में उठते बवंडर-सा

भीतर ही भीतर

सब तहस-नहस कर जाती हैं

ये हवाएं भी।

इन हवाओं से बचकर रहना

बहुत आशिकाना होती हैं

ये हवाएँ भी।