वो हमारे बाप बन गये
छोटा-सा बच्चा कब बाप बन गया।
बहू आई तब बच्ची-सी।
प्यारी-दुलारी-न्यारी पोती आई
जीवन में बहार छाई।
बेटे ने घर-बार सम्हाला,
डाँट-डपटकर हमें समझाते।
चिन्ता में हर दम घुलते रहते।
हारी-बीमारी में
भागे-भागे चिन्ता करते।
ये खालो, वो खा लो
मीठा छीनकर ले जाते।
आराम करो, आराम करो
हरदम बस ये ही कहते रहते।
हर सुविधा देकर भी
चैन से न बैठ पाते।
हम हो गये बच्चों से
वो हमारे बाप बन गये।
हम धीरे-धीरे मरने लगते हैं We just Start Dying Slowly
जब हम अपने मन से
जीना छोड़ देते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हम
अपने मन की सुनना
बन्द कर देते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हम अपने नासूर
कुरेद कर
दूसरों के जख़्म भरने लगते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हम अपने आंसुओं को
आंखों में सोखकर
दूसरों की मुस्कुराहट पर
खिलखिलाकर हँसते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हम अपने सपनों को
भ्रम समझकर
दूसरों के सपने संजोने लगते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हम अपने सत्कर्मों को भूलकर
दूसरों के अपराधों का
गुणगान करने लगते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हम सवालों से घिरे
उत्तर देने से बचने लगते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हम सच्चाईयों से
टकराने की हिम्मत खो बैठते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
जब हम
औरों के झूठ का पुलिंदा लिए
उसे सत्य बनाने के लिए
घूमने लगते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हम कांटों में
सुगन्ध ढूंढने लगते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हम
दुनियादारी की कोशिश में
परायों को अपना समझने लगते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हम
विरोध की ताकत खो बैठते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हम औरों के अपराध के लिए
अपने-आपको दोषी मानने लगते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हमारी आँखें
दूसरों की आँखों से
देखने लगती हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हमारे कान
केवल वही सुनने लगते हैं
जो तुम सुनाना चाहते हो
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हम केवल
इसलिए खुश रहने लगते हैं
कि कोई रुष्ट न हो जाये
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हमारी तर्कशक्ति
क्षीण होने लगती है
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हमारी विरोध की क्षमता
मरने लगती है
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हम
नीम-करेले के रस को
शहद समझकर पीने लगते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हम
सपने देखने से डरने लगते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हम
अकारण ही
हँसते- हँसते रोने लगते हैं
और हँसते-हँसते रोने
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
हम बस यूँ ही
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
और कितना सच कहूं
सच कहूं तो
अब सच बोलने का मन नहीं करता।
सच कहूं तो
अब मन किसी काम में नहीं लगता।
सच कहूं तो
अब कुछ भी यहां अच्छा नहीं लगता।
सच कहूं तो
अब कुछ लिखने में मन नहीं लगता।
सच कहूं तो
अब विश्वास लायक कोई नहीं दिखता।
सच कहूं तो
अब रफ्फू सीने का मन नहीं करता।
सच कहूं तो
अब रिश्ते सुलझाने का मन नहीं करता।
सच कहूं तो
अब अपनों से ही बात करने का मन नहीं करता।
सच कहूं तो
अब हंसने या रोने का भी मन नहीं करता।
सच कहूं तो
अब सपनों में जीने का मन नहीं करता।
सच कहूं तो
अब तुमसे भी बात करने का मन नहीं करता।
लिख नहीं पाती
मौसम बदल रहा है
बाहर का
या मन का
समझ नहीं पाती अक्सर।
हवाएं
तेज़ चल रही हैं
धूल उड़ रही है,
भावों पर गर्द छा रही है,
डालियां
बहकती हैं
और पत्तों से रुष्ट
झाड़ देती हैं उन्हें।
खिली धूप में भी
अंधकार का एहसास होता है,
बिन बादल भी
छा जाती हैं घटाएं।
लगता है
घेर रही हैं मुझे,
तब लिख नहीं पाती।
सिंदूरी शाम
अक्सर मुझे लगता है
दिन भर
आकाश में घूमता-घूमता
सूरज भी
थक जाता है
और संध्या होते ही
बेरंग-सा होने लगता है
हमारी ही तरह।
ठिठके-से कदम
धीमी चाल
अपने गंतव्य की ओर बढ़ता।
जैसे हम
थके-से
द्वार खटखटाते हैं
और परिवार को देखकर
हमारे क्लांत चेहरे पर
मुस्कान छा जाती है
दिनभर की थकान
उड़नछू हो जाती है
कुछ वैसे ही सूरज
जब बढ़ता है
अस्ताचल की ओर
गगन
चाँद-तारों संग
बिखेरने लगता है
इतने रंग
कि सांझ सराबोर हो जाती है
रंगों से।
और
बेरंग-सा सूरज
अनायास झूम उठता है
उस सिंदूरी शाम में
जाते-जाते हमें भी रंगीनियों से
भर जाता है।
वहीं के वहीं खड़े हैं
क्यों पूछते हो
कहाँ आ गये।
अक्सर लगता है
जहाँ से चले थे
वहीं के वहीं खड़े हैं
कदम ठहरे से
भाव सहमे से
प्रश्न झुंझलाते से
उत्तर नाकाम।
न लहरों में
लहरें
न हवाओं में
सिरहन
न बातों में
मिठास
न अपनों से
अपनापन
भावहीन-सा मन
क्यों पूछते हो
कहाँ आ गये
एक अर्थहीन
ठहराव में जी रहे हैं
क्यों पूछते हो
कहाँ आ गये।
अक्सर लगता है
जहाँ से चले थे
वहीं के वहीं खड़े हैं।
ब्लॉक
कब सालों-साल बीत गये
पता ही नहीं लगा
जीवन बदल गया
दुनिया बदल गई
और मैं
वहीं की वहीं खड़ी
तुम्हारी यादों में।
प्रतिदिन
एक पत्र लिखती
और नष्ट कर देती।
अक्सर सोचा करती थी
जब मिलोगे
तो यह कहूँगी
वह कहूँगी।
किन्तु समय के साथ
पत्र यादों में रहने लगे
स्मृतियाँ धुँधलाने लगी
और चेहरा मिटने लगा।
पर उस दिन फ़ेसबुक पर
अनायास तुम्हारा चेहरा
दमक उठा
और मैं
एकाएक
लौट गई सालों पीछे
तुम्हारे साथ।
खोला तुम्हारा खाता
और चलाने लगी अंगुलियाँ
भावों का बांध
बिखरने लगा
अंगुलियाँ कंपकंपान लगीं
क्या कर रही हूँ मैं।
इतने सालों बाद
क्या लिखूँ अब
ब्लॉक का बटन दबा दिया।
पशु-पक्षियों का आयात-निर्यात
अभयारण्य
बड़े होते जा रहे हैं
हमारे घर छोटे।
हथियार
ज़्यादा होते जा रहे हैं
प्रेम-व्यवहार ओछे।
पढ़ा करते थे
हम पुस्तकों में
प्रकृति में पूरक हैं
सभी जीव-जन्तु
परस्पर।
कौन किसका भक्षक
कौन किसका रक्षक
तय था सब
पहले से ही।
किन्तु
हम मानव हैं
अपने में उत्कृष्ट,
प्रकृति-संचालन को भी
ले लिया अपने हाथ में।
पहले वन काट-काटकर
घर बना लिए
अब घरों में
वन बना रहे हैं
पौधे तो
रोपित कर ही रहे थे
अब पशु-पक्षियों के
आयात-निर्यात करने का
समय आ गया है।
यादें: शिमला की बारिश की
न जाने वे कैसे लोग हैं
जो बारिश की
सौंधी खुशबू से
मदहोश हो जाते हैं
प्रेम-प्यार के
किस्सों में खो जाते हैं।
विरह और श्रृंगार की
बातों में रो जाते हैं।
सर्द सांसों से
खुशियों में
आंसुओं के
बीज बो जाते हैं।
और कितने तो
भीग जाने के डर से,
घरों में छुपकर सो जाते हैं।
यह भी कोई ज़िन्दगी है भला !
.
कभी तेज़, कभी धीमी
कभी मूसलाधार
बेपरवाह हम और बारिश !
पानी से भरी सड़क पर
छप-छपाक कर चलना
छींटे उछालना
तन-मन भीग-भीग जाना
चप्पल पानी में बहाना
कभी भागना-दौड़ना
कभी रुककर
पेड़ों से झरती बूँदों को
अंजुरी में सम्हालना
बरसती बूंदों से
सिहरती पत्तियों को
सहलाना
चीड़-देवदार की
नुकीली पत्तियों से
झरती एक-एक बूँद को
निरखना
उतराईयों पर
तेज़ दौड़ते पानी से
रेस लगाना।
और फिर
रुकती-रुकती बरसात,
बादलों के बीच से
रास्ता खोजता सूरज
रंगों की आभा बिखेरता
मानों प्रकृति
नये कलेवर में
अवतरित होती है
एक नवीन आभा लिए।
हरे-भरे वृक्ष
मानों नहा-धोकर
नये कपड़े पहन कर
धूप सेंकने आ खड़े हों।
हम वहीं के वहीं ठहरे रह गये
जीवन में क्या बनोगे
क्या बनना चाहते हो
अक्सर पूछे जाते थे
ऐसे सवाल।
अपने आस-पास
देखते हुए
अथवा बड़ों की सलाह से
मिले थे कुछ बनने के आधार।
रट गईं थी हमें
बताईं गईं कुछ राहें और काम,
और जब भी कोई पूछता था
हम ले देते थे
कोई भी एक-दो नाम।
किन्तु मन तब डरने लगा
जब हमारे सामने
दी जाने लगीं ढेरों मिसालें
अनगिनत उदाहरण।
किसी की जीवनियाँ,
किसी की आहुति,
किसी की सेवा
और किसी का समर्पण।
कोई सच्चा, कोई त्यागी,
कोई महापुरुष।
इन सबको समझने
और आत्मसात करने में
जीवन चला गया
और हम
वहीं के वहीं ठहरे रह गये।
किसने मेरी तक़दीर लिखी
न जाने कौन था वह
जिसने मेरी तक़दीर लिखी
ढूँढ रही हूँ उसे
जिसने मेरी तस्वीर बनाई।
मिले कभी तो पूछूँगी,
किसी जल्दी में थे क्या
आधा-अधूरा लिखा पन्ना
छोड़कर चल दिये।
आधे काॅलम मुझे खाली मिले।
अब बताओ भला
ऐसे कैसे जीऊँ भरपूर ज़िन्दगी।
मिलो तो कभी,
अपनी तक़दीर देना मेरे हाथ
फिर बताऊँगी तुम्हें
कैसे बीतती है ऐसे
आधी-अधूरी ज़िन्दगी।
छोटी-छोटी बातों पर
छोटी-छोटी बातों पर
अक्सर यूँ ही
उदासी घिर आती है
जीवन में।
तब मन करता है
कोई सहला दे सर
आँखों में छिपे आँसू पी ले
एक मुस्कुराहट दे जाये।
पर सच में
जीवन में
कहाँ होता है ऐसा।
-
आ गया है
अपने-आपको
आप ही सम्हालना।
मनोरम प्रकृति का यह रूप
कितना मनोरम दिखता है
प्रकृति का यह रूप।
मानों मेरे मन के
सारे भाव चुराकर
पसर गई है
यहां अनेक रूपों में।
कभी हृदय
पाषाण-सा हो जाता है
कभी भाव
तरल-तरल बहकते हैं।
लहरें मानों
कसमसाती हैं
बहकती हैं
किनारों से टकराती हैं
और लौटकर
मानों
मन मसोसकर रह जाती हैं।
जल अपनी तरलता से
प्रयासरत रहता है
धीरे-धीरे
पाषाणों को आकार देने के लिए।
हरी दूब की कोमलता में
पाषाण कटु भावों-से
नेह-से पिघलने लगते हैं
एक छाया मानों सान्त्वना
के भाव देती है
और मन हर्षित हो उठता है।
प्रेम की एक नवीन धारा
हां, प्रेम सच्चा रहे,
हां , प्रेम सच्चा रहे,
हर मुस्कुराहट में
हर आहट में
रूदन में या स्मित में
प्रेम की धारा बही
मन की शुष्क भूमि पर
प्रेम-रस की
एक नवीन छाया पड़ी।
पल-पल मानांे बोलता है
हर पल नवरस घोलता है
एक संगीत गूंजता है
हास की वाणी बोलता है
दूरियां सिमटने लगीं
आहटें मिटने लगीं
सबका मन
प्रेम की बोली बोलता है
दिन-रात का भान न रहा
दिन में भी
चंदा चांदनी बिखेरने लगा
टिमटिमाने लगे तारे
रवि रात में भी घाम देने लगा
इन पलों का एहसास
शब्दातीत होने लगा
बस इतना ही
हां, प्रेम सच्चा रहे
हां, प्रेम सच्चा लगे
अन्तर्मन का पंछी
अन्तर्मन का पंछी
कब क्या बोले,
क्या जानें।
कुछ टुक-टुक
कुछ कुट-कुट
कुछ उलझे, कुछ सुलझे
किससे क्या कह डाले
कब क्या सुन ले
आैर किससे क्या कह डाले
क्या जानें।
यूं तो पोथी-पोथी पढ़ता
आैर बात नासमझों-सी करता।
कब किसका चुग्गा
चुग डाले
आैर कब
माणिक –मोती ठुकराकर चल दे
क्या जाने।
भावों की लेखी
लिख डाले
किस भाषा में
किन शब्दों में
न हम जानें।
दीप प्रज्वलित कर न पाई
मैं चाहकर भी
दीप प्रज्वलित कर न पाई।
घृत भी था, दीप भी था,
पर भाव ला न पाई,
मैं चाहकर भी
दीप प्रज्वलित कर न पाई।
लौ भीतर कौंधती थी,
सोचती रह गई,
समय कब बीत गया
जान ही न पाई।
मैं चाहकर भी
दीप प्रज्वलित कर न पाई।
मित्रों ने गीत गाये,
झूम-झूम नाचे गाये,
कहीं से आरती की धुन,
कहीं से ढोल की थाप
बुला रही थी मुझे
दुख मना रहे हैं या खुशियां
समझ न पाई।
कुछ अफ़वाहें
हवा में प्रदूषण फैला रही थी।
समस्या से जूझ रहे इंसानों को छोड़
धर्म-जाति का विष फैला रही थीं।
लोग सड़कों पर उतर आये,
कुछ पटाखे फोड़े,
पटाखों की रोशनाई
दिल दहला रहीं थी,
आवाज़ें कान फोड़ती थी।
अंधेरी रात में
दूर तक दीप जगमगाये,
पुलिस के सायरन की आवाज़ें
कान चीरती थीं।
दीप हाथ में था
ज्योति थी,
हाथ में जलती शलाका
कब अंगुलियों को छू गई
देख ही न पाई।
सीत्कार कर मैं पीछे हटी,
हाथ से दीप छूटा
भीतर कहीं कुछ और टूटा।
क्या कहूं , कैसे कहूं।
पर ध्यान कहीं और था।
घृत भी था, दीप भी था,
पर भाव ला न पाई,
मैं चाहकर भी
दीप प्रज्वलित कर न पाई।
मन सूना लगता है
दुनिया चाहे सम्मान दे, पर अपने मन को परखिए।
क्या पाया, क्या खाया, क्या गंवाया, जांच कीजिए।
कीर्ति पताकाएँ लहराती हैं, महिमा-गान हो रहा,
फिर भी मन सूना लगता है, इसका कारण जांचिए।
हालात कहाँ बदलते हैं
वर्ष बदलते हैं
दिन-रात बदलते हैं
पर हालात कहाँ बदलते हैं।
नया साल आ जाने पर
लगता था
कुछ तो बदलेगा,
यह जानते हुए भी
कि ऐसा सोचना ही
निरर्थक है।
आस-पास
जैसे सब ठहर गया हो।
मन की ऋतुएँ
नहीं बदलतीं अब,
शीत, बसन्त, ग्रीष्म हो
या हो पतझड़
कोई नयी आस लेकर
नहीं आते अब,
किसी परिवर्तन का
एहसास नहीं कराते अब।
बन्द खिड़कियों से
न मदमाती हवाएँ
रिझाती हैं
और न रिमझिम बरसात
मन को लुभाती है।
एक ख़ौफ़ में जीते हैं
डरे-डरे से।
नये-नये नाम
फिर से डराने लगे हैं
हम अन्दर ही अन्दर
घबराने लगे हैं।
द्वार फिर बन्द होने लगे हैं
बाहर निकलने से डरने लगे हैं,
आशाओं-आकांक्षाओं के दम
घुटने लगे हैं
हम पिंजरों के जीव
बनने लगे हैं।
लक्ष्य संधान
पीछे लौटना तो नहीं चाहती
किन्तु कुछ लकीरें
रास्ता रोकती हैं।
कुछ हाथों में
कुछ कदमों के नीचे,
कुछ मेरे शुभचिन्तकों की
उकेरी हुई मेरी राहों में
मेरे मन-मस्तिष्क में
आन्दोलन करती हुईं।
हम ज्यों-ज्यों
बड़े होने लगते हैं
अच्छी लगती हैं
लक्ष्य की लकीरें बढ़ती हुईं।
किन्तु ऐसा क्यों
कि ज्यों-ज्यों लक्ष्यों के
दायरे बढ़ने लगे
राहें सिकुड़ने लगीं,
मंज़िल बंटने लगी
और लकीरें और गहराने लगीं।
फिर पड़ताल करने निकल पड़ती हूँ
आदत से मज़बूर
देखने की कोशिश करती हूँ पलटकर
जो लक्ष्य मैंने चुने थे
वे कहाँ पड़े हैं
जो अपेक्षाएं मुझसे की गईं थीं
मैं कहाँ तक पार पा सकी उनसे।
हम जीवन में
एक लक्ष्य चुनते हैं
किन्तु अपेक्षाओं की
दीवारें बन जाती हैं
और हम खड़े देखते रह जाते हैं।
-
कुछ लक्ष्य बड़े गहरे चलते हैं जीवन में।
-
अर्जुन ने एक लक्ष्य संधान किया था
चिड़िया की आंख का
और दूसरा किया था
मछली की आंख का
और इन लक्ष्यों से कितने लक्ष्य निकले
जो तीर की तरह
बिखर गये कुरूक्षेत्र में
रक्त-रंजित।
.
क्या हमारे, सबके जीवन में
ऐसा ही होता है?
पीछे मुड़कर क्या देखना
साल बीता] काल बीता
ऐसे ही कुछ हाल बीता।
कभी खुश हुए
कभी उदास रहे,
कभी काम किया
कभी आराम किया।
जीवन का आनन्द लिया।
कोई मिला,
कोई बिछड़ गया।
कोई आया] कोई चला गया।
कुछ मित्र बने] कुछ रूठ गये।
सम्बन्धों को आयाम मिला
कभी अलगाव का भाव मिला।
जीवन में भटकल-अटकन,
पिछले को रोते रहते
नया कुछ मिला नहीं।
जब नया मिला तो
पिछला तो छूटा नहीं।
हार-जीत भी चली रही
दिल की बात दिल में रही।
नफरत दिल में पाले
प्रेम-प्यार की बात करें ।
लिखने को मन करता है
बात मुहब्बत की
पर बुन आती हैं नाराज़गियां।
बिन जाने हम बोल रहे।
देख रहे हम
हेर-फ़ेर कर वही कहानी।
गिन-गिनकर दिन बीते
बनते जाते साल]
पीछे मुड़कर क्या देखना
विधि चलती अपनी चाल।
बड़े मसले हैं रोटी के
बड़े मसले हैं रोटी के।
रोटी बनाने
और खाने से पहले
एक लम्बी प्रक्रिया से
गुज़रना पड़ता है
हम महिलाओं को।
इस जग में
कौन समझा है
हमारा दर्द।
बस थाली में रोटी देखते ही
टूट पड़ते हैं।
मिट्टी से लेकर
रसोई तक पहुंचते-पहुंचते
किसे कितना दर्द होता है
और कितना आनन्द मिलता है
कौन समझ पाता है।
जब बच्चा
रोटी का पहला कौर खाता है
तब मां का आनन्द
कौन समझ पाता है।
जब किसी की आंखों में
तृप्ति दिखती है
तब रोटी बनाने की
मानों कीमत मिल जाती है।
लेकिन बस
इतना ही समझ नहीं आया
मुझे आज तक
कि रोटी गोल ही क्यों।
ठीक है
दुनिया गोल, धरती गोल
सूरज-चंदा गोल,
नज़रें गोल,
जीवन का पहिया गोल
पता नहीं और कितने गोल।
तो भले-मानुष
रोटी चपटी ही खा लो।
वही स्वाद मिलेगा।
सच बोलने लग जाती हूँ
मन में
न जाने क्यों
कभी-कभी
बुरे ख़याल आने लगते हैं
और मैं
सच बोलने लग जाती हूँ।
मेरी कही बातों पर
ध्यान मत देना।
एक प्रलाप समझकर
झटक देना।
मूर्ख
बहुत देखे होंगे दुनिया में,
किन्तु
मुझसे बड़ा मूर्ख कोई नहीं
यह समझ लेना।
मैं तो ऐसी हूँ
जैसी हूँ, वैसी हूँ।
बस
तुम अपना ध्यान रखना।
सच को झूठ
और झूठ को सच
सिद्ध करने की
हिम्मत रखना।
फिर भी
मन में मेरे
बुरे-बुरे ख़याल आते हैं
बस
अपना ध्यान रखना।।।
ईर्ष्या होती है चाँद से
ईर्ष्या होती है चाँद से
जब देखो
मनचाहा घूमता है
इधर-उधर डोलता
घर-घर झांकता
साथ चाँदनी लिए।
चांँदनी को देखो
निरखती है दूर गगन से
धरा तक आते-आते
बिखर-बिखर जाती है।
हाथ बढ़ाकर
थामना चाहती हूँ
चाँदनी या चाँद को।
दोनों ही चंचल
अपना रूप बदल
इधर-उधर हो जाते हैं
झुरमुट में उलझे
झांक-झांक मुस्काते हैं
मुझको पास बुलाते हैं
और फिर
यहीं-कहीं छिप जाते हैं।