भोर की आस
चिड़िया आई
कहती है
भोर हुई,
उठ जा, भोर हुई।
आ मेरे संग
चल नये तराने गा,
रंगों से
मन में रंगीनीयाँ ला।
चल
एक उड़ान भर
मन में उमंग ला।
धरा पर पाँव रख।
गगन की आस रख।
जीवन में भाव रख।
रात की बात कर
भोर की आस रख।
चल मेरे संग उड़ान भर।
जीवन की नवीन शुरुआत
जीवन के कुछ पल
अनमोल हुआ करते हैं,
बड़ी मुश्किल से
हाथ आते हैं
जब हम
सारे दायित्वों को
लांघकर
केवल अपने लिए
जीने की कोशिश करते हैं।
नहीं अच्छा लगता
किसी का हस्तक्षेप
किसी का अपनापन
किसी की निकटता
न करे कोई
हमारी वृद्धावस्था की चिन्ता
हमारी हँसी-ठिठोली में
न बने बाधा कोई
न सोचे कोई हमारे लिए
गर्मी-सर्दी या रोग,
अब लेने दो हमें
टेढ़ेपन का आनन्द
ये जीवन की
एक नवीन शुरुआत है।
हमारा छोटा-सा प्रयास
ये न समझना
कि पीठ दिखाकर जा रहे हैं हम
तुमसे डरकर भाग रहे हैं हम
चेहरे छुपाकर जा रहे हैं हम।
क्या करोगे चेहरे देखकर,
बस हमारा भाव देखो
हमारा छोटा-सा प्रयास देखो
साथ-साथ बढ़ते कदमों का
अंदाज़ देखो।
तुम कुछ भी अर्थ निकालते रहो
कितने भी अवरोध बनाते रहो
ठान लिया है
जीवन-पथ पर यूँ ही
आगे बढ़ना है
दुःख-सुख में
साथ निभाना है।
बस
एक प्रतीक-मात्र है
तुम्हें समझाने का।
. प्रकृति कभी अपना स्वभाव नहीं छोड़ती
बड़ी देर से
समझ पाते हैं हम
प्रकृति
कभी अपना स्वभाव नहीं छोड़ती।
कहते हैं
शेर भूख मर जाता है
किन्तु घास नहीं खाता
और एक बार मानव-गंध लग जाये
तो कुछ और नहीं खाता।
तभी तो
हमारे बड़े-बुज़ुर्ग कह गये हैं
दोस्ती बराबर वालों से करो
गधा भी जब
दुलत्ती मारता है
तो बड़े-बड़ों के होश
गुम हो जाते हैं
और तुम हो कि
जंगल के राजा से
तकरार करने बैठे हो।
क्या यह दृष्टि-भ्रम है
क्या यह दृष्टि-भ्रम है ?
मुझे नहीं दिखती
गहन जलप्लावन में
सिर पर टोकरी रखे
बच्चे के साथ गहरे पानी में
कोई माँ, डूबती-सी।
-
नहीं अनुभव होता मुझे
किसी किशन कन्हैया
नंद बाबा
यशोदा मैया या देवकी का।
-
शायद बहुत भावशून्य हूँ मैं,
आप कह सकते हैं।
-
मुझे दिखती हैं
अव्यवस्थाएँ
महलों में बनती योजनाएँ
दूरबीन से देखते
डूबता-तिरता आम आदमी
बोतलों में बन्द पानी
विमान से बनाते बांध
आकाश से गिरता भोजन।
-
कुछ दिन में आप ही
निकल जायेगा जल
सम्हल जायेगा आम आदमी
अगले वर्ष की प्रतीक्षा में।
-
लेकिन बस इतना ध्यान रहे
विभीषिका नाम, स्थान,
समय और काल नहीं देखती।
झोंपड़िया टूटती हैं
तो महल भी बिखर जाते हैं।
वास्तविकता और कल्पना
सच कहा है किसी ने
कलाकार की तूलिका
जब आकार देती है
मन से कुछ भाव देती है
तब मूर्तियाँ बोलती हैं
बात करती हैं।
हमें कभी
कलाकार नहीं बताता
अपने मन की बात
कला स्वयँ बोलती है
कहानी बताती है
बात कहती है।
.
निरखती हूँ
कलाकार की इस
अद्भुत कला को,
सुनना चाहती हूँ
इसके मन की बात
प्रयास करती हूँ
मूर्ति की भावानाओं को
समझने का।
आपको
कुछ रुष्ट-सी नहीं लगी
मानों कह रही
हे पुरुष !
अब तो मुझे आधुनिक बना
अपने आनन्द के लिए
यूँ न सँवार-सजा
मैं चाहती हूँ
अपने इस रूप को त्यागना।
घड़े हटा, घर में नल लगवा।
वैसे आधुनिकाओं की
वेशभूषा पर
करते रहते हो टीका-टिप्पणियाँ,
मेरी देह पर भी
कुछ अच्छे वस्त्र सजाते
सुन्दर वस्त्र पहनाते।
देह प्रदर्शनीय होती हैं
क्या ऐसी
कामकाजी घरेलू स्त्रियाँ।
गांव की गोरी
क्या ऐसे जाती है
पनघट जल भरन को ?
हे आदमी !
वास्तविकता और अपनी कल्पना में
कुछ तो तालमेल बना।
समझ नहीं पाती
क्यों ऐसी दोगली सोच है तुम्हारी !!
धुआँ- धुआँ ज़िन्दगी
कुछ चेतावनियों के साथ
बेहिचक बिकता है
कोई भी, कहीं भी
पी ले
सुट्टा ले
हवा ले और हवाओं में ज़हर घोले
पूर्ण स्वतन्त्र हैं हम।
शानौ-शौकत का प्रतीक बन जाता है।
कहीं गम भुलाने के लिए
तो कहीं सर-दर्द मिटाने के लिए
कभी दोस्ती के लिए
तो कभी
देखकर मन ललचाता है
कुछ आधुनिक दिखने की चाहत
खींच ले जाती है
एकान्त में, छिपकर
फिर दिखाकर
और बाद में अकड़कर।
और जब तक समझ आता है
तब तक
धुआँ- धुआँ हो चुकी होती है ज़िन्दगी।
ज़िन्दगी के गीत
ज़िन्दगी के कदमों की तरह
बड़ा कठिन होता है
सितार के तारों को साधना।
बड़ा कठिन होता है
इनका पेंच बांधना।
यूँ तो मोतियों के सहारे
बांधी जाती हैं तारें
किन्तु ज़रा-सा
ढिलाई या कसाव
नहीं सह पातीं
जैसे प्यार में ज़िन्दगी।
मंद्र, मध्य, तार सप्तक की तरह
अलग-अलग भावों में
बहती है ज़िन्दगी।
तबले की थाप के बिना
नहीं सजते सितार के सुर
वैसे ही अपनों के साथ
उलझती है जिन्दगी
कभी भागती, कभी रुकती
कभी तानें छेड़ती,
राग गाती,
झाले-सी दनादन बजती,
लड़ती-झगड़ती
मन को आनन्द देती है ज़िन्दगी।
ताकता रह जाता है मानव
लहरें उठ रहीं
आकाश को छूने चलीं
बादल झुक रहे
लहरों को दुलारते
धरा को पुकारते।
गगन और धरा पर
जल और अनिल
उलझ पड़े
बदरी रूठ-रूठ उमड़ रही
रंग बदरंग हो रहे
कालिमा घिर रही
बवंडर उठ रहे
ताकता रह जाता है मानव।
जीवन की डोर पकड़
पुष्प-पल्लवविहीन वृक्षों का
अपना ही
एक सौन्दर्य होता है।
कुछ बिखरी
कुछ उलझी-सुलझी
किसी छत्रछाया-सी
बिना झुके,
मानों गगन को थामे
क्षितिज से रंगीनियाँ
सहेजकर छानतीं,
भोर की मुस्कान बाँटतीं
मानों कह रही
राही बढ़े चल
कुछ पल विश्राम कर
न डर, रह निडर
जीवन की डोर पकड़
राहों पर बढ़ता चल।
जीना चाहती हूँ
पीछे मुड़कर
देखना तो नहीं चाहती
जीना चाहती हूँ
बस अपने वर्तमान में।
संजोना चाहती हूँ
अपनी चाहतें
अपने-आपमें।
किन्तु कहाँ छूटती है
परछाईयाँ, यादें और बातें।
उलझ जाती हूँ
स्मृतियों के जंजाल में।
बढ़ते कदम
रुकने लगते हैं
आँखें नम होने लगती हैं
यादों का घेरा
चक्रव्यूह बनने लगता है।
पर जानती हूँ
कुछ नया पाने के लिए
कुछ पुराना छोड़ना पड़ता है,
अपनी ही पुरानी तस्वीर को
दिल से उतारना पड़ता है,
लिखे पन्नों को फ़ाड़ना पड़़ता है,
उपलब्धियों के लिए ही नहीं
नाकामियों के लिए भी
तैयार रहना पड़ता है।
ईश्वर के रूप में चिकित्सक
कहते हैं
जीवन में निरोगी काया से
बड़ा कोई सुख नहीं
और रोग से बड़ा
कोई दुख नहीं।
जीवन का भी तो
कोई भरोसा नहीं
आज है कल नहीं।
किन्तु
जब जीवन है
तब रोग और मौत
दोनों के ही दुख से
कहाँ बच पाया है कोई।
किन्तु
कहते हैं
ईश्वर के रूप में
चिकित्सक आते हैं
भाग्य-लेख तो वे भी
नहीं मिटा पाते हैं
किन्तु
अपने जीवन को
दांव पर लगाकर
हमें जीने की आस,
एक विश्वास
और साहस का
डोज़ दे जाते हैं
और हम
यूँ ही मुस्कुरा जाते हैं।
जीवन चलता तोल-मोल से
सड़कों पर बाज़ार बिछा है
रोज़ सजाते, रोज़ हटाते।
आज हरी हैं
कल बासी हो जायेंगी।
आस लिए बैठे रहते हैं
देखें कब तक बिक जायेंगी
ग्राहक आते-जाते
कभी ख़रीदें, कभी सुनाते।
धरा से उगती
धरा पर सजती
धरा पर बिकती।
धूप-छांव में ढलता जीवन
सांझ-सवेरे कब हो जाती।
तोल-मोल से काम चले
और जीवन चलता तोल-मोल से
यूँ ही दिन ढलते रहते हैं
जीवन का आनन्द ले
प्रकृति ने पुकारा मुझे,
खुली हवाओं ने
दिया सहारा मुझे,
चल बाहर आ
दिल बहला
न डर
जीवन का आनन्द ले
सुख के कुछ पल जी ले।
वृक्षों की लहराती लताएँ
मन बहलाती हैं
हरीतिमा मन के भावों को
सहला-सहला जाती है।
मन यूँ ही भावनाओं के
झूले झूलता है
कभी हँसता, कभी गुनगुनाता है।
गुनगुनी धूप
माथ सहला जाती है
एक मीठी खुमारी के साथ
मानों जीवन को गतिमान कर जाती है।
अपने केश संवरवा लेना
बंसी बजाना ठीक था
रास रचाना ठीक था
गैया चराना ठीक था
माखन खाना,
ग्वाल-बाल संग
वन-वन जाना ठीक था।
यशोदा मैया
गूँथती थी केश मेरे
उसको सताना ठीक था।
कुरुक्षेत्र की यादें
अब तक मन को
मथती हैं
बड़े-बड़े महारथियों की
कथाएँ अब तक
मन में सजती हैं।
पर राधे !
अब मुझको यह भी करना होगा!!
अब मुझको
राजनीति छोड़
तुम्हारी लटों में उलझना होगा!!!
न न न, मैं नहीं अब आने वाला
तेरी उलझी लटें
मैं न सुलझाने वाला।
और काम भी करने हैं मुझको
चक्र चलाना, शंख बजाना,
मथुरा, गोकुल, द्वापर, हस्तिनापुर
कुरुक्षेत्र
न जाने कहाँ-कहाँ मुझको है जाना।
मेरे जाने के बाद
न जाने कितने नये-नये युग आये हैं
जिनका उलटा बजता ढोल
मुझे सताये है।
इन सबको भी ज़रा देख-परख लूँ
और समझ लूँ,
कैसे-कैसे इनको है निपटाना।
फिर अपने घर लौटूँगा
थक गया हूँ
अवतार ले-लेकर
अब मुझको अपने असली रूप में है आना
तुम्हें एक लिंक देता हूँ
पार्लर से किसी को बुलवा लेना
अपने केश संवरवा लेना।
वास्तविकता से परे
किसका संधान तू करने चली
फूलों से तेरी कमान सजी
पर्वतों पर तू दूर खड़ी
अकेली ही अकेली
किस युद्ध में तू तनी
कौन-सा अभ्यास है
क्या यह प्रयास है
इस तरह तू क्यों है सजी
वास्तविकता से परे
तेरी यह रूप सज्जा
पल्लू उड़ रहा, सम्हाल
बाजूबंद, करघनी, गजरा
मांगटीका लगाकर यूँ कैसे खड़ी
धीरज से कमान तान
आगे-पीछे देख-परख
सम्हल कर रख कदम
आगे खाई है सामने पहाड़
अब गिरी, अब गिरी, तब गिरी
या तो वेश बदल या लौट चल।
जिन्दगी संवारती हूं
भीतर ही भीतर
न जाने कितने रंग
बिखरे पड़े हैं,
कितना अधूरापन
खंगालता है मन,
कितनी कहानियां
कही-अनकही रह जाती हैं,
कितने रंग बदरंग हो जाते हैं।
आज उतारती हूं
सबको
तूलिका से।
अपना मन भरमाती हूं,
दबी-घुटी कामनाओं को
रंग देती हूं,
भावों को पटल पर
निखारती हूं,
तूलिका से जिन्दगी संवारती हूं।
डर-डर कर जी रहे हैं
खुले आसमान के नीचे
विघ्न-बाधाओं को लांघकर
समुद्र मापकर
आकाश और धरा को नापकर,
हवाओं को बांधकर,
मानव समझ बैठा था
स्वयं को विधाता, सर्वशक्तिमान।
और आज
अपनी ही करनी से,
अपनी ही कथनी से,
अपने ही कर्मों से,
अपने लिए, आप ही,
तैयार कर लिया है कारागार।
सीमाओं में रहना सीख रहा है,
अपनापन अपनाना सीख रहा है।
उच्च विचार पता नहीं,
पर सादा जीवन जी रहा है।
इच्छाओं पर प्रतिबन्ध लगा है।
आशाओं पर तुषारापात हुआ है।
चाबी अपने पास है
पर खोलने से डरा हुआ है।
दूरियों में जी रहा है
नज़दीकियों से भाग रहा है।
हर पल मर-मर कर जी रहा है,
हर पल डर-डर कर जी रहा है।
इरादे नेक हों तो
सिर उठाकर जीने का
मज़ा ही कुछ और है।
बाधाओं को तोड़कर
राहें बनाने का
मज़ा ही कुछ और है।
इरादे नेक हों तो
बड़े-बड़े पर्वत ढह जाते हैं
इस धरा और पाषाणों को भेदकर
गगन को देखने का
मज़ा ही कुछ और है।
बहुत कुछ सिखा जाता है यह अंकुरण
सुविधाओं में तो
सभी पनप लेते हैं
अपनी हिम्मत से
अपनी राहें बनाने मज़ा ही कुछ और है।
अपनी कहानियाँ आप रचते हैं
पुस्तकों में लिखते-लिखते
भाव साकार होने लगे।
शब्द आकार लेने लगे।
मन के भाव नर्तन करने लगे।
आशाओं के अश्व
दौड़ने लगे।
सही-गलत परखने लगे।
कल्पना की आकृतियां
सजीव होने लगीं,
लेखन से विलग
अपनी बात कहने लगीं।
पूछने लगीं, जांचने लगीं,
सत्य-असत्य परखने लगीं।
अंधेरे से रोशनियों में
चलने लगीं।
हाथ थाम आगे बढ़ने लगीं।
चल, इस ठहरी, सहमी
दुनिया से अलग चलते हैं
बनी-बनाई, अजनबी
कहानियों से बाहर निकलते हैं,
अपनी कहानियाँ आप रचते हैं।
अपनी राहों पर अपने हक से चला मैं
रोशनी से
बात करने चला मैं।
सुबह-सवेरे
अपने से चला मैं।
उगते सूरज को
नमन करने चला मैं।
न बदला सूरज
न बदली उसकी आब,
तो अपनी राहों पर
यूं ही बढ़ता चला मैं।
उम्र यूं ही बीती जाती
सोचते-सोचते
आगे बढ़ता चला मैं।
धूल-धूसरित राहें
न रोकें मुझे
हाथ में लाठी लिए
मनमस्त चला मैं।
साथ नहीं मांगता
हाथ नहीं मांगता
अपने दम पर
आज भी चला मैं।
वृक्ष भी बढ़ रहे,
शाखाएं झुक रहीं
छांव बांटतीं
मेरा साथ दे रहीं।
तभी तो
अपनी राहों पर
अपने हक से चला मैं।
देखो किसके कितने ठाठ
एक-दो-तीन-चार
पांच-छः-सात-आठ
देखो किसके कितने ठाठ
इसको रोटी, उसको दूध
किसी को पानी
किसी को भूख
किसकी कितनी हिम्मत
देखें आज
देखो तुम सब
हमरे ठाठ
किके्रट टीम तो बनी नहीं
किस खेल में होते आठ
अपनी टीम बनाएंगे
मौज खूब उड़ायेंगे
सस्ते में सब निपटायेंगे
पढ़ना-लिखना हुआ है मंहगा
बना ले घर में ही टीम
पढ़ोगे-लिखोगे होंगे खराब
खेलोगे-कूदोगे बनोगे नवाब
जीवन संवर-संवर जाता है
बादलों की ओट से
निरखता है सूरज।
बदलियों को
रँगों से भरता
ताक-झाँक
करता है सूरज।
सूरज से रँग बरसें
हाथों में थामकर
जीवन को रंगीन बनायें।
लहरें रंग-बिरँगी
मानों कोई स्वर-लहरी
जीवन-संगीत संवार लें।
जब मिलकर हाथ बंधते हैं
तब आकाश
हाथों में ठहर-ठहर जाता है।
अंधेरे से निपटते हैं
जीवन संवर-संवर जाता है।