चित्राधारित कथा
आज सबके पास घड़े और बाल्टियां तो थीं किन्तु खाली थीं। धूप और सूखी धरती पर चलते-चलते उनके पांव थक गये थे। गांव में एक ही कुंआ था आम लोगों के लिए और गर्मी आते ही पानी की कमी होने लगती थी और दूसरे कुंए और नहर के पानी पर उनका अधिकार नहीं था। आज कुंए से पानी खिंचा ही नहीं। सभी महिलाएं उदास थीं। कैसे खाना बनायेंगे, बच्चों को क्या खिलाएंगे।

उन्होंने मिलकर तय किया कि वे सरपंच से जाकर मिलेंगी और जब तक उन्हें नहर के पानी और दूसरे कुंए से पानी नहीं लेने दिया जाता वे घर ही नही जायेंगी।

गांव की सभी महिलाएं बच्चों के साथ जाकर सरपंच के घर के सामने बैठ गईं। पंचों ने और गांव के लोगों ने उन्हें समझाने का बहुत प्रयास किया किन्तु वे मानीं। वे सब बोलीं कि जब उनके पास कुछ खाने-पीने के लिए ही नहीं है तो वे घर जाकर क्या करेंगीं। जब तक उनको नहर से या दूसरे कुंएं से पानी नहीं लेने दिया जायेगा, वे घर नहीं जायेंगी।

यह समाचार धीरे-धीरे सारे गांव में फैल गया और अन्य घरों की महिलाएं और बच्चे भी वहां आने लगे। भीड़ बढ़ती देख सरपंच ने पुलिस बुलाने का निर्णय लिया। किन्तु इससे पहले कि वे पुलिस बुलाते, सरपंच की पत्नी और बच्चे उनके सामने खड़े हुए। पत्नी ने कहा कि आप सोचिए कि अगर हमें एक दिन भी पानी मिले तो हम क्या करेंगे। और ये लोग तो हर रोज़ कितनी दूर से पानी लाते हैं। मैंने इन महिलाओं और बच्चों को दिन में इतनी धूप और कड़ी गर्मी में दो-दो, तीन-तीन चक्कर लगाते देखा है। कैसे कर लेती हैं ये इतनी मेहनत। फिर घर जाकर घर के सारे काम करती हैं। आप कुछ तो इन पर दया कीजिए और अपना कुंआ इनके लिए खोल दीजिए।

सरपंच की मानों आंखें खुल गईं , इस तरह तो उन्होंने कभी सोचा ही नहीं था। उन्होंने तत्काल अपने कुंए से सारे गांव को पानी भरने की अनुमति दे दी और साथ ही पंचों के साथ मिलकर निर्णय लिया कि वे अपने गांव की पानी की समस्या को सदा के लिए हल करने के लिए नीतियां बनायेंगें।

आप अकेली हैं

आप अकेली हैं?

सहयात्री का यह अटपटा-सा प्रश्न नीता को चकित कर गया।

दो सीट के कूपे में बैठी नीना ने सामने बैठे सहयात्री को फिर भी कुछ मुस्कुराकर और कुछ व्यंग्य से उत्तर दिया, जी हां, क्यों क्या हुआ, आपको कोई परेशानी ?

और नीना का कटु  प्रतिप्रश्न, आपके साथ कौन है?

लगभग 45 वर्ष का वह सहयात्री अभी भी नीता को अलग-सी दृष्टि से देख रहा था, बोला, नहीं, नहीं, मैं तो इसलिए पूछ रहा था कि आप महिला होकर अकेली इतनी दूर जा रही हैं, किसी को साथ लेकर चलना चाहिए आपको। फिर आपकी आयु और आजकल वैसे भी माहौल कहां ठीक है, 22 घंटे की यात्रा। कोई परेशानी हो तो आपको मुश्किल हो सकती है।

अब नीना का गुस्सा सदा की तरह सातवें आसमान पर था।

एकदम कटु स्वर में बोली, 22 घंटे की यात्रा तो आपके साथ है तो आपका कहने का अभिप्राय यह कि मुझे आपसे डरना चाहिए क्यों?

इससे पहले कि वह सहयात्री कुछ उत्तर दे, नीना वास्तव में फ़ट पड़ी, क्यों यही कह रहे हैं आप कि मुझे आपसे डरना चाहिए।

आप तो एकदम ही नाराज़ हो गईं, मैं कोई ऐसा-वैसा नहीं हूॅं, मैं तो आपकी ही चिन्ता कर रहा था। महिलाओं की सुरक्षा की चिन्ता ही करते हैं हम तो। आप तो पता नहीं क्या गलत समझ बैठीं।

आप कौन लगते हैं मेरे जो मेरी चिन्ता कर रहे हैं?

वैसे आप भी तो अकेले ही हैं, आपके साथ कौन है? नीना ने पूछा।

नहीं, मुझे क्या परेशानी अकेले में। मैं तो अक्सर ही अकेले आता-जाता हूॅं,

अच्छा, जो परेशानी मुझे अकेली को हो सकती है, जिसके लिए आप मेरी इतनी चिन्ता कर रहे हैं क्या आपको नहीं हो सकती?

मुझे क्या परेशानी होगी मैडम। मैं तो आदमी हूॅं, परेशानी तो औरतों को होती है और उस अजनबी ने दांत निपोर दिये।

अब नीना असली मूड में आई और बड़ी सुन्दर मुस्कान से बोली, क्यों, आपको हार्ट अटैक, पैरालिसीस, ब्रेन हैमरेज, कहीं ठोकर, फ्ैक्चर नहीं हो सकता। और क्या आपके साथ कोई दुव्र्यवहार नहीं कर सकता।

और सर, मैं तो आपके कुछ किये बिना भी चिल्ला दूंगी कि यह व्यक्ति मेरे साथ दुव्र्यवहार कर रहा है , आपको अभी गाड़ी से नीचे उतार देंगे धक्के मारकर, किन्तु मैं आपके साथ कुछ भी करुॅं आपकी बात का तो कोई विश्वास ही नहीं करेगा, बोलिए करुॅं कुछ?

इतने में वहां से टी टी निकला।

वह आदमी चिल्लाया, सुनिए, किसी दूसरे कूपे में कोई सीट खाली है क्या, मेरी बदल सकते हैं क्या?

टी टी, चकित-सा दोनों को देख रहा था।

इस बीच नीना बोली, महाशय, हम औरतों की आप लोग चिन्ता करें तो हम ज़्यादा सुरक्षित और निश्चिंत रहती हैं, आप बस अपना देखिए।

बदलवा लीजिए सीट या गाड़ी ही बदल लीजिए। कहीं कुछ हो जाये आपके साथ।

  

 

अपना-अपना सूरज

द्वार पर पैर रखते ही निशि को माँ की नाराज़गी का सामना करना पड़ा, ‘‘अगर कल से इस तरह घर लौटने में आधी रात की न तो आगे से घर से लौटना बन्द कर दूँगी। रोज़ समझाती हूँ पर तेरे कान में बात नहीं पड़ती लड़की।’’

निशि डरते-डरते माँ के निकट आ खड़ी हुई, ‘‘लेकिन मम्मी मैं तो आपसे पूछकर ही गई थी यहीं पड़ोस में नीरा के घर। दूर थोड़े ही जाती हूँ और अभी तो अंधेरा भी नहीं हुआ। देखो धूप........।’’

माँ ने झल्लाकर बात काटी, ‘‘हाँ, अंधेरा तो तब होगा जब किसी दिन नाक कटवा लायेगी हमारी।’’

‘‘इसकी ज़बान ज़्यादा चलने लगी है मम्मी’’, अन्दर से नितिन की आवाज़ आई।

‘‘तू कौन होता है बीच में बोलने वाला?’’निशि को छोटे भाई का हस्तक्षेप अच्छा नहीं लगा।

नितिन उठकर बाहर आया और निशि की चोटी खींचता हुआ बोला, ‘‘मम्मी, इसे समझाओ मैं कौन होता हूँ बोलने वाला।’’

बाल खिंचने से हुई निशि की पीड़ा माँ के तीखे स्वर में दबकर रह गई, ‘‘क्यों भाई नहीं है तेरा। यह तेरी चिन्ता नहीं करेगा तो कौन करेगा? कल को दुनियादारी तो इसे ही निभानी है। कौन सम्हालेगा अगर कोई ऊँच-नीच हो गई तो?’’

माँ की शह पर नितिन का यह रोब निशि के असहनीय था, किन्तु इससे पूर्व कि वह कुछ बोले, माँ नितिन की ओर उन्मुख हुई, ‘‘और तू यहाँ इस समय घर में बैठा क्या कर रहा ह? सूरज अभी ढला नहीं कि तू घर में मुँह छुपाकर बैठ जाता है। जा, बाहर जाकर दोस्तों के साथ खेल। शाम को ज़रा घूमा-फिराकर सेहत बनती है।’’

और निशि! अवाक् खड़ी थी। पूछना चाहती थी कि जब उसकी आधी रात हो जाती है, तब भाई का सूरज भी नहीं ढलता। ऐसा कैसे सम्भव है? क्या सबका सूरज अलग-अलग होता है? उसका और नितिन का सूरज एक साथ क्यों नहीं डूबता?

क्यों? क्यों?

वह घूम रही है, पूछ रही है, चिल्ला रही है, ‘‘बताओ, मेरा सूरज अलग क्यों डूबता है? क्यों डूबता है मेरा सूरज इतनी जल्दी? क्यों डूब जाता है मेरा सूरज धूप रहते?

 क्यों? क्यों?

पर कोई उत्तर नहीं देता। सब सुनते हैं और हँसते हैं। धरती-आकाश, पेड़-पौधे, चाँद-तारे, फूल-पत्थर, सब हँसते हैं,

बौरा गई है लड़की, इतना भी नहीं जानती कि लड़के और लड़कियों का सूरज अलग-अलग होता है।

पर निशि सच में ही बौरा गई है। हाथ फैलाए सूरज की ओर दौड़ रही है और कहती है मैं अपना सूरज डूबने नहीं दूँगी।

  

बरसात की एक शाम

बरसात की तो हर शाम ही सुहानी होती है किन्तु कोई-कोई यादों में बसी रह जाती है। और शिमला की बरसात का तो कहना ही क्या, वो कहते हैं न बिन बादल बरसात।

शिमला में सांय माल रोड पर घूमने का हर स्थानीय निवासी को चस्का लगा हुआ होता था। आफ़िस से निकलकर घर जाने से पहले माल रोड के चार-पांच चक्कर तो लगा ही लेते थे। स्कैंडल प्वाईंट से शेरे पंजाब तक। भारी भीड़ किन्तु मज़ाल है कोई किसी से टकरा जाये अथवा कोई यह कहे कि देखो कैसे घूम रहे हैं। और चलते-चलते बालज़ीस का कोण या गरमागरम गुलाबजामुन खाने का आनन्द ही अलग होता था।

उस दिन संध्या समय अचानक मूसलाधार बरसात होने लगी किन्तु हम ठहरे देसी, तेज़ बरसात में बिना छाता ही चलती रहीं हम पांच सखियाँ। सर से पैर तक भीगती हुईं। सीधे बालज़ीस के आगे जाकर रुकीं और उसे फ़टाफ़ट पांच प्लेट गरम गुलाबजामुन का आदेश दिया। वहाँ पहले से चार लड़के खड़े थे, उन्होंने भी गुलाबजामुन का आर्डर दिया था किन्तु दुकानदार ने हमें पहले दे दिये जिससे वे कुछ नाराज़ तो हुए किन्तु बोले कुछ नहीं। उनके हाथ में भी प्लेटें आ चुकी थीं किन्तु वे हमें ही देखे जा रहे थे। हम पांचों ने आंखों में इशारा किया और एक-एक टुकड़ा खाते ही मुँह बनाया और ज़ोर से बोलीं ‘‘हाय! बिल्कुल ठण्डे !!’’ हमें देखते हुए और हमारी बात सुनकर उनमें से तीन ने पूरा-पूरा गुलाबजामुन ही मुँह में डाल लिया और चिल्लाने लगे अरे, इतना गर्म, मुँह जल गया !! पानी, पानी!! हमारा हँस-हँसकर बुरा हाल।

अनोखा उपहार

जो लोग सेना से किसी भी रूप से आते हैं उनमें व्यायाम का बहुत रोग होता है। राज का भी यही हाल रहा। प्रातः चार बजे पत्नी को आवाज़ लग जाती, चाय बना। वो कितना ही नाराज़ होती पर राज न सुनते। बस चाय पी और एक्सरसाईज़ शुरू। फिर सैर के लिए निकल जाते। कहीं से एक पुरानी साईकिल ले आये, उस पर घूमते। संध्या समय भी यही रहता। सीमा  बहुत चिड़ती कि इन्हें व्यायाम और सैर के अतिरिक्त कुछ सूझता ही नहीं।

समय बीता और ऐसी आदतें धीरे-धीरे कम होने लगीं। साईकिल कहीं कबाड़ में चली गई। बच्चे बड़े हो

गये। मां अक्सर आनन्द ले लेकर बच्चों को पिता के व्यायाम की आदतों के बारे में बताती। उनकी साईकिल के किस्से सुनाती।

घर में सारी सुख-सुविधाएं। बाज़ार के छोटे-छोटे कामों के लिए भी बेटा पैदल न जाने देता, कहता गाड़ी से ही जाओ, अब हमारे पास सुविधा है तो आप पैदल क्यों धक्के खाते हो। पिता के तर्क उसकी समझ में न आते। कभी कहा-सुनी होती कभी कोई किसी की बात मानता, कभी नहीं।

किन्तु राज ने सैर और व्यायाम कभी भी पूरी तरह नहीं छोड़े थे। बच्चों के साथ अक्सर पुराने दिनों को याद करते। राज का जन्मदिन आने वाला था। बच्चे अक्सर अंगूठी, घड़ी अथवा कोई मंहगा सामान उपहार स्वरूप देते थे। राज और सीमा

 दोनों ही उत्सुक थे कि इस बार देखते हैं कि क्या उपहार मिलता है।

प्रातः उठते ही बच्चे पापा मम्मी को बाहर लेकर आये। एक खूबसूरत साईकिल खड़ी थी।

ये किसके लिए?

आपके लिए पापा। आप अपनी साईकिल को कितना याद करते थे, मुझे पता है कि आप आज भी साईकिल चलाना चाहते हैं किन्तु कहने में पता नहीं क्यों संकोच करते थे कि अब उमर हो गई कैसे लूं साईकिल, बच्चे क्या कहेंगे, सच कह रहा हूं न। बेटा लाड़ से बोला। सब हंसने लगे। राज बोले, तो अच्छा ! अब तू मेरा बाप बनेगा? चल फिर साईकिल पर घूम कर आते हैं, तू चला मैं पीछे बैठूंगा।

  

अनुत्तरित प्रश्न
अन्तरा इतनी बड़ी तो हो ही गई थी कि बेटा-बेटी का अर्थ समझने लगी थी। 
परिवार में भाई-बहन के बीच किसी भी प्रकार का कोई भेद-भाव नहीं किया जाता था, 
किन्तु विभाजन की एक महीन-सी रेखा थी जिसे केवल अन्तरा ही अनुभव कर पाती थी, 
किन्तु इस अनुभव को व्यक्त करने के लिए उसके पास शब्द नहीं थे।

इस बात की उसके माता-पिता बहुत चर्चा करते थे, जिसे आप आत्मप्रशंसा कह सकते हैं कि हम तो बेटे-बेटी में कोई फ़र्क नहीं करते। हमारी तो बेटी हमारे लिए बेटे जैसी ही है। हम बेटी को बेटे से कम नहीं मानते। हम तो अपनी बेटी को बेटे से बढ़कर मानते हैं।

अनायास एक दिन अन्तरा पूछ बैठी कि आप बेटे-बेटी में कोई फ़र्क नहीं करते न, दोनों को एक जैसा ही मानते हो न !

उत्तर आया, हां, नहीं करते किन्तु तुम यह क्यों पूछ रही हो?

अन्तरा का प्रश्न था तो आप कभी यह क्यों नहीं कहते कि हमारा बेटा तो हमारे लिए बेटी जैसा ही है, हम बेटे को बेटी से कम नहीं मानते !!!!!

उनके पास तो कोई उत्तर नहीं था, आपके पास है क्या?

  

प्यार का संदेश

कक्षा 4 का विद्यार्थी सहज, छोटा-सा, मात्र 7-8 वर्ष का। स्कूल से अनायास उसके माता-पिता को फोन जाता है, तत्काल स्कूल पहुंचने का। दोनों घबराये कहीं बच्चे के साथ कोई दुर्घटना तो नहीं हो गई।

गेट से ही उन्हें लगा कोई गम्भीर घटना घटी है, प्रधानाचार्या के कार्यालय तक पहुंचते-पहुंचते पता नहीं कितने चेहरे क्या-क्या कह रहे थे। वहीं पर सहज खड़ा था रूंआसा-सा, उसकी दो-तीन अध्यापिकाएं पूरे गुस्से में।

सहज असमंसज-भाव में सबके चेहरे देख रहा था कि वह यहां क्यों खड़ा है और क्या हुआ है। उसे तो यही पता था कि प्रधानाचार्या के कमरे में तो बच्चों को पुरस्कार देने के लिए ही बुलाया जाता है।

“ देखिए , आपके आठ साल के बच्चे के हाल! क्या सिखाते हैं आप अपने बच्चे को। आज ही यह हाल है तो बड़ा होकर क्या करेगा? ऐेसे बच्चों को हम स्कूल में नहीं रख सकते।’’

लेकिन मैडम हुआ क्या’’

“ ये लीजिए, आपके होनहार बेटे ने अपनी क्लास की एक लड़की को ये प्यार का संदेश दिया। पढ़िए आप ही। और पूछिए इससे।’’

माता-पिता के हाथ में अपने बेटे सहज के हाथ की लिखी एक छोट-सी पर्ची थी जिस पर लिखा था ‘‘आई लव यू आभा’’।

‘‘आपने बात की क्या इससे।’’

“ जी, नहीं बात क्या करनी, दिखाई नहीं दे रहा कि आपके बच्चे की कैसी सोच है? “

माता-पिता हतप्रभ। कभी एक-दूसरे का चेहरा देखें तो कभी सहज का, जो उत्सुक-सा सबको देख रहा था।

‘‘पूछना चाहिए था आपको, इतनी-सी बात को इतना बड़ा बना देने से पहले। हम तो डर ही गये थे।’’

‘‘लीजिए, आपके सामने मैं ही पूछती हूं ।’’

‘‘सहज, तुम आभा से प्यार करते हो’’

यैस, मम्मी।

क्यों?

मम्मी, आभा बहुत अच्छी है, हर समय हंसती रहती है, अपना लंच भी मुझे देती है, हम साथ ही बैठते हैं, और आप और मैडम भी तो कहते हैं लव आॅल। आप मुझे कितनी बार कहती हैं लव यू बेटू। पापा भी कहते हैं। मेरी मैडम भी कहती है, आई लव यू आॅल।

स्कूल में और आप भी तो यही कहते हैं सबसे प्यार करो, आप मेरा बैग देखो, मैंने तो बहुत से दोस्तों के लिए भी लिख कर रखा है लव यू।

मम्मी मैंने कुछ गलत कर दिया क्या?

सब निरूत्‍तर थे ।

 

मैं नहीं जानती कि उसके बाद सहज के साथ क्या हुआ, किन्तु इतना जानती हूं कि जब तक कोई नया गाॅसिप नहीं आ गया, दिनों तक स्कूल में इसी घटना की चर्चा रही कि आजकल इतने छोटे बच्चों के ये हाल हैं तो बड़े होकर क्या करेंगे।

कर्तव्य श्री

                                        दृश्य एकः

श्री जी की पत्नी का निधन हो गया। अपने पीछे दो बच्चे छोड़ गई। माता-पिता बूढ़े थे, बच्चे छोटे-छोटे। बूढ़े-बुढ़िया से अपना शरीर तो संभलता न था बच्चे और घर कहां संभाल पाते। और श्री जी अपनी नौकरी देखें, बच्चे संभाले या बूढे़-बुढ़िया की सेवा करें। 

बड़ी समस्या हुई। कभी भूखे पेट सोते, कभी बाहर से गुज़ारा करते। श्री जी से सबकी सहानुभूति थी। कभी सासजी आकर घर संभालती, कभी सालियांजी, कभी भाभियांजी और कभी बहनेंजी। पर आखिर ऐसे कितने दिन चलता। आदमी आप तो कहीं भी मुंह मार ले पर ये बूढ़े-बुढ़िया और बच्चे।

अन्ततः सबने समझाया और श्री जी की भी समझ में आया। रोटी बनाने वाली, बच्चों कोे सम्हालने  वाली, घर की देखभाल करने वाली और बूढ़े-बुढ़िया की देखभाल करने वाली कोई तो होनी ही चाहिए। भला, आदमी के वश का कहां है ये सब। वह नौकरी करे या ये सब देखे। सो मज़बूर होकर महीने भर में ही लानी पड़ी।

                और इस तरह श्री जी की जिन्दगी अपने ढर्रे पर चल निकली।

                                ‘अथ सर्वशक्तिमान पुरुष’

                                        दृश्य दोः

श्रीमती जी के पति का निधन हो गया। अपने पीछे दो बच्चे छोड़ गये। सास-ससुर बूढ़े थे। बच्चे छोटे-छोटे। श्रीमती जी स्वयं अभी बच्चा-सी दिखतीं। दसवीं की नहीं कि माता-पिता पर भारी हो गई। शहर में लड़का मिल गया सरकारी नौकर, घर ठीक-ठाक-सा। बस झटपट शादी कर दी। अब यह पहाड़ टूट पड़ा। कभी दहलीज न लांघी थी, सिर से पल्लू न हटा था। पर अब कमाकर खिलाने वाला कोई न रहा। बूढ़े-बुढ़िया से अपना शरीर तो संभलता न था, करते-कमाते क्या ? भूखांे मरने की नौबत दिखने लगी।

अब नाते-रिश्तेदार भी क्या करें ? सबका अपना-अपना घर, बाल-बच्चे, काम और नौकरियां, आखिर कौन कितने दिन तक साथ देता। सब एक-दूसरे से पहले खिसक जाना चाहते थे। कहीं ये बूढ़े-बुढ़िया, श्रीमतीजी या बच्चे किसी का पल्लू न पकड़ लें।

अन्ततः श्रीमती जी स्वयं उठीं। पल्लू सिर से उतारकर कमर में कसा। पति के कार्यालय जाकर खड़ी हो गईं नौकरी पाने के लिए।

अभी महीना भी न बीता था कि श्रीमतीजी लगी दफ्तर में कलम चलाने। प्रातः पांच बजे उठकर घर संवारतीं, बूढ़े-बुढ़िया की आवश्यकताएं पूरी करती। बच्चों को स्कूल भेजतीं। खाना-वाना बनाकर दस बजे दफ््तर पहुंच जाती, दिन-भर वहां कलम घिसतीं। शाम को बच्चों का पढ़ातीं। घर-बाहर देखतीं, राशन-पानी जुटाती, दुनियादारी निभातीं। खाती-खिलाती औेर सो जातीं।

और इस तरह श्रीमतीजी की जिन्दगी अपने ढर्रे पर चल निकली।

                 ‘बेचारी कमज़ोर  औरत’

   

हास्य बाल कथा गीदड़ और ऊंट की कहानी
अध्यापक ने तीसरी कक्षा के बच्चों को यह बोध कथा सुनाई।

 एक जंगल में गीदड़ और ऊंट रहते थे। एक दिन गीदड़ ने ऊंट  से कहा, नदी पार गन्नों का खेत है, चलो आज रात  वहां गन्ने खाने चलते हैं। ऊंट ने पूछा कि तुम कैसे नदी पार करोगे, तुम्हें तो तैरना नहीं आता। गीदड़ ने कहा कि देखो मैंने तुम्हें गन्ने के खेत के बारे में बताया, तुम मुझे अपनी पीठ पर बैठाकर नदी पार करवा देना। हम अंधेरे में ही चुपचाप गन्ने खाकर आ जायेंगे, खेत का मालिक नहीं जागेगा।

दोनों नदी पारकर खेत में गये और पेटभर कर गन्ने खाये। ऊंट ने कहा चलो वापिस चलते हैं। लेकिन गीदड़ अचानक गर्दन ऊपर उठाकर ‘‘हुआं-हुआं’’ करने लगा। ऊंट ने उसे रोका, कि ऐसा मत करो, खेत का मालिक जाग जायेगा और हमें मारेगा। गीदड़ ने कहा कि खाना खाने के बाद अगर वह ‘‘हुआं-हुआ’’ न करे तो खाना नहीं पचता। और वह और ज़ोर से ‘‘हुंआ-हुंआ’’ करने लगा। खेत का मालिक जाग गया और डंडा लेकर दौड़ा। गीदड़ तो गन्नों में छुप गया और ऊंट को खूब मार पड़ी।

तब वे फिर नदी पार कर लौटने लगे और गीदड़ ऊंट की पीठ पर बैठ गया। गहरी नदी के बीच में पहुंचकर ऊंट डुबकियां लेने लगा। गीदड़ चिल्लाया अरे ऊंट भाई, यह क्या कर रहे हो, मैं डूब जाउंगा। ऊंट ने कहा कि खाना खाने के बाद जब तक मैं पानी में डुबकी नहीं लगा लेता मेरा भोजन नहीं पचता। ऊंट ने एक गहरी डुबकी लगाई और गीदड़ डूब गया।

अब अध्यापक ने बच्चों से पूछा ‘‘ बच्चो, इस कहानी से क्या शिक्षा मिलती है?’’

एक बच्चे ने उठकर कहा ‘‘ इस कहानी से शिक्षा मिलती है कि खाना खाने के बाद ‘‘हुंआ-हुंआ नहीं करना चाहिए।’’

  

 

पता नहीं ज़िन्दगी में क्या बनना है

तुम्हें ज़िन्दगी में कुछ बनना है कि नहीं? अंग्रेज़ी में बस 70 अंक और गणित में 75। अकेले तुम हो जिसके 70 अंक हैं, सब बच्चों के 80 से ज़्यादा हैं।  हिन्दी में 95 आ भी गये तो क्या तीर मार लोगे, शिक्षक महोदय वरूण को सारी कक्षा के सामने डांटते हुए बोले। चपड़ासी भी नहीं बन पाओगे इस तरह तो, आजकल चपड़ासी को भी अच्छी इंग्लिश आनी चाहिए, क्या करोगे ज़िन्दगी में। अपने पापा को बुलाकर लाना कल।

वरूण डरता-डरता घर पहुंचा । मां जानती थी कि आज अर्द्धवार्षिक परीक्षा का रिपोर्ट कार्ड होगा। बच्चे का उतरा चेहरा देखकर कुछ नहीं बोली, बस ,खाना खिलाकर खेलने भेज दिया। फिर बैग से रिपोर्ट कार्ड निकाल कर देखा और दौड़कर बाहर से वरूण को बांह खींचकर ले आई और गुस्से से बोली, रिपोर्ट कार्ड क्यों नहीं दिखाया ?वरूण रोने लगा, लेकिन मां ने पुचकार कर पकड़ लिया, अरे ,मैंने तो शाबाशी देने के लिए बुलाया है। इतने अच्छे अंक आये हैं रोता क्यों है? हिन्दी में 95 । वाह! अंगे्रज़ी में कुछ कम हैं पर कोई बात नहीं, कौन-सा अंगे्रज़ी का टीचर बनना है। और गणित में भी ठीक हैं। पापा भी खुश हो जायेंगे। वरूण बोला किन्तु मां, सर तो कहते हैं 100 आने चाहिए।

100? कोई रूपये हैं कि सौ के सौ आ जायेंगे, तू चिन्ता न कर।

संध्या पापा की आवाज़ सुनकर दरवाजे़ के पीछे छिप-सा गया। लेकिन वरूण हैरान था कि पापा भी खुश हैं। आवाज़ दी, कहां हो वरूण, लो तुम्हारी पसन्द की मिठाई लाया हूं। वरूण फिर भी सहमा-सा था। पापा उसके मुंह में गुलाबजामुन डालते हुए बोले , वाह बेटा अंग्रेज़ी में 70 अंक, मेरे तो सात आते थे, हा हा ।

और वरूण अचम्भित-सा खड़ा था समझ नहीं पा रहा था कि उसके अंक कैसे हैं।

   

खुशियां भरोसे की

‘‘बधाई आपको अनमोल जी। बहुत सुन्दर घर बना लिया आपने’’। बधाईयों का तांता लगा था अनमोल जी के घर में। किन्तु घर के बाहर नेमप्लेट पर बेटे-बहू का नाम था, सो सभी अन्दर-ही-अन्दर फुसफुसा रहे थे।

गृह-प्रवेश की पूजा सम्पन्न हुई और सभी मेहमान भोजनोपरान्त जाने लगे थे। अनमोल जी के घनिष्ठ मित्र रमाकान्त वहीं थे और अवसर ढूंढ रहे थे बात करने का।

एकान्त पाकर तत्काल अनमोल जी को घेर लिया और पूछने लगे, ‘एक बात बताओ अनमोल, ये घर से बाहर बेटे का नाम क्यों? जबकि तुमने अपना और भाभीजी का पीएफ, ग्रेच्युटी का सारा पैसा इस घर पर लगा दिया।’

‘हां, तो ?’

‘लेकिन तुमने अपने बुढ़ापे के बारे में नहीं सोचा।’

‘सोचा, तभी तो लगा दिया। देखो, रमाकान्त, आजकल हम अपनों पर ही ज़रूरत से ज़्यादा शक करके चलने लगे हैं, यही कारण है कि आजकल रिश्तों में बहुत जल्दी दरार आने लगी है। हमने सारी उमर अपनी मर्ज़ी का जिया और किया। मकान मेरे नाम होता और हमारे बीच कभी अनबन हो जाती, तो क्या हम उन्हें घर से निकाल देते। नहीं न। तब भी शायद हम ही घर छोड़कर जाना पसन्द करते क्योंकि अब जीवन उनका है। तो मकान उनके नाम होने से कुछ नहीं बदलेगा रमाकान्त, बस हमारी सोच ही बहुत बदल गई है बच्चों के प्रति।

 अब बेटे-बहू की बारी है। पोते-पोतियां हैं। आज तक वे हमारी मर्ज़ी से रहे, अब हम उनके हिसाब से जीने की कोशिश करेंगे।’

‘लेकिन तुम्हारे बाद भी तो उसी का होता, वसीयत न भी करते तो भी, और करते तो भी।’

‘लेकिन हमने बेटे-बहू पर भरोसा करके जो खुशी उन्हें दी है, वह तुम नहीं समझ पाओगे।’

  

किसका दोष

 ‘‘पता लगा आपको, बेचारे शर्मा जी के साथ तो बहुत बुरा हुआ। मिजेस शर्मा जी का तो रो-रोकर बुरा हाल है।’’

‘‘क्यों, ऐसा क्या हो गया उनके साथ’’ मैंने चौंककर पूछा।

‘‘एक ही तो बेटा था उनका, हाथ से निकल गया’’।

‘‘उनका बेटा तो आस्ट्रेलिया में पढ़ रहा था और सुना है वहीं उसे बहुत अच्छी नौकरी भी मिल गई है। आजकल आया हुआ है।’’

‘‘हां, यही तो। माता-पिता अपनी सारी पूंजी लगाकर बच्चों को दूर देश भेजते हैं कि अच्छे पढ़-लिख जायें और कुछ बनें। किन्तु आजकल के बच्चे, एक बार घर से निकलते हैं तो बस मां-बाप को तो भूल ही जाते हैं । शर्मा जी ने सोचा था कि अपनी पढ़ाई पूरी करके लौटकर अपना पैतृक व्यवसाय सम्हालेगा। उनके बुढ़ापे का सहारा बनेगा।  लेकिन उसने साफ़ कह दिया कि वह तो अब आस्ट्रेलिया में ही सैटल होना चाहता है। उसे वहां बहुत अच्छी नौकरी मिल गई है। और वहीं शादी करेगा। और आप भी मेरे साथ चलिए। लेकिन यह सब कहां मुमकिन है। इतना बड़ा पैतृक घर है, पीढ़ियों से चला आ रहा व्यवसाय है। कैसे जा सकते हैं छोड़कर।’’

‘‘पता नहीं आजकल के बच्चों को क्या होता जा रहा है, मां-बाप की तो ज़रा नहीं सोचते जिन्होंने पाल-पोसकर बड़ा किया, पढ़ाया-लिखाया।’’

मैं असमंसज में थी कि क्या कहूँ।

“लेकिन शर्मा जी की तो हार्डवेयर की दुकान है न। और बेटा तो बहुत सालों से बाहर ही पढ़ रहा था।“

‘‘जी हां, पहले तो उसे दिल्ली पढ़ाया। फिर आगे की पढ़ाई के लिए उसे इतना पैसा खर्च करके आस्ट्रेलिया भेजा। पांच-छः साल हो गये उसे वहां। कम्प्यूटर इंजीनियर है शायद। अब कहता है वहीं रहेगा। आप ही बताईये आजकल के बच्चे मां-बाप के बारे में ज़रा भी नहीं सोचते।‘‘

अब मुझे बोलना ही पड़ा ‘‘हमारी पीढ़ी की आदत ही हो गई है बच्चों को बुरा समझने की। सदैव बच्चे ही गलत नहीं होते। इसमें बेटे की गलती कहां है? गलती तो मां-बाप की है। शुरु से घर से बाहर पढ़ाते रहे। इतने सालों से मेहतन करके वो इंजीनियर बना, अब क्या वो हार्डवेयर का काम कर सकेगा? वो जब भी छुट्टी आता था उसे कभी दुकान पर साथ नहीं बैठाया। अब अचानक वह कैसे बदल जायेगा? जिस राह हम स्वयं ही बच्चों को भेज देते हैं, फिर अचानक लौटने के लिए कहने लगते हैं, कहां मुमकिन होता है उनके लिए। अपनी इतनी पढ़ाई को वो कैसे छोड़कर लौट सकता है? फिर भी हर साल मिलने आता है और माता-पिता से दूर नहीं जा रहा है, उन्हें साथ चलने के लिए कह रहा है। क्यों और कैसे गलत है वो?’’

^^आखिर क्यों हम हर बार बच्चों को ही दोषी मान लेते हैं, क्यों अपने ही दिये गये मार्गदर्शन के बारे में खुलकर विचार नहीं करते?**

हरिराम जी अचानक ही चुप हो गये, कि बात तो किसी हद तक ठीक है। उनके पास मेरी बात का कोई उत्तर नहीं था।

  

बेटी-बेटी अभियान

असमंसज में हूँ। कहानी लिखने लगी हूँ, मन की बात, संस्मरण, मन की भड़ास अथवा आलेख। पता नहीं। आपको जो लगे उस विधा या कैटैगरी में ले लीजिएगा।

कुछ बातें बहुत पुरानी हैं, शायद आठ-दस वर्ष, जब बेटा काॅलेज में पढ़ता था और कुछ नई।

मेरा बेटा ‘‘बेटी-बेटी’’ अभियान के बहुत विरुद्ध है। उसका कहना है कि आप लोग या मीडिया अथवा प्रचार लड़कियों को बहुत सिर चढ़ा रहा है। हम लड़कों ने कोई पाप किया है क्या? वह कहता है कि इसी कारण आजकल की लड़कियों का दिमाग बहुत चढ़ गया है और वे इसका बहुत फ़ायदा उठाती हैं।

मैंने कहा, उनके साथ अन्याय भी तो बहुत होता है।

क्या अन्याय होता है? वह फिर भड़का। वैसे तो हर जगह लड़की कहकर फ़ायदे उठाएंगी, अधिकार मांगेंगी और जब काम की बारी आयेगी तो हम तो लड़कियां हैं। वेतन बराबर चाहिए किन्तु काम हल्का। 

बहुत पुरानी बात है। एक दिन काॅलेज से लौटा और बहुत मज़े लेकर बताने लगा कि आज एक लड़की का स्कूटी का एक्सीडैंट हो गया। उसकी स्कूटी स्किड कर गई। और वो स्कूटी के साथ ही गिरी।

मैंने एकदम गुस्सा किया कि ऐसे कैसे बात कर रहे हो, उसकी तुम लोगों ने मदद नहीं की क्या?

उसका बड़ा स्पष्ट उत्तर था, नहीं की।

क्यों? मेरा पारा और चढ़ा।

हम लड़कियों की मदद नहीं करते।

मेरा पारा और ऊपर, ये क्या बात हुई? लड़कियों की तो ज़्यादा मदद करनी चाहिए।

वाह ! मां, क्यों लड़कियों की ज़्यादा मदद करनी चाहिए। वो तो आज किसी से कमज़ोर नहीं हैं। बराबरी की बात करती हैं, लेकिन बस में लड़कियों के लिए सीट रिज़र्व रहती है।

वो तो बेटा इसलिए कि लड़कियों को कोई परेशान न करे।

हांाााााााााााा, यही तो, इसीलिए तो हम लड़कियों की मदद नहीं करते, हम मदद करने के लिए बढ़ें और वो सोचे या लोग सोचें कि परेशान करने आये हैं।

मां, हम लड़कों को आज की दुनिया में बहुत सम्हलकर रहना पड़ता है। आप क्या जानो।

फिर कहने लगा, पता है आपको मां, पिछले दिनों आंकड़े जारी हुए थे। दहेज और रेप के 70 प्रतिशत मामले झूठे निकले थे।

मैंने कहा किन्तु 30 प्रतिशत तो सही थे, उनका क्या?

उसका सरल-सा उत्तर था, तीस प्रतिशत इसीलिए पिछड़ जाते हैं क्योंकि पुलिस, प्रशासन और न्याय व्यवस्था पर 70 प्रतिशत का दबाव तो रहता ही है न।

फिर वह अपनी बात पर पुनः लौट आया। कहने लगा, हम लड़के लड़कियों से 10 फ़ीट की दूरी बनाकर चलते हैं। आजकल एक फ़ैशन ही हो गया है लड़कों को बुरा बोलने का, केवल बुरा नहीं चरित्रहीन, संस्कारहीन और आपकी हिन्दी में पता नहीं क्या-क्या कहते हैं, वो सब। उसे स्कूटर से उठाते समय गलती से भी हाथ लग जाता तो पता नहीं क्या आरोप लग जाते और आप मुझसे मिलने हवालात में आते।

मैंने समझाने का प्रयास किया कि बेटा ऐसा नहीं होता, तुम्हारी नीयत ठीक होगी तो कोई क्यों तुम पर यूं ही शक करेगा?

लेकिन वो मानने के लिए तैयार नहीं था। उसका कहना था कि आप आजकल का माहौल जानते ही नहीं हो। हम चार लड़के कहीं खड़े हों, यूं ही गप्पबाजी कर रहे हों, बस की प्रतीक्षा कर रहे हों, थोड़ा ऊँचा बोल जायें या हँस रहे हों, तो आस-पास के लोगों के चेहरे देखने वाले होते हैं। विशेषकर आपकी आयु के लोगों के। और कहीं लड़कियाँ हो आस-पास, तब तो मुँह पर अँगुली रखकर खड़े होना पड़ता है। हम लोगों की बातचीत या ऊँचा-ऊँचा हँसने का आजकल एक ही मतलब होता है कि हम लड़कियों को छेड़ रहे हैं। और लोग पीठ पीछे बोल भी देते हैं जो हमें सुनाई देता है कि आजकल तो इन लड़कों की आवारगी बहुत ही बढ़ गई है। पढ़ते-लिखते नहीं हैं, माहौल बिगाड़कर रखा है और न जाने क्या-क्या। और अन्त में मां-बाप और संस्कारों  पर आ जायेंगे।

अब तो वह अपने मन की पूरी भड़ास निकालने पर उतर आया।

स्कूटी तो चलाती हैं पर चलानी आती नहीं।

मैंने पूछा अगर उन्हें चलानी नहीं आती तो चलाती कैसे हैं?

अब मां देखो, गाड़ी चलाना अलग बात है और गाड़ी की जानकारी रखना अलग बात। अब चाबी घुमाकर चला तो लेती हैं लेकिन ज़रा सा रुक जाये तो इधर-उधर देखने लगती हैं मदद के लिए। सड़क के बीच में स्कूटी रुक जाये तो किनारे तो की नहीं जाती उनसे। फिर जितना रांग साईड, गलत कट ये लेती हैं, बस पूछो मत।

परसों की बात तो मैंने आपको बताई ही नहीं।

कोई पंगा तो नहीं कर आया, मैंने एकदम पूछ लिया।

लो बस, लग गया न आरोप मुझ पर बिना सुने ही।

परसों तेरा पेपर था न, छोड़कर तो नहीं आ गया था।

लो फिर आरोप, बात नहीं सुननी पूरी मेरी।

अच्छा-अच्छा अब नहीं बोलूंगी, बता क्या हुआ।

सुबह ट्रैफिक तो होता ही है, आपको पता ही है। मैं मध्य मार्ग पर बिल्कुल अपनी लेन में चल रहा था। पीछे से एक लड़की स्कूटी पर हार्न पर हार्न दिये जा रही थी। कभी बायें आती तो कभी दायें। दो-तीन कार वाले भी बहुत परेशान हो रहे थे। पता नहीं उससे स्कूटी सम्हल नहीं रही थी या वो पास लेना चाह रही थी। उसे मैंने और कार वाले ने रास्ता भी दिया पर आगे भी न निकले। हर बार लगे अब टकराई, अब टकराई। मैंने अपना स्कूटर साईड में लगाकर हाथ जोड़े, माता, तू जा। मेरा पेपर जाता है तो जाये, अगले साल दे लूंगा। तू निकल, पूरा मध्यमार्ग ले ले। पर मुझे परेशान न कर। और मां, जब तक वह  अगली लाईट्स क्रास नहीं कर गई मैं भी खड़ा रहा। माता तू जा, बार-बार मैंने हर स्कूटी वाली लड़की को यही कहा। मेरे पेपर की चिन्ता नहीं, अगले साल फिर आ जायेगा, बस जान नहीं देनी मुझे, हवालात नहीं जाना मुझे।

   

आप स्वयं ही समझदार हैं

निधि के माता-पिता सुनिश्चित थे कि इस बार तो रिश्ता हो ही जायेगा। लड़की कम पढ़ी-लिखी हो, नौकरी न करती हो तो रिश्ता नहीं मिलता। ज़्यादा शिक्षित हो,  अच्छी नौकरी करती हो तो रिश्ता नहीं मिलता।

निधि सोचती कैसी विडम्बना है यह कि उसकी बहन ज़्यादा नहीं पढ़ पाई, नौकरी में उसकी रूचि नहीं थी तो उसकी जहां भी बात चलती थी यही उत्तर मिलता कि आपकी लड़की की योग्यता हमारे लड़के के बराबर नहीं है। अथवा हमें तो नौकरी करने वाली पढ़ी-लिखी लड़की चाहिए। आजकल की लड़कियां तो बहुत आगे चल रही हैं आपको भी अपनी लड़की को कुछ तो आधुनिक बनाना चाहिए था।

और निधि , उच्च शिक्षा प्राप्त, एक कम्पनी में बड़ी अधिकारी। जहां भी बात करते, पहले ही अस्पष्ट मना हो जाती क्योंकि वह उस लड़के से ज़्यादा पढ़ी और उंचे पद पर अवस्थित दिखती।

निधि समझ नहीं पाती कि विवाह एक व्यक्तित्व, स्वाभिमान, आत्मनिर्भरता से भी उपर है क्या। किन्तु माता-पिता तो सामाजिक-पारिवारिक दायित्व में बंधे थे। वैसे भी समाज लड़की की विवाह योग्य आयु ही देखता है उसकी योग्यता, शिक्षा आदि कुछ नहीं देखता और माता-पिता पर तो दबाव रहता ही है।

इस बार जहां बात चल रही थी, परिवार आधुनिक, सुशिक्षित एवं खुले विचारों के लगते थे। बड़ा परिवार था। परिवार में कोई व्यवसाय में था, कोई सरकारी नौकरी में तो कोई किसी अच्छी कम्पनी में। परिवार की लड़कियां भी उच्च शिक्षा प्राप्त एवं आत्मनिर्भर थीं।  बात भी उनकी ही ओर से उठी थी और सिरे चढ़ती प्रतीत हो रही थी।

आज परिवार मिलने एवं बात करने के लिए आया। युवक, माता-पिता, दो बहनें, एक भाई-भाभी। स्वागत सत्कार के बीच बात होती रही। दोनों ही पक्ष हां की स्थिति में थे।

अनायास ही युवक के पिता बोले कि बाकी सब ठीक है, हमारी कोई मांग भी नहीं है, घर भरा पूरा है कि सात पीढ़ियां बैठकर खा सकती हैं। बस हमारी एक ही शर्त है।

हमारे घर की बहुएं नौकरी नहीं करतीं । सब हक्के बक्के रह गये। एक-दूसरे का मुंह देखते रह गये। निधि के पिता ही बोले कि आप तो पहले से ही जानते हैं कि निधि एक अच्छी कम्पनी में उच्च पदाधिकारी है, इतना वेतन है, जानते हुए ही आपने बात की थी तो अब आप क्यों आपत्ति कर रहे हैं। वह तो  नौकरी करना चाहती है।

कुछ अजीब से एवं तिरस्कारपूर्ण स्वर में उत्तर आया , जी हां, विवाह से पहले तो यह सब चलता है किन्तु विवाह के बाद लड़की दस घंटे नौकरी करेगी तो घर-बार क्या सम्हालेगी। और वेतन की बात क्या है, हमारे पास तो इतना है कि सात पीढ़ियां बैठकर खायें।

अचानक निधि उठ खड़ी हुई और बोली कि जब आपके पास इतना है कि सात पीढ़ियां बैठकर खायें तो आपके परिवार के लड़के क्यों काम कर रहे हैं, वे भी बैठकर क्यों नहीं खाते। वे दस-दस, बारह-बारह घंटे घर से बाहर क्यों काम करते हैं। क्या घर के प्रति उनकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं।

उसके बाद क्या हुआ होगा और क्या होता आया है मुझे बताने की आवश्यकता नहीं, आप स्वयं ही समझदार हैं।

यही ठीक रहेगाः नहीं

 

एक अजीब सी दुविधा में थी वह। दो वर्ष का परिचय प्रगाढ़ सम्बन्ध में बदल चुका था। दोनो एक दूसरे को पसन्द भी करते थे  और दोनों ही परिवारों में विवाह हेतु भी स्वीकृति मिल चुकी थी। एक शालीन सम्बन्ध था दोनों के बीच।

रचना कविता-कहानियां लिखती, पत्रकारिता के क्षेत्र में अपनी एक अच्छी पहचान लिए हुए थी, तीन पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकी थीं और उसका नाम इस क्षेत्र में बड़े सम्मान से लिया जाता था। उसकी अपनी एक अलग पहचान थी और नाम था।

रमन एक बड़ी कम्पनी में उच्चाधिकारी, दोनों ही अपने -अपने कार्य के प्रति आश्वस्त और परस्पर एक-दूसरे के काम का सम्मान भी करते थे।

बात आगे बढ़ी और एक दिन रचना और रमन अपने भावी जीवन की उड़ान की बात करने लगे। रमन ने हंस कर कहा अब दो महीने बाद तो तुम रचना वर्मा नहीं रचना माहेश्वरी के नाम से जानी जाओगी।

रचना एकदम चैंककर बोली, “ क्यों , मेरा नाम क्यों बदलेगा “?

“अरे मैं नाम की नहीं उपनाम की बात कर रहा हूं। विवाहोपरान्त लड़की को अपना उपनाम तो पति का ही रखना पड़ता है, इतना भी नहीं जानती तुम“?

“हां जानती हूं किन्तु किस कानून में लिखा है कि अवश्य ही बदलना पड़ता है।“

“अरे ये तो हमारी परम्पराएं हैं, हमारी संस्कृति है।“

“तुम कब से इतने पारम्परिक और सांस्कृतिक हो गये रमन? और जो मेरी अपनी पहचान है, अपने नाम की पहचान है, इतने वर्षों से मैंने बनाई है उसका क्या“?

“क्या तुम नहीं जानती कि विवाहोपरान्त तो लड़की की पहचान पति से होती है उसके नाम और उपनाम से होती है, विवाहोपरान्त तो तुम्हारी पहचान श्रीमती रमन माहेश्वरी ही होगी या चलो रचना माहेश्वरी, रचना वर्मा को तो तुम्हें भूलना होगा।“

“नहीं , रमन मैं ऐसा नहीं कर सकती, मैं अपने नाम, अपनी पहचान के साथ ही तुम्हारी जीवन-संगिनी बनना चाहती हूं न कि अपना नाम अपनी पहचान खोकर। निश्चित रूप से मेरी पहचान तुम्हारी पत्नी के रूप में तो होगी ही, किन्तु क्या तुम्हारे लिए मेरी व्यक्तिगत पहचान कोई अर्थ नहीं रखती, उसे कैसे खो सकती हूं मैं।“

“रमन का स्पष्ट उत्तर था, अगर मुझसे शादी करनी है तो तुम्हें अब मेरी पहचान, मेरे नाम को ही अपना बनाना होगा, तुम्हारे व्यक्तिगत नाम को मेरे नाम से ही जाना जायेगा, अन्यथा नहीं। “

रचना ने कहा, “हां यही ठीक रहेगाः नहीं“ !!!!!

एक चित्रात्‍मक कथा

वे दिन भी क्या दिन थे, जब बचपन में भरी दोपहरी की तेज़ धूप में मां-दादी, बड़े भाई-बहनों और चाचा-ताउ की नज़रें बचाकर खिड़की फांदकर घर से निकल आया करते थे। न धूप महसूस होती थी न बरसात। न सूखे का पता था और न फ़सल-पानी की चिन्ता। कभी कंचे खेलते, किसी के खेत से फल-सब्ज़ियां चुराते, किसी के पशु खोल देते, मिट्टी में लोटते, तालाब में छपाछप करते, मास्टरों की खूब नकल उतारते। कब सूरज आकाश से धरती पर आ जाता पता ही नहीं लगता था। फिर भागते घर की ओर। निश्चिंत, डांट-मार खाने को तैयार। “अरे ! कुछ पढ़-लिख लो, नहीं तो खेतों में यूं ही जानवरों से हांकते रहोगे, देखो, फ़लाने का बेटा कैसे दसवीं करके शहर जाकर बाबू बन गया।“ और न जाने क्या-क्या। रोज़ का किस्सा था जब तक पढ़ते रहे। न हम सुधरे , न चिन्ता करने वालों ने हमें समझाना छोड़ा।
फिर, युवा हो गये। हम कहां बदले। बस, बचपन में जो बचपना समझा जाता था वह अब आवारागर्दी हो गया। घर-बाहर के काम करने लगे, खेती-बाड़ी सम्हालने लगे किन्तु सबकी आंखों में चुभते ही रहे। बड़े-बुजुर्ग सर पीटते : “अरे ! क्या होगा इन छोरों का, नासपीटों का, न पढ़े-लिखे, न काम-काज किये, अब इसी खेती में जूझेगें। कुछ हमारी सुनी होती तो बड़े बाउ बनकर शहर में नाम कमा रहे होते। कौन करेगा इन नाकारा छोरों से ब्याह।“
फिर ब्याह भी हो गये हम सबके। घर-बार सब चलने लगे। हमें समझाने वाले चले गये। लेकिन हम वैसे के वैसे। पहले पिछली पीढ़ी हमारे पीछे थी, अब अगली पीढ़ी हमारे आगे आ गई।
बच्चे बड़े हो गये। पढ़-लिख गये। खेती रास न आई। बाउ बन गये। शहरी रंग-ढंग आ गये। पढ़ी-लिखी बहुएं आ गईं।
और हम वैसे के वैसे।
भरी दोपहरी की तेज़ धूप हो अथवा भांय-भांय करते खेत, हमारा तो जन्म से यही आशियाना रहा।

और अब, “इन बुढ़उ को देखो, कौन समझावे। उमर हो गई है, आराम से घर में बैठो। घर का, अन्दर-बाहर का कोई काम देखो। घर में सब आराम दियो है, टी. वी. पंखा लगवा दियो है, पर दिमाग फिर गयो है, कैसे तो भरी दोपहरी में, संझा तक धूप में सड़े-पड़े रहे हैं। कल को कुछ हो-हुवा गया तो लोगन कहेंगे बच्चों ने ध्यान न रखा, बहुएं बुरी थीं।“
लेकिन हमें न तो बचपने में ऐसा कुछ सुनाई देता था, न जवानी में सुना और अब तो वैसे ही कान कम सुनने लगे हैं तो बोली जाओ , बोली जाओ , हमें न फ़रक पड़े है।
हा हा हा !!!!!