प्रतिबन्धित स्मृतियाँ
जब-जब
प्रतिबन्धित स्मृतियों ने
द्वार उन्मुक्त किये हैं
मन हुलस-हुलस जाता है।
कुछ नया, कुछ पुराना
अदल-बदलकर
सामने आ जाता है।
जाने-अनजाने प्रश्न
सर उठाने लगते हैं
शान्त जीवन में
एक उबाल आ जाता है।
जान पाती हूँ
समझ जाती हूँ
सच्चाईयों से
मुँह मोड़कर
ज़िन्दगी नहीं निकलती।
अच्छा-बुरा
खरा-खोटा,
सुन्दर-असुन्दर
सब मेरा ही है
कुछ भोग चुकी
कुछ भोगना है
मुँह चुराने से
पीछा छुड़ाने से
ज़िन्दगी नहीं चलती
कभी-न-कभी
सच सामने आ ही जाता है
इसलिए
प्रतीक्षा करती हूँ
प्रतिबन्धित स्मृतियों का
कब द्वार उन्मुक्त करेंगी
और आ मिलेंगी मुझसे
जीवन को
नये अंदाज़ में
जीने का
सबक देने के लिए।
ज़िन्दगी निकल जाती है
कहाँ जान पाये हम
किसका ध्वंस उचित है
और किसका पालन।
कौन सा कर्म सार्थक होगा
और कौन-सा देगा विद्वेष।
जीवन-भर समझ नहीं पाते
कौन अपना, कौन पराया
किसके हित में
कौन है
और किससे होगा अहित।
कौन अपना ही अरि
और कौन है मित्र।
जब बुद्धि पलटती है
तब कहाँ स्मरण रहते हैं
किसी के
उपदेश और निर्देश।
धर्म और अधर्म की
गाँठे बन जाती हैं
उन्हें ही
बांधते और सुलझाते
ज़िन्दगी निकल जाती है
और एक नये
युद्धघोष की सम्भावना
बन जाती है।
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अपने-आपसे करते हैं हम फ़रेब
अपने-आपसे करते हैं
हम फ़रेब
जब झूठ का
पर्दाफ़ाश नहीं करते।
किसी के धोखे को
सहन कर जाते हैं,
जब हँसकर
सह लेते हैं
किसी के अपशब्द।
हमारी सच्चाई
ईमानदारी का
जब कोई अपमान करता है
और हम
मन मसोसकर
रह जाते हैं
कोई प्रतिवाद नहीं करते।
हमारी राहों में
जब कोई कंकड़ बिछाता है
हम
अपनी ही भूल समझकर
चले रहते हैं
रक्त-रंजित।
औरों के फ़रेब पर
तालियाँ पीटते हैं
और अपने नाम पर
शर्मिंदा होते हैं।
विचारों का झंझावात
अजब है
विचारों का झंझावात भी
पलट-पलट कर कहता है
हर बार नई बात जी।
राहें, चौराहे कट रहे हैं
कदम भटक रहे हैं
कहाँ से लाऊँ
पत्थरों से अडिग भाव जी।
जब धार आती है तीखी
तब कट जाते हैं
पत्थरों के अविचल भराव भी,
नदियों के किनारों में भी
आते हैं कटाव जी।
और ये भाव तो हवाएँ हैं
कब कहाँ रुख बदल जायेगा
नहीं पता हमें
मूड बदल जाये
तो दुनिया तहस-नहस कर दें
हमारी क्या बात जी।
तो कुछ
आप ही समझाएँ जनाब जी।
दिन सभी मुट्ठियों से फ़िसल जायेंगे
किसी ने मुझे कह दिया
दिन
सभी मुट्ठियों से
फ़िसल जायेंगे,
इस डर से
न जाने कब से मैंने
हाथों को समेटना
बन्द कर दिया है
मुट्ठियों को
बांधने से डरने लगी हूँ।
रेखाएँ पढ़ती हूँ
चिन्ह परखती हूँ
अंगुलियों की लम्बाई
जांचती हूँ,
हाथों को
पलट-पलटकर देखती हूँ
पर मुट्ठियाँ बांधने से
डरने लगी हूँ।
इन छोटी -छोटी
दो मुट्ठियों में
कितने समेट लूँगी
जिन्दगी के बेहिसाब पल।
अब डर नहीं लगता
खुली मुट्ठियों में
जीवन को
शुद्ध आचमन-सा
अनुभव करने लगी हूँ,
जीवन जीने लगी हूँ।
इक आग बनती है
तीली से तीली जलती है
यूँ ही इक आग बनती है।
छोटी-छोटी चिंगारियों से
दिल जलता है
कभी बुझता है
कभी भड़कता है।
राख के ढेर नहीं बनते
इतनी-सी आग से
किन्तु जले दिल में
कितने पत्थर
और पहाड़ बनते हैं
कुछ सरकते हैं
कुछ खड़े रहते हैं।
और हम, यूँ ही, बात-बेबात
मुस्कुराते रहते हैं।
दरकते पहाड़ों के बीच से
भरभराती मिट्टी
बहुत कुछ ले डूबती है
किन्तु कौन समझता है
हमारी इस बेमतलब मुस्कान को।
शुष्कता को जीवन में रोपते हैं
भावहीन मन,
उजड़े-बिखरे रिश्ते,
नेह के अभाव में
अर्थहीन जीवन,
किसी निर्जन वन-कानन में
अन्तिम सांसे गिन रहे
किसी सूखे वृक्ष-सा
टूटता है, बिखरता है।
बस
वृक्ष नहीं काटने,
वृक्ष नहीं काटने,
सोच-सोचकर हम
शुष्कता को जीवन में
रोपते रहते हैं।
रसहीन ठूंठ को पकड़े,
अपनी जड़ें छोड़ चुके,
दीमक लगी जड़ों को
न जाने किस आस में
सींचते रहते हैं।
समय कहता है,
पहचान कर
मृत और जीवन्त में।
नवजीवन के लिए
नवसंचार करना ही होगा।
रोपने होंगे नये वृ़क्ष,
जैसे सूखे वृक्षों पर फल नहीं आते
पक्षी बसेरा नहीं बनाते
वैसे ही मृत आकांक्षाओं पर
जीवन नहीं चलता।
भावुक न बन।
जब मन में कांटे उगते हैं
हमारी आदतें भी अजीब सी हैं
बस एक बार तय कर लेते हैं
तो कर लेते हैं।
नज़रिया बदलना ही नहीं चाहते।
वैसे मुद्दे तो बहुत से हैं
किन्तु इस समय मेरी दृष्टि
इन कांटों पर है।
फूलों के रूप, रस, गंध, सौन्दर्य
की तो हम बहुत चर्चा करते हैं
किन्तु जब भी कांटों की बात उठती है
तो उन्हें बस फूलों के
परिप्रेक्ष्य में ही देखते हैं।
पता नहीं फूलों के संग कांटे होते हैं
अथवा कांटों के संग फूल।
लेकिन बात दाेनों की अक्सर
साथ साथ होती है।
बस इतना ही याद रखते हैं हम
कि कांटों से चुभन होती है।
हां, होती है कांटों से चुभन।
लेकिन कांटा भी तो
कांटे से ही निकलता है।
आैर कभी छीलकर देखा है कांटे को
भीतर से होता है रसपूर्ण।
यह कांटे की प्रवृत्ति है
कि बाहर से तीक्ष्ण है,
पर भीतर ही भीतर खिलते हैं फूल।
संजोकर देखना इन्हें,
जीवन भर अक्षुण्ण साथ देते है।
और
जब मन में कांटे उगते हैं
तो यह पलभर का उद्वेलन नहीं होता।
जीवन रस
सूख सूख कर कांटों में बदल जाता है।
कोई जान न पाये इसे
इसलिए कांटों की प्रवृत्ति के विपरीत
हम चेहरों पर फूल उगा लेते हैं
और मन में कांटे संजोये रहते हैं ।
पुल अपनों और सपनों के बीच
सारा जीवन बीत गया
इसी उहापोह में
क्या पाया, क्या गंवाया।
बस आकाश ही आकाश
दिखाई देता था
पैर ज़मीन पर न टिकते थे।
मिट्टी को मिट्टी समझ
पैरों तले रौंदते थे।
लेकिन, एक समय आया
जब मिट्टी में हाथ डाला
तो, मिट्टी ने चूल्हा दिया,
घर दिया,
और दिया भरपेट भोजन।
मिट्टी से सने हाथों से ही
साकार हुए वे सारे स्वर्णिम सपने
जो आकाश में टंगे
दिखाई देते थे,
और बन गया एक पुल
ज़मीन और आकाश के बीच।
अपनों और सपनों के बीच।
समझ लो क्या होते हैं कुकुरमुत्ते
बस कहने की बात है
बस मुहावरा भर है
कि उगते हैं कुकुरमुत्ते-से।
चले गये वे दिन
जब यहां वहां
जहां-तहां
दिखाई देते थे कुकुरमुत्ते।
लेकिन
अब नहीं दिखाई देते
कुकुरमुत्ते
जंगली नहीं रह गये
अब कुकुरमुत्ते
कीमत हो गई है इनकी
बिकते और खरीदे जाते हैं
वातानुकूलित भवनों में उगते हैं
भाव रखते हैं
ताव रखते हैं
किसी की ज़िन्दगी जीने का
हिसाब रखते हैं
घर-घर होते हैं कुकुरमुत्ते।
कहने को हैं
सब्जी-भर
समझ सको तो
समझ लो
अब क्या होते हैं कुकुरमुत्ते।
सपनों में जीने लगते हैं
लक्ष्य जितना सरल दिखता है
राहें
उतनी ही कठिन होने लगती हैं।
हमें आदत-सी हो जाती है
सब कुछ को
बस यूं ही ले लेने की
अभ्यास और प्रयास
की आदत छोड़ बैठते हैं
सपनों में जीने लगते हैं
लगता है
बस
हाथ बढ़ाएंगे
और चांद पकड़ लेंगे
अपने में खोये
ग्रहण और अमावस को
समझ नहीं पाते हम
सपनों में जीते
चांद को ही दोष देते हैं
सही राह नहीं पकड़ पाते हम।
-
लक्ष्य कठिन हो तो
राहें
आप ही सरल हो जाती हैं
क्योंकि तब हम समझ पाते हैं
चांद की दूरियां
और ग्रहण-अमावस का भाव
जीवन में।
कूड़े-कचरे में बचपन बिखरा है
आंखें बोलती हैं
कहां पढ़ पाते हैं हम
कुछ किस्से खोलती हैं
कहां समझ पाते हैं हम
किसी की मानवता जागी
किसी की ममता उठ बैठी
पल भर के लिए
मन हुआ द्रवित
भूख से बिलखते बच्चे
बेसहारा अनाथ
चल आज इनको रोटी डालें
दो कपड़े पुराने साथ।
फिर भूल गये हम
इनका कोई सपना होगा
या इनका कोई अपना होगा,
कहां रहे, क्या कह रहे
क्यों ऐसे हाल में है
हमारी एक पीढ़ी
कूड़े-कचरे में बचपन बिखरा है
किस पर डालें दोष
किस पर जड़ दें आरोप
इस चर्चा में दिन बीत गया !!
सांझ हुई
अपनी आंखों के सपने जागे
मित्रों की महफ़िल जमी
कुछ गीत बजे, कुछ जाम भरे
सौ-सौ पकवान सजे
जूठन से पंडाल भरा
अनायास मन भर आया
दया-भाव मन पर छाया
उन आंखों का सपना भागा आया
जूठन के ढेर बनाये
उन आंखों में सपने जगाये
भर-भर उनको खूब खिलाये
एक सुन्दर-सा चित्र बनाया
फे़सबुक पर खूब सजाया
चर्चा का माहौल बनाया
अगले चुनाव में खड़े हो रहे हम
आप सबको अभी से करते हैं नमन
समय आत्ममंथन का
पता नहीं यह कैसे हो गया ?
मुझे, अपने पैरों के नीचे की ज़मीन की
फ़िसलन का पता ही न लगा
और आकाश की उंचाई का अनुमान।
बस एक कल्पना भर थी
एक आकांक्षा, एक चाहत।
और मैंने छलांग लगा दी ।
आकाश कुछ ज़्यादा ही उंचा निकला
और ज़मीन कुछ ज़्यादा ही चिकनी।
मैं थी बेखबर, आकाश पकड़ न सकी
और पैर ज़मीन पर टिके नहीं।
दु:ख गिरने का नहीं
क्षोभ चोट लगने का नहीं।
पीड़ा हारने की नहीं।
ये सब तो सहज परिणाम हैं,
अनुभव की खान हैं
किसी की हिम्मत के।
समय आत्ममंथन का।
कितना कठिन होता है
अपने आप से पूछना।
और कितना सहज होता है
किसी को गिरते देखना
उस पर खिलखिलाना
और ताली बजाना।
कितना आसान होता है
चारों ओर भीड़ का मजमा लगाना।
ढोल बजा बजा कर दुनिया को बताना।
जख़्मों को कुरेद कुरेद कर दिखाना।
और कितना मुश्किल होता है
किसी के जख़्मों की तह तक जाना
उसकी राह में पड़े पत्थरों को हटाना
और सही मौके पर सही राह बताना।
एकान्त की ध्वनि
एकान्त काटता है,
एकान्त कचोटता है
किन्तु अपने भीतर के
एकान्त की ध्वनि
बहुत मुखर होती है।
बहुत कुछ बोलती है।
जब सन्नाटा टूटता है
तब कई भेद खोलती है।
भीतर ही भीतर
अपने आप को तलाशती है।
किन्तु हम
अपने आपसे ही डरे हुए
दीवार पार की आवाज़ें तो सुनते हैं
किन्तु अपने भीतर की आवाज़ों को
नकारते हैं
इसीलिए जीवन भर
हारते है।
जीवन-दर्शन
चांद-सूरज की रोशनी जीवन की राह दिखाती है।
रात-दिन में बंटे, जीवन का आवागमन समझाती है।
दोनों ही सामना करते हैं अंधेरों और रोशनी का,
यूं ही हमें जीवन-दर्शन समझा-समझा जाती है।
मौत कब आयेगी
कहते हैं
मौत कब आयेगी
कोई नहीं जानता
किन्तु
रावण जानता था
कि उसकी मौत कब आयेगी
और कौन होगा उसका हंता।
प्रश्न यह नहीं
कि उद्देश्य क्या रहा होगा,
चिन्तन यह कि
जब संधान होगा
तब कुछ तो घटेगा ही।
और यूंही तो
नहीं साधा होगा निशाना
कुछ तो मन में रहा होगा ही।
जब तीर छूटेगा
तो निशाने पर लगे
या न लगे
कहीं तो लगेगा ही
फिर वह
मछली की आंख हो अथवा
पिता-पुत्र की देह।
तेरी माया तू ही जाने
कभी तो चांद पलट न।
कभी तो सूरज अटक न।
रात-दिन का आभास देते,
तम-प्रकाश का भाव देते,
कभी तो दूर सटक न।
चांद को अक्सर
दिन में देखती हूं,
कभी तो सूरज
रात में निकल न।
तुम्हारा तो आवागमन है
प्रकृति का चलन है
हमने न जाने कितने
भाव बांध लिये हैं
रात-दिन का मतलब
सुख-दुख, अच्छा-बुरा
और न जाने क्या-क्या।
कभी तो इन सबसे
हो अलग न।
तेरी माया तू ही जाने
कभी तो रात-दिन से
भटक न।
जब एक तिनका फंसता है
दांत में
जब एक तिनका फंस जाता है
हम लगे रहते हैं
जिह्वा से, सूई से,
एक और तिनके से
उसे निकालने में।
किन्तु , इधर
कुछ ऐसा फंसने लगा है गले में
जिसे, आज हम
देख तो नहीं पा रहे हैं,
जो धीरे-धीरे, अदृश्य,
एक अभेद्य दीवार बनकर
घेर रहा है हमें चारों आेर से।
और हम नादान
उसे दांत का–सा तिनका समझकर
कुछ बड़े तिनकों को जोड़-जोड़कर
आनन्दित हो रहे हैं।
किन्तु बस
इतना ही समझना बाकी रह गया है
कि जो कृत्य हम कर रहे हैं
न तो तिनके से काम चलने वाला है
न सूई से और न ही जिह्वा से।
सीधे झाड़ू ही फ़िरेगा
हमारे जीवन के रंगों पर।
झूठ के बल पर
सत्य सदैव प्रमाण मांगता है,
और हम इस डर से,
कि पता नहीं
सत्य प्रमाणित हो पायेगा
या नहीं,
झूठ के बल पर
बेझिझक जीते हैं।
तब हमें
न सत्य की आंच सहनी पड़ती है,
न किसी के सामने
हाथ फैलाने पड़ते हैं।
पीढ़ी-दर-पीढ़ी
नहीं ढोने पड़ते हैं
आरोप–प्रत्यारोप,
न कोई आहुति , न बलिदान,
न अग्नि-परीक्षाएं
न पाषाण होने का भय।
नि:शंक जीते हैं हम ।
और न अकेलेपन की समस्या ।
एक ढूंढो
हज़ारों मिलेंगे साथ चलने के लिए।
अपनी ही प्रतिच्छाया को नकारते हैं हम
अपनी छाया को अक्सर नकार जाते हैं हम।
कभी ध्यान से देखें
तो बहुत कुछ कह जाती है।
डरते हैं हम अपने अकेलेपन से।
किन्तु साथ-साथ चलते-चलते
न जाने क्या-क्या बता जाती है।
अपनी अन्तरात्मा को तो
बहुत पुकारते हैं हम,
किन्तु अपनी ही प्रतिच्छाया को
नकारते हैं हम।
नि:शब्द साथ-साथ चलते,
बहुत कुछ समझा जाती है।
हम अक्सर समझ नहीं पाते,
किन्तु अपने आकार में छाया
बहुत कुछ बोल जाती है।
कदम-दर-कदम,
कभी आगे कभी पीछे,
जीवन के सब मोड़ समझाती है।
छोटी-बड़ी होती हुई ,
दिन-रात, प्रकाश-तम के साथ,
अपने आपको ढालती जाती है।
जीवन परिवर्तन का नाम है।
कभी सुख तो कभी दुख,
जीवन में आवागमन है।
समस्या बस इतनी सी
कि हम अपना ही हाथ
नहीं पकड़ते
ज़माने भर का सहारा ढूंढने निकल पड़ते हैं।
नया सूर्य उदित होगा ही
आजकल रोशनियां
डराने लगी हैं,
अंधेरे गहराने लगे हैं।
विपदाओं की कड़ी
लम्बी हो रही है।
इंसान से इंसान
डरने लगा है।
ख़ौफ़ भीतर तक
पसरने लगा है।
राहें पथरीली होने लगी हैं,
पहचान मिटने लगी है।
ज़िन्दगी
बेनाम दिखने लगी है।
पर कब चला है इस तरह जीवन।
कब तक चलेगा इस तरह जीवन।
जानते हैं हम,
बादल घिरते हैं
तो बरस कर छंटते भी हैं।
बिजली चमकती है
तो रोशनी भी देती है।
अंधेरों को
परखने का समय आ गया है।
ख़ौफ़ के साये को
तोड़ने का समय आ गया है।
जीवन बस डर से नहीं चलता,
आशाओं को फिर से
सहेजने का समय आ गया है।
नया सूर्य उदित होने को है,
हाथ बढ़ाओ ज़रा,
हाथ से हाथ मिलाओ ज़रा,
सबको अपना बनाने का
समय आ गया है।
नया सूर्य उदित होगा ही,
अपने लिए तो सब जीते हैं,
औरों के दुख को
अपना बनाने का समय आ गया है।
आशाओं का जाल
जो है वह नहीं,
जो नहीं है,
उसकी ही प्रतीक्षा में
विचलित रहता है मन।
शिशिर में ग्रीष्म ,
और ग्रीष्म में चाहिए झड़ी।
जी जलता है आशाओं के जाल में।
देता है जीवन दिल खोलकर,
बस हम पकड़ते ही नहीं।
पकड़ते नहीं जीवन के
लुभावने पलों को ।
एक मायावी संसार में जीते हैं,
और-और की आस में।
और इस और-और की आस में,
जो मिला है
उसे भी खो बैठते हैं।
आत्माओं का मिलन चाहते हैं,
और सम्बन्धों को संवारते नहीं।
मन के इस बियाबान में
मन के बियाबान में
जब राहें बनती हैं
तब कहीं समझ पाते हैं।
मौसम बदलता है।
कभी सूखा,
तो कभी
हरीतिमा बरसती है।
जि़न्दगी बस
राहें सुझाती है।
उपवन महकता है,
पत्ती-पत्ती गुनगुन करती है।
फिर पतझड़, फिर सूखा।
फिर धरा के भीतर से ,
पनपती है प्यार की पौध।
उसी के इंतजार में खड़े हैं।
मन के इस बियाबान में
एकान्त मन।