अपना-अपना सूरज

द्वार पर पैर रखते ही निशि को माँ की नाराज़गी का सामना करना पड़ा, ‘‘अगर कल से इस तरह घर लौटने में आधी रात की न तो आगे से घर से लौटना बन्द कर दूँगी। रोज़ समझाती हूँ पर तेरे कान में बात नहीं पड़ती लड़की।’’

निशि डरते-डरते माँ के निकट आ खड़ी हुई, ‘‘लेकिन मम्मी मैं तो आपसे पूछकर ही गई थी यहीं पड़ोस में नीरा के घर। दूर थोड़े ही जाती हूँ और अभी तो अंधेरा भी नहीं हुआ। देखो धूप........।’’

माँ ने झल्लाकर बात काटी, ‘‘हाँ, अंधेरा तो तब होगा जब किसी दिन नाक कटवा लायेगी हमारी।’’

‘‘इसकी ज़बान ज़्यादा चलने लगी है मम्मी’’, अन्दर से नितिन की आवाज़ आई।

‘‘तू कौन होता है बीच में बोलने वाला?’’निशि को छोटे भाई का हस्तक्षेप अच्छा नहीं लगा।

नितिन उठकर बाहर आया और निशि की चोटी खींचता हुआ बोला, ‘‘मम्मी, इसे समझाओ मैं कौन होता हूँ बोलने वाला।’’

बाल खिंचने से हुई निशि की पीड़ा माँ के तीखे स्वर में दबकर रह गई, ‘‘क्यों भाई नहीं है तेरा। यह तेरी चिन्ता नहीं करेगा तो कौन करेगा? कल को दुनियादारी तो इसे ही निभानी है। कौन सम्हालेगा अगर कोई ऊँच-नीच हो गई तो?’’

माँ की शह पर नितिन का यह रोब निशि के असहनीय था, किन्तु इससे पूर्व कि वह कुछ बोले, माँ नितिन की ओर उन्मुख हुई, ‘‘और तू यहाँ इस समय घर में बैठा क्या कर रहा ह? सूरज अभी ढला नहीं कि तू घर में मुँह छुपाकर बैठ जाता है। जा, बाहर जाकर दोस्तों के साथ खेल। शाम को ज़रा घूमा-फिराकर सेहत बनती है।’’

और निशि! अवाक् खड़ी थी। पूछना चाहती थी कि जब उसकी आधी रात हो जाती है, तब भाई का सूरज भी नहीं ढलता। ऐसा कैसे सम्भव है? क्या सबका सूरज अलग-अलग होता है? उसका और नितिन का सूरज एक साथ क्यों नहीं डूबता?

क्यों? क्यों?

वह घूम रही है, पूछ रही है, चिल्ला रही है, ‘‘बताओ, मेरा सूरज अलग क्यों डूबता है? क्यों डूबता है मेरा सूरज इतनी जल्दी? क्यों डूब जाता है मेरा सूरज धूप रहते?

 क्यों? क्यों?

पर कोई उत्तर नहीं देता। सब सुनते हैं और हँसते हैं। धरती-आकाश, पेड़-पौधे, चाँद-तारे, फूल-पत्थर, सब हँसते हैं,

बौरा गई है लड़की, इतना भी नहीं जानती कि लड़के और लड़कियों का सूरज अलग-अलग होता है।

पर निशि सच में ही बौरा गई है। हाथ फैलाए सूरज की ओर दौड़ रही है और कहती है मैं अपना सूरज डूबने नहीं दूँगी।

  

कहीं लहर-लहर, कभी भंवर-भंवर

जीवन एक बहती धारा है, जब चाहे, नित नई राहें बदले

कभी दुख की घनघोर घटाएं, कभी सरस-सरस घन बरसें

पल-पल साथी बदले, कोई छूटा, कभी नया मीत मिला

कहीं लहर-लहर, कभी भंवर-भंवर यही जीवन है, पगले

मुहब्बतों की कहानियां

मुझे इश्तहार सी लगती हैं

ये मुहब्बतों की कहानियां

कृत्रिम सजावट के साथ

बनठन कर खिंचे चित्र

आँखों तक खिंची

लम्बी मुस्कान

हाथों में यूँ हाथ

मानों

कहीं छोड़कर न भाग जाये।

 

धागों का रिश्ता
कहने को कच्चे धागों का रिश्ता, पर मज़बूत बड़ा होता है

निःस्वार्थ भावों से जुड़ा यह रिश्ता बहुत अनमोल होता है

भाई यादों में जीता है जब बहना दूर चली चली जाती है

राखी-दूज पर मिलने आती है, तब आनन्द दूना होता है।

कृष्ण की पुकार

न कर वन्‍दन मेंरा

न कर चन्‍दन मेरा

अपने भीतर खोज

देख क्रंदन मेरा।

हर युग में

हर मानव के भीतर जन्‍मा हूं।

न महाभारत रचा

न गीता पढ़ी मैंने

सब तेरे ही भीतर हैं

तू ही रचता है।

ग्‍वाल-बाल, गैया-मैया, रास-रचैया

तेरी अभिलाषाएं

नाम मेरे मढ़ता है।

बस राह दिखाई थी मैंने  

न आयुध बांटे

न चक्रव्‍यूह रचे मैंने

लाक्षाग्रह, चीर-वीर,

भीष्‍म-प्रतिज्ञाएं

सब तू ही करता है

और अपराध छुपाने को अपना

नाम मेरा रटता है।

पर इस धोखे में मत रहना

तेरी यह चतुराई

कभी तुझे बचा पायेगी।

कुरूक्षेत्र अभी लाशों से पटा पड़ा है

देख ज़रा जाकर

तू भी वहीं कहीं पड़ा है।

 

मेरा क्रोध

मेरा क्रोध

एक सरल सहज अनुभूति है

मान क्‍यों नहीं लेते तुम

 

कहत हैं रेत से घर नहीं बनते

मन से

अपनी राहों पर चलती हूं

दूर तक छूटे

अपने ही पद-चिन्हों को

परखती हूं

कहत हैं रेत से घर नहीं बनते

नहीं छूटते रेत पर निशान,

सागर पलटता है

और सब समेट ले जाता है

हवाएं उड़ती हैं और

सब समतल दिखता है,

किन्तु भीतर कितने उजड़े घर

कितने गहरे निशान छूटे हैं

कौन जानता है,

कहीं गहराई में

भीतर ही भीतर पलते

छूटे चिन्ह

कुछ पल के लिए

मन में गहरे तक रहते हैं

कौन चला, कहां चला, कहां से आया

कौन जाने

यूं ही, एक भटकन है

निरखती हूं, परखती हूं

लौट-लौट देखती हूं

पर बस अपने ही

निशान नहीं मिलते।

एक किस्सागोई

कुछ बातें बेवजह याद आती हैं लेकिन निष्कर्ष तक नहीं पहुंच पातीं।

वैसे तो 22 मार्च 2020 से ही घर पर हूं, जब पहला लॉक डाउन हुआ था किन्तु आधिकारिक तौर पर 20 जुलाई 2020 को त्यागपत्र देकर घर ही हूं।

       तो कल तक जब यानी 20 जुलाई 2020 से पूर्व कोई मुझे पूछता था कि आप क्या करती हैं तो मैं पहले कहा करती थी, बैंक में कार्यरत हूं, उपरान्त मैं इस विद्यालय में वरिष्ठ लेखाकार हूं।

21 जुलाई 2020 से मेरी पोस्ट बदल गई। अब मेरी पोस्ट क्या है, यही विचार करने के लिए यह आलेख लिख रही हूं।

       बात यह कि कुछ वर्ष पहले तक जो महिला नौकरी नहीं करती थी, उसे घरेलू महिला हाउस वाईफ़ कहा जाता था, और इसे बड़े सामान्य तौर पर लिया जाता था, चाहे वह महिला कितनी ही उच्च शिक्षा प्राप्त क्यों न हो। और नौकरी न करना कोई अपराध अथवा हीन भावना भी नहीं होती थी।

वर्तमान में स्थिति बदल चुकी है।

विद्यालय में बच्चों के प्रवेश फ़ार्म में माता-पिता के विवरण के विस्तृत काॅलम होते हैं, जिनमें उनकी शिक्षा, नौकरी, कार्यक्षेत्र, कार्यस्थल, वेतन, अन्य अनुभवों आदि की जानकारी मांगी जाती है।

इसी काॅलम से मेरा यह आलेख निकला। मैंने देखा कि कुछ फ़ार्मों में माता के विवरण में जाॅब/बिजनैस के आगे लिखा मिलने लगा: हाउस मेकर, हाउस मैनेजर, हाउस इंचार्ज। किन्तु विभाग के आगे कोई सूचना नहीं लिखी गई थी।  मैं महामूर्ख। मुझे लगा सम्भवतः किसी हास्पिटैलिटीए होटल आदि में कोई पोस्ट होगी।

मैं एक महिला से पूछ बैठी मैम आपने  डिपार्टमैंट नहीं लिखा। डिपार्टमैंट मतलब? मैंने लिखा तो है हाउस मैनेजर। जी हां, पोस्ट तो लिखी है, डिपार्टमैंट, आफिॅस का पता भी तो लिखिए।

उसे बड़ा अपमानजनक लगा मेरा प्रश्न। क्रोध से बोली, आप कहना क्या चाहती हैं कि जो लेडीज जाॅब नहीं करतीं, वो केवल घरेलू, अनपढ़, गंवार, निकम्मी होती हैं क्या? मैं हाउस मेकर, हाउस मैनेजर हूं, घर हम औरतें ही बनाती हैं।

मैं एकदम हकबका-सी गई, तो क्या ये पोस्ट हो गई। तो फिरघर में पति की क्या पोस्ट है, पूछ नहीं पाई।

मैं अचानक ही बोल बैठी, तो आप हाउस-वाईफ़ हैं। आपने पोस्ट के सामने हाउस मैनेजर लिखा है न, मुझे लगा किसी विभाग में पोस्ट का नाम होगा। साॅरी अगर आपको बुरा लगा।

अब नाराज़गी चरम पर थी। बोली, हाउस वाईफ़ का क्या मतलब होता है? मैं कोई अनपढ़, गंवार औरत हूं कि बस एक घरेलू औरत हूं। घर हम औरतें ही चलाती हैं। क्या वह काम नहीं है?  क्या आपकी तरह बाहर नौकरी न करने वाली औरतें क्या बस घरेलू ही हैं।  क्या आप ही काम करती हैं जो घर से बाहर नौकरी करती हैं। हम घर चलाती हैं, घर सम्हालती हैं तो हाउस मैनेजर, हाउस मेकर हुई या नहीं। हमारे बिना घर चल सकता है क्या? हमारे काम की कोई वैल्यू नहीं है क्या? घर तो हम औरतें ही बनाती हैं न।

मैं भी सिरे की ढीठ। उल्टी खोपड़ी। पीछे हटने वाली कहां। मैंने आगे से कहा, मैम वो तो सारी ही महिलाएं करती हैं, हम नौकरी वाली भी करती हैं तो क्या मुझे अपनी पोस्ट के साथ ओब्लीग करके हाउस मेकर भी लिखना चाहिए। और घर सम्हालना कोई नौकरी तो नहीं हुई न। यहां काॅलम जाॅब/बिज़नेस है।

वह महिला देर तक बड़बड़ाती रही। और उसने वर्तमान में महिलाओं के साथ होने वाले अन्याय, विरोध, शोषण, उनके अधिकारों के हनन, सम्मान की कमी, पारिवारिक समस्याओं और न जाने कितने विषयों पर भाषण दे डाला।

मैं समझ नहीं पाई कि घर से बाहर नौकरी न करना हीन भावना क्यों बनने लगा है और घर में रहना एक जाॅब या नौकरी कैसे बना। निःसदेह महिलाओं के साथ अनेक क्षेत्रों में अन्याय, विरोधाभास है किन्तु इन बातों के अत्यधिक प्रचार-प्रसार ने  महिलाओं की सोच को भी प्रभावित कर दिया है। इसका दुष्परिणाम यह कि महिलाओं की परिवार के प्रति सोच संकुचित होने लगी है और वे उन क्षेत्रों में भी अधिकारों की बातें करने लगी हैं जो उनके अधिकार क्षेत्र की नहीं हैं। मुझे लगता है महिलाओं में इस तरह की सोच, प्रवृत्ति, उन्हें आत्मनिर्भर, स्वाबलम्बी, स्वतन्त्र नहीं बना रही, पुरुष समाज के विरुद्ध अकारण खड़ा कर रही है। उनमें पारिवारिक दायित्वों के प्रति एक विमुखता ला रही है। अपने पारिवारिक दायित्वों को एक जाॅब या नौकरी समझने से सोच बहुत बदली है और महिलाओं की मानसिकता में गहरी नकारात्मकता आने लगी है।

  

धरा बिना आकाश नहीं

पंख पसारे चिड़िया को देखा

मन विस्तारित आकाश हुआ

मन तो करता है

पंछी-सा उन्मुक्त आकाश मिले

किन्तु

लौट धरा पर उतरूं कैसे,

कौन सिखलाएगा मुझको।

उंचा उड़ना बड़ा सरल है

पर कैसे जानूंगी फिर

धरा पर लौटूं कैसे मैं।

दूरी तो शायद पल भर की है

पर मन जब ऊंचा उड़ता है

दूर-दूर सब दिखता है

सब छोटे-छोटे-से लगते हैं

और अपना रूप नहीं दिखता

धरा बिना आकाश नहीं

पंछी तो जाने यह बात

बस हम ही भूले बैठें हैं यह।

 

जिन्दगी का एक नया गीत

चलो

आज जिन्दगी का

एक नया गीत गुनगुनाएं।

न कोई बात हो

न हो कोई किस्सा

फिर भी अकारण ही मुस्कुराएं

ठहाके लगाएं।

न कोई लय हो न धुन

न करें सरगम की चिन्ता

ताल सब बिखर जायें।

कुछ बेसुरी सी लय लेकर

सारी धुनें बदल कर

कुछ बेसुरे से राग नये बनाएं।

अलंकारों को बेसुध कर

तान को बेसुरा गायें।

न कोई ताल हो न कोई सरगम

मंद्र से तार तक

हर सप्तक की धज्जियां उड़ाएं

तानों को खींच खींच कर

पुरज़ोर लड़ाएं

तारों की झंकार, ढोलक की थाप

तबले की धमक, घुंघुरूओं की छनक

बेवजह खनकाएं।

मीठे में नमकीन और नमकीन में

कुछ मीठा बनायें।

चाहने वालों को

ढेर सी मिर्ची खिलाएं।

दिन भर सोयें

और रात को सबको जगाएं।

पतंग के बहाने छत पर चढ़ जाएं

इधर-उधर कुछ पेंच लड़ाएं

कभी डोरी खींचे

तो कभी ढिलकाएं।

और, इस आंख का क्या करें

आप ही बताएं।

जीने का एक नाम भी है साहित्य

मात्र धनार्जन, सम्मान कुछ पदकों का मोहताज नहीं है साहित्य

एक पूरी संस्कृति का संचालक, परिचायक, संवाहक है साहित्य

कुछ गीत, कविताएं, लिख लेने से कोई साहित्यकार नहीं बन जाता

ज़मीनी सच्चाईयों से जुड़कर जीने का एक नाम भी है साहित्य

वे पिता ही थे

वे पिता ही थे

जिन्‍होंने थामा था हाथ मेरा।

राह दिखाई थी मुझे

अंधेरे से रोशनी तक

बिखेरी थी रंगीनियां मेरे जीवन में।

और समझाया था मुझे

एक दिन छूट जायेगा मेरा हाथ

और आगे की राह

मुझे स्‍वयं ही चुननी होगी।

मुझे स्‍वयं जूझना होगा

रोशनी और अंधेरों से।

और कहा था

प्रतीक्षा करूंगा तुम्‍हारी

तुम लौटकर आओगी

और थामोगी मेरा हाथ

मेरी लाठी छीनकर।

तब

फिर घूमेंगे हम

साथ-साथ

यूं ही हाथ पकड़कर।

विवेक कहां अब नीर क्षीर का

हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं, किससे आस लिये बैठे हैं

अंधे-गूंगे बहरे-नाकारों की बस्ती में विश्वास लिए बैठे हैं

अपने अपने मद में डूबे हम, औरों से क्या लेना देना

विवेक कहां अब नीर क्षीर का, सब ढाल लिए बैठे है।

न समझे हम न समझे तुम

सास-बहू क्यों रूठ रहीं

न हम समझे न तुम।

पीढ़ियों का है अन्तर

न हम पकड़ें न तुम।

इस रिश्ते की खिल्ली उड़ती,

किसका मन आहत होता,

करता है कौन,

न हम समझें न तुम।

शिक्षा बदली, रीति बदली,

न बदले हम-तुम।

कौन किसको क्या समझाये,

न तुम जानों न हम।

रीतियों को हमने बदला,

संस्कारों को हमने बदला,

नया-नया करते-करते

क्या-क्या बदल डाला हमने,

न हम समझे न तुम।

हर रिश्ते में उलझन होती,

हर रिश्ते में कड़वाहट होती,

झगड़े, मान-मनौवल होती,

पर न बात करें,

न जाने क्यों,

हम और तुम।

जहां बात नारी की आती,

बढ़-बढ़कर बातें करते ,

हास-परिहास-उपहास करें,

जी भरकर हम और तुम।

किसकी चाबी किसके हाथ

क्यों और कैसे

न जानें हम और न जानें हो तुम।

सब अपनी मनमर्ज़ी करते,

क्यों, और क्या चुभता है तुमको,

न समझे हैं हम

और क्यों न समझे तुम।

 

चांदनी को तारे खिल-खिल हंस रहे

चांद से छिटककर चांदनी धरा पर है चली आई                      

पगली-सी डोलती, देखो कहां कहां है घूम आई

देख-देखकर चांदनी को तारे खिल-खिल हंस रहे

रवि की आहट से डर,फिर चांद के पास लौट आई

जिन्दगी की डगर

जिन्दगी की डगर यूं ही घुमावदार होती हैं

कभी सुख, कभी दुख की जमा-गुणा होती है

हर राह लेकर ही जाती है धरा से गगन तक

बस कदम-दर-कदम बढ़ाये रखने की ज़रूरत होती है

करवाचौथ का व्रत

करवाचौथ का व्रत फिर आ गया। मेरे शहर की क्याए शायद मेरे देश की सारी महिलाएं इस दिन व्रती हो जाती हैं। वैसे तो भारतीय पत्नियों का हर दिन ही पतियों के लिए होता है किन्तु यह दिन बिल्कुल भूखा रहकर पतियों के लिए होता है। रात्रि को छाननी में से पहले चांद को देखकरए  फिर पति को देखकर ही भोजन मिलता है। वैसे मुझे चांद और पति में आज तक कोई भी समानता समझ नहीं आई।  इस व्रत के लिए महिलाओं को कुछ गहन.वहनेए साड़ी.वाड़ीए मेंहदी वगैरह और शारीरिक डैकोरेशन के कुछ अन्य सामान के साथ ढेर सारे ताने.वाने भी मिलते हैं। 
वास्तव में हर पत्नी को एक अदद पति चाहिए होता है जोकि उसके पास होता है अथवा जिसके होने के लिए वे अग्रिम किश्त की तरह करवाचौथ का व्रत रखना शुरु कर देती हैं। करवाचैथ के व्रत की पहली मांग यह रहती है कि यह पति उनके साथ सात जन्मों का बन्धन बनाये रखेगा। अर्थात सात जन्मों का कान्ट्रैक्ट जो महिलाएं शादी के सात फेरों और सात वचनों के द्वारा करती हैंए उसके रिन्यूयल का यह एक आधिकारिक दस्तावेज होता है और इसी कान्ट्रैक्ट के रिन्यूअल के लिए महिलाओं को हर वर्ष करवाचौथ का व्रत रखना पड़ता है। और  यह रिन्यूअल ष्ष्जो हैए जैसा हैए जहां है और जिस स्थिति में हैष्ष् के रूप में होती है। उसे बदला नहीं जा सकता। इसी पति को हर जन्म में अथवा सात जन्मों में बनाये रखने के लिए सात फेरे लिए जाते हैंए सात वचन बांधे जाते हैं और फिर उन पर पक्का स्टैम्प लगाने के लिए करवाचैथ का व्रत किया जाता है। फिर करवाचैथ का व्रत रखना इसलिए भी जरूरी है कि इस जन्म में तो माता.पिता ने पता नहीं कैसे जुगाड़ करके एक पति ढूंढ दिया था अब हर जन्म में कहां ढूंढते फिरेंगे। इस कलियुग में बड़ी मुश्किल से एक तो पति मिलता है। 
प्राचीन काल में तो पति थोड़ी.सी वस्तुओं के जुगाड़ से ही मिल जाता था। एक हीरो साईकिलए एचण् एमण् टीण् की घड़ीए टाई पिन के साथ टाईए थ्री.पीस सूटए चमचमाते चमड़े के जूतेए वीण्आईण्पीण्का ब्रीफकेस मोटी.सी अंगूठी के साथ जब कोई युवक घर से बाहर निकलता था तो वैसे ही पहचान लिया जाता था कि कि यह नवविवाहित है जैसे युवतियों की भरी मांग और चूड़े से पता लग जाता है। और बस एक टीन की पेटी जिसमें 36 पीस का स्टील का डिनर सैट और घर.गृहस्थी का थोड़ा.सा सामानए बस मिल गया पति। लेकिन साईकिल कब स्कूटर में बदलीए फिर बाईक और कार में और टीन की पेटी कब सोने से मढ़ी जाने लगी पता ही नहीं लगा।
फिर पति जब भी घर से बाहर निकलता है महिलाओं को एक ही चिन्ता सताई रहती है पता नहीं घर का रास्ता ही न भूल गया हो। करवाचैथ का व्रत रखने से एक यह सन्तोष बना रहता है कि इस आदमी के साथ जब मैंने सात जन्मों के लिए  भगवान से  कान्ट्रैक्ट कांउटर.साईन करवा लिया है तो लौट कर तो इसे आना ही पड़ेगाए जायेगा कहां ! फिर महिलाओं के लिए तो पति की मांग बनी ही रहती है। अब हर जन्म में माता.पिता कहां जायेंगे नया पति ढूंढनेए सो इसी को रिन्यू करवा लो। अब इतने वर्ष साथ रहकर वैसे भी ष्ष्जो हैए जैसा हैए जहां हैष्ष् की आदत तो हो ही चुकी है। सो अगले सात जन्मों में इतनी परेशानियों का सामना नहीं करना पड़ेगा।
किन्तु समस्या यह कि ये महिलाएं इतना भी नहीं समझतीं कि यह कान्ट्रैक्ट एकतरफा होता है। अगर महिलाओं को कानून की थोड़ी.सी भी जानकारी होती तो वे यह जान जातीं कि कोई भी कान्ट्रैक्ट कभी भी एकतरफा होने पर किसी भी न्यायालय में मान्य नहीं होता। फिर भी महिलाएं न जानें किस भ्रम में वर्ष.दर.वर्ष इस कान्ट्रैक्ट को एकतरफा रिन्यू कर.करके प्रसन्न होती रहती हैं।  

महिलाओं को भी समझना चाहिए कि यह आधुनिक युग है। बाजार में नई.नई मांग और पूर्ति उपलब्ध है। एक मांगने जाओ तो एक के साथ एक क्या चार.चार ए पांच.पांच फ्री  गिफ्टस देने को तैयार बैठै मिलते हैं। शेष आपकी बारगेनिंग पॅावर पर निर्भर करता है। नये से नये प्रोडक्ट हैं। नई टैक्नोलोजी है। बीसियों कम्पनियां हैं। नैट पर सर्च कीजिए। कितने ही गिफ्ट अफर्स हैं। और नवरात्रों से लेकर दीपावली तक आ रहे निरन्तर पर्वों के बीच तो दुकानदार एक दम नई से नई स्कीम्ज घोषित करते रहते हैं। एक्सचेंज आफर्ज हैं। पुराना दे जाईए नया ले जाइए। ब्याज.रहित आसान मासिक किश्तों में ले जाइए।  दस दिन तक अथवा एक महीने तक प्रयोग कीजिएए पसन्द न आने पर बदल कर दूसरा माॅडल ले जा सकते हैं  अथवा कीमत वापिस। पांच साल की गारंटी। ग्यारह साल की वारंटी। पार्ट्स बदलने की गारंटी अलग। किराये पर भी उपलब्ध हैं। एक लाओए दो लाओए बीस लाओए बदल.बदल कर लाओ। और अगर पसन्द आ जाये तो पूरा भुगतान करके नियमित भी किया जा सकता है। इतनी सारी सुविधाएं हैं और इतने सारे आप्शंजए फिर भी पता नहीं ये महिलाएं उसी पुराने प्रोडक्ट को लेकर सात जन्मों तक क्या करेंगी। एक बार प्रयास तो कीजिएए अगर नये पर मन न ही माने तो पुराना प्रोडक्ट कहीं भागा तो नहीं जा रहा। उसी से गुजारा कर लेंगे। पर एक बार कोशिश करना तो हमारा धर्म है। 

 

दिल आजमाने में लगे हैं

अब गुब्बारों में दिल सजाने लगे हैं

उनकी कीमत हम लगाने लगे हैं

पांच-सात रूपये में ले जाईये मनचाहे

फुलाईये, फोड़िए

या यूं ही समय बिताने  में लगे हैं

मायूसे दिल की ओर तो कोई देखता ही नहीं

सोने चांदी के भाव अब लगाने लगे हैं

दिल कहां, दिलदार कहां अब

बातें करते बहुत

पर असल ज़िन्दगी में टांके लगाने लगे हैं

कुछ तुम दीजिए, कुछ हमसे लीजिए

पर फोड़ना इस दिल को

काटना इसे

असलियत निकल आयेगी

खून बहेगा, आस आहें भरेंगी

बस रोंआ-रोंआ बिखरेगा

सरकार ने प्लास्टिक बन्द कर दिया है

बस इतनी सी बात हम बताने में लगे हैं

समझ आया हो कुछ,  तो ठीक

नहीं तो हम

कहीं और दिल आजमाने में लगे हैं।

 

 

मेरी पुस्तकों की कीमत

दीपावली, होली पर

खुलती है अब

पुस्तकों की आलमारी।

झाड़-पोंछ,

उलट-पलटकर

फिर सजा देती हूँ

पुस्तकों को

डैकोरेशन पीस की तरह ।

बस, इतने से ही

बहुत प्रसन्न हो लेती हूँ

कि मेरी

पुस्तकों की कीमत

कई सौ गुणा बढ़ गई है

दस की सौ हो गई है।

सोचती हूँ

ऐमाज़ान पर डाल दूँ।

 

हम श्मशान बनने लगते हैं

इंसान जब  मर जाता है,

शव कहलाता है।

जिंदा बहुत शोर करता था,

मरकर चुप हो जाता है।

किन्तु जब मर कर बोलता है,

तब प्रेत कहलाता है।

.

श्मशान में टूटती चुप्पी

बहुत भयंकर होती है।

प्रेतात्माएं होती हैं या नहीं,

मुझे नहीं पता,

किन्तु जब

जीवित और मृत

के सम्बन्ध टूटते हैं,

तब सन्नाटा भी टूटता है।

कुछ चीखें

दूर तक सुनाई देती हैं

और कुछ

भीतर ही भीतर घुटती हैं।

आग बाहर भी जलती है

और भीतर भी।

इंसान है, शव है या प्रेतात्मा,

नहीं समझ आता,

जब रात-आधी-रात

चीत्कार सुनाई देती है,

सूर्यास्त के बाद

लाशें धधकती हैं,

श्मशान से उठती लपटें,

शहरों को रौंद रही हैं,

सड़कों पर घूम रही हैं,

बेखौफ़।

हम सिलेंडर, दवाईयां,

बैड और अस्पताल का पता लिए,

उनके पीछे-पीछे घूम रहे हैं

और लौटकर पंहुच जाते हैं

फिर श्मशान घाट।

.

फिर चुपचाप

गणना करने लगते हैं, भावहीन,

आंकड़ों में उलझे,

श्मशान बनने लगते हैं।

 

काश ! इंसान वट वृक्ष सा होता

कहते हैं

जड़ें ज़मीन में जितनी गहरी हों

वृक्ष उतने ही फलते-फूलते हैं।

अपनी मिट्टी की पकड़

उन्हें उर्वरा बनाये रखती है।

किन्तु वट-वृक्ष !

मैं नहीं जानती

कि ज़मीन के नीचे

इसकी कहां तक  पैठ है।
किन्तु इतना समझती हूं

कि अपनी जड़ों को

यह धरा पर भी ले आया है।

डाल से डाल निकलती है

उलझती हैं,सुलझती हैं

बिखरती हैं, संवरती हैं,

वृक्ष से वृक्ष बनते हैं।

धरा से गगन,

और गगन से धरा की आेर

बार-बार लौटती हैं इसकी जड़ें

नव-सृजन के लिए।

-

बस 

इंसान की हद का ही पता नहीं लगता

कि कितना ज़मीन के उपर है

और कितना ज़मीन के भीतर।

 

 

आज का रावण

 

हमारे शास्त्रों में, ग्रंथों में जो कथाएं सिद्ध हैं, आम जन तक पहुंचते-पहुंचते बहुत बदल जाती हैं। सत्य-असत्य से अलग हो जाती हैं। हमारी अधिकांश कथाओं के आधार और परिणाम वरदान और श्राप पर आधारित हैं।

प्राचीन ग्रंथों एवं रामायण में वर्णित कथानक के अनुसार रावण एक परम शिव भक्त, उद्भट राजनीतिज्ञ, महापराक्रमी योद्धा, अत्यन्त बलशाली, शास्त्रों का प्रखर ज्ञाता, प्रकाण्ड विद्वान पंडित एवं महाज्ञानी था। रावण के शासन काल में लंका का वैभव अपने चरम पर था इसलिये उसकी लंकानगरी को सोने की लंका कहा जाता है।

हिन्दू ज्योतिषशास्त्र में रावण संहिता को एक बहुत महत्वपूर्ण पुस्तक माना जाता है और इसकी रचना रावण ने की थी।

   रावण ने राम के लिए उस पुल के लिए यज्ञ किया, जिसे पारकर राम की सेना लंका पहुंच सकती थी, यह जानते हुए भी रावण ने राम के निमन्त्रण को स्वीकार किया और अपना कर्म किया।

 

 रावण अपने समय का सबसे बड़ा विद्वान माना जाता है और रामायण के अनुसार जब रावण मृत्यु शय्या पर था तब राम ने लक्ष्मण को रावण से शिक्षा ग्रहण करने का आदेश दिया था और रावण ने यहां भी अपना कर्म किया था।

   निःसंदेह हमारी धार्मिकता, आस्था, विश्वास, चरित्र आदि विविध गुणों के कारण राम का चरित्र सर्वोपरि है। रावण रामायण का एक केंद्रीय प्रतिचरित्र है। रावण लंका का राजा था। रामकथा में रावण ऐसा पात्र है, जो राम के उज्ज्वल चरित्र को उभारने का काम करता है।

रावण राक्षस कुल का था, अतः उसकी वृत्ति भी राक्षसी ही थी। यही स्थिति शूर्पनखा की भी थी। उसने प्रेम निवेदन किया, विवाह-प्रस्ताव किया जिसे   राम एवं लक्ष्मण ने अस्वीकार किया। इस अस्वीकार का कारण सीता को मानते हुए शूर्पनखा ने सीता को हानि पहुंचाने का प्रयास किया, इस कारण लक्ष्मण ने शूर्पनखा को आहत किया, उसकी नाक काट दी।

रावण ने घटना को जानकर अपनी बहन का प्रतिशोध लेने के लिए सीता का अपहरण किया, किन्तु उसे किसी भी तरह की कोई हानि नहीं पहुंचाई। रावण अपनी पराजय भी जानता था किन्तु फिर भी उसने बहन के सम्मान के लिए अपने हठ को नहीं छोड़ा।

   समय के साथ एवं साहित्येतिहास में कुछ प्रतीक रूढ़ हो जाते हैं, और फिर वे ही उसकी अर्थाभिव्यक्ति बन कर रह जाते हैं। बुराई पर अच्छाई की विजय के रूप में यह कथा रूढ़ हुई और रावण के गुणों पर उसका  कृत्य हावी हुआ। किसी भी समाज के उत्थान के लिए इससे अच्छी बात कोई नहीं कि अच्छाई का प्रचार हो, हमारे भीतर उसका समावेश हो, और हम उस परम्परा को आगे बढ़ाएं। राम-कथा हमें यही सिखाती है। किन्तु गुण-अवगुण दोनों में एक संतुलन बना रहे, यह हमारा कर्तव्य है।

बात करते हैं आज के रावण की।

आज के दुराचारियों अथवा कहें दुष्कर्मियों को रावण कह कर सम्बोधित किया जा रहा है। वर्तमान समाज के अपराधियों को, महिलाओं पर अत्याचार करने वाले युवकों को रावण कहने का औचित्य। क्या सत्य में ही दोनों के अपराध समान हैं । यदि अपराध समान हैं तो परिणाम क्यों नहीं समान हैं?

किन्तु आज कहां है रावण ?

आज रावण नहीं है। यदि रावण है तो राम भी होने चाहिए। किन्तु राम भी तो नहीं है।

 

आज वे उच्छृंखल युवक हैं जो निडर भाव से अपराधों में लिप्त हैं। वे जानते हैं वे अपने हर अपकृत्य से बच निकलेंगे। समाज एवं परम्पराओं के भय से पीड़ित अपनी व्यथा प्रकट नहीं करेगा, और यदि कर भी देगा तब भी परिवार से तो संरक्षण मिलेगा ही, अपने दांव-पेंच से कानून से भी बच निकलेंगे।

रावण शब्द का प्रयोग बुराई के प्रतीक के रूप में किया जाता है। उस युग में तो राम थे, रावण रूपी बुराई का अन्त करने के लिए। आज हम उस रावण का पुतला जलाने के लिए तो तैयार बैठे रहते हैं वर्ष भर। आज हमने बुराई का प्रतीक रावण तो बना लिया किन्तु उसके समापन के लिए राम कौन-कौन बनेगा?

 

   यदि हम रावण शब्द का प्रयोग बुराई के प्रतीक के रूप में करते हैं तो इस बुराई को दूर करने के उपाय अथवा साधन भी सोचने चाहिए। बेरोजगारी, अशिक्षा, पिछड़ापन, रूढ़ियों के रावण विशाल हैं। लड़कियों में डर का रावण और युवकों में छूट का रावण हावी है।

जिस दिन हम इससे विपरीत मानसिकता का विकास करने में सफल हो गये, उस दिन हम रावण की बात करना छोड़ देंगे। अर्थात् किसी के भी मन में अपराध का इतना बड़ा डर हो कि वह इस राह पर कदम ही न बढ़ा पाये और जिसके प्रति अपराध होते हैं वे इतने निडर हों कि अपराधी वृत्ति का व्यक्ति आंख उठाकर देख भी न पाये।

यदि फिर भी अपराध हों,  तो हम जिस प्रकार आज राम को स्मरण कर अच्छाई की बात करते हैं, वैसे ही सत्य का समर्थन करने का साहस करें और जैसे आज रावण को एक दुराचारी के रूप में स्मरण करते हैं वैसे ही अपराधी के प्रति व्यवहार करें, तब सम्भव है कोई परिवर्तन दिखाई दे, और आज का रावण लुप्त हो।

 

खत लिखने से डरते थे।

मन ही मन

उनसे प्यार बहुत करते थे

पर खत लिखने से डरते थे।

कच्ची पैंसिल, फटा लिफ़ाफ़ा

आटे की लेई,

कापी का आखिरी पन्ना।

फिर सुन लिया

लोग लिफ़ाफ़ा देखकर

मजमून भांप लिया करते हैं।

उनसे प्यार बहुत करते थे

पर इस कारण

खत लिखने से डरते थे।

अब हमें

मजमून का अर्थ तो पता नहीं था

लेकिन

मजमून से

कुछ मजनूं की-सी ध्वनि

प्रतिध्वनित होती थी।

कुछ लैला-मजनूं की-सी।

और कभी-कभी जूं की-सी।

और
इन सबसे हम डरते थे ।
उनसे प्यार बहुत करते थे

पर इस कारण

खत लिखने से डरते थे।