शांति  बनाये रखने के लिए

अक्सर मुझे

बहुत-सी बातें

समझ नहीं आतीं।

विश्व शांति चाहता है

हर देश चाहता है

कि युद्ध न हों

सब अपने-आपमें

स्वतन्त्र-प्रसन्न रहें।

किन्तु

इस शांति को

बनाये रखने के लिए

भूख, ग़रीबी, शिक्षा

और रोज़गार को पीछे छोड़,

बनाने पड़ते हैं

अरबों-खरबों के

अस्त्र-शस्त्र

लाखों की संख्या में

तैयार किये जाते हैं सैनिक

सीमाएँ बांधी जाती हैं

समझौते किये जाते हैं

मीलों-मील दूर बैठे

निशाने बांध लिए जाते हैं।

 

जब हम

शांति के लिए

इतनी तैयारी करते हैं

तो युद्ध क्यों हो जाते हैं?

 

कोविड वातावरण के कारण अस्त-व्यस्त मन की बातें

आजकल कुछ लिखने के लिए मन करता है पर लिखना हो नहीं पाता। क्यों? पता नहीं। वैसे भी मैं जल्दी कुछ लिख नहीं पाती और लेखन में भटकाव आ जाता है। इस समय भी कुछ विचार एक साथ उलझे पड़े हैं जैसे कोरोना, विस्थापित होते मज़दूर, हमारी चिकित्सीय व्यवस्थाएं, वेतन एवं वसूली, धार्मिक स्थल, मदिरालय एवं हमारे समाचार वाहक।

इस कारण एक अटपटा, उलझा-सा आलेख।

एक ओर तो कोरोना से घर में बैठे हैं, टी. वी. पर चलने वाले समाचार, समाचार कम, एक तीसरी श्रेणी का धारावाहिक अधिक प्रतीत होते हैं। वास्तविकता से हम कोसों दूर हैं। अब  समाचार पत्र भी मिलने लगे हैं क्योंकि हम रैड ज़ोन से औरेंज ज़ोन में प्रवेश कर गये हैं।

विस्थापित मज़दूरों को पैदल चलते, जिनमें बच्चे, वृद्ध, रोगी सब हैं, सिर पर सामान उठाये, देखकर ही मन भयाक्रातं है। एक सरकार कहती है हम भेज रहे हैं, दूसरी कहती है हमारे पास इनको रखने के लिए जगह नहीं है। किसकी गलती है, कौन क्या कर रहा है, सब उलझा पड़़ा है। कल किसके साथ क्या होगा, पता नहीं। जो कल तक दैनिक मजदूर थे, परिश्रमी थे, आज भिक्षुक बनकर रह गये।

क्या करते थे ये सब। कहां रहते थे, अचानक सड़क पर आ गये, छतविहीन, भोजन रहित। दो-चार नहीं , लाखों की संख्या में। अनेक शहरों में , अनेक राज्यों में। कोई इनकी यूनियन तो थी नहीं कि पूरे देश में वाट्सएप किया और निकल लिए। जिस राज्य में रह रहे थे वहां न छत मिल रही थी न भोजन। जहां भी कार्य कर रहे थे, सब बन्द हो गये। रोज़गार जाने के साथ ही निवास भी चले गये और भोजन की व्यवस्था भी। अब क्या करें? जहां जाना चाहते थे, मार्ग नहीं था, सुविधा नहीं थी, धन नहीं था, व्यवस्था नहीं थी। किन्तु रहें कहां। जब कुछ नहीं मिला तो पैदल ही चल दिये, किसी ने राह में भोजन दे दिया तो ठीक, नहीं तो चले जा रहे हैं मुंह पर कपड़ा लपेटे। सड़कों पर भटक रहे हैं, पुलिस रोक रही है, मत जाओ, लेकिन कहां रहें ये तो वह भी नहीं बता सकती। केवल रास्ते खाली करवा सकती है। किसी की समझ ने यह काम किया कि गाड़ी जिस राह जाती है वही राह वे पैदल चलेंगें तो अपने घर पहुंच जायेंगे, चल दिये रेल लाईन पर पैदल। ज़िन्दगी और मौत के बीच एक रेल लाईन भी होती है, किसे पता था।

ये वे श्रमिक हैं जो वर्षों से अथवा जन्म से ही इस देश के लिए काम कर रहे हैं, छोटे-छोटे कार्यों से लेकर बड़े कामों तक। इनके काम का कोई नाम नहीं है, श्रम का कोई मूल्य नहीं है, कोई महत्व नहीं है, किन्तु इनके श्रम के बिना देश की अर्थव्यवस्था भी नहीं है। देश की अर्थव्यवस्था में इनका कितना प्रतिशत योगदान है कभी किसी अर्थशास्त्री ने गणना की, मुझे नहीं पता।

वे छात्र किस श्रेणी के थे जिन्हें ए सी बसों में भेजा गया, निश्चित रूप से किसी श्रमिक के बच्चे तो रहे नहीं होंगे, नहीं तो वे भी पैदल ही जाते रेल-लाईन पर।

हां, अब मुझे यह पता लगा कि हमारे देश में जन्म लेकर यहां से पढ़लिखकर लोग विदेश जा बसे, वहां अपने श्रम का योगदान देने लगे, उनकी अर्थव्यवस्था को मज़बूत करने लगे। अपने देश का अमूल्य धन विदेशों में लगाने लगे। पता नहीं कितने वर्षोे से। किन्तु इस समय उन्हें अपने देश की याद आई और वे लौटना चाहते हैं।

उनके लिए विमान सजे, तीन-तारा और पंचतारा होटलों में उनके एकान्तवास की व्यवस्था हो रही है। सरकारी ए सी बसों से उन्हें पहुंचाया जा रहा है।

और देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ रेलवे लाईन पर सो रही है, पैदल चल रही है, एक सरकार कहती है जाना है तो जाओ, दूसरी कहती है मत आओ, तुम्हारे लिए हमारे पास जगह नहीं है।

आज हम अपने-आपको घर के भीतर राशन जमाकर सुरक्षित अनुभव कर रहे हैं। किन्तु कल क्या होगा, पता नहीं।

बात तो पुरानी हो गई किन्तु लिखने का मन आज बना तो क्या करेे, अब बासी रोटी ही सही, कुछ न कुछ पेट तो भरेगा ही।

कुछ चैनल चार-पांच लोगों  को, जिन्हें वे बुद्धिजीवी, पत्रकार, लेखक, राजनीतिज्ञ, समाजसेवी , धार्मिक नेता आदि-आदि कहते हैं, उनके बीच शब्द-युद्ध में मग्न समय काट रहे हैं। इस धर्मनिरपेक्ष देश में धर्म की कितनी महत्ता है, यह टीवी पर प्रसारित होने वाले वाक्-युद्ध से हम समझ सकते हैं।

कहीं भी समाचारों से ज्ञात नहीं हो पा रहा कि लाखों की फ़ीस लेने वाले निजी अस्पताल इस विकराल समस्या में अपना क्या योगदान दे रहे हैं। ज़रूर दे रहे होंगे, किन्तु जानकारी नहीं मिली। समाचारों में एक भी बार नहीं सुना कि फौर्टीज़, मैक्स, एल-कैमिस्ट जैसे बड़े-बड़े निजी अस्पताल इस समय क्या कर रहे हैं। गली-गली में बैठे निजी चिकित्सालय खोले एक विज़िट के 500 से 1000 तक की फ़ीस लेने वाले चिकित्सक इस समय कहां हैं? उलझी पड़ी हूं मैं।

उधर सुनने में आया है कि पड़ोसी देश सीमा पर गोलीबारी कर रहा है और हमारे पांच सैनिक शहीद हुए हैं। उनकी शहादत की कथा हम पिछले कई दिन से टी. वी. पर देख रहे हैं। समाचार पत्रों में भी कई पृष्ठ उन्हें ही समर्पित हैं।  किन्तु उससे ही अगले दिन बार्डर सिक्योरिटी फ़ोर्स के तीन जवान शहीद हुए उनके बारे में बस इतना ही समाचार मिला। समाचार पत्र में भी एक ही पंक्ति। क्या कैटेगरी अलग होने से शहादत का भाव भी बदल जाता है?

आजकल हम बहुत धार्मिक हो रहे हैं। वैसे तो सदा  से ही हैं किन्तु इधर परेशानी बढ़ गई है।

धार्मिक स्थल, मन्दिर तो नहीं खुले, मदिरालय खोल दिये गये।

कपाट खोलने ज़रूरी हो गये हैं। अब यह सरकार की मर्ज़ी कि कौन  से  कपाट खोले। कौन  से  कपाट खोलने पर सरकार की तिज़ोरी सीधे-सीधे भरेगी, यह सरकार ही समझती है, मेरी आपकी समझ ऐसी कहां।मदिरालय खोलने का निर्णय सरकार का गलत हो सकता है किन्तु मन्दिर खोलने से क्या हो जायेगा मैं यह नहीं समझ पा रही हूं, ऐसे विषयों पर मंद बुद्धि हूं।

क्या किसी ने मांग की थी कि मदिरालय खोले जायें? शायद नहीं ! सरकार की राजस्व की आवश्यकता थी। कोरोना के नाम पर अरबों-खरबों से सरकार की तिजोरी भरी, कितनी, नहीं पता।

किन्तु मदिरा आम आदमी की कितनी आवश्यकता है यह ठेकों के सामने लगी दो-दो किलोमीटर लम्बी लाईन से पता लगा। ओले-बारिश में भी लोग जमे रहे।

मदिरा ठेकों पर बोतलों में मिलती है, हर प्रकार की, जहां से खरीद कर आप उसे घर ले जा सकते हैं। ठेके रात 12 और 2 बजे तक खुले रहते हैं। साथ आहाते होते हैं जहां आप बैठकर पी भी सकते हैं और खा भी सकते हैं। इसके बाद अनेक होटल, रैस्टोरैंट, पब में भी मिलती है, जिसे आपको वहीं खरीद कर, वहीं बैठकर पीना होता है, आप घर नहीं ला सकते, जहां उसका मूल्य कई गुणा बढ़़ जाता है। इसकी होम डिलीवरी भी नहीं है। किसी माॅल में, बिग बाज़ार में अथवा जनरल आपूर्ति की दुकानों पर भी नहीं मिलेगी। लेकिन क्यों, इसी बात को समझने का प्रयास कर रही थी।

मदिरालय के ठेके करोड़ों-करोड़ों में बिकते हैं, बोली लगती है।

यदि मदिरा एवं धूम्रपान सरकार की एवं आम आदमी की इतनी बड़ी आवश्यकता है तो खुले आम क्यों नहीं।

हमारे देश में मदिरा एवं धूम्रपान को लेकर एक अलग-सा दृष्टिकोण है। पीने वालों को बुरा समझा जाता है। मान लिया जाता है कि इनका चरित्र 50 प्रतिशत तो गिरा हुआ ही होगा, परिवार के प्रति आर्थिक अपराधी हैं, अथवा ये बहुत बड़े आदमी हैं। महिलाओं के लिए तो बात करना भी अपराध है। सरकार का कौन सा दृष्टिकोण है समझ से बाहर है। मतलब यह कि जिसने पीनी है, उसके लिए सरकार प्रबन्ध करके ही रहेगी, तो छिपना-छिपाना क्यों, खुलकर पिलाईये, बेचिए, बांटिए।

बस इतना है कि हमारे फ़ेसबुकीय कवियों को एक और  नया विषय मिल चुका है]  मन्दिर या मदिरालय]  वाह ! बढ़िया तुकबन्दी बन गई।।

मैं भी प्रयासरत हूं इस विषय पर एक  अच्‍छी  कविता के   लिए 

  

अनुत्तरित प्रश्न
अन्तरा इतनी बड़ी तो हो ही गई थी कि बेटा-बेटी का अर्थ समझने लगी थी। 
परिवार में भाई-बहन के बीच किसी भी प्रकार का कोई भेद-भाव नहीं किया जाता था, 
किन्तु विभाजन की एक महीन-सी रेखा थी जिसे केवल अन्तरा ही अनुभव कर पाती थी, 
किन्तु इस अनुभव को व्यक्त करने के लिए उसके पास शब्द नहीं थे।

इस बात की उसके माता-पिता बहुत चर्चा करते थे, जिसे आप आत्मप्रशंसा कह सकते हैं कि हम तो बेटे-बेटी में कोई फ़र्क नहीं करते। हमारी तो बेटी हमारे लिए बेटे जैसी ही है। हम बेटी को बेटे से कम नहीं मानते। हम तो अपनी बेटी को बेटे से बढ़कर मानते हैं।

अनायास एक दिन अन्तरा पूछ बैठी कि आप बेटे-बेटी में कोई फ़र्क नहीं करते न, दोनों को एक जैसा ही मानते हो न !

उत्तर आया, हां, नहीं करते किन्तु तुम यह क्यों पूछ रही हो?

अन्तरा का प्रश्न था तो आप कभी यह क्यों नहीं कहते कि हमारा बेटा तो हमारे लिए बेटी जैसा ही है, हम बेटे को बेटी से कम नहीं मानते !!!!!

उनके पास तो कोई उत्तर नहीं था, आपके पास है क्या?

  

निकम्मे कर्मचारी

एक छोटा-सी हास्य रचना

एक पुरानी और बड़ी आई. टी. कम्पनी। वे दोनों मित्र घर से दूर, एक इस एक अच्छी आई. टी. कम्पनी में कार्यरत । वैसे तो शनिवार और रविवार को छुट्टी रहती थी, किन्तु नया-नया शौक, पैसे कमाने की ललक, और सोचते घर रहकर भी क्या करेंगे, चलो आफ़िस चलते हैं। पहली नौकरी थी । शौक भी था कि काम ज्यादा करेंगे तो आगे बढ़ेंगें।  और यदि कोई कर्मचारी ज्.यादा काम करना चाहता है तो प्रबन्धक क्यों मना करेंगे। आईये, आपको कोई अतिरिक्त भत्ता तो देना नहीं था।

सो अब शनिवार और रविवार को प्रायः आफ़िस खुलता। पहले ऐसा शायद ही कभी हुआ हो कि  कि छुट्टी के दिन कभी आफिस खुलता हो। फिर जब कर्मचारी आयेंगे, तो सहायक कर्मचारियों को भी आना पड़ता है, उन्हें चाहे ओवर-टाईम मिलता हो, किन्तु छुट्टी तो खराब हो जाती है।

नई भर्तियों के बाद अब कुछ ज्यादा ही होने लगा था।

एक दिन उनके बॉस ने उन दोनों नये कर्मचारियों को बुलाया और कहा कि तुम्हारे विरूद्ध शिकायत आई है कि तुम दोनों बहुत निकम्मे हो।

दोनों घबरा गये कि क्या हुआ।

बॉस ने कहा कि चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों ने शिकायत की है कि कैसे निकम्मे नये कर्मचारी भर्ती किये हैं, कि छुट्टी के दिन भी काम करने आना पड़ता है।

  

बैठे ठाले
चित्राधारित रचना हास्य

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मैं जिस डाल पर बैठा हूं, उसे ही काट रहा हूं, आपको कोई आपत्ति, कोई कष्ट आपको? नहीं न, तो काटने दीजिए, गिरूंगा तो मैं गिरूंगा, हड्डियां टूटेंगी तो मेरी टूटेंगी, आपको क्या? क्यों अपनी टांग अड़ाते हैं आप किसी और के मामले में। बता दूं कि दूसरों के मामलों में टांग अड़ाने पर भी टांग टूट जाती है।

हा हा! आजकल आरी से पेड़ कौन काटता है भला। आजकल तो मशीने हैं, पलभर में पूरा वृक्ष धराशायी। मैं जानता हूं कि आप क्या कहेंगे। आप कहेंगे कि यह तो मूर्खता प्रदर्शित करने का प्रतीक है कि जिस डाली पर बैठे उसी को काटना। मुहावरा है।  किन्तु मूर्खता प्रदर्शित करने की आवश्यकता ही क्या ? प्रदर्शित करना है तो बुद्धिमानी कीजिए, चतुराई कीजिए, दक्षता कीजिए। किसी की भी मूर्खता तो उसके मुंह खोलते ही पता लग जाती है।

 और हर समय गम्भीर बात करना ज़रूरी होता है क्या? जानता हूं मैं कि वृक्ष पर्यावरण की सुरक्षा के लिए ज़रूरी हैं। हमने विकास की आंधी में बहुत कुछ खो दिया है।  आधुनिकता के पीछे भाग कर हम अपनी बहुत हानि कर रहे हैं। पर सूखा वृक्ष है तो काटेंगे ही, लकड़ी काम आयेगी और नये वृक्ष लगायेंगे किन्तु  आपने तो पता नहीं कितनी कहानियां बना डालीं कि जिस डाल पर बैठा है, उसे ही काट रहा है।

मैं तो आप सबकी कल्पनाशक्ति देख रहा था कि मेरे इस चित्र को देखकर आप क्या सोचते हैं। आप ही इस चित्र को ध्यान से देखकर बताईये ज़रा, मैं इस वृक्ष पर चढ़ा कैसे? न डाली, न सहारा, न सीढ़ी। और लक्कड़हारे की तो मेरी यूनिफ़ार्म भी नहीं है।  तो फिर ! प्रतीकात्मक है, मूर्खता प्रदर्शित करने का।

  

करिये योग भगाये रोग

कैसी विडम्बना एवं आश्चर्य की बात है कि जिस  योग पद्धति का उल्लेख हमारे प्राचीनतम ग्रंथों ऋग्वेद एवं कठोपनिषद ग्रंथों में मिलता है, जो ईसा पूर्व के ग्रंथ हैं, उस प्राचीनतम योग पद्धति को  हम आज प्रदर्शन के रूप में योगा डे के रूप में मना रहे हैं। पतंजलि का योगसूत्र योग का सबसे महत्वपूर्ण गं्रथ है। अन्य अनेक ग्रंथों में भी योग की परिभाषाएँ महत्व एवं क्रियाएँ उल्लिखित हैं। योग केवल एक शारीरिक क्रिया नहीं है, अपितु एक मानसिक, चिकित्सीय पद्धति भी है।

वर्तमान में हम इस बात से ज़्यादा प्रसन्न नहीं हैं कि एक हमारी प्राचीनतम योग पद्धति जो लुप्त हो रही थी, पुनः प्रकाश में आई है, हमारे जीवन का हिस्सा बनने लगी है, उसके गुणों को हम अपने जीवन में उतारने में लगे हैं बल्कि हम इस बात की ज़्यादा खुशियाँ मनाने में लगे हैं कि देखिए हमारा योगा अब विश्व में मनाया जाने लगा है। हमारे योगा का अब अन्तर्राष्ट्रीय दिवस है।

यदि सत्य को समझने का साहस रखते हों तो आज भी योग हमारे दैनिक जीवन का, नित्यप्रति का हिस्सा नहीं बन सका है। चाहे विद्यालयों में यह एक विषय के रूप में पढ़ाया जाने लगा है किन्तु बच्चे भी इसे एक विषय के रूप में ही लेते हैं न कि दैनिक जीवन की एक अपरिहार्य क्रिया के रूप में, जीवन-शैली के रूप में अथवा चिकित्सा-पद्धति के रूप में। बड़े-बुजुर्ग पार्क में एकत्र होकर अनुलोम-विलोम आदि करते दिखाई दे जायेंगे अथवा एक-दो और क्रियाएँ , और हमारा योगा डे सम्पन्न हो जाता है।

21 जून को सड़कों पर छपी टी-शर्ट पहने, बढ़िया-सी चटाई बिछाये और बाद में कुछ खान-पानी ही योगा-डे की उपलब्धि बनकर रह जाते हैं।

हमारे प्राचीन ग्रंथों में योग का जो महत्व दर्शाया गया है एवं क्रियाएँ बताईं गईं हैं हम उनसे अभी भी बहुत-बहुत दूर हैं। आवश्यकता है प्रत्येक स्तर पर प्रयास की, अभ्यास की, सम्मान की और इसे अपने दैनिन्दन जीवन का हिस्सा बनाने की। योग को उचित रूप में जीवन का हिस्सा बनाने से निश्चित रूप से आधुनिक जीवन शैली से उत्पन्न मानसिक, शारीरिक एवं अने मनोवैज्ञानिक समस्याओं का समाधान हो पायेगा।

शिक्षक दिवस : एक संस्मरण

वर्ष 1959 से लेकर 1983 तक मैं किसी न किसी रूप में विद्यार्थी रही। विविध अनुभव रहे। किन्तु पता नहीं क्यों सुनहरी स्मृतियाँ नहीं हैं मेरे पास।

मुझे बचपन से ही मंच पर चढ़कर बोलना, वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेना बहुत अच्छा लगता था। मेरा उच्चारण एवं स्मरण-शक्ति भी अच्छी थी। सब पसन्द भी करते थे किन्तु सदैव किसी न किसी कारण से मेरा नाम प्रतियोगिताओं से कट जाता था और मैं रोकर रह जाती थी। अध्यापक कहते सबसे अच्छा इसने ही बोला किन्तु बाहर भेजते समय किसी और का नाम चला जाता और मैं मायूस होकर रह जाती।

जब कालेज पहुंची तो मैंने सोचा अब तो भेद-भाव नहीं होगा और यहां मेरी योग्यता को वास्तव में ही देखा जायेगा। किन्तु वहां तो पहले से ही एक टीम चली आ रही थी और हर जगह उसका ही चयन होता था । यहां भी वही हाल।

तभी कालेज में हिन्दी साहित्य परिषद का गठन हुआ और मैं उसकी सदस्य बन गई। कहा गया कि आप यहां कविता-कहानी आदि कुछ भी सुना सकते हैं। मेरे घर में तो पुस्तकों का भण्डार था। एक पुस्तक से मैंने निम्न पंक्तियाँ सुनाईं 1972 की बात कर रही हूं

हर आंख यहां तो बहुत रोती है

हर बूंद मगर अश्क नहीं होती है

देख के रो दे जो ज़माने का गम

उस आंख से जो आंसू झरे मोती है

****-*****

सबने समझा यह मेरी अपनी लिखी है और मुझे बहुत सराहना मिली। तब मुझे लगा कि मैं अपनी पहचान कविताएं लिख कर ही क्यों न बनाउं। किन्तु समझ नहीं थी।

फिर उसके कुछ ही दिन बाद कालेज में ही वाद-विवाद प्रतियोगिता थी, संचालक ने मेरा नाम ही नहीं पुकारा। बाद में मैंने पूछा कि सूची में मेरा भी नाम था तो बोले कि मेरा ध्यान नहीं गया।

 मैं आहत हुई और मैंने सोचा अब मैं कविताएं लिखूंगी जो यहां कोई नहीं लिखता और अपनी अलग पहचान बनाउंगी। उस दिन मैंने इसी भूलने  के विषय पर अपनी पहली  मुक्त-छन्द कविता लिखी 

चाहे इसे शिक्षकों द्वारा किये जाने वाला भेद-भाव कहें अथवा उनकी भूल, किन्तु मेरे लिए लेखन का नवीन संसार उन्मुक्त हुआ जहां मैं आज तक हूं।

  

बड़ी याद आती है शिमला तुम्हांरी
एक संस्मरण

*-*-*-*-*-*-*

आज जाने कौन-सी स्मृतियों में खींच कर ले गया मुझे मेरा मन। । शिमला का माल-रोड, वहां खड़ी फ़ायर ब्रिगेड की गाड़ी, बर्फ से ढके दूर-दूर तक फैले चीड़-देवदार के वृक्ष। अनायास बिछी एक सफ़ेद चादर। कभी रूईं के फ़ाहों सी, कभी श्वेत रजत-सी, जैसे कहीं दूर से दौड़ती आती और सब कुछ ढककर चली जाती। धरा से आकाश तक। एक स्वर्गिक अनुभव जिसकी अभिव्यक्ति के लिए शब्द नहीं होते।

 शिमला में बर्फ़ क्या पड़ी] न जाने कौन-सी स्मृतियों में खींच कर ले गई मुझे। हरीतिमा को अद्भुत सौन्दर्य प्रदान करती एक श्वेत आभा।

शीत ऋतु से लड़ाई के लिए सब तैय्यार रहते थे।नवम्बर आरम्भ होते ही सर्दी की तैयारियां शुरू हो जाती थीं। चार-पांच महीने का राशन, कोयला-लकड़ी भरवानी है, अंगीठियां तैयार रहें, रजाईयां और रजाईयां ही रजाईयां। परिवार में जितने सदस्‍य उतनी गर्म पानी की बोतलें, वह भी गिलाफ़ चढ़ाकर, कोट, मोटे स्वेटर, छाते, बरसाती यानी रेनकोट, टोपी, मफलर, स्कार्फ, दस्ताने, गर्म जुराबें, गमबूट और न जाने क्या क्या।

प्रायः दिसम्बर में बर्फ पड़ जाती थी किन्तु कभी किसी ने छुट्टी लेने का सोचा ही नहीं। तीन-तीन चार-चार फुट बर्फ में भी सभी प्रायः चार-पांच किलोमीटर पैदल चलकर स्कूल, कालेज, कार्यालयों में पहुंचा करते थे। हर दफ्तर में स्टीम कोयले की अंगीठियां जला करती थीं जिन्हे महाम कहा जाता था। बाद में हीटर भी मिलने लगे। घरों में भी ऐसी ही अंगीठियां जलाते थे जिन पर साथ ही पानी भी गर्म हो सके। और पानी ! न जी न! पानी कहां। शून्य से नीचे के तापमान में पानी नलों में जम जाता था।  पानी की पाईप फ़ट जाती थीं। पानी भरकर रखना पड़ता था और  बर्तनों में भरकर रखे पानी में भी स्लेट जम जाती थी। सबसे आनन्द की बात तो यह होती थी कि न पानी आयेगा, न गर्म होगा न नहाना पड़ेगा।

 25  दिसम्बर से 28 फरवरी तक सर्दी की छुट्टियां। दिन-रात अंगीठियां जली रहतीं। सारा दिन या तो अंगीठियों को घेरकर कम्बल-रजाईयां लपेटे बैठे रहते, खूब खाते। दिन भर में 12-15 चाय तो आम बात होती और वह भी आज के शब्दों में लार्ज। और बस मूंगफली।  अथवा बिस्तरों में ही दुबके बैठे । आज सोचती हूं तो देखती हूं 8 सदस्यों के परिवार में 12-15 चाय अर्थात दिन-भर में 100 से अधिक चाय। काश! तब ठीक से सोचा होता तो परिवार से कोई तो प्रधानमंत्री बन सकता था। तभी तो दादी मां से कहती थी ‘’लाड़ी, पाणिये दी टांकिया बिच ही चीनी-पत्ती पाई देया कर, सारा दिन चाई दा  डबरू इ चढ़ी रहंदा।‘’ (बहू, पानी की टांकी में ही चीनी-पत्ती डाल दिया कर, सारा दिन चाय का पतीला चढ़ा रहता है।) और बस मूंगफली और गुड़-शक्कर। 

बर्फ को गिरते देखना, महसूस करना, हर बार एक  नया आनन्द और अनुभव होता। बर्फ को हाथों से छूते, गोले बनाते, बर्फ के बुत बनाते, खाते और घर के अन्दर लाकर बर्तनों में भी रख देते। आश्चर्य होता था कि कैसे एक-एक पत्ती, कण-कण ढक जाता, एक कोमल श्वेत आभा से। टेढ़ी टीन की छतों पर से बर्फ धीरे-धीरे फ़िसलती, मानों कोई शरारत कर रहा हो। और हम नीचे खड़े प्रतीक्षा करते कि अब गिरी और तब गिरी।  कभी धीरे-धीरे तो कभी धड़ाम से धमाका करती गिरती। ऐसे पलों की मानों हम प्रतीक्षा करते थे। जब बर्फ पिघलती, तो छत से टपकती बूंदों का स्वर आनन्दिन करता। तापमान शून्य से नीचे रहने पर छतों से टपकती बूंदे हवा में ही जमने लगतीं, और छतों से लटकती, लम्बी-लम्बी, मोटी पारदर्शी नलियाँ सुन्दर आकार ले लेंतीं, जिन्हें  हम  नलपियां कहते थे। उनका सौन्दर्य अद्भुत होता था। जब सूरज चमकता तो उनके भीतर से रंग-बिरंगी धाराएं दिखतीं। उन्हें तोड़-तोड़कर खाने का आनन्द लेते। वे इतनी सख्त और नुकीलीं होती थीं कि किसी को चुभ जाये अथवा मारी जाये तो गहरी चोट लग सकती थी।

और बर्फ में बनी कुल्फी ! जब रात को मौसम साफ होता था तो लोटे में चीनी मिश्रित गर्म दूध ढककर बर्फ में दबा देते थे और उसके चारों ओर नमक डाला जाता था। वाह ! क्या आनन्द था उस स्वाद का।

जब बर्फ गिरने लगती तो बाहर बरामदे में आकर बैठ जाते। मां चिल्लाती रह जाती, पर कौन सुनता। हाथों से छूते, गोले बनाते, बर्फ के बुत बनाते, खाते और घर के अन्दर लाकर बर्तनों में भी रख देते।

आज जब सब याद करती हूं तो देखती हूं कि कितनी भी समस्याएं होती थीं कभी समस्या लगी ही नहीं। बिजली नहीं, पानी नहीं, आवागमन का कोई साधन  नहीं, किन्तु कभी इस बारे में सोचते ही नहीं थे, बस आनन्द ही लेते थे। कैसा भी मौसम हो शाम को माल-रोड के तीन चक्कर तो लगाने ही हैं स्कैंडल-प्वाईंट से लेडीज़ पार्क तक। और हाथ में बालज़ीस की आईसक्रीम-कोण।

बड़ी याद आती है शिमला तुम्‍हारी ।।।

इस ऋतु के लिए तैय्यारियां तो पूरा वर्ष ही चली रहती थीं। स्वेटर, गर्म जुराबें ,दस्ताने , मफ़लर तो घर पर ही बुने जाते थे।  शिमला की महिलाएं इस बात के लिए बहुत प्रसिद्ध रही हैं कि उनके हाथ में सदैव उन-सिलाईयां रहती थीं। 

प्रायः दिसम्बर में बर्फ पड़ जाती थी किन्तु कभी किसी ने छुट्टी लेने का सोचा ही नहीं। और वैसे कभी छुट्टी लें भी लें, किन्‍तु बर्फ में तो जाना ही है। और यदि छुट्टी है तो पहली बर्फ़ का आनन्द लेने तो माल-रोड जाना ही होगा।  तीन-तीन चार-चार फुट बर्फ में भी सभी प्रायः चार-पांच यहां तक कि आठ-दस  किलोमीटर पैदल चलकर स्कूल, कालेज, कार्यालयों में पहुंचा करते थे और वह भी समय से। उस समय वाहन की सुविधाएं न के बराबर थीं। हम शिमला में लोअर कैथू रहते थे, स्कूल था छोटा-शिमला में ,लगभग पांच किलोमीटर। पांच वर्ष से 17 वर्ष तक हज़ारों किलोमीटर सफ़र तो इसी रूट पर तय कर लिया होगा  आज सोचती हूं। बाद में कालेज, विश्‍वविद्यालय, बैंक। चढ़ाई-उतराई कुछ न महसूस होती। प्रतिदिन इतनी लम्बी यात्रा का भरपूर आनन्द उठाते थे। बर्फ गिरने के बाद जब दिन भर धूप रहती अथवा बादल, तो बर्फ़ पिघलने लगती। और यदि रात को मौसम साफ़ हो तो सड़कों पर पानी की अदृश्य स्लेटें जम जातीं। खूब फ़िसलन होती,  लोगों को गिरते देखने में बड़ा आनन्द आता था।

 

आज जब सब याद करती हूं तो देखती हूं कि कितनी भी समस्याएं होती थीं कभी समस्या लगी ही नहीं। बिजली नहीं, पानी नहीं, आवागमन का कोई साधन  नहीं,  किन्तु कभी इस बारे में सोचते ही नहीं थे, बस आनन्द ही लेते थे। कैसा भी मौसम हो शाम को माल-रोड के तीन चक्कर तो लगाने ही हैं स्कैंडल-प्वाईंट से लेडीज पार्क तक। और आकाश से गिरती बर्फ़ और  हाथ में बालजीस की आईसक्रीम-कोण।

बड़ी याद आती है शिमला तुम्हांरी ।।।

  

चेतना का जागरण
जब मैं अपना शोध कार्य कर रही थी तब मैंने पढ़ा था कि एक सामाजिक चेतना हुआ करती है जो कालिक होती है। जैसे हिन्दी साहित्य के मध्यकाल में भक्ति भाव की चेतना थी। कवि, चित्रकार, गायक, संगीतकार, शिल्पी सब भक्ति-भाव में डूबे थे। उसके बाद चेतना में परिवर्तन आया और रीति काल का आगमन हुआ। इस काल में सब श्रृंगारिक भाव में डूब गये, यह एक कालिक चेतना हुआ करती थी, जिस कारण सबके मन में एक से ही भाव उमड़ते थे, और समान भाव पर सृजन होता था। यही छायावादी काल, प्रगतिवाद और कुछ और वादों के काल में भी हुआ। यह मैं नहीं कह रही, मैंने कहीं पढ़ा था इस सामाजिक चेतना के बारे में।

आप कहेंगे, आज क्यों याद आ गई मुझे इस चेतना की।

अब मुझे क्यों याद आई इस चेतना की , बताने के लिए ही तो यह लिखना शुरू किया है, यह तो मात्र भूमिका था, आपको उलझाने के लिए।

तो ऐसा है कि पहले यह चेतना शताब्दियों की होती थी। शायद 250-300 वर्षों की। जैसे भक्ति काल और रीति काल। फिर अवधि घटने लगी। दशकों तक आ गई, जैसे भारतेन्दु युग, छायावादी काल, प्रगतिवाद, नई कविता आदि। मेरा ज्ञान थोड़ा कच्चा और जिसे Time out कहते हैं, यदि आपको लगे तो सम्हाल लीजिएगा।

फिर दशक छूटे, साल रह गये। और वर्तमान में  यह चेतना दैनिक हो गई है।

मुझे इतना ज्ञान कैसे मिला, यहीं फ़ेसबुक से मित्रो, आपकी जिज्ञासा शांत करती हूं। यह मेरा शोध कार्य है।

वर्तमान में चेतनाओं का रूप बहुत विस्तृत हो गया है।

पिछले वर्ष से  कोरोना की चेतना गतिमान  है। इस बीच  मदिरा की चेतना आई थी और फिर श्रमिकों  की। वास्‍तविक  श्रमिक चेतना एक मई को आती है। अनेक बार मातृ चेतना होती है। आजकल सरकारी तौर  पर  बेटी चेतना का बहुत विस्‍तार  हुआ है।

वर्तमान में  चेतनाएं  दैनिक अधिक होने लगी हैं, जो कभी-कभी एक-दो दिन तक विस्तारित हो जाती  हैं। 14 फ़रवरी को प्रेम के देवता की दैनिक चेतना होती है। ऐसे ही 8 मार्च को महिलाओं की दैनिक चेतना होती है, किसी दिन बेटी की। वर्ष में  एक  दिन  योग  की  भी  चेतना होती है ।  वर्ष में तीन-चार अलग-अलग दिनों में राष्ट्र प्रेम की चेतना होती है। देवियों की चेतना वर्ष में दो बार नौ-नौ दिन की होती है। पूरे वर्ष में 25-30 या इससे भी ज़्यादा देवी देवताओं की चेतना दैनिक होती है।  कुछ चेतनाएं घटनावश सृजित होती हैं। जैसे किसी आतंकवादी घटना के घटने पर, प्राकृतिक प्रकोप पर, मानवीय दुर्घटना आदि पर।

इन सबके अतिरिक्‍त राजनीतिक चेतना, व्यापारिक चेतना, धार्मिक चेतना, नकल चेतना, रिश्वत चेतना आदि  का भी विस्‍तार  है,  जिन पर  अभी मैं शोध  कार्य कर  रही  हूं।

इनके अतिरिक्त राजनीतिक चेतना, व्यापारिक चेतना, धार्मिक चेतना, नकल चेतना, रिश्वत चेतना आदि चेतनाएँ भी अत्यन्त महत्वपूर्ण चेतनाएँ हैं जिन पर भविष्य में अवश्य एक नवीन चेतना के साथ चिन्तन होगा।बेटा पूछता है, पुत्र दिवस की चेतना  कब होती  है मां। किसी को पता हो तो बताईएगा।

 मैं भी आजकल प्रतिदिन योगासन कर रही हूं नवीन चेतनाओं  के जागरण के लिए।

  

प्यार का संदेश

कक्षा 4 का विद्यार्थी सहज, छोटा-सा, मात्र 7-8 वर्ष का। स्कूल से अनायास उसके माता-पिता को फोन जाता है, तत्काल स्कूल पहुंचने का। दोनों घबराये कहीं बच्चे के साथ कोई दुर्घटना तो नहीं हो गई।

गेट से ही उन्हें लगा कोई गम्भीर घटना घटी है, प्रधानाचार्या के कार्यालय तक पहुंचते-पहुंचते पता नहीं कितने चेहरे क्या-क्या कह रहे थे। वहीं पर सहज खड़ा था रूंआसा-सा, उसकी दो-तीन अध्यापिकाएं पूरे गुस्से में।

सहज असमंसज-भाव में सबके चेहरे देख रहा था कि वह यहां क्यों खड़ा है और क्या हुआ है। उसे तो यही पता था कि प्रधानाचार्या के कमरे में तो बच्चों को पुरस्कार देने के लिए ही बुलाया जाता है।

“ देखिए , आपके आठ साल के बच्चे के हाल! क्या सिखाते हैं आप अपने बच्चे को। आज ही यह हाल है तो बड़ा होकर क्या करेगा? ऐेसे बच्चों को हम स्कूल में नहीं रख सकते।’’

लेकिन मैडम हुआ क्या’’

“ ये लीजिए, आपके होनहार बेटे ने अपनी क्लास की एक लड़की को ये प्यार का संदेश दिया। पढ़िए आप ही। और पूछिए इससे।’’

माता-पिता के हाथ में अपने बेटे सहज के हाथ की लिखी एक छोट-सी पर्ची थी जिस पर लिखा था ‘‘आई लव यू आभा’’।

‘‘आपने बात की क्या इससे।’’

“ जी, नहीं बात क्या करनी, दिखाई नहीं दे रहा कि आपके बच्चे की कैसी सोच है? “

माता-पिता हतप्रभ। कभी एक-दूसरे का चेहरा देखें तो कभी सहज का, जो उत्सुक-सा सबको देख रहा था।

‘‘पूछना चाहिए था आपको, इतनी-सी बात को इतना बड़ा बना देने से पहले। हम तो डर ही गये थे।’’

‘‘लीजिए, आपके सामने मैं ही पूछती हूं ।’’

‘‘सहज, तुम आभा से प्यार करते हो’’

यैस, मम्मी।

क्यों?

मम्मी, आभा बहुत अच्छी है, हर समय हंसती रहती है, अपना लंच भी मुझे देती है, हम साथ ही बैठते हैं, और आप और मैडम भी तो कहते हैं लव आॅल। आप मुझे कितनी बार कहती हैं लव यू बेटू। पापा भी कहते हैं। मेरी मैडम भी कहती है, आई लव यू आॅल।

स्कूल में और आप भी तो यही कहते हैं सबसे प्यार करो, आप मेरा बैग देखो, मैंने तो बहुत से दोस्तों के लिए भी लिख कर रखा है लव यू।

मम्मी मैंने कुछ गलत कर दिया क्या?

सब निरूत्‍तर थे ।

 

मैं नहीं जानती कि उसके बाद सहज के साथ क्या हुआ, किन्तु इतना जानती हूं कि जब तक कोई नया गाॅसिप नहीं आ गया, दिनों तक स्कूल में इसी घटना की चर्चा रही कि आजकल इतने छोटे बच्चों के ये हाल हैं तो बड़े होकर क्या करेंगे।

परिधान

हमारे समाज में महिलाओं के परिधान की अनेक तरह से बहुत चर्चा होती है। वय-अनुसार, पारिवारिक पोस्ट के अनुसार, अर्थात अविवाहित युवती, भाभी, ननद, बहन, माँ, दादी आदि के लिए। इसके अतिरिक्त भारत में रीति-परम्पराओं, राज्यानुसार प्रचलित, एवं धार्मिक आख्यानों में भी इतनी विविधता है कि उसके अनुसार भी महिलाओं के वस्त्रों पर दृष्टि रहती है।

और सबसे बड़ी बात यह कि हमारे आधुनिक समाज में महिलाओं के परिधानों के अनुसार ही उनका चरित्र-चित्रण किया जाता है। आधुनिक वस्त्र धारण करने वाली युवती के लिए मान लिया जाता है कि यह बहुत तेज़ होगी, घर-गृहस्थी के योग्य नहीं होगी, पति, सास-ससुर की सेवा करने वाली नहीं होगी। ( किन्तु जब महिलाओं की बात होती है तब सेवा-भाव वाली बात आती ही क्यों है, उसके अपने अस्तित्व की बात क्यों नहीं की जाती। परिवार के सदस्य की बात क्यों नहीं आती?, पुरुषों के सन्दर्भ में तो इस तरह की बात कभी नहीं आती। इस विषय पर चर्चा को विराम देती हूँ, यह भिन्न चर्चा का विषय है।)

किन्तु पुरुषों के परिधान, वस्त्रों पर कभी कोई बात नहीं करता।

क्योंकि महिलाएं खुलेआम टिप्पणी नहीं कर पातीं इस कारण कहती नहीं।

सबसे बुरा लगता है जब पुरुष केवल अन्तर्वस्त्रों में अथवा तौलिए में प्रातःकाल बरामदे में घूमते दिखते हैं। गर्मियों में तो जैसे उनका अधिकार होता है अर्द्धनग्न रहना। मुझे नहीं पता कि उनके घर की महिलाएं उन्हें टोकती हैं अथवा नहीं।

मैं शिमला से हूँ। वहां हमने सदैव ही यही देखा है कि पुरुष भी महिलाओं की भांति स्नानागार से पूरे वस्त्रों में ही तैयार होकर निकलते हैं। किन्तु जब मंै यहां आई तो मुझे बहुत शर्म आती थी कि घर के बच्चे क्या, युवा, अधेड़, बुजुर्ग सब आधे-अधूरे कपड़ों में घूमते हैं। हमें यह अश्लील लगता है।  अभिनेत्रियों के वस्त्रों पर भी बहुत कुछ लिखा जाता है किन्तु जब बड़े.बड़े मंचों पर बड़े नामी कलाकार नग्न प्रदर्शन करते हैं तब  वह भव्यता होती है।  इन नग्नता की तुलना हम किसी कार्य या खेल में पहने जाने वस्त्रों से नहीं कर सकते।

पुरुष की वस्त्रहीनता उसका सौन्दर्य है और स्त्री के देह-प्रदर्शनीय वस्त्र अश्लीलता।

सबसे बड़ी बात जो मुझे अचम्भित भी करती है और हमारे समाज की मानसिकता को भी प्रदर्शित करती है वह यह कि हमारे प्रायः सभी प्राचीन पात्रों के चित्रों में  उपरि वस्त्र धारण नहीं दिखाये जाते। फिर वह चित्रकारी हो अथवा अभिनय। किसने देखा है वह काल कि ये लोग उपरि वस्त्र पहनते थे अथवा नहीं। क्यों यह अश्लीलता नहीं दिखती और कभी भी क्यों इस पर आपत्ति नहीं होती। निश्चित रूप से उस युग को तो किसी ने नहीं देखा, यह हमारी ही मानसिकता का प्रतिफल है। किसने देखा है कि देवता, भगवान क्या पहनते थे। यह उस कलाकार की अथवा भक्त की मानसिकता है जो अपने आराध्य की सुन्दर, सुघड़ देहयष्टि दिखाना चाहता है।

 महिलाएं पुरुषों के पहनावे से आहत होती हैं। प्रकृति ने पुरुष को छूट  दी है, यह हमारी सोच है। मुझे आश्चर्य तब होता है जब हम महिलाएं भी उसी बनी.बनाई लीक पर चलती हैं।

एक अन्य तथ्य यह कि जब भी भारतीय संस्कृति, परम्पराओं, रीति-रिवाज़ों के अनुसार पहनावे की बात उठती है तब केवल महिलाओं के सन्दर्भ में ही चर्चा होती है, पुरुषों के पहरावे पर कोई बात नहीं की जाती।

इतना और कहना चाहूंगी कि कमी मर्दों की मानसिकता में नहीं महिलाओं की मानसिकता में है जो पुरुष नग्नता का विरोध नहीं करतीं।

  

 

मूर्तियों  की आराधना

 

चित्राधारित रचना

जब मैं अपना शोध कार्य रही थी तब मैंने मूर्तिकला एवं वास्तुकला पर भी कुछ पुस्तकें पढ़ी थीं।

मैंने अपने अध्ययन से यह जाना कि प्रत्येक मूर्ति एवं वास्तु के निर्माण की एक विधि होती है। किसी भी मूर्ति को यूँ ही सजावट के तौर पर कहीं भी बैठकर नहीं बनाया जा सकता यदि उसका निर्माण पूजा-विधि के लिए किया जा रहा है। स्थान, व्यक्ति, निर्माण-सामग्री, निर्माण विधि सब नियम-बद्ध होते हैं।  जो व्यक्ति मूर्ति का निर्माण करता है वह अनेक नियमों का पालन करता है, शाकाहारी एवं बहुत बार उपवास पर भी रहता है जब तक उसका कार्य पूरा नहीं हो जाता।

हमारे धर्म में अनेक देवी-देवताओं की पूजा होती है उनमें गणेश जी भी एक हैं। प्राचीन काल में प्रत्येक देवी-देवता की सम्पूर्ण पूजा विधि का पालन किया जाता था और उसी के अनुसार मूर्ति-निर्माण एवं स्थापना का कार्य।

आज हमारी पूजा-अर्चना व्यापारिक हो गई है। यह सिद्ध है कि प्रत्येक देवी-देवता की पूजा-विधि, मूर्ति-निर्माण विधि, पूजन-सामग्री एवं पूजा-स्थल में उनकी स्थापना विधि अलग-अलग है। किन्तु आज इस पर कोई विचार ही नहीं करता। एक ही धर्म-स्थल पर एक ही कमरे में सारे देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना की जाती है, जबकि प्राचीन काल में ऐसा नहीं था।

सबसे बड़ी बात यह कि हम यह मानते हैं कि हमारा स्थान ईश्वर के चरणों में है न कि ईश्वर हमारे चरणों में।

हम निरन्तर यह तो देख रहे हैं कि कौन किसे खींच रहा है, कौन देख रहा है किन्तु यह नहीं देख पा रहे कि  गणेश जी की मूर्ति को पैरों में रखकर ले जाया जा रहा है, कैसे होगी फिर उनकी पूजा-आराधना?

   

ज़िन्दगी में एक सबक

अंधेरे में भी रोशनी की एक चमक होती है

रोशनी में भी अंधेरे की एक लहर होती है

देखने वाली आंखें ही देख पाती हैं इन्हें

सहेज लें इन्हें, ज़िन्दगी में एक सबक होती है

 

 

 

कड़वा-कड़वा देते रहना

नीम करेले का रस पी ले

हंस-बोलकर जीवन जी ले

कड़वा-कड़वा देते रहना

खट्टे की खुद चटनी पी ले

दाना डाला जाल बिछाया

नदी किनारे बैठे बैठे मन में आया चल डूब मरें

फिर देखा मीन बड़ी बड़ी, सोचा मस्ती खूब करें

दाना डाला, जाल बिछाया, सारे हथकंडे अपनाये

पकड़ी तो नकली निकली, आप न ऐसी भूल करें

अंदाज़ उनका

उलझा कर गया अंदाज़ उनका

बहका कर गया अंदाज़ उनका

अंधेरे में रोशनियाँ हैं चमक रही

पराया कर गया अंदाज़ उनका

इतिहास हमारा

इतिहास हमारा स्वर्णिम था, या था समस्याओं का काल

किसने देखा, किसने जाना, बस पढ़ा-सुना कुछ हाल

गल्प कथाओं से भरा, सत्य है या कल्पना कौन कहे

यूँ ही लड़ते-फिरते हैं, निकाल रहे बस बाल की खाल

झूठे रिश्तों की आड़ में
नदियाँ सूख जाती हैं सागर उफ़नते रहते हैं

मन कुंठित होता है, हम फिर भी हंसते रहते हैं

सूखे पत्ते उड़ते हैं, गिरते हैं, ठौर नहीं मिलता

झूठे रिश्तों की आड़ में हम मन बहलाये रहते हैं।

ठहरा-सा लगता है  जीवन

नदिया की धाराओं में टकराव नहीं है

हवाओं के रुख वह में झनकार नहीं है

ठहरा-ठहरा-सा लगता है अब जीवन

जब मन में ही अब कोई भाव नहीं हैं

आदान-प्रदान का युग है

जरूरी नहीं कि शिखर पर बैठा हर इंसान उत्थान का प्रतीक को

जाने कौन-सी सीढ़ियां चढ़ा, कहां पग धरा, अनुगमन की लीक हो

पद, पदक, सम्मान, उपाधियाँ सदा उपलब्धियों की प्रतीक नहीं होते

आदान-प्रदान का युग है, ले-देकर काम चल रहा, यही सीख हो

हंसते-हंसते जी लेना

हंसते-हंसते जी लेना

खुशियों के घूंट पी लेना

क्या होता है जग में

हमको क्या लेना-देना

 

 

 

 

जीवन संवर जायेगा

जब हृदय की वादियों में

ग्रीष्म ऋतु हो

या हो पतझड़,

या उलझे बैठे हों

सूखे, सूनेपन की झाड़ियों में,

तब

प्रकृति के

अपरिमित सौन्दर्य से

आंखें दो-चार करना,

फिर देखना

बसन्त की मादक हवाएँ

सावन की झड़ी

भावों की लड़ी

मन भीग-भीग जायेगा

अनायास

बेमौसम फूल खिलेंगे

बहारें छायेंगी

जीवन संवर जायेगा।

 

उल्लू बोला मिठू से

उल्लू बोला मिठू से

चल आज नाम बदल लें

तू उल्लू बन जा

और मैं बनता हूँ तोता,

फिर देखें जग में

क्या-क्या होता।

जो दिन में होता

गोरा-गोरा,

रात में होता काला।

मैं रातों में जागूँ

दिन में सोता

मैं निद्र्वंद्व जीव

न मुझको देखे कोई

न पकड़ सके कोई।

-

आजा नाम बदल लें।

-

फिर तुझको भी

न कोई पिंजरे में डालेगा,

और आप झूठ बोल-बोलकर

तुझको न बोलेगा कोई

हरि का नाम बोल।

-

चल आज नाम बदल लें

चल आज धाम बदल लें

कभी तू रातों को सोना

कभी मैं दिन में जागूँ

फिर छानेंगे दुनिया का

सच-झूठ का कोना-कोना।

 

पर उपदेश कुशल बहुतेरे
यह मुहावरा सुना तो बहुत बार था किन्तु कभी इसकी गुणवत्ता की ओर ध्यान ही नहीं गया। धन्यवाद इस मंच का जिसने इस मुहावरे की महत्ता एवं विशेषताओं पर चिन्तन करने का अवसर प्रदान किया।

पर उपदेश कुशल बहुतेरे!!

वाह!!

इसका अर्थ यह है कि जो कुशल होगा वही तो पर को अर्थात अन्य को बहुत सारे उपदेश दे सकेगा। जो कुशल ही नहीं है वह किसी को क्या उपदेश देगा और क्या मार्ग-दर्शन करेगा।

हम जीवन में कोई भी कार्य करते हैं हमारी जवाबदेही तय होती है। घर-परिवार में, समाज में, नौकरी में, कार्यालय में, व्यवसाय में, सड़क पर चलते हुए, हर जगह, हर जगह। हानि-लाभ, अच्छा-बुरा, खरा-खोटा, उत्तर-प्रति-उत्तर, लिखित, मौखिक। हम बच नहीं पाते।

किन्तु उपदेश देने में किसी उत्तरदायित्व का वहन नहीं होता। आप उपदेश दीजिए, चाय-नाश्ता  लीजिए और निकल लीजिए। किन्तु ध्यान रहे कि न तो अपने घर बुलाकर उपदेश दीजिए और न किसी उपवन-बात में। जिसे उपदेश देना हो सीधे उसके घर जाकर ही स्थापित रहिए। उपदेशात्मक संस्था खोल लीजिए, दान-दक्षिणा लीजिए, दिल खोलकर परामर्श दीजिए।

किन्तु बस पहले से ही बचने का उपाय बांधकर चलिए।

कुछ ऐसे ‘‘ देखिए मैं तो अपने मन से एक अच्छा परामर्श आपको दे रहा हूँ /दे रही हूँ, यह तो आप पर और परिस्थितियों पर निर्भर करता है कि फ़लित हो। और आपकी मनोभावनाओं का भी इस पर प्रभाव रहेगा। बस कोई कमी नहीं रहनी चाहिए हमारे बताये उपाय में। ’’

और जब आपका बताया परामर्श फ़लित न हो तो आपके पास पहले से ही तैयार  उत्तर होगा कि ‘‘देखिए मैंने तो पहले ही कहा था कि मन से कीजिएगा, अथवा आपने कोई न कोई विधि तो छोड़ दी होगी। ’’

और साथ ही कुछ अगली सलाहें परोस दीजिए।। और आप जब अपना समय दे रहे हैं, दिमाग़ दे रहे हैं तो कुछ न कुछ मूल्य तो लेंगे ही, चाहे अच्छा चाय-पानी ही।

किन्तु यह उपदेश मैं आप सब मित्रों को दे रही हूँ, मेरे अपने लिए नहीं है।

  

 

अपनेपन की दुविधा

हमारे भारतीय परिवारों में दो ऐसे समय होते हैं जब निकट-दूर के सब अपरिचित-परिचित अगली-पिछली भूलकर एक साथ होते हैं अथवा कहें कि दिखाई देते हैं। एक
विवाह-समारोहों में और दूसरा किसी के निधन पर। विवाह-समारोह तो केवल दो-तीन दिन के ही होते हैं, और इस अवसर वे ही लोग होते हैं, जिन्हें सही से निमन्त्रित किया गया हो।
किन्तु किसी के निधन पर तो 16-17 दिन ऐसे लोगों के बीच बीतते हैं, जिनमें से कुछ बहुत अपने होते हैं। कुछ कभी-कभार चिट्ठी-पत्री जैसे, जिनका नाम देखकर हम बन्द लिफ़ाफा रख देते हैं, बाद में पढ़ लेंगे। कुछ समाचार पत्र की सूचनाओं जैसे, कुछ दीपावली, जन्मदिवस, नये वर्ष पर शुभकामनाओं जैसे, और कुछ ऐसे जिन्हें हम बरसों-बरस नहीं मिले होते, और कुछ ऐसे जो न जाने कहां-कहां से अलमारी की पुरानी पुस्तकों से निकलकर सामने आ खड़े होते हैं । ऐसी पुस्तकें जिन्हें हम न तो रद्दी में बेच पाते हैं और न सहेज पाते हैं, इसलिए अलमारी के किसी कोने में पीछे-से रख देते हैं। और ऐसी ही दो-चार अधूरी पढ़ी, छूटी पुस्तकों के माध्यम से हम जीवन के सारे अध्याय पुन: पढ़ डालते हैं न चाहते हुए भी।
जीवन में कौन साथ है और कौन नहीं, हम कभी जान ही नहीं पाते और हमें ही कोई कितना जान पाया है, ऐसे ही समय ज्ञात होता है। बस हवाओं में जीते हैं, हवाओं से लड़ते हैं, और उन्हें ही ओढ़-बिछाकर सो जाते हैं।

निजी एवं सरकारी विद्यालयों में शिक्षा का स्तर
मेरे विचार में यदि केवल एक नियम बना दिया जाये कि सभी सरकारी विद्यालयों के अध्यापकों के बच्चे उनके अपने ही विद्यालय में शिक्षा ग्रहण करेंगे तो इन विद्यालयों के अध्यापक स्वयं ही शिक्षा के स्तर को सुधारने का प्रयास करेंगे।

निजी विद्यालयों एवं सरकारी विद्यालयों में शिक्षा के स्तर में अन्तर के मुख्य कारण मेरे विचारानुसार ये हैं:

निजी विद्यालयों में स्थानान्तरण नहीं होते, अवकाश भी कम होते हैं तथा  जवाबदेही सीधे सीधे एवं तात्कालिक होती है।

निजी विद्यालयों में प्रवेश ही चुन चुन कर अच्छे विद्यार्थियों को दिया जाता है चाहे वह प्रथम कक्षा ही क्यों न हो।

कमज़ोर विद्यार्थियों को बाहर का रास्ता दिखा  दिया जाता है।

- भारी भरकम वेतन पर अध्यापकों की नियुक्ति, मिड डे मील,यूनीफार्म आदि बेसिक सुविधाओं से शिक्षा का स्तर नहीं उठाया जा सकता। बदलती सामाजिक व्यवस्था के अनुरूप शिक्षा के बदलते मानदण्डों , शिक्षा की नवीन पद्धति, समयानुकूल पाठ्यक्रमों में परिवर्तन की ओर जब तक ध्यान नहीं दिया जायेगा सरकारी विद्यालयों की शिक्षा पिछड़ी ही रहेगी।

, यदि हम यह मानते हैं कि निजी विद्यालयों में शिक्षा का स्तर बहुत अच्छा है तो यह हमारी भूल है। वर्तमान में निजी विद्यालयों में भी शिक्षा नाममात्र रह गई है। क्योंकि यहां उच्च वर्ग के बच्चे पढ़ते हैं तो वे ट्यूशन पर ही निर्भर होते हैं। निजी विद्यालयों में तो नाम, प्रचार, अंग्रेज़ी एवं अन्य गतिविधियों की ओर ही ज़्यादा ध्यान दिया जाने लगा है।

सबसे बड़ी बात यह कि हम निजी विद्यालयों की शिक्षा पद्धति एवं शिक्षा नीति को बहुत अच्छा समझने लग गये हैं । किन्तु वास्तव में यहाँ प्रदर्शन अधिक है। इसमें कोई संदेह नहीं कि निजी विद्यालयों की तुलना में सरकारी विद्यालय पिछड़े हुए दिखाई देते हैं किन्तु इसका कारण केवल सरकारी अव्यवस्था, अध्यापकों पर शिक्षा के स्तर को बनाये रखने के लिए किसी भी प्रकार के दबाव का न होना एवं निम्न मध्यवर्गीय परिवारों के बच्चों का ही इन विद्यालयों में प्रवेश लेना, जिनकी पढ़ाई में अधिक रुचि ही नहीं होती।

मेरे विचार में कमी व्यवस्था में है। सरकार विद्यालय दूर दराज के क्षेत्रों में भी हैं जहां कोई भी जाना नहीं चाहता।

भ्रष्टाचार पर चर्चा
जब हम भ्रष्टाचार की बात करते हैं और  दूसरे की ओर अंगुली उठाते हैं तो चार अंगुलियाँ स्वयंमेव ही अपनी ओर उठती हैं जिन्हें हम स्वयं ही नहीं देखते। यह पुरानी कहावत है।

वास्तव में हम सब भ्रष्टाचारी हैं। बात बस इतनी है कि जिसकी जितनी औकात है उतना वह भ्रष्टाचार कर लेता है। किसी की औकात 100 रुपये की है तो किसी की 100 करोड़ की। किन्तु 100 रुपये वाला स्वयं को ईमानदार कहता है। हम मंहगाई की बात करते हैं किन्तु सुविधाभेागी हो गये हैं। बिना कष्ट उठाये धन से हर कार्य करवा लेना चाहते हैं। हमें दूसरे का भ्रष्टाचार भ्रष्टाचार लगता है और  अपना आवश्यकता, विवशता।

यदि हम अपनी ओर उठने वाली चार अंगुलियों के प्रश्न और  उत्तर दे सकें तो शायद हम भ्रष्टाचार के विरूद्ध अपना योगदान दे सकते हैं:

पहली अंगुली मुझसे पूछती है: क्या मैं विश्वास से कह सकती हूँ कि मैं भ्रष्टाचारी नहीं हूँ ।

दूसरी अंगुली कहती है: अगर मैं भ्रष्टाचारी नहीं हूं तो क्या भ्रष्टाचार का विरोध करती हूँ ?

तीसरी अंगुली कहती है: कि अगर मैं भ्रष्टाचारी नहीं हूं किन्तु भ्रष्टाचार का विरोध नहीं करती तो मैं उनसे भी बड़े भ्रष्टाचारी हूँ ।

और  अंत में  चौथी अंगुली कहती है: अगर मैं भी भ्रष्टाचारी हूं तो सामने की अंगुली को भी अपनी ओर मोड़ लेना चाहिए और  मुक्का बनाकर अपने पर वार करना चाहिए। दूसरों को दोष देने और   सुधारने से पहले पहला कदम अपने प्रति उठाना होगा।

  

आदान-प्रदान का युग है
जरूरी नहीं कि शिखर पर बैठा हर इंसान उत्थान का प्रतीक हो

जाने कौन-सी सीढ़ियां चढ़ा, कहां पग धरा, अनुगमन की लीक हो

पद, पदक, सम्मान, उपाधियाँ सदा उपलब्धियों की प्रतीक नहीं होते

आदान-प्रदान का युग है, ले-देकर काम चल रहा, यही सीख हो

कर लो नारी पर वार

जब कुछ न लिखने को मिले तो कर लो नारी पर वार।

वाह-वाही भरपूर मिलेगी, वैसे समझते उसको लाचार।

कल तक माँ-माँ लिख नहीं अघाते थे सारे साहित्यकार

आज उसी में खोट दिखे, समझती देखो पति को दास

पत्नी भी माँ है क्यों कभी नहीं देख पाते हो तुम

यदि माता-पिता को वृद्धाश्रम भेजा, किसका है यह दोष

परिवारों में निर्णय पर हावी होते सदा पुरुष के भाव

जब मन में आता है कर लेते नारी के चरित्र पर प्रहार।

लिखने से पहले मुड़ अपनी पत्नी पर दृष्टि डालें एक बार ।

अपने बच्चों की माँ के मान की भी सोच लिया करो कभी कभार

 

शुभकामना संदेश
एक समय था

जब हम

हाथों से कार्ड बनाया करते थे

रंगों और मन की

रंगीनियों से सजाया करते थे।

अच्छी-अच्छी शब्दावली चुनकर

मन के भाव बनाया करते थे।

लिफ़ाफ़ों पर

सुन्दर लिखावट से

पता लिखवाया करते थे।

और प्रतीक्षा भी रहती थी

ऐसे ही कार्ड की

मिलेंगे किसी के मन के भावों से

सजे शुभकामना संदेश।

फिर धन्यवाद का पत्र लिखवाया करते थे।

.

समय बदला

बना-बनाया कार्ड आया

मन के रंग

बनाये-बनाये शब्दों के संग

बाज़ार में मिलने लगे

और हम अपने भावों को

छपे कार्ड पर ही समझने लगे।

.

और अब

भाव नहीं

शब्द रह गये

बने-बनाये चित्र

और नाम रह गये।

न कलम है, न कार्ड है

न पत्र है, न तार है

न टिकट है न भार है

न व्यय है

न समय की मार है

पल भर का काम है

सैंकड़ों का आभार है

ज़रा-सी अंगुली चलाईये

एक नहीं,

बीसियों

शुभकामना संदेश पाईये

औपचारिकताएँ निभाईये

काॅपी-पेस्ट कीजिए

एक से संदेश भेजिए

और एक से संदेश पाईये