क्या यह दृष्टि-भ्रम है

क्या यह दृष्टि-भ्रम है ?

मुझे नहीं दिखती

गहन जलप्लावन में

सिर पर टोकरी रखे

बच्चे के साथ गहरे पानी में

कोई माँ, डूबती-सी।

-

नहीं अनुभव होता मुझे

किसी किशन कन्हैया

नंद बाबा

यशोदा मैया या देवकी का।

-

शायद बहुत भावशून्य हूँ मैं,

आप कह सकते हैं।

-

मुझे दिखती हैं

अव्यवस्थाएँ

महलों में बनती योजनाएँ

दूरबीन से देखते

डूबता-तिरता आम आदमी

बोतलों में बन्द पानी

विमान से बनाते बांध

आकाश से गिरता भोजन।

-

कुछ दिन में आप ही

निकल जायेगा जल

सम्हल जायेगा आम आदमी

अगले वर्ष की प्रतीक्षा में।

-

लेकिन बस इतना ध्यान रहे

विभीषिका नाम, स्थान,

समय और काल नहीं देखती।

झोंपड़िया टूटती हैं

तो महल भी बिखर जाते हैं।

 

जल-विभाग इन्द्र जी के पास

मेरी जानकारी के अनुसार

जल-विभाग

इन्द्र जी के पास है।

कभी प्रयास किया था उन्होंने

गोवर्धन को डुबाने का

किन्तु विफ़ल रहे थे।

उस युग में

कृष्ण जी थे

जिन्होंने

अपनी कनिष्का पर

गोवर्धन धारण कर

बचा लिया था

पूरे समाज को।

.

किन्तु इन्द्र जी,

इस काल में कोई नहीं

जो अपनी अंगुली दे

समाज हित में।

.

इसलिए

आप ही से

निवेदन है,

अपने विभाग को

ज़रा व्यवस्थित कीजिए

काल और स्थान देखकर

जल की आपूर्ति कीजिए,

घटाओं पर नियन्त्रण कीजिए

कहीं अति-वृष्टि

कहीं शुष्कता को

संयमित कीजिए

न हो कहीं कमी

न ज़्यादती,

नदियाँ सदानीरा

और धरा शस्यश्यामला बने,

अपने विभाग को

ज़रा व्यवस्थित कीजिए।

 

 

मन  उलझ रहा

आंखों में काजल है नभ पर बादल हैं

भाव बहक रहे ये दिल तो पागल है

रिमझिम बरखा में मन क्यों उलझ रहा

उनकी यादों में मन विचलित, घायल है

सुनो कृष्ण

सुनो कृष्ण !

मैं नहीं चाहती

किसी द्रौपदी को

तुम्हें पुकारना पड़े।

मैं नहीं चाहती

किसी युद्ध का तुम्हें

मध्यस्थ बनना पड़े।

नहीं चाहती मैं

किसी ऐसे युद्ध के

साक्षी बनो तुम

जहाँ तुम्हें

शस्त्र त्याग कर

दर्शक बनना पड़े।

नहीं चाहती मैं

तुम युद्ध भी न करो

किन्तु संचालक तुम ही बनो।

मैं नहीं चाहती

तुम ऐसे दूत बनो

जहाँ तुम

पहले से ही जानते हो

कि निर्णय नहीं होगा।

मैं नहीं चाहती

गीता का

वह उपदेश देना पड़े तुम्हें

जिसे इस जगत में

कोई नहीं समझता, सुनता,

पालन करता।

मैं नहीं चाहती

कि तुम इतना गहन ज्ञान दो

और यह दुनिया

फिर भी दूध-दहीं-ग्वाल-बाल

गैया-मैया-लाड़-लड़ैया में उलझी रहे,

राधा का सौन्दर्य

तुम्हारी वंशी, लालन-पालन

और तुम्हारी ठुमक-ठुमैया

के अतिरिक्त उन्हें कुछ स्मरण ही न रहे।

तुम्हारा चक्र, तुम्हारी शंख-ध्वनि

कुछ भी स्मरण न करें,

 

न करें स्मरण

युद्धों का उद्घोष

समझौतों का प्रयास

अपने-पराये की पहचान की समझ,

न समझें तुम्हारी निर्णय-क्षमता

अपराधियों को दण्डित करने की नीति।

झुकने और समझौतों की

क्या सीमा-रेखा होती है

समझ ही न सकें।

मैं नहीं चाहती

कि तुम्हारे नाम के बहाने

उत्सवों-समारोहों में

इतना खो जायें

तुम पर इतना निर्भर हो जायें

कि तनिक-से कष्ट में

तुम्हें पुकारते रहें

कर्म न करें,

प्रयास न करें,

अभ्यास न करें।

तुम्हारे नाम का जाप करते-करते

तुम्हें ही भूल जायें,

बस यही नहीं चाहती मैं

हे कृष्ण !

 

 

उनकी यादों में

क्यों हमारे दिन सभी मुट्ठियों से फ़िसल जायेंगे

उनकी यादों में जीयेंगे, उनकी यादों में मर जायेंगे

मरने की बात न करना यारो, जीने की बात करें

दिल के आशियाने में उनकी एक तस्वीर सजायेंगे।

रंग-बिरंगी  ज़िन्दगी

इन पत्तों में रंग-बिरंगी दिखती है ज़िन्दगी

इन पत्तों-सी उड़ती-फिरती है ये जिन्दगी

कब झड़े, कब उड़े, हुए रंगहीन, क्या जानें

इन पत्तों-सी धरा पर उतार लाती है जिन्दगी।

मुस्कानों को नहीं छीन सकता कोई

ज़िन्दगियाँ पानी-पानी हो रहीं

जंग खातीं काली-काली हो रहीं

मुस्कानों को नहीं छीन सकता कोई

चाहें थालियाँ खाली-खाली हो रहीं।

दिन सभी मुट्ठियों से फ़िसल जायेंगे
किसी ने मुझे कह दिया

दिन

सभी मुट्ठियों से

फ़िसल जायेंगे,

इस डर से

न जाने कब से मैंने

हाथों को समेटना

बन्द कर दिया है

मुट्ठियों को

बांधने से डरने लगी हूँ।

रेखाएँ पढ़ती हूँ

चिन्ह परखती हूँ

अंगुलियों की लम्बाई

जांचती हूँ,

हाथों को

पलट-पलटकर देखती हूँ

पर मुट्ठियाँ बांधने से

डरने लगी हूँ।

इन छोटी -छोटी

दो मुट्ठियों में

कितने समेट लूँगी

जिन्दगी के बेहिसाब पल।

अब डर नहीं लगता

खुली मुट्ठियों में

जीवन को

शुद्ध आचमन-सा

अनुभव करने लगी हूँ,

जीवन जीने लगी हूँ।

 

यादें बिखर जाती हैं

पन्ने खुल जाते हैं

शब्द मिट जाते हैं

फूल झर जाते हैं

सुगंध उड़ जाती है

यादें बिखर जाती हैं

लुटे भाव रह जाते हैं

मन में बजे सरगम
मस्ती में मनमौजी मन

पायल बजती छन-छनछन

पैरों की अनबन

बूँदों की थिरकन

हाथों से छल-छल

जल में

बनते भंवर-भंवर

हल्की-हल्की छुअन

बूँदों की रागिनी

मन में बजती सरगम।

करते रहते हैं  बातें
बढ़ती आबादी को रोक नहीं पाते

योजनाओं पर अरबों खर्च कर जाते

शिक्षा और जानकारियों की है कमी

बैठे-बैठे बस करते रहते हैं हम बातें

मोती बनीं सुन्दर
बूँदों का सागर है या सागर में बूँदें

छल-छल-छलक रहीं मदमाती बूँदें

सीपी में बन्द हुईं मोती बनीं सुन्दर

छू लें तो मानों डरकर भाग रही बूँदें

हरपल बदले अर्थ यहाँ
शब्दों के अब अर्थ कहाँ, सब कुछ लगता व्यर्थ यहाँ

कहते कुछ हैं, करते कुछ है, हरपल बदले अर्थ यहाँ

भाव खो गये, नेह नहीं, अपनेपन की बात नहीं अब

किसको मानें, किसे मनायें, इतनी अब सामर्थ्य कहाँ

मन को किसी गह्वर में रखना है मुझे

कल तक

एक घर मेरा था।

आज अचानक

सब बदल गया।

-

यह रूप-श्रृंगार

यह स्वर्ण-माल

मेरे

अगले जीवन का आधार

एक नया परिवार।

-

मात्र, एक पल लगा

मुझे एक से

दूसरे में बदलने में।

नाम-धाम सब सिमटने में।

-

नये सम्बन्ध, नये भाव

नये कर्तव्य और

पता नहीं कितने अधिकार।

सुना करती थी

बचपन से

पराया धन ! पराया धन !!

आज समझ पाई।

-

यह एक पल

न काम आती है

शिक्षा, न ज्ञान, न अभिमान

बस जीवन-परिवर्तन।

नहीं जानती

क्या मिला, क्या पाया, क्या खोया।

-

एक परिवार था मेरे पास

उसे मैं अपने जीवन के

पच्चीस वर्षों में न समझ पाई

किन्तु

एक नये परिवार को समझने के लिए

मुझे नहीं मिलेंगे

पच्चीस मिनट भी।

शायद पच्चीस पल में ही

मुझे सम्हालने होंगे

सारे नये सम्बन्ध

नये भाव, नया घर, नये लोग,

नई आशाएँ, आकांक्षाएँ।

-

मस्तिष्क एक डायरी बन गया।

-

पिछला क्या-क्या भूल जाना है मुझे

तिलांजलि देनी है

कौन-से सम्बन्धों को

और नया

क्या-क्या याद रखना है मुझे,

कितने कदम पीछे हटना है मुझे

कितने कदम आगे बढ़ना है मुझे।

ड्योढ़ी से अन्दर कदम रखते ही

ज्ञात हो जाना चाहिए सब मुझे।

रिश्तों के नये ताने-बाने को

संवारना है मुझे

सबकी भूख-प्यास का हिसाब

रखना है मुझे

अपने मन को किसी गह्वर में रखना है मुझे।

धागों का रिश्ता
कहने को कच्चे धागों का रिश्ता, पर मज़बूत बड़ा होता है

निःस्वार्थ भावों से जुड़ा यह रिश्ता बहुत अनमोल होता है

भाई यादों में जीता है जब बहना दूर चली चली जाती है

राखी-दूज पर मिलने आती है, तब आनन्द दूना होता है।

कोई हमें क्यों रोक रहा
आँख बन्द कर सोने में मज़ा आने लगता है।

बन्द आँख से झांकने में मज़ा आने लगता है।

पकी-पकाई मिलती रहे, मुँह में ग्रास आता रहे

कोई हमें क्यों रोक रहा, यही खलने लगता है

सुन्दर-सुन्दर दुनियाd
परीलोक के सपने मन में 

झूला झूलें नील गगन में

सुन्दर-सुन्दर दुनिया सारी

चंदा-तारों संग मन मगन में

मानसून की आहट
मानसून की आहट डराने लगी है

गलियों में तालाब दिखाने लगी है

मेंढक टर्राते हैं रात भर नींद कहाँ

मच्छरों की भिन-भिन सताने लगी है।

पछताते लोग

झूठी शान जताते लोग

बातें खूब बनाते लोग

खुलती पोल सिर झुकता

तब देखो पछताते लोग

विश्वास का एहसास

हर दिन रक्षा बन्धन का-सा हो जीवन में

हर पल सुरक्षा का एहसास हो जीवन में

कच्चे धागों से बंधे हैं जीवन के सब रिश्ते

इन धागों में विश्वास का एहसास हो जीवन में

विश्वास का धागा

 भाई-बहन का प्यार है राखी

रिश्तों की मधुर सौगात है राखी

विश्वास का एक धागा होता है

अनुपम रिश्तों का आधार है राखी

मन में भक्ति

कांवड़ियों की भीड़ बड़ी, शिव के जयकारे लगते

सावन माह में दूर-दूर से पग-पग आगे देखो बढ़ते

मन में भक्ति, धूप-छांव, झड़ी न रोके उनकी राह

गंगा से शुद्ध जल लाकर शिव का ये अभिषेक करते

जीवन संघर्ष
 प्रदर्शन नहीं, जीवन संघर्ष की विवशता है यह

रोज़ी-रोटी और परवरिश का दायित्व है यह

धूप की माया हो, या हो आँधी-बारिश, शिशिर

कठोर धरा पर निडर पग बढ़ाना, जीवन है यह

तेरा ख़याल
उदास कर जाता है तेरा ख़याल

यादों में ले जाता है तेरा ख़याल

यूँ लगता है मानों युग बीत गये

मिलन की आस है तेरा ख़याल

बेकरार दिल
दिल हो रहा बड़ा बेकरार

बारिश हो रही मूसलाधार

भीग लें जी भरकर आज

न रोक पाये हमें तेज़ बौछार

सखियाँ झूला झूलें
हिलमिल सखियाँ झूला झूलें 

कभी धरा, कभी गगन छू लें

फुहारें मन मुदित कर रहीं

खुशियों के भर-भर घूंट पी लें

अपने मन की सुन

अपने-आपको

अपनी नज़र से

देखना-परखना

अपने सौन्दर्य पर

आप ही मोहित होना

कभी केवल

अपने लिए सजना-संवरना

दर्पण से बात करना

अपनी मुस्कुराहट से

आनन्दित होना

फूलों-सा महकना

रंगों की रंगीनियों में बहकना

चूड़ियों का खनकना

हार का लहकना

झुमकों की खनखन

पल्लू की थिरकन

मन में गुनगुन

बस अपने मन की सुन।

 

एक ज्योति

रातें

सदैव काली ही होती हैं

किन्तु उनके पीछे

प्रकाशमान होती है

एक ज्योति

राहें आलोकित करती

पथ प्रदर्शित करती

उभरती हैं किरणें

धीरे-धीरे

एक चक्र तैयार करतीं

हमारे हृदय में

दिव्य आभा का संचार करतीं

जीवनामृत प्रदान करतीं।

औरत की दुश्मन औरत
एक बहुत प्रसिद्ध कहावत है कि औरत औरत की दुश्मन होती है। बड़ी सरलता से हमारे समाज में, व्यवहार में, परिवारों में, महिलाओं का उपहास करने के लिए इस वाक्य का प्रयोग किया जाता है।

कारण प्रायः केवल सास-बहू के बनते-बिगड़ते सम्बन्धों के आधार पर सत्यापित किया जाता है। अथवा कभी-कभी ननद-भाभी की परस्पर अनबन को लेकर।

किन्तु जितनी कहानियाँ हमारे समाज में इस तरह की बुनी जाती रही हैं और महिलाओं को इन कहानियों द्वारा अपमानित किया जाता है वे सत्य में कितनी हैं? क्या हम ही अपने परिवारों में देखें तो कितनी महिलाएँ परिवारों में दुश्मनों की तरह रह रही हैं। और केवल परिवारों में ही नहीं, समाज में, कार्यस्थलों में, राहों में , कहीं भी इस वाक्य को सुनाकर महिलाओं का अपमान कर दिया जाता है।

अनबन पिता-पुत्र में भी होती है, भाईयों में भी होती है, विशेषकर कार्यस्थलों में तो बहुत ही गहन ईर्ष्या-द्वेष भाव होता है किन्तु कोई नहीं कहता कि आदमी आदमी का दुश्मन है।

ऐसा क्यों ? क्यों महिलाओं के विरुद्ध इस तरह की कहावतें, मुहावरे बने हैं?

 कहने को कुछ भी कह लें कि समाज बदल गया है, परिवारों में अब लड़का-लड़की समान हैं किन्तु कहीं एक क्षीण रेखा है जो भेद-भाव बताती है।

एक युवती अपना वह घर छोड़कर जाती है जहां उसने परायों की तरह  बीस पच्चीस वर्ष बिताये हैं कि यह उसका घर नहीं है। और  जिस घर में प्रवेश करती है वहां उसके लिए नये नियम.कानून पहले ही निर्धारित होते हैं जिनको उसे तत्काल भाव से स्वीकार करना होता है, मानों बिजली का बटन है वह, कि इस कमरे की बत्ती बुझाई और  उस कमरे की जला दी। उसे अपने आपको नये वातावरण में स्थापित करने में जितना अधिक समय लगता है उतनी ही वह बुरी होती जाती है।

वास्तव में यदि सास-बहू अथवा ननद-भाभी की अनबन देखें तो वह वास्तव में अधिकार की लड़ाई है। एक युवती को मायके में अधिकार नहीं मिलते, वहाँ भाई और पिता ही सर्वोपरि होते हैं। ससुराल में वह इस आशा के साथ प्रवेश करती है कि यह उसका घर है और यहाँ उसके पास अधिकार होंगे। किन्तु उसके प्रवेश के साथ ही सास और ननद के मन में भय समा जाता है कि उनके अधिकार जाते रहेंगे। और उनकी इस मनोवैज्ञानिक समस्या में परिवार के पुरुषों का व्यवहार प्रायः आग में घी का काम करता है। वे न किसी का सहयोग देते हैं, न उचित पक्ष लेते हैं, न राह दिखाते हैं, बस औरतें तो होती ही ऐसी हैं कह कर पतली गली से निकल लेते हैं।

कभी आपने सुना कि माँ ने बेटी को घर से निकाल दिया अथवा इसके विपरीत। अथवा बेटी ने सम्पत्ति के लिए माँ के विरुद्ध कार्य किया। किन्तु पुरुषों में आप नित्य-प्रति कथाएँ सुनते हैं कि भाई भाई को मार डालता है, बेटा सम्पत्ति के लिए पिता की हत्या कर देता है। चाचे-भतीजे की लड़ाईयाँ। ज़रा-सा पढ़-लिख जाता है तो उसे अपने माता-पिता पिछड़े दिखाई देने लगते हैं ऐसी सत्य अनगिनत कथाएं हम जानते हैं, किन्तु कोई नहीं कहता कि आदमी आदमी का दुश्मन होता है। आज भी नारी: पुरूष अथवा परिवार की पथगामिनी ही है, वह अपने चुने मार्ग पर कहां चल पाती है। हां, परिवार में कुछ भी गलत हो तो आरोपी वही होती है। मां-बेटे, पिता-पुत्र, अन्य सम्बन्धियों के साथ कुछ भी बिगड़े, दोषारोपण नारी पर ही आता है।

दुख इस बात का कि हम स्वयं ही अपने विरूद्ध सोचने लगे हैं क्योंकि हमारा समाज हमारे विरूद्ध सोचता है।

  

हमारा बायोडेटा

हम कविता लिखते हैं।
कविता को गज़ल, गज़ल को गीत, गीत को नवगीत, नवगीत को मुक्त छन्द, मुक्त छन्द को मुक्तक,

मुक्तक को चतुष्पदी बनाना जानते हैं और  ज़रूरत पड़े तो इन सब को गद्य की सभी विधाओं में भी

परिवर्तित करना जानते हैं। 
जैसे कृष्ण ने गीता में लिखा है कि वे ही सब कुछ हैं, वैसे ही मैं ही लेखक हूँ ,

मैं ही कवि, गीतकार, गज़लकार, साहित्यकार, गद्य पद्य की रचयिता,

कहानी लेखक, प्रकाशक , मुद्रक, विक्रेता, क्रेता, आलोचक,

समीक्षक भी मैं ही हूँ ,मैं ही संचालक हूँ , मैं ही प्रशासक हूँ ।
अहं सर्वत्र रचयिते