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More Articles
प्रकृति का सौन्दर्य निरख
सांसें
जब रुकती हैं,
मन भीगता है,
कहीं दर्द होता है,
अकेलापन सालता है।
तब प्रकृति
अपने अनुपम रूप में
बुलाती है
समझाती है,
खिलते हैं फूल,
तितलियां पंख फैलाती हैं,
चिड़िया चहकती है,
डालियां
झुक-झुक मन मदमाती हैं।
सब कहती हैं
समय बदलता है।
धूप है तो बरसात भी।
आंधी है तो पतझड़ भी।
सूखा है तो ताल भी।
मन मत हो उदास
प्रकृति का सौन्दर्य निरख।
आनन्द में रह।
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इसे राजनीति कहते हैं
आजकल हम
एक अंगुली से
एक मशीन पर
टीका करते हैं,
किसी की
कुर्सी खिसक जाती है,
किसी की टिक जाती है।
कभी सरकारें गिर जाती हैं,
कभी खड़ी हो जाती हैं।
हम हतप्रभ से
देखते रह जाते हैं,
हमने तो किसी और को
टीका किया था,
अभिषेक
किसी और का चल रहा है।
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मन आनन्दित होता है
लेन-देन में क्या बुराई
जितना चाहो देना भाई
मन आनन्दित होता है
खाकर पराई दूध-मलाई
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जीना है तो बुझी राख में भी आग दबाकर रखनी पड़ती है
मन के गह्वर में एक ज्वाला जलाकर रखनी पड़ती है
आंसुओं को सोखकर विचारधारा बनाकर रखनी पड़ती है
ज़्यादा सहनशीलता, कहते हैं निर्बलता का प्रतीक होती है
जीना है तो, बुझी राख में भी आग दबाकर रखनी पड़ती है
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कुछ तो करवा दो सरकार
कुएँ बन्द करवा दो सरकार।
अब तो मेरे घर नल लगवा दो सरकार।
इस घाघर में काम न होते
मुझको भी एक सूट सिलवा दो सरकार।
चलते-चलते कांटे चुभते हैं
मुझको भी एक चप्पल दिलवा दो सरकार।
कच्ची सड़कें, पथरीली धरती
कार न सही,
इक साईकिल ही दिलवा दो सरकार।
मैं कोमल-काया, नाज़ुक-नाज़ुक
तुम भी कभी घट भरकर ला दो सरकार।
कान्हा-वान्हा, गोपी-वोपी,
प्रेम-प्यार के किस्से हुए पुराने
तुम भी कुछ नया सोचो सरकार।
शहरी बाबू बनकर रोब जमाते फ़िरते हो
दो कक्षा
मुझको भी अब तो पढ़वा दो सरकार।
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काश ! इंसान वट वृक्ष सा होता
कहते हैं
जड़ें ज़मीन में जितनी गहरी हों
वृक्ष उतने ही फलते-फूलते हैं।
अपनी मिट्टी की पकड़
उन्हें उर्वरा बनाये रखती है।
किन्तु वट-वृक्ष !
मैं नहीं जानती
कि ज़मीन के नीचे
इसकी कहां तक पैठ है।
किन्तु इतना समझती हूं
कि अपनी जड़ों को
यह धरा पर भी ले आया है।
डाल से डाल निकलती है
उलझती हैं,सुलझती हैं
बिखरती हैं, संवरती हैं,
वृक्ष से वृक्ष बनते हैं।
धरा से गगन,
और गगन से धरा की आेर
बार-बार लौटती हैं इसकी जड़ें
नव-सृजन के लिए।
-
बस
इंसान की हद का ही पता नहीं लगता
कि कितना ज़मीन के उपर है
और कितना ज़मीन के भीतर।
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मुखौटे चढ़ाए बेधड़क घूमते हैं
अब
मुखौटे हाथ में लिए घूमते हैं।
डर नहीं रह गया अब,
कोई खींच के उतार न दे मुखौटा
और कोई देख न ले असली चेहरा
तो, कहां छिपते फिरेंगे।
मुखौटों की कीमत पहले भी थी
अब भी है।
फ़र्क बस इतना है
कि अब खुलेआम
बोली लगाये घूमते हैं।
मुखौटे हाथ में लिए घूमते हैं।
बेचते ही नहीं,
खरीदते भी हैं ।
और ज़रूरत आन पड़े
तो बड़ों बड़ों के मुखौटे
अपने चेहरे पर चढ़ाए
बेधड़क घूमते हैं।
किसी का भी चेहरा नोचकर
उसका मुखौटा बना
अपने चेहरे पर
चढ़ाए घूमते हैं।
जो इन मुखौटों से मिल सकता है
वह असली चेहरा कहां दे पाता कीमत
इसलिए
अपना असली चेहरा
बगल में दबाये घूमते हैं।
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रूठकर बैठी हूं
रूठकर बैठी हूं
कभी तो मनाने आओ।
आज मैं नहीं,
तुम खाना बनाओ।
फिर चलेंगे सिनेमा
वहां पापकार्न खिलाओ।
चप्पल टूट गई है मेरी
मैंचिंग सैंडल दिलवाओ।
चलो, इसी बात पर आज
आफ़िस से छुट्टी मनाओ।
अरे!
मत डरो,
कि काम के लिए कह दिया,
चलो फिर,
बस आज बाहर खाना खिलाओ।
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जब तक चिल्लाओ न, कोई सुनता नहीं
अब शांत रहने से यहां कुछ मिलता नहीं
जब तक चिल्लाओ न, कोई सुनता नहीं
सब गूंगे-बहरे-अंधे अजनबी हो गये हैं यहां
दो की चार न सुनाओ जब तक, काम बनता नहीं
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प्रेम की एक नवीन धारा
हां, प्रेम सच्चा रहे,
हां , प्रेम सच्चा रहे,
हर मुस्कुराहट में
हर आहट में
रूदन में या स्मित में
प्रेम की धारा बही
मन की शुष्क भूमि पर
प्रेम-रस की
एक नवीन छाया पड़ी।
पल-पल मानांे बोलता है
हर पल नवरस घोलता है
एक संगीत गूंजता है
हास की वाणी बोलता है
दूरियां सिमटने लगीं
आहटें मिटने लगीं
सबका मन
प्रेम की बोली बोलता है
दिन-रात का भान न रहा
दिन में भी
चंदा चांदनी बिखेरने लगा
टिमटिमाने लगे तारे
रवि रात में भी घाम देने लगा
इन पलों का एहसास
शब्दातीत होने लगा
बस इतना ही
हां, प्रेम सच्चा रहे
हां, प्रेम सच्चा लगे