भव्य रावण

क्यों हम

भूलना ही नहीं चाहते

रावण को।

हर वर्ष

कितनी तन्मयता से

स्मरण करते हैं

पुतले बनाते हैं

सजाते हैं

और उनके साथ

कुम्भकरण और मेघनाथ भी

आते हैं

अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित।

नवरात्रों और दशमी पर्व पर

सबसे पहले

रावण को ही

स्मरण करते हैं।

कितना बड़ा मैदान

कैसा मेला

कितने पटाखे

और कितने भव्य हों पुतले।

उस समय

स्मरण ही नहीं आता

कि इस पुतले को

बुराई के प्रतीक के रूप में

बना रहे हैं

जलाने के लिए।

राम और दुर्गा

सब पीछे छूट जाते हैं

और हम

दिनों-दिनों तक याद करते हैं

रावण को,

अह! कितना भव्य था इस बार।

कितनी रौनक थी

और कितना आनन्द आया।

 

 

वरदान और श्राप

किसी युग में

वरदान और श्राप

साथ-साथ चलते थे।

वरदान की आशा में

भक्ति

और कठोर तपस्या करते थे

किन्तु सदैव

कोई भूल

कोई  चूक

ले डूबती थी

सब अच्छे कर्मों को

और वरदान से पहले

श्राप आ जाता था।

और कभी-कभी

इतनी बड़ी गठरी होती थी

भूल-चूक की

कि वरदान तक

बात पहुँच ही नहीं पाती थी

मानों कोई भारी

बैरीकेड लगा हो।

श्राप से वरदान टूटता था

और वरदान से श्राप,

काल की सीमा

अन्तहीन हुआ करती थी।

और एक खतरा

यह भी रहता था

कि पता नहीं कब वरदान

श्राप में परिवर्तित हो जाये

और श्राप वरदान में

और दोनों का घालमेल

समझ ही न आये।

-

बस

इसी डर से

मैं वरदान माँगने का

साहस ही नहीं करती

पता नहीं

भूल-चूक की

कितनी बड़ी गठरी खुल जाये

या श्राप की लम्बी सूची।

-

जो मिला है

उसमें जिये जा

मज़े की नींद लिए जा।

 

नौ दिन बीतते ही

वर्ष में

बस दो बार

तेरे अवतरण की

प्रतीक्षा करते हैं

तेरे रूप-गुण की

चिन्ता करते हैं

सजाते हैं तेरा दरबार

तेरे मोहक रूप से

आंखें नम करते हैं

गुणगान करते हैं

तेरी शक्ति, तेरी आभा से

मन शान्त करते हैं।

दुराचारी

प्रवृत्तियों का

दमन करते हैं।

किन्तु

नौ दिन बीतते ही

तिरोहित कर

भूल जाते हैं

और लौट आते हैं

अपने चिर-स्वभाव में।

 

मन में भक्ति

कांवड़ियों की भीड़ बड़ी, शिव के जयकारे लगते

सावन माह में दूर-दूर से पग-पग आगे देखो बढ़ते

मन में भक्ति, धूप-छांव, झड़ी न रोके उनकी राह

गंगा से शुद्ध जल लाकर शिव का ये अभिषेक करते

धर्म-कर्म के नाम

धर्म-कर्म के नाम पर पाखण्ड आज होय

मंत्र-तंत्र के नाम पर घृणा के बीज बोयें

परम्परा के नाम पर रूढ़ियां पाल रहे हम

किसकी मानें, किसकी छोड़ें, इसी सोच में खोय

 

हे विधाता ! किस नाम से पुकारूं तुम्हें

शायद तुम्हें अच्छा न लगे सुनकर,

किन्तु, आज

तुम्हारे नामों से डरने लगी हूं।

हे विधाता !

कहते हैं, यथानाम तथा गुण।

कितनी देर से

निर्णय  नहीं कर पा रही हूं

किस नाम से पुकारूं तुम्हें।

जितने नाम, उतने ही काम।

और मेरे काम के लिए

तुम्हारा कौन-सा नाम

मेरे काम आयेगा,

समझ नहीं पा रही हूं।

तुम सृष्टि के रचयिता,

स्वयंभू,

प्रकृति के नियामक

चतुरानन, पितामह, विधाता,

और न जाने कितने नाम।

और सुना है

तुम्हारे संगी-साथी भी बहुत हैं,

जो तुम्हारे साथ चलाते हैं,

अनगिनत शस्त्र-अस्त्रों से सुसज्जित।

हे विश्व-रचयिता !

क्या भूल गये

जब युग बदलते हैं,

तब विचार भी बदलते हैं,

सत्ता बदलती है,

संरचनाएं बदलती हैं।

तो

हे विश्व रचयिता!

सामयिक परिस्थितियों में

गुण कितने भी धारण कर लो

बस नाम एक कर लो।

 

 

सुविधानुसार रीतियों का पालन कर रहे हैं

पढ़ा है ग्रंथों में मैंने

कृष्ण ने

गोकुलवासियों की रक्षा के लिए

अतिवृष्टि से उनकी सुरक्षा के लिए

गोवर्धन को

एक अंगुली पर उठाकर

प्रलय से बचाया था।

किसे, क्यों हराया था,

नहीं सोचेंगे हम।

विचारणीय यह

कि गोवर्धन-पूजा

प्रतीक थी

प्रकृति की सुरक्षा की,

अन्न-जल-प्राणी के महत्व की,

पर्यावरण की रक्षा की।

.

आज पर्वत दरक रहे हैं,

चिन्ता नहीं करते हम।

लेकिन

गोबर के पर्वत को

56 अन्नकूट का भोग लगाकर

प्रसन्न कर रहे हैं।

पशु-पक्षी भूख से मर रहे हैं।

अति-वृष्टि, अल्प-वृष्टि रुकती नहीं।

नदियां प्रदूषण का भंडार बन रही हैं।

संरक्षण नहीं कर पाते हम

बस सुविधानुसार

रीतियों का पालन कर रहे हैं।

 

 

मन से मन मिले हैं

यूं तो

मेरा मन करता है

नित्य ही

पूजा-आराधना करुँ।

किन्तु

पूजा के भी

बहुत नियम-विधान हैं

इसलिए

डरती हूं पूजा करने से।

ऐसा नहीं

कि मैं

नियमों का पालन करने में

असमर्थ हूँ

किन्तु जहाँ भाव हों

वहाँ विधान कैसा ?

जहाँ नेह हो

वहां दान कैसा ?

जहाँ भरोसा हो

वहाँ प्रदर्शन कैसा ?

जब

मन से मन मिले हैं

तो बुलावा कैसा ?

जब अन्तर्मन से जुड़े हैं

तो दिनों का निर्धारण कैसा ?

 

 

 

चल आज गंगा स्नान कर लें

चल आज गंगा स्नान कर लें

पाप-पुण्य का लेखा कर लें

अगले-पिछले पाप धो लें

स्वर्ग-नरक से मुक्ति लें लें

*    

भीड़ पड़ी है भारी देख

कूड़ा-कचरा फैला देख

अपने मन में मैला देख

लगा हुआ ये मेला देख

वी आई का रेला देख

चुनावों का आगाज़ तू देख

धर्मों का अंदाज़ तू देख

धर्मों का उपहास तू देख

नित नये बाबाओं का मेला देख

हाथी, घोड़े, उंट सवारी

उन पर बैठे बाबा भारी

मोटी-मोटी मालाएं देख

जटाओं का ;s स्टाईल तू देख

लैपटाप-मोबाईल देख

इनका नया अंदाज़ यहां

नित नई आवाज़ यहां

पण्डों-पुजारियों के पाखण्ड तू देख

नये-पुराने रिवाज़ तू देख

बाजों-गाजों संग आगाज़ तू देख।

पैसे का यहां खेला देख

अपने मन का मैला देख

चल आज गंगा स्नान कर लें

   

फिर आ गये वे दस दिन

फिर आ गये वे दस दिन

पूजा-अर्चना ,

व्रतोपवास,

निराहार, निरामिष,

मितभाषी, पूजा-पाठी,

राम-नाम, बस मां का नाम।

कन्या-पूजन,चरण-वन्दना।

 

फिर तिरोहित कर देंगे जल में।

 

और हम मुक्त हो जायेंगे

फिर,

कंस, दुर्योधन, दुःशासन    ,

रावण बनने के लिए।

 

एक नाम और एक रूप हो

एक नाम और एक रूप हो

मन्दिर-मन्दिर घूम रही मैं।

भगवानों को ढूंढ रही मैं।

इसको, उसको, पूछ रही मैं।

कहां-कहां नहीं घूम रही मैं।

तू पालक, तू जगत-नियन्ता

तेरा राज्य ढूंढ रही मैं।

तू ही कर्ता, तू ही नियामक,

उलट-फेर न समझ रही मैं।

नामों की सूची है लम्बी,

किसको पूछूं, किसको पकड़ूं

दिन-भर कितना सोच रही मैं।

रूप हैं इतने, भाव हैं इतने,

किसको पूजूं, परख रही मैं।

सुनती हूं मैं, तू सुनता सबकी,

मेरी भी इक ले सुन,

एक नाम और एक रूप हो,

सबके मन में एक भाव हो,

दुनिया सारी तुझको पूजे,

न हो झगड़ा, न हो दंगा,

अपनी छोटी बुद्धि से

बस इतना ही सोच रही मैं।

 

 

कौन पापी कौन भक्त कोई निष्कर्ष नहीं

कुछ कथाएं

जिस रूप में हमें

समझाई जाती हैं

उतना ही समझ पाते हैं हम।

ये कथाएं, हमारे भीतर

रस-बस गई हैं,

बस उतना ही

मान जाते हैं हम।

प्रश्न नहीं करते,

विवाद में नहीं पड़ते,

बस स्वीकार कर लेते हैं,

और सहज भाव से

इस परम्परा को आगे बढ़ाते हैं।

कौन पापी, कौन भक्त

कोई निष्कर्ष नहीं निकाल पाते हैं हम।

अनगिन चरित्र और कथाओं में

उलझे पड़े रहते हैं हम।

विशेष पर्वों पर उनकी

महानता या दुष्कर्मों को

स्मरण करते हैं हम।

सत्य-असत्य को

कहां समझ पाये हम।

सत्य और कपोल-कल्पना के बीच,

कहीं पूजा-आराधना से,

कहीं दहन से, कहीं सज्जा से,

कहीं शक्ति का आह्वान,

तो कहीं राम का नाम,

उलझे मस्तिष्क को

शांत कर लेते हैं हम।

और जयकारा लगाते हुए

भीड़ का हिस्सा बनकर

आनन्द से प्रसाद खाते हैं हम।

अंधविश्वासों में जीते हम

अंधविश्वासों में जीते हम अपने को प्रगतिशील जानते हैं

छींक मारने पर सामने वाले को अच्छे से डांटते हैं

और अगर कहीं रास्ता काट जाये बिल्ली, हमारा तो

न जाने कौन-कौन से टोने-टोटके करके ही मानते हैं

सत्य-पथ का अनुसरण करें

न विधि न विधान, बस मन में भक्ति-भाव रखते हैं

न धूप-दीप, न दान-दक्षिणा, समर्पण भाव रखते हैं

कोई हमें नास्तिक कहे, कोई कह हमें धर्म-विरोधी

सत्य-पथ का अनुसरण करें, बस यही भाव रखते है।

सुना है कोई भाग्य विधाता है

सुना है

कोई भाग्य विधाता है

जो सब जानता है।

हमारी होनी-अनहोनी

सब वही लिखता है ,

हम तो बस

उसके हाथ की कठपुतली हैं

जब जैसा चाहे वैसा नचाता है।

 

और यह भी सुना है

कि लेन-देन भी सब

इसी ऊपर वाले के हाथ में है।

जो चाहेगा वह, वही तुम्हें देगा।

बस आस लगाये रखना।

हाथ फैलाये रखना।

कटोरा उठाये रखना।

मुंह बाये रखना।

लेकिन मिलेगा तुम्हें वही

जो तुम्‍हारे  भाग्य में होगा।

 

और यह भी सुना है

कर्म किये जा,

फल की चिन्ता मत कर।

ऊपर वाला सब देगा

जो तुम्हारे भाग्य में लिखा होगा।

और भाग्य उसके हाथ में है

जब चाहे बदल भी सकता है।

बस ध्यान लगाये रखना।

 

और यह भी सुना है

कि जो अपनी सहायता आप करता है

उसका भाग्य ऊपर वाला बनाता है।

इसलिए अपनी भी कमर कस कर रखना

उसके ही भरोसे मत बैठे रहना।

 

और यह भी सुना है

हाथ धोकर

इस ऊपर वाले के पीछे लगे रहना।

तन मन धन सब न्योछावर करना।

मन्दिर, मस्जिद, गुरूद्वारा कुछ न छोड़ना।

नाक कान आंख मुंह

सब उसके द्वार पर रगड़ना।

और फिर कुछ बचे

तो अपने लिए जी लेना

यदि भाग्य में होगा तो।

 

आपको नहीं लगता

हमने कुछ ज़्यादा ही सुन लिया है।

 

अरे यार !

अपनी मस्ती में जिये जा।

जो सामने आये अपना कर्म किये जा।

जो मिलना है मिले

और जो नहीं मिलना है न मिले

बस हंस बोलकर आनन्द में जिये जा।

और मुंह ढककर अच्छी नींद लिये जा।

 

आस्थाएं डांवाडोल हैं

किसे मानें किसे छोड़ें, आस्थाएं डांवाडोल हैं

करते पूजा-आराधना, पर कुण्ठित बोल हैं

अंधविश्वासों में उलझे, बाह्य आडम्बरों में डूबे,

विश्वास खण्डित, सच्चाईयां सब गोल हैं।

आदरणीय शिव जी पर एक रचना

कुछ कथाएं

मुझे कपोल-कल्पित लगती हैं

एक आख्यान

किसी कवि-कहानीकार की कल्पना

किसी बीते युग का

इतिहास का पुर्नआख्यन,

कहानी में कहानी

कहानी में कहानी और

फिर कहानी में कहानी।

जाने-अनजाने

घर कर गई हैं हमारे भीतर

इतने गहरे तक

कि समझ-बूझ से परे हो जाती हैं।

**     **      **          **
भूत-पिचाश हमारे भीतर

बुद्धि पर भभूत चढ़ी है,

विषधर पाले अपने मन में

नर-मुण्डों-सा भावहीन मन है।

वैरागी की बातें करते

लूट-खसोट मची हुई है।

आंख-कान सब बंद किये हैं

गौरी, सुता सब डरी हुई हैं।

त्रिपुरारी, त्रिशूलधारी की बातें करते

हाथों में खंजर बने हुए हैं।

गंगा की तो बात न करना

भागीरथी रो रही है।

डमरू पर ताण्डव करते

यहां सब डरे हुए हैं।

**     **          **     **

फिर कहते

शिव-शिव, शिव-शिव,

शिव-शिव, शिव-शिव।

बंधनों का विरोध कर

जीवन बड़ा सरल सहज अपना-सा हो जाता है

रूढ़ियों के प्रतिकार का जब साहस आ जाता है

डरते रहते हैं हम यूं ही समाज की बातों से

बंधनों का विरोध कर मन तुष्टि पा जाता है

पूजा में हाथ जुड़ते नहीं

पूजा में हाथ जुड़ते नहीं,

आराधना में सिर झुकते नहीं

मंदिरों में जुटी भीड़ में

भक्ति भाव दिखते नहीं

पंक्तियां तोड़-तोड़कर

दर्शन कर रहे,

वी आई पी पास बनवा कर

आगे बढ़ रहे

पण्डित चढ़ावे की थाली देखकर

प्रसाद बांट रहे,

फिल्मी गीतों की धुनों पर

भजन बज रहे,

प्रायोजित हो गई हैं 

प्रदर्शन और सजावट

बन गई है पूजा और भक्ति,

शब्दों से लड़ते हैं हम

इंसानियत को भूलकर

जी रहे

सच्चाई की राह पर हम चलते नहीं

इंसानियत की पूजा हम करते नहीं

पत्थरों को जोड़-जोड़कर

कुछ पत्थरों के लिए लड़ मरते हैं

पर किसी डूबते को

तिनका का सहारा

हम दे सकते नहीं

शिक्षा के नाम पर पाखण्ड

बांटने से कतराते नहीं

लेकिन शिक्षा के नाम पर

हम आगे आते नहीं

कैसे बढ़ेगा देश आगे

जब तक

पिछले कुछ किस्से भूलकर

हम आगे आते नहीं

अस्त्र उठा संधान कर

घृणा, द्वेष, हिंसा, अपराध, लोभ, भ्रष्टाचार, साम्प्रदायिकता के रावण बहुत हैं।

और हम हाथ जोड़े, बस राम राम पुकारते, दायित्व से भागते, सयाने बहुत हैं।

न आयेंगे अब सतयुग के राम तुम्हारी सहायता के लिए इन का संधान करने।

अपने भीतर तलाश कर, अस्त्र उठा, संधान कर, साहस दिखा, रास्ते बहुत हैं।

चूड़ियां: रूढ़ि या परम्परा

आज मैंने अपने हाथों की 

सारी चूड़ियों उतार दी हैं

और उतार कर सहेज नहीं ली हैं

तोड़ दी हैं

और  टुकड़े टुकड़े करके

उनका कण-कण

नाली में बहा दिया हैं।

इसे

कोई बचकानी हरकत न समझ लेना।

वास्तव में मैं डर गई थी।

चूड़ियों की खनक से,

उनकी मधुर आवाज़ से,

और उस आवाज़ के प्रति

तुम्हारे आकर्षण से।

और साथ ही चूड़ियों से जुड़े

शताब्दियों से बन रहे

अनेक मुहावरों और कहावतों से।

मैंने सुना है

चूड़ियों वाले हाथ कमज़ोर हुआ करते हैं।

निर्बलता का प्रतीक हैं ये।

और अबला तो मेरा पर्यायवाची

पहले से ही है।

फिर चूड़ी के कलाई में आते ही

सौर्न्दय और प्रदर्शन प्रमुख हो जाता है

और कर्म उपेक्षित।

 

और सबसे बड़ा खतरा यह

कि पता नहीं

कब, कौन, कहां,

परिचित-अपरिचित

अपना या पराया

दोस्त या दुश्मन

दुनिया के किसी

जाने या अनजाने कोने में

मर जाये

और तुम सब मिलकर

मेरी चूड़ियां तोड़ने लगो।

फ़िलहाल

मैंने इस खतरे को टाल दिया है।

जानती हूं

कि तुम जब यह सब जानेगे

तो बड़ा बुरा मानोगे।                       

क्योंकि, बड़ी मधुर लगती है

तुम्हें मेरी चूड़ियों की खनक।

तुम्हारे प्रेम और सौन्दर्य गीतों की

प्रेरणा स्त्रोत हैं ये।

फुलका बेलते समय

चूड़ियों से ध्वनित होते स्वर

तुम्हारे लिए अमर संगीत हैं

और तुम

मोहित हो इस सब पर।

पर मैं यह भी जानती हूं

कि इस सबके पीछे

तुम्हारा वह आदिम पुरूष है

जो स्वयं तो पहुंच जाना चाहता है

चांद के चांद पर।

पर मेरे लिए चाहता है

कि मैं,

रसोईघर में,

चकले बेलने की ताल पर,

तुम्हारे लिए,

संगीत के स्वर सर्जित करती रहूं,

तुम्हारी प्रतीक्षा में,

तुम्हारी प्रशंसा के

दो बोल मात्र सुनने के लिए।

पर मैं तुम्हें बता दूं

कि तुम्हारे भीतर का वह आदिम पुरूष

जीवित है अभी तो हो,

किन्तु,

मेरे भीतर की वह आदिम स्त्री

कब की मर चुकी है।

कृष्ण आजा चक्र अपना लेकर

आज तेरी राधा आई है तेरे पास बस एक याचना लेकर

जब भी धरा पर बढ़ा अत्याचार तू आया है अवतार लेकर

काल कुछ लम्बा ही खिंच गया है हे कृष्ण ! अबकी बार

आज इस धरा पर तेरी है ज़रूरत, आजा चक्र अपना लेकर

निरभिलाष कर्म का संदेश दिया था

माखन की हांडी ले बैठे रहना हर युग में, ऐसा मैंने कब बोला था

बस राधे राधे रटते रहना हर युग में, ऐसा मैंने कब बोला था

निरभिलाष कर्म का संदेश दिया था गीता में उसको कैसे भूले तुम

पत्थर गढ़ गढ़ मठ मन्दिर में बैठे रहना, ऐसा मैंने कब बोला था