जागरण का आंखों देखा हाल
चलिए,
आज आपको
मेरे परिचित के घर हुए
जागरण का
आंखों देखा हाल सुनाती हूं।
मैं मूढ़
मुझे देर से समझ आया
कि वह जागरण ही था।
भारी भीड़ थी,
कनातें सजी थीं,
दरियां बिछी थीं।
लोगों की आवाजाही लगी थी।
चाय, ठण्डाई का
दौर चल रहा था।
पीछे भोजन का पंडाल
सज रहा था।
लोग आनन्द ले रहे थे
लेकिन मां की प्रतीक्षा कर रहे थे।
इतने में ही एक ट्रक में
चार लोग आये
बक्सों में कुछ मूर्तियां लाये।
पहले कुछ टूटे-फ़ूटे
फ़ट्टे सजाये।
फिर मूर्तियों को जोड़ा।
आभूषण पहनाये, तिलक लगाये,
भक्त भाव-विभोर
मां के चरणों में नत नज़र आये।
जय-जयकारों से पण्डाल गूंज उठा।
फ़िल्मी धुनों के भक्ति गीतों पर
लोग झूमने लगे।
गायकों की टोली
गीत गा रही थी
भक्तगण झूम-झूमकर
भोजन का आनन्द उठा रहे थे।
भोजन सिमटने लगा
भीड़ छंटने लगी।
भक्त तन्द्रा में जाने लगे।
गायकों का स्वर डूबने लगा।
प्रात होने लगी
कनात लेने वाले
दरियां उठाने वाले
और मूर्तियां लाने वालों की
भीड़ रह गई।
पण्डित जी ने भोग लगाया।
मैंने भी प्रसाद खाया।
ट्रक चले गये
और जगराता सम्पन्न हुआ।
जय मां ।
भव्य रावण
क्यों हम
भूलना ही नहीं चाहते
रावण को।
हर वर्ष
कितनी तन्मयता से
स्मरण करते हैं
पुतले बनाते हैं
सजाते हैं
और उनके साथ
कुम्भकरण और मेघनाथ भी
आते हैं
अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित।
नवरात्रों और दशमी पर्व पर
सबसे पहले
रावण को ही
स्मरण करते हैं।
कितना बड़ा मैदान
कैसा मेला
कितने पटाखे
और कितने भव्य हों पुतले।
उस समय
स्मरण ही नहीं आता
कि इस पुतले को
बुराई के प्रतीक के रूप में
बना रहे हैं
जलाने के लिए।
राम और दुर्गा
सब पीछे छूट जाते हैं
और हम
दिनों-दिनों तक याद करते हैं
रावण को,
अह! कितना भव्य था इस बार।
कितनी रौनक थी
और कितना आनन्द आया।
वरदान और श्राप
किसी युग में
वरदान और श्राप
साथ-साथ चलते थे।
वरदान की आशा में
भक्ति
और कठोर तपस्या करते थे
किन्तु सदैव
कोई भूल
कोई चूक
ले डूबती थी
सब अच्छे कर्मों को
और वरदान से पहले
श्राप आ जाता था।
और कभी-कभी
इतनी बड़ी गठरी होती थी
भूल-चूक की
कि वरदान तक
बात पहुँच ही नहीं पाती थी
मानों कोई भारी
बैरीकेड लगा हो।
श्राप से वरदान टूटता था
और वरदान से श्राप,
काल की सीमा
अन्तहीन हुआ करती थी।
और एक खतरा
यह भी रहता था
कि पता नहीं कब वरदान
श्राप में परिवर्तित हो जाये
और श्राप वरदान में
और दोनों का घालमेल
समझ ही न आये।
-
बस
इसी डर से
मैं वरदान माँगने का
साहस ही नहीं करती
पता नहीं
भूल-चूक की
कितनी बड़ी गठरी खुल जाये
या श्राप की लम्बी सूची।
-
जो मिला है
उसमें जिये जा
मज़े की नींद लिए जा।
सुनो कृष्ण
सुनो कृष्ण !
मैं नहीं चाहती
किसी द्रौपदी को
तुम्हें पुकारना पड़े।
मैं नहीं चाहती
किसी युद्ध का तुम्हें
मध्यस्थ बनना पड़े।
नहीं चाहती मैं
किसी ऐसे युद्ध के
साक्षी बनो तुम
जहाँ तुम्हें
शस्त्र त्याग कर
दर्शक बनना पड़े।
नहीं चाहती मैं
तुम युद्ध भी न करो
किन्तु संचालक तुम ही बनो।
मैं नहीं चाहती
तुम ऐसे दूत बनो
जहाँ तुम
पहले से ही जानते हो
कि निर्णय नहीं होगा।
मैं नहीं चाहती
गीता का
वह उपदेश देना पड़े तुम्हें
जिसे इस जगत में
कोई नहीं समझता, सुनता,
पालन करता।
मैं नहीं चाहती
कि तुम इतना गहन ज्ञान दो
और यह दुनिया
फिर भी दूध-दहीं-ग्वाल-बाल
गैया-मैया-लाड़-लड़ैया में उलझी रहे,
राधा का सौन्दर्य
तुम्हारी वंशी, लालन-पालन
और तुम्हारी ठुमक-ठुमैया
के अतिरिक्त उन्हें कुछ स्मरण ही न रहे।
तुम्हारा चक्र, तुम्हारी शंख-ध्वनि
कुछ भी स्मरण न करें,
न करें स्मरण
युद्धों का उद्घोष
समझौतों का प्रयास
अपने-पराये की पहचान की समझ,
न समझें तुम्हारी निर्णय-क्षमता
अपराधियों को दण्डित करने की नीति।
झुकने और समझौतों की
क्या सीमा-रेखा होती है
समझ ही न सकें।
मैं नहीं चाहती
कि तुम्हारे नाम के बहाने
उत्सवों-समारोहों में
इतना खो जायें
तुम पर इतना निर्भर हो जायें
कि तनिक-से कष्ट में
तुम्हें पुकारते रहें
कर्म न करें,
प्रयास न करें,
अभ्यास न करें।
तुम्हारे नाम का जाप करते-करते
तुम्हें ही भूल जायें,
बस यही नहीं चाहती मैं
हे कृष्ण !
मन में भक्ति
कांवड़ियों की भीड़ बड़ी, शिव के जयकारे लगते
सावन माह में दूर-दूर से पग-पग आगे देखो बढ़ते
मन में भक्ति, धूप-छांव, झड़ी न रोके उनकी राह
गंगा से शुद्ध जल लाकर शिव का ये अभिषेक करते
धर्म-कर्म के नाम
धर्म-कर्म के नाम पर पाखण्ड आज होय
मंत्र-तंत्र के नाम पर घृणा के बीज बोयें
परम्परा के नाम पर रूढ़ियां पाल रहे हम
किसकी मानें, किसकी छोड़ें, इसी सोच में खोय
विध्वंस की बात कर सकें
कहीं अच्छा लगता है मुझे
जब मैं देखती हूं
कि
नवरात्र आरम्भ होते ही
याद आती हैं मां
आह्वान करते हैं
दुर्गा, काली, चण्डी
सहस्त्रबाहु, सहस्त्रवाहिनी का ,
मूर्तियां सजाते हैं
शक्तियों की बात करते हैं।
शीश नवाते हैं
मांगते हैं कृपा, आशीष, रक्षा-कवच।
दुख-निवारण की बात करते हैं,
दुष्टों के संहार की आस करते हैं।
बस आशाएं, आकांक्षाएं, दया, कृपा
की मांग करते हैं।
याद आते हैं तो चढ़ावे
मन्नतें, मान्यताएं,
कन्या पूजन, व्रतोपवास,गरबा।
मन्दिरों की कतारें,
उत्सव ही उत्सव मनाते हैं,
अच्छा लगता है सब।
मन मुदित होता है
इस आनन्दमय संसार को देखकर।
किन्तु क्यों हम
आह्वान नहीं करते
कि मां
हमें भी दे वह शक्ति
जो दुष्टों का संहार कर सके
आवश्यकता पड़ने पर धार बन सके
प्रपंच छोड़कर
जीवन का आधार बन सके
उन नव रूपों का
कुछ अंश आत्मसात कर सकें
रोना-गिड़गिड़ाना छोड़कर
आत्मसम्मान की बात कर सकें
सिसकना छोड़कर
स्वाभिमान की बात कर सकें।
दुर्गा, काली, चण्डी,
सहस्त्रबाहु, सहस्त्रवाहिनी
जब जैसी आन पड़े
वैसा रूप धर सकें
यूं तो निर्माण की बात करते हैं
पर ज़रूरत पड़ने पर
विध्वंस की बात कर सकें।
सुविधानुसार रीतियों का पालन कर रहे हैं
पढ़ा है ग्रंथों में मैंने
कृष्ण ने
गोकुलवासियों की रक्षा के लिए
अतिवृष्टि से उनकी सुरक्षा के लिए
गोवर्धन को
एक अंगुली पर उठाकर
प्रलय से बचाया था।
किसे, क्यों हराया था,
नहीं सोचेंगे हम।
विचारणीय यह
कि गोवर्धन-पूजा
प्रतीक थी
प्रकृति की सुरक्षा की,
अन्न-जल-प्राणी के महत्व की,
पर्यावरण की रक्षा की।
.
आज पर्वत दरक रहे हैं,
चिन्ता नहीं करते हम।
लेकिन
गोबर के पर्वत को
56 अन्नकूट का भोग लगाकर
प्रसन्न कर रहे हैं।
पशु-पक्षी भूख से मर रहे हैं।
अति-वृष्टि, अल्प-वृष्टि रुकती नहीं।
नदियां प्रदूषण का भंडार बन रही हैं।
संरक्षण नहीं कर पाते हम
बस सुविधानुसार
रीतियों का पालन कर रहे हैं।
मन से मन मिले हैं
यूं तो
मेरा मन करता है
नित्य ही
पूजा-आराधना करुँ।
किन्तु
पूजा के भी
बहुत नियम-विधान हैं
इसलिए
डरती हूं पूजा करने से।
ऐसा नहीं
कि मैं
नियमों का पालन करने में
असमर्थ हूँ
किन्तु जहाँ भाव हों
वहाँ विधान कैसा ?
जहाँ नेह हो
वहां दान कैसा ?
जहाँ भरोसा हो
वहाँ प्रदर्शन कैसा ?
जब
मन से मन मिले हैं
तो बुलावा कैसा ?
जब अन्तर्मन से जुड़े हैं
तो दिनों का निर्धारण कैसा ?
हम नित मूरख बन जायें
ज्ञानी-ध्यानी
पंडित-पंडे
भारी-भरकम।
पोथी बांचे
ज्ञान बांटें
हरदम।
गद्दी छोटी
पोटली मोटी
हम जैसे
अनपढ़।
डर का पाठ
हमें पढ़ाएं,
ईश्वर से डरना
हमें सिखाएं,
झूठ-सच से
हमें डराएं।
दान-दक्षिणा
से भरमाएं।
जेब हमारी खाली
हम नित
मूरख बन जायें।
फिर आ गये वे दस दिन
फिर आ गये वे दस दिन
पूजा-अर्चना ,
व्रतोपवास,
निराहार, निरामिष,
मितभाषी, पूजा-पाठी,
राम-नाम, बस मां का नाम।
कन्या-पूजन,चरण-वन्दना।
फिर तिरोहित कर देंगे जल में।
और हम मुक्त हो जायेंगे
फिर,
कंस, दुर्योधन, दुःशासन ,
रावण बनने के लिए।
एक नाम और एक रूप हो
एक नाम और एक रूप हो
मन्दिर-मन्दिर घूम रही मैं।
भगवानों को ढूंढ रही मैं।
इसको, उसको, पूछ रही मैं।
कहां-कहां नहीं घूम रही मैं।
तू पालक, तू जगत-नियन्ता
तेरा राज्य ढूंढ रही मैं।
तू ही कर्ता, तू ही नियामक,
उलट-फेर न समझ रही मैं।
नामों की सूची है लम्बी,
किसको पूछूं, किसको पकड़ूं
दिन-भर कितना सोच रही मैं।
रूप हैं इतने, भाव हैं इतने,
किसको पूजूं, परख रही मैं।
सुनती हूं मैं, तू सुनता सबकी,
मेरी भी इक ले सुन,
एक नाम और एक रूप हो,
सबके मन में एक भाव हो,
दुनिया सारी तुझको पूजे,
न हो झगड़ा, न हो दंगा,
अपनी छोटी बुद्धि से
बस इतना ही सोच रही मैं।
साहस दिखा रास्ते बहुत हैं
घृणा, द्वेष, हिंसा, अपराध, लोभ, भ्रष्टाचार, साम्प्रदायिकता के रावण बहुत हैं।
और हम हाथ जोड़े, बस राम राम पुकारते, दायित्व से भागते, सयाने बहुत हैं।
न आयेंगे अब सतयुग के राम तुम्हारी सहायता के लिए इन का संधान करने।
अपने भीतर तलाश कर, अस्त्र उठा, संधान कर, साहस दिखा, रास्ते बहुत हैं।
अंधविश्वासों में जीते हम
अंधविश्वासों में जीते हम अपने को प्रगतिशील जानते हैं
छींक मारने पर सामने वाले को अच्छे से डांटते हैं
और अगर कहीं रास्ता काट जाये बिल्ली, हमारा तो
न जाने कौन-कौन से टोने-टोटके करके ही मानते हैं
सत्य-पथ का अनुसरण करें
न विधि न विधान, बस मन में भक्ति-भाव रखते हैं
न धूप-दीप, न दान-दक्षिणा, समर्पण भाव रखते हैं
कोई हमें नास्तिक कहे, कोई कह हमें धर्म-विरोधी
सत्य-पथ का अनुसरण करें, बस यही भाव रखते है।
राम से मैंने कहा
राम से मैंने कहा, लौटकर न आना कभी इस धरा पर किसी रूप में।
सीता, लक्ष्मण, सुग्रीव, हनुमान, उर्मिला नहीं मिलेंगें किसी रूप में।
किसने अपकर्म किया, किसे दण्ड मिला, कुछ तो था जो सालता है,
वही पुरानी लीक पीट रहे, सोच-समझ पर भारी धर्मान्धता हर रूप में
आस्थाएं डांवाडोल हैं
किसे मानें किसे छोड़ें, आस्थाएं डांवाडोल हैं
करते पूजा-आराधना, पर कुण्ठित बोल हैं
अंधविश्वासों में उलझे, बाह्य आडम्बरों में डूबे,
विश्वास खण्डित, सच्चाईयां सब गोल हैं।
आदरणीय शिव जी पर एक रचना
कुछ कथाएं
मुझे कपोल-कल्पित लगती हैं
एक आख्यान
किसी कवि-कहानीकार की कल्पना
किसी बीते युग का
इतिहास का पुर्नआख्यन,
कहानी में कहानी
कहानी में कहानी और
फिर कहानी में कहानी।
जाने-अनजाने
घर कर गई हैं हमारे भीतर
इतने गहरे तक
कि समझ-बूझ से परे हो जाती हैं।
** ** ** **
भूत-पिचाश हमारे भीतर
बुद्धि पर भभूत चढ़ी है,
विषधर पाले अपने मन में
नर-मुण्डों-सा भावहीन मन है।
वैरागी की बातें करते
लूट-खसोट मची हुई है।
आंख-कान सब बंद किये हैं
गौरी, सुता सब डरी हुई हैं।
त्रिपुरारी, त्रिशूलधारी की बातें करते
हाथों में खंजर बने हुए हैं।
गंगा की तो बात न करना
भागीरथी रो रही है।
डमरू पर ताण्डव करते
यहां सब डरे हुए हैं।
** ** ** **
फिर कहते
शिव-शिव, शिव-शिव,
शिव-शिव, शिव-शिव।
हमारे भीतर ही बसता है वह
कहां रूपाकार पहचान पाते हैं हम
कहां समझ पाते हैं
उसका नाम,
नहीं पहचानते,
कब आ जाता है सामने
बेनाम।
उपासना करते रह जाते हैं
मन्दिरों की घंटियां
घनघनाते रह जाते हैं
नवाते हैं सिर
करते हैं दण्डवत प्रणाम।
हर दिन
किसी नये रूप को आकार देते हैं
नये-नये नाम देते हैं,
पुकारते हैं
आह्वान करते हैं,
पर नहीं मिलता,
नहीं देता दिखाई।
पर हम ही
समझ नहीं पाये आज तक
कि वह
सुनता है सबकी,
बिना किसी आडम्बर के।
घूमता है हमारे आस-पास
अनेक रूपों में, चेहरों में
अपने-परायों में।
थाम रखा है हाथ
बस हम ही समझ नहीं पाते
कि कहीं
हमारे भीतर ही बसता है वह।
पूजा में हाथ जुड़ते नहीं
पूजा में हाथ जुड़ते नहीं,
आराधना में सिर झुकते नहीं।
मंदिरों में जुटी भीड़ में
भक्ति भाव दिखते नहीं।
पंक्तियां तोड़-तोड़कर
दर्शन कर रहे,
वी आई पी पास बनवा कर
आगे बढ़ रहे।
पण्डित चढ़ावे की थाली देखकर
प्रसाद बांट रहे,
फिल्मी गीतों की धुनों पर
भजन बज रहे,
प्रायोजित हो गई हैं
प्रदर्शन और सजावट
बन गई है पूजा और भक्ति,
शब्दों से लड़ते हैं हम
इंसानियत को भूलकर
जी रहे।
सच्चाई की राह पर हम चलते नहीं।
इंसानियत की पूजा हम करते नहीं।
पत्थरों को जोड़-जोड़कर
कुछ पत्थरों के लिए लड़ मरते हैं।
पर किसी डूबते को
तिनका का सहारा
हम दे सकते नहीं।
शिक्षा के नाम पर पाखण्ड
बांटने से कतराते नहीं।
लेकिन शिक्षा के नाम पर
हम आगे आते नहीं।
कैसे बढ़ेगा देश आगे
जब तक
पिछले कुछ किस्से भूलकर
हम आगे आते नहीं।
अस्त्र उठा संधान कर
घृणा, द्वेष, हिंसा, अपराध, लोभ, भ्रष्टाचार, साम्प्रदायिकता के रावण बहुत हैं।
और हम हाथ जोड़े, बस राम राम पुकारते, दायित्व से भागते, सयाने बहुत हैं।
न आयेंगे अब सतयुग के राम तुम्हारी सहायता के लिए इन का संधान करने।
अपने भीतर तलाश कर, अस्त्र उठा, संधान कर, साहस दिखा, रास्ते बहुत हैं।
जब टिकट किसी का कटता है
सुनते हैं कोई एक भाग्य-विधाता सबके लेखे लिखता है
अलग-अलग नामों से, धर्मों से सबके दिल में बसता है
फिर न जाने क्यों झगड़े होते, जग में इतने लफड़े होते
रह जाता है सब यहीं, जब टिकट किसी का कटता है
कृष्ण आजा चक्र अपना लेकर
आज तेरी राधा आई है तेरे पास बस एक याचना लेकर
जब भी धरा पर बढ़ा अत्याचार तू आया है अवतार लेकर
काल कुछ लम्बा ही खिंच गया है हे कृष्ण ! अबकी बार
आज इस धरा पर तेरी है ज़रूरत, आजा चक्र अपना लेकर