Share Me
बालमन भी समझ गये हैं भाव तिरंगे के
केशरी, श्वेत, हरे रंगों के भाव तिरंगे के
गर्व से शीश उठता है, देख तिरंगे को
शांति, सत्य, अहिंसा, प्रेम भाव तिरंगे के
Share Me
Write a comment
More Articles
एक चित्रात्मक कथा
वे दिन भी क्या दिन थे, जब बचपन में भरी दोपहरी की तेज़ धूप में मां-दादी, बड़े भाई-बहनों और चाचा-ताउ की नज़रें बचाकर खिड़की फांदकर घर से निकल आया करते थे। न धूप महसूस होती थी न बरसात। न सूखे का पता था और न फ़सल-पानी की चिन्ता। कभी कंचे खेलते, किसी के खेत से फल-सब्ज़ियां चुराते, किसी के पशु खोल देते, मिट्टी में लोटते, तालाब में छपाछप करते, मास्टरों की खूब नकल उतारते। कब सूरज आकाश से धरती पर आ जाता पता ही नहीं लगता था। फिर भागते घर की ओर। निश्चिंत, डांट-मार खाने को तैयार। “अरे ! कुछ पढ़-लिख लो, नहीं तो खेतों में यूं ही जानवरों से हांकते रहोगे, देखो, फ़लाने का बेटा कैसे दसवीं करके शहर जाकर बाबू बन गया।“ और न जाने क्या-क्या। रोज़ का किस्सा था जब तक पढ़ते रहे। न हम सुधरे , न चिन्ता करने वालों ने हमें समझाना छोड़ा।
फिर, युवा हो गये। हम कहां बदले। बस, बचपन में जो बचपना समझा जाता था वह अब आवारागर्दी हो गया। घर-बाहर के काम करने लगे, खेती-बाड़ी सम्हालने लगे किन्तु सबकी आंखों में चुभते ही रहे। बड़े-बुजुर्ग सर पीटते : “अरे ! क्या होगा इन छोरों का, नासपीटों का, न पढ़े-लिखे, न काम-काज किये, अब इसी खेती में जूझेगें। कुछ हमारी सुनी होती तो बड़े बाउ बनकर शहर में नाम कमा रहे होते। कौन करेगा इन नाकारा छोरों से ब्याह।“
फिर ब्याह भी हो गये हम सबके। घर-बार सब चलने लगे। हमें समझाने वाले चले गये। लेकिन हम वैसे के वैसे। पहले पिछली पीढ़ी हमारे पीछे थी, अब अगली पीढ़ी हमारे आगे आ गई।
बच्चे बड़े हो गये। पढ़-लिख गये। खेती रास न आई। बाउ बन गये। शहरी रंग-ढंग आ गये। पढ़ी-लिखी बहुएं आ गईं। और हम वैसे के वैसे।
भरी दोपहरी की तेज़ धूप हो अथवा भांय-भांय करते खेत, हमारा तो जन्म से यही आशियाना रहा।
और अब, “इन बुढ़उ को देखो, कौन समझावे। उमर हो गई है, आराम से घर में बैठो। घर का, अन्दर-बाहर का कोई काम देखो। घर में सब आराम दियो है, टी. वी. पंखा लगवा दियो है, पर दिमाग फिर गयो है, कैसे तो भरी दोपहरी में, संझा तक धूप में सड़े-पड़े रहे हैं। कल को कुछ हो-हुवा गया तो लोगन कहेंगे बच्चों ने ध्यान न रखा, बहुएं बुरी थीं।“
लेकिन हमें न तो बचपने में ऐसा कुछ सुनाई देता था, न जवानी में सुना और अब तो वैसे ही कान कम सुनने लगे हैं तो बोली जाओ , बोली जाओ , हमें न फ़रक पड़े है।
हा हा हा !!!!!
Share Me
अपने मन के संतोष के लिए
न सम्मान के लिए, न अपमान के लिए
कोई कर्म न कीजिए बस बखान के लिए
अपनी-अपनी सोच है, अपनी-अपनी राय
करती हूं बस अपने मन के संतोष के लिए
Share Me
चेहरा गुलाल हुआ
यादों में उनकी चेहरा गुलाल हुआ
मन की बात कही नहीं, मलाल हुआ
राग बेसुरे हो गये, साज़ बजे नहीं
प्यार करना ही जी का जंजाल हुआ
Share Me
हम क्यों आलोचक बनते जायें
खबरों की हम खबर बनाएं,
उलट-पलटकर बात सुझाएं,
काम किसी का, बात किसी की,
हम यूं ही आलोचक बनते जाएं।
Share Me
मन में बसन्त खिलता है
जीवन में कुछ खुशियां
बसन्त-सी लगती हैं।
और कुछ बरसात के बाद
मिट्टी से उठती
भीनी-भीनी खुशबू-सी।
बसन्त के आगमन की
सूचना देतीं,
आती-जाती सर्द हवाएं,
झरते पत्तों संग खेलती हैं,
और नव-पल्ल्वों को
सहलाकर दुलारती हैं।
पत्तों पर झूमते हैं
तुषार-कण,
धरती भीगी-भीगी-सी
महकने लगती है।
फूलों का खिलना
मुरझाना और झड़ जाना,
और पुनः कलियों का लौट आना,
तितलियों, भंवरों का गुनगुनाना,
मन में यूं ही
बसन्त खिलता है।
Share Me
. प्रकृति कभी अपना स्वभाव नहीं छोड़ती
बड़ी देर से
समझ पाते हैं हम
प्रकृति
कभी अपना स्वभाव नहीं छोड़ती।
कहते हैं
शेर भूख मर जाता है
किन्तु घास नहीं खाता
और एक बार मानव-गंध लग जाये
तो कुछ और नहीं खाता।
तभी तो
हमारे बड़े-बुज़ुर्ग कह गये हैं
दोस्ती बराबर वालों से करो
गधा भी जब
दुलत्ती मारता है
तो बड़े-बड़ों के होश
गुम हो जाते हैं
और तुम हो कि
जंगल के राजा से
तकरार करने बैठे हो।
Share Me
खामोशियां भी बोलती है
नई बात। अब कहते हैं मौन रहकर अपनी बात कहना सीखिए, खामोशियाँ भी बोलती हैं। यह भी भला कोई बात हुई। ईश्वर ने गज़ भर की जिह्वा दी किसलिए है, बोलने के लिए ही न, शब्दाभिव्यक्ति के लिए ही तो। आपने तो कह दिया कि खामोशियाँ बोलती हैं, मैंने तो सदैव धोखा ही खाया यह सोचकर कि मेरी खामोशियाँ समझी जायेगी। न जी न, सरासर झूठ, धोखा, छल, फ़रेब और सारे पर्यायवाची शब्द आप अपने आप देख लीजिएगा व्याकरण में।
मैंने तो खामोशियों को कभी बोलते नहीं सुना। हाँ, हम संकेत का प्रयास करते हैं अपनी खामोशी से। चेहरे के हाव-भाव से स्वीकृति-अस्वीकृति, मुस्कान से सहमति-असहमति, सिर से सहमति-असहमति। लेकिन बहुत बार सामने वाला जानबूझकर उपेक्षा कर जाता है क्योंकि उसे हमें महत्व देना ही नहीं है। वह तो कह जाता है तुम बोली नहीं तो मैंने समझा तुम्हारी मना है।
कहते हैं प्यार-व्यार में बड़ी खामोशियाँ होती हैं। यह भी सरासर झूठ है। इतने प्यार-भरे गाने हैं तो क्या वे सब झूठे हैं? जो आनन्द अच्छे, सुन्दर, मन से जुड़े शब्दों से बात करने में आता है वह चुप्पी में कहाँ, और यदि किसी ने आपकी चुप्पी न समझी तो गये काम से। अपना ऐसा कोई इरादा नहीं है।
मेरी बात बड़े ध्यान से सुनिए और समझिए। खामोशी की भाषा अभिव्यक्ति करने वाले से अधिक समझने वाले पर निर्भर करती है। शायद स्पष्ट ही कहना पड़ेगा, गोलमाल अथवा शब्दों की खामोशी से काम नहीं चलने वाला।
मेरा अभिप्राय यह कि जिस व्यक्ति के साथ हम खामोशी की भाषा में अथवा खामोश अभिव्यक्ति में अपनी बात कहना चाह रहे हैं, वह कितना समझदार है, वह खामोशी की कितनी भाषा जानता है, उसकी कौन-सी डिग्री ली है इस खामोशी की भाषा समझने में। बस यहीं हम लोग मात खा जाते हैं।
इस भीड़ में, इस शोर में, जो जितना ऊँचा बोलता है, जितना चिल्लाता है उसकी आवाज़ उतनी ही सुनी जाती है, वही सफ़ल होता है। चुप रहने वाले को गूँगा, अज्ञानी, मूर्ख समझा जाता है।
ध्यान रहे, मैं खामोशी की भाषा न बोलना जानती हूँ और न समझती हूँ, मुझे अपने शब्दों पर, अपनी अभिव्यक्ति पर, अपने भावों पर पूरा विश्वास है और ईश प्रदत्त गज़-भर की जिह्वा पर भी।
Share Me
जीवन की अनहोनी घटना
मेरे जीवन में ऐसी बहुत-सी घटनाएं घटी हैं जो अनहोनी हैं।
हमारे परिवार पर एक प्रकोप रहा है न जाने क्यों, कि कभी भी परिवार में एक मृत्यु नहीं होती थी, दो होती थीं। एक साथ नहीं किन्तु तेहरवीं से पहले। जैसे जब मेरे पिता का निधन हुआ तब मेरे चाचाजी के बेटे का चैथे दिन निधन हुआ। इसी प्रकार दूर-पार की रिश्तेदारी में किसी न किसी का निधन हो जाता था। वर्षों तक ये सब हमने देखा।
यह परम्परा है कि यदि क्रिया से पूर्व कोई पातक मृत्यु या सूतक जन्म हो जाये तो क्रिया उस दिन से 13 दिन आगे बढ़ जाती है।
अर्थात मेरे पिता की क्रिया और चाचाजी के बेटे की क्रिया जिसे तेरहवीं कहते हैं एक ही दिन पर हुई।
सबसे बड़ा हादसा हमारे परिवार में नर्वदा बहन के निधन के बाद हुआ।
नर्वदा का निधन 26 फ़रवरी को हुआ। उनकी क्रिया अर्थात तेरहवीं 10 मार्च को होनी थी। 9 मार्च को मेरी चाचाजी के घर पोते ने जन्म लिया। अर्थात सूतक हो गया। अब नर्वदा की क्रिया 13 दिन आगे बढ़ गई और शायद 22 मार्च निर्धारित हुई। किन्तु 20 मार्च को मेरी मां का निधन हो गया। अर्थात पातक। अब 3 अप्रैल को दोनों की एक साथ क्रिया सम्पन्न हुई, नर्वदा के निधन के लगभग सवा महीने बाद। वे अत्यन्त खौफ़नाक दिन थे हमारे लिए।
Share Me
भीतर के भाव
हर पुस्तक के
आरम्भ और अन्त में
कुछ पृष्ठ
कोरे चिपका दिये जाते हैं
शायद
पुस्तकों को सहेजने के लिए।
किन्तु हम
बस पन्नों को ही
सहेजते रह जाते हैं
पुस्तकों के भीतर के भाव
कहाँ सहेज पाते हैं।