एक और विभीषिका की प्रतीक्षा में।

हर वर्ष आती है यह विभीषिका।
प्रतीक्षा में बैठै रहते हैं
कब बरसेगा जल
कब होगी अतिवृष्टि
डूबेंगे शहर-दर-शहर
टूटेंगे तटबन्ध
मरेगा आदमी
भूख से बिलखेगा
त्राहि-त्राहि मचेगी चारों ओर।
फिर लगेंगे आरोप-प्रत्यारोप
वातानुकूलित भवनों में
योजनाओं का अम्बार लगेगा
मीडिया को कई दिन तक
एक समाचार मिल जायेगा,
नये-पुराने चित्र दिखा-दिखा कर
डरायेंगे हमें।
कितनी जानें गईं
कितनी बचा ली गईं
आंकड़ों का खेल होगा।
पानी उतरते ही
भूल जायेंगे हम सब कुछ।
मीडिया कुछ नया परोसेगा
जो हमें उत्तेजित कर सके।
और हम बैठे रहेंगे
अगले वर्ष की प्रतीक्षा में।
नहीं पूछेंगे अपने-आपसे
कितने अपराधी हैं हम,
नहीं बनायेंगे
कोई दीर्घावधि योजना
नहीं ढूंढेगे कोई स्थायी हल।
बस, एक-दूसरे का मुंह ताकते
बैठे रहेंगे
एक और विभीषिका की प्रतीक्षा में।

पूछूं चांद से

अक्सर मन करता है

पूछूं चांद से

औरों से मिली रोशनी में

चमकने में

यूं कैसे दम भरता है।

मत गरूर कर

कि कोई पूजता है,

कोई गणनाएं करता है।

शायद इसीलिए

दाग लिये घूमता है,

इतना घटता-बढ़ता है,

कभी अमावस

तो कभी ग्रहण लगता है।

 

हे विधाता ! किस नाम से पुकारूं तुम्हें

शायद तुम्हें अच्छा न लगे सुनकर,

किन्तु, आज

तुम्हारे नामों से डरने लगी हूं।

हे विधाता !

कहते हैं, यथानाम तथा गुण।

कितनी देर से

निर्णय  नहीं कर पा रही हूं

किस नाम से पुकारूं तुम्हें।

जितने नाम, उतने ही काम।

और मेरे काम के लिए

तुम्हारा कौन-सा नाम

मेरे काम आयेगा,

समझ नहीं पा रही हूं।

तुम सृष्टि के रचयिता,

स्वयंभू,

प्रकृति के नियामक

चतुरानन, पितामह, विधाता,

और न जाने कितने नाम।

और सुना है

तुम्हारे संगी-साथी भी बहुत हैं,

जो तुम्हारे साथ चलाते हैं,

अनगिनत शस्त्र-अस्त्रों से सुसज्जित।

हे विश्व-रचयिता !

क्या भूल गये

जब युग बदलते हैं,

तब विचार भी बदलते हैं,

सत्ता बदलती है,

संरचनाएं बदलती हैं।

तो

हे विश्व रचयिता!

सामयिक परिस्थितियों में

गुण कितने भी धारण कर लो

बस नाम एक कर लो।

 

 

छोटा-सा जीवन है हंस ले मना

छोटा-सा जीवन है हंस ले मना     

जीवन में

बार-बार अवसर नहीं मिलते,

धूप ज्यादा हो

तो सदैव बादल नहीं घिरते,

चांद कभी कहीं नहीं जाता

बस हमारी ही समझ का फेर है

कभी पूर्णिमा

कभी ईद और कभी अमावस

की बात करते हैं

निभा सको तो निभा लो

हर मौसम को जीवन में

यूं जीने के अवसर

बार-बार नहीं मिलते

रूठने-मनाने का

सिला तो जीवन-भर चला रहता है

अपनों को मनाने के

अवसर बार -बार नहीं मिलते

कहते हैं छोटा-सा जीवन है

हंस ले मना,

यूं अकारण

खुश रहने के अवसर

बार-बार नहीं मिलते

 

 

 

घन-घन-घन घनघोर घटाएं

घन-घन-घन घनघोर घटाएं,
लहर-लहर लहरातीं।

कुछ बूंदें बहकीं,

बरस-बरस कर,
मन सरस-सरस कर,
हुलस-हुलस कर,
हर्षित कर
लौट-लौटकर आतीं।

बूंदों का  सागर बिखरा ।

कड़क-कड़क, दमक-दमक,
चपल-चंचला दामिनी दमकाती।
मन आशंकित।
देखो, झांक-झांककर,
कभी रंग बदलतीं,

कभी संग बदलतीं।
इधर-उधर घूम-घूमकर
मारूत संग
धरा-गगन पर छा जातीं।

रवि  ने  मौका ताना,

सतरंगी आकाश बुना ।
निरख-निरख कर
कण-कण को
नेह-नीर से दुलराती।

ठिठकी-ठिठकी-सी शीत-लहर

फ़र्र-फ़र्र करती दौड़ गई।

सर्र-सर्र-सर्र कुछ पत्ते झरते

डाली पर नव-संदेश खिले

रंगों से धरती महक उठी।

पेड़ों के झुरमुट में बैठी चिड़िया

की किलकारी से नभ गूंज उठा

मानों बोली, उठ देख ज़रा

कौन आया ! बसन्त आया!!!


 

आज जब सच कहने की बात हुई

आज जब

सच कहने की बात हुई

तो अचानक एक शोर उठ खड़ा हुआ।

लोगों के चेहरे क्रोध से तमतमाने लगे।

तरह तरह की बातें होने लगीं।

मेरे व्यक्तित्व पर उंगलियां उठने लगीं।

लोग

मेरे चारों ओर लामबन्द होने लगे।

इधर उधर देखा

तो न जाने कौन-कौन

मेरे पास आ गये।

उनके हाथों में झण्डे थे और तख्तियां थीं

उन पर

सच बोलने के वादे थे, और इरादे थे।

कुछ नारे थे

और मेरे लिए कुछ इशारे थे।

अरे ! तुम तो

ज़रा सी बात पर यूं ही

भावुक हो जाती हो

कि ज़रा सा किसी ने उकसाया नहीं

कि सच बोलने पर उतारू हो जाती हो।

मेरे हाथ में उन्होंने

एक पूरी सूची थमा दी।

हर युग में झूठ की ही तो

सदा जीत होती रही है।

और यह तो

वैसे भी कलियुग है।

 

नारों में जिओ, वादों में जिओ

धोखे में जिओ, झूठ को पियो।

 

फिर अचानक भीड़ बढ़ गई।

मानों कोई मेला लगा हो।

लोग वैसे ही आनन्दित हो रहे थे

मानों रावण दहन चल रहा हो।

सुना होगा आपने

कि रावण-दहन की लकड़ियां

घर में रखने से खुशहाली होती है

और बुरी बलाएं भाग जाती हैं।

और तभी मेरी देह के टुकड़े-टुकड़े होकर

हवा में उड़ने लगे

लोग भागने लगे।

 

जिसके हाथ जो लगा, ले गये।

घर में रखेंगे इन अवशेषों को।

दरवाज़े के बाहर टांगेगे

नजरबट्टू बनाकर।

बताएंगे अगली पीढ़ी को

हमारे ज़माने में

से भी लोग हुआ करते थे।

और शायद एक समय बाद

लाखों करोड़ों कीमत भी मिल जाये

एक पुरातन संग्रहीत वस्तु के रूप में।

साथ समय के चलना होगा

तुमको क्यों ईर्ष्या होती है मैंने भी आई-फोन लिया है
साथ समय के चलना होगा इतना मैंने समझ लिया है।
चिट्ठियां-विट्ठियां पीछे छूटीं, इतना ज्ञान मिला है मुझको,
-मेल, फेसबुक, ट्विटर सब कुछ मैंने खोल लिया है।

उल्लू बोला मिठू से

उल्लू बोला मिठू से

चल आज नाम बदल लें

तू उल्लू बन जा

और मैं बनता हूँ तोता,

फिर देखें जग में

क्या-क्या होता।

जो दिन में होता

गोरा-गोरा,

रात में होता काला।

मैं रातों में जागूँ

दिन में सोता

मैं निद्र्वंद्व जीव

न मुझको देखे कोई

न पकड़ सके कोई।

-

आजा नाम बदल लें।

-

फिर तुझको भी

न कोई पिंजरे में डालेगा,

और आप झूठ बोल-बोलकर

तुझको न बोलेगा कोई

हरि का नाम बोल।

-

चल आज नाम बदल लें

चल आज धाम बदल लें

कभी तू रातों को सोना

कभी मैं दिन में जागूँ

फिर छानेंगे दुनिया का

सच-झूठ का कोना-कोना।

 

हमारे भीतर ही बसता है वह

कहां रूपाकार पहचान पाते हैं हम

कहां समझ पाते हैं

उसका नाम,

नहीं पहचानते,

कब आ जाता है सामने

बेनाम।

उपासना करते रह जाते हैं

मन्दिरों की घंटियां

घनघनाते रह जाते हैं

नवाते हैं सिर

करते हैं दण्डवत प्रणाम।

हर दिन

किसी नये रूप को आकार देते हैं

नये-नये नाम देते हैं,

पुकारते हैं

आह्वान करते हैं,

पर नहीं मिलता,

नहीं देता दिखाई।

पर हम ही

समझ नहीं पाये आज तक

कि वह

सुनता है सबकी,

बिना किसी आडम्बर के।

घूमता है हमारे आस-पास

अनेक रूपों में, चेहरों में

अपने-परायों में।

थाम रखा है हाथ

बस हम ही समझ नहीं पाते

कि कहीं

हमारे भीतर ही बसता है वह।

चल आज लड़की-लड़की खेलें

चल आज लड़की-लड़की खेलें।

-

साल में

तीन सौ पैंसठ दिन।

कुछ तुम्हारे नाम

कुछ हमारे नाम

कुछ इसके नाम

कुछ उसके नाम।

रोज़ सोचना पड़ता है

आज का दिन

किसके नाम?

कुछ झुनझुने लेकर

घूमते हैं हम।

आम से खास बनाने की

चाह लिए

जूझते हैं हम।

समस्याओं से भागते

कुछ नारे

गूंथते हैं हम।

कभी सरकार को कोसते

कभी हालात पर बोलते

नित नये नारे

जोड़ते हैं हम।

हालात को समझते नहीं

खोखले नारों से हटते नहीं

वास्तविकता के धरातल पर

चलते नहीं

सच्चाई को परखते नहीं

ज़िन्दगी को समझते नहीं

उधेड़-बुन में लगे हैं

मन से जुड़ते नहीं

जो करना चाहिए

वह करते नहीं

बस बेचारगी का मज़ा लेते हैं

फिर आनन्द से

अगले दिन पर लिखने के लिए

मचलते हैं।

 

चाहिए अब एक शंखनाद

हमें स्मरण हैं

कृष्ण की अनेक कथाएं

उनकी बाल लीलाएं

माखन चुराना, वन में  गैया घुमाना

बाल-गोपाल संग हंसना-बतियाना

गोपियों संग ठिठोलियां

रासलीला की अठखेलियां

और यशोदा मैया को सताना।

और कभी बस पूतना-वध,

कंस-वध, नाग-मर्दन

अथवा गोवर्धन धारण को स्मरण करके

हम वंदन कर लेते हैं।

लेकिन क्यों नहीं स्मरण करते हम

कि कृष्ण ने पांचजन्य से

उद्घोष किया था

एक युद्ध के आह्वान का

बुराई के विरूद्ध अच्छाई का।

अन्याय के विरूद्ध न्याय का।

विश्व की मंगल कामना का।

एक अन्यायमुक्त समाज की स्थापना का।

हमें तो बस आदत हो गई है

पर्वों में डूबे रहने की

उत्सव ही उत्सव मनाने की

बस कोई एक बहाना चाहिए।

और यही संस्कार हम

अपनी अगली पीढ़ी को दे रहे हैं

हां, यह और बात है कि

उनके उत्सव मनाने के तरीके बदल गये हैं।

फिर हम किस अधिकार से

दोषारोपण कर सकते हैं किसी पर

अन्याय, अत्याचार, भ्रष्टाचार, शोषण

या अधिकारों के दुरूपयोग का।

अब शंख एक संग्रहणीय वस्तु बन कर रह गये हैं।

वैसे भी हम मुंह सिले और कान बन्द किये बैठे हैं

कि कहीं किसी पांचजन्य के उद्घोष

का आह्वान न हो

और किसी अन्य के शंखनाद की ध्वनि भी

हमारे कानों तक न पहुंचे

और कहीं हमारे उत्सवों में बाधा न आये।

हमारे नाम की चाबी

मां-पिता

जब ईंटें तोड़ते हैं

तब मैंने पूछा

इनसे क्या बनता है मां ?

 

मां हंसकर बोली

मकान बनते हैं बेटा!

मैंने आकाश की ओर

सिर उठाकर पूछा

ऐसे उंचे बनते हैं मकान?

कब बनते हैं मकान?

कैसे बनते हैं मकान?

कहां बनते हैं मकान?

औरों के ही बनते हैं मकान,

या अपना भी बनता है मकान।

मां फिर हंस दी।

पिता की ओर देखकर बोली,

छोटा है अभी तू

समझ नहीं पायेगा,

तेरे हिस्से का मकान कब बन पायेगा।

शायद कभी कोई

हमारे नाम से चाबी देने आयेगा।

और फिर ईंटें तोड़ने लगी।

मां को उदास देख

मैंने भी हथौड़ी उठा ली,

बड़ी न सही, छोटी ही सही,

तोड़ूंगा कुछ ईंटें

तो मकान तो ज़रूर बनेगा,

इतना उंचा न सही

ज़मीन पर ज़रूर बनेगा मकान!

 

अपना ही साथ हो

उम्र के इस पड़ाव पर

अनजान सुनसान राहों पर

जब नहीं पाती हूं

किसी को अपने आस पास

तब अपनी ही प्रतिकृति तराशती हूं ।

मन का कोना कोना खोलती हूं उसके साथ।

बालपन से अब तक की

कितनी ही यादें और कितनी ही बातें

सब सांझा करती हूं इसके साथ।

लौट आता है मेरा बचपना

वह अल्हड़पन और खुशनुमा यादें

वो बेवजह की खिलखिलाहटें

वो क्लास में सोना

कंचे और गोटियां, सड़क पर बजाई सीटियां

छत की पतंग

आमपापड़ और खट्टे का स्वाद

पुरानी कापियां देकर  

चूरन और रेती खाने की उमंग

गुल्लक से चुराए पैसे

फिल्में देखीं कैसे कैसे

टीचर की नकल, उनके नाम

और पता नहीं क्या क्या

अब सब तो बताया नहीं जा सकता।

यूं ही

खुलता है मन का कोना कोना।

बांटती हूं सब अपने ही साथ।

जिन्हें किसी से बांटने के लिए तरसता था मन

अपना ही हाथ पकड़कर आगे बढ़ जाती हूं

नये सिरे से।

यूं ही डरती थी, सहमी थी।

अब जानी हूं

ज़िन्दगी को पहचानी हूं।

सत्य के भी पांव नहीं होते

कहते हैं

झूठ के पांव नहीं होते

किन्तु मैंने तो

कभी सत्य के पांव

भी नहीं देखे।

झूठ अक्सर सबका

एक-सा होता है

पर ऐसा क्यों होता है

कि सत्य

सबका अपना-अपना होता है।

किसी के लिए

रात के अंधेरे ही सत्य हैं

और कोई

चांद की चांदनी को ही

सत्य मानता है।

किसी का सच सावन की घटाएं हैं

तो किसी का सच

सावन का तूफ़ान

जो सब उजाड़ देता है।

किसी के जीवन का सत्य

खिलते पुष्प हैं

तो किसी के जीवन का सत्य

खिलकर मुर्झाते पुष्प ।

किन्तु झूठ

सबका एक-सा होता है,

इसलिए

आज झूठ ही वास्तविक सत्य है

और यही सत्य है।

बस एक हिम्मत की चाह

जीवन बोझ-सा

समस्याएं नाग-सी

तब चाहिए

तुम्हारा साथ

हाथ पकड़ा है

मैं तुम्हें समस्याओं से बचाउं

तुम मेरे साथ

तो जीवन भी बोझ-सा नहीं

बस एक हिम्मत की चाह

होंगे हम साथ-साथ

न स्वर्ण रहा न स्वर्णाभा रही

कुन्दन अब रहा किसका मन

बहके-बहके हैं यहां कदम

न स्वर्ण रहा न स्वर्णाभा रही

पारस पत्थर करता है क्रन्दन

जीवन-दर्शन दे जाते हैं ये पत्थर

किसी छैनी हथौड़ी के प्रहार से नहीं तराशे जाते हैं ये पत्थर

प्रकृति के प्यार मनुहार, धार धार से तराशे जाते हैं ये पत्थर

यूं तो  ठोकरे खा-खाकर भी जीवन संवर-निखर जाता है

इस संतुलन को निहारती हूं तो जीवन डांवाडोल दिखाई देता है
मैं भाव-संतुलन नहीं कर पाती, जीवन-दर्शन दे जाते हैं ये पत्थर

देखो तो सूर्य भी निहारता है जब आकार ले लेते हैं ये पत्थर 

वक्त की करवटें

 

जिन्दगी अब गुनगुनाने से डरने लगी है।

सुबह अब रात-सी देखो ढलने लगी है।

वक्त की करवटें अब समझ नहीं आतीं,

उम्र भी तो ढलान पर चलने लगी है।

 

 

 

 

 

तू लौट जा अपने ठौर

हे पंछी, प्रकृति प्रदत्त स्रोत छोड़कर तू कहां आया रे !

ये मानव निर्मित स्रोत हैं यहां न जल न छाया रे !

तृषित जग, तृषित भाव, तृषित मानव मन हैं यहां

तू लौट जा अपने ठौर,! न कर यहां जीवन जाया रे !

शब्दों की भाषा समझी न

शब्दों की भाषा समझी न

नयनों की भाषा क्या समझोगे

 

रूदन समझते हो आंसू को

मुस्कानों की भाषा क्या समझोगे

 

मौन की भाषा समझी न

मनुहार की भाषा क्या समझोगे

 

गुलदानों में रखते हो फूलों को

प्यार की भाषा क्या समझोगे

खींच-तान में मन उलझा रहता है

आशाओं का संसार बसा है, मन आतुर रहता है

यह भी ले ले, वह भी ले ले, पल-पल ये ही कहता है

क्या छोड़ें, क्या लेंगे, और क्या मिलना है किसे पता

बस इसी खींच-तान में जीवन-भर मन उलझा रहता है

घुमक्कड़ हो गया है मन

घुमक्कड़ हो गया है मन

बिन पूछे बिन जाने

न जाने

निकल जाता है कहां कहां।

रोकती हूं, समझाती हूं

बिठाती हूं , डराती हूं, सुलाती हूं।

पर सुनता नहीं।

भटकता है, इधर उधर अटकता है।

न जाने किस किस से जाकर लग  जाता है।

फिर लौट कर

छोटी छोटी बात पर

अपने से ही उलझता है।

सुलगता है।

ज्वालामुखी सा भभकता है।

फिर लावा बहता है आंखों से।

अमूल्य धन

कुछ हँसती, खिलखिलाती, गुनगुनाती स्मृतियाँ अनायास मानस पटल पर आयें, अच्छा लगता है। इन सिक्कों को देखकर सालों-साल पुरानी एक घटना मानस-पटल पर उभर आई।

वर्ष 1974

एम.ए. का प्रथम वर्ष।

उस समय इन सिक्कों का कितना महत्व होता था यह तो आप भी जानते ही होंगे। रुपये खर्च करना तो बहुत बड़ी बात हुआ करती थी। जेब-खर्च के लिए भी पचास पैसे, ज़्यादा से ज़्यादा एक रुपया जो बहुत बड़ी बात हुआ करती थी, लेकर घर से निकलते थे। पांच रुपये में तीन महीने का लोकल पास बनता था, शिमला रेलवे स्टेशन से समरहिल का, जहाँ हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय है।

मैं हिन्दी में एम. ए. और कर रही थी और मेरी एक सखी संस्कृत में। हमें ज्ञात हुआ कि बी.ए. के विषयानुसार विश्वविद्यालय में अधिकतम अंक प्राप्त होने के कारण हम दोनों को 150 रूपये मासिक छात्रवृत्ति मिलेगी।

हमारे लिए तो जैसे यह कुबेर का खजाना था। 6-6 महीने की राशि एकसाथ मिलनी थी। हमें कार्यालय से 900-900 रुपये के चैक मिले। पहले तो वे ही हमारे लिए एक अद्भुत अमूल्य पत्र थे, जिसे हम ऐसे देख और सम्हाल रहे थे मानों कहीं हाथ लगने से भी गल न जायें।

उपरान्त हम दोनों विश्वविद्याय परिसर में ही स्थित भारतीय स्टेट बैंक की शाखा में डरते-डरते गईं।

वहाँ के कर्मचारियों का शायद हम  जैसे विद्यार्थियों से सामना होता ही होगा। हम दोनों कांउटर पर डरते-डरते गईं और कहा कि पैसे लेने हैं। हम दोनों ने चैक उनके सामने रख दिये।

कर्मचारी हमारी उत्तेजना और उत्सुकता भांप गया और पूछा कौन से पैसे चाहिए आपको?

हम दोनों ही अचानक बोल बैठीं, रेज़गारी दे दीजिए।

रेज़गारी? 900 रुपये की?

और क्या, लेकर निकलेंगे तो किसी को पता तो लगेगा कि हमें छात्रवृत्ति मिली है, कोई तो पूछेगा कि आपके पास यह क्या है?

कर्मचारी हँसने लगा 1800 रुपये की रेज़गारी तो हमारे पास नहीं है, यदि यही चाहिए तो आप डिमांड दे जाईये, रिज़र्व बैंक से मंगवा देंगे।

नहीं, नहीं, आप नोट ही दे दीजिए।

और इस तरह हम 900-900 रूपये के नोट लेकर वहाँ से सीधे माल रोड आ गईं। उस समय नोट भी बड़े आकार के होते थे।

दो घंटे से भी ज़्यादा समय तक मालरोड के चक्कर काटे, कितने अपने मिले, लेकिन किसी ने हमारे मन की बात नहीं पूछी।

मालरोड पर जो भी परिचित  मिले, हम यहीं सोचें कि यह ज़रूर पूछेंगे कि भई आपके बैग आज भारी लग रहे हैं क्या है इनमें।

लेकिन किसी ने नहीं पूछा। और हम घर लौट आईं, मायूस, उदास। छात्रवृत्ति मिलने का सारा आनन्द किरकिरा हो गया।