चल मौज मनायें
पढ़ने-लिखने में क्या रखा है, चल ढोल बजायें
कहते हैं जीवन छोटा है, फिर चल मौज मनायें
न कोई पुस्तक, न परीक्षा, न कोई अध्यापक
ताल-सुर में क्या रखा है, बस अपना मन बहलायें
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जिन्दगी किसी धार से कम नहीं
जिन्दगी
यूँ भी किसी धार से कम नहीं
ये कटार, छुरी तलवार क्या करेंगे।
कांटों भरी रही हैं राहें
ये कुछ हथियार क्या करेंगे।
न देखना मेरा चेहरा
न पूछना मुझसे कुछ
अब इस हाल में
किसी से हिसाब-किताब करके क्या करेंगे।
किसने मारा, किसने लगाये थे निशाने
अब आप जानकर क्या करेंगे।
रक्त की धार मत देखना
न देखना जख़्मों की गहराई
बस हाल-चाल पूछ लेना
इससे ज़्यादा जानकर क्या करेंगे।
काश ! होता कोई ऐसा !!!
कोई है क्या ऐसा
जीवन में
जिसे हम भूलना चाहें
किन्तु भूल नहीं पाते।
.
कोई है क्या ऐसा
जिसकी याद तो आती है
किन्तु आधी-अधूरी।
स्मृतियों के पृष्ठ पलटते हैं
किन्तु तस्वीर नज़र नहीं आती।
.
कोई है क्या ऐसा
जो मन की दीवारों से टकराता है
रोज़ द्वार खटखटाता है
किन्तु नाम याद नहीं आता।
.
कोई है क्या ऐसा
जिसे रोज़ पीटने को मन करता है
किन्तु जब दिखता है
तो प्यार हो आता है।
.
कोई है क्या ऐसा
जो बार-बार रास्ता काटता है
किन्तु नज़र नहीं आता।
.
कोई है क्या ऐसा
जो अच्छा भी है बुरा भी
सांस भी है, आस भी
विरक्ति भी है , आसक्ति भी,
आवाज़ भी है, शून्यता भी
आंसू भी है और हास भी।
.
काश ! होता कोई ऐसा !!!
हाइकु पल्लव
पल्लव झड़े
धरा के आंचल में
विंहस दिये
-
तितली बैठी
पल्लव मुस्कुराये
हवा महकी
-
पतझड़ में
पल्लव उड़ रहे
मन विहंसा
ज़िन्दगी जीना भूल जाते हैं
ज़िन्दगी में
तप, उपासना, साधना
ज्ञान, ध्यान, स्नान
किसी काम नहीं आतीं।
जीवन भर करते रहिए
मरते रहिए
कब उपलब्धियाँ
कैसे हाथ से
सरक जायेंगी
पता ही नहीं लगता।
ज़िन्दगी जीने से ज़्यादा
हम न जाने क्यों
लगे रहते हैं
तप, उपासना, साधना में
और ज़िन्दगी जीना भूल जाते हैं
वह सब पाने के पीछे भागने लगते हैं
जिसका अस्तित्व ही नहीं।
आभासी दुनिया में जीने लगते हैं,
पारलौकिकता को ढूँढने में
लगे रहते हैं
और लौकिक संसार के
असीम सुखों से
मुँह मोड़ बैठते हैं
न जीवन जीते हैं
और न जीने देते हैं।
और अपने जीवन के
अमूल्य दिन खो देते हैं
वह सब पाने के लिए
जिसका अस्तित्व ही नहीं।
तेरा विश्वास
तेरा विश्वास
जब-जब किया
तब-तब ज़िन्दगी ने
पाठ पढ़ाया।
उस ईश्वर ने कहा
तुझे भी तो दिया था
एक दिमाग़
उसमें कचरा नहीं था,
बहुत कुछ था।
किन्तु
जब प्रयोग नहीं किया
तो वह
कचरा ही बन गया
अब दोष मुझे देते हो
कि
ऐसा साथ क्यों दिया।
समय यूँ ही बीत जाता है
एकान्त
कभी-कभी अच्छा लगता है।
सूनापन
मन में रमता है।
जल, धरा, गगन
मानों परस्पर बातें करते हैं,
जीवन छलकता है।
नाव रुकी, ठहरी-ठहरी-सी
परख रही हवाएँ
जीवन यूँ ही चलता है।
न अंधेरा, न रोशनी,
जीवन में धुंधलापन
बहकता है।
हाथों में डोरी
कुछ सवाल बुनती है
कभी उधेड़ती है
कभी समेटती है
समय यूँ ही बीत जाता है।
अंधेरे के बाद सवेरा
अंधेरे के बाद सवेरा !
ज़रूरी तो नहीं
रोशनी भी लेकर आये।
कभी-कभी
सवेरे भी अंधकारमय होते हैं।
सूरज बहका-बहका-सा
घूमता है।
किरणें कहीं खो जाती हैं।
भीतर ही भीतर
बौखला जाती हैं।
आंखें धुंधली हो जाती हैं,
दिखाई कुछ नहीं देता
किन्तु
हाथ बढ़ाने पर
अनदेखी रोशनियों से
हाथ जलने जाते हैं
अंधेरे और रोशनियों के बीच
ज़िन्दगी कहीं खो जाती है।
इच्छाओं का कोई अन्त नहीं
हमारी इच्छाओं का
कोई अन्त नहीं।
बालपन में
चिन्ताओं से दूर
मस्ती में जीते थे
किन्तु बड़ों को देखकर
आहें भरते थे।
कब बड़े होंगे हम।
बड़ों के स्वांग भर
खूब आनन्द लेते थे हम।
बड़े हुए
तो बालपन में
मन भटकने लगा
अक्सर कहते फ़िरते
आह! काश!
हम फिर बच्चे बन जायें।
और वृ़द्धावस्था क्या आई
सब कहने लगे
वृद्ध और बाल
तो समान ही होते हैं।
ऐसा नहीं होता रे
कोई मेरे मन से पूछे
इच्छाएँ कभी नहीं मरतीं
बालपन हो
युवावस्था अथवा वृद्धावस्था
चक्रव्यूह की भांति
जीवन भर उलझाये रखती हैं
जो मिला है,
वह भाता नहीं
जो नहीं मिला
वह जीवन-भर आता नहीं।
मन करता करूँ बात चाँद तारों से
मन करता करूँ बात चाँद तारों से।
न जाने कितने भाव
कितनी बातें
अनकही, सुलझी-अनसुलझी
भीतर-ही-भीतर
कचोटती हैं
बिलखती हैं
बहुत कुछ बोलती हैं।
किसी से कहते हुए
मन डरता है
कहीं कोई पूछ न ले
कोई बात की बात न हो जाये
कहीं पुराने ज़ख्म न खुल जायें
कहीं कोई अपनापन दिखाए
और हम शत्रुता का भाव पायें
न जाने किस बात का
कौन-सा अर्थ निकल आये
खुले गगन के नीचे
चाँद -तारों से बतियाती हूँ
मन की हर बात बताती हूँ ।
और गहरी नींद सो जाती हूँ ।
मृग-मरीचिका-सा जीवन
मृग-मरीचिका-सा जीवन
कभी धूप छलकती
कभी नदी बिखरती
कभी रेत संवरती।
कदम-दर-कदम
बढ़ते रहे।
जो मिला
ले लिया,
जो न मिला
उसी की आस में
चलते रहे, चलते रहे, चलते रहे
कभी बिखरते रहे
कभी कण-कण संवरते रहे।
नई आस नया विश्वास
एक चक्र घूमता है जीवन का।
उर्वरा धरा
जीवन विकसित करती है।
बीज से अंकुरण होता है
अंकुरण से
पौधे रूप लेने लगते हैं
जीवन की आहट मिलती है।
डालियाँ झूमती हैं
रंगीनियाँ बोलती हैं
गगन देखता है
मन इस आस में जीता है,
कुछ नया मिलेगा
जीवन आगे बढ़ेगा।
मानों धन-धान्य
बिखरता है इन डालियों में,
पुनः धरा में
और अंकुरित होती है नई आस
नया विश्वास।
जीवन का सच
महाभारत का यु़द्ध
झेलने के लिए
किसी से लड़ना नहीं पड़ता
बस अपने-आपको
अपने-आपसे
भीतर-ही-भीतर
मारना पड़ता है।
शायद
यही नियति है
हर औरत की।
कृष्ण क्या संदेश दे गये
सुनी-सुनाई बातें हैं सब।
कर्म किये जा
फल की चिन्ता मत कर।
कौन पढ़ता है आज गीता
कौन करता है वाचन
कृष्ण के वचनों का।
जीवन का सच
अपने-आपसे ही
झेलना पड़ता है
अपने-आपसे ही
जीना
और अपने-आपको ही
मारना पड़ता है।
अकेला ही चला जा रहा है आदमी
अपने भीतर
अपने-आपसे ही कट रहा है आदमी।
कहाँ जायें, कैसे जायें
कहाँ समझ पर रहा है आदमी।
टुकड़ों में है जीवन बीत रहा
बस
ऐसे ही तो चला जा रहा है आदमी।
कुछ काम का बोझ,
कुछ जीवन की नासमझी
कहाँ कोई साथ देता है
बस अकेला ही चला जा रहा है आदमी।
पानी की गहराई
नहीं जानता है
इसलिए पत्थरों पर ही
कदम-दर-कदम बढ़ रहा है आदमी।
देह कब तक साथ देगी
नहीं जानता
इसलिए देह को भी मन से नकार रहा है आदमी।
याद आते हैं वे दिन
याद आते हैं वे दिन जब सखियों संग स्कूल से आया करते थे
छीन-छीनकर एक-दूजे की रोटी आनन्द से खाया करते थे
राह चलते कभी खटमिट खाई, कभी खुरमानी तोड़ा करते थे
राहों में छुपन-छुपाई, गुल्ली-डंडा, लम्बी दौड़ लगाया करते थे
रस्सी-टप्पा, गिट्टे, उंच-नीच, स्टापू, जाने कितने खेल जमाया करते थे
पुरानी कापियाँ दे-देकर गोलगप्पे, चूरन, पापड़ी खाया करते थे
बारिश में भीग-भीगकर, छप्पक-छप्पक पानी उड़ाया करते थे
चलते-चलते जब थक जाते थे, बैग रख सो जाया करते थे
एक-दूसरे की कापियों की नकल कर होमवर्क कर लिया करते थे
याद आये वे दिन जब सखियों संग धमा-चैकड़ी मचाया करते थे
न जाने कौन कहाँ है आज याद नहीं, कुछ यादें रह गई हैं बस
कभी मिलेंगीं भी तो कहाँ पहचान होगी, क्यों सोच रही मैं आज
वे सड़कें, वे स्कूल, वो मस्तियाँ, लड़ना-झगड़ना, कुट्टी-मिट्टी
कभी-कभी बचपन के वे बीते दिन यूँ ही याद आ जाया करते थे
रंगों में भी इक महक होती है
रंगों में भी इक महक होती है, मन बहकाती है
अस्त होते सूर्य की गरिमा मन पर छा जाती है
कहीं कुमकुम-से, कहीं इन्द्रधनुषी रंग बिखर रहे
सागर के जल में रंगों की परछाईयाँ मन मोह जाती हैं
देख रहे त्रिपुरारी
भाल तिलक, माथ चन्द्रमा, गले में विषधर भारी
गौरी संग नयन मूंदकर जग देख रहे त्रिपुरारी
नेह बरसे, मन सरसे, देख-देख मन हरषे
विषपान किये, भागीरथी संग देखें दुनिया सारी
रोशनियाँ खिलती रहें
कदम बढ़ते रहें, जीवन चलता रहे, रोशनियाँ खिलती रहें
शाम हो या सवेरा, आस और विश्वास से बात बनती रहे
कहीं धूप खिली, कहीं छाया, कहीं बदरी छाये मन भाये
विश्राम क्या करना, जब साथ हों सब, खुशियाँ मिलती रहें
संगम का भाव
संगम का भाव मन में हो तो गंगा-घाट घर में ही बसता है
रिश्तों में खटास हो तो मन ही भीड़-तन्त्र का भाव रचना है
वर्षों-वर्षों बाद आता है कुम्भ जहाँ मिलते-बिछड़ते हैं अपने
ज्ञान-ध्यान, कहीं आस-विश्वास, इनसे ही जीवन चलता है
कोहरे में छिपी ज़िन्दगी
कोहरे में छिपी ज़िन्दगी भी तो आनन्द देती है
भीतर क्या चल रहा, सब छुपाकर रख देती है
कभी सूरज झांकता है, कभी बूँदे बहकती हैं
मन के भावों को परखने का समय देती हैं।
रोशनियाँ अंधेरों में भटक रही हैं
देखना ज़रा, आज रोशनियाँ अंधेरों में भटक रही हैं
पग-पग पर कंकड़-पत्थर हैं, पैरों में अटक रही हैं
न अंधेरे मिले सही से, न रोशनियों ने राह दिखाई
जीवन की गति इनकी ही पहचान में सटक रही है
मन में अब धीरज कहाँ रह गया
मन में अब धीरज कहाँ रह गया
पल-पल उलझनों में बह गया
मन का मौसम भी तो बदल रहा
पता नहीं कौन क्या-क्या कह गया
स्वार्थ का मुखौटा
किसी को कौन कब यहाँ पहचानता है
स्वार्थ का मुखौटा हर कोई पहनता है
मुँह फ़ेर कर निकल जाते हैं देखते ही
बस अगले-पिछले बदले निकालता है।
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का रचनाकार
यह विधाता,
जगत-नियन्ता
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का रचनाकार।
इसकी कुछ बातें मुझे
समझ ही नहीं आतीं।
इतने बड़े ब्रह्माण्ड का निर्माण किया
करोड़ों जीव-जन्तु बनाये
कितना श्रम किया होगा
कितना तो समय लगा होगा
शायद अरबों-खरबों वर्ष।
फिर उनकी देख-भाल
नवीनीकरण, और पता नहीं क्या-क्या।
किन्तु इतनी बड़़ी भूल
कैसे हो सकती है।
विज्ञान कहता है
जब बच्चा जन्म लेता है
तो उसके शरीर में
300 हड्डियाँ होती हैं
जो कालान्तर में 206 में
बदल जाती हैं।
और 300 हड्डियों को
लगाते-लगाते
जिह्वा में हड्डी लगाना ही भूल गये।
.
शायद, इसीलिए
अकेली जिह्वा ही
ज़रा-सा हिलकर
206 हड्डियों वाले
किसी भी ढांचे की
चूर-चूर, चकनाचूर
करने की क्षमता रखती है।
एकान्त काटता है
धरा दरक रही, वृक्ष पल्लवविहीन हो गये
एकान्त काटता है, साथी न कोई रह गये
आँखें शून्य में ताकती, नहीं कोई दूर तक
श्वेताभा में भी नैराश्य मानों सब पराये हो गये
दर्द का अब घूँट पिये
पुण्य करने गये थे, अपनों को साथ आस लिए
हाथ छूटे, साथ छूटे, कितने रहे, कितने जिये
नाम नहीं, पहचान नहीं, लाखों की भीड़ रही
अपनों को कहाँ खोजें, दर्द का अब घूँट पिये
जियें या मरें
किसी के हित में कुछ करें,
अपकार के लिए तैयार रहें
अच्छाईयाँ कोई नहीं देखता
आप चाहें जैसे जियें या मरें।
दयालुता न दिखलाना
दयालुता न दिखलाना
सहयोग का हाथ बढ़ाना
आँख न हो नीची कभी
हाथ से हाथ मिलाना
ऐसा नहीं होता
पता नहीं कौन कह गया
बूंद-बूंद से सागर भरता है।
सुनी-सुनाई पर
सभी कह देते हैं।
कभी देखा भी है सागर
उसकी गहराई
उसकी तलछट
उसके ज्वार-भाटे।
यहाँ तो बूंद-बूंद से
घट नहीं भरता
सागर क्या भरेगा।
कहने वालो
कभी आकर मिलो न
सागर क्या
मेरा घट ही भरकर दिखला दो न।
मंगल गान गा रहे
मंगल गान गा रहे, जीवन में खुशियाँ ला रहे हम
वन्दन सूर्य का कर रहे, जीवन में प्रकाश ला रहे हम
छोटे-छोटे उत्सव, छोटी-छोटी खुशियाँ आती रहें
हॅंस-बोलकर, मेल-मिलाप से जीवन में रंग ला रहे हम