चौखटे
समय बदल जाता है
सामान मिट जाता है
वस्तुएँ अर्थहीन हो जाती हैं
किन्तु
उनसे जुड़ी
कहावतें और मुहावरें
पीढ़ी-दर-पीढ़ी
कचोटती रहती हैं।
चौखटें नहीं रहीं
किन्तु
हमारे मन में
हमें
आज भी
बांधकर रख रही हैं
चौखटें।
मेरी यादों का सागर
कभी चखा तो नहीं
किन्तु सब कहते हैं
सागर का जल खारा हुआ करता है।
किन्तु मेरी यादों का सागर
तो बहुत मीठा हुआ करता था।
ऐसा क्या हुआ
कि अचानक ही
मेरी यादों का सागर
खारा हो गया,
भावों का सागर मानों
नाकारा हो गया।
तलहट उथली हो गई
नदियों के साथ आया अवशिष्ट
तन-मन में समा गया।
हवाओं के बवंडर
जब जल में उठते हैं
तब उत्ताल तरंगे बनाते हैं।
चांद को देखकर
कुलांचे भरता है
सागर का जल, मदमस्त।
किन्तु कब बदल जाते हैं उसके भाव
समझ नहीं पाते हम।
सागर के किनारे तो नहीं होते
पर पता नहीं क्यों
सब कहते हैं
सागर ने किनारे तोड़ दिये।
और जब किनारे टूटते हैं
तब बहुत कुछ छूट जाता है
और अनचाहा
साथ चला जाता है।
दिवास्वप्न
सपनों का संसार भी
अद्भुत है।
बिना पूछे चले आते हैं
और न जाने कितने दिनों तक
स्मृतियों में छाये रहते हैं।
सपने देखने के लिए
कोई ज़रूरी नहीं
कि सोया ही जाये,
सपनों की दुनिया में जाने के लिए
जागना भी पड़ता है
कभी रोना
तो कभी हँसना पड़ता है।
न कोई कथानक,
न कोई लिपि, न पांडुलिपि
एक अनजान संसार से
जूझना पड़ता है।
कभी अच्छा लगता है
कभी मन रोता है।
जो मुझे नहीं चाहिए
वह क्यों दिखाई देने लगता है
और चाहतें
क्यों मृत हो जाती हैं।
उदासी में उजास
तितली फूल-फूल उड़ रही थी
मन में खुशियां भर रही थी।
भंवरे अब दिखते नहीं
कल्पनाओं में उनकी गुनगुन सुन रही थी।
सूरज की किरणों की रोशनी
उदासी में उजास भर रही थी।
और क्या चाहिए ज़िन्दगी में
रात के अंधेरों में नहीं उलझती मैं
चांद-तारों से बातें कर रही थी।
क्यों यह सोचकर उदास हैं
कि कैसे कटेगी ज़िन्दगी
आंख मूंद, कुछ सपने देख
कुछ अपने देख
हंसी-खुशी बीतेगी ज़िन्दगी।
धैर्य
सब्र का इम्तहान लेते हो
फिर पूछते हो
रूठे-रूठे-से क्यों रहते हो।
यदि कभी कहा नहीं मैंने
कोई नाराज़गी नहीं जताई
इसका मतलब यह तो नहीं
कि तुम्हारी बातों से
मैंने चोट नहीं खाई।
वो प्यारी-सी एक चिड़िया
वो प्यारी-सी एक चिड़िया थी
जो याद बहुत आती है।
चुपके-चुपके टूटी खिड़की
या खुले द्वार से
घर के अन्दर तक
चली आती थी।
छत के किसी कोने में
न जाने कब घरौंदा बना
अपना अधिकार जमा जाती थी।
घास के तिनकों से
घर भर में
उधम मचाती
नाच-नाच जाती थी।
पीने के पानी में
सूखी रोटी
भिगो-भिगोकर खाती थी।
बच्चे उसके चूं-चूं करते
दिन-भर शोर मचाते
उनको दाना-पानी देकर
न जाने कहाँ उड़ जाती थी।
सांझ ढले लौटकर
बच्चों संग सो जाती थी।
किन्तु न जाने कब
बच्चों संग उड़ गई वो
घर सूना-सूना हो गया।
तिनके झरते-झरते
घर भर में फैले थे कुछ दिन,
याद दिलाते थे चिड़िया की।
मौसम बदला
एक दिन फिर चहकी चिड़िया
नये तिनके, नया जीवन
फिर लगी घरौंदा बनाने।
लेकर आई नवजीवन की आस।
आत्मस्वीकृति
कितनी-कितनी देर तक
बैठी रहती हूँ
देखती रहती हूँ स्क्रीन।
उपर से नीचे घुमाती रहती हैं
अंगुलियां स्क्रीन को।
कुछ पढ़ती हूँ
और कुछ अनपढ़ी रचनाओं को
निरखती हूँ।
निरर्थक वीडियो देखती रहती हूँ,
कुछ नाराज़गी से, कुछ चिढ़ से
न जाने क्या-क्या सोचती रहती हूँ।
मन करता है, कुछ लिखूं।
पर क्या करूंगी लिखकर।
न लिखने का मन रहता है
न पढ़ने का।
भटकन कहाँ है
बस यही समझ नहीं आता।
एक समय के बाद
शब्द बिखर जाते हैं
अर्थ बदल जाते हैं
भाव सिमट जाते हैं,
चल बन्द कर यह नाटक
और कुछ और काम कर।
मन रमता है
बारिश की बूंदें
धीरे-धीरे
मन को छूती हैं
कामनाओं का
संसार उमड़ता है
हवाओं संग
उड़ान भरती हूँ
धरा-गगन सब
मदमग्न मेरे साथ
इस एकान्त में
मन रमता है
अपने मन से
जुड़ता है।
सच और झूठ
ज़िन्दगी में
बहुत से
सच और झूठ हुआ करते हैं
लेकिन
अक्सर ऐसा क्यों होता है
कि जो तुम कहो
वही सबके लिए सच होता है।
क्यों होता है ऐसा
नहीं है कोई प्रश्न या उत्तर।
बस ऐसा ही होता है।
कुछ सच मेरे पास भी हैं
न जाने कैसे वे
झूठ का आवरण ओढ़ लेते हैं
न तुम समझना चाहते हो
न मैं समझा पाती हूँ।
इसलिए
अब मैंने कहना ही बन्द कर दिया है
जो तुम कहो
वही सच है
मान लिया मैंने भी।
नियति
कहते हैं
कमल
कीचड़ में खिलता है।
कितना सच है पता नहीं।
मेरे लिए
बस इतना ही बहुत है
कि खिलता है।
जीवन में खिलना
और खिलकर मुरझा जाना
यही नियति है।
किन्तु खिलकर
जीवन में रस भर जाना
नियति नहीं
स्वभाव है।
हमारी कामनाएं
हमारी कामनाएं
आकाश-सी।
आकाश से बरसते हैं
तुहिन कण।
भावनाओं को
मिलती है आर्द्रता।
मन चंचल होता है।
अनायास
मौसम बदलता है
और कामनाओं पर
होता है तुषारापात।
मैं अपराधी हो गई
इतनी भी
गलतियाँ, भूलें
नहीं की थीं
ज़िन्दगी में
कि तुम
हर समय
उन्हीं का लेखा-जोखा
लिए बैठे रहो।
बहुत कुछ किया होगा
जो तुम्हें
नापसन्द रहा होगा,
लेकिन उसे भूल
या गलती का नाम
तो नहीं दिया जा सकता।
कुछ मेरी अपनी भी
भावनाएँ थीं
अपनी पसन्द-नापसन्द,
अपनी तरह से
जीवन जीने का मन ।
केवल तुम्हारे ही सांचे में
ढलती रही जब तक
तब तक सब ठीक था।
जैसे ही
मेरी इच्छाओं का पिटारा खुला
मैं अपराधी हो गई।
ऐसा नहीं होता रे!
रिश्तों की डोर
रिश्तों की डोर,
बहुत कमज़ोर।
अनजाने, अनचाहे
बांधे रखते हैं
गांठों पर गांठें लगाते रहते हैं।
बस इसी आस में
कभी तो याद आयेंगे हम
किसी खास दिन पर,
न जाने कितने
भ्रम पाले रखते हैं हम।
अलमारियों के कोनों में
किन्हीं दराजों में
संजोकर रखी होती हैं
न जाने कितनी यादें।
अक्सर चाहती हूँ
दीमक लग जाये
या कोई चोरी करके ले जाये
किन्तु नहीं होता ऐसा।
विपरीत, मेरे ही अन्दर
दीमक पनपता है
और मैं प्रसन्न होती हूँ
कोई तो है मेरे साथ।
यह कैसी विडम्बना है।
रंगों की पोटली
अस्ताचल को जाते
रवि ने
रंगों की पोटली
खोल दी।
आंखों में
कुछ रंग उतर गये
कुछ बहक गये
कुछ महक गये
कुछ कुमकुम-से चहक गये
मानों नवजीवन मिला।
भोर में लौटकर आया
फिर कुछ नये रंग लाया
मन भरमाया।
जीवन में रंग मिलते रहें
और क्या चाहिए भला।
प्रकृति की आदतें Nature Habits
प्रकृति की आदतें भी
बड़ी अद्भुत सी हैं।
पेड़-पौधे पनपते हैं
मिट्टी को चीरकर निकलते हैं
छोटी-सी कोंपल,
मुस्काती, मदमाती,
नाजु़क-सी
विशाल वृक्ष बनकर
मन भरमाती है।
किन्तु
कष्ट देते हैं मुझे
वृक्षों से झरते पुष्प
अभी कल ही तो आये थे
और आज चल दिये।
खुशियों के पल
छोटे क्यों होते हैं।
मैं भी तो
मन के गह्वर में
ताला लगाकर रखा था
और भूल गई थी
कौन सा खजाना जमा है कहाँ।
अक्सर
खट-खट की आवाज़ें आती थीं
मैं बहक-बहक जाती थी।
क्या करें
पुरानी वस्तुओं का मोह नहीं छूटता
बस
सोचती रह जाती थी
नासमझ-सी।
बस इतना ही न समझ पाई
कि हर पुरानी चीज़
मूल्यवान नहीं होती।
मैं भी तो
सत्तर वर्ष पुरानी हो गई रे।
रिश्तों की सीवन
रिश्तों की सीवन
बड़ी कच्ची होती है,
छोटी-छोटी खींच-तान में
उधड़़-उधड़ जाती है।
दुबारा सिलो
तो टांके टूटते हैं
धागे बिखरते हैं,
रंग मेल नहीं खाते।
कितनी भी चाहत कर लो
फिर
वह बात कभी नहीं बन पाती
कभी भी नहीं।
इतना भी क्या गुस्सा
ठीक है
जीवन में सब कुछ सम्भव नहीं
किन्तु कोशिश करने में
क्या जाता है।
हर काम में
सदैव जीत-हार नहीं होती
कुछ बातें बस
प्रतीकार्थ, ध्वन्यार्थ भी होती हैं।
जानते हैं हम
बादलों को
बांध नहीं सकते
किन्तु उनकी
इतनी अव्यवस्थाओं पर
रोष तो जता ही सकते हैं।
जब बरसते हैं
तो रुकने का नाम ही नहीं लेते,
और जब बरसना चाहिए
तब हवाओं से अठखेलियाँ करते
उड़-उड़ जाते हैं।
बरसने की बात तक नहीं
आजकल तो
जहाँ-तहाँ फटने भी लगे हैं
भई, इतना भी क्या गुस्सा !
पराये-पराये-से लगते हो तुम
कैसे उठते हो
बैठते हो
बोलते हो तुम,
हर दिन
पराये-पराये-से
लगते हो तुम।
कभी समय था
जब तुम्हारा हर बोल
मन को छू जाता था
तुम्हारी याद में
तन-मन
सिहर-सिहर जाता था।
कहाँ चली गई
वह मिठास
वह बातें, वह यादें
कैसे इतना
बदल सकते हो तुम।
चेहरा भी
अजनबी-सा लगता है
आवाज़
जैसे कहीं दूर से आती हुई
कानों से टकराकर
लौट जाती है
कैसे इतना बदल सकते हो तुम।
हर दिन
पराये-पराये-से लगते हो तुम।
मम्मी लेकर छतरी आई
मम्मी लेकर छतरी आई
मुझको वह तो बहुत है भाई।
रंग-बिरंगी, सुन्दर-सुन्दर।
चिड़िया उस पर बनी हुई थी
हंस-हंसकर सबको दिखलाई।
मोनू आया, सोनू आया
भागी-भागी मुन्नी आई।
बारिश आई, बारिश आई
सब छतरी के नीचे आये
कोई भागे, कोई दौड़े
थोड़ा-थोड़ा भीग रहे थे
पानी से हम खेल रहे थे
इतने में ही आंधी आई
छतरी हमारी ले उडाई
उसके पीछे-पीछे हम भागे
कभी इधर जाये
कभी उधर जाये
इतने में ही मम्मी आई
कान पकड़कर डांट लगाई।
कड़ी धूप हो या छाया
हालात कैसे भी रहें
हमें मुस्कुराना आता है।
तुम कुछ भी कहो
हमें ठहाके लगाना आता है।
गहरी उमस के बाद
बरसात होती है
धरा से उठती है मीठी सुगंध
मन में फिर भी उदासी छाती है।
जानते हैं
आंसुओं की कोई कीमत नहीं होती
इसलिए हमें
आंखों से भी मुस्कुराना आता है।
कदम-दर-कदम बढा़ती हूँ मैं
जान चुकी हूँ
कि राहों में नहीं कोई अपना मिलेगा
किसी से सहारा नहीं मांगती मैं
बिना सहारे अब चलना आता है।
उमस और बरसात तो आनी-जानी है
कड़ी धूप हो या छाया
सबका सामना करने का मन बन गया है
अब हमें
ज़िन्दगी के आरोपों से टकराना आता है।
कबीर जयन्ती के अवसर पर
क्यों होते हैं ऐसे लोग
अपना सारा जीवन
विरोध करते हैं
झूठी परम्पराओं का,
अंधविश्वासों का ।
खण्डन-मण्डन करते हैं
मूर्ति-पूजा, धर्मान्धता का।
जाति-पाति, धर्म-कर्म की
सच्चाई बताने के लिए
अर्पित कर देते हैं अपना जीवन।
हिन्दू-मुस्लिम की नहीं
केवल इंसान की बात करते हैं।
समाज में
ऊँच-नीच का भेद मिटाने के लिए
जी-जान से लड़ते हैं।
अपनी सशक्त वाणी से
वे केवल सत्य की बात करते हैं।
निडर होकर बोलते हैं।
झूठ, पाखण्ड को भगाने के लिए
किसी भी सीमा तक सहते हैं।
क्यों होते हैं हर काल में
ऐसे कुछ लोग।
क्यों होते हैं कुछ ऐसे लोग।
शायद
समाज को चाहिए ऐसे लोग।
किन्तु उनके जाने के बाद
हम उनके नाम से पंथ बना लेते हैं।
उनके मन्दिरों में
उनकी मूर्तियां स्थापित करते हैं।
पूजा-अर्चना करते हैं।
उनके नाम पर छुट्टियां मांगते हैं।
नगर-कीर्तन निकालते हैं।
अपने-आपको
किसी एक पंथ का घोषित कर
एक नई जाति की बात करते हैं।
सुविधाओं की मांग करते हैं।
पिछड़ेपन और निर्धनता के नाम पर
सुविधाओं की मांग करते हैं।
क्यों होते हैं ऐसे लोग।
पता नहीं समाज को चाहिए कैसे लोग।
हाय! मेरी चाय
जब-जब
चाय का कप उठाती हूं
कोई न कोई टोक ही देता है मुझे
कम पीया करो चाय।
कभी-कभी तो मन करता है
पूछ ही लूं
तुम्हारे पैसे से पी रही हूं क्या?
मेरे चेहरे पर नाराज़गी के भाव देखकर
सफ़ाई देने लगते हैं
अरे हम तो
तुम्हारी ही सेहत की सोचकर
बोल दिये थे,
वैसे, जैसी तुम्हारी मर्ज़ी।
आहा, क्या बात कह दी
मेरा हित सोचते हो तुम।
पता नहीं क्या हो गया है मुझे
मीठी चाय की बात करने बैठी थी
और फिर कहीं से
कड़वाहट आ गई बीच में।
आज
चाय पर बहुत बातें हो रही हैं
सोचा, ज़रा-सा मैं भी कर लूं।
अभी कहीं पढ़ा
चाय से हमारे शरीर को
बहुत नुकसान होते हैं।
गल जाती हैं हड्डियां
बनती है गैस,
खाया-पीया पचता नहीं
चाय में कैफ़ीन के कारण
नींद नहीं आती रातों को।
चिड़चिड़े हो जाते हैं हम
हृदयगति बढ़ जाती है
दांत पीले होकर
सड़ जाते हैं
गुर्दे में पथरी और
शरीर में सूजन हो जाती है।
चीनी से शूगर बढ़ जाती है।
-
इतना सब पढ़ने के बाद
मैं लौट-लौटकर
देख रही हूं
अपने आपको
जिसके रक्त में बहती है चाय
पिछले 70 वर्षों से
अबाध।
और यह चाय-संचार
अभी भी जारी है।
मुझे विश्वास है
कि हमें तो जन्म-घुट्टी भी
चाय की ही मिली होगी।
-
चाय के साथ ही
उठना होता है
चाय के साथ ही खाना और सोना।
कुछ अच्छा लगे तो चाय
कुछ चुभे तो चाय
मूड खराब है तो चाय
कोई अच्छी खबर है तो चाय
कुछ काटे तो चाय
पढ़ना है तो चाय
सोने से पहले चाय ।
महफ़िल जमानी है तो चाय
लिखने बैठी हूं तो चाय ।
थके तो चाय।
कोई आए तो चाय
कोई जाए तो चैन की सांस और चाय,
जल्दी भगाना हो तो चाय।
सबसे बड़ी बात
चाय ज्यादा बन गई
फालतू पड़ी है पियेंगी।
आइए पी लीजिए।
.
हाय! मेरी चाय बनी रहे।
नज़र न लगे।
आग
हर आग में चिंगारियाँ नहीं होतीं।
हर आग में लपटें भी नहीं होतीं।
रंग-बिरंगी
सतरंगी-सी दिखती है कोई आग।
चुपचाप
राख में दबी होती है कोई आग।
नाराज़ होकर
कभी-कभी
भड़क भी उठती है कोई आग।
कहते हैं
बड़ी पवित्र होती है कोई-कोई आग।
जन्म से मरण तक
हमें अपने चारों ओर घुमाती है आग।
चाहकर भी बच नहीं पाते हम,
बाहर-भीतर धधकती है आग।
आग में ही ज़िन्दगियाँ पलती हैं
और आग में ही ज़िन्दगियाँ बुझती हैं।
जब तक है मेरे जीवन की कश्ती
न जल है, न थल है
बस भावनाओं का ज्वार है
जिसमें बहती रहती है
जीवन की कश्ती।
न खेवट की जानकारी
न पतवार का सहारा
बस हवाओं के सहारे ही
घूमती रहती है जीवन की कश्ती।
कोई कहता है
ऊपरवाले के हाथ में है पतवार
तो कोई भाग्य की बात करता है
मैं नहीं जानती।
बस इतना जानती हूँ
जब डूबेगी
तो मैं बचा नहीं पाऊंगी
भंवर में फ़ंसेगी तो सम्हाल नहीं पाऊंगी ।
लेकिन
जब तक है, तब तक
लहरों में झूलती
मदमस्त हवाओं में लहराती
नित नई कहानियाँ बनातीं
दुख-सुख, धूप-छाँव में गहराती
आनन्द ले रही हूँ मैं
जब तक है मेरे जीवन की कश्ती ।
ये अल्हड़-सी बेटियां
ये अल्हड़-सी बेटियां
कब बड़ी हो जाती हैं
उन्हें स्वयं पता नहीं होता।
वे जानना भी नहीं चाहतीं
कि वे बड़ी हो रही हैं
या बड़ी हो गई हैं।
वे अपने-आपमें
खेलती-कूदती
हंसती-खिलखिलाती
तितलियों-सी उड़तीं
बागों को महकातीं
अपने मन से जीती
धीरे-धीरे
रोक-टोक के साये में जीने लगती हैं।
घर-बाहर, हर कोई
समझाने लगता है उन्हें
वे बड़ी हो गई हैं
उन्हें अब
कैसे चलना चाहिए
कैसे बात करनी चाहिए
क्या बोलना है
और क्या नहीं बोलना है
सब बताते हैं उन्हें।
पहनने-ओढ़ने का ज्ञान मिलता है
अपने मन से जीतीं
वे औरों के मन से जीने लगती हैं
औरों के मन का सोचने-समझने
खाने-पीने
पहनने-ओढ़ने और चलने लगती हैं।
खुले द्वार
धीरे-धीरे बन्द होने लगते हैं
चिटखनियां बड़ी हो जाती हैं
ताले बदल दिये जाते हैं
उड़ान कमरों में बन्द हो जाती है
हंसी कहीं खो जाती है।
नासमझ-सी
ये अल्हड़-सी बेटियां
नहीं समझ पातीं ये सब।
पर
कब बड़ी हो जाती हैं
उन्हें स्वयं ही पता नहीं होता।
विरासत
बस
समझ-समझ का फ़ेर है
किसी ने
लाखों तारों में
चाँद को भी तन्हा देखा
और किसी ने
डूबते वक्त
सूरज को भी तन्हा देखा।
मुझे लगता है
जब सूरज जाता है अस्ताचल में
तो अपनी विरासत,
रंगीनियाँ
छोड़ जाता है चाँद के लिए।
नीलाभ गगन में
चाँद
तारों को सौंप देता है
वह विरासत
प्रातः के लिए।
और भोर में
लौट आता है सूरज,
चाँद से मिलता है
मुदित मन से
रंगीनियाँ समेटता-बिखेरता।
यही ज़िन्दगी है।
पलाश के फूल और तुम
बहुत उंचे वृक्षों पर लगते हैं
पलाश के फूल
अक्सर पहुंच से दूर।
कहीं वन-कानन में।
लाल सुर्ख
आकर्षित करते हैं
मादक भाव से।
कैसी सुगंध, कैसे रंग।
खिलते हैं तो
सारा जहाँ खिल-खिल जाता है
मन मग्न हो जाता है
तुम्हारे रूप-सौन्दर्य में
कहीं खो-खो जाता है।
और तुम !
जैसे पलाश हो मेरे जीवन में।
कभी समझ ही नहीं पाई
तुम्हारी नज़दीकियाँ और दूरियाँ।
कभी अपने-से लगते हो
कभी सपने-से लगते हो
कभी खिले-खिले
कभी बुझे-बुझे
मौसम के साथ बदलते हो।
खोजने निकलती हूँ तुम्हें
किसी वन-कानन में
सुदूर,
लौट आती हूँ उदास।
प्रतीक्षा करती हूँ
मौसम के बदलने का
कभी तो खिलोगे
बस मेरे लिए।
वास्वविकता और छल
हमारे आस-घूमते हैं
बहुत सारे शब्द घूमते हैं
जीवन को साधते हैं
सत्य वास्वविकता और छल
जीवन में साथ-साथ चलते हैं
अक्सर पर्यायवाची-से लगते हैं।
जो हमारे हित में हो
वह सत्य और वास्तविकता
कहलाता है
जहां हम छले जायें
चाहे वह जीवन की
वास्तविकता और सत्य ही
क्यों न हो
हमारे लिए छल ही होता है।
चल मौज मनायें
पढ़ने-लिखने में क्या रखा है, चल ढोल बजायें
कहते हैं जीवन छोटा है, फिर चल मौज मनायें
न कोई पुस्तक, न परीक्षा, न कोई अध्यापक
ताल-सुर में क्या रखा है, बस अपना मन बहलायें
@@googleAddHere