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सब्ज़ी वाला आया न, सुबह से द्वार खड़ी हूँ मैं
आते होंगे भोजन के लिए, चिन्ता में पड़ी हूँ मैं
स्कूटी मेरी पंक्चर खड़ी, मण्डी तक जाऊँ कैसे
काम में हाथ बंटाया करो कितनी बार लड़ी हूँ मैं
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व्यवसाय बनी है शिक्षा
शिक्षक का नअब मान रहा।
छात्र का न अब प्रतिदान रहा।
व्यवसाय बनी है शिक्षा अब,
व्यापार बना, यह काम रहा।
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आंसू और हंसी के बीच
यूं तो राहें समतल लगती हैं, अवरोध नहीं दिखते।
चलते-चलते कंकड़ चुभते हैं, घाव कहीं रिसते।
कभी तो बारिश की बूंदें भी चुभ जाया करती हैं,
आंसू और हंसी के बीच ही इन्द्रधनुष देखे खिलते।
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उलझनों से भागकर सहज लगता है जीवन
तितलियों संग देखो उड़ता फिरता है मन
चांद-तारो संग देखो मुस्कुराता है गगन
चल कहीं आज किसी के संग बैठें यूं ही
उलझनों से भागकर सहज लगता है जीवन
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चिन्ता में पड़ी हूँ मैं
सब्ज़ी वाला आया न, सुबह से द्वार खड़ी हूँ मैं
आते होंगे भोजन के लिए, चिन्ता में पड़ी हूँ मैं
स्कूटी मेरी पंक्चर खड़ी, मण्डी तक जाऊँ कैसे
काम में हाथ बंटाया करो कितनी बार लड़ी हूँ मैं
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मुस्कुराहटें बांटती हूँ
टोकरी-भर मुस्कुराहटें बांटती हूँ।
जीवन बोझ नहीं, ऐसा मानती हूँ।
काम जब ईमान हो तो डर कैसा,
नहीं किसी का एहसान माँगती हूँ।
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प्रकृति की ये कलाएँ
अपने ही रूप को देखो निहार रही ये लताएँ
मन को मुदित कर रहीं मनमोहक फ़िज़ाएँ
जल-थल-गगन मौन बैठे हो रहे आनन्दित
हर रोज़ नई कथा लिखती हैं इनकी अदाएँ
कौन समझ पाया है प्रकृति की ये कलाएँ
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चांद को पाल पर बांध लिया
चांद को पाल पर बांध लिया है, ज़रा मेरी हिम्मत देखो
ध्वज फहराया है सागर बीच, ज़रा मैंने मेरी हिम्मत देखो
न आंधियां न तूफान न ज्वार भाटा न भंवर रोकती है मुझे
बांध कर सबको पाल में बहती हूं अनवरत,ज़रा मेरी हिम्मत देखो
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दीवारें एक नाम है पूरे जीवन का
दीवारें
एक नाम है
पूरे जीवन का ।
हमारे साथ
जीती हैं पूरा जीवन।
सुख-दुख, अपना-पराया
हंसी-खुशी या आंसू,
सब सहेजती रहती हैं
ये दीवारें।
सब सुनती हैं,
देखती हैं, सहती हैं,
पर कहती नहीं किसी से।
कुछ अर्थहीन रेखाएं
अंगुलियों से उकेरती हूं
इन दीवारों पर।
पर दीवारें
समझती हैं मेरे भाव,
मिट्टी दरकने लगती है।
कभी गीली तो कभी सूखी।
दरकती मिट्टी के साथ
कुछ आकृतियां
रूप लेने लगती हैं।
समझाती हैं मुझे,
सहलाती हैं मेरा सर,
बहते आंसुओं को सोख लेती हैं।
कभी कुछ निशान रह जाते हैं,
लोग समझते हैं,
कोई कलाकृति है मेरी।
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सर्वगुण सम्पन्न कोई नहीं होता
जान लें हम सर्वगुण सम्पन्न तो यहां कोई नहीं होता
अच्छाई-बुराई सब साथ चले, मन यूं ही दुख में रोता
राम-रावण जीवन्त हैं यहां, किस-किस की बात करें
अन्तद्र्वन्द्व में जी रहे, नहीं जानते, कौन कहां सजग होता
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वरदान और श्राप
किसी युग में
वरदान और श्राप
साथ-साथ चलते थे।
वरदान की आशा में
भक्ति
और कठोर तपस्या करते थे
किन्तु सदैव
कोई भूल
कोई चूक
ले डूबती थी
सब अच्छे कर्मों को
और वरदान से पहले
श्राप आ जाता था।
और कभी-कभी
इतनी बड़ी गठरी होती थी
भूल-चूक की
कि वरदान तक
बात पहुँच ही नहीं पाती थी
मानों कोई भारी
बैरीकेड लगा हो।
श्राप से वरदान टूटता था
और वरदान से श्राप,
काल की सीमा
अन्तहीन हुआ करती थी।
और एक खतरा
यह भी रहता था
कि पता नहीं कब वरदान
श्राप में परिवर्तित हो जाये
और श्राप वरदान में
और दोनों का घालमेल
समझ ही न आये।
-
बस
इसी डर से
मैं वरदान माँगने का
साहस ही नहीं करती
पता नहीं
भूल-चूक की
कितनी बड़ी गठरी खुल जाये
या श्राप की लम्बी सूची।
-
जो मिला है
उसमें जिये जा
मज़े की नींद लिए जा।