चौखटे
समय बदल जाता है
सामान मिट जाता है
वस्तुएँ अर्थहीन हो जाती हैं
किन्तु
उनसे जुड़ी
कहावतें और मुहावरें
पीढ़ी-दर-पीढ़ी
कचोटती रहती हैं।
चौखटें नहीं रहीं
किन्तु
हमारे मन में
हमें
आज भी
बांधकर रख रही हैं
चौखटें।
उदासी में उजास
तितली फूल-फूल उड़ रही थी
मन में खुशियां भर रही थी।
भंवरे अब दिखते नहीं
कल्पनाओं में उनकी गुनगुन सुन रही थी।
सूरज की किरणों की रोशनी
उदासी में उजास भर रही थी।
और क्या चाहिए ज़िन्दगी में
रात के अंधेरों में नहीं उलझती मैं
चांद-तारों से बातें कर रही थी।
क्यों यह सोचकर उदास हैं
कि कैसे कटेगी ज़िन्दगी
आंख मूंद, कुछ सपने देख
कुछ अपने देख
हंसी-खुशी बीतेगी ज़िन्दगी।
धैर्य
सब्र का इम्तहान लेते हो
फिर पूछते हो
रूठे-रूठे-से क्यों रहते हो।
यदि कभी कहा नहीं मैंने
कोई नाराज़गी नहीं जताई
इसका मतलब यह तो नहीं
कि तुम्हारी बातों से
मैंने चोट नहीं खाई।
मन रमता है
बारिश की बूंदें
धीरे-धीरे
मन को छूती हैं
कामनाओं का
संसार उमड़ता है
हवाओं संग
उड़ान भरती हूँ
धरा-गगन सब
मदमग्न मेरे साथ
इस एकान्त में
मन रमता है
अपने मन से
जुड़ता है।
सच और झूठ
ज़िन्दगी में
बहुत से
सच और झूठ हुआ करते हैं
लेकिन
अक्सर ऐसा क्यों होता है
कि जो तुम कहो
वही सबके लिए सच होता है।
क्यों होता है ऐसा
नहीं है कोई प्रश्न या उत्तर।
बस ऐसा ही होता है।
कुछ सच मेरे पास भी हैं
न जाने कैसे वे
झूठ का आवरण ओढ़ लेते हैं
न तुम समझना चाहते हो
न मैं समझा पाती हूँ।
इसलिए
अब मैंने कहना ही बन्द कर दिया है
जो तुम कहो
वही सच है
मान लिया मैंने भी।
नियति
कहते हैं
कमल
कीचड़ में खिलता है।
कितना सच है पता नहीं।
मेरे लिए
बस इतना ही बहुत है
कि खिलता है।
जीवन में खिलना
और खिलकर मुरझा जाना
यही नियति है।
किन्तु खिलकर
जीवन में रस भर जाना
नियति नहीं
स्वभाव है।
हमारी कामनाएं
हमारी कामनाएं
आकाश-सी।
आकाश से बरसते हैं
तुहिन कण।
भावनाओं को
मिलती है आर्द्रता।
मन चंचल होता है।
अनायास
मौसम बदलता है
और कामनाओं पर
होता है तुषारापात।
रिश्तों की डोर
रिश्तों की डोर,
बहुत कमज़ोर।
अनजाने, अनचाहे
बांधे रखते हैं
गांठों पर गांठें लगाते रहते हैं।
बस इसी आस में
कभी तो याद आयेंगे हम
किसी खास दिन पर,
न जाने कितने
भ्रम पाले रखते हैं हम।
अलमारियों के कोनों में
किन्हीं दराजों में
संजोकर रखी होती हैं
न जाने कितनी यादें।
अक्सर चाहती हूँ
दीमक लग जाये
या कोई चोरी करके ले जाये
किन्तु नहीं होता ऐसा।
विपरीत, मेरे ही अन्दर
दीमक पनपता है
और मैं प्रसन्न होती हूँ
कोई तो है मेरे साथ।
यह कैसी विडम्बना है।
रंगों की पोटली
अस्ताचल को जाते
रवि ने
रंगों की पोटली
खोल दी।
आंखों में
कुछ रंग उतर गये
कुछ बहक गये
कुछ महक गये
कुछ कुमकुम-से चहक गये
मानों नवजीवन मिला।
भोर में लौटकर आया
फिर कुछ नये रंग लाया
मन भरमाया।
जीवन में रंग मिलते रहें
और क्या चाहिए भला।
प्रकृति की आदतें Nature Habits
प्रकृति की आदतें भी
बड़ी अद्भुत सी हैं।
पेड़-पौधे पनपते हैं
मिट्टी को चीरकर निकलते हैं
छोटी-सी कोंपल,
मुस्काती, मदमाती,
नाजु़क-सी
विशाल वृक्ष बनकर
मन भरमाती है।
किन्तु
कष्ट देते हैं मुझे
वृक्षों से झरते पुष्प
अभी कल ही तो आये थे
और आज चल दिये।
खुशियों के पल
छोटे क्यों होते हैं।
मैं भी तो
मन के गह्वर में
ताला लगाकर रखा था
और भूल गई थी
कौन सा खजाना जमा है कहाँ।
अक्सर
खट-खट की आवाज़ें आती थीं
मैं बहक-बहक जाती थी।
क्या करें
पुरानी वस्तुओं का मोह नहीं छूटता
बस
सोचती रह जाती थी
नासमझ-सी।
बस इतना ही न समझ पाई
कि हर पुरानी चीज़
मूल्यवान नहीं होती।
मैं भी तो
सत्तर वर्ष पुरानी हो गई रे।
रिश्तों की सीवन
रिश्तों की सीवन
बड़ी कच्ची होती है,
छोटी-छोटी खींच-तान में
उधड़़-उधड़ जाती है।
दुबारा सिलो
तो टांके टूटते हैं
धागे बिखरते हैं,
रंग मेल नहीं खाते।
कितनी भी चाहत कर लो
फिर
वह बात कभी नहीं बन पाती
कभी भी नहीं।
आग
हर आग में चिंगारियाँ नहीं होतीं।
हर आग में लपटें भी नहीं होतीं।
रंग-बिरंगी
सतरंगी-सी दिखती है कोई आग।
चुपचाप
राख में दबी होती है कोई आग।
नाराज़ होकर
कभी-कभी
भड़क भी उठती है कोई आग।
कहते हैं
बड़ी पवित्र होती है कोई-कोई आग।
जन्म से मरण तक
हमें अपने चारों ओर घुमाती है आग।
चाहकर भी बच नहीं पाते हम,
बाहर-भीतर धधकती है आग।
आग में ही ज़िन्दगियाँ पलती हैं
और आग में ही ज़िन्दगियाँ बुझती हैं।
वास्वविकता और छल
हमारे आस-घूमते हैं
बहुत सारे शब्द घूमते हैं
जीवन को साधते हैं
सत्य वास्वविकता और छल
जीवन में साथ-साथ चलते हैं
अक्सर पर्यायवाची-से लगते हैं।
जो हमारे हित में हो
वह सत्य और वास्तविकता
कहलाता है
जहां हम छले जायें
चाहे वह जीवन की
वास्तविकता और सत्य ही
क्यों न हो
हमारे लिए छल ही होता है।
हाइकु पल्लव
पल्लव झड़े
धरा के आंचल में
विंहस दिये
-
तितली बैठी
पल्लव मुस्कुराये
हवा महकी
-
पतझड़ में
पल्लव उड़ रहे
मन विहंसा
तेरा विश्वास
तेरा विश्वास
जब-जब किया
तब-तब ज़िन्दगी ने
पाठ पढ़ाया।
उस ईश्वर ने कहा
तुझे भी तो दिया था
एक दिमाग़
उसमें कचरा नहीं था,
बहुत कुछ था।
किन्तु
जब प्रयोग नहीं किया
तो वह
कचरा ही बन गया
अब दोष मुझे देते हो
कि
ऐसा साथ क्यों दिया।
समय यूँ ही बीत जाता है
एकान्त
कभी-कभी अच्छा लगता है।
सूनापन
मन में रमता है।
जल, धरा, गगन
मानों परस्पर बातें करते हैं,
जीवन छलकता है।
नाव रुकी, ठहरी-ठहरी-सी
परख रही हवाएँ
जीवन यूँ ही चलता है।
न अंधेरा, न रोशनी,
जीवन में धुंधलापन
बहकता है।
हाथों में डोरी
कुछ सवाल बुनती है
कभी उधेड़ती है
कभी समेटती है
समय यूँ ही बीत जाता है।
अंधेरे के बाद सवेरा
अंधेरे के बाद सवेरा !
ज़रूरी तो नहीं
रोशनी भी लेकर आये।
कभी-कभी
सवेरे भी अंधकारमय होते हैं।
सूरज बहका-बहका-सा
घूमता है।
किरणें कहीं खो जाती हैं।
भीतर ही भीतर
बौखला जाती हैं।
आंखें धुंधली हो जाती हैं,
दिखाई कुछ नहीं देता
किन्तु
हाथ बढ़ाने पर
अनदेखी रोशनियों से
हाथ जलने जाते हैं
अंधेरे और रोशनियों के बीच
ज़िन्दगी कहीं खो जाती है।
मृग-मरीचिका-सा जीवन
मृग-मरीचिका-सा जीवन
कभी धूप छलकती
कभी नदी बिखरती
कभी रेत संवरती।
कदम-दर-कदम
बढ़ते रहे।
जो मिला
ले लिया,
जो न मिला
उसी की आस में
चलते रहे, चलते रहे, चलते रहे
कभी बिखरते रहे
कभी कण-कण संवरते रहे।
ऐसा नहीं होता
पता नहीं कौन कह गया
बूंद-बूंद से सागर भरता है।
सुनी-सुनाई पर
सभी कह देते हैं।
कभी देखा भी है सागर
उसकी गहराई
उसकी तलछट
उसके ज्वार-भाटे।
यहाँ तो बूंद-बूंद से
घट नहीं भरता
सागर क्या भरेगा।
कहने वालो
कभी आकर मिलो न
सागर क्या
मेरा घट ही भरकर दिखला दो न।
कैसी है ये ज़िन्दगी
बहुत लम्बी है ज़िन्दगी।
पल-पल का
हिसाब नहीं रखना चाहती।
किन्तु चाहने से
क्या होता है।
जिन पलों को
भूलना चाहती हूॅं
वे मन-मस्तिष्क पर
गहरे से
मानों गढ़ जाते हैं
और जो पल
जीवन में भले-से थे
वे कहाॅं याद आते हैं।
कैसी है ये ज़िन्दगी।
शून्य दिखलाई देता है
न जाने कैसी सोच हो गई
अपने भी अब
अपनों-से न लगते हैं।
नींद नहीं आती रातों को
सोच-सोचकर
मन भटके है।
ऐसी क्या बात हो गई,
अब भीड़ भरे रिश्तों में
शून्य दिखलाई देता है
अवसर पर कोई नहीं मिलता,
सब भागे-दौड़े दिखते हैं।
मन के रंग
डालियों से छिटक-कर
बिखर गये हैं
धरा पर ये पुष्प
शायद मेरे ही लिए।
सोचती हूॅं
हाथों में समेट लूॅं
चाहतों में भर लूॅं
रंगों से
जीवन को महका लूॅं
इससे पहले
कि ये रंग बदल लें
क्यों न मैं इनके साथ
अपने मन के रंग बना लूॅं।
पीड़ा का मर्म
कौन समझ सकता है
पीड़ा के मर्म को
मुस्कानों, हॅंसी
और ठहाकों के पीछे छिपी।
देखने वाले कहते हैं
इतनी ज़ोर से हॅंसती है
आॅंखों से आॅंसू
बह जाते हैं इसके।
-
काश!
ऐसे हम भी होते।
-
मैं कहती हूॅं
अच्छा है
आप ऐसे नहीं हैं।
मौन साधना है
कहते हैं
मौन साधना है
चुप रहना
बड़ी हिम्मत का काम है।
तो फिर यह
इतनी लम्बी जिह्वा
किसलिए मिली है हमें
बतलायेगा कोई।
अपनी राहें आप बनाता चल
संसार विवादों से रहित नहीं है,
उसको हाशिए पर रखता चल।
अपनी चाल पर बस ध्यान दे
औरों को अॅंगूठा दिखाता चल।
कोई क्या बोल रहा न ध्यान दे
अपने मन की सुन, गाता चल।
तेरे पैरों के नीचे की ज़मीन
खींचने को तैयार बैठे हैं लोग
न परवाह कर,
धरा ही क्या
गगन पर भी छाता चल।
आॅंधी हो या तूफ़ान
अपनी राहें आप बनाता चल।
चौखट पर सपने
पलकों की चौखट पर सपने
इक आहट से जग जाते हैं।
बन्द कर देने पर भी
निरन्तर द्वार खटखटाते हैं।
आॅंखों में नींद नहीं रहती
फिर भी सपने छूट नहीं पाते हैं।
कुछ देखे, कुछ अनदेखे सपने
भीतर ही भीतर कुलबुलाते हैं।
नहीं चाहती कोई समझ पाये
मेरे सपनों की माया
पर आॅंखें मूॅंद लेने पर भी
कोरों पर नम-से उभर आते हैं।
पहाड़ों की टेढ़ी-मेढ़ी पगडण्डिया
पहाड़ों की टेढ़ी-मेढ़ी
संकरी पगडण्डियाॅं
जीवन में उतर आईं,
सीधे-सादे रास्ते
अनायास ही
मनचले हो गये।
कूदते-फाॅंदते
जीवन में आते रहे
उतार-चढ़ाव
और हम
आगे बढ़ते रहे।
फ़िसलन बहुत हो जाती है
जब बरसता है पानी
गिरती है बर्फ़
रुई के फ़ाहों-सी,
आॅंखों को
एक अलग तरह की
राहत मिलती है।
जीवन में
टेढ़ेपन का
अपना ही आनन्द होता है।
बोलना भूलने लगते हैं
चुप रहने की
अक्सर
बहुत कीमत चुकानी पड़ती है
जब हम
अपने ही हक़ में
बोलना भूलने लगते हैं।
केवल
औरों की बात
सुनने लगते हैं।
धीरे-धीरे हमारी सोच
हमारी समझ कुंद होने लगती है
और जिह्वा पर
काई लग जाती है
हम औरों के ढंग से जीने लगते हैं
या सच कहूॅं
तो मरने लगते हैं।
खाली हाथ
मन करता है
रोज़ कुछ नया लिखूॅं
किन्तु न मन सम्हलता है
न अॅंगुलियाॅं साथ देती हैं
विचारों का झंझावात उमड़ता है
मन में कसक रहती है
लौट-लौटकर
वही पुरानी बातें
दोहराती हैं।
नये विचारों के लिए
जूझती हूॅं
अपने-आपसे बहसती हूॅं
तर्क-वितर्क करती हूॅं
नया-पुराना सब खंगालती हूॅं
और खाली हाथ लौट आती हूॅं।