दिल घायल
लोग कहते हैं
किसी की बात गलत हो
तो
एक कान से सुनो
दूसरे से निकाल दो।
किन्तु क्या करें
हमारे
दोनों कानों के बीच में
कोई सुंरग नहीं है
बात या तो
सीधी दिमाग़ में लगती है
अथवा
दिल घायल कर जाती है
अथवा
दोनों को तोड़ जाती है।
बेटियाँ धरा पर
माता-पिता तो
देना चाहते हैं
आकाश
अपनी बेटियों को
किन्तु वे
स्वयं ही
नहीं जान पाते
कब
उन्होंने
अपनी बेटियों के
सपनों को
आकाश में ही
छोड़ दिया
और उन्हें
उतार लाये
धरा पर
ये दो दिन
कहते हैं
दुनिया
दो दिन का मेला,
कहाँ लगा
कबसे लगा,
मिला नहीं।
-
वैसे भी
69 वर्ष हो गये
ये दो दिन
बीत ही नहीं रहे।
यादें बिखर जाती हैं
पन्ने खुल जाते हैं
शब्द मिट जाते हैं
फूल झर जाते हैं
सुगंध उड़ जाती है
यादें बिखर जाती हैं
लुटे भाव रह जाते हैं
मन में बजे सरगम
मस्ती में मनमौजी मन
पायल बजती छन-छनछन
पैरों की अनबन
बूँदों की थिरकन
हाथों से छल-छल
जल में
बनते भंवर-भंवर
हल्की-हल्की छुअन
बूँदों की रागिनी
मन में बजती सरगम।
अपने मन की सुन
अपने-आपको
अपनी नज़र से
देखना-परखना
अपने सौन्दर्य पर
आप ही मोहित होना
कभी केवल
अपने लिए सजना-संवरना
दर्पण से बात करना
अपनी मुस्कुराहट से
आनन्दित होना
फूलों-सा महकना
रंगों की रंगीनियों में बहकना
चूड़ियों का खनकना
हार का लहकना
झुमकों की खनखन
पल्लू की थिरकन
मन में गुनगुन
बस अपने मन की सुन।
स्त्री की बात
जब कोई यूं ही
स्त्री की बात करता है
मैं समझ नहीं पाती
कि यह राहत की बात है
अथवा चिन्ता की
चतुर सुजान
चतुर सुजान पिछले युग के
सुजान
कहीं पीछे छूटे
चतुर-चतुर यहां बचे
मुस्कान सरस सी
हाईकू
देखा तुमने
मुस्कान सरस सी
जीवन रेखा
मेरी पुस्तकों की कीमत
दीपावली, होली पर
खुलती है अब
पुस्तकों की आलमारी।
झाड़-पोंछ,
उलट-पलटकर
फिर सजा देती हूँ
पुस्तकों को
डैकोरेशन पीस की तरह ।
बस, इतने से ही
बहुत प्रसन्न हो लेती हूँ
कि मेरी
पुस्तकों की कीमत
कई सौ गुणा बढ़ गई है
दस की सौ हो गई है।
सोचती हूँ
ऐमाज़ान पर डाल दूँ।
भीतर के भाव
हर पुस्तक के
आरम्भ और अन्त में
कुछ पृष्ठ
कोरे चिपका दिये जाते हैं
शायद
पुस्तकों को सहेजने के लिए।
किन्तु हम
बस पन्नों को ही
सहेजते रह जाते हैं
पुस्तकों के भीतर के भाव
कहाँ सहेज पाते हैं।
जीवन की आपा-धापी में
सालों बाद, बस यूँ ही
पुस्तकों की आलमारी
खोल बैठी।
पन्ना-पन्ना मेरे हाथ आया,
घबराकर मैंने हाथ बढ़ाया,
बहुत प्रयास किया मैंने
पर बिखरे पन्नों को
नहीं समेट पाई,
देखा,
पुस्तकों के नाम बदल गये
आकार बदल गये
भाव बदल गये।
जीवन की आपा-धापी में
संवाद बदल गये।
प्रारम्भ और अन्त
उलझ गये।
अपने कर्मों पर रख पकड़
चाहे न याद कर किसी को
पर अपने कर्मों से डर
न कर पूजा किसी की
पर अपने कर्मों पर रख पकड़ ।
न आराधना के गीत गा किसी के
बस मन में शुद्ध भाव ला ।
हाथ जोड़ प्रणाम कर
सद्भाव दे,
मन में एक विश्वास
और आस दे।
कशमकश
कशमकश
इस बात की नहीं
कि जो मुझे मिला
जितना मुझे मिला
उसके लिए
ईश्वर को धन्यवाद दूँ,
कशमकश इस बात की
कि कहीं
तुम्हें
मुझसे ज़्यादा तो नहीं मिल गया।
दिमाग़ में भरे भूसे का
घर जितना पुराना होता जाता है
अनचाही वस्तुओं का
भण्डार भी
उतना ही बड़ा होने लगता है।
सब अत्यावश्यक भी लगता है
और निरर्थक भी।
यही हाल आज
हमारे दिमाग़ में
भरे भूसे का है
अपने-आपको खन्ने खाँ
समझते हैं
और मौके सिर
आँख, नाक, कान, मुँह पर
सब जगह ताले लग जाते हैं।
आँसू और मुस्कुराहट
तुम्हारी छोटी-छोटी बातें
अक्सर
बड़ी चोट दे जाती हैं
पूछते नहीं तुम
क्या हुआ
बस डाँटकर
चल देते हो।
मैं भी आँसुओं के भीतर
मुस्कुरा कर रह जाती हूँ।
बसन्त
आज बसन्त मुझे
कुछ उदास लगा
रंग बदलने लगे हैं।
बदलते रंगों की भी
एक सुगन्ध होती है
बदलते भावों के साथ
अन्तर्मन को
महका-महका जाती है।
शब्द और भाव
बड़े सुन्दर भाव हैं
दया, करूणा, कृपा।
किन्तु कभी-कभी
कभी-कभी क्यों,
अक्सर
आहत कर जाते हैं
ये भाव
जहां शब्द कुछ और होते हैं
और भाव कुछ और।
मुहब्बतों की कहानियां
मुझे इश्तहार सी लगती हैं
ये मुहब्बतों की कहानियां
कृत्रिम सजावट के साथ
बनठन कर खिंचे चित्र
आँखों तक खिंची
लम्बी मुस्कान
हाथों में यूँ हाथ
मानों
कहीं छोड़कर न भाग जाये।
कैसे आया बसन्त
बसन्त यूँ ही नहीं आ जाता
कि वर्ष, तिथि, दिन बदले
और लीजिए
आ गया बसन्त।
-
मन के उपवन में
सुमधुर भावों की रिमझिम
कुछ ओस की बूंदें बहकीं
कुछ खुशबू कुछ रंगों के संग
कहीं दूर कोयल कूक उठी।
क्यों करना दु:ख करना यारो
जरा, अनुभव, पतझड़ की बातें
मत करना यारो
मदमस्त मौमस की
मस्ती हम लूट रहे हैं
जो रीत गया
उसका क्यों है दु:ख करना यारो
खामोश शब्द
भावों को
आकार देने का प्रयास
निरर्थक रहता है अक्सर
शब्द भी
खामोश हो जाते हैं तब
कुछ शब्द
कुछ दूरियों को
कदमों से नापने में
सालों लग जाते हैं
और कुछ शब्द
सब दूरियाँ मिटाकर
निकट लाकर खड़ा कर देते हैं।