भीड़ पर भीड़-तंत्र
एक लाठी के सहारे

चलते

छोटे कद के

एक आम आदमी ने

कभी बांध ली थी

सारी दुनिया

अपने पीछे

बिना पुकार के भी

उसके साथ

चले थे

लाखों -लाखों लोग

सम्मिलित थे

उसकी तपस्या में

निःस्वार्थ, निःशंक।

वह हमें दे गया

एक स्वर्णिम इतिहास।

 

आज वह न रहा

किन्तु

उसकी मूर्तियाँ

हैं  हमारे पास

लाखों-लाखों।

कुछ लोग भी हैं

उन मूर्तियों के साथ

किन्तु उसके

विचारों की भीड़

उससे छिटक कर

आज की भीड़ में

कहीं खो गई है।

दीवारों पर

अलंकृत पोस्टरों में

लटक रही है

पुस्तकों के भीतर कहीं

दब गई है।

आज

उस भीड़ पर

भीड़-तंत्र हावी हो गया है।

.

अरे हाँ !

आज उस मूर्ति पर

माल्यार्पण अवश्य करना।

 

पवित्रता के  मापदण्ड

पवित्रता के

मापदण्ड होते हैं

कहीं कम

कहीं ज़्यादा होते हैं।

लेकिन हर

किसी के लिए

नहीं होते हैं।

फिर

तोलते हैं

न जाने

किस तराजू में

हर बार

नये-नये माप

और दण्ड होते हैं।

जानती हूँ

अधिकांश को

मेरी यह बात

समझ नहीं आई होगी

क्योंकि

युगों-युगों से

बन रहे

इन माप और दण्डों को

आज तक

कौन समझ पाया है

जिसके माथे जड़े हैं

वह भी

वास्तविकता

कहाँ जान पाया है।

 

जल-विभाग इन्द्र जी के पास

मेरी जानकारी के अनुसार

जल-विभाग

इन्द्र जी के पास है।

कभी प्रयास किया था उन्होंने

गोवर्धन को डुबाने का

किन्तु विफ़ल रहे थे।

उस युग में

कृष्ण जी थे

जिन्होंने

अपनी कनिष्का पर

गोवर्धन धारण कर

बचा लिया था

पूरे समाज को।

.

किन्तु इन्द्र जी,

इस काल में कोई नहीं

जो अपनी अंगुली दे

समाज हित में।

.

इसलिए

आप ही से

निवेदन है,

अपने विभाग को

ज़रा व्यवस्थित कीजिए

काल और स्थान देखकर

जल की आपूर्ति कीजिए,

घटाओं पर नियन्त्रण कीजिए

कहीं अति-वृष्टि

कहीं शुष्कता को

संयमित कीजिए

न हो कहीं कमी

न ज़्यादती,

नदियाँ सदानीरा

और धरा शस्यश्यामला बने,

अपने विभाग को

ज़रा व्यवस्थित कीजिए।

 

 

उल्लू बोला मिठू से

उल्लू बोला मिठू से

चल आज नाम बदल लें

तू उल्लू बन जा

और मैं बनता हूँ तोता,

फिर देखें जग में

क्या-क्या होता।

जो दिन में होता

गोरा-गोरा,

रात में होता काला।

मैं रातों में जागूँ

दिन में सोता

मैं निद्र्वंद्व जीव

न मुझको देखे कोई

न पकड़ सके कोई।

-

आजा नाम बदल लें।

-

फिर तुझको भी

न कोई पिंजरे में डालेगा,

और आप झूठ बोल-बोलकर

तुझको न बोलेगा कोई

हरि का नाम बोल।

-

चल आज नाम बदल लें

चल आज धाम बदल लें

कभी तू रातों को सोना

कभी मैं दिन में जागूँ

फिर छानेंगे दुनिया का

सच-झूठ का कोना-कोना।

 

अब मैं शर्मिंदा नहीं होता

अब मैं शर्मिंदा नहीं होता

जब कोई मेरी फ़ोटो खींचता है

मुझे ऐसे-वैसे बैठने

पोज़ बनाने के लिए कहता है।

हाँ, कार्य में व्यवधान आता है

मेरी रोज़ी-रोटी पर

सवाल आता है।

कैमरे के सामने पूछते हैं मुझसे

क्या तुम स्कूल नहीं जाते

तुम्हारे माँ-बाप तुम्हें नहीं पढ़ाते

क्या बाप तुम्हारा कमाता नहीं

अपनी कमाई घर लाता नहीं

कहीं शराब तो पीता-पिलाता नहीं

तुम्हारी माँ को मारता-वारता तो नहीं

अनाथ हो या सनाथ

और कितने भाई-बहन हो

ले जायेगी तुम्हें पुलिस पकड़कर

बाल-श्रम के बारे में क्या जानते हो

किसे अपना माई-बाप मानते हो

सरकारी योजनाओं को जानते हो

उनका लाभ उठाते हो

 

पूछते-पूछते

उनकी फ़ोटू पूरी हो जाती है

दस रुपये पकड़ाते हैं

और चले जाते हैं

मैं उजबुक-सा बना देखता रह जाता हूँ

और काम पर लौट आता हूँ।

 

अब तो कुछ बोलना सीख

आग दिल में जलाकर रख

अच्छे बुरे का भाव परख कर रख।

न सुन किसी की बात को

अपने मन से जाँच-परख कर रख।

कब समझ पायेंगें हम!!

किसी और के घर में लगी

आग की चिंगारी

जब हवा लेती है

तो हमारे घर भी जलाकर जाती है।

तब

दिलों के भाव जलते हैं

अपनों के अरमान झुलसते हैं

पहचान मिटती है,

जिन्दगियां बिखरती हैं

धरा बिलखती है।

गगन सवाल पूछता है।

इसीलिए कहती हूँ

न मौन रह

अब तो कुछ बोलना सीख।

अपने हाथ आग में डालना सीख

आग परख। हाथ जला।

कुछ साहस कर, अपने मन से चल।

 

 

आवाज़ ऊँची कर

आवाज़ ऊँची कर

चिल्ला मत।

बात साफ़ कर

शोर मचा मत।

अपनी बात कह

दूसरे की दबा मत।

कौन है गूँगा

कौन है बहरा

मुझे सुना मत।

सबकी आवाज़ें

जब साथ बोलेंगीं

तब कान फ़टेंगें

मुझे बता मत।

धरा की बातें

अकारण

आकाश पर उड़ा मत।

जीने का अंदाज़ बदल

बेवजह अकड़

दिखा मत।

मिलजुलकर बात करें

तू बीच में

अपनी टाँग अड़ा मत।

मिल-बैठकर खाते हैं

गाते हैं

ढोल बजाते हैं

तू अब नखरे दिखा मत।

 

 

मैंने चिड़िया से पूछा

मैंने चिड़िया से पूछा

क्यों यूं ही दिन भर

चहक-चहक जाती हो

कुट-कुट, किट-किट करती

दिन-भर शोर मचाती हो ।

 

पलटकर बोली

तुमको क्या ?

 

मैंने कभी पूछा तुमसे

दिन भर

तुम क्या करती रहती हो।

कभी इधर-उधर

कभी उधर-इधर

कभी ये दे-दे

कभी वो ले ले

कभी इसकी, कभी उसकी

ये सब क्यों करती रहती हो।

-

कभी मैं बोली सूरज से

कहां तुम्हारी धूप

क्यों चंदा नहीं आये आज

कभी मांगा चंदा से किसी

रोशनी का हिसाब

कहां गये टिम-टिम करते तारे

कभी पूछा मैंने पेड़ों से

पत्ते क्यों झर रहे

फूल क्यों न खिले।

कभी बोली फूलों से मैं

कहां गये वो फूल रंगीले

क्यों नहीं खिल रहे आज।

क्यों सूखी हरियाली

बादल क्यों बरसे

बिजली क्यों कड़की

कभी पूछा मैंने तुमसे

मेरा घर क्यों उजड़ा

न डाल रही, न रहा घरौंदा

कभी की शिकायत मैंने

कहाँ सोयेंगे मेरे बच्चे

कहाँ से लाऊँगी मैं दाना-पानी।

मैं खुश हूँ

तुम भी खुश रहना सीखो

मेरे जैसे बनना सीखो

इधर-उधर टाँग अड़ाना बन्द करो

अपने मतलब से मतलब रख आनन्द करो।

 

कड़वा सच पिलवाऊँगा

न मैंने पी है प्यारी

न मैंने ली है।

नई यूनिफ़ार्म

बनवाई है

चुनाव सभा के लिए आई है।

जनसभा से आया हूँ,

कुछ नये नारे

लेकर आया हूँ।

चाय नहीं पीनी है मुझको

जाकर झाड़ू ला।

झाड़ू दूँगा,

हाथ भी दिखलाऊँगा,

फूलों-सा खिल जाऊँगा,

साईकिल भी चलाऊँगा,

हाथी पर तुझको

बिठलाऊँगा,

फिर ढोलक बजवाऊँगा।

वहाँ तीर-कमान भी चलते हैं

मंजी पर बिठलाऊँगा।

आरी भी देखी मैंने

हल-बैल भी घूम रहे,

तुझको

क्या-क्या बतलाउँ मैं।

सूरज-चंदा भी चमके हैं

लालटेन-बल्ब

सब वहाँ लटके हैं।

चल ज़रा मेरे साथ

वहाँ सोने-चाँदी भी चमके है,

टाट-पैबन्द भी लटके हैं,

चल तुझको

असली दुनियाँ दिखलाऊँगा,

चाय-पानी भूलकर

कड़वा सच पिलवाऊँगा।

 

कैसा दुर्भाग्य है मेरा

 

कैसा दुर्भाग्य है मेरा

कि जब तक

मेरे साथ दो बैल

और ग़रीबी की रेखा न हो

मुझे कोई पहचानता ही नहीं।

जब तक

मैं असहाय, शोषित न दिखूँ

मुझे कोई किसान

मानता ही नहीं।

मेरी

इस हरी-भरी दुनियाँ में

एक सुख भरा संसार भी है

लहलहाती कृषि

और भरा-पूरा

परिवार भी है।

गुरूर नहीं है मुझे

पर गर्व करता हूँ

कि अन्न उपजाता हूँ

ग्रीष्म-शिशिर सब झेलता हूँ,

आशाओं में जीता हूँ

आशाएँ बांटता हूँ।

दुख-सुख तो

आने-जाने हैं।

अरबों-खरबों के बड़े-बड़े महल

अक्सर भरभराकर गिर जाते हैं,

तो कृषि की

असामयिक आपदा के लिए

हम सदैव तैयार रहते हैं,

हमारे लिए

दान-दया की बात कौन करता है

हम नहीं जानते।

अपने बल पर जीते हैं

श्रम ही हमारा धर्म है

बस इतना ही हम मानते।

 

कुछ तो हुआ होगा

कुछ तो हुआ होगा

जो हाथों में मशालें उठीं

कुछ तो किया होगा

जो सड़कों पर आहें उगीं

कुछ तो जला होगा

जो नारों से गलियां गूंजीं

कुछ तो सहा होगा

जो शहर-शहर भीड़ उमड़ी

 

इतना आसान नहीं लगता मुझे

कि शहर-शहर

किसी एक बात को लेकर

किसी को यूं भड़काया जा सके

युवक ही नहीं

युवतियों को भी उकसाया जा सके

पुस्तकालयों में पढ़ते बच्चे

कैसे सड़कों पर आ बैठे

नहीं जानते हम, नहीं पढ़ते हम

नहीं समझते हम

सुनी-सुनाई, अधकचरी सूचनाओं से

भड़कते हम।

 

बस , कचरा परोसा जा रहा

गली-गली परनाले बहते

हम उसे उंडेल उंडेल कर

नाक सिकुड़ते, भौं मरोड़ते

सच्चाई के पीछे भागते

तो हाथ जलते

कहां से शुरू हो रहा

और कहां होगा अन्त

नहीं जानते हम।

 

कानून तोड़ना अधिकार हमारा

अधिकारों की बात करें

कर्तव्यो का ज्ञान नहीं,

पढ़े-लिखे अज्ञानी

इनको कौन दे ज्ञान यहां।

कानून तोड़ना अधिकार हमारा।

पकड़े गये अगर

ले-देकर बात करेंगे,

फिर महफिल में बीन बजेगी

रिश्वतखोरी बहुत बढ़ गई,

भ्रष्टाचारी बहुत हो गये,

कैसे अब यह देश चलेगा।

आरोपों की झड़ी लगेगी,

लेने वाला अपराधी है

देने वाला कब होगा ?

 

उधारों पर दुनिया चलती है

सिक्कों का अब मोल कहाँ

मिट्टी से तो लगते हैं।

पैसे की अब बात कहाँ

रंगे कार्ड-से मिलते हैं।

बचत गई अब कागज़ में

हिसाब कहाँ अब मिलते हैं।

खन-खन करते सिक्के

मुट्ठी में रख लेते थे।

पाँच-दस पैसे से ही तो

नवाब हम हुआ करते थे।

गुल्लक कब की टूट गई

बचत हमारी गोल हुई।

मंहगाई-टैक्सों की चालों से

बुद्धि हमारी भ्रष्ट हुई।

पैसे-पैसे को मोहताज हुए,

किससे मांगें, किसको दे दें।

उधारों पर दुनिया चलती है

शान इसी से बनती है।

 

ढोल बजा

चुनावों का अब बिगुल बजा

किसका-किसका ढोल बजा

किसको चुन लें, किसको छोड़ें

हर बार यही कहानी है

कभी ज़्यादा कभी कम पानी है

दिमाग़ की बत्ती गुल पड़ी है

आंखों पर पट्टी बंधी है

बस बातें करके सो जायेंगे

और सुबह फिर वही राग गायेंगे।

 

 

कुर्सियां

भूल हो गई मुझसे

मैं पूछ बैठी

कुर्सी की

चार टांगें क्यों होती हैं?

हम आराम से

दो पैरों पर चलकर

जीवन बिता लेते हैं

तो कुर्सी की

चार टांगें क्यों होती हैं?

कुर्सियां झूलती हैं।

कुर्सियां झूमती हैं।

कुर्सियां नाचती हैं।

कुर्सियां घूमती हैं।

चेहरे बदलती हैं,

आकार-प्रकार बांटती हैं,

पहियों पर दौड़ती हैं।

अनोखी होती हैं कुर्सियां।

किन्तु

चार टांगें क्यों होती हैं?

 

जिनसे पूछा

वे रुष्ट हुए

बोले,

तुम्हें अपनी दो

सलामत चाहिए कि नहीं !

दो और नहीं मिलेंगीं

और कुर्सी की तो

कभी भी नहीं मिलेंगी।

मैं डर गई

और मैंने कहा

कि मैं दो पर ही ठीक हूँ

मुझे  चौपाया  नहीं बनना।

 

घाट-घाट का पानी

शहर में

चूहे बिल्लियों को सुला रहे हैं

कानों में लोरी सुना रहे हैं।

उधर जंगल में गीदड़ दहाड़ रहे हैं।

शेर-चीते पिंजरों में बन्द

हमारा मन बहला रहे हैं।

पढ़ाते थे हमें

शेर-बकरी

कभी एक घाट पानी नहीं पीते,

पर आज

एक ही मंच पर

सब अपनी-अपनी बीन बजा रहे हैं।

यह भी पता नहीं लगता

कब कौन सो जायेगा]

और कौन लोरी सुनाएगा।

अब जहां देखो

दोस्ती के नाम पर

नये -नये नज़ारे दिखा रहे हैं।

कल तक जो खोदते थे कुंए

आज साथ--साथ

घाट-घाट का

पानी पीते नज़र आ रहे हैं।

बच कर चलना ऐसी मित्रता से

इधर बातों ही बातों में

हमारे भी कान काटे जा रहे हैं।

 

कुछ अच्छा लिखने की चाह

कुछ अच्छा लिखने की चाह में

हर बार कलम उठाती हूं

किन्तु आज तक नहीं समझ पाई

शब्द कैसे बदल जाते हैं

किन आकारों में ढल जाते हैं

प्रेम लिखती हूं

हादसे बन जाते हैं।

मानवता लिखती हूँ

मौत दिखती है।

काली स्याही लाल रंग में

बदल जाती है।

.

कलम को शब्द देती हूँ

भाईचारा, देशप्रेम,

साम्प्रदायिक सौहार्द

न जाने कैसे बन्दूकों, गनों

तोपों के चित्र बन जाते हैं।

-

कलम को समझाती हूं

चल आज धार्मिक सद्भाव की बात करें

किन्तु वह फिर

अलग-अलग आकार और

सूरतें गढ़ने लगती है,

शब्दों को आकारों में

बदलने लगती है।

.

हार नहीं मानती मैं,

कलम को फिर पकड़ती हूँ।

सच्चाई, नैतिकता,

ईमानदारी के विचार

मन में लाती हूँ।

किन्तु न जाने कहां से

कलम अरबों-खरबों के गणित में

उलझा जाती है।

.

हारकर मैंने कहा

चल भारत-माता के सम्मान में

गीत लिखें।

कलम हँसने लगी,

चिल्लाने लगी,

चीत्कार करने लगी।

कलम की नोक

तीखे नाखून-सी लगी।

कागज़

किसी वस्त्र का-सा

तार-तार होने लगा

मन शर्मसार होने लगा।

मान-सम्मान बुझने लगा।

.

हार गई मैं

किस्सा रोज़ का था।

कहां तक रोती या चीखती

किससे शिकायत करती।

धरती बंजर हो गई।

मैं लिख न सकी।

कलम की स्याही चुक गई।

कलम की नोक मुड़ गई ,

कुछ अच्छा लिखने की चाह मर गई।

 

गरीबी हटाओ देश बढ़ाओ

पिछले बहत्तर साल से

देश में

योजनाओं की भरमार है

धन अपार है।

मन्दिर-मस्जिद की लड़ाई में

धन की भरमार है।

चुनावों में अरबों-खरबों लुट गये

वादों की, इरादों की ,

किस्से-कहानियों की दरकार है।

खेलों के मैदान पर

अरबों-खरबों का

खिलवाड़ है।

रोज़ पढ़ती हूं अखबार

देर-देर तक सुनती हूं समाचार।

गरीबी हटेगी, गरीबी हटेगी

सुनते-सुनते सालों निकल गये।

सुना है देश

विकासशील से विकसित देश

बनने जा रहा है।

किन्तु अब भी

गरीब और गरीबी के नाम पर

खूब बिकते हैं वादे।

वातानूकूलित भवनों में

बन्द बोतलों का पानी पीकर

काजू-मूंगफ़ली टूंगकर

गरीबी की बात करते हैं।

किसकी गरीबी,

किसके लिए योजनाएं

और किसे घर

आज तक पता नहीं लग पाया।

किसके खुले खाते

और किसे मिली सहायता

आज तक कोई बता नहीं पाया।

फिर  वे

अपनी गरीबी का प्रचार करते हैं।

हम उनकी फ़कीरी से प्रभावित

बस उनकी ही बात करते हैं।

और इस चित्र को देखकर

आहें भरते हैं।

क्योंकि न वे कुछ करते हैं।

और न हम कुछ करते हैं।

 

 

पलायन का स्वर भाता नहीं

अरे! क्यों छोड़ो भी

कोई बात हुई, कि छोड़ो भी

यह पलायन का स्वर मुझे  भाता नहीं।

मुझे इस तरह से बात करना आता नहीं।

कोई छेड़ गया, कोई बोल गया

कोई छू गया।

किसी की वाणाी से अपशब्द झरे,

कोई मेरा अधिकार मार गया,

किसी के शब्द-वाण झरे,

ढूंढकर मुहावरे पढ़े।

हरदम छोटेपन का एहसास कराते

कहीं दो वर्ष की बच्ची

अथवा अस्सी की वृद्धा

नहीं छोड़ी जी,

और आप कहते हैं

छोड़ो जी।

छोटी-छोटी बातों को

हम कह देते हैं छोड़ो जी

कब बन जाता

इस राई का पहाड़

यह भी तो देखो जी।

 

छोड़ो जी कहकर

हम देते हिम्मत उन लोगों को

जो नहीं मानते

कि गलत राहें छोड़ो जी।

इसलिए मैं तो मानूं

कि क्यों छोड़ो जी।

न जी न,

न छोड़ो जी।

 

किससे क्या कहें हम

लाशों पर शहर नहीं बसते

बाले-बरछियों से घर नहीं बनते

फ़सलों में पानी की ही तरावट चाहिए

रक्त से बीज नहीं पनपते।

कब कौन किसको समझाये यह

हमें तो यह भी नहीं पता

कि कौन शत्रु

और कौन मित्र बनकर लड़ते।

जिनसे आज करते हैं मैत्री समझौता

वे ही कल शत्रु बन बरसते।

अस्त्रों-शस्त्रों से घरों की सजावट नहीं होती

और दूसरों के कंधों पर दुनिया नही चलती।

गिरगिट की तरह

कितना अच्छा है

कि हम जानते हैं

कि गिरगिट रंग बदलते हैं।

इसलिए रंगों के बीच भी

उसे हम अक्सर पहचान लेते हैं।

आकर्षित करता है

उसका यह रंग बदलना,

क्योंकि प्रकृति से

सामंजस्य का भाव है उसमें।

पर उन लोगों का क्या करें

जो दिखते तो स्याह-सफ़ेद हैं

पर भीतर न जाने

कितने रंगों से सराबोर होते हैं

और अवसरानुकूल रंग बदलते रहते हैं।

और हम भी कहां पीछे हैं

रंगों में रंग बदलने लगे हैं

स्याह को सफ़ेद और

सफ़ेद को स्याह करने में लगे हैं।

 

 

 

किससे बात करुं मैं

चारों ओर खलबली है।

समाचारों में सनसनी है।

सड़कों पर हंगामा है।

आन्दोलन-उपद्रव चल रहे हैं

और हम

सास-बहू के मुद्दों पर लिख रहे हैं।

गढ़े मुर्दे उखाड़ रहे हैं।

पुरानी सीवनें उधेड़ रहे हैं।

खिड़की से बाहर का अंधेरा नहीं दिखता

दूर देश में रोशनियां खोज रहे हैं।

हज़ार साल पुरानी बातों का

पिष्ट-पेषण करने में लगे हैं,

और अपने घर में लगी आग से

हाथ सेंकने में लगे हैं।

 

और यदि और कुछ न हो पाये

तो हमारे पास

ऊपर वाले बहुत हैं,

उनका नाम जपकर

मुंह ढककर सो रहे हैं।

 

कितना भी मुंह मोड़ लें,

हाथों को जोड़ लें,

शोर को रोक लें,

कानों में रुईं ठूंस लें,

किसी दिन तो

अपने घाव भी रिसेंगे ही।

वैसे भी मुंह मोड़ने

या छुपाने से

कान बन्द नहीं होते,

बस मुंह चुराते हैं हम।

सच लिखने से घबराते हैं हम।

और यदि

औन कुछ न दिखे

तो करताल बजाते हैं हम।

खड़ताल खड़काते हैं हम।

 

रोज़, हर रोज़

बेवजह

मरने वालों का

हिसाब नहीं मांगती मैं।

किन्तु हमारे भाव मर रहे हैं,

सोच मर रही है,

बेबाक बोलने की आवाज़ डर रही है।

किससे बात करुं मैं ?

 

​​​​​​​ससम्मान बात करनी पड़ती है

पता नहीं वह धोबी कहां है

जिस पर यह मुहावरा बना था

घर का न घाट का।

वैसे इस मुहावरे में

दो जीव भी हुआ करते थे।

जब से समझ आई है

यही सुना है

कि धोबी के गधे हुआ करते थे

जिन पर वे

अपनी गठरियां ठोते थे।

किन्तु मुहावरे से

गर्दभ जी तो गायब हैं

हमारी जिह्वा पर

श्वान महोदय रह गये।

 

और आगे सुनिये मेरा दर्शन।

धोबी के दर्शन तो

कभी-कभार

अब भी हो जाते हैं

किन्तु गर्दभ और श्वान

दोनों ही

अपने-अपने

अलग दल बनाकर

उंचाईयां छू रहे हैं।

इसीलिए जी का प्रयोग किया है

ससम्मान बात करनी पड़ती है।