फिर वही कहानी

कछुए से मिलना

अच्छा लगा मुझे।

धूप सेंकता

आराम से बैठा

कभी जल में

कभी थल में।

कभी पत्थर-सा दिखता

तो कभी सशरीर।

मैंने बात करनी चाही

किन्तु उसने मुँह फ़ेर लिया।

फिर अचानक पलटकर बोला

जानता हूँ

वही सैंकड़ों वर्ष पुरानी

कहानी लेकर आये होंगे

खरगोश सो गया था

और कछुआ जीत गया था।

पता नहीं किसने गढ़ी

यह कथा।

मुझे तो कुछ स्मरण नहीं,

और न ही मेरे पूर्वजों ने

मुझे कोई ऐसी कथा सुनाई थी

न अपनी ऐसी जीत की

कोई गुण-गाथा गाई थी।

नया तो कुछ लिखते नहीं

उसी का पिष्ट-पेषण करने में

लगे रहते हो।

कब तक बच्चों को

खरगोश-कछुए,

शेर-बकरी और बन्दर मामा की

अर्थहीन कहानियाँ

सुनाकर बहलाते रहोगे,

कब तक

मेरी चाल का उपहास

बनाते रहोगे।

अरे,

साहस से

अपने बारे में लिखो,

अपने रिश्तों को उकेरो

अपनी अंधी दौड़ को लिखो,

आरोप-प्रत्यारोप,

बदलते समाज को लिखो।

यूँ तो अपनी

हज़ारों साल पुरानी संस्कृति का

लेखा-जोखा लिखते फ़िरते हो

किन्तु

जब काम की बात आती है

तो मुँह फ़ेरे घूमते हो।

 

पर्यायवाची शब्दों में हेर-फ़ेर

इधर बड़ा हेर-फ़ेर

होने लगा है

पर्यायवाची शब्दों में।

लिखने में शब्द

अब

उलझने लगे हैं।

लिखा तो मैंने

अभिमान, गर्व था,

किन्तु तुम उसे

मेरा गुरूर समझ बैठे।

अपने अच्छे कर्मों को लेकर

अक्सर

हम चिन्तित रहते हैं।

प्रदर्शन तो नहीं,

किन्तु कभी तो कह बैठते हैं।

फिर इसे

आप मेरा गुरूर समझें

या कोई पर्यायवाची शब्द।

कभी-कभी

अपनी योग्यताएँ

बतानी पड़ती हैं

समझानी पड़ती हैं

क्योंकि

इस समाज को

बुराईयों का काला चिट्ठा तो

पूरा स्मरण रहता है

बस अच्छाईयाँ

ही नहीं दिखतीं।

इसलिए

जताना पड़ता है,

फिर तुम उसे

मेरा गुरूर समझो

या कुछ और।

नहीं तो ये दुनिया तुम्हें

मूर्खानन्द ही समझती रहेगी।

 

भीड़ पर भीड़-तंत्र
एक लाठी के सहारे

चलते

छोटे कद के

एक आम आदमी ने

कभी बांध ली थी

सारी दुनिया

अपने पीछे

बिना पुकार के भी

उसके साथ

चले थे

लाखों -लाखों लोग

सम्मिलित थे

उसकी तपस्या में

निःस्वार्थ, निःशंक।

वह हमें दे गया

एक स्वर्णिम इतिहास।

 

आज वह न रहा

किन्तु

उसकी मूर्तियाँ

हैं  हमारे पास

लाखों-लाखों।

कुछ लोग भी हैं

उन मूर्तियों के साथ

किन्तु उसके

विचारों की भीड़

उससे छिटक कर

आज की भीड़ में

कहीं खो गई है।

दीवारों पर

अलंकृत पोस्टरों में

लटक रही है

पुस्तकों के भीतर कहीं

दब गई है।

आज

उस भीड़ पर

भीड़-तंत्र हावी हो गया है।

.

अरे हाँ !

आज उस मूर्ति पर

माल्यार्पण अवश्य करना।

 

जल-विभाग इन्द्र जी के पास

मेरी जानकारी के अनुसार

जल-विभाग

इन्द्र जी के पास है।

कभी प्रयास किया था उन्होंने

गोवर्धन को डुबाने का

किन्तु विफ़ल रहे थे।

उस युग में

कृष्ण जी थे

जिन्होंने

अपनी कनिष्का पर

गोवर्धन धारण कर

बचा लिया था

पूरे समाज को।

.

किन्तु इन्द्र जी,

इस काल में कोई नहीं

जो अपनी अंगुली दे

समाज हित में।

.

इसलिए

आप ही से

निवेदन है,

अपने विभाग को

ज़रा व्यवस्थित कीजिए

काल और स्थान देखकर

जल की आपूर्ति कीजिए,

घटाओं पर नियन्त्रण कीजिए

कहीं अति-वृष्टि

कहीं शुष्कता को

संयमित कीजिए

न हो कहीं कमी

न ज़्यादती,

नदियाँ सदानीरा

और धरा शस्यश्यामला बने,

अपने विभाग को

ज़रा व्यवस्थित कीजिए।

 

 

आदान-प्रदान का युग है

जरूरी नहीं कि शिखर पर बैठा हर इंसान उत्थान का प्रतीक को

जाने कौन-सी सीढ़ियां चढ़ा, कहां पग धरा, अनुगमन की लीक हो

पद, पदक, सम्मान, उपाधियाँ सदा उपलब्धियों की प्रतीक नहीं होते

आदान-प्रदान का युग है, ले-देकर काम चल रहा, यही सीख हो

उल्लू बोला मिठू से

उल्लू बोला मिठू से

चल आज नाम बदल लें

तू उल्लू बन जा

और मैं बनता हूँ तोता,

फिर देखें जग में

क्या-क्या होता।

जो दिन में होता

गोरा-गोरा,

रात में होता काला।

मैं रातों में जागूँ

दिन में सोता

मैं निद्र्वंद्व जीव

न मुझको देखे कोई

न पकड़ सके कोई।

-

आजा नाम बदल लें।

-

फिर तुझको भी

न कोई पिंजरे में डालेगा,

और आप झूठ बोल-बोलकर

तुझको न बोलेगा कोई

हरि का नाम बोल।

-

चल आज नाम बदल लें

चल आज धाम बदल लें

कभी तू रातों को सोना

कभी मैं दिन में जागूँ

फिर छानेंगे दुनिया का

सच-झूठ का कोना-कोना।

 

अब तो कुछ बोलना सीख

आग दिल में जलाकर रख

अच्छे बुरे का भाव परख कर रख।

न सुन किसी की बात को

अपने मन से जाँच-परख कर रख।

कब समझ पायेंगें हम!!

किसी और के घर में लगी

आग की चिंगारी

जब हवा लेती है

तो हमारे घर भी जलाकर जाती है।

तब

दिलों के भाव जलते हैं

अपनों के अरमान झुलसते हैं

पहचान मिटती है,

जिन्दगियां बिखरती हैं

धरा बिलखती है।

गगन सवाल पूछता है।

इसीलिए कहती हूँ

न मौन रह

अब तो कुछ बोलना सीख।

अपने हाथ आग में डालना सीख

आग परख। हाथ जला।

कुछ साहस कर, अपने मन से चल।

 

 

आप चलेंगे साथ मेरे

हम जानते हैं न

कि रक्त लाल होता है

गाढ़ा लाल।

पर पता नहीं क्यों

इधर लोग

बहुत बात करने लगे हैं

कि फ़लां का खून तो

सफ़ेद हो गया।

और यह भी कि

किसी का खून तो

अब बस ठण्डा ही हो गया है

कुछ भी हो जाये

उबाल ही नहीं आता।

 

मुझे और किसी के

खून से क्या लेना-देना

अपने ही खून की

जाँच करवाने जा रही हूँ

अभी लाल ही है

या सफ़ेद हो गया

ठण्डा है

या आता है

इसमें भी कभी उबाल।

आप चलेंगे साथ मेरे

जाँच के लिए ?

 

आवाज़ ऊँची कर

आवाज़ ऊँची कर

चिल्ला मत।

बात साफ़ कर

शोर मचा मत।

अपनी बात कह

दूसरे की दबा मत।

कौन है गूँगा

कौन है बहरा

मुझे सुना मत।

सबकी आवाज़ें

जब साथ बोलेंगीं

तब कान फ़टेंगें

मुझे बता मत।

धरा की बातें

अकारण

आकाश पर उड़ा मत।

जीने का अंदाज़ बदल

बेवजह अकड़

दिखा मत।

मिलजुलकर बात करें

तू बीच में

अपनी टाँग अड़ा मत।

मिल-बैठकर खाते हैं

गाते हैं

ढोल बजाते हैं

तू अब नखरे दिखा मत।

 

 

कड़वा सच पिलवाऊँगा

न मैंने पी है प्यारी

न मैंने ली है।

नई यूनिफ़ार्म

बनवाई है

चुनाव सभा के लिए आई है।

जनसभा से आया हूँ,

कुछ नये नारे

लेकर आया हूँ।

चाय नहीं पीनी है मुझको

जाकर झाड़ू ला।

झाड़ू दूँगा,

हाथ भी दिखलाऊँगा,

फूलों-सा खिल जाऊँगा,

साईकिल भी चलाऊँगा,

हाथी पर तुझको

बिठलाऊँगा,

फिर ढोलक बजवाऊँगा।

वहाँ तीर-कमान भी चलते हैं

मंजी पर बिठलाऊँगा।

आरी भी देखी मैंने

हल-बैल भी घूम रहे,

तुझको

क्या-क्या बतलाउँ मैं।

सूरज-चंदा भी चमके हैं

लालटेन-बल्ब

सब वहाँ लटके हैं।

चल ज़रा मेरे साथ

वहाँ सोने-चाँदी भी चमके है,

टाट-पैबन्द भी लटके हैं,

चल तुझको

असली दुनियाँ दिखलाऊँगा,

चाय-पानी भूलकर

कड़वा सच पिलवाऊँगा।

 

कुछ और नाम न रख लें

समाचार पत्र

कभी मोहल्ले की

रौनक हुआ करते थे।

एक आप लेते थे

एक पड़ोसियों से

मांगकर पढ़ा करते थे।

पूरे घर की

माँग हुआ करते थे।

दिनों-दिन

बातचीत का

आधार हुआ करते थे,

चैपाल और काॅफ़ी हाउस में

काफ़ी से ज़्यादा गर्म

चर्चा का आधार हुआ करते थे।

विश्वास का

नाम हुआ करते थे।

ज्ञान-विज्ञान की

खान हुआ करते थे।

नित नये काॅलम

पूरे परिवार के

मनोरंजन का

आधार हुआ करते थे।

 -

मानों

युग बदल गया।

अब

समाचार पत्रों में

सब मिलता है

बस

समाचार नहीं मिलते।

कोई मुद्दे,

कोई भाव नहीं मिलते।

पृष्ठ घटते गये

विज्ञापन बढ़ते गये।

चार पन्नों को

उलट-पुलटकर

पलभर में रख देते हैं।

चित्र बड़े हो रहे हैं

पर कुछ बोलते नहीें।

बस

डराते हैं

धमकाते हैं

और चले जाते हैं।

कहानियाँ रह गईं

सत्य कहीं बिखर गया।

अन्त में लिखा रहता है

अनेक जगह

इन समाचारों/विचारों का

हमारा कोई दायित्व नहीं।

तो फिर

इनका

कुछ और नाम न रख लें।

 

कैसा दुर्भाग्य है मेरा

 

कैसा दुर्भाग्य है मेरा

कि जब तक

मेरे साथ दो बैल

और ग़रीबी की रेखा न हो

मुझे कोई पहचानता ही नहीं।

जब तक

मैं असहाय, शोषित न दिखूँ

मुझे कोई किसान

मानता ही नहीं।

मेरी

इस हरी-भरी दुनियाँ में

एक सुख भरा संसार भी है

लहलहाती कृषि

और भरा-पूरा

परिवार भी है।

गुरूर नहीं है मुझे

पर गर्व करता हूँ

कि अन्न उपजाता हूँ

ग्रीष्म-शिशिर सब झेलता हूँ,

आशाओं में जीता हूँ

आशाएँ बांटता हूँ।

दुख-सुख तो

आने-जाने हैं।

अरबों-खरबों के बड़े-बड़े महल

अक्सर भरभराकर गिर जाते हैं,

तो कृषि की

असामयिक आपदा के लिए

हम सदैव तैयार रहते हैं,

हमारे लिए

दान-दया की बात कौन करता है

हम नहीं जानते।

अपने बल पर जीते हैं

श्रम ही हमारा धर्म है

बस इतना ही हम मानते।

 

कानून तोड़ना अधिकार हमारा

अधिकारों की बात करें

कर्तव्यो का ज्ञान नहीं,

पढ़े-लिखे अज्ञानी

इनको कौन दे ज्ञान यहां।

कानून तोड़ना अधिकार हमारा।

पकड़े गये अगर

ले-देकर बात करेंगे,

फिर महफिल में बीन बजेगी

रिश्वतखोरी बहुत बढ़ गई,

भ्रष्टाचारी बहुत हो गये,

कैसे अब यह देश चलेगा।

आरोपों की झड़ी लगेगी,

लेने वाला अपराधी है

देने वाला कब होगा ?

 

भेड़-चाल की  बात

कभी आपने महसूस किया है

कि भीड़ होने के बावजूद

एक अकेलापन खलता है।

लोग समूहों में तो

दिखते हैं

किन्तु सूनापन खलता है।

कहा जाता था

झुंड पशुओं के होते हैं

और समूह इंसानों के।

किन्तु आजकल

दोनों ही नहीं दिखते।

सब अपने-अपने दड़बों में

बन्द होकर

एक-दूसरे को परख रहे हैं।

कभी भेड़ों के समूह के लिए

भेड़-चाल की

बहुत बात हुआ करती थी

जहाँ उनके साथ

सदैव

एक गड़रिया रहा करता था,

उनका मालिक,

और एक कुत्ता।

 भेड़ें तो

अपनी भेड़-चाल चलती रहती थीं

नासमझों की तरह।

गड़रिया

बस एक डण्डा लिए

हांकता रहता था उन्हें।

किन्तु कुत्ता !

घूमता रहता था

उनके चारों ओर

गीदड़ और सियार से

उनकी रक्षा के लिए।

 

अब

भेड़ों के समूह तो बिखर गये।

कुत्ते, सियार और गीदड़

मिलकर

नये-नये समूह बनाये घूम रहे हैं

आप दड़बों में बन्द रहिए

वे आपको समूह का महत्व समझा रहे हैं।

 

उधारों पर दुनिया चलती है

सिक्कों का अब मोल कहाँ

मिट्टी से तो लगते हैं।

पैसे की अब बात कहाँ

रंगे कार्ड-से मिलते हैं।

बचत गई अब कागज़ में

हिसाब कहाँ अब मिलते हैं।

खन-खन करते सिक्के

मुट्ठी में रख लेते थे।

पाँच-दस पैसे से ही तो

नवाब हम हुआ करते थे।

गुल्लक कब की टूट गई

बचत हमारी गोल हुई।

मंहगाई-टैक्सों की चालों से

बुद्धि हमारी भ्रष्ट हुई।

पैसे-पैसे को मोहताज हुए,

किससे मांगें, किसको दे दें।

उधारों पर दुनिया चलती है

शान इसी से बनती है।

 

कुर्सियां

भूल हो गई मुझसे

मैं पूछ बैठी

कुर्सी की

चार टांगें क्यों होती हैं?

हम आराम से

दो पैरों पर चलकर

जीवन बिता लेते हैं

तो कुर्सी की

चार टांगें क्यों होती हैं?

कुर्सियां झूलती हैं।

कुर्सियां झूमती हैं।

कुर्सियां नाचती हैं।

कुर्सियां घूमती हैं।

चेहरे बदलती हैं,

आकार-प्रकार बांटती हैं,

पहियों पर दौड़ती हैं।

अनोखी होती हैं कुर्सियां।

किन्तु

चार टांगें क्यों होती हैं?

 

जिनसे पूछा

वे रुष्ट हुए

बोले,

तुम्हें अपनी दो

सलामत चाहिए कि नहीं !

दो और नहीं मिलेंगीं

और कुर्सी की तो

कभी भी नहीं मिलेंगी।

मैं डर गई

और मैंने कहा

कि मैं दो पर ही ठीक हूँ

मुझे  चौपाया  नहीं बनना।

 

कर्म कर और फल की चिन्ता कर

कहते हैं,

कहते क्या हैं

सुना है मैंने,

न-न

पता नहीं

कितनी पुस्तकों में

पढ़ा और गुना है मैंने।

बहुत समय पहले

कोई आये थे

और कह गये

कर्म किये जा

फल की चिन्ता मत कर।

पता नहीं

उन्होंने ऐसा क्यों कहा

मैं आज तक

समझ नहीं पाई।

अब आम का पेड़ बोयेंगे

तो आम तो देखने पड़ेंगे।

वैसे भी

किसी और ने भी तो कहा है

कि बोया पेड़ बबूल का

तो आम कहां से पाये।

 

सब बस कहने की ही बाते हैं

 

जो फल की चिन्ता नहीं करते

वे कर्म की भी चिन्ता नहीं करते

 

ज़माना बदल गया है

युग नया है

मुफ्तखोरी की आदत न डाल

कर्म कर और फल

के लिए खाद-पानी डाल

पेड़ पर चढ़

पर डाल न काट।

उपर बैठकर न देख

जमीनी सच्चाईओं पर उतर

कर्म कर पर फल न पाकर

हार न मान।

बस कर्म कर और

फल की चिन्ता कर।

 

घाट-घाट का पानी

शहर में

चूहे बिल्लियों को सुला रहे हैं

कानों में लोरी सुना रहे हैं।

उधर जंगल में गीदड़ दहाड़ रहे हैं।

शेर-चीते पिंजरों में बन्द

हमारा मन बहला रहे हैं।

पढ़ाते थे हमें

शेर-बकरी

कभी एक घाट पानी नहीं पीते,

पर आज

एक ही मंच पर

सब अपनी-अपनी बीन बजा रहे हैं।

यह भी पता नहीं लगता

कब कौन सो जायेगा]

और कौन लोरी सुनाएगा।

अब जहां देखो

दोस्ती के नाम पर

नये -नये नज़ारे दिखा रहे हैं।

कल तक जो खोदते थे कुंए

आज साथ--साथ

घाट-घाट का

पानी पीते नज़र आ रहे हैं।

बच कर चलना ऐसी मित्रता से

इधर बातों ही बातों में

हमारे भी कान काटे जा रहे हैं।

 

गरीबी हटाओ देश बढ़ाओ

पिछले बहत्तर साल से

देश में

योजनाओं की भरमार है

धन अपार है।

मन्दिर-मस्जिद की लड़ाई में

धन की भरमार है।

चुनावों में अरबों-खरबों लुट गये

वादों की, इरादों की ,

किस्से-कहानियों की दरकार है।

खेलों के मैदान पर

अरबों-खरबों का

खिलवाड़ है।

रोज़ पढ़ती हूं अखबार

देर-देर तक सुनती हूं समाचार।

गरीबी हटेगी, गरीबी हटेगी

सुनते-सुनते सालों निकल गये।

सुना है देश

विकासशील से विकसित देश

बनने जा रहा है।

किन्तु अब भी

गरीब और गरीबी के नाम पर

खूब बिकते हैं वादे।

वातानूकूलित भवनों में

बन्द बोतलों का पानी पीकर

काजू-मूंगफ़ली टूंगकर

गरीबी की बात करते हैं।

किसकी गरीबी,

किसके लिए योजनाएं

और किसे घर

आज तक पता नहीं लग पाया।

किसके खुले खाते

और किसे मिली सहायता

आज तक कोई बता नहीं पाया।

फिर  वे

अपनी गरीबी का प्रचार करते हैं।

हम उनकी फ़कीरी से प्रभावित

बस उनकी ही बात करते हैं।

और इस चित्र को देखकर

आहें भरते हैं।

क्योंकि न वे कुछ करते हैं।

और न हम कुछ करते हैं।

 

 

सुना है अच्छे दिन आने वाले हैं

सुना है

किसी वंशी की धुन पर

सारा गोकुल

मुग्ध हुआ करता था

ग्वाल-बाल, राधा-गोपियां

नृत्य-मग्न हुआ करते थे।

वे

हवाओं से बहकने वाले

वंशी के सुर

आज लाठी पर अटक गये

जीवन की धूप में

स्वर बहक गये

नृत्य-संगीत की गति

ठहर-ठहर-सी गई

खिलखिलाती गति

कुछ रूकी-सी

मुस्कानों में बदल गई

दूर कहीं भविष्य

देखती हैं आंखें

सुना है

कुछ अच्छे दिन आने वाले हैं

क्यों इस आस में

बहकती हैं आंखें

 

 

पलायन का स्वर भाता नहीं

अरे! क्यों छोड़ो भी

कोई बात हुई, कि छोड़ो भी

यह पलायन का स्वर मुझे  भाता नहीं।

मुझे इस तरह से बात करना आता नहीं।

कोई छेड़ गया, कोई बोल गया

कोई छू गया।

किसी की वाणाी से अपशब्द झरे,

कोई मेरा अधिकार मार गया,

किसी के शब्द-वाण झरे,

ढूंढकर मुहावरे पढ़े।

हरदम छोटेपन का एहसास कराते

कहीं दो वर्ष की बच्ची

अथवा अस्सी की वृद्धा

नहीं छोड़ी जी,

और आप कहते हैं

छोड़ो जी।

छोटी-छोटी बातों को

हम कह देते हैं छोड़ो जी

कब बन जाता

इस राई का पहाड़

यह भी तो देखो जी।

 

छोड़ो जी कहकर

हम देते हिम्मत उन लोगों को

जो नहीं मानते

कि गलत राहें छोड़ो जी।

इसलिए मैं तो मानूं

कि क्यों छोड़ो जी।

न जी न,

न छोड़ो जी।

 

गिरगिट की तरह

कितना अच्छा है

कि हम जानते हैं

कि गिरगिट रंग बदलते हैं।

इसलिए रंगों के बीच भी

उसे हम अक्सर पहचान लेते हैं।

आकर्षित करता है

उसका यह रंग बदलना,

क्योंकि प्रकृति से

सामंजस्य का भाव है उसमें।

पर उन लोगों का क्या करें

जो दिखते तो स्याह-सफ़ेद हैं

पर भीतर न जाने

कितने रंगों से सराबोर होते हैं

और अवसरानुकूल रंग बदलते रहते हैं।

और हम भी कहां पीछे हैं

रंगों में रंग बदलने लगे हैं

स्याह को सफ़ेद और

सफ़ेद को स्याह करने में लगे हैं।

 

 

 

सत्य के भी पांव नहीं होते

कहते हैं

झूठ के पांव नहीं होते

किन्तु मैंने तो

कभी सत्य के पांव

भी नहीं देखे।

झूठ अक्सर सबका

एक-सा होता है

पर ऐसा क्यों होता है

कि सत्य

सबका अपना-अपना होता है।

किसी के लिए

रात के अंधेरे ही सत्य हैं

और कोई

चांद की चांदनी को ही

सत्य मानता है।

किसी का सच सावन की घटाएं हैं

तो किसी का सच

सावन का तूफ़ान

जो सब उजाड़ देता है।

किसी के जीवन का सत्य

खिलते पुष्प हैं

तो किसी के जीवन का सत्य

खिलकर मुर्झाते पुष्प ।

किन्तु झूठ

सबका एक-सा होता है,

इसलिए

आज झूठ ही वास्तविक सत्य है

और यही सत्य है।