कभी तुम भी अग्नि-परीक्षा में खरे उतरो

ममता, नेह, मातृछाया बरसाने वाली नारी में भी चाहत होती है

कोई उसके मस्तक को भी सहला दे तो कितनी राहत होती है

पावनता के सारे मापदण्ड बने हैं बस एक नारी ही के लिए
कभी तुम भी अग्नि-परीक्षा में खरे उतरो यह भी चाहत होती है

आवागमन में बीत जाता है सारा जीवन

झुलसते हैं पांव, सीजता है मन, तपता है सूरज, पर प्यास तो बुझानी है

न कोई प्रतियोगिता, न जीवटता, विवशता है हमारी, बस इतनी कहानी है

इसी आवागमन में बीत जाता है सारा जीवन, न कोई यहां समाधान सुझाये

और भी पहलू हैं जिन्दगी के, न जानें हम, बस इतनी सी बात बतानी है

ज़िन्दगी भी सिंकती है

रोटियों के साथ

ज़िन्दगी भी सिंकती है।

कौन जाने

जब रोटियां जलती हैं

तब जिन्दगी के घाव

और कौन-कौन-सी

पीड़ाएं रिसती हैं।

पता नहीं

रोज़ कितनी रोटियां सिंकती हैं

कितनी की भूख लगती है

और कितनी भूख मिटती है।

इस एक रोटी के लिए

दिन-भर

कितनी मेहनत करनी पड़ती है

तब जाकर कहीं बाहर आग जलती है

और भीतर की आग

सुलगती हुई आग

न कभी बुझती है

कभी भड़कती है।

 

 

हंसते-हंसते जी लेना

हंसते-हंसते जी लेना

खुशियों के घूंट पी लेना

क्या होता है जग में

हमको क्या लेना-देना

 

 

 

 

भव्य रावण

क्यों हम

भूलना ही नहीं चाहते

रावण को।

हर वर्ष

कितनी तन्मयता से

स्मरण करते हैं

पुतले बनाते हैं

सजाते हैं

और उनके साथ

कुम्भकरण और मेघनाथ भी

आते हैं

अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित।

नवरात्रों और दशमी पर्व पर

सबसे पहले

रावण को ही

स्मरण करते हैं।

कितना बड़ा मैदान

कैसा मेला

कितने पटाखे

और कितने भव्य हों पुतले।

उस समय

स्मरण ही नहीं आता

कि इस पुतले को

बुराई के प्रतीक के रूप में

बना रहे हैं

जलाने के लिए।

राम और दुर्गा

सब पीछे छूट जाते हैं

और हम

दिनों-दिनों तक याद करते हैं

रावण को,

अह! कितना भव्य था इस बार।

कितनी रौनक थी

और कितना आनन्द आया।

 

 

चल आज लड़की-लड़की खेलें

चल आज लड़की-लड़की खेलें।

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साल में

तीन सौ पैंसठ दिन।

कुछ तुम्हारे नाम

कुछ हमारे नाम

कुछ इसके नाम

कुछ उसके नाम।

रोज़ सोचना पड़ता है

आज का दिन

किसके नाम?

कुछ झुनझुने लेकर

घूमते हैं हम।

आम से खास बनाने की

चाह लिए

जूझते हैं हम।

समस्याओं से भागते

कुछ नारे

गूंथते हैं हम।

कभी सरकार को कोसते

कभी हालात पर बोलते

नित नये नारे

जोड़ते हैं हम।

हालात को समझते नहीं

खोखले नारों से हटते नहीं

वास्तविकता के धरातल पर

चलते नहीं

सच्चाई को परखते नहीं

ज़िन्दगी को समझते नहीं

उधेड़-बुन में लगे हैं

मन से जुड़ते नहीं

जो करना चाहिए

वह करते नहीं

बस बेचारगी का मज़ा लेते हैं

फिर आनन्द से

अगले दिन पर लिखने के लिए

मचलते हैं।

 

आस लिए जीती हूँ

सपनों में जीती हूँ

सपनों में मरती हूँ

सपनों में उड़ती हूँ

ऐसे ही जीती हूँ।

धरा पर सपने बोती हूँ

गगन में छूती हूँ ।

मन में चाँद-तारे बुनती हूँ।

बादलों-से उड़ जाते हैं,

हवाएँ बहकाती हैं

सहम जाता है मन

पंछी-सा,

पंख कतरे जाते हैं

फिर भी उड़ती हूँ।

लौट धरा पर आती हूँ,

पर गगन की

आस लिए जीती हूँ।

 

मानव-मन की थाह कहां पाई

राग-द्वेष ! भाव भिन्न, अर्थ भिन्न, जीवन भर क्यों कर साथ-साथ चलें

मानव-मन की थाह कहां पाई जिससे प्रेम करें उसकी ही सफ़लता खले

हंस-बोलकर जी लें, सबसे हिल-मिल लें, क्या रखा है हेर-फ़ेर में, सोच तू

क्यों बात-बात पर सम्बन्धों की चिता सजायें, ले सबको साथ-साथ चलें

तब विचार अच्छे बनते हैं

बीमारी एक बड़ी है आई

साफ़ सफ़ाई रखना भाई

कूड़ा-करकट न फै़लाना

सुंदर-सुंदर पौधे लाना

बगिया अपनी खूब खिलाना

 

हाथों को साफ़ है रखना

बार-बार है धोना

मुंह, नाक, आंख न छूना

घर में रहना सुन लो ताई

 

मुंह को रखना ढककर तुम

हाथों की दूरी है रखनी

दूर से सबसे बात है करनी

 

प्लास्टिक का उपयोग न करना

घर में बैठकर रोज़ है पढ़ना

 

जब साफ़-सफ़ाई रखते हैं

तब विचार अच्छे बनते हैं

स्वच्छ अभियान  बढ़ायेंगें

देश का नाम चमकाएंगें।

 

चिड़िया फूल रंग और मन

 

चिड़िया की कुहुक-कुहुक, फूलों की महक-महक

राग बजे मधुर-मधुर, मन गया बहक-बहक

सरगम की तान छिड़ी, साज़ बजे, राग बने

सतरंगी आभा छाई , ताल बजे ठुमुक-ठुमुक

पूछूं चांद से

अक्सर मन करता है

पूछूं चांद से

औरों से मिली रोशनी में

चमकने में

यूं कैसे दम भरता है।

मत गरूर कर

कि कोई पूजता है,

कोई गणनाएं करता है।

शायद इसीलिए

दाग लिये घूमता है,

इतना घटता-बढ़ता है,

कभी अमावस

तो कभी ग्रहण लगता है।

 

मन टटोलता है प्रस्तर का अंतस

प्रस्तर के अंतस में

सुप्त हैं न जाने कितने जल प्रपात।

कल कल करती नदियां, 

झर झर करते झरने, 

लहराती बलखाती नहरें, 

मन की बहारें, और कितने ही सपने।

जहां अंकुरित होते हैं

नव पुष्प,

पुष्पित पल्लवित होती हैं कामनाएं

जिंदगी महकती है, गाती है,

गुनगुनाती है, कुछ समझाती है।

इन्द्रधनुषी रंगों से

आकाश सराबोर होता है

और मन टटोलता है

प्रस्तर का अंतस।

सचेत रहना या संदेह करना To
कुछ समय पूर्व मेरी अपनी महिला सहकर्मी से चर्चा हुई फेसबुक मित्रों पर, जो मेरी फेसबुक मित्र भी है। उसने बताया कि उसके फेसबुक मित्रों में केवल परिवार के अथवा पूर्व परिचित लोग ही हैं, कोई भी अपरिचित नहीं है जिसे उसने फेसबुक पर ही मित्र बनाया हो । वाट्सएप, एवं अन्य प्रकार से भी वे उसी दायरे में हैं। मैंने सोचा तो नया क्‍या ।

मैंने बताया कि एक अपने पुत्र, उसके मित्र एवं कुछ महिला मित्रों के अतिरिक्त मेरी मित्र सूची में अधिकांश अपरिचित हैं जिन्हें मैंने फेसबुक पर ही मित्र बनाया है। अलग से उनसे न तो कोई पारिवारिक, मैत्री सम्बन्ध है, न कोई पूर्व परिचय। ऐसे ही कुछ समूहों की भी सदस्य हूं और  वहां भी कोई पूर्व परिचित नहीं है।
आज ज्ञानचक्षु खुले , बात एक ही है।
मेरे संदेश बाक्स में प्रतिदिन लगभग दस मित्रों के सुप्रभात से लेकर शुभरात्रि तक के संदेश प्राप्त् होते थे, जिनका मैं यथासमय उत्तर भी देती हूं। पिछले एक माह से संदेश निरन्तर आ रहे हैं मैं उत्तर नहीं दे पाई, किन्तु। एक भी प्रश्न नहीं हैं, ‘’कहां हैं आप’’।
शिकायत नहीं है किसी से, मैं भी कौन-सा किसी को पूछती हूं।

फिर मैंने और  जानने का प्रयास किया तो जाना कि अधिकांश महिलाओं की मित्र सूची में  परिवार के अथवा पूर्व परिचित लोग ही हैं। अर्थात वे अपने सामाजिक, पारिवारिक जीवन में, मोबाईल, वाट्स एप पर भी उनसे निरन्तर सम्पर्क में हैं और  वे ही फेसबुक पर भी हैं।

फिर फेसबुक पर उनके लिए नया क्या ?

क्या हमें सत्य ही इतना डर कर रहना चाहिए जितना डराया जाता है।

क्यों हम सदैव ही किसी अपरिचित को अविश्वास की दृष्टि से ही देखे ?

जीवन में यदि हम अपरिचितों की उपेक्षा, संदेह, दूरियां ही बनाये रखेंगे तो समाज कैसे चलेगा।

सचेत रहना अलग बात है, अकारण संदेह में रहना अलग बात।

  

ज़रा-ज़रा-सी बात पर

ज़रा-ज़रा-सी बात पर यूं ही विश्‍वास चला गया

फूलों को रौंदते, कांटों को सहेजते चला गया

काश, कुछ ठहर कर कही-अनकही सुनी होती

हम रूके नहीं,सिखाते-सिखाते ज़माना चला गया

ये गर्मी और ये उमस

ये गर्मी और ये उमस हर वर्ष यूं ही तपाती है
बिजली देती धोखा तर पसीने में काम करवाती है
फिर नखरे सहो सबके ये या वो क्यों नहीं बनाया
ज़रा आग के आगे खड़े तो हो,नानी याद करवाती है

 

मन तो घायल होये

मन की बात करें फिर भी भटकन होये

आस-पास जो घटे मन तो घायल होये

चिन्तन तो करना होगा क्यों हो रहा ये सब

आंखें बन्द करने से बिल्ली न गायब होये

प्रेम की एक नवीन धारा

हां, प्रेम सच्चा रहे,

 

हां , प्रेम सच्चा रहे,

हर मुस्कुराहट में

हर आहट में

रूदन में या स्मित में

प्रेम की धारा बही

मन की शुष्क भूमि पर

प्रेम-रस की

एक नवीन छाया पड़ी।

पल-पल मानांे बोलता है

हर पल नवरस घोलता है

एक संगीत गूंजता है

हास की वाणी बोलता है

दूरियां सिमटने लगीं

आहटें मिटने लगीं

सबका मन

प्रेम की बोली बोलता है

दिन-रात का भान न रहा

दिन में भी

चंदा चांदनी बिखेरने लगा

टिमटिमाने लगे तारे

रवि रात में भी घाम देने लगा

इन पलों का एहसास

शब्दातीत होने लगा

बस इतना ही

हां, प्रेम सच्चा रहे

हां, प्रेम सच्चा लगे

 

जिजीविषा के लिए

 

 

रंगों की रंगीनियों में बसी है जि़न्दगी।

डगर कठिन है,

पर जिजीविषा के लिए

प्रतिदिन, यूं ही

सफ़र पर निकलती है जिन्‍दगी।

आज के निकले कब लौटेंगे,

यूं ही एकाकीपन का एहसास

देती रहती है जिन्दगी।

मृगमरीचिका है जल,

सूने घट पूछते हैं

कब बदलेगी जिन्दगी।

सुना है शहरों में, बड़े-बडे़ भवनों में

ताल-तलैया हैं,

घर-घर है जल की नदियां।

देखा नहीं कभी, कैसे मान ले मन ,

दादी-नानी की परी-कथाओं-सी

लगती हैं ये बातें।

यहां तो,

रेत के दानों-सी बिखरी-बिखरी

रहती है जिन्दगी।

 

चिडि़या मुस्कुराई

चिडि़या के उजड़े

घोंसले को देखकर

मेरा मन द्रवित हुआ

पूछा मैंने चिडि़या से

रोज़ तिनके चुनती हो

रोज़ नया घर बनाती हो

आंधी के एक झोंके से

घरौंदा तुम्‍हारा उजड़ जाता है

तिनका-तिनका बिखर जाता है

कभी वर्षा, कभी धूप

कभी पतझड़

कभी इंसान की करतूत।

कहां से इतना साहस पाती हो,  

न जाने कहां

दूर-दूर से भोजन लाती हो

नन्‍हें -नन्‍हें बच्‍चों को बचाती हो

उड़ना सिखलाती हो

और अनायास एक दिन

वे सच में ही उड़ जाते हैं

तुम्‍हारा दिल नहीं दुखता।

  • *    *    *

चिडि़या !!

मुंह में तिनका दबाये

एक पल के लिए

मेरी ओर देखा

मुस्‍कुराई

और उड़ गई

अपना घरौंदा

पुन: संवारने के लिए।

जमाना जले तो जलने दो

मौसम आशिकाना है मुहब्बत की बात करो
जमाना जले तो जलने दो इकरार से डरो
उम्र की बात करना मेरे साथ, जी जलता है
नहीं समझ आती मेरी बात तो बाबा बन के मरो

शांति और सन्नाटा

हम अक्सर सन्नाटे और

शांति को एक समझ बैठते हैं।

 

शांति भीतर होती है,

और सन्नाटा !!

 

बाहर का सन्नाटा

जब भीतर पसरता है

बाहर से भीतर तक घेरता है,

तब तोड़ता है।

अन्तर्मन झिंझोड़ता है।

 

सन्नाटे में अक्सर

कुछ अशांत ध्वनियां होती हैं।

 

हवाएं चीरती हैं

पत्ते खड़खड़ाते हैं,

चिलचिलाती धूप में

बेवजह सनसनाती आवाज़ें,

लम्बी सूनी सड़कें

डराती हैं,

आंधियां अक्सर भीतर तक

झकझोरती हैं,

बड़ी दूर से आती हैं

कुत्ते की रोने की आवाज़ें,

बिल्लियां रिरियाती है।

पक्षियों की सहज बोली

चीख-सी लगने लगती है,

चेहरे बदनुमा दिखने लगते हैं।

 

हम वजह-बेवजह

अन्दर ही अन्दर घुटते हैं,

सोच-समझ

कुंद होने लगती है,

तब शांति की तलाश में निकलते हैं

किन्तु भीतर का सन्नाटा छोड़ता नहीं।

 

कोई न मिले

तो अपने-आपको

अपने साथ ही बांटिये,

अपने-आप से मिलिए,

लड़िए, झगड़िए, रूठिए,मनाईये।

कुछ खट्टा-मीठा, मिर्चीनुमा बनाईये

खाईए, और सन्नाटे को तोड़ डालिए।

मोती बनीं सुन्दर
बूँदों का सागर है या सागर में बूँदें

छल-छल-छलक रहीं मदमाती बूँदें

सीपी में बन्द हुईं मोती बनीं सुन्दर

छू लें तो मानों डरकर भाग रही बूँदें

चिन्ता में पड़ी हूँ मैं

सब्ज़ी वाला आया न, सुबह से द्वार खड़ी हूँ मैं

आते होंगे भोजन के लिए, चिन्ता में पड़ी हूँ मैं

स्कूटी मेरी पंक्चर खड़ी, मण्डी तक जाऊँ कैसे

काम में हाथ बंटाया करो कितनी बार लड़ी हूँ मैं