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वर्ष में
बस दो बार
तेरे अवतरण की
प्रतीक्षा करते हैं
तेरे रूप-गुण की
चिन्ता करते हैं
सजाते हैं तेरा दरबार
तेरे मोहक रूप से
आंखें नम करते हैं
गुणगान करते हैं
तेरी शक्ति, तेरी आभा से
मन शान्त करते हैं।
दुराचारी
प्रवृत्तियों का
दमन करते हैं।
किन्तु
नौ दिन बीतते ही
तिरोहित कर
भूल जाते हैं
और लौट आते हैं
अपने चिर-स्वभाव में।
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रोशनियां अब उधार की बात हो गई हैं
रोशनियां
अब उधार की बात हो गई हैं।
कौन किसकी छीन रहा
यह तहकीकात की बात हो गई है।
गगन पर हो
या हो धरा पर
किसने किसका रूप लिया
यह पहचानने की बात हो गई है।
प्रकाश और तम के बीच
जैसे एक
प्रतियोगिता की बात हो गई है।
कौन किस पर कर रहा अधिकार
यह समझने-समझाने की बात हो गई है।
कौन लघु और कौन गुरू
नज़र-नज़र की बात हो गई है।
कौन जीता, कौन हारा
यह विवाद की बात हो गई है।
कौन पहले आया, कौन बाद में
किसने किसको हटाया
यह तकरार की बात हो गई है।
अब आप से क्या छुपाना
अपनी हद से बाहर की बात हो गई है।
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राधिके सुजान
अपनी तो हाला भी राधिके सुजान होती है
हमारी चाय भी उनके लिए मद्यपान होती है
कहा हमने चलो आज साथ-साथ आनन्द लें बोले
तुम्हारी सात की,हमारी सात सौ की कहां बात होती है
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अंधेरों और रोशनियों का संगम है जीवन
भाव उमड़ते हैं,
मिटते हैं, उड़ते हैं,
चमकते हैं।
पंख फैलाती हैं
आशाएं, कामनाएं।
लेकिन, रोशनियां
धीरे-धीरे पिघलती हैं,
बूंद-बूंद गिरती हैं।
अंधेरे पसरने लगते हैं।
रोशनियां यूं तो
लुभावनी लगती हैं,
लेकिन अंधेरे में
खो जाती हैं
कितनी ही रोशनियां।
मिटती हैं, सिमटती हैं,
जाते-जाते कह जाती हैं,
अंधेरों और रोशनियों का
संगम है जीवन,
यह हम पर है
कि हम किसमें जीते हैं।
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निर्माण हो या हो अवसान
उपवन में रूप ले रही
कलियों ने पहले से झूम रहे
पुष्पों की आभा देखी
और अपना सुन्दर भविष्य
देखकर मुस्कुरा दीं।
पुष्पों ने कलियों की
मुस्कान से आलोकित
उपवन को निहारा
और अपना पूर्व स्वरूप भानकर
मुदित हुए।
फिर धरा पर झरी पत्तियों में
अपने भविष्य की
आहट का अनुभव किया।
धरा से बने थे
धरा में जा मिलेंगे
सोच, खिलखिला दिये।
फिर स्वरूप लेंगे
मुस्कुराएंगे, मुदित होंगे,
फिर खिलखिलाएंगे।
निर्माण हो या हो अवसान की आहट
होना है तो होना है
रोना क्या खोना क्या
होना है तो होना है।
चलो, इसी बात पर मुस्कुरा दें ज़रा।
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इंसानों से काम करेंगें
इंसानों में रहते हैं तो इंसानों से काम करेंगें
आग जलाई तुमने हम सेंककर शीत हरेंगे
बाहर झड़ी लगी है, यहीं बितायेंगे दिन-रात
यहीं बैठकर रोटी-पानी खाकर पेट भरेंगे।
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धूप ये अठखेलियां हर रोज़ करती है
पुरानी यादें यूं तो मन उदास करती हैं
पर जब कुछ सुनहरे पल तिरते हैं
मन में नये भाव खिलते हैं
कोहरे में धुंधलाती रोशनियां
चमकने लगती हैं
कुछ बूंदे तिरती हैं
झुके-झुके पल्लवों पर
आकाश में नीलिमा तिरती है
फूल लेने लगते हैं अंगडाईयां
मन में कहीं आस जगती है
धूप ये अठखेलियां हर रोज़ करती है
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ज़िन्दगी के गीत
ज़िन्दगी के कदमों की तरह
बड़ा कठिन होता है
सितार के तारों को साधना।
बड़ा कठिन होता है
इनका पेंच बांधना।
यूँ तो मोतियों के सहारे
बांधी जाती हैं तारें
किन्तु ज़रा-सा
ढिलाई या कसाव
नहीं सह पातीं
जैसे प्यार में ज़िन्दगी।
मंद्र, मध्य, तार सप्तक की तरह
अलग-अलग भावों में
बहती है ज़िन्दगी।
तबले की थाप के बिना
नहीं सजते सितार के सुर
वैसे ही अपनों के साथ
उलझती है जिन्दगी
कभी भागती, कभी रुकती
कभी तानें छेड़ती,
राग गाती,
झाले-सी दनादन बजती,
लड़ती-झगड़ती
मन को आनन्द देती है ज़िन्दगी।
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अन्त होता है ज़िन्दगी की चालों का
स्याह-सफ़ेद
प्यादों की चालें
छोटी-छोटी होती हैं।
कदम-दर-कदम बढ़ते,
राजा और वज़ीर को
अपने पीछे छुपाये,
बढ़ते रहते हैं,
कदम-दर-कदम,
मानों सहमे-सहमे।
राजा और वज़ीर
रहते हैं सदा पीछे,
लेकिन सब कहते हैं,
बलशाली, शक्तिशाली
होता है राजा,
और वजीर होता है
सबसे ज़्यादा चालबाज़।
फिर भी ये दोनों,
प्यादों में घिरे
घूमते, बचते रहते हैं।
किन्तु, एक समय आता है
प्यादे चुक जाते हैं,
तब दो-रंगे,
राजा और वज़ीर,
आ खड़े होते हैं
आमने-सामने।
ऐसे ही अन्त होता है
किसी खेल का,
किसी युद्ध का,
या किसी राजनीति का।
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ज़िन्दगी लगती बेमानी है
जन्म की अजब कहानी है, मरण से जुड़ी रवानी है।
श्मशान घाट में जगह नहीं, खो चुके ज़िन्दगानी हैं।
पंक्तियों में लगे शवों का टोकन से होगा संस्कार,
फ़ुटपाथ पर लगी पंक्तियां, ज़िन्दगी लगती बेमानी है।
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चैन से सो लेने दो
अच्छे-भले मुंह ढककर सो रहे थे यूं ही हिला हिलाकर जगा दिया
अच्छा-सा चाय-नाश्ता कराओं खाना बनाओ, हुक्म जारी किया
अरे अवकाश हमारा अधिकार है, चैन से सो लेने दो, न जगाओ
नींद तोड़ी हमारी तो मीडिया बुला लेंगे हमने बयान जारी किया