अपना साहस परखता हूँ मैं
आसमान में तिरता हूँ मैं।
धरा को निहारता हूँ मैं।
अपना साहस परखता हूँ मैं।
मंज़िल पाने के लिए
खतरों से खेलता हूँ मैं।
यूँ भी जीवन का क्या भरोसा
लेकिन अपने भरोसे
आगे बढ़ता ही बढ़ता हूँ मैं।
हवाएँ घेरती हैं मुझे,
ज़माने की हवाओं को
परखता हूँ मैं।
साथी नहीं, हमसफ़र नहीं
अकेले ही
अपनी राहों को
तलाशता हूँ मैं।
भ्रष्टाचार मुक्त समाज की परिकल्पना
सेनानियों की वीरता को हम सदा नमन करते हैं
पर अपना कर्तव्य भी वहन करें यह बात करते हैं
भ्रष्टाचार मुक्त समाज की परिकल्पना को सत्य करें
इस तरह राष्ट्र् के सम्मान की हम बात करते हैं
रोशनी की चकाचौंध में
रोशनी की चकाचौंध में अक्सर अंधकार के भाव को भूल बैठते हैं हम
सूरज की दमक में अक्सर रात्रि के आगमन से मुंह मोड़ बैठते हैं हम
तम की आहट भर से बौखलाकर रोशनी के लिए हाथ जला बैठते हैं
ज्योति प्रज्वलित है, फिर भी दीप तले अंधेरा ही ढूंढने बैठते हैं हम
कहना सबका काम है कहने दो
लोक लाज के भय से करो न कोई काम
जितनी चादर अपनी, उतने पसारो पांव
कहना सबका काम है कहने दो कुछ भी
जो जो मन को भाये वही करो तुम काम
एक बदली सोच के साथ
चौबीसों घंटे चाक-चौबन्द
फेरी वाला, दूध वाला,
राशनवाला,
रोगी वाहन बनी घूम रही।
खाना परोस रही,
रोगियों को अस्पताल ढो रही,
घर में रहो , घर में रहो !!!
कह, सुरक्षा दे रही,
बेघर को घर-घर पहुंचा रही,
आप भूखे पेट
भूखों को भोजन करा रही।
फिर भी
हमारी नाराज़गियां झेल रही
ये हमारी पुलिस कर रही।
पुलिस की गाड़ी की तीखी आवाज़
आज राहत का स्वर दे रही।
गहरी सांस लेते हैं हम
सुरक्षित हैं हम, सुरक्षित हैं हम।
सोचती हूं
सोच कैसे बदलती है
क्यों बदलती है सोच।
कभी आपने सोचा है
क्या है आपकी सोच ?
कुछ धारणाएं बनाकर
जीते हैं हम,
जिसे बुरा कहने लगते हैं
बुरा ही कहते हैं हम।
चाहे घर के भीतर हों
या घर के बाहर
चोर तो चोर ही होता है,
यह समझाते हैं हम।
नाके पर लूटते,
जेबें टटोलते,
अपराधियों के सरगना,
झूठे केस बनाते,
आम आदमी को सताते,
रिश्वतें खाते,
नेताओं की करते चरण-वन्दना।
कितनों से पूछा
आपके साथ कब-कब हुआ ऐसा हादसा ?
उत्तर नहीं में मिला।
तो मैंने कहा
फिर आप क्यो कहते हैं ऐसा।
सब कहते हैं, सब जानते हैं,
बस ,इसीलिए हम भी कह देते हैं,
और कहने में क्या जाता है ?
यह हमारा चरित्र है!!!!!!!
न देखी कभी उनकी मज़बूरियां,
न समझी कभी उनकी कहानियां
एक दिन में तो नहीं बदल गया
उनका मिज़ाज़
एक दिन में तो
नहीं बन गये वे अच्छे इंसान।
वे ऐेसे ही थे, वे ऐसे ही हैं।
शायद कभी हुआ होगा
कोई एक हादसा,
जिसकी हमने कहानी बना ली
और वायरल कर दी,
गिरा दिया उनका चरित्र
बिन सोचे-समझे।
नमन करती हूं इन्हें ,
कभी समय मिले
तो आप भी स्मरण करना इन्हें ,
स्मरण करना इन्हें
एक बदली सोच के साथ
मेरे मन की चांदनी
सुना है मैंने
शरद पूर्णिमा के
चांद की चांदनी से
खीर दिव्य हो जाती है।
तभी तो मैं सोचता था
तुम्हें चांद कह देने से
तुम्हारी सुन्दरता
क्यों द्विगुणित हो जाती है,
मेरे मन की चांदनी
खिल-खिल जाती है।
चंदा की किरणें
धरा पर जब
रज-कण बरसाती हैं,
रूप निखरता है तुम्हारा,
मोतियों-सा दमकता है,
मानों चांदनी की दमक
तुम्हारे चेहरे पर
देदीप्यमान हो जाती है।
कभी-कभी सोचता हूं,
तुम्हारा रूप चमकता है
चांद की चांदनी से,
या चांद
तुम्हारे रूप से रूप चुराकर
चांदनी बिखेरता है।
कुछ सपने
भाव भी तो लौ-से दमकते हैं
कभी बुझते तो कभी चमकते हैं
मन की बात मन में रह जाती है
कुछ सपने आंखों में ही दरकते हैं
पंखों की उड़ान परख
पंखों की उड़ान परख
गगन परख, धरा निरख ।
तुझको उड़ना सिखलाती हूं,
आशाओं के गगन से
मिलवाना चाहती हूं,
साहस देती हूं,
राहें दिखलाती हूं।
जीवन में रोशनी
रंगीनियां दिखलाती हूं।
पर याद रहे,
किसी दिन
अनायास ही
एक उछाल देकर
हट जाउंगी
तेरी राहों से।
फिर अपनी राहें
आप तलाशना,
जीवन भर की उड़ान के लिए।
स्वर्गिक सौन्दर्य रूप
रूईं के फ़ाहे गिरते थे हम हाथों से सहलाते थे।
वो हाड़ कंपाती सर्दी में बर्फ़ की कुल्फ़ी खाते थे।
रंग-बिरंगी दुनिया श्वेत चादर में छिप जाती थी,
स्वर्गिक सौन्दर्य-रूप, मन आनन्दित कर जाते थे।
अब वक्त चला गया
सहज-सहज करने का युग अब चला गया
हर काम अब आनन-फ़ानन में करना आ गया
आज बीज बोया कल ही फ़सल चाहिए हमें
कच्चा-पक्का यह सोचने का वक्त चला गया
जो मिला बस उसे संवार
कहते हैं जीवन छोटा है, कठिनाईयां भी हैं और दुश्वारियां भी
किसका संग मिला, कौन साथ चला, किसने निभाई यारियां भी
आते-जाते सब हैं, पर यादों में तो कुछ ही लोग बसा करते हैं
जो मिला बस उसे संवार, फिर देख जीवन में हैं किलकारियां भी
शायद प्यार से मन मिला नहीं था
यूं तो उनसे कोई गिला नहीं था
यादों का कोई सिला नहीं था
कभी-कभी मिल लेते थे यूं ही
शायद प्यार से मन मिला नहीं था
नई शुरूआत
जो मैं हूं
वैसा सब मुझे जान नहीं पाते
और जैसा सब मुझे जान पाते हैं
वह मैं बन नहीं पाती।
बार बार का यह टकराव
हर बार हताश कर जाता है मुझे
फिर साथ ही उकसा जाता है
एक नई शुरूआत के लिए।।।।।।।।।।।
कुछ तो करवा दो सरकार
कुएँ बन्द करवा दो सरकार।
अब तो मेरे घर नल लगवा दो सरकार।
इस घाघर में काम न होते
मुझको भी एक सूट सिलवा दो सरकार।
चलते-चलते कांटे चुभते हैं
मुझको भी एक चप्पल दिलवा दो सरकार।
कच्ची सड़कें, पथरीली धरती
कार न सही,
इक साईकिल ही दिलवा दो सरकार।
मैं कोमल-काया, नाज़ुक-नाज़ुक
तुम भी कभी घट भरकर ला दो सरकार।
कान्हा-वान्हा, गोपी-वोपी,
प्रेम-प्यार के किस्से हुए पुराने
तुम भी कुछ नया सोचो सरकार।
शहरी बाबू बनकर रोब जमाते फ़िरते हो
दो कक्षा
मुझको भी अब तो पढ़वा दो सरकार।
ज़िन्दगी के रास्ते
यह निर्विवाद सत्य है
कि ज़िन्दगी
बने-बनाये रास्तों पर नहीं चलती।
कितनी कोशिश करते हैं हम
जीवन में
सीधी राहों पर चलने की।
निश्चित करते हैं कुछ लक्ष्य
निर्धारित करते हैं राहें
पर परख नहीं पाते
जीवन की चालें
और अपनी चाहतें।
ज़िन्दगी
एक बहकी हुई
नदी-सी लगती है,
तटों से टकराती
कभी झूमती, कभी गाती।
राहें बदलती
नवीन राहें बनाती।
किन्तु
बार-बार बदलती हैं राहें
बार-बार बदलती हैं चाहतें
बस,
शायद यही अटूट सत्य है।
एकान्त के स्वर
मन के भाव रेखाओं में ढलते हैं।
कलश को नेह-नीर से भरते हैं।
रंगों में जीवन की गति रहती है,
एकान्त के स्वर गीत मधुर रचते हैं।
इंसान के भीतर वृक्ष भाव
एक वृक्ष को बनने में कुछ वर्ष नहीं, दशाब्दियाँ लग जाती हैं। प्रत्येक मौसम झेलता है वह।
प्रकृति स्वयं ही उसे उसकी आवश्यकताएँ पूरी करने देती है यदि मानव उसमें व्यवधान न डाले। अपने मूल रूप में वृक्ष की कोमल-कांत छवि आकर्षित करती है। हरी-भरी लहलहाती डालियाँ मन आकर्षित करती है। रंग-बिरंगे फूल मन मोहते हैं। धरा से उपज कर धीरे-धीरे कोमल से कठोर होने लगता है। जैसे-जैसे उसकी कठोरता बढ़ती है उसकी उपयोगिता भी बढ़ने लगती है। छाया, आक्सीजन, फल-फूल, लकड़ी, पर्यावरण की रक्षा, सब प्राप्त होता है एक वृक्ष से। किन्तु वृक्ष जितना ही उपयोगी होता जाता है बाहर से उतना ही कठोर भी।
किन्तु क्या वह सच में ही कठोर होता है ? नहीं ! उसके भीतर एक तरलता रहती है जिसे वह अपनी कठोरता के माध्यम से हमें देता है। वही तरलता हमें उपयोगी वस्तुएँ प्रदान करती है। और ठोस पदार्थों के अतिरिक्त बहुत कुछ ऐसा देते हैं यह कठोर वृक्ष जो हमें न तो दिखाई देता है और न ही समझ है बस हमें वरदान मिलता है। यदि इस बात को हम भली-भांति समझ लें तो वृक्ष की भांति हमारा जीवन भी हो सकता है।
और यही मानव जीवन कहानी है।
हर मनुष्य के भीतर कटुता और कठोरता भी है और तरलता एवं कोमलता अर्थात भाव भी। यह हमारी समझ है कि हम किसे कितना समझ पाते हैं और कितनी प्राप्तियाँ हो पाती हैं।
मानव अपने जीवन में विविध मधुर-कटु अनुभवों से गुज़रता है। सामाजिक जीवन में उलझा कभी विनम्र तो कभी कटु हो जाता है उसका स्वभाव। जीवन के कटु-मधुर अनुभव मानव को बाहर से कठोर बना देते है। किन्तु उसके मन की तरलता कभी भी समाप्त नहीं होती, चाहे हम अनुभव कर पायें अथवा नहीं। जिस प्रकार वृक्ष की छाल उतारे बिना उसके भीतर की तरलता का अनुभव नहीं होता वैसे ही मानव के भीतर भी सभी भाव हैं, कोई भी केवल अच्छा या बुरा, कटु अथवा मधुर नहीं होता। बस परख की बात है।
हिम्मत लेकर जायेगी शिखर तक
किसी के कदमों के छूटे निशान न कभी देखना
अपने कदम बढ़ाना अपनी राह आप ही देखना
शिखर तक पहुंचने के लिए बस चाहत ज़रूरी है
अपनी हिम्मत लेकर जायेगी शिखर तक देखना
प्रकृति का सौन्दर्य चित्र
कभी-कभी सूरज
के सामने ही
बादल बरसने लगते हैं।
और जल-कण,
रजत-से
दमकने लगते हैं।
तम
खण्डित होने लगता है,
घटाएं
किनारा कर जाती हैं।
वे भी
इस सौन्दय-पाश में
बंध दर्शक बन जाती हैं।
फिर
मानव-मन कहां
तटस्थ रह पाता है,
सरस-रस से सराबोर
मद-मस्त हो जाता है।
कोरोना का अनुभव
कोरोना का अनुभव अद्भुत, अकल्पनीय था। पति पहले ही स्वस्थ नहीं थे, मार्च में हुए हृदयाघात के कारण। 28 मई रात्रि पति को ज्वर हुआ। बदलते मौसम में उन्हें अक्सर ज्वर होता है, अपने डाक्टर को फ़ोन किया तो उन्होंने दवाई दे दी। तीन दिन में बुखार उतर गया। किन्तु कमज़ोरी इतनी बढ़ गई कि अस्पताल हार्ट स्पैश्लिस्ट के पास चैकअप ज़रूरी दिख रहा था। जानते थे कि अस्पताल पहले नैगेटिव रिपोर्ट मांगेगे। इसलिए 2 जून को कोरोना टैस्ट करवाया। दुर्भाग्यवश पाज़िटिव रिपोर्ट आ गई। साथ ही मुझे और मेरे बेटे को भी ज्वर हुआ। उसी दिन हमने टैस्ट करवाया। पति की हालत उसी रात गम्भीर हुई, सुबह पांच बजे एमरजैंसी में एडमिट हुए। मैं, बेटा बाहर खड़े उनकी रिपोर्ट की प्रतीक्षा कर रहे थे। शुरु की सारी रिपोर्टस ठीक रहीं। नौ बज रहे थे। शेष रिपोर्ट्स समय लेकर मिलनी थीं। बेटे के मोबाईल पर आवाज़ आई और पाया कि हम दोनों की रिपोर्ट पाज़िटिव है। हमने मुड़कर नहीं देखा, और अस्पताल से निकल गये। डाक्टर से फोन पर बात की, मिलना तो था ही नहीं, क्योंकि कोविड वार्ड में थे। उनका सोडियम बहुत गिर गया था। बहू की रिपोर्ट नैगेटिव थी, अतः उसे पहले ही मायके भेज दिया जहां वह एकान्तवास हुई। उसका परिवार पिछले माह ही कोविड भुगत चुका था। एक ही दिन में हम हिस्सों में बंट गये।
तीसरे दिन आंचल को भी बुखार हुआ और पोती धारा को भी। बिना टैस्ट ही जान गये कि उन्हें भी कोविड हो गया है। अब सवाल था वापिस कैसे लाया जाये। बेटे का एक मित्र, जिसे कोविड हो चुका था, उन दोनों को घर छोड़कर गया। बस इतना रहा कि मुझे एक ही दिन बुखार रहा। बेटे को दस दिन और धारा और आंचल को चार दिन। बुखार बढ़ता तो कभी तीनों मिलकर धारा की पट्टियां करते तो कभी मैं और आंचल मिलकर बेटे की। खाना बाहर से आने लगा। फल, जूस आदि आंचल के घर से देकर जाते। तीन रात लगातार बिजली जाती रही। नया इन्वर्टर धोखा दे गया। एक फे़स से एक ए. सी. चल रहा था। और हम चारों, मैं, बेटा, बहू और पोती एक ही डबल बैड पर रात काटते। इतनी हिम्मत नहीं कि एक फ़ोल्डिंग बैड लगा लें या नीचे ही बिस्तर बिछा लें।
पांचवे दिन पति का अस्पताल से डिस्चार्ज था। समस्या वही, हम जा नहीं सकते, और और कोविड रोगी को डिस्चार्ज करवाने और उन्हें लेकर कौन आये। फिर बेटे के मित्र और बहू के पिता ने सब किया। लेकिन चार दिन बाद फिर अस्पताल एडमिट हुए, इस बार हमारे दस दिन बीत चुके थे, और डाक्टर ने कहा कोई बात नहीं, आप लोग आ जाईये। साथ ही बेटे का माइग्रेन शुरु हो गया। बच्चे कब तक छुट्टी लेते। वर्क फ्राम होम ही है किन्तु 8-10 घंटे पी. सी. पर।
अपने मकान मालिक को हमने पहले ही दिन बता दिया था। वे बोल बोले बैस्ट आॅफ़ लक्क। नियमित दूध लेने वाले हम लोग पांच दिन तक दूध लेने नहीं गये। प्रातः लगभग 7 बजे हम 6 परिवार एक साथ दूध लेते हैं। किसी ने नहीं पूछा। दूध वाले ने उनसे पूछा कि उपर की आंटी जी चार-पांच दिन से दूध लेने नहीं आईं, उनके घर में सब ठीक तो है न। फिर दूधवाला अपने-आप ही हमारा दूध, ब्रैड, पनीर रखने लगा।
महीना बीत गया। रिकवरी मोड में तो हैं किन्तु पोस्ट कोविड समस्याएं भी हैं। देखते हैं कब तक जीवन पटरी पर उतरता है।
रे मन अपने भीतर झांक
सागर से गहरे हैं मन के भाव, किसने पाई थाह
सीपी में मोती से हैं मन के भाव, किसने पाई थाह
औरों के चिन्तन में डूबा है रे मन अपने भीतर झांक
जीवन लभ्य हो जायेगा जब पा लेगा अपने मन की थाह
एक मानवता को बसाने में
ये धुएँ का गुबार
और चमकती रोशनियाँ
पीढ़ियों को लील जाती हैं
अपना-पराया नहीं पहचानतीं
बस विध्वंस को जानती हैं।
किसी गोलमेज़ पर
चर्चा अधूरी रह जाती है
और परिणामस्वरूप
धमाके होने लगते हैं
बम फटने लगते हैं
लोग सड़कों-राहों पर
मरने लगते हैं।
क्यों, कैसे, किसलिए
कुछ नहीं होता।
शताब्दियाँ लग जाती हैं
एक मानवता को बसाने में
और पल लगता है
उसको उजाड़ कर चले जाने में।
फिर मलबों के ढेर में
खोजते हैं
इंसान और इंसानियत,
कुछ रुपये फेंकते हैं
उनके मुँह पर
ज़हरीले आंसुओं से सींचते हैं
उनके घावों को
बदले की आग में झोंकते हैं
उनकी मानसिकता को
और फिर एक
गोलमेज़ सजाने लगते हैं।
अवसर है अकेलापन अपनी तलाश का
एक सपने में जीती हूं,
अंधेरे में रोशनी ढूंढती हूं।
बहारों की आस में,
कुछ पुष्प लिए हाथ में,
दिन-रात को भूलती हूं।
काल-चक्र घूमता है,
मुझसे कुछ पूछता है,
मैं कहां समझ पाती हूं।
कुछ पाने की आस में
बढ़ती जाती हूं।
गगन-धरा पुकारते हैं,
कहते हैं
चलते जाना, चलते जाना
जीवन-गति कभी ठहर न पाये,
चंदा-सूरज से सीख लेना
तारों-सा टिमटिमाना,
अवसर है अकेलापन
अपनी तलाश का ,
अपने को पहचानने का,
अपने-आप में
अपने लिए जीने का।