स्मृतियों के खण्डहर

कुछ

अनचाही स्मृतियाँ

कब खंडहर बन जाती हैं

पता ही नहीं लग पाता

और हम

उन्हीं खंडहरों पर

साल-दर-साल

लीपा-पोती

करते रहते हैं

अन्दर-ही-अन्दर

दीमक पालते रहते हैं

देखने में लगती हैं

ऊँची मीनारें

किन्तु एक हाथ से

ढह जाती हैं।

प्रसन्न रहते हैं हम

इन खंडहरों के बारे में

बात करते हुए

सुनहरे अतीत के साक्षी

और इस अतीत को लेकर

हम इतने

भ्रमित रहते हैं

कि वर्तमान की

रोशनियों को

नकार बैठते हैं।