यादों का पिटारा

 इस डिब्बे को देखकर

यादों का पिटारा खुल गया।

भूली-बिसरी चिट्ठियों के अक्षर

मस्तिष्क पटल पर

उलझने लगे।

हरे, पीले, नीले रंग

आंखों के सामने चमकने लगे।

तीन पैसे का पोस्ट कार्ड

पांच पैसे का अन्तर्देशीय,

और

बहुत महत्वपूर्ण हुआ करता था

बन्द लिफ़ाफ़ा

जिस पर डाकघर से खरीदकर

पचास पैसे का

डाक टिकट चिपकाया करते थे।

पत्र लिखने से पहले

कितना समय लग जाता था

यह निर्णय करने में

कि कार्ड प्रयोग करें

अन्तर्देशीय या लिफ़ाफ़ा।

तीन पैसे और पचास पैसे में

लाख रुपये का अन्तर

लगता था

और साथ ही

लिखने की लम्बाई

संदेश की सच्चाई

जीवन की खटाई।

वृक्षों पर लटके ,

सड़क के किनारे खड़े

ये छोटे-छोटे लाल डब्बे

सामाजिकता का

एक तार हुआ करते थे

अपनों से अपनी बात करने का,

दूरियों को पाटने का

आधार हुआ करते थे

द्वार से जब सरकता था पत्र

किसी अपने की आहट का

एहसास हुआ करते थे।