सूरज गुनगुनाया आज
सूरज गुनगुनाया आज
मेरी हथेली में आकर,
कहने लगा
चल आज
इस तपिश को
अपने भीतर महसूस कर।
मैं न कहता कि आग उगल।
पर इतना तो कर
कि अपने भीतर के भावों को
आकाश दे,
प्रभात और रंगीनियां दे।
उत्सर्जित कर
अपने भीतर की आग
जिससे दुनिया चलती है।
मैं न कहता कि आग उगल
पर अपने भीतर की
तपिश को बाहर ला,
नहीं तो
भीतर-भीतर जलती यह आग
तुझे भस्म कर देगी किसी दिन,
देखे दुनिया
कि तेरे भीतर भी
इक रोशनी है
आस है, विश्वास है
अंधेरे को चीर कर
जीने की ललक है
गहराती परछाईयों को चीरकर
सामने आ,
अपने भीतर इक आग जला।
मैंने चिड़िया से पूछा
मैंने चिड़िया से पूछा
क्यों यूं ही दिन भर
चहक-चहक जाती हो
कुट-कुट, किट-किट करती
दिन-भर शोर मचाती हो ।
पलटकर बोली
तुमको क्या ?
मैंने कभी पूछा तुमसे
दिन भर
तुम क्या करती रहती हो।
कभी इधर-उधर
कभी उधर-इधर
कभी ये दे-दे
कभी वो ले ले
कभी इसकी, कभी उसकी
ये सब क्यों करती रहती हो।
-
कभी मैं बोली सूरज से
कहां तुम्हारी धूप
क्यों चंदा नहीं आये आज
कभी मांगा चंदा से किसी
रोशनी का हिसाब
कहां गये टिम-टिम करते तारे
कभी पूछा मैंने पेड़ों से
पत्ते क्यों झर रहे
फूल क्यों न खिले।
कभी बोली फूलों से मैं
कहां गये वो फूल रंगीले
क्यों नहीं खिल रहे आज।
क्यों सूखी हरियाली
बादल क्यों बरसे
बिजली क्यों कड़की
कभी पूछा मैंने तुमसे
मेरा घर क्यों उजड़ा
न डाल रही, न रहा घरौंदा
कभी की शिकायत मैंने
कहाँ सोयेंगे मेरे बच्चे
कहाँ से लाऊँगी मैं दाना-पानी।
मैं खुश हूँ
तुम भी खुश रहना सीखो
मेरे जैसे बनना सीखो
इधर-उधर टाँग अड़ाना बन्द करो
अपने मतलब से मतलब रख आनन्द करो।
यादों के पृष्ठ सिलती रही
ज़िन्दगी,
मेरे लिए
यादों के पृष्ठ लिखती रही।
और मैं उन्हें
सबसे छुपाकर,
एक धागे में सिलती रही।
कुछ अनुभव थे,
कुछ उपदेश,
कुछ दिशा-निर्देश,
सालों का हिसाब-बेहिसाब,
कभी पढ़ती,
कभी बिखरती रही।
समय की आंधियों में
लिखावट मिट गई,
पृष्ठ जर्जर हुए,
यादें मिट गईं।
तब कहीं जाकर
मेरी ज़िन्दगी शुरू हुई।
वर्तमान स्वागत-सत्कार
श्रेष्ठि वर्ग / High Society
आपके सामने शानदार डोंगे भर-भर कर काजू, किशमिश, बादाम, अखरोट जैस सूखे मेवे रख दिये जाते हैं। आप एक नहीं, दो अथवा तीन दाने उठाकर खा लेंगे। फिर वे स्वयं ही बार बार चाय, कोल्ड ड्रिंक से होने वाली हानियों को सविस्तार बतायेंगे और बतायेंगे कि वे तो एेसा कुछ भी सेवन नहीं करते। साथ ही आपसे बार बार पूछेंगे आप क्या लेंगे। फिर छोटे छोटे cut glasses में आपको तीन-चार घूंट कोई energy drink serve की जायेगी जिससे आप अपना गला तर करके, कुछ दाने टूंग कर चल देंगे।
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उच्च मध्यम वर्ग ः एक बिस्कुट की प्लेट और नमकीन की एक-दो प्लेट आपके सामने आ जायेगी और दो-तीन बार आपके सामने घूम कर लौट जायेगी। साथ आधा कप चाय अथवा कोई चलती सी कोल्ड ड्रिंक
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और आह ! सही लोग : सही स्वागत-सत्कार
समासे, पकौड़े, गुलाबजामुन, रसगुल्ले, और इनके सारे रिश्तेदार और कम से कम दो-तीन बार चाय।
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आप मुझे जलपान पर कब आमन्त्रित कर रहे हैं ।
गूंगी,बहरी, अंधी दुनिया
कान तो हम
पहले ही बन्द किये बैठे थे,
चलो आज आंख भी मूंद लेते हैं।
वैसे भी हमने अपने दिमाग से तो
कब का
काम लेना बन्द कर दिया है
और दिल से सोचना-समझना।
हर बात के लिए
दूसरों की ओर ताकते हैं।
दायित्वों से बचते हैं
एक ने कहा
तो किसी दूसरे से सुना।
किसी तीसरे ने देखा
और किसी चौथे ने दिखाया।
बस इतने से ही
अब हम
अपनी दुनिया चलाने लगे हैं।
अपने डर को
औरों के कंधों पर रखकर
बंहगी बनाने लगे हैं।
कोई हमें आईना न दिखाने लग जाये
इसलिए
काला चश्मा चढ़ा लिया है
जिससे दुनिया रंगीन दिखती है,
और हमारी आंखों में झांककर
कोई हमारी वास्तविकता
परख नहीं सकता।
या कहीं कान में कोई फूंक न मार दे
इसलिए “हैड फोन” लगा लिए हैं।
अब हम चैन की नींद सोते हैं,
नये ज़माने के गीत गुनगुनाते हैं।
हां , इतना ज़रूर है
कि सब बोल-सुन चुकें
तो जिसका पलड़ा भारी हो
उसकी ओर हम हाथ बढ़ा देते हैं।
और फिर चश्मा उतारकर
हैडफोन निकालकर
ज़माने के विरूद्ध
एक लम्बी तकरीर देते हैं
फिर एक लम्बी जम्हाई लेकर
फिर अपनी पुरानी
मुद्रा में आ जाते हैं।
भोर में
भोर में
चिड़िया अब भी चहकती है
बस हमने सुनना छोड़ दिया है।
.
भोर में
रवि प्रतिदिन उदित होता है
बस हमने आंखें खोलकर
देखना छोड़ दिया है।
.
भोर में आकाश
रंगों से सराबोर
प्रतिदिन चमकता है
बस हमने
आनन्द लेना छोड़ दिया है।
.
भोर में पत्तों पर
बहकती है ओस
गाते हैं भंवरे
तितलियां उड़ती-फ़िरती है
बस हमने अनुभव करना छोड़ दिया है।
.
सुप्त होते तारागण
और सूरज को निरखता चांद
अब भी दिखता है
बस हमने समझना छोड़ दिया है।
.
रात जब डूबती है
तब भोर उदित होती है
सपनों के साथ,
.
बस हमने सपनों के साथ
जीना छोड़ दिया है।
सांझ-सवेरे भागा-दौड़ी
सांझ-सवेरे, भागा-दौड़ी
सूरज भागा, चंदा चमका
तारे बिखरे
कुछ चमके, कुछ निखरे
रंगों की डोली पलटी
हल्के-हल्के रंग बदले
फूलों ने मुख मोड़ लिए
पल्लव देखो सिमट गये
चिड़िया ने कूक भरी
तितली-भंवरे कहाँ गये
कीट-पतंगे बिखर गये
ओस की बूँदें टहल रहीं
देखो तो कैसे बहक रहीं
रंगों से देखो खेल रहीं
अभी यहीं थीं
कहाँ गईं, कहाँ गईं
ढूंढो-ढूंढों कहाँ गईं।
जब तक चिल्लाओ न, कोई सुनता नहीं
अब शांत रहने से यहां कुछ मिलता नहीं
जब तक चिल्लाओ न, कोई सुनता नहीं
सब गूंगे-बहरे-अंधे अजनबी हो गये हैं यहां
दो की चार न सुनाओ जब तक, काम बनता नहीं
ज़िन्दगी क्यों हारती है
अपने मन के भावों को
परखने के लिए
हम औरों की नज़र
मांगते हैं,
इसीलिए
ज़िन्दगी हारती है।
घर की पूरी खुशियाँ
आंगन में चरखा चलता था
आंगन में मंजी बनती थी
पशु पलते थे आंगन में
आँगन में कुँआ होता था
आँगन में पानी भरते थे
आँगन में चूल्हा जलता था
आँगन में रोटी पकती थी
आँगन में सब्ज़ी उगती थी
आँगन में बैठक होती थी
आँगन में कपड़े धुलते थे
आँगन में बर्तन मंजते थे।
गज़ भर के आँगन में
सब हिल-मिल रहते थे
घर की पूरी खुशियाँ
इस छोटे-से आँगन में बसती थीं
पूरी दुनिया रचती थीं।
कर्तव्य श्री
दृश्य एकः
श्री जी की पत्नी का निधन हो गया। अपने पीछे दो बच्चे छोड़ गई। माता-पिता बूढ़े थे, बच्चे छोटे-छोटे। बूढ़े-बुढ़िया से अपना शरीर तो संभलता न था बच्चे और घर कहां संभाल पाते। और श्री जी अपनी नौकरी देखें, बच्चे संभाले या बूढे़-बुढ़िया की सेवा करें।
बड़ी समस्या हुई। कभी भूखे पेट सोते, कभी बाहर से गुज़ारा करते। श्री जी से सबकी सहानुभूति थी। कभी सासजी आकर घर संभालती, कभी सालियांजी, कभी भाभियांजी और कभी बहनेंजी। पर आखिर ऐसे कितने दिन चलता। आदमी आप तो कहीं भी मुंह मार ले पर ये बूढ़े-बुढ़िया और बच्चे।
अन्ततः सबने समझाया और श्री जी की भी समझ में आया। रोटी बनाने वाली, बच्चों कोे सम्हालने वाली, घर की देखभाल करने वाली और बूढ़े-बुढ़िया की देखभाल करने वाली कोई तो होनी ही चाहिए। भला, आदमी के वश का कहां है ये सब। वह नौकरी करे या ये सब देखे। सो मज़बूर होकर महीने भर में ही लानी पड़ी।
और इस तरह श्री जी की जिन्दगी अपने ढर्रे पर चल निकली।
‘अथ सर्वशक्तिमान पुरुष’
दृश्य दोः
श्रीमती जी के पति का निधन हो गया। अपने पीछे दो बच्चे छोड़ गये। सास-ससुर बूढ़े थे। बच्चे छोटे-छोटे। श्रीमती जी स्वयं अभी बच्चा-सी दिखतीं। दसवीं की नहीं कि माता-पिता पर भारी हो गई। शहर में लड़का मिल गया सरकारी नौकर, घर ठीक-ठाक-सा। बस झटपट शादी कर दी। अब यह पहाड़ टूट पड़ा। कभी दहलीज न लांघी थी, सिर से पल्लू न हटा था। पर अब कमाकर खिलाने वाला कोई न रहा। बूढ़े-बुढ़िया से अपना शरीर तो संभलता न था, करते-कमाते क्या ? भूखांे मरने की नौबत दिखने लगी।
अब नाते-रिश्तेदार भी क्या करें ? सबका अपना-अपना घर, बाल-बच्चे, काम और नौकरियां, आखिर कौन कितने दिन तक साथ देता। सब एक-दूसरे से पहले खिसक जाना चाहते थे। कहीं ये बूढ़े-बुढ़िया, श्रीमतीजी या बच्चे किसी का पल्लू न पकड़ लें।
अन्ततः श्रीमती जी स्वयं उठीं। पल्लू सिर से उतारकर कमर में कसा। पति के कार्यालय जाकर खड़ी हो गईं नौकरी पाने के लिए।
अभी महीना भी न बीता था कि श्रीमतीजी लगी दफ्तर में कलम चलाने। प्रातः पांच बजे उठकर घर संवारतीं, बूढ़े-बुढ़िया की आवश्यकताएं पूरी करती। बच्चों को स्कूल भेजतीं। खाना-वाना बनाकर दस बजे दफ््तर पहुंच जाती, दिन-भर वहां कलम घिसतीं। शाम को बच्चों का पढ़ातीं। घर-बाहर देखतीं, राशन-पानी जुटाती, दुनियादारी निभातीं। खाती-खिलाती औेर सो जातीं।
और इस तरह श्रीमतीजी की जिन्दगी अपने ढर्रे पर चल निकली।
‘बेचारी कमज़ोर औरत’
गगन
गगन
बादलों के आंचल में
चांद को समेटकर
छुपा-छुपाई खेलता रहा।
और हम
घबराये,
बौखलाये-से
ढूंढ रहे।
सौन्दर्य निरख मन हरषा
पलभर में धूप निकलती, कभी बादल बरसें कण-कण।
धरा देखो महक रही, कलियां फूल बनीं, बहक रहा मन।
पल्लव झूम रहे, पंछी डाली-डाली घूम रहे, मन हरषा,
सौन्दर्य निरख, मन भी बहका, सब कहें इसे पागलपन।a
अंधेरों और रोशनियों का संगम है जीवन
भाव उमड़ते हैं,
मिटते हैं, उड़ते हैं,
चमकते हैं।
पंख फैलाती हैं
आशाएं, कामनाएं।
लेकिन, रोशनियां
धीरे-धीरे पिघलती हैं,
बूंद-बूंद गिरती हैं।
अंधेरे पसरने लगते हैं।
रोशनियां यूं तो
लुभावनी लगती हैं,
लेकिन अंधेरे में
खो जाती हैं
कितनी ही रोशनियां।
मिटती हैं, सिमटती हैं,
जाते-जाते कह जाती हैं,
अंधेरों और रोशनियों का
संगम है जीवन,
यह हम पर है
कि हम किसमें जीते हैं।
छोटी-छोटी बातों पर
छोटी-छोटी बातों पर
अक्सर यूँ ही
उदासी घिर आती है
जीवन में।
तब मन करता है
कोई सहला दे सर
आँखों में छिपे आँसू पी ले
एक मुस्कुराहट दे जाये।
पर सच में
जीवन में
कहाँ होता है ऐसा।
-
आ गया है
अपने-आपको
आप ही सम्हालना।
रेखाओं का खेल है प्यारे
रेखाओं का खेल है प्यारे, कुछ शब्दों में ढल जाते हैं कुछ आकारों में
कुछ चित्रों को कलम बनाती, कुछ को उकेरती तूलिका विचारों में
भावों का संसार विचित्र, स्वयं समझ न पायें, औरों को क्या समझायें
न रूप बने न रंग चढ़े, उलझे-सुलझे रह जाते हैं अपने ही उद्गारों में
सुन्दर इंद्रधनुष लाये बादल
शरारती से न जाने कहां -कहां जायें पगलाये बादल
कही धूप, कहीं छांव कहीं यूं ही समय बितायें बादल
कभी-कभी बड़ी अकड़ दिखाते, यहां-वहां छुप जाते
डांट पड़ी तब जलधार संग सुन्दर इंद्रधनुष लाये बादल
दिन-रात
दिन-रात जीवन के आवागमन का भाव बताता है।
दिन-रात जीवन के दुख-सुख का हाल बताता है।
सूरज-चंदा-तारे सब इस चक्र में बौखलाए देखे,
दिन-रात जीवन के तम-प्रकाश की चाल बताता है।
बूंदे गिरतीं
बादल आये, वर्षा लाये।
बूंदे गिरतीं,
टप-टप-टप-टप।
बच्चे भागे ,
छप-छप-छप-छप।
मेंढक कूदे ,
ढप-ढप-ढप-ढप।
बकरी भागी, कुत्ता भागा।
गाय बोली मुझे बचाओ
भीग गई मैं
छाता लाओ, छाता लाओ।
जीवन की यही असली कहानी है
आज आपको दिल की सच्ची बात बतानी है
काम का मन नहीं, सुबह से चादर तानी है
पल-पल बदले है सोच, पल-पल बदले भाव
शायद हर जीवन की यही असली कहानी है।
बादल राग सुनाने के लिए
बादल राग सुनाने के लिए
योजनाओं का
अम्बार लिए बैठे हैं हम।
पानी पर
तकरार किये बैठै हैं हम।
गर्मियों में
पानी के
ताल लिए बैठे हैं हम।
वातानुकूलित भवनों में
पानी की
बौछार लिए बैठे हैं हम।
सूखी धरती के
चिन्तन के लिए
उधार लिए बैठे हैं हम।
कभी पांच सौ
कभी दो हज़ार
तो कभी
छः हज़ारी के नाम पर
मत-गणना किये बैठे हैं हम।
हर रोज़
नये आंकड़े
जारी करने के लिए
मीडिया को साधे बैठे हैं हम।
और कुछ न हो सके
तो तानसेन को
बादल राग सुनाने के लिए
पुकारने बैठे हैं हम।
चंगू ने मंगू से पूछा
चंगू ने मंगू से पूछा
ये क्या लेकर आई हो।
मंगू बोली,
इंसानों की दुनिया में रहते हैं।
उनका दाना-पानी खाते हैं।
उनका-सा व्यवहार बना।
हरदम
बुरा-बुरा कहना भी ठीक नहीं है।
अब
दूर-दूर तक वृक्ष नहीं हैं,
कहां बनायें बसेरा।
देखो गर्मी-सर्दी,धूप-पानी से
ये हमें बचायेगा।
पलट कर रख देंगे,
तो बच्चे खेलेंगे
घोंसला यहीं बनायेंगे।
-
चंगू-मंगू दोनों खुश हैं।
वह घाव पुराना
अपनी गलती का एहसास कर
सालता रहता है मन,
जब नहीं होता है काफ़ी
अफ़सोस का मरहम।
और कई बातों का जब
लग जाता है बन्धन
तो भूल जाती है वह घुटन।
लेकिन होता है जब कोई
वैसा ही एहसास दुबारा,
नासूर बन जाता है
तब वह घाव पुराना।