खुशियाॅं समेट लें ज़रा

झरझर झरता पानी, चल भीग लें ज़रा

फूलों की मदमाती डालियाॅं देख लें ज़रा

गगन से धरा तक हवाओं को परख लें ज़रा

रंगीन है ये दुनिया, खुशियाॅं समेट लें ज़रा

चिड़िया नारी

चिड़िया नारी तुम मुझको उड़ना सिखलाना

फिर मुझसे लेकर रोटी-दाना-पानी खाना

दोनों मिलकर खायेंगे, खूब मौज उड़ायेंगे

फिर मैं अपने घर, तुम अपने घर जाना

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खोजता है मन

रोशनियों के पीछे भागता है मन

छोटी चाहतों को खोजता है मन

अंधेरे की आहटों से डरता है मन

जुगनुओं सी चमक ढूंढता है मन

छोटे-छोटे मतभेदों पर
गाल सुजाये बैठे हैं, मुंह फुलाए बैठै हैं

छोटी-छोटी बातों पर होंठ दबाए बैठे हैं

छोटे-छोटे मतभेदों पर ऐसे कोई करता है

फूली जली रोटी-से आंख चढ़ाए बैठे हैं

भूल हुई कहाॅं थी

रुखसत क्या हुए ज़िन्दगी से, सब भूल-भुलैया हो गई

सीधे चलते-चलते ज़िन्दगी टेढ़े-मेढ़े मोड़ों में खो गई

समझ पाये नहीं, समझा सकते नहीं, भूल हुई कहाॅं थी

बदल गईं हाथों की लकीरें, किस्मत मानों सो गई।

नयानाभिराम रूप रघुराई

राम-लखन संग-संग चले, अयोध्या नगरी मुस्काई

दीपों की आभा से आलोकित सब जन-मन हरषाई

हर मन में उल्लास है, मधुर गान से नभ गूंज रहा 

गगन-धरा सब निरख रहे, नयानाभिराम रूप रघुराई

प्रदर्शन का दर्शनn
पर्व अब प्रदर्शन बनकर रह गये हैं

प्रदर्शन का दर्शन बनकर रह गये हैं

उपहारों का लेन-देन प्रथा बन गई

बाज़ारीकरण में रिश्ते कहाॅं रह गये हैं

खुशियों का आभास देती
हरे-हरे पल्लव कब पीत हुए, कब झर गये

नव-पल्लव अंकुरित हुए, चकित मुझे कर गये

खुशियों का आभास देती खिलीं पुष्पांजलियाॅं

फूलों की पंखुरियों ने रंग लिखे, मन भर गये

शक्ति-स्वरूपा

दिव्य आलोकित रूप तुम्हारा मन हर्षित करता है

हाथों में त्रिशूल देखकर मन में साहस भरता है

भोली-सी मुस्कान तुम्हारी आशीष की भांति लगती है

शक्ति-स्वरूपा हो तुम, अरि भी तुमसे डरता है।

सुहाना दिन

भोर की रंगीनीयाॅं मदमाती हैं

सूर्य रश्मियाॅं मन भरमाती हैं

सुहाना दिन आया जीवन में

भावों की कलियाॅं शरमाती हैं

 

कोई नहीं अपना

काफ़िलों में हम चले, लगा कोई सहारा मिला

राहों में कौन छूट गया, कौन अलग हो चला

देखते-देखते ही बिखराव की एक आंधी आई

अपना रहा कोई पराया, विलग हो ही भला

नई  शुरुआत
चल आज एक नई भोर से शुरुआत करें

चाय पीयें, कुछ आनन्द के पल फिर जियें

कल की मधुर स्मृतियाॅं आनन्द देती हैं

प्रकाश की किरणों से जीवन में नवरस भरें

नये साल में

नये साल में कुछ नई बात करें

पिछला भूल, नये पथ पर बढ़ें       

जीवन खुशियों का सागर है

मोती चुन लें, कंकड़ छोड़ चलें

निडर होकर उड़े हैं

बादलों के रंगों से मन में उमंग लेकर चले हैं      

चंदा को पकड़कर उड़ान भरकर हम चले हैं          

तम-प्रकाश में उंचाईयों से नहीं डरते हम

झिलमिलाती रोशनियों में निडर होकर उड़े हैं

 

आस बनाये रखना

ज़िन्दगी में आस बनाये रखना

मन में तुम उमंग जगाये रखना

न निराश हो कि जीवन हार रहा

धरा में अंकुरण बनाये रखना

इतना पानी बरसा

इतना पानी बरसा, देख-देखकर मन डरे

कितने घर उजड़ गये, आंखों में आंसू भरे

सड़कें सागर बन गईं, घर मानों गह्वर बने

कैसे चलेगा जीवन आगे, गहन चिन्ता करें।

दर्पण

दर्पण हाथ में लिए घूमती हूॅं

चेहरों को परखती घूमती हूॅं

अपना ही चेहरा मटमैला है

दर्पण बदलने के लिए घूमती हूॅं।

सुन्दर जीवन

रंगों में मनमोहक संसार बसा है

पंछियों के मन में नेह रमा है

मन ही मन में बात करें देखो

सुन्दर जीवन का रंग रचा है

मौसम में हलचल

मौसम में हलचल है, ओलों की मार है

कभी चमकती धूप, कभी होती बौछार है

कभी हवाएॅं उड़ा देतीं और शीत डराती,

कभी लगता गई गर्मी, मन बेकरार है

सत्य को नकार कर

झूठ, छल-कपट से नहीं चलती है ज़िन्दगी

सत्य को नकार कर नहीं बढ़ती है ज़िन्दगी

क्यों घोलते हो विषबेल अकारण ही शब्दों की

तुम्हारे इस बुरे व्यवहार से टूटती है ज़िन्दगी

जीवन

बात करते-करते मन अक्सर बुझ-सा जाता है

कभी आंखों में तरलता का आभास हो जाता है

तुम्हारी कड़वाहटें अन्तर्मन को झकझकोरती हैं

न जाने जीवन में ऐसा अक्सर क्यों हो जाता है

बालपन की मस्ती

बालपन की मस्ती है, अपनी पतंग छोड़ेगे नहीं

डालियाॅं कमज़ोर तो क्या, गिरने से डरते नहीं

मित्र हमारे साथ हैं, थामे हाथों में हाथ हैं

सूरज ने बांध ली पतंग, हम उसे छोडे़गे नहीं

खुश रहिए

पढ़ने का बहाना लेकर घर से बाहर आई हूॅं

रवि किरणों की मधुर मुस्कान समेटने आई हूॅं

उॅंचे-उॅंचे वृक्षों की लहराती डालियाॅं पुकारती हैं

हवाओं के साथ हॅंसने-गुनगुनाने आई हूॅं।

 

अमर होकर क्या करेंगे

अमर होकर क्या करेंगे, बहुत जीकर क्या करेंगे

प्रेम, नेह, दुख-सुख, हार-जीत सब चलते रहेंगे

रोज़ नये किस्से, नई कथाएॅं, न जाने क्या-क्या

कुछ अच्छा नहीं लगता, पर किस-किससे लड़ेंगे।

छोटी ही चाहते हैं मेरी

छोटा-सा जीवन, छोटी ही चाहते हैं मेरी

क्या सोचते हैं हम, कौन समझे भावनाएॅं मेरी

अमरत्व की चाह तो बहुत बड़ी है मेरे लिए

इस लम्बे जीवन में ही कहाॅं पहचान बन पाई मेरी

सीता की वेदना

सीता क्या पूछ पाई कभी विधाता से, मैं ही क्यों माध्यम बनी

मैं थी रावण धाम में फिर मेरे चरित्र पर ही क्यों अॅंगुली उठी

मृग की कामना, द्वार आये साधु का मान मेरा अपराध बन गया

किसी का श्राप, वरदान, मुक्ति क्यों मेरे निष्कासन का द्वार बनी।

डरने लगे हैं

हम द्वार खुले रखने से डरने लगे हैं

मन पर दूरियों के ताले लगने लगे हैं

कुछ कहने से डरता है मन हर बार

हम छाछ और पानी दोनों से जले हैं

प्राकृतिक सौन्दर्य

प्रतिबिम्बित होती किरणों की प्रतिच्छाया शोभित है
फूलों की दमकती गुलाबी आभा से मन मोहित है
तितली बैठी धूप सेंकती, फूलों से अनुराग बंधा
मोहक, सुन्दर, सौम्य छवि देख मन आलोकित है

मन में राम

मन में राम, कण-कण में राम

तो क्यों खोजें उनको चारों धाम

भला करेंगे सबका वे बिन पूछे

सच्चे मन से करते हम हर काम।

हे राम

कण-कण में बसते हैं राम

हर मन में बसते हैं राम

मूर्ति बना करें हम पूजन

कृपालु बने हैं हम पर राम