दौड़ बनकर रह गई है जिन्दगी

शून्य से शतक तक की दौड़ बनकर रह गई है जिन्दगी

इससे आगे और क्या इस सोच में बह रही है जिन्दगी

औरऔर  मिलने की चाह में डर डर कर जीते हैं हम

एक से निन्यानवे तक भी आनन्द ले, कह रही है जिन्दगी

ये चांद है अदाओं का

चांद

यूं ही तो नहीं

चमकता है आसमान में।

उसकी भी अपनी अदाएं हैं।

किसी को तो चांद सी

सूरत दे देता है

और किसी के जीवन में

चांद से दाग

और किसी किसी के लिए तो

कभी चांद निकलता ही नहीं

बस

अमावस्या ही बनी रहती है जीवन भर।

बस एक भ्रम पालकर

जिन्दगी जी लेते हैं

कि चांद है उनकी जिन्दगी में

क्योंकि जब

चांद आसमान में है

तो कुछ तो उनकी

जिन्दगी में भी होगा ही।

और कहीं कहीं तो कभी

चांद डूबता ही नहीं,

बस पूर्णिमा ही बनी रहती है।

इसलिए इस भ्रम में

या  इस गणना में मत रहना

कि इतने दिन बाद

चौथ का चांद

आ जायेगा जीवन में,

या अमावस्या या पूर्णिमा,

उसकी मर्ज़ी आये या न आये

जब टिकट किसी का कटता है

सुनते हैं कोई एक भाग्य-विधाता सबके लेखे लिखता है

अलग-अलग नामों से, धर्मों से सबके दिल में बसता है

फिर न जाने क्यों झगड़े होते, जग में इतने लफड़े होते

रह जाता है सब यहीं, जब टिकट किसी का कटता है

कांटों को थाम लीजिए

रूकिये ज़रा, मुहब्बत की बात करनी है तो कांटों को थाम लीजिए

छोड़िये गुलाब की चाहत को, अनश्वर कांटों को अपने साथ लीजिए

न रंग बदलेंगे, न बिखरेंगे, न दिल तोड़ेंगे, दूर तक साथ निभायेंगे,

फूल भी अक्सर गहरा घाव कर जाते हैं, बस इतना जान लीजिए

अपने मन के संतोष के लिए

न सम्मान के लिए, न अपमान के लिए

कोई कर्म न कीजिए बस बखान के लिए

अपनी-अपनी सोच है, अपनी-अपनी राय

करती हूं बस अपने मन के संतोष के लिए

परीलोक से आई है

चित्रलिखित सी प्रतीक्षारत ठहरी हो मुस्काई-सी
नभ की लाली मुख पर कुमकुम सी है छाई-सी
दीपों की आभा में आलोकित, घूंघट की ओट में
नयनाभिराम रूप लिए परीलोक से आई है सकुचाई-सी

चाहतों का अम्बार दबा है

मन के भीतर मन है, मन के भीतर एक और मन

खोल खोल कर देखती हूं कितने ही तो हो गये मन

इस मन के किसी गह्वर में चाहतों का अम्बार दबा है

किसको रखूं, किसको छोड़ूं नहीं बतलाता है रे मन।

पैसों से यह दुनिया चलती

पैसों पर यह दुनिया ठहरी, पैसों से यह दुनिया चलती , सब जाने हैं

जीवन का आधार,रोटी का संसार, सामाजिक-व्यवहार, सब माने हैं

छल है, मोह-माया है, चाह नहीं है हमको, कहने को सब कहते हैं पर,

नहीं हाथ की मैल, मेहनत से आयेगी तो फल देगी, इतना तो सब माने हैं

घर की पूरी खुशियां बसती थी

आंगन में चूल्हा जलता था, आंगन में रोटी पकती थी,

आंगन में सब्ज़ी उगती थी, आंगन में बैठक होती थी

आंगन में कपड़े धुलते थे, आंगन में बर्तन मंजते थे

गज़ भर के आंगन में घर की पूरी खुशियां बसती थी

विरोध से दुनिया नहीं चलती

ज़रा ज़रा सी बात पर अक्सर क्रोध करने लगी हूं मैं

किसी ने ज़रा सी बात कह दी तर्क करने लगी हूं मैं

विरोध से दुनिया नहीं चलती, सब समझाते हैं मुझे

समझाने वालों से भी इधर बहुत लड़ने लगी हूं मैं

है हौंसला बुलन्द

उन राहों पर निकले हैं जिनका आदि न कोई अन्त

न आगे है कोई न पीछे है, दिखता दूर कहीं दिगन्त

देखने में रंगीनियां हैं, सफ़र है, समां सुहाना लगता है

टेढ़ी-मेढ़ी राहें हैं, पथ दुर्गम है, पर है हौंसला बुलन्द

बालपन-सा था कभी

बालपन-सा था कभी निर्दोष मन

अब देखो साधता है हर दोष मन

कहां खो गई वो सादगी वो भोलापन

ढू्ंढता है दूसरों में हर खोट मन

विनम्रता कहां तक

आंधी आई घटा छाई विनम्र घास झुकी, मुस्काई
वृक्षों ने आंधी से लड़ने की आकांक्षा जतलाई 
झुकी घास सदा ही तो पैरों तले रौंदी जाती रही
धराशायी वृक्षों ने अपनी जड़ों से फिर एक उंचाई पाई

रिश्तों के तो माने हैं

पेड़ सूखे तो क्या

सावन रूठे तो क्या

पत्ते झरे तो क्या

कांटे चुभे तो क्या।

हम भूले नहीं

अपना बसेरा।

लौट लौट कर आयेंगे

बसेरा यहीं बसायेंगे

तुम्हें न छोड़कर जायेंगे।

दु:ख सुख तो आने जाने हैं।

पर रिश्तों के तो माने हैं।

जब तक हैं

तब तक तो

इन्हें निभायेंगे।

बसेरा यहीं बसायेंगे।

हम खुश हैं जग खुश है

इस भीड़ भरे संसार में मुश्किल से मिलती है तन्हाई सखा

, ज़रा दो बातें कर लें,कल क्या हो,जाने कौन सखा

ये उजली धूप,समां सुहाना,हवा बासंती,हरा भरा उपवन

हम खुश हैं, जग खुश है, जीवन में और क्या चाहिए सखा

कांटों की बात जीवन भर साथ

रूप, रस, गंध, भाव, एहसास, कांटों में भी होते है
नज़र नज़र की बात है सबको कहां दिखाई देते है
कांटों की चुभन की ही बात क्यों करते हैं सदा हम
संजोकर देखना इन्हें, जीवन भर अक्षुण्ण साथ देते है

जीवन का राग

रात में सूर्य रश्मियां द्वार खटखटाती हैं
दिन भर जीवन का राग सुनाती हैं
शाम ढलते ढलते सुर साज़ बदल जाते हैं
तब चंद्र किरणें थपथपाकर सुलाती हैं

जो रीत गया वह बीत गया

चेहरे की रेखाओं की गिनती मत करना यारो
जरा,अनुभव,पतझड़ की बातें मत करना यारो
यहां मदमस्त मौमस की मस्ती हम लूट रहे हैं
जो रीत गया उसका क्यों है दु:ख करना यारो   

मन का ज्वार भाटा

सरित-सागर का ज्वार

आज

मन में क्यों उतर आया है

नीलाभ आकाश

व्यथित हो

धरा पर उतर आया है

चांद लौट जायेगा

अपने पथ पर।

समय के साथ

मन का ज्वार भी

उतर जायेगा।

मर रहा है आम आदमी : कहीं अपनों हाथों

हम एक-दूसरे को नहीं जानते

नहीं जानते

किस देश, धर्म के हैं सामने वाले

शायद हम अपनी

या उनकी

धरती को भी नहीं पहचानते।

जंगल, पहाड़, नदियां सब एक-सी,

एक देश से

दूसरे देश में आती-जाती हैं।

पंछी बिना पूछे, बिना जाने

देश-दुनिया बदल लेते हैं।

किसने हमारा क्या लूट लिया

क्या बिगाड़ दिया,

नहीं जानते हम।

जानते हैं तो बस इतना

कि कभी दो देश बसे थे

कुछ जातियां बंटी थीं

कुछ धर्म जन्मे थे

किसी को सत्ता चाहिये थी

किसी को अधिकार।

और वे सब तमाशबीन बनकर

उंचे सिंहासनों पर बैठे हैं

शायद एक साथ,

जहां उन्हें कोई छू भी नहीं सकता।

वे अपने घरों में

बारूद की खेती करते हैं

और उसकी फ़सल

हमारे हाथों में थमा देते हैं।

हमारे घर, खेत, शहर

जंगल बन रहे हैं।

जाने-अनजाने

हम भी उन्हीं फ़सलों की बुआई

अपने घर-आंगन में करने लगे हैं

अपनी मौत का सामान जमा करने लगे हैं

मर रहा है आम आदमी

कहीं अपनों से

और कहीं अपने ही हाथों

कहीं भी, किसी भी रूप में।

आत्मविश्वास :यह अंहकार नहीं है

आत्मविश्वास की डोर लिए चलते हैं यह अभिमान नहीं है।

स्वाभिमान हमारा सम्बल है यह दर्प का आधार नहीं है।

साहस दिखलाया आत्मनिर्भरता का, मार्ग यह सुगम नहीं,

अस्तित्व बनाकर अपना, जीते हैं, यह अंहकार नहीं है।

 

आशाओं का सूरज

ये सूरज मेरी आशाओं का सूरज है

ये सूरज मेरे दु:साहस का सूरज है

सीढ़ी दर सीढ़ी कदम उठाती हूं मैं

ये सूरज तम पर मेरी विजय का सूरज है

आनन्द है प्यार में और हार में

जीवन की नैया बार-बार अटकती है मझधार में

पुकारती हूं नाम तुम्हारा बहती जाती हूं जलधार में

कभी मिलते,कभी बिछड़ते,कभी रूठते,कभी भूलते

यही तो आनन्द है हर बार प्यार में और हार में

 

इस रंगीन शाम में

इस रंगीन शाम में आओ पकड़म-पकड़ाई खेलें

तुम थामो सूरज, मैं चन्दा, फिर नभ के पार चलें

बदली को हम नाव बनायें, राह दिखाएं देखो पंछी

छोड़ो जग-जीवन की चिंताएं,चल हंस-गाकर जी लें

बुढ़िया सठिया गई है

प्रेम मनुहार की बात करती हूं वो मुझे दवाईयों का बक्सा दिखाता है।

तीज त्योहार पर सोलह श्रृंगार करती हूं वो मुझे आईना दिखाता है।

याद दिलाती हूं वो यौवन के दिन,छिप छिप कर मिलना,रूठना-मनाना ।

कहता है बुढ़िया सठिया गई है, पागलखाने का रास्ता दिखाता है।

सबके सपनों की गठरी बांधे

परदे में रहती थी पर परदे से बाहर की दुनिया समझाती थी मां

अक्षर ज्ञान नहीं था पर पढ़े-लिखों से ज्यादा ज्ञान रखती थी मां

सबके सपनों की गठरी बांधे,  जाने कब सोती थी कब उठती थी

घर भर में फिरकी सी घूमती पल भर में सब निपटा लेती थी मां

एक मुस्कान हो जाये

देर से

तुम्हें निहारते निहारते

मेरे जीवन में भी

रंग करवट लेने लगे है।।

इस  में

अपनों से

मन की बात कह ली हो

तो चलो

एक उड़ान हो जाये

एक मुस्कान हो जाये

बस यूं

गुमसुम गुमसुम न बैठो।

अधिकार और कर्तव्य

अधिकार यूं ही नहीं मिल जाते,कुछ कर्त्तव्य निभाने पड़ते हैं

मार्ग सदैव समतल नहीं होते,कुछ तो अवरोध हटाने पड़ते हैं

लक्ष्य तक पहुंचना सरल नहीं,पर इतना कठिन भी नहीं होता

बस कर्त्तव्य और अधिकार में कुछ संतुलन बनाने पड़ते हैं

डगर कठिन है

बहती धार सी देखो लगती है जिन्दगी।

पहाड़ों पर बहार सी लगती है जिन्दगी।

किन्तु डगर कठिन है उंचाईयां हैं बहुत।

ख्वाबों को संवारने में लगती है जिन्दगी।

सजावट रह गईं हैं पुस्तकें

दीवाने खास की सजावट बनकर रह गईं हैं पुस्तकें
बन्द अलमारियों की वस्तु बनकर रह गई हैं पुस्तकें
चार दिन में धूल झाड़ने का काम रह गई हैं पुस्तकें
कोई रद्दी में न बेच दे,छुपा कर रखनी पड़ती हैं पुस्तकें।