बड़े-बड़े कर रहे आजकल
बड़े-बड़े कर रहे आजकल बात बहुत साफ़-सफ़ाई की
शौचालय का विज्ञापन करके, करते खूब कमाई जी
इनकी भाषा, इनके शब्दों से हमें घिन आती है
बात करें महिलाओं की और करते आंख सिकाई जी
मन में एक जंगल है
मन में एक जंगल है
विचारों का, भावों का।
एक झंझावात की तरह आते हैं
अन्तर्मन को झिंझोड़ते हैं,
तहस-नहस करते हैं
और हवा के झोंके के साथ
अचानक
कहीं दूर उड़ जाते हैं।
कभी शब्द दे पाती हूं
और कभी नहीं।
लिखे शब्द पिघलने लगते हैं
आसमानी बादलों की तरह।
कहीं दूर उड़ जाते हैं
पक्षी की तरह।
हर बार एक कही-अनकही
आधी-अधूरी कहानी रह जाती है।
कशमकश में बीतता है जीवन
सुख-दुख तो जीवन की बाती है
कभी जलती, कभी बुझती जाती है
यूँ ही कशमकश में बीतता है जीवन
मन की भटकन कहाँ सम्हल पाती है।
न समझे हम न समझे तुम
सास-बहू क्यों रूठ रहीं
न हम समझे न तुम।
पीढ़ियों का है अन्तर
न हम पकड़ें न तुम।
इस रिश्ते की खिल्ली उड़ती,
किसका मन आहत होता,
करता है कौन,
न हम समझें न तुम।
शिक्षा बदली, रीति बदली,
न बदले हम-तुम।
कौन किसको क्या समझाये,
न तुम जानों न हम।
रीतियों को हमने बदला,
संस्कारों को हमने बदला,
नया-नया करते-करते
क्या-क्या बदल डाला हमने,
न हम समझे न तुम।
हर रिश्ते में उलझन होती,
हर रिश्ते में कड़वाहट होती,
झगड़े, मान-मनौवल होती,
पर न बात करें,
न जाने क्यों,
हम और तुम।
जहां बात नारी की आती,
बढ़-बढ़कर बातें करते ,
हास-परिहास-उपहास करें,
जी भरकर हम और तुम।
किसकी चाबी किसके हाथ
क्यों और कैसे
न जानें हम और न जानें हो तुम।
सब अपनी मनमर्ज़ी करते,
क्यों, और क्या चुभता है तुमको,
न समझे हैं हम
और क्यों न समझे तुम।
अपने कर्मों पर रख पकड़
चाहे न याद कर किसी को
पर अपने कर्मों से डर
न कर पूजा किसी की
पर अपने कर्मों पर रख पकड़ ।
न आराधना के गीत गा किसी के
बस मन में शुद्ध भाव ला ।
हाथ जोड़ प्रणाम कर
सद्भाव दे,
मन में एक विश्वास
और आस दे।
जीने का एक नाम भी है साहित्य
मात्र धनार्जन, सम्मान कुछ पदकों का मोहताज नहीं है साहित्य
एक पूरी संस्कृति का संचालक, परिचायक, संवाहक है साहित्य
कुछ गीत, कविताएं, लिख लेने से कोई साहित्यकार नहीं बन जाता
ज़मीनी सच्चाईयों से जुड़कर जीने का एक नाम भी है साहित्य
मदमाता शरमाता अम्बर
रंगों की पोटली लेकर देखो आया मदमाता अम्बर ।
भोर के साथ रंगों की पोटली बिखरी, शरमाता अम्बर ।
रवि को देख श्वेताभा के अवगुंठन में छिपता, भागता।
सांझ ढले चांद-तारों संग अठखेलियां कर भरमाता अम्बर।
शब्दों की भाषा समझी न
शब्दों की भाषा समझी न
नयनों की भाषा क्या समझोगे
रूदन समझते हो आंसू को
मुस्कानों की भाषा क्या समझोगे
मौन की भाषा समझी न
मनुहार की भाषा क्या समझोगे
गुलदानों में रखते हो फूलों को
प्यार की भाषा क्या समझोगे
मेरे मन की चांदनी
सुना है मैंने
शरद पूर्णिमा के
चांद की चांदनी से
खीर दिव्य हो जाती है।
तभी तो मैं सोचता था
तुम्हें चांद कह देने से
तुम्हारी सुन्दरता
क्यों द्विगुणित हो जाती है,
मेरे मन की चांदनी
खिल-खिल जाती है।
चंदा की किरणें
धरा पर जब
रज-कण बरसाती हैं,
रूप निखरता है तुम्हारा,
मोतियों-सा दमकता है,
मानों चांदनी की दमक
तुम्हारे चेहरे पर
देदीप्यमान हो जाती है।
कभी-कभी सोचता हूं,
तुम्हारा रूप चमकता है
चांद की चांदनी से,
या चांद
तुम्हारे रूप से रूप चुराकर
चांदनी बिखेरता है।
आशा अब नहीं रहती
औरों की क्या बात करें, अब तो अपनी खोज-खबर नहीं रहती,
इतनी उम्र बीत गई, क्या कर गई, क्या करना है सोचती रहती,
किसने साथ दिया था जीवन में, कौन छोड़ गया था मझधार में
रिश्ते बिगड़े,आघात हुए, पर लौटेंगे शायद, आशा अब नहीं रहती
कंधों पर सिर लिए घूमते हैं
इस रचना में पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग किया गया है, पर्यायवाची शब्दों में भी अर्थ भेद होता है, इसी अर्थ भेद के कारण मुहावरे बनते हैं, ऐसा मैं समझती हूं, इसी दृष्टि से इस रचना का सृजन हुआ है
******-*********
सुनते हैं
अक्ल घास चरने गई है
मति मारी गई है
और समझ भ्रष्ट हो गई है
विवेक-अविवेक का अन्तर
भूल गये हैं
और मनीषा, प्रज्ञा, मेधा
हमारे ऋषि-मुनियों की
धरोहर हुआ करती थीं
जिन्हें हम सम्हाल नहीं पाये
अपनी धरोहर को।
बुद्धि-विवेक कहीं राह में छूट गये
और हम
यूं ही
कंधों पर सिर लिए घूमते हैं।
चूड़ियां: रूढ़ि या परम्परा
आज मैंने अपने हाथों की
सारी चूड़ियों उतार दी हैं
और उतार कर सहेज नहीं ली हैं
तोड़ दी हैं
और टुकड़े टुकड़े करके
उनका कण-कण
नाली में बहा दिया हैं।
इसे
कोई बचकानी हरकत न समझ लेना।
वास्तव में मैं डर गई थी।
चूड़ियों की खनक से,
उनकी मधुर आवाज़ से,
और उस आवाज़ के प्रति
तुम्हारे आकर्षण से।
और साथ ही चूड़ियों से जुड़े
शताब्दियों से बन रहे
अनेक मुहावरों और कहावतों से।
मैंने सुना है
चूड़ियों वाले हाथ कमज़ोर हुआ करते हैं।
निर्बलता का प्रतीक हैं ये।
और अबला तो मेरा पर्यायवाची
पहले से ही है।
फिर चूड़ी के कलाई में आते ही
सौर्न्दय और प्रदर्शन प्रमुख हो जाता है
और कर्म उपेक्षित।
और सबसे बड़ा खतरा यह
कि पता नहीं
कब, कौन, कहां,
परिचित-अपरिचित
अपना या पराया
दोस्त या दुश्मन
दुनिया के किसी
जाने या अनजाने कोने में
मर जाये
और तुम सब मिलकर
मेरी चूड़ियां तोड़ने लगो।
फ़िलहाल
मैंने इस खतरे को टाल दिया है।
जानती हूं
कि तुम जब यह सब जानेगे
तो बड़ा बुरा मानोगे।
क्योंकि, बड़ी मधुर लगती है
तुम्हें मेरी चूड़ियों की खनक।
तुम्हारे प्रेम और सौन्दर्य गीतों की
प्रेरणा स्त्रोत हैं ये।
फुलका बेलते समय
चूड़ियों से ध्वनित होते स्वर
तुम्हारे लिए अमर संगीत हैं
और तुम
मोहित हो इस सब पर।
पर मैं यह भी जानती हूं
कि इस सबके पीछे
तुम्हारा वह आदिम पुरूष है
जो स्वयं तो पहुंच जाना चाहता है
चांद के चांद पर।
पर मेरे लिए चाहता है
कि मैं,
रसोईघर में,
चकले बेलने की ताल पर,
तुम्हारे लिए,
संगीत के स्वर सर्जित करती रहूं,
तुम्हारी प्रतीक्षा में,
तुम्हारी प्रशंसा के
दो बोल मात्र सुनने के लिए।
पर मैं तुम्हें बता दूं
कि तुम्हारे भीतर का वह आदिम पुरूष
जीवित है अभी तो हो,
किन्तु,
मेरे भीतर की वह आदिम स्त्री
कब की मर चुकी है।
उतरना होगा ज़मीनी सच्चाईयों पर
कभी था समय जब जनता जागती थी साहित्य की ललकार से
आज कहां समय किसी के पास जो जुड़े किसी की पुकार से
मात्र कलम से नहीं बदलने वाली अब समाज की ये दुश्वारियां
उतरना होगा ज़मीनी सच्चाईयों पर आम आदमी की पुकार से
यह कलियुग है रे कृष्ण
देखने में तो
कृष्ण ही लगते हो
कलियुग में आये हो
तो पीसो चक्की।
न मिलेगी
यहां यशोदा, गोपियां
जो बहायेंगी
तुम्हारे लिए
माखन-दहीं की धार
वेरका का दूध-घी
बहुत मंहगा मिलता है रे!
और पतंजलि का
है तो तुम्हारी गैया-मैया का
पर अपने बजट से बाहर है भई।
तुम्हारे इस मोहिनी रूप से
अब राधा नहीं आयेगी
वह भी
कहीं पीसती होगी
जीवन की चक्की।
बस एक ही
प्रार्थना है तुमसे
किसी युग में तो
आम इंसान बनकर
अवतार लो।
अच्छा जा अब,
उतार यह अपना ताम-झाम
और रात की रोटी खानी है तो
जाकर अन्दर से
अनाज की बोरी ला ।
मन मिलते हैं
जब हाथों से हाथ जुड़ते हैं
जीवन में राग घुलते हैं
रिश्तों की डोर बंधती है
मन से फिर मन मिलते हैं
हैं तो सब इंसान ही
एक असमंजस की स्थिति में हूं।
शब्दों के अर्थ
अक्सर मुझे भ्रमित करते हैं।
कहते हैं
पर्यायवाची शब्द
समानार्थक होते हैं,
तब इनकी आवश्यकता ही क्या ?
इंसान और मानव से मुझे,
इंसानियत और मानवीयता का बोध होता है।
आदमी से एक भीड़ का,
और व्यक्ति से व्यक्तित्व,
एकल भाव का।
.
शायद
इन सबके संयोग से
यह जग चलता है,
और तब ईश्वर यहीं
इनमें बसता है।
ज़रा-ज़रा-सी बात पर
ज़रा-ज़रा-सी बात पर यूं ही विश्वास चला गया
फूलों को रौंदते, कांटों को सहेजते चला गया
काश, कुछ ठहर कर कही-अनकही सुनी होती
हम रूके नहीं,सिखाते-सिखाते ज़माना चला गया
अनुभव की बात है
कभी किसी ने कह दिया
एक तिनके का सहारा भी बहुत होता है।
किस्मत साथ दे ,
तो सीखा हुआ
ककहरा भी बहुत होता है।
लेकिन पुराने मुहावरे
ज़िन्दगी में सदा साथ नहीं देते ।
यूं तो बड़े-बड़े पहाड़ों को
यूं ही लांघ जाता है आदमी ,
लेकिन कभी-कभी
एक तिनके की चोट से
घायल मन
हर आस-विश्वास खोता है।
आजकल मेरी कृतियां
आजकल
मेरी कृतियां मुझसे ही उलझने लगी हैं।
लौट-लौटकर सवाल पूछने लगी हैं।
दायरे तोड़कर बाहर निकलने लगी हैं।
हाथ से कलम फिसलने लगी है।
मैं बांधती हूं इक आस में,
वे चौखट लांघकर
बाहर का रास्ता देखने में लगी हैं।
आजकल मेरी ही कृतियां,
मुझे एक अधूरापन जताती हैं ।
कभी आकार का उलाहना मिलता है,
कभी रूप-रंग का,
कभी शब्दों का अभाव खलता है।
अक्सर भावों की
उथल-पुथल हो जाया करती है।
भाव और होते हैं,
आकार और ले लेती हैं,
अनचाही-अनजानी-अनपहचानी कृतियां
पटल पर मनमानी करने लगती हैं।
टूटती हैं, बिखरती हैं,
बनती हैं, मिटती हैं,
रंग बदरंग होने लगते हैं।
आजकल मेरी ही कृतियां
मुझसे ही दूरियां करने में लगी हैं।
मुझे ही उलाहना देने में लगी हैं।
श्याम-पटल पर लिख रहे हम
जीवन में
दो गुणा दो चार होते हैं
किन्तु बहुत बाद में पता लगा
कि दो और दो भी चार ही होते हैं।
समस्या तब आती है
जब हम देखते हैं कि
दो गुणा तीन तो छ: होते ह ैं
किन्तु दो और तीन तो छ: नहीं होते।
और जीवन में
पन्द्र्ह और सोलह
कब और कैसे हो जाते हैं
समझ ही नहीं पाते ।
श्याम-पटल पर लिख रहे हम
श्वेताक्षर,
मिट जाते हैं,
किन्तु जीवन का गुणा-भाग
जीवन का स्याह-सफ़ेद
नहीं मिटता कभी
श्याम-पटल से जीवन-पटल की राहें
सुगम नहीं ,
पर इतनी दुर्गम भी नहीं
जब जीवन की पुस्तक में
साथ हो
एक गुरू का, शिक्षक का ।
बालपन को जी लें
अपनी छाया को पुकारा, चल आ जा बालपन को फिर से जी लें
यादों का झुरमुट खोला, चल कंचे, गोली खेलें, पापड़, इमली पी लें
कैसे कैसे दिन थे वे सड़कों पर छुपन छुपाई, गुल्ली डंडा खेला करते
वो निर्बोध प्यार की हंसी ठिठोली, चल उन लम्हों को फिर से जी लें
पुरानी रचनाओं का करें पिष्ट-पेषण
पुरानी रचनाओं का कब तक करें पिष्ट-पेषण सुहाता नहीं
रोज़ नया क्या लिखें हमें तो समझ कुछ अब आता नहीं
कवियों की नित-नयी रचनाएं पढ़-पढ़कर मन कुढ़ता है
लेखनी न चले तो अपने पर ही दया का भाव भाता नहीं
तू लौट जा अपने ठौर
हे पंछी, प्रकृति प्रदत्त स्रोत छोड़कर तू कहां आया रे !
ये मानव निर्मित स्रोत हैं यहां न जल न छाया रे !
तृषित जग, तृषित भाव, तृषित मानव मन हैं यहां
तू लौट जा अपने ठौर,! न कर यहां जीवन जाया रे !