हिन्दी के प्रति

शिक्षा

अब ज्ञान के लिये नहीं

लाभ के लिए

अर्जित की जाती है,

और हिन्दी में

न तो ज्ञान दिखाई देता है

और न ही लाभ।

बस बोलचाल की

भाषा बनकर रह गई है,

कहीं अंग्रेज़ी हिन्दी में

और कहीं हिन्दी

अंग्रेज़ी में ढल गई है।

कुछ पुरस्कारों, दिवसों,

कार्यक्रमों की मोहताज

बन कर रह गई है।

बात तो बहुत करते हैं हम

हिन्दी चाहिए, हिन्दी चाहिए

किन्तु

कभी आन्दोलन नहीं करते

दसवीं के बाद

क्यों नहीं

अनिवार्य पढ़ाई जाती है हिन्दी।

प्रदूषित भाषा को

चुपचाप पचा जाते हैं हम।

सरलता के नाम पर

कुछ भी डकार जाते हैं हम।

गूगल अनुवादक लगाकर

हिन्दी लेखक होने का

गर्व पालते हैं हम।

प्रचार करते हैं

वैज्ञानिक भाषा होने का,

किन्तु लेखन और उच्चारण के

बीच के सम्बन्ध को

तोड़ जाते हैं हम।

कंधों पर उठाये घूम रहे हैं

अवधूत की तरह।

दफ़ना देते हैं

अपराधी की तरह।

और बेताल की तरह,

हर बार

वृक्ष पर लटक जाते हैं

कुछ प्रश्न अनुत्तरित।

हर वर्ष, इसी दिन

चादर बिछाकर

जितनी उगाही हो सके

कर लेते हैं

फिर वृक्ष पर टंग जाता है बेताल

अगली उगाही की प्रतीक्षा में।

हम सजग प्रहरी

द्वार के दोनों ओर  खड़े हैं हम सजग प्रहरी

परस्पर हमारी शत्रुता, कोई भागीदारी

मध्य में एक रेखा खींचकर हमें किया विलग

इसी विभाजन के समक्ष हमारी मित्रता हारी

बहुत बाद समझ आया

कितनी बार ऐसा हुआ है

कि समय मेरी मुट्ठी में था

और मैं उसे दुनिया भर में

तलाश कर रही थी।

मंजिल मेरे सामने थी

और मैं बार-बार

पीछे मुड़-मुड़कर भांप रही थी।

समस्याएं बाहर थीं

और समाधान भीतर,

और मैं

आकाश-पाताल नाप रही थी।

 

बहुत बाद समझ आया,

कभी-कभी,

प्रयास छोड़कर

प्रतीक्षा कर लेनी चाहिए,

भटकाव छोड़

थोड़ा विश्राम कर लेना चाहिए।

तलाश छोड़

विषय बदल लेना चाहिए।

जीवन की आधी समस्याएं

तो यूं ही सुलझ जायेंगीं।

 

बस मिलते रहिए मुझसे,

ऐसे परामर्श का

मैं कोई शुल्क नहीं लेती।

 

अनुभव की बात है

कभी किसी ने  कह दिया

एक तिनके का सहारा भी बहुत होता है।

किस्मत साथ दे ,

तो सीखा हुआ

ककहरा भी बहुत होता है।

लेकिन पुराने मुहावरे

ज़िन्दगी में सदा साथ नहीं देते ।

यूं तो बड़े-बड़े पहाड़ों को

यूं ही लांघ जाता है आदमी ,

लेकिन कभी-कभी

एक तिनके की चोट से

घायल मन

हर आस-विश्वास खोता है।

 

खेल-कूद क्या होती है

बचपन की

यादों के झरोखे खुल गये,

कितने ही खेल खेलने में

मन ही मन जुट गये।

चलो, आपको सब याद दिलाते हैं।

खेल-कूद क्या होती है,

तुम क्या समझोगे फेसबुक बाबू।

वो चार कंचे जीतना,

बड़ा कंचा हथियाना,

स्टापू में दूसरे के काटे लगाना,

कोक-लाछी-पाकी में पीठ पर धौंस जमाना।

वो गुल्ली-डंडे में गुल्ली उड़ाना,

तेरी-मेरी उंच-नीच पर रोटियां पकाना,

लुका-छिपी में आंख खोलना।

आंख पर पट्टी बांधकर पकड़म-पकड़ाई ,

लंगड़ी टांग का आनन्द लेना।

कक्षा की पिछली सीट पर बैठकर

गिट्टियां बजाना, लट्टू घुमाना ।

कापी के आखिरी पन्ने पर

काटा-ज़ीरों बनाना,

पिट्ठू में पत्थर जमाना ।

पुरानी कापियों के पन्नों के

किश्तियां बनाना और हवाई-ज़हाज उड़ाना।

सांप-सीढ़ी के खेल में 99 से एक पर आना,

और कभी सात से 99 पर जाना।

पोशम-पा भई पोशम-पा में चोर पकड़ना।

व्यापार में ढेर-से रूपये जीतना।

विष-अमृत और रस्सी-टप्पा।

है तो और भी बहुत-कुछ।

किन्तु

खेल-कूद क्या होती है

तुम क्या समझोगे फेसबुक बाबू।

 

कहने की ही बातें हैं

छल-कपट से दुनिया चलती, छल-कपट करते हैं लोग

कहने की ही बातें हैं कि यहाँ सब हैं सीधे-सादे लोग

बस कहने की बातें हैं, सच बोलो, सन्मार्ग अपनाओ

झूठ पालते, हेरी-फ़ेरी करते, वे ही कहलाते अच्छे लोग

निडर भाव रख

राही अपनी राहों पर चलते जाते

मंज़िल की आस लिए बढ़ते जाते

बाधाएँ तो आती हैं, आनी ही हैं

निडर भाव रख मन की करते जाते।

 

प्रेम-प्यार की बात न करना

प्रेम-प्यार की बात न करना,

घृणा के बीज हम बो रहे हैं।

.

सम्बन्धों का मान नहीं अब,

दीवारें हम अब चिन रहे हैं।

.

काले-गोरे की बात चल रही,

चेहरों को रंगों से पोत रहे हैं

.

अमीर-गरीब की बात कर रहे,

पैसे से दुनिया को तोल रहे हैं

.

कौन है सच्चा, कौन है झूठा,

बिन जाने हम कोस रहे हैं।

.

पढ़ना-लिखना बात पुरानी

सुनी-सुनाई पर चल रहे हैं।

.

सर्वधर्म समभाव भूल गये,

भेद-भाव हम ढो रहे हैं।

.

अपने-अपने रूप चुन लिए,

किस्से रोज़ नये बुन रहे हैं।

-

राजनीति का ज्ञान नहीं है

चर्चा में हम लगे हुए हैं।  

 

प्रश्न सुलझा नहीं पाती मैं

वैसे तो

आप सबको

बहुत बार बता चुकी हूँ

कि समझ ज़रा छोटी है मेरी।

आज फिर एक

नया प्रश्न उठ खड़ा हुआ

मेरे सामने।

पता नहीं क्यों

बहुत छोटे-छोटे प्रश्न

सुलझा नहीं पाती मैं

इसलिए

बड़े प्रश्नों से तो

उलझती ही नहीं मैं।

जब हम छोटे थे

तब बस इतना जानते थे

कि हम बच्चे हैं

लड़का-लड़की

बेटा-बेटी तो समझ ही नहीं थी

न हमें

न हमारे परिवार वालों को।

न कोई डर था न चिन्ता।

पूजा-वूजा के नाम पर

ज़रूर लड़कियों की

छंटाई हुआ करती थी

किन्तु और किसी मुद्दे पर

कभी कोई बात

होती हो

तो मुझे याद नहीं।

 

अब आधुनिक हो गये हैं हम

ठूँस-ठूँसकर भरा जाता है

सोच में

लड़का-लड़की एक समान।

बेटा-बेटी एक समान।

किसी को पता हो तो

बताये मुझे

अलग कब हुए थे ये।

 

फहराता है तिरंगा

प्रकृति के प्रांगण में लहराता है तिरंगा

धरा से गगन तक फहराता है तिरंगा

हरीतिमा भी गौरवान्वित है यहां देखो

भारत का मानचित्र सजाता है तिरंगा

ईर्ष्‍या होती है चाँद से

ईर्ष्‍या होती है चाँद से 

जब देखो

मनचाहा घूमता है

इधर-उधर डोलता

घर-घर झांकता

साथ चाँदनी लिए।

चांँदनी को देखो

निरखती है दूर गगन से

धरा तक आते-आते

बिखर-बिखर जाती है।

हाथ बढ़ाकर

थामना चाहती हूँ

चाँदनी या चाँद को।

दोनों ही चंचल

अपना रूप बदल

इधर-उधर हो जाते हैं

झुरमुट में उलझे

झांक-झांक मुस्काते हैं

मुझको पास बुलाते हैं

और फिर

यहीं-कहीं छिप जाते हैं।

   

 

 

चूड़ियां: रूढ़ि या परम्परा

आज मैंने अपने हाथों की 

सारी चूड़ियों उतार दी हैं

और उतार कर सहेज नहीं ली हैं

तोड़ दी हैं

और  टुकड़े टुकड़े करके

उनका कण-कण

नाली में बहा दिया हैं।

इसे

कोई बचकानी हरकत न समझ लेना।

वास्तव में मैं डर गई थी।

चूड़ियों की खनक से,

उनकी मधुर आवाज़ से,

और उस आवाज़ के प्रति

तुम्हारे आकर्षण से।

और साथ ही चूड़ियों से जुड़े

शताब्दियों से बन रहे

अनेक मुहावरों और कहावतों से।

मैंने सुना है

चूड़ियों वाले हाथ कमज़ोर हुआ करते हैं।

निर्बलता का प्रतीक हैं ये।

और अबला तो मेरा पर्यायवाची

पहले से ही है।

फिर चूड़ी के कलाई में आते ही

सौर्न्दय और प्रदर्शन प्रमुख हो जाता है

और कर्म उपेक्षित।

 

और सबसे बड़ा खतरा यह

कि पता नहीं

कब, कौन, कहां,

परिचित-अपरिचित

अपना या पराया

दोस्त या दुश्मन

दुनिया के किसी

जाने या अनजाने कोने में

मर जाये

और तुम सब मिलकर

मेरी चूड़ियां तोड़ने लगो।

फ़िलहाल

मैंने इस खतरे को टाल दिया है।

जानती हूं

कि तुम जब यह सब जानेगे

तो बड़ा बुरा मानोगे।                       

क्योंकि, बड़ी मधुर लगती है

तुम्हें मेरी चूड़ियों की खनक।

तुम्हारे प्रेम और सौन्दर्य गीतों की

प्रेरणा स्त्रोत हैं ये।

फुलका बेलते समय

चूड़ियों से ध्वनित होते स्वर

तुम्हारे लिए अमर संगीत हैं

और तुम

मोहित हो इस सब पर।

पर मैं यह भी जानती हूं

कि इस सबके पीछे

तुम्हारा वह आदिम पुरूष है

जो स्वयं तो पहुंच जाना चाहता है

चांद के चांद पर।

पर मेरे लिए चाहता है

कि मैं,

रसोईघर में,

चकले बेलने की ताल पर,

तुम्हारे लिए,

संगीत के स्वर सर्जित करती रहूं,

तुम्हारी प्रतीक्षा में,

तुम्हारी प्रशंसा के

दो बोल मात्र सुनने के लिए।

पर मैं तुम्हें बता दूं

कि तुम्हारे भीतर का वह आदिम पुरूष

जीवित है अभी तो हो,

किन्तु,

मेरे भीतर की वह आदिम स्त्री

कब की मर चुकी है।

तीर और तुक्का
एक बार आसमां पर तीर जरूर तानिए

लौटकर आयेगा, प्रभाव, उसका जानिए

तीर के साथ तुक्के का ध्यान भी रखें

नहीं तो तरकस खाली होगा, यह मानिए

 

मैं और मेरी बिल्लो रानी

छुप्पा छुप्पी खेल रहे थे

कहां गये सब साथी

हम यहां बैठे रह गये

किसने मारी भांजी

शाम ढली सब घर भागे

तू मत डर बिल्लो रानी

मेरे पीछे आजा

मैं हूं आगे आगे

दूध मलाई रोटी दूंगी

मां मंदिर तो जा ले।

 

हे घन ! कब बरसोगे

अब तो चले आओ प्रियतम कब से आस लगाये बैठे हैं

चांद-तारे-सूरज सब चुभते हैं, आंख टिकाये बैठे हैं

इस विचलित मन को कब राहत दोगे बतला दो,

हे घन ! कब बरसोगे, गर्मी से आहत हुए बैठे हैं

 

पता नहीं क्या क्या मन करता है आजकल

रजाई खींच कर, देर तक सोने का बहुत मन करता है रे ! आजकल।

बना-बनाया भोजन परस जाये थाली में बहुत मन करता है आजकल।

एक मेरी जान के दुश्मन ये चिकित्सक, कह दिया रक्तचाप अधिक है

सैर के लिए जाना ज़रूरी है, संध्या समय घर से निकाल देते हैं आजकल

प्रात कोई चाय पिला दे, देर तक सोते रहें, यही मन करता है आजकल

नादानियां भी आप ही तो कर रहे हैं हम

बाढ़ की विभीषिका से देखो डर रहे हैं हम

नादानियां भी आप ही तो कर रहे हैं हम

पेड़ काटे, नदी बांधी, जल-प्रवाह रोक लिए

आफ़त के लिए सरकार को कोस रहे हैं हम

कड़वा-कड़वा देते रहना

नीम करेले का रस पी ले

हंस-बोलकर जीवन जी ले

कड़वा-कड़वा देते रहना

खट्टे की खुद चटनी पी ले

अब कांटों की बारी है

फूलों की बहुत खेती कर ली

अब कांटों की बारी है।

पत्‍ता–पत्‍ता बिखर गया

कांटों की सुन्‍दर मोहक क्‍यारी है।

न जाने कितने बीज बोये थे

रंग-बिरंगे फूलों के।

सपनों में देखा करती थी

महके महके गुलशन के रंगों के।

मिट्टी महकी, बरसात हुई

तब भी, धरा न जाने कैसे सूख गई।

नहीं जानती, क्‍योंकर

फूलों के बीजों से कांटे निकले

परख –परख कर जीवन बीता

कैसे जानूं कहां-कहां मुझसे भूल हुई। 

दोष नहीं किसी को दे सकती

अब इन्‍हें सहेजकर बैठी हूं।

वैसे भी जबसे कांटों को अपनाया

सहज भाव से जीवन में

फूलों का अनुभव दे गये

रस भर गये जीवन में।

 

खुश होने के लिए भी

न कोई चाहत, न कभी कोई मांग।
एक नये आनन्द के साथ
रोज़ आते हैं
आनन्दित करते हैं
और चले जाते हैं।
चांद को कभी उदास नहीं देखा
सूरज कभी रोया नहीं
तारे कभी टिमटिमाना नहीं भूलते।
और  हम हैं कि
ज़रा-सा खुश होने के लिए भी
कोई बहाना ढूंढते हैं
कोई बड़ा-सा कारण
नहीं तो लोग पता नहीं क्या सोचेंगे
कि अरे !
यह आज इतनी खुश क्यों है
और एक तहलका मच जायेगा।


 

हर दिन जीवन

जीवन का हर पल

अनमोल हुआ करता है

कुछ कल मिला था,

कुछ आज चला है

न जाने कितने अच्छे पल

भवितव्य में छिपे बैठे हैं

बस आस बनाये रखना

हर दिन खुशियां लाये जीवन में

एक आस बनाये रखना

मत सोचना कभी

कि जीवन घटता है।

बात यही कि

हर दिन जीवन

एक और,

एक और दिन का

सुख देता है।

फूलों में, कलियों में,

कल-कल बहती नदियों में

एक मधुर संगीत सुनाई देता है

प्रकृति का कण-कण

मधुर संगीत प्रवाहित करता है।

 

गौरैया से मैंने पूछा कहां रही तू इतने दिन

गौरैया से मैंने पूछा कहां रही तू इतने दिन

बोली मायके से भाई आया था कितने दिन

क्या-क्या लाया, क्या दे गया और क्या बात हुई

मां की बहुत याद आई रो पड़ी, गौरैया उस दिन

अपनी कमज़ोरियों को बिखेरना मत

 

ज़रा सम्हलकर रहना,

अपनी पकड़ बनाकर रखना।

मन की सीमाओं पर

प्रहरी बिठाकर रखना।

मुट्ठियां बांधकर रखना।

भौंहें तानकर रखना।

अपनी कमज़ोरियों को

मंच पर

बिखेरकर मत रखना।

 

मित्र हो या शत्रु

नहीं पहचान पाते,

जब तक

ठोकर नहीं लगती।

 

फिर आंसू मत बहाना,

कि किसी ने धोखा दिया,

या किया विश्वासघात।