फिर उनके कंधों पर बंहगी ढूंढते हैं

अपनी संतान के कंधों पर

हमने लाद दिये हैं

अपने अधूरे सपने,

अपनी आशाएं –आकांक्षाएं,

उनके मन-मस्तिष्क पर

ठोंक कर बैठे हैं

अपनी महत्वाकांक्षाओं की कीलें,

उनकी इच्छाओं-अनच्छिाओं पर

बनकर बैठे हैं हम प्रहरी।

आगे, आगे और आगे

निकल लें।

जितनी दूर निकल सकें,

निकल लें।

सबसे आगे, और  आगे, और आगे।

धरा को छोड़

आकाश को निगल ले।

और वे भागने लगे हैं

हमसे दूर, बहुत दूर ।

हम स्वयं ही नहीं जानते

उनके कंधों पर कितना बोझ डालकर

किस राह पर उन्हें ढकेल रहे हैं हम ।

धरा के रास्‍ते बन्‍द कर दिये हैं

उनके लिए।

बस पकड़ना है तो

आकाश ही आकाश है।

फिर शिकायत करते हैं

कुछ नहीं कर रही नई पीढ़ी

हमारे लिए ।

फिर उनके कंधों पर बंहगी ढूंढते हैं !!!
 

कमाल है !!!!

निर्माण हो या हो अवसान

उपवन में रूप ले रही

कलियों ने पहले से झूम रहे

पुष्पों की आभा देखी

और अपना सुन्दर भविष्य

देखकर मुस्कुरा दीं।

पुष्पों ने कलियों की

मुस्कान से आलोकित

उपवन को निहारा

और अपना पूर्व स्वरूप भानकर

मुदित हुए।

फिर धरा पर झरी पत्तियों में

अपने भविष्य की

आहट का अनुभव किया।

धरा से बने थे

धरा में जा मिलेंगे

सोच, खिलखिला दिये।

फिर स्वरूप लेंगे

मुस्कुराएंगे, मुदित होंगे,

फिर खिलखिलाएंगे।

निर्माण हो या हो अवसान की आहट

होना है तो होना है

रोना क्या खोना क्या

होना है तो होना है।

चलो, इसी बात पर मुस्कुरा दें ज़रा।

चल न मन,पतंग बन

आकाश छूने की तमन्ना है

पतंग में।

एक पतली सी डोर के सहारे

यह जानते हुए भी

कि कट सकती है,

फट सकती है,

लूट ली जा सकती है

तारों में उलझकर रह सकती है

टूटकर धरा पर मिट्टी में मिल सकती है।

किन्तु उन्मुक्त गगन

जीवन का उत्साह

खुली उड़ान,

उत्सव का आनन्द

उल्लास और उमंग।

पवन की गति,

कुछ हाथों की यति

रंगों की मति

राहें नहीं रोकते।

  *    *    *    *

चल न मन,

पतंग बन।

दिमाग़ की बत्ती गुल पड़ी है

मैं भाषण देता हूं

मैं राशन देता हूं

मैं झाड़ू देता हूं

मैं पैसे देता हूं

रोटी दी मैंने

मैंने गैस दिया

पहले कर्ज़ दिये

फिर सब माफ़ किया

टैक्स माफ़ किये मैंने

फिर टैक्स लगाये

मैंने दुनिया देखी

मैंने ढोल बजाये

नये नोट बनाये

अच्छे दिन मैं लाया

सारी दुनिया को बताया

ये बेईमानों का देश था,

चोर-उचक्कों का हर वेश था

मैंने सब बदल दिया

बेटी-बेटी करते-करते

लाखों-लाखों लुट गये

पर बेटी वहीं पड़ी है।

सूची बहुत लम्बी है

यहीं विराम लेते हैं

और अगले पड़ाव पर चलते हैं।

*-*-*-*-*-*-*-**-

चुनावों का अब बिगुल बजा

किसका-किसका ढोल बजा

किसको चुन लें, किसको छोड़ें

हर बार यही कहानी है

कभी ज़्यादा कभी कम पानी है

दिमाग़ की बत्ती गुल पड़ी है

आंखों पर पट्टी बंधी है

बस बातें करके सो जायेंगे

और सुबह फिर वही राग गायेंगे।

अन्तस में हैं सारी बातें

पन्नों पर लिखी हैं मन की वे सारी गाथाएं

जो दुनिया तो  जाने थी पर मन था छुपाए

पर इन फूलों के अन्तस में हैं वे सारी बातें

न कभी हम उन्हें बताएं न वो हमें जताएं

रेखाएं अनुभव की अनुभूत सत्‍य की

रेखाएं

कलम की, तूलिका की,

रचती हैं कुछ भाव, कोई चित्र।

किन्‍तु 

रेखाएं अनुभव की, अनुभूत सत्‍य की,

दिखती तो दरारों-सी हैं

लेकिन झांकती है

इनके भीतर से एक रोशनी

देती एक गहन जीवन-संदेश।

जिसे पाने के लिए, समझने के लिए

समर्पित करना पड़ता है

एक पूरा जीवन

या एक पूरा युग।

ऐसे हाथ जब आशीष में उठते हैं

तब भी

और जब अभिवादन में जुड़ते हैं

तब भी

नतमस्‍तक होता है मन।

चूड़ियां: रूढ़ि या परम्परा

आज मैंने अपने हाथों की 

सारी चूड़ियों उतार दी हैं

और उतार कर सहेज नहीं ली हैं

तोड़ दी हैं

और  टुकड़े टुकड़े करके

उनका कण-कण

नाली में बहा दिया हैं।

इसे

कोई बचकानी हरकत न समझ लेना।

वास्तव में मैं डर गई थी।

चूड़ियों की खनक से,

उनकी मधुर आवाज़ से,

और उस आवाज़ के प्रति

तुम्हारे आकर्षण से।

और साथ ही चूड़ियों से जुड़े

शताब्दियों से बन रहे

अनेक मुहावरों और कहावतों से।

मैंने सुना है

चूड़ियों वाले हाथ कमज़ोर हुआ करते हैं।

निर्बलता का प्रतीक हैं ये।

और अबला तो मेरा पर्यायवाची

पहले से ही है।

फिर चूड़ी के कलाई में आते ही

सौर्न्दय और प्रदर्शन प्रमुख हो जाता है

और कर्म उपेक्षित।

 

और सबसे बड़ा खतरा यह

कि पता नहीं

कब, कौन, कहां,

परिचित-अपरिचित

अपना या पराया

दोस्त या दुश्मन

दुनिया के किसी

जाने या अनजाने कोने में

मर जाये

और तुम सब मिलकर

मेरी चूड़ियां तोड़ने लगो।

फ़िलहाल

मैंने इस खतरे को टाल दिया है।

जानती हूं

कि तुम जब यह सब जानेगे

तो बड़ा बुरा मानोगे।                       

क्योंकि, बड़ी मधुर लगती है

तुम्हें मेरी चूड़ियों की खनक।

तुम्हारे प्रेम और सौन्दर्य गीतों की

प्रेरणा स्त्रोत हैं ये।

फुलका बेलते समय

चूड़ियों से ध्वनित होते स्वर

तुम्हारे लिए अमर संगीत हैं

और तुम

मोहित हो इस सब पर।

पर मैं यह भी जानती हूं

कि इस सबके पीछे

तुम्हारा वह आदिम पुरूष है

जो स्वयं तो पहुंच जाना चाहता है

चांद के चांद पर।

पर मेरे लिए चाहता है

कि मैं,

रसोईघर में,

चकले बेलने की ताल पर,

तुम्हारे लिए,

संगीत के स्वर सर्जित करती रहूं,

तुम्हारी प्रतीक्षा में,

तुम्हारी प्रशंसा के

दो बोल मात्र सुनने के लिए।

पर मैं तुम्हें बता दूं

कि तुम्हारे भीतर का वह आदिम पुरूष

जीवित है अभी तो हो,

किन्तु,

मेरे भीतर की वह आदिम स्त्री

कब की मर चुकी है।

तुम्हारी यह चुप्पी सुहाती नहीं

तुम्हारी यह चुप्पी सुहाती नहीं

उदास बैठी तुम भाती नहीं

कभी तुम्हें यूं देखा नहीं

एकान्‍तवासी

मौन, गम्भीर, चिन्तित।

लौट आओ

ज़रा अपने अंदाज़ में

तुम्हारी किटकिटकुटकुट

डाल डाल फांदती

छुप्पनछुपाई खेलती

कूदती भागती,

पेड़ों के कोटर से झांकती,

यही अंदाज़ भाता है तुम्हारा।

गुनगुनाती हो

हंसती खिलखिलाती हो मेरे भीतर

जीवन को राग रंग देती हो।

कैसे समझाउं तुम्हें

न तुम मेरी बोली समझती हो

न मैं तुम्हारी।

क्या था, क्या हो गया, क्या होगा

कहां वश रह गया हमारा

चलो, लौट आओ तो ज़रा अपने रंग में।

मां के आंचल की छांव

प्रकृति का नियम है

विशाल वट वृक्ष तले

नहीं पनपते छोटे पेड़ पौधे।

नहीं पुष्पित पल्लवित होतीं यूं ही लताएं।

और यदि कुछ पनप भी जाये

तो उसे नाम नहीं मिलता।

पहचान नहीं मिलती।

बस, वट वृक्ष की विशालता के सामने

खो जाते हैं सब।

लेकिन, एक सा वट वृक्ष भी है

जिसका अपना कोई नाम नहीं होता

कोई पहचान नहीं होती।

बस एक दीर्घ आंचल होता है

जिसके साये तले, पलती बढ़ती है

एक पूरी की पूरी पीढ़ी,

एक पूरा का पूरा युग।

अपनी जड़ों से पोषण करती है उनका।

नये पौधों का रोपण करती है

अपने आपको खोकर।

उन्हें नाम देती है, पहचान देती है

आंचल की छांव देती है।

पूरी ज़मीन और पूरा आकाश देती है।

युग बदलते हैं, पर नहीं बदलती

नहीं छूटती आंचल की छांव।

फूल खिलखिलाए

बारिश के बाद धूप निखरी
आंसुओं के बाद मुस्कान बिखरी
बदलते मौसम के एहसास हैं ये
फूल खिलखिलाए, महक बिखरी

 

शिलालेख हैं मेरे भीतर

शिलालेख हैं मेरे भीतर कल की बीती बातों के

अपने ही जब चोट करें तब नासूर बने हैं घातों के

इन रिसते घावों की गांठे बनती हैं न खुलने वाली

अन्तिम यात्रा तक ढोते हैं हम खण्डहर इन आघातों के

मन टटोलता है प्रस्तर का अंतस

प्रस्तर के अंतस में

सुप्त हैं न जाने कितने जल प्रपात।

कल कल करती नदियां, 

झर झर करते झरने, 

लहराती बलखाती नहरें, 

मन की बहारें, और कितने ही सपने।

जहां अंकुरित होते हैं

नव पुष्प,

पुष्पित पल्लवित होती हैं कामनाएं

जिंदगी महकती है, गाती है,

गुनगुनाती है, कुछ समझाती है।

इन्द्रधनुषी रंगों से

आकाश सराबोर होता है

और मन टटोलता है

प्रस्तर का अंतस।

कुछ छूट गया जीवन में

गांव तक कौन सी राह जाती है कभी देखी नहीं मैंने

वह तरूवर, कुंआ, बाग-बगीचे, पनघट, देखे नहीं मैंने

पीपल की छाया, चौपालों का जमघट, नानी-दादी के किस्से

लगता है कुछ छूट गया जीवन में, जो पाया नहीं मैंने

बताते हैं क्या कीजिए

सुना है ज्ञान, ध्यान, स्नान एक अनुष्ठान है, नियम, काल, भाव से कीजिए

तुलसी-नीम डालिए, स्वच्छ जल लीजिए, मंत्र पढ़िए, राम-राम कीजिए।।

शून्य तापमान, शीतकाल, शीतल जल, काम इतना कीजिए बस चुपचाप

चेहरे को चमकाईए, क्रीम लगाईए, और हे राम ! हे राम ! कीजिए ।।

मौन की भाषा समझी न

शब्दों की भाषा समझी न, नयनों की भाषा क्या समझोगे

रूदन समझते हो आंसू को, मुस्कानों की भाषा क्या समझोगे

मौन की भाषा समझी न, क्या समझोगे मनुहार की भाषा

गुलदानों में रखते हो सूखे फूल, प्यार की भाषा क्या समझोगे

 

जीवन में सदैव अमावस नहीं होता

जैसे इन्द्रधनुषी रंगों में स्याह रंग नहीं होता              

वैसे जीवन में सदैव अमावस ही नहीं होता
रिमझिम बूंदों को जब गुनगुनी धूप निखारती है
आशा के पुष्पों पर कभी तुषारापात नहीं होता। 

नाम लिखा है तुम्हारा

रोज़ एक फूल छुपाती थी किताबों में

तुम्हारे चेहरे का अक्स बनाती थी किताबों में

दिल की बात बताती थी किताबों में

फिर एक दिन किताब पुरानी हो गई

पन्ने खुलने लगे, फूल झरने लगे

सूखे फूलों को समेटा, पत्ती पत्ती को सहेजा

कोई देख न ले

इसलिए बंद मुठ्ठी में सहेजा

पर मुठ्ठी की दरारों से, चाहत झरने लगी

फूल फिर रूप लेने लगे,

रंग फिर बहकने लगे

नाम तुम्हारा लिखने लगे

दिल में बाग खिलने लगे

उपहार  भेजती हूं तुम्हें

तुम्हारा ही दिल

नाम लिखा है तुम्हारा

फूलों में, कलियों में

इन उलझी लड़ियों में

सलमे सितारों में

तारों में , हारों में ।।।।।।

दौड़ बनकर रह गई है जिन्दगी

शून्य से शतक तक की दौड़ बनकर रह गई है जिन्दगी

इससे आगे और क्या इस सोच में बह रही है जिन्दगी

औरऔर  मिलने की चाह में डर डर कर जीते हैं हम

एक से निन्यानवे तक भी आनन्द ले, कह रही है जिन्दगी

ये चांद है अदाओं का

चांद

यूं ही तो नहीं

चमकता है आसमान में।

उसकी भी अपनी अदाएं हैं।

किसी को तो चांद सी

सूरत दे देता है

और किसी के जीवन में

चांद से दाग

और किसी किसी के लिए तो

कभी चांद निकलता ही नहीं

बस

अमावस्या ही बनी रहती है जीवन भर।

बस एक भ्रम पालकर

जिन्दगी जी लेते हैं

कि चांद है उनकी जिन्दगी में

क्योंकि जब

चांद आसमान में है

तो कुछ तो उनकी

जिन्दगी में भी होगा ही।

और कहीं कहीं तो कभी

चांद डूबता ही नहीं,

बस पूर्णिमा ही बनी रहती है।

इसलिए इस भ्रम में

या  इस गणना में मत रहना

कि इतने दिन बाद

चौथ का चांद

आ जायेगा जीवन में,

या अमावस्या या पूर्णिमा,

उसकी मर्ज़ी आये या न आये

जब टिकट किसी का कटता है

सुनते हैं कोई एक भाग्य-विधाता सबके लेखे लिखता है

अलग-अलग नामों से, धर्मों से सबके दिल में बसता है

फिर न जाने क्यों झगड़े होते, जग में इतने लफड़े होते

रह जाता है सब यहीं, जब टिकट किसी का कटता है

कांटों को थाम लीजिए

रूकिये ज़रा, मुहब्बत की बात करनी है तो कांटों को थाम लीजिए

छोड़िये गुलाब की चाहत को, अनश्वर कांटों को अपने साथ लीजिए

न रंग बदलेंगे, न बिखरेंगे, न दिल तोड़ेंगे, दूर तक साथ निभायेंगे,

फूल भी अक्सर गहरा घाव कर जाते हैं, बस इतना जान लीजिए

अपने मन के संतोष के लिए

न सम्मान के लिए, न अपमान के लिए

कोई कर्म न कीजिए बस बखान के लिए

अपनी-अपनी सोच है, अपनी-अपनी राय

करती हूं बस अपने मन के संतोष के लिए

परीलोक से आई है

चित्रलिखित सी प्रतीक्षारत ठहरी हो मुस्काई-सी
नभ की लाली मुख पर कुमकुम सी है छाई-सी
दीपों की आभा में आलोकित, घूंघट की ओट में
नयनाभिराम रूप लिए परीलोक से आई है सकुचाई-सी

चाहतों का अम्बार दबा है

मन के भीतर मन है, मन के भीतर एक और मन

खोल खोल कर देखती हूं कितने ही तो हो गये मन

इस मन के किसी गह्वर में चाहतों का अम्बार दबा है

किसको रखूं, किसको छोड़ूं नहीं बतलाता है रे मन।

पैसों से यह दुनिया चलती

पैसों पर यह दुनिया ठहरी, पैसों से यह दुनिया चलती , सब जाने हैं

जीवन का आधार,रोटी का संसार, सामाजिक-व्यवहार, सब माने हैं

छल है, मोह-माया है, चाह नहीं है हमको, कहने को सब कहते हैं पर,

नहीं हाथ की मैल, मेहनत से आयेगी तो फल देगी, इतना तो सब माने हैं

घर की पूरी खुशियां बसती थी

आंगन में चूल्हा जलता था, आंगन में रोटी पकती थी,

आंगन में सब्ज़ी उगती थी, आंगन में बैठक होती थी

आंगन में कपड़े धुलते थे, आंगन में बर्तन मंजते थे

गज़ भर के आंगन में घर की पूरी खुशियां बसती थी

विरोध से दुनिया नहीं चलती

ज़रा ज़रा सी बात पर अक्सर क्रोध करने लगी हूं मैं

किसी ने ज़रा सी बात कह दी तर्क करने लगी हूं मैं

विरोध से दुनिया नहीं चलती, सब समझाते हैं मुझे

समझाने वालों से भी इधर बहुत लड़ने लगी हूं मैं

है हौंसला बुलन्द

उन राहों पर निकले हैं जिनका आदि न कोई अन्त

न आगे है कोई न पीछे है, दिखता दूर कहीं दिगन्त

देखने में रंगीनियां हैं, सफ़र है, समां सुहाना लगता है

टेढ़ी-मेढ़ी राहें हैं, पथ दुर्गम है, पर है हौंसला बुलन्द

बालपन-सा था कभी

बालपन-सा था कभी निर्दोष मन

अब देखो साधता है हर दोष मन

कहां खो गई वो सादगी वो भोलापन

ढू्ंढता है दूसरों में हर खोट मन

विनम्रता कहां तक

आंधी आई घटा छाई विनम्र घास झुकी, मुस्काई
वृक्षों ने आंधी से लड़ने की आकांक्षा जतलाई 
झुकी घास सदा ही तो पैरों तले रौंदी जाती रही
धराशायी वृक्षों ने अपनी जड़ों से फिर एक उंचाई पाई