मैं भी तो

यहां

हर आदमी की ज़ुबान

एक धारदार छुरी है

जब चाहे, जहां चाहे,

छीलने लगती है

कभी कुरेदने तो कभी काटने।

देखने में तुम्हें लगेगी

एकदम अपनी सी।

विनम्र, झुकती, लचीली

तुम्हारे पक्ष में।

लेकिन तुम देर से समझ पाते हो

कि सांप की गति भी

कुछ इसी तरह की होती है।

उसकी फुंकार भी

आकर्षित करती है तुम्हें

किसी मौके पर।

उसका रंग रूप, उसका नृत्य _

बीन की धुन पर उसका झूमना

तुम्हें मोहने लगता है।

तुम उसे दूध पिलाने लगते हो

तो कभी देवता समझ कर

उसकी पूजा करते हो।

यह जानते हुए भी

कि मौका मिलते ही

वह तुम्हें काट डालेगा।

और  तुम भी

सांप पाल लेते हो

अपनी पिटारी में।

प्रकृति के प्रपंच

प्रकृति भी न जाने कहां-कहां क्या-क्या प्रपंच रचा करती है

पत्थरों को जलधार से तराश कर दिल बना दिया करती है

कितना भी सजा संवार लो इस दिल को रंगीनियों से तुम

बिगड़ेगा जब मिज़ाज उसका, पल में सब मिटा दिया करती है

मुखौटे चढ़ाए बेधड़क घूमते हैं

अब

मुखौटे हाथ में लिए घूमते हैं।

डर नहीं रह गया अब,

कोई खींच के उतार न दे मुखौटा

और कोई देख न ले असली चेहरा

तो, कहां छिपते फिरेंगे।

मुखौटों की कीमत पहले भी थी

अब भी है।

फ़र्क बस इतना है

कि अब खुलेआम

बोली लगाये घूमते हैं।

मुखौटे हाथ में लिए घूमते हैं।

बेचते ही नहीं,

खरीदते भी हैं ।

और ज़रूरत आन पड़े

तो बड़ों बड़ों के मुखौटे

अपने चेहरे पर चढ़ाए

बेधड़क घूमते हैं।

किसी का भी चेहरा नोचकर

उसका मुखौटा बना

अपने चेहरे पर

चढ़ाए घूमते हैं।

जो इन मुखौटों से मिल सकता है

वह असली चेहरा कहां दे पाता कीमत

इसलिए

अपना असली चेहरा  

बगल में दबाये घूमते हैं।

मन का दीप प्रज्वलित हो

अपनों का साथ हो
सपनों का राग हो
सम्बन्धों का उन्माद हो
सबसे संवाद हो
मन बाग बाग हो
जीवन में राग राग हो
मधुर मधुर तान हो
भावों में अनुराग हो
मलिनता मिट जाए
दूरियां सिमट जाएं
रिश्तों की गरिमा हो
अपनों की महिमा हो
विश्वास की दमक हो
अपनेपन की महक हो
सहज सहज जीवन हो
सरल पावन मन हो
मन से मन का मिलन हो
न द्वेष का राग हो,
न सत्य से विराग हो
जीवन की सुंदर कहानी हो
अपनों की जु़बानी हो
जगमग जगमग संसार हो
खुशियां अपार हों
पर्वों की सी हरदम आहट हो
बस मन का दीप प्रज्वलित हो।

आदमी आदमी से पूछता

आदमी आदमी से पूछता है

कहां मिलेगा आदमी

आदमी आदमी से पूछता है

कहीं मिलेगा आदमी

आदमी आदमी से डरता है

कहीं मिल न जाये आदमी

आदमी आदमी से पूछता है

क्यों डर कर रहता है आदमी

आदमी आदमी से कहता है

हालात बिगाड़ गया है आदमी

आदमी आदमी को बताता है

कर्त्तव्यों से भागता है आदमी

आदमी आदमी को बताता है

अधिकार की बात करता है आदमी

आदमी आदमी को सताता है

यह बात जानता है हर आदमी

आदमी आदमी को बताता है

हरपल जीकर मरता है आदमी

आदमी आदमी को बताता है

सबसे बेकार जीव है तू आदमी

आदमी आदमी से पूछता है

ऐसा क्यों हो गया है आदमी

आदमी आदमी को समझाता है

आदमी से बचकर रहना हे आदमी

और आदमी, तू ही आदमी है

कैसे भूल गया, तू हे आदमी !

मेरा प्रवचन है

इस छोटी सी उम्र में ही
जान ले ली है मेरी।
बड़ी बड़ी बातें सिखाते हैं
जीवन की राहें बताते हैं
मुझे क्या बनना है जीवन में
सब अपनी-अपनी राय दे जाते हैं।
और न जाने क्या क्या बताते-समझाते हैं।
इस छोटी सी उम्र में ही
एक नियमावली है मेरे लिए
उठने , बैठने, सोने, खाने-पीने की
पढ़ने और अनेक कलाओं में 
पारंगत होने की।

अरे ! 
ज़रा मेरी उम्र तो देखो
मेरा कद, मेरा वजूद तो देखो
मेरा मजमून तो देखो।
किसे किसे समझाउं
मेरे खेलने खाने के दिन हैं।
देख रहे हैं न आप
अभी से मेरे सिर के बाल उड़ गये
आंखों पर चश्मा चढ़ गया।

तो
मैंने भी अपना मार्ग चुन लिया है।
पोथी उठा ली है
धूनी रमा ली है
शाम पांच बजे 
मेरा प्रवचन है
आप सब निमंत्रित हैं।

कुछ चमकते सपने बुनूं

जीवन में अकेलापन

बहुत कुछ बोलता है

कभी कभी

अथाह रस घोलता है।

अपने से ही बोलना

मन के तराने छेड़ना

कुछ पूछना कुछ बताना

अपने आप से ही रूठना, मनाना

उलटना पलटना

कुछ स्मृतियों को।

यहां बैठूं या वहां बैठूं

पेड़ों पर चढ़ जाउं

उपवन में भागूं दौड़ूं

तितली को छू लूं

फूलों को निहारूं

बादलों को पुकारूं

आकाश को पुकारूं

फिर चंदा-तारों को ले मुट्ठी में

कुछ चमकते सपने बुनूं

अपने मन की आहटें सुनूं

अपनी चाहतों को संवारू

फिर

ताज़ी हवा के झोंके के साथ

लौट आउं वर्तमान में

सहज सहज।

शब्द में अभिव्यक्ति हो

मान देकर प्रतिमान की आशा क्यों करें

दान देकर प्रतिदान की आशा क्यों करें

शब्द में अभिव्यक्ति हो पर भाव भी रहे

विश्वास देकर आभार की आशा क्यों करें

शुद्ध जल से आचमन कर ले मेरे मन

जल की धार सी बह रही है ज़िन्दगी

नित नई आस जगा रही है ज़िन्दगी

शुद्ध जल से आचमन कर ले मेरे मन

काल के गाल में समा रही है ज़िन्दगी

मन गया बहक बहक

चिड़िया की कुहुक-कुहुक, फूलों की महक-महक

तुम बोले मधुर मधुर, मन गया बहक बहक

सरगम की तान उठी, साज़ बजे, राग बने,

सतरंगी आभा छाई, ताल बजे ठुमक ठुमक

कहां किस आस में

सूर्य की परिक्रमा के साथ साथ ही परिक्रमा करता है सूर्यमुखी

अक्सर सोचती हूं रात्रि को कहां किस आस में रहता है सूर्यमुखी

सम्भव है सिसकता हो रात भर कहां चला जाता है मेरा हमसफ़र

शायद इसीलिए प्रात में अश्रुओं से नम सुप्त मिलता है सूर्यमुखी

चेहरों पर फूल मन में कांटे

हमारी आदतें भी अजीब सी हैं
बस एक बार तय कर लेते हैं
तो कर लेते हैं।
नज़रिया बदलना ही नहीं चाहते।
वैसे मुद्दे तो बहुत से हैं
किन्तु इस समय मेरी दृष्टि
इन कांटों पर है।
फूलों के रूप, रस, गंध, सौन्दर्य
की तो हम बहुत चर्चा करते हैं
किन्तु जब भी कांटों की बात उठती है
तो उन्हें बस फूलों के
परिप्रेक्ष्य में ही देखते हैं।

पता नहीं फूलों के संग कांटे होते हैं
अथवा कांटों के संग फूल।
लेकिन बात दोनों की अक्सर
साथ साथ होती है।

इधर कांटों में भी फूल खिलने लगे है
और  फूल
कांटों से चुभने लगे हैं।

लेकिन जब कांटों पर खिलते हैं फूल
तो हम कभी उनकी चर्चा ही नहीं करते।
बस इतना ही याद रख लिया है हमने
कि कांटों से चुभन होती है।
हां, होती है कांटों से चुभन।
लेकिन कांटा भी तो
कांटे से ही निकलता है।

और कभी छीलकर देखा है कांटों को
भीतर से कितने रसपूर्ण होते हैं ।
यह कांटे की प्रवृत्ति है
कि बाहर से तीक्ष्ण है,
पर भीतर ही भीतर खिलते हैं फूल।
एक अलग-सा
आकर्षण और सौन्दर्य
निहित होता है इनमें
जिसे परखना पड़ता है।
संजोकर देखना इन्हें,
जीवन भर अक्षुण्ण साथ देते है।

और जब मन में कांटे उगते हैं
तो यह पलभर का उद्वेलन नहीं होता।
जीवन रस
सूख सूख कर कांटों में बदल जाता है।
कोई जान न पाये इसे
इसलिए
कांटों की प्रवृत्ति के विपरीत
हम चेहरों पर फूल उगा लेते हैं
और मन में कांटे संजोये रहते हैं ।

जिन्दगी की आग में सिंकी मां

बहुत याद आती हैं

मां के हाथ की वो दो सूखी रोटियां

आम की फांक के साथ

अखबार के पन्ने में लपेटकर दिया करती थी

स्कूल के लिए।

और उन दो सूखी रोटियों की ताकत से

हम दिन भर मस्त रहते थे।

आम की फांक को तब तक चूसते थे

जब तक उसकी जान नहीं निकल जाती थी।

चूल्हे की आग में तपी रोटियां

एक बेनामी सी दाल-सब्जी

अजब-गजब स्वाद वाली

कटोरियां भर-भर पी जाते थे

आग में भुने आलू-कचालू

नमक के साथ निगल जाते थे।

चूल्हे को घेरकर बैठे

बतियाते, हंसते, लड़ते,

झीना-झपटी करते।

अपनी थाली से ज्यादा स्वाद

दूसरे की थाली में आता था।

रात की बची रोटियों का करारापन

चाय के प्याले के साथ।

और तड़का भात नाश्ते में

खट्टी-मीठी चटनियां

गुड़-शक्कर का मीठा

चूरी के साथ खा जाते थे पूरी रोटी।

जिन्दगी की आग में सिंकी मां,

और उसके हाथ की बनी रोटियों से मिली

संघर्ष की पौष्टिकता

आज भी भीतर ज्वलन्त है।

छप्पन भोग बनाने-खाने के बाद भी

तरसती हूं इस स्वाद के लिए।

बनाने की कोशिश करती हूं

पर वह स्वाद तो मां के साथ चला गया।

अगर आपके घर में हो ऐसी रोटियां और ऐसा स्वाद

तो मुझे ज़रूर न्यौता देना

किसने रची विनाश की लीला

जल जीवन है, जल पावन है

जल सावन है, मनभावन है

जल तृप्ति है, जल पूजा है।

मन डरता है, जल प्लावन है।

कब सूखा होगा

कब होगी अति वृष्टि

मन उलझा है।

कब तरसें बूंद बूंद को

और कब

सागर ही सागर लहरायेगा,

उतर धरा पर आयेगा

मन डरता है।

किसने रची विनाश की लीला

किसने दोहा प्रकृति को,

कौन बतलायेगा।

जीवन बदला, शैली बदली

रहन सहन की भाषा बदली।

अब यह होना था, और होना है

कहने सुनने से क्या होगा।

आयेंगी और जायेंगी

ये विपदाएं।

बस इतना होना है

कि हम सबको

यहां] सदा

साथ साथ होना है।

घन बरसे या सागर उफ़न पड़े

हमें नहीं डरना है

बस इतना ही कहना है।

चाहिए अब एक शंखनाद

हमें स्मरण हैं

कृष्ण की अनेक कथाएं

उनकी बाल लीलाएं

माखन चुराना, वन में  गैया घुमाना

बाल-गोपाल संग हंसना-बतियाना

गोपियों संग ठिठोलियां

रासलीला की अठखेलियां

और यशोदा मैया को सताना।

और कभी बस पूतना-वध,

कंस-वध, नाग-मर्दन

अथवा गोवर्धन धारण को स्मरण करके

हम वंदन कर लेते हैं।

लेकिन क्यों नहीं स्मरण करते हम

कि कृष्ण ने पांचजन्य से

उद्घोष किया था

एक युद्ध के आह्वान का

बुराई के विरूद्ध अच्छाई का।

अन्याय के विरूद्ध न्याय का।

विश्व की मंगल कामना का।

एक अन्यायमुक्त समाज की स्थापना का।

हमें तो बस आदत हो गई है

पर्वों में डूबे रहने की

उत्सव ही उत्सव मनाने की

बस कोई एक बहाना चाहिए।

और यही संस्कार हम

अपनी अगली पीढ़ी को दे रहे हैं

हां, यह और बात है कि

उनके उत्सव मनाने के तरीके बदल गये हैं।

फिर हम किस अधिकार से

दोषारोपण कर सकते हैं किसी पर

अन्याय, अत्याचार, भ्रष्टाचार, शोषण

या अधिकारों के दुरूपयोग का।

अब शंख एक संग्रहणीय वस्तु बन कर रह गये हैं।

वैसे भी हम मुंह सिले और कान बन्द किये बैठे हैं

कि कहीं किसी पांचजन्य के उद्घोष

का आह्वान न हो

और किसी अन्य के शंखनाद की ध्वनि भी

हमारे कानों तक न पहुंचे

और कहीं हमारे उत्सवों में बाधा न आये।

नयन क्यों भीगे

मन के उद्गारों को कलम उचित शब्द अक्सर दे नहीं पाती

नयन क्यों भीगे, यह बात कलम कभी समझ नहीं पाती

धूप-छांव तो आनी-जानी है हर पल, हर दिन जीवन में

इतनी सी बात क्यों इस पगले मन को समझ नहीं आती

मौसम की आहट

कुहासे की चादर ओढ़े आज सूरज देर तक सोया रहा

ढूंढती फिर रही उसे न जाने अब तक कहां खोया रहा

दे रोशनी, जीवन की आस दे, दिन का भास दे, उजास दे

आवाज़ दी मैंने उसे, उठ ज़रा अब, रात भर सोया रहा

सेंकनी है मुझको ज़िन्दगी की रोटी।

हाथ भी जलाती हूं, पैर भी जलाती हूं

दिल भी जलाती हूं, दिमाग भी जलाती हूं

पर तवा गर्म नहीं होता।

सेंकनी है मुझको ज़िन्दगी की रोटी।

मां ने कहा, बाप ने कहा,

पति ने कहा, सास ने कहा।

सेंकनी है तुझको ज़िन्दगी की रोटी।

न आग न लपट, न धुंआ न चटक

सेंकनी है मुझको ज़िन्दगी की रोटी

मां ने कहा, बाप ने कहा,

पति ने कहा, समाज ने कहा।

सेंकनी है तुझको ज़िन्दगी की रोटी।

हाथ भी बंधे हैं, पैर भी बंधे हैं,

मुंह भी सिला है, कान भी कटे हैं।

सेंकनी है मुझको ज़िन्दगी की रोटी।

मां ने कहा, बाप ने कहा,

पति ने कहा, समाज ने कहा।

बोलना मना है, सुनना मना है,

देखना मना है, सोचना मना है,

सेंकनी है मुझको ज़िन्दगी की रोटी।

मां ने कहा, बाप ने कहा,

पति ने कहा, सास ने कहा।

भाव भी मिटाती हूं, आस भी लुटाती हूं

सपने भी बुझाती हूं, आब भी गंवाती हूं

सेंकनी है मुझको ज़िन्दगी की रोटी

आना मना है, जाना मना है,

रोना मना है, हंसना मना है।

मां ने कहा, बाप ने कहा,

पति ने कहा, सास ने कहा।

सेंकनी है मुझको ज़िन्दगी की रोटी।

हाथ भी जलाती हूं, पैर भी जलाती हूं

दिल भी जलाती हूं, दिमाग भी जलाती हूं

पर तवा गर्म नहीं होता।……………

ज़िन्दगी की लम्बी राहों पर

मुस्कुराने की भी
अपनी एक अदा होती है
ज़िन्दगी बिताने की भी
अपनी एक अदा होती है।
ज़िन्दगी की इन लम्बी राहों पर
चलते चलते
फूलों संग मुस्कुराने की भी
अपनी एक अदा होती है।
बरसात की मार हो या
सूखे की धार
ज़िन्दगी को मनाने की भी
अपनी एक अदा होती है।
ठहर गये अगर
तो चुक जायेंगे
चलते रहने की भी
अपनी एक अदा होती है।
खड़े हैं आपकी प्रतीक्षा में,
चले आओ हमारे साथ,
ज़िन्दगी में संग संग
दूर-दूर तक
चलने की भी
अपनी एक अदा होती है।

 

गूंगी,बहरी, अंधी दुनिया

कान तो हम
पहले ही बन्द किये बैठे थे,
चलो आज आंख भी मूंद लेते हैं।
वैसे भी हमने अपने दिमाग से तो
कब का
काम लेना बन्द कर दिया है
और  दिल से सोचना-समझना।
हर बात के लिए
दूसरों की ओर  ताकते हैं।
दायित्वों से बचते हैं
एक ने कहा
तो किसी दूसरे से सुना।
किसी तीसरे ने देखा
और किसी चौथे ने दिखाया।
बस इतने से ही
अब हम
अपनी दुनिया चलाने लगे हैं।
अपने डर को
औरों के कंधों पर रखकर
बंहगी बनाने लगे हैं।
कोई हमें आईना न दिखाने लग जाये
इसलिए
काला चश्मा चढ़ा लिया है
जिससे दुनिया रंगीन दिखती है,
और हमारी आंखों में झांककर
कोई हमारी वास्तविकता
परख नहीं सकता।
या कहीं कान में कोई फूंक न मार दे
इसलिए “हैड फोन” लगा लिए हैं।
अब हम चैन की नींद सोते हैं,
नये ज़माने के गीत गुनगुनाते हैं।
हां , इतना ज़रूर है
कि सब बोल-सुन चुकें
तो जिसका पलड़ा भारी हो
उसकी ओर हम हाथ बढ़ा देते हैं।
और फिर चश्मा उतारकर
हैडफोन निकालकर
ज़माने के विरूद्ध
एक लम्बी तकरीर देते हैं
फिर एक लम्बी जम्हाई लेकर
फिर अपनी पुरानी

मुद्रा में आ जाते हैं।

पाप-पुण्य के लेखे में फंसे

इहलोक-परलोक यहीं,स्वर्ग-नरकलोक यहीं,जीवन-मरण भी यहीं

ज़िन्दगी से पहले और बाद कौन जाने कोई लोक है भी या नहीं

पाप-पुण्य के लेखे में फंसे, गणनाएं करते रहे, मरते रहे हर दिन

कल के,काल के डर से,आज ही तो मर-मर कर जी रहे हैं हम यहीं

 

बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ

इधर बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ

अभियान ज़ोरों पर है।

विज्ञापनों में भरपूर छाया है

जिसे देखो वही आगे आया है।

भ्रूण हत्याओं के विरूद्ध नारे लग रहे हैं

लोग इस हेतु

घरों से निकलकर सड़कों पर आ रहे हैं,

मोमबत्तियां जला रहे हैं।

लेकिन क्या सच में ही

बदली है हमारी मानसिकता !

प्रत्येक नवजात के चेहरे पर

बालक की ही छवि दिखाई देती है

बालिका तो कहीं

दूर दूर तक नज़र नहीं आती है।

इस चित्र में एक मासूम की यह छवि

किसी की दृष्टि में चमकता सितारा है

तो कहीं मसीहा और जग का तारणहार।

कहीं आंखों का तारा है तो कहीं राजदुलारा।

एक साधारण बालिका की चाह तो

हमने कब की त्याग दी है

अब हम लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा

की भी बात नहीं करते।

कभी लक्ष्मीबाई की चर्चा हुआ करती थी

अब तो हम उसको भी याद नहीं करते।

पी. टी. उषा, मैरी काम, सान्या, बिछेन्द्री पाल

को तो हम जानते ही नहीं

कि कहें

कि ईश्वर इन जैसी संतान देना।

कोई उपमाएं, प्रतीक नहीं हैं हमारे पास

अपनी बेटियों के जन्म की खुशी मनाने के लिए।

शायद आपको लग रहा होगा

मैं विषय-भ्रम में हूं।

जी नहीं,

इस नवजात को मैं भी देख रही हूं

एक चमकते सितारे की तरह

रोशनी से भरपूर।

किन्तु मैं यह नहीं समझ पा रही हूं

कि इस चित्र में सबको

एक नवजात बालक की ही प्रतीति

क्यों है

बालिका की क्यों नहीं।

लौट गये वे भटके-भटके

जिनको समझी थी मैं भूले-भटके, वे सब निकले हटके-हटके
ज्ञान-ध्यान वे बांट रहे थे, हम अज्ञानी रह गये अटके-अटके
पोथी बांची, कथा सुनाई, फिर दान-धर्म की बात समझाई
हमने भी अपनी कविता कह डाली, लौट गये वे भटके-भटके

एक फूल झरा

एक फूल झरा।

सबने देखा

रोज़ झरता था एक फूल

देखने के लिए ही

झरता थी फूल।

सबने देखा
और चले गये।

 

 

मन के आतंक के साये में

जिन्दगी

इतनी सरल सहज भी नहीं

कि जब चाहा

उठकर चहक लिए।

एक डर, एक खौफ़

के बीच घूमता है मन।

और यह डर

हर साये में है  रहता है अब।

ज़्यादा सुरक्षा में भी

असुरक्षा का

एहसास सालने लगा है अब।

संदेह की दीवारें, दरारें

बहुत बढ़ गई हैं।

अपने-पराये के बीच का भेद

अब टालने लगा है मन।

किस वेश में कौन मिलेगा

पहचान भूलता जा रहा है मन।

हाथ से हाथ मिलाकर

चलने का रास्ता भूलने लगे हैं

और अपनी अपनी राह

चलने लगे हैं हम।

और जब मन में पसरता है

अपने ही भीतर का आतंकवाद

तब अकेलापन सालता है मन।

आने वाली पीढ़ी को

अपनेपन, शांति, प्रेम, भाईचारे का

पाठ नहीं पढ़ाते हम।

सिखाते हैं उसे

जीवन में कैसे रहना है डर डर कर

अविश्वास, संदेह और बंद तालों में

उसे जीना सिखाते हैं हम।

मुठ्ठियां कस ली हैं

किसी से मिलने-मिलाने के लिए

हाथ नहीं बढ़ाते हैं हम।

बस हर समय

अपने ही मन के

आतंक के साये में जीते हें हम।

साहस है मेरा

साहस है मेरा, इच्छा है मेरी, पर क्यों लोग हस्तक्षेप करने चले आते हैं

जीवन है मेरा, राहें हैं मेरी, पर क्यों लोग “कंधा” देने चले आते हैं

अपने हैं, सपने हैं, कुछ जुड़ते हैं बनते हैं, कुछ मिटते हैं, तुमको क्या

जीती हूं अपनी शर्तों पर, पर पता नहीं क्यों लोग आग लगाने चले आते हैं

मन वन-उपवन में

यहीं कहीं

वन-उपवन में

घन-सघन वन में

उड़ता है मन

तिेतली के संग।

न गगन की उड़ान है

न बादलों की छुअन है

न चांद तारों की चाहत है

इधर-उधर

रंगों से बातें होती हैं

पुष्पों-से भाव

खिल- खिल खिलते हैं

पत्ती-पत्ती छूते हैं

तृण-कंटक हैं तो क्या,

वट-पीपल तो क्या,

सब अपने-से लगते हैं।

बस यहीं कहीं

आस-पास

ढूंढता है मन अपनापन

तितली के संग-संग

घूमता है मन

सुन्दर वन-उपवन में।

रिश्तों की अकुलाहट

बस कहने की ही तो  बातें हैं कि अगला-पिछला छोड़ो रे

किरचों से चुभते हैं टूटे रिश्ते, कितना भी मन को मोड़ो रे

पत्थरों से बांध कर जल में तिरोहित करती रहती हूं बार-बार

फिर मन में क्यों तर आते हैं, क्यों कहते हैं, फिर से जोड़ो रे

आशाओं की चमक

मन के गलियारों में रोशनी भी है और अंधेरा भी
कुछ आवाज़ें रात की हैं और कुछ दिखाती सवेरा भी
कभी सूरज चमकता है और कभी लगता है ग्रहण
आशाओं की चमक से टूटता है निराशाओं का घेरा भी

त्रिवेणी विधा में रचना २

चेहरे अब अपने ही चेहरे पहचानते नहीं

मोहरे अब चालें चलना जानते ही नहीं

रीति बदल गई है यहां प्रहार करने की