अनुप्रास अलंकार छन्दमुक्त रचना

अभी भी अक्तूबर में
ठहर ठहर कर
बेमौसम बारिश।
लौट लौट कर 
आती सर्दी।
और ये ओले 
रात फिर रजाई बाहर आई।
धुले कपड़े धूप में सुखाये।
पर खबरों ने खराब किया मन।
बेमौसम बारिश
बरबाद कर गई फ़सलें।
किसानों को कर्ज़
चुकाने में हुई चूक।
सरकार ने सदा की तरह
वो वादे किये
जो जानते थे सब
न निभायेगी सरकार
और टीवी वाले टंकार कर रहे हैं
नेताओं के निराले वादे।
और इस बीच
कितने किसानों ने
कड़वे आंसू पीकर
कर ली अपनी जीवन लीला समाप्त।
और हमने कागज़-कलम उठा ली
किसी कविता मंच पर
कविता लिखने के लिए।


 

महके हैं रंग

रंगों की आहट से खिली खिली है जिन्दगी
अपनों की चाहत से मिली मिली है जिन्दगी
बहके हैं रंग, चहके हैं रंग, महके हैं रंग,
 रंगों की रंगीनियों से हंसी हंसी है जिन्दगी

सूख गये सब ताल तलैया

न प्रीत, न मीत के लिए, न मिलन, न विरह के लिए
घट लाई थी पनघट पर जल भर घर ले जाने के लिए
न घटा आई, न जल बरसा, सूख गये सब ताल–तलैया
संभल मानव, कुछ तो अच्छा कर जा अगली पीढ़ी के लिए

ये गर्मी और ये उमस

ये गर्मी और ये उमस हर वर्ष यूं ही तपाती है
बिजली देती धोखा तर पसीने में काम करवाती है
फिर नखरे सहो सबके ये या वो क्यों नहीं बनाया
ज़रा आग के आगे खड़े तो हो,नानी याद करवाती है

 

एक संस्मरण आम का अचार

आम का अचार डालना भी
एक पर्व हुआ करता था परिवार में।
आम पर बूर पड़ने से पहले ही
घर भर में चर्चा शुरू हो जाती थी।
इतनी चर्चा, इतनी बात
कि होली दीपावली पर्व भी फीके पड़ जायें।
परिवार में एक शगुन हुआ करता था
आम का अचार।
इस बार कितने किलो डालना है अचार
कितनी तरह का।
कुतरा भी डलेगा, और गुठली वाला भी
कतौंरा  किससे लायेंगे
फिर थोड़ी-सी सी चटनी भी बनायेंगे।
तेल अलग से लाना होगा
मसाले मंगवाने हैं, धूप लगवानी है
पिछली बार मर्तबान टूट गया था
नया मंगवाना है।
तनाव में रहती थी मां
गर्मी खत्म होने से पहले
और बरसात शुरू होने से पहले
डालना है अचार।
और हम प्रतीक्षा करते थे
कब आयेंगे घर में अचार के आम।
और जब आम आ जाते थे घर में
सुच्चेपन का कर्फ्यू लग जाता था।
और हम आंख बचाकर
दो एक आम चुरा ही लिया करते थे
और चाहते थे कि दो एक आम
तो पके हुए निकल आयें
और हमारे हवाले कर दिये जायें।
लाल मिर्च और नमक लगाकर
धूप में बैठकर दांतों से गुठलियां रगड़ते
और मां चिल्लाती
“ओ मरी जाणयो दंद टुटी जाणे तुहाड़े”।
और जब नया अचार डल जाता था
तो पूरा घर एक आनन्द की सांस लेता था
और दिनों तक महकता था घर
और  जब नया अचार डल जाता था
तब दिनों दिनों तक महकता था घर
उस खुशनुमा एहसास और खुशबू से
और जब नया अचार डल जाता था
मानों कोई किला फ़तह कर लिया जाता था।
और उस रात बड़ी गहरी नींद सोती थी मां।

अब चिन्ता शुरू हो जाती थी
खराब न हो जाये
रोज़ धूप लगवानी है
सीलन से बचाना है
तेल डलवाना है।

फिर पता नहीं किस जादुई कोने से
पिछले साल के अचार का एक मर्तबान
बाहर निकल आता था।
मां खूब हंसती तब
छिपा कर रख छोड़ा था
आने जाने वालों के लिए
तुम तो एक गुठली नहीं छोड़ते।

तू लौट जा अपने ठौर

हे पंछी, प्रकृति प्रदत्त स्रोत छोड़कर तू कहां आया रे !

ये मानव निर्मित स्रोत हैं यहां न जल न छाया रे !

तृषित जग, तृषित भाव, तृषित मानव मन हैं यहां

तू लौट जा अपने ठौर,! न कर यहां जीवन जाया रे !

ये आंखें

मन के भीतर प्रवेश का द्वार हैं ये आंखें

सुहाने सपनों से सजा संसार हैं ये आंखें

होंठ बेताब हैं हर बात कह देने के लिए

शब्द को भाव बनने का आधार हैं ये आंखें

उसकी लेखी पढ़ी नहीं

कुछ पन्ने कोरे छोड़े थे कुछ रंगीन किये थे

कुछ पर मीठी यादें थीं कुछ गमगीन किये थे

कहते हैं लिखता है उपर वाला सब स्याह सफ़ेद

उसकी लेखी पढ़ी नहीं यही जुर्म संगीन किये थे

जिन्दगी के अफ़साने

लहरों पर डूबेंगे उतरेंगे, फिर घाट पर मिलेंगे

झंझावात है, भंवर है सब पार कर चलेंगे

मत सोच मन कि साथ दे रहा है कोई या नहीं

बस चलाचल,जिन्दगी के अफ़साने यूं ही बनेंगे

राधिके सुजान

अपनी तो हाला भी राधिके सुजान होती है

हमारी चाय भी उनके लिए मद्यपान होती है

कहा हमने चलो आज साथ-साथ आनन्द लें बोले

तुम्हारी सात की,हमारी सात सौ की कहां बात होती है

खुशियां अर्जित कर ले

परेशानियों की गठरी बांध गंगा में विसर्जित कर दे

व्याकुलताओं को कांट छांट गंगा में विसर्जित कर दे

कुछ देर के लिए छोड़ कर तो देख जिन्दगी के पचड़े

जो मन में आये कर, छोटी छोटी खुशियां अर्जित कर ले।

 

भीड़ का हिस्सा बन

अकेलेपन की समस्या से हम अक्सर परेशान रहते हैं

किन्तु भीड़ का हिस्सा बनने से भी तो कतराते हैं

कभी अपनी पहचान खोकर सबके बीच समाकर देखिए

किस तरह चारों ओर अपने ही अपने नज़र आते हैं

जीवन-दर्शन दे जाते हैं ये पत्थर

किसी छैनी हथौड़ी के प्रहार से नहीं तराशे जाते हैं ये पत्थर

प्रकृति के प्यार मनुहार, धार धार से तराशे जाते हैं ये पत्थर

यूं तो  ठोकरे खा-खाकर भी जीवन संवर-निखर जाता है

इस संतुलन को निहारती हूं तो जीवन डांवाडोल दिखाई देता है
मैं भाव-संतुलन नहीं कर पाती, जीवन-दर्शन दे जाते हैं ये पत्थर

देखो तो सूर्य भी निहारता है जब आकार ले लेते हैं ये पत्थर 

छोड़ के देख घूंट

कभी शाम ढले घर लौट, पर छोड़ के लालच के दो घूंट

द्वार पर टिकी निहारती दो आंखें हर पल पीती हैं दो घूंट

डरते हैं, रोते भी हैं पर  महकते भी हैं तेरी बगिया में फूल।

जिन्दगी सुहानी है हाथ की तेरे बात है बस छोड़ के देख घूंट।

 

रे मन अपने भीतर झांक

सागर से गहरे हैं मन के भाव, किसने पाई थाह

सीपी में मोती से हैं मन के भाव, किसने पाई थाह

औरों के चिन्तन में डूबा है रे मन अपने भीतर झांक

जीवन लभ्य हो जायेगा जब पा लेगा अपने मन की थाह

चांद को पाल पर बांध लिया

चांद को पाल पर बांध लिया है, ज़रा मेरी हिम्मत देखो

ध्वज फहराया है सागर बीच, ज़रा मैंने मेरी हिम्मत देखो

न आंधियां न तूफान न ज्वार भाटा न भंवर रोकती है मुझे

बांध कर सबको पाल में बहती हूं अनवरत,ज़रा मेरी हिम्मत देखो

इस जग की आपा-धापी में

उलट-पलट कर चित्र को देखो तो, डूबे हैं दोनों ही जल में

मेरी छोड़ो मैं तो डूबी, तुम उतरो ज़रा जग के प्रांगण में

इस जग की आपा-धापी में मेरे संग जीकर दिखला दो तो

गैया,मैया,दूध,दहीं,चरवाहे,माखन,भूलोगे सब पल भर में

 

जल की बूंदों का आचमन कर लें

सावन की काली घटाएं मन को उजला कर जाती हैं
सावन की झड़ी मन में रस-राग-रंग भर जाती है
पत्तों से झरते जल की बूंदों का आचमन कर लें
सावन की नम हवाएं परायों को अपना कर जाती हैं

ये त्योहार

ये त्योहार रोज़ रोज़, रोज़ रोज़ आयें

हम मेंहदी लगाएं वे ही रोटियां बनाएं

चूड़ियां, कंगन, हार नित नवीन उपहार

हम झूले पर बैठें वे संग झूला झुलाएं

 

कथा प्रकाश की

बुझा भी दोगे इस दीप की लौ को, प्रतिच्छाया मिटा न पाओगे

बूंद बूंद में लिखी जा चुकी है कथा प्रकाश की, मिटा न पाओगे

कांच की दीवार के आर हो या पार, सत्य तो सुरभित होकर रहेगा

बाती और धूम्र पहले ही लिख चुके इतिहास को, मिटा न पाओगे

कृष्ण आजा चक्र अपना लेकर

आज तेरी राधा आई है तेरे पास बस एक याचना लेकर

जब भी धरा पर बढ़ा अत्याचार तू आया है अवतार लेकर

काल कुछ लम्बा ही खिंच गया है हे कृष्ण ! अबकी बार

आज इस धरा पर तेरी है ज़रूरत, आजा चक्र अपना लेकर

विश्वास का एहसास

र दिन रक्षा बन्धन का-सा हो जीवन में

हर पल सुरक्षा का एहसास हो जीवन में

कच्चे धागों से बंधे हैं जीवन के सब रिश्ते

इन धागों में विश्वास का एहसास हो जीवन में

मदमस्त जिये जा

जीवन सरल सहज है बस मस्ती में जिये जा

सुख दुख तो आयेंगे ही घोल पताशा पिये जा

न बोल, बोल कड़वे, हर दिन अच्छा बीतेगा

अमृत गरल जो भी मिले हंस बोलकर लिये जा

कौन क्या कहता है भूलकर मदमस्त जिये जा

 

निरभिलाष कर्म का संदेश दिया था

माखन की हांडी ले बैठे रहना हर युग में, ऐसा मैंने कब बोला था

बस राधे राधे रटते रहना हर युग में, ऐसा मैंने कब बोला था

निरभिलाष कर्म का संदेश दिया था गीता में उसको कैसे भूले तुम

पत्थर गढ़ गढ़ मठ मन्दिर में बैठे रहना, ऐसा मैंने कब बोला था

द्वार खुले हैं तेरे लिए

विदा तो करना बेटी को किन्तु कभी अलविदा न कहना

समाज की झूठी रीतियों के लिए बेटी को न पड़े कुछ सहना

खीलें फेंकी थीं पीठ पीछे छूट गया मेरा मायका सदा के लिए

हर घड़ी द्वार खुले हैं तेरे लिए,उसे कहना,इस विश्वास में रहना

अपने कदम बढ़ाना

किसी के कदमों के छूटे निशान न कभी देखना

अपने कदम बढ़ाना अपनी राह आप ही देखना

शिखर तक पहुंचने के लिए बस चाहत ज़रूरी है

अपनी हिम्मत लेकर जायेगी शिखर तक देखना

हिन्दी की हम बात करें

शिक्षा से बाहर हुई, काम काज की भाषा नहीं, हम मानें या न मानें

हिन्दी की हम बात करें , बच्चे पढ़ते अंग्रेज़ी में, यह तो हम हैं जाने

विश्वगुरू बनने चले , अपने घर में मान नहीं है अपनी ही भाषा का

वैज्ञानिक भाषा को रोमन में लिखकर हम अपने को हिन्दीवाला मानें

ऋद्धि सिद्धि बुध्दि के नायक

वक्रतुण्ड , एकदन्त, चतुर्भुज, फिर भी रूप तुम्हारा मोहक है

शांत चित्त, स्थिर पद्मासन में बैठै प्रिय भोज तुम्हारा मोदक है

ऋद्धि सिद्धि बुध्दि के नायक, क्षुद्र मूषक को सम्मान दिया

शिव गौरी के सुत, मां के वचन हेतु अपना मस्तक बलिदान किया

शांत चित्त, स्थिर पद्मासन में बैठै जग का नित कल्याण किया

जीवन की नश्वरता का सार

अंगुलियों से छूने की कोशिश में भागती हैं ये ओस की बूंदें

पत्तियों पर झिलमिलाती, झूला झूलती हैं ये ओस की बूंदें

जीवन की नश्वरता का सार समझा जाती हैं ये ओस की बूंदें

मौसम बदलते ही कहीं लुप्त होने लगती हैं ये ओस की बूंदे

क्षणिक तृप्ति हेतु

घाट घाट का पानी पीकर पहुंचे हैं इस ठौर

राहों में रखते थे प्याउ, बीत गया वह दौर

नीर प्रवाह शुष्क पड़े, जल बिन तरसे प्राणी

क्षणिक तृप्ति हेतु कृत्रिम सज्जा का है दौर