निंदक नियरे राखिये
निंदक नियरे राखिये आँगन कुटी छवाय
बिन पानी साबुन बिना निर्मल होत सुभाय ..
उक्त दोहे की सप्रसंग व्याख्या
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यह बात सम्भवत: पन्द्रहवीं-सोहलवीं शती की है जब हमें निन्दक की तलाश हुआ करती थी। उस काल में निन्दक की नियुक्ति के क्या नियम थे नहीं ज्ञात। कहा जाता है कि राजा लोग अपने दरबार में निन्दक नियुक्त करते होंगे। आम जनता कहां निन्दक रख पाती होगी।
विचारणीय यह कि उस काल में वर्तमान की भांति रोज़गार कार्यालय नहीं हुआ करते थे। समाचार पत्र, दूरभाष, मोबाईल भी नहीं थे कि विज्ञापन दिया, अथवा एक नम्बर घुमाया और साक्षात्कार के लिये बुला लिया। फिर कैसे निन्दक नियरे रखते होंगे, कैसे ढूंढते होंगे एक अच्छा निन्दक, यही अनुसंधान का विषय है। कोई डिग्री, कोर्स का भी युग नहीं था फिर निन्दक के लिए क्या और कैसे मानदण्ड निर्धारित किये जाते होंगे। लिखित परीक्षा होती होगी अथवा केवल साक्षात्कार ही लिया जाता होगा। चिन्तित हूं, सोच-सोचकर इस सबके बारे में जबसे उक्त दोहा पढ़ा है।
किन्तु यह बात तथ्यपूर्वक कही जा सकती है कि यह दोहा मध्यकाल का नहीं है। कपोल-कल्पित कथाओं के अनुसार इस दोहे को मध्यकाल के भक्ति काल के किन्हीं कबीर दास द्वारा रचित दोहा बताया गया है। वैज्ञानिक एवं गहन अनुसंधान द्वारा यह तथ्य प्रमाणित है कि भक्ति काल में साबुन का आविष्कार नहीं हुआ था। और यदि था तो कौन सा साबुन बिना पानी के प्रयोग किया जाता होगा।
अब इसे वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखते हैं।
आधुनिक काल में इस पद की कोई आवश्यकता ही नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति के भीतर एक सजग निन्दक है, जिसे पानी, साबुन की भी आवश्यकता नहीं है। एक ढूंढो, हज़ार मिलते हैं।
इसी अवसर पर हम अपने भीतर झांकते हैं।
निष्कर्ष :
इस कारण यह दोहा प्राचीन एवं अवार्चीन दोनों ही कालों में अर्थहीन, महत्वहीन है।
आदरणीय गणेश जी,सादर प्रणाम !
आपसे मन की बात कहना चाहती हूं। वैसे तो बहुत से भगवान हैं, शायद 33 करोड़, या उससे भी अधिक, किन्तु आजकल गणेश-चतुर्थी की धूम है, आप घर-घर पधारे हैं, इसलिए अपने मन की दुविधा आपके ही साथ बांटना चाहती हूं।
हमारे देश में पिछले कुछ वर्षों से भगवानों की महिमा बहुत बढ़ गई है। आप भी उनमें से एक हैं।
मेरे न्यूनतम् ज्ञान के अनुसार 1893 के पहले गणपति उत्सव केवल घरों तक ही सीमित था । श्री बाल गंगाधर तिलक ने 1893 में अंग्रेजों के विरूद्ध भारतीयों को स्वाधीनता संग्राम से जोड़ने के लिए महाराष्ट्र में इस उत्सव को माध्यम बनाया था। इस कथा से मुझे यह ज्ञान प्राप्त हुआ कि आपने और आपके उत्सव ने भी हमें स्वाधीन करवाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
आपके एक उत्सव ने देश को स्वाधीनता की राह प्रदान की थी। नमन करती हूं आपको।
एक अन्य कथा के अनुसार आपने सिंधु नामक दानव का वध करने के लिए मयूर को अपने वाहन के रूप में चुना था और छ: भुजाओं वाला अवतार धारण किया था। इसी कारण गणपति बप्पा मोरया अगले बरस तू जल्दी आ का जयकारा लगाया जाता है।
उस काल में आपके एक स्वरूप ने ही कितने बड़े कार्य कर दिये, वर्तमान में भारत को स्वाधीन करने में अपना महत्त योगदान दिया, अब तो हर वर्ष आप लाखों-लाखों की संख्या में अवतरित होते हैं, आपको नहीं लगता कि अभी भी इस देश में आपके कुछ ऐसे रूपों की आवश्यकता है जो कुछ सकारात्मक परिवर्तन लेकर आयें। देश भ्रष्टाचार, आतंकवाद, जाति-पाति, घूसखोरी, छल-कपट, और न जाने कितनी ऐसी समस्याओं से जूझ रहा है जो देश को प्रगति के पथ पर बढ़ने से रोक रही हैं। जब आप हर वर्ष आते हैं, इन समस्याओं की ओर आपका ध्यान नहीं जाता ? दस दिन तक वेद-व्यास के महाभारत की तरह कथा तो पूरी सुन लेते हैं फिर विसर्जित होकर चले जाते हैं।
यह मान्यता भी है कि वेद व्यास जी ने महाभारत की कथा भगवान गणेश जी को गणेश चतुर्थी से लेकर अनन्त चतुर्थी तक लगातार 10 दिन तक सुनाई थी। जब वेद व्यास जी ने कथा पूरी कर अपनी आंखें खोली तो उन्होंने देखा कि लगातार 10 दिन से कथा यानी ज्ञान की बातें सुनते-सुनते गणेश जी का तापमान बहुत ही अधिक बढा गया है, अत: उन्होंने आपको कुंड में डुबकी लगवाई, जिससे आपके शरीर का तापमान कम हुआ।
इसलिए मान्यता ये है कि गणेश स्थापना के बाद से अगले 10 दिनों तक भगवान गणपति लोगों की इच्छाऐं सुन-सुनकर इतना गर्म हो जाते हैं, कि चतुर्दशी को बहते जल, तालाब या समुद्र में विसर्जित करके उन्हें फिर से शीतल यानी ठण्डा किया जाता है।
आपके नाम से जब कोई गोबर गणेश अथवा मिट्टी का माधो कहकर व्यंग्य करता है तो मुझे बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता। फिर अब तो आपके नाम से धर्म के नाम से कितना जल-प्रदूषण फैलाया जा रहा है, देख ही रहें होंगे आप !!
ओहो ! भूल हो गई गणेश जी। क्षमा !!
जब हमारा ही ध्यान नहीं है तो आपका ध्यान कैसे जायेगा। आह्वान तो हमें करना होगा न अपने भीतर से, अपने भाव से, अपनी क्षमता से, तभी तो आपको ज्ञात होगा कि करना क्या है। और यह तो आप समझा नहीं सकते, हमें स्वयं ही समझना होगा।
किसी परिवर्तन के लिए दस दिन कम नहीं होते।
काश ! अगले वर्ष आपके आगमन एवं विसर्जन के बीच हम यह सब समझ सकें और एक सकारात्मक परिवर्तन की ओर अग्रसर हो सकें।
प्रणाम्
बाल-मजदूरी का एक श्रेष्ठि रूप
समाज, सरकार, समाजसेवी संस्थाएं बहुत चिन्तन-मनन करती हैं इस बाल-मजदूरी को रोकने के लिए। शिक्षा, रोटी की बड़ी-बड़ी बातें होती हैं इनके लिए। ढाबों, होटलों, बस-अड्डों, रेलवे-स्टेशन, घरों एवं ऐसे ही अनेक स्थानों पर कार्य करते छोटे-छोटे बच्चों को देखा जा सकता है। वे किसके बच्चे हैं, क्यों कार्य कर रहे हैं, वे किन अभावों में जीवन व्यतीत कर रहे हैं हम में से कोई नहीं जानता। लेकिन वे भीख नहीं मांगते, मेहनत करते हैं। शायद कोई भी माता-पिता अपने बच्चों को इस तरह के कामों में नहीं डालना चाहते होंगे जब तक कि सामाजिक-आर्थिक विवशता न हो। सम्भव है कुछ बच्चे किसी गिरोह के शिकार बन कर ऐसे कार्य करते हों।
किन्तु जब ऐसे बाल-मजदूरों को उनके काम से हटा दिया जाता है तब वे कैसे जीवन-यापन करते हैं, नहीं पता। क्या उनका पुर्नवास होता है, क्या वे शिक्षा प्राप्त करने लगते हैं, क्या उन्हें भरपेट भोजन मिलने लगता है, नहीं पता। हां, इतना तो हम जानते ही हैं कि जिन पुनर्वास संस्थानों में उन्हें रखा जाता है वहां भी उनसे काम ही लिया जाता है। अनाथालयों में भी इनका शोषण ही होता है।
यह बाल-मजदूरी का वह रूप है जिस पर खूब चर्चाएं, गोष्ठियां होती हैं, चिन्तन होता है और लिखा-पढ़ा जाता है।
किन्तु बाल-मजदूरी का एक श्रेष्ठि रूप भी है जिस पर कभी कोई बात, चर्चा, विरोध नहीं होता।
जो बच्चे फिल्मों, धारावाहिकों, विज्ञापनों, टी.वी. कार्यक्रमों, विभिन्न प्रतियोगिताओं में दिनों, महीनों, सालों काम करते हैं क्या वह केवल कला है, अथवा बाल-मज़दूरी का दूसरा रूप ?यहां की चमक-दमक, प्रलोभन, नाम, प्रचार, आकर्षण में बांधते हैं, विशेषकर निर्धन परिवारों को। इन बाल- प्रतियोगिताओं में निर्धन परिवारों से आये बच्चों की बेचारगी का खूब प्रदर्शन और प्रचार होता है, टी.आर.पी. बढ़ती है। उनकी आर्थिक मदद का भी प्रचार होता है, बढ़िया खरीदारी करवाई जाती है, उनके घर की बदलती आर्थिक स्थिति का भी प्रदर्शन होता है।
लाखों में एक बच्चा तो आगे निकल जाता है किन्तु जो पिछड़ जाते हैं उनका क्या होता है, कौन जाने। बहुत पहले इन कार्यक्रमों में पराजित बच्चों की आत्महत्या के समाचार भी पढ़ने में आये थे। इन कार्यक्रमों में विजित बच्चों को इतना महिमा-मण्डित किया जाता है कि कोई भी आकर्षित हो जाये और पराजित बच्चे इतना निरादर अनुभव करते हैं कि वे और उनका परिवार इस तरह रोते-बिलखते हैं मानों कोई बड़ा हादसा हो गया हो। इस चकाचैंध से निकले बच्चे क्या लौटकर अपने सामान्य मध्यवर्गीय जीवन से जुड़ पाते हैं अथवा बिखर कर रह जाते हैं। दिन -प्रति-दिन यह कार्यक्रम, प्रतियोगिताएं न रहकर, कला का मंच न रहकर, केवल धन ही नहीं विलासिता का रूप ले चुके हैं।
विश्वास-अविश्वास के बीच झूलता मन
कुछ समय पूर्व मेरी अपनी महिला सहकर्मी से चर्चा हुई फेसबुक मित्रों पर, जो मेरी फेसबुक मित्र भी है।
उसने बताया कि उसके फेसबुक मित्रों में केवल परिवार के अथवा पूर्व परिचित लोग ही हैं, कोई भी अपरिचित नहीं है जिसे उसने फेसबुक पर ही मित्र बनाया हो एवं अपरिचित हो।
मैंने बताया कि एक अपने पुत्र, उसके मित्र एवं कुछ महिला मित्रों के अतिरिक्त मेरी मित्र सूची में अधिकांश अपरिचित हैं जिन्हें मैंने फेसबुक पर ही मित्र बनाया है। अलग से उनसे न तो कोई पारिवारिक, मैत्री सम्बन्ध है और न ही कोई पूर्व परिचय। एेसे ही कुछ समूहों की भी सदस्य हूं और वहां भी कोई पूर्व परिचित नहीं है।
फिर मैंने और जानने का प्रयास किया तो जाना कि अधिकांश महिलाओं की मित्र सूची में परिवार के अथवा पूर्व परिचित लोग ही हैं। अर्थात वे अपने सामाजिक, पारिवारिक जीवन में, मोबाईल, वाट्स एप पर भी उनसे निरन्तर सम्पर्क में हैं और वे ही फेसबुक पर भी हैं।
फिर फेसबुक पर उनके लिए नया क्या ?
क्या हमें सत्य ही इतना डर कर रहना चाहिए जितना डराया जाता है।
क्यों हम सदैव ही किसी अपरिचित को अविश्वास की दृष्टि से ही देखे ?
जीवन में यदि हम अपरिचितों की उपेक्षा, संदेह, दूरियां ही बनाये रखेंगे तो समाज कैसे चलेगा।
सचेत रहना अलग बात है, अकारण संदेह में रहना अलग बात।
हांजी बजट बिगड़ गया
हांजी , बजट बिगड़ गया। सुना है इधर मंहगाई बहुत हो गई है। आलू पच्चीस रूपये किलो, प्याज भी पच्चीस तीस रूपये किलो और टमाटर भी। अब बताईये भला आम आदमी जाये तो जाये कहां और खाये तो खाये क्या। अब महीने में चार पांच किलो प्याज, इतने ही आलू टमाटर का तो खर्चा हो ही जाता है।सिलेंडर भी शायद 14_16 रूपये मंहगा हो रहा है। कहां से लाये आम आदमी इतने पैसे , कैसे भरे बच्चों का पेट और कैसे जिये इस मंहगाई के ज़माने में।
घर में जितने सदस्य हैं उनसे ज़्यादा मोबाईल घर में हैं। बीस पच्चीस रूपये महीने के नहीं, हज़ारों के। और हर वर्ष नये फीचर्स के साथ नया मोबाईल तो लेना ही पड़ता है। यहां मंहगाई की बात कहां से आ गई। हर मोबाईल का हर महीने का बिल हज़ार पंद्रह सौ रूपये तो आ ही जाता है। नैट भी चाहिए। यह तो आज के जीवन की मूलभूत आवश्यकताएं हैं। जितने सदस्य उतनी गाड़ियां। और एक “फोर व्हीलर” भी रखना ही पड़ता है। अब समय किसके पास है कि एक दूसरे को लिफ्ट दें सबका अपना अपना समय और सुविधाएं। और स्टेटस भी तो कोई चीज़ है। अब पैट्रोल पर महीने का पांच सात हज़ार खर्च हो भी जाता है तो क्या। 18 वर्ष से छोटे बच्चों को तो आजकल गाड़ी देनी ही पड़ती है। साईकिल का युग तो रह नहीं गया। चालान होगा तो भुगत लेंगे। कई तरीके आते हैं। अब यहां मंहगाई कहां से आड़े आ गई। हर महीने एक दो आउटिंग तो हो ही जाती है। अब घर के चार पांच लोग बाहर घूमने जाएंगे , खाएंगे पीयेंगे तो पांच सात हज़ार तो खर्च हो ही जाता है। भई कमा किस लिए रहे हैं। महीने में एकाध फिल्म। अब जन्मदिन अथवा किसी शुभ दिन पर हलवा पूरी का तो ज़माना रह नहीं गया। अच्छा आयोजन तो करना ही पड़ता है। हज़ारों नहीं, लाखों में भी खर्च हो सकता है। तब क्या। और मरण_पुण्य तिथि पर तो शायद इससे भी ज़्यादा। और शादी_ब्याह की तो बात ही मत कीजिए, आजकल तो दस बीस लाख से नीचे की बात ही नहीं है।
लेकिन आलू प्याज टमाटर मंहगा हो गया है। बजट बिगड़ गया।
निःस्वार्थ था उनका बलिदान
ये वे नाम हैं
जिन्हें हम स्मरण करते हैं
बस किसी एक दिन,
उनकी वीरता, साहस,
देश भक्ति और बलिदान।
विदेशी आक्रांताओं से मुक्ति,
स्वाधीन, महान भारत का सपना
हमें देकर गये।
निःस्वार्थ था उनका बलिदान
वे केवल जानते थे
हमारा भारत महान
और हर नागरिक समान।
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देशभक्ति क्या होती है
क्या होता है बलिदान,
काश! हम समझ पाते।
तो आज
न बहता सड़कों पर रक्त
न पूछते हम जाति
न करते किसी धर्म-अधर्म की बात
न पत्थर चिनते,
न दीवारें बनाते,
बस इंसानियत को जीते
और इंसानियत को समझते।
किसी ने कहा था
अच्छा हुआ
आज गांधी ज़िन्दा नहीं हैं
नहीं तो वे
सच को इस तरह सड़कों पर
मरता देख बहुत रोते।
अच्छा हुआ
इनमें से कोई आज ज़िन्दा नहीं है,
वे हमारी सोच देख
सच में ही मर जाते।
** ** ** **
ऐसा क्या हुआ
कि हम
इन्हें अपने भीतर
ज़िन्दा नहीं रख पाये।
सपना देखने में क्या जाता है
कोई भी उड़ान
इतनी सरल नहीं होती
जितनी दिखती है।
बड़ा आकर्षित करता है
आकाश को चीरता यान।
रंगों में उलझता।
दोनों बाहें फैलाये
आकाश को
हाथों से छू लेने की
एक नाकाम कोशिश,
अक्सर
मायूस तो करती है,
लेकिन आकाश में
चमकता चांद !
कुछ सपने दिखाता है
पुकारता है
साहस देता है,
चांद पर
घर बसाने का सपना
दिखाता है,
जानती हूं , कठिन है
असम्भव-प्रायः
किन्तु सपना देखने में क्या जाता है।
हर चीज़ मर गई अगर एहसास मर गया
मेरी आंखों के सामने
एक चिड़िया तार में फंसी,
उलझी-उलझी,
चीं-चीं करती
धीरे-धीरे मरती रही,
और हम दूर खड़े बेबस
शायद तमाशबीन से
देख रहे थे उसे
वैसे ही
धीरे-धीरे मरते।
तभी
चिड़ियों का एक दल
कहीं दूर से
उड़ता आया,
और उनकी चिड़चिडाहट से
गगन गूंज उठा,
रोंगटे खड़े हो गये हमारे,
और दिल दहल गया।
उनके प्रयास विफ़ल थे
किन्तु उनका दर्द
धरा और गगन को भेदकर
चीत्कार कर उठा था।
कुछ देर तक हम
देखते रहे, देखते रहे,
चिड़िया मरती रही,
चिड़ियां रूदन करती रहीं,
इतने में ही
कहीं से एक बाज आया,
चिड़ियों के दल को भेदता,
तार में फ़ंसी चिड़िया के पैर खींचे
और ले उड़ा,
कुछ देर चर्चा करते रहे हम।
फिर हम भीतर आकर
टी. वी. पर
दंगों के समाचारों का
आनन्द लेने लगे।
क्रूरता की कोई सीमा नहीं ।
हर चीज़ मर गई
अगर एहसास मर गया।
पत्थरों के भीतर भी पिघलती है जिन्दगी
प्यार मनुहार धार-धार से संवरती है जिन्दगी
मन ही क्या पत्थरों के भीतर भी पिघलती है जिन्दगी
यूं तो ठोकरे खा-खाकर भी जीवन संवर जाता है
यही तो भाव हैं कि सिर पर सूरज उगा लेती है जिन्दगी
मानसिकता कहां बदली है
मांग भर कर रखना बेटी, सास ससुर की सब सहना बेटी
शिक्षा, स्वाबलम्बन भूलकर बस चक्की चूल्हा देखना बेटी
इस घर से डोली उठे, उस घर से अर्थी, मुड़कर न देखना कभी
कहने को इक्कीसवीं सदी है, पर मानसिकता कहां बदली है बेटी
सपनों की बात न करना यारो मुझसे
आंखों में तिरते हैं, पलकों में छिपते हैं
शब्दों में बंधते हैं, आहों में कटते हैं
सपनों की बात न करना यारो मुझसे
सांसों में बिंधते हैं, राहों में चुभते हैं।
कोहरे की ओट में
कोहरे की ओट में ज़िन्दगी ठहर सी गई है
आकाश और धरा एकमेक होकर रह गई है
न सूरज निकलता है न चांद-तारे दिखते हैं
प्रकाश राह ढूंढता, मेरी किरण कहां रह गई है
कोहरे का कोहराम है
कोहरे का कोहराम है, हमें तो आराम है
छुट्टी मना रहे, घर में कहां कोई जाम है
आग तापते, जब मन चाहे सोते-जागते
कौन पूछने वाला, मनमर्जी से करते काम हैं
रंगों की दुनिया बड़ी निराली है
सुनते हैं इन्द्रधनुष के सप्त रंगों में श्वेताभा रहती है,
कैसे कह दूं इन रंगीनियों के पीछे कोई आस रहती हैं
रंगों की दुनिया बड़ी निराली है कौन कहां समझ पाया,
रंगों क भी भाव होते हैं, इतनी समझ हमें कहां आ पाती है।
विनाश प्रकृति का नियम है
ह्रास से न डर, उत्पत्ति प्रकृति का नियम है
पीत पत्र झड़ गये, नवपल्लव आना नियम है
‘गर विनाश लीला तूने मचाई अपने लाभ के लिए
तो समझ ले तेरा विनाश भी प्रकृति का नियम है
सही-गलत को मापने का साहस रखना चाहिए
विनाश के लिए न बम चाहिए न हथियार चाहिए
विनाश के लिए बस मन में नकारात्मक भाव चाहिए
सोच-समझ कुंद हो गई, सच समझने से डरने लगे
सही-गलत को मापने का तो साहस रखना चाहिए
प्रीत,रीत,मनमीत,विश्वास सब है अभी भी यहां
बेवजह व्याकुल रहने की आदत सी हो गई है
बेवजह बुराईयां जताने की आदत सी हो गई है
प्रीत,रीत,मनमीत,विश्वास सब है अभी भी यहां
बेवजह इनको नकारने की आदत सी हो गई है।
गहरे सागर में डूबे थे
सपनों की सुहानी दुनिया नयनों में तुमने ही बसाई थी
उन सपनों के लिए हमने अपनी हस्ती तक मिटाई थी
गहरे सागर में डूबे थे उतरे थे माणिक मोती के लिए
कब विप्लव आया और कब तुमने मेरी हस्ती मिटाई थी
रंगों की चाहत में बीती जिन्दगी
रंगों की भी अब रंगत बदलने लगी है
सुबह भी अब शाम सी ढलने लगी है
इ्द्र्षधनुषी रंगों की चाहत में बीती जिन्दगी
अब इस मोड़ पर आकर क्यों दरकने लगी है।
अर्थ को अभिव्यक्ति
मौन को शब्द दूं
शब्द को अर्थ
और अर्थ को अभिव्यक्ति
न जाने राह में
कब कौन समझदार मिल जाये।
होंठों ने चुप्पी साधी थी
आंखों ने मन की बात कही
आंखों ने मन की बात सुनी
होंठों ने चुप्पी साधी थी
जाने, कैसे सब जान गये।
रोशनी का बस एक तीर
रोशनी का बस एक तीर निकलना चाहिए
छल-कपट और पाप का घट फूटना चाहिए
तुम राम हो या रावण, कर्ण हो या अर्जुन
बस दुराचारियों का साहस तार-तार होना चाहिए
हर घड़ी सुख बाँटती है ज़िंदगी
शून्य से सौ तक निरंतर दौड़ती है ज़िंदगी !
और आगे क्या , यही बस खोजती है ज़िंदगी !
चाह में कुछ और मिलने की सभी क्यों जी रहे –
देखिये तो हर घड़ी सुख बाँटती है ज़िंदगी !
बंधनों का विरोध कर
जीवन बड़ा सरल सहज अपना-सा हो जाता है
रूढ़ियों के प्रतिकार का जब साहस आ जाता है
डरते रहते हैं हम यूं ही समाज की बातों से
बंधनों का विरोध कर मन तुष्टि पा जाता है
सत्ता की चाहत है बहुत बड़ी
साईकिल, हाथी, पंखा, छाता, लिए हाथ में खड़े रहे
जब से आया झाड़ूवाला सब इधर-उधर हैं दौड़ रहे
छूट न जाये,रूठ न जाये, सत्ता की चाहत है बहुत बड़ी
देखेंगे गिनती के बाद कौन-कौन कहां-कहां हैं गढ़े रहे
सूरज गुनगुनाया आज
सूरज गुनगुनाया आज
मेरी हथेली में आकर,
कहने लगा
चल आज
इस तपिश को
अपने भीतर महसूस कर।
मैं न कहता कि आग उगल।
पर इतना तो कर
कि अपने भीतर के भावों को
आकाश दे,
प्रभात और रंगीनियां दे।
उत्सर्जित कर
अपने भीतर की आग
जिससे दुनिया चलती है।
मैं न कहता कि आग उगल
पर अपने भीतर की
तपिश को बाहर ला,
नहीं तो
भीतर-भीतर जलती यह आग
तुझे भस्म कर देगी किसी दिन,
देखे दुनिया
कि तेरे भीतर भी
इक रोशनी है
आस है, विश्वास है
अंधेरे को चीर कर
जीने की ललक है
गहराती परछाईयों को चीरकर
सामने आ,
अपने भीतर इक आग जला।
विश्वास के लायक कहीं कोई मिला नहीं था
जीवन में क्यों कोई हमारे हमराज़ नहीं था
यूं तो चैन था, हमें कोई एतराज़ नहीं था
मन चाहता है कि कोई मिले, पर क्या करें
विश्वास के लायक कहीं कोई मिला नहीं था
शायद प्यार से मन मिला नहीं था
यूं तो उनसे कोई गिला नहीं था
यादों का कोई सिला नहीं था
कभी-कभी मिल लेते थे यूं ही
शायद प्यार से मन मिला नहीं था
न स्वर्ण रहा न स्वर्णाभा रही
कुन्दन अब रहा किसका मन
बहके-बहके हैं यहां कदम
न स्वर्ण रहा न स्वर्णाभा रही
पारस पत्थर करता है क्रन्दन
पूजने के लिए बस एक इंसान चाहिए
न भगवान चाहिए न शैतान चाहिए
पूजने के लिए बस एक इंसान चाहिए
क्या करेगा किसी के गुण दोष देखकर
मान मिले तो मन से प्रतिदान चाहिए