वसुधैव कुटुम्बकम्

एक आस हो, विश्वास हो, बस अपनेपन का भास हो

न दूरियां हो, न संदेह की दीवार, रिश्तों में उजास हो

जीवन जीने का सलीका ही हम शायद भूलने लगे हैं

नि:स्वार्थ, वसुधैव कुटुम्बकम् का एक तो प्रयास हो

आज भी वहीं के वहीं हैं हम

कहां छूटा ज़माना पीछे, आज भी वहीं के वहीं हैं हम

न बन्दूक है न तलवार दिहाड़ी पर जा रहे हैं हम

नज़र बदल सकते नहीं किसी की कितनी भी चाहें

ये आत्म रक्षा नहीं जीवन यापन का साधन लिए हैं हम

स्वप्न हों साकार

तुम बरसो, मैं थाम लूं मेह की रफ्तार

न कहीं सूखा हो न धरती बहे धार धार

नदी, कूप, सर,निर्झर सब हों अमृतमय

शस्यश्यामला धरा पर स्वप्न  हों साकार

आवागमन में बीत जाता है सारा जीवन

झुलसते हैं पांव, सीजता है मन, तपता है सूरज, पर प्यास तो बुझानी है

न कोई प्रतियोगिता, न जीवटता, विवशता है हमारी, बस इतनी कहानी है

इसी आवागमन में बीत जाता है सारा जीवन, न कोई यहां समाधान सुझाये

और भी पहलू हैं जिन्दगी के, न जानें हम, बस इतनी सी बात बतानी है

थक गई हूं इस बनावट से

जीवन में
और भी बहुत रोशनियां हैं
ज़रा बदलकर देखो।
सजावट की
और भी बहुत वस्तुएं हैं
ज़रा नज़र हटाकर देखो।
प्रेम, प्रीत, अश्रु, सजन
विरह, व्यथा, श्रृंगार,
इन सबसे हटकर
ज़रा नज़र बदलकर देखो,
थक गई हूं
इस बनावट से
ज़रा मुझे भी
आम इंसान बनाकर देखो।

पाषाणों में पढ़ने को मिलती हैं

वृक्षों की आड़ से

झांकती हैं कुछ रश्मियां

समझ-बूझकर चलें

तो जीवन का अर्थ

समझाती हैं ये रश्मियां

मन को राहत देती हैं

ये खामोशियां

जीवन के एकान्त को

मुखर करती हैं ये खामोशियां

जीवन के उतार-चढ़ाव को

समझाती हैं ये सीढ़ियां

दुख-सुख के पल आते-जाते हैं

ये समझा जाती हैं ये सीढ़ियां

पाषाणों में

पढ़ने को मिलती हैं

जीवन की अनकही कठोर दुश्वारियां

समझ सकें तो समझ लें

हम ये कहानियां

अपनेपन से बात करती

मन को आश्वस्त करती हैं

ये तन्हाईयां

अपने लिए सोचने का

समय देती हैं ये तन्हाईयां

और जीवन में

आनन्द दे जाती हैं

छू कर जातीं

मौसम की ये पुरवाईयां

जब बजता था डमरू

कहलाते शिव भोले-भाले थे 
पर गरल उन्होंने पिया था
नरमुण्डों की माला पहने,
विषधर उनके आभूषण थे 
भूत-प्रेत-पिशाच संगी-साथी
त्रिशूल हाथ में लिया था
त्रिनेत्र खोल जब बजता था डमरू 
तीनों लोकों के दुष्टों का 
संहार उन्होंने किया था
चन्द्र विराज जटा पर,
भागीरथी को जटा में रोक
विश्व को गंगामयी किया था। 
भांग-धतूरा सेवन करते
भभूत लगाये रहते थे।
जग से क्‍या लेना-देना
सुदूर पर्वत पर रहते थे।
 *     *     *     *
अद्भुत थे तुम शिव
नहीं जानती 
कितनी कथाएं सत्य हैं
और कितनी कपोल-कल्पित 
किन्तु जो भी हैं बांधती हैं मुझे। 
*      *     *     *     *
तुम्हारी कथाओं से
बस 
तुम्हारा त्रिनेत्र, डमरू 
और त्रिशूल चाहिए मुझे
शेष मैं देख लूंगी ।

संधान करें अपने भीतर के शत्रुओं का

ऐसा क्यों होता है

कि जब भी कोई गम्भीर घटना

घटती है कहीं,

देश आहत होता है,

तब हमारे भीतर

देशभक्ति की लहर

हिलोरें  लेने लगती है,

याद आने लगते हैं

हमें वीर सैनिक

उनका बलिदान

देश के प्रति उनकी जीवनाहुति।

हुंकार भरने लगते हैं हम

देश के शत्रुओं के विरूद्ध,

बलिदान, आहुति, वीरता

शहीद, खून, माटी, भारत माता

जैसे शब्द हमारे भीतर खंगालने लगते हैं

पर बस कुछ ही दिन।

दूध की तरह

उबाल उठता है हमारे भीतर

फिर हम कुछ नया ढूंढने लगते हैं।

और मैं

जब भी लिखना चाहती हूं

कुछ ऐसा, 

नमन करना चाहती हूं

देश के वीरों को

बवंडर उठ खड़ा होता है

मेरे चारों ओर

आवाज़ें गूंजती हैं,

पूछती हैं मुझसे

तूने क्या किया आज तक

देश हित में ।

वे देश की सीमाओं पर

अपने प्राणों की आहुति दे रहे हैं

और तुम यहां मुंह ढककर सो रहे हो।

तुम संधान करो उन शत्रुओं का

जो तुम्हारे भीतर हैं।

शत्रु और भी हैं देश के

जिन्हें पाल-पोस रहे हैं हम

अपने ही भीतर।

झूठ, अन्याय के विरूद्ध

एक छोटी-सी आवाज़ उठाने से डरते हैं हम

भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी अनैतिकता

के विरूद्ध बोलने का

हमें अभ्यास नहीं।

काश ! हम अपने भीतर बसे

इन शत्रुओं का दमन कर लें

फिर कोई बाहरी शत्रु

इस देश की ओर

आंख उठाकर नहीं देख पायेगा।

काश ! हम कोई शिला होते

पत्थरों में प्यार तराशते हैं

और जिह्वा को कटार बनाये घूमते हैं।

छैनी जब रूप-आकार तराशती है

तब एक संसार आकार लेता है।

तूलिका जब रंग बिखेरती है

तब इन्द्रधनुष बिखरते हैं।

किन्तु जब हम

अन्तर्मन के भावों को

रूप-आकार, रंगों का संसार

देने लगते हैं,

सम्बन्धों को तराशने लगते हैं

तब न जाने कैसे

छैनी-हथौड़े

तीखी कटार बन जाते हैं,

रंग उड़ जाते हैं

सूख जाते हैं।

काश हम भी

वास्तव में ही कोई शिला होते

कोई तराशता हमें,

रूप-रंग-आकार देता

स्नेह उंडेलता

कोई तो कृति ढलती,

कोई तो आकृति सजती।

कौन जाने

फिर रंग भी रंगों में आ जाते

और छैनी-हथौड़ी भी

सम्हल जाते।

 

वर्षा ऋतु पर हाईकू

पानी बरसा

चांद-सितारे डूबे

गगन हंसा

*********

पानी बरसा

धरती भीगी-भीगी

मिट्टी महकी

***********

पानी बरसा

अंकुरण हैं फूटे

पुष्प महके

************

पानी बरसा

बूंद-बूंद टपकती

मन हरषा

************

पानी बरसा

अंधेरा घिर आया

चिड़िया फुर्र

**************

पानी बरसा

मन है आनन्दित

तुम ठिठुरे

खैरात में मिले, नाम बाप के मिले

शिक्षा की मांग कीजिए, प्रशिक्षण की मांग कीजिए, तभी बात बन पायेगी

खैरात में मिले, नाम  बाप के मिले, कोई नौकरी, न बात कभी बन पायेगी

मन-मन्दिर में न अपनेपन की, न प्रेम-प्यार की, न मधुर भाव की रचना है

द्वेष-कलह,वैर-भाव,मार-काट,लाठी-बल्लम से कभी,कहीं न बात बन पायेगी

एक अजीब भटकाव है मेरी सोच में

एक अजीब भटकाव है मेरी सोच में

मेरे दिमाग में।

आपसे आज साझा करना चाहती हूं।

असमंजस में रहती हूं।

बात कुछ और चल रही होती है

और मैं कुछ और अर्थ निकाल लेती हूं।

अब आज की ही बात लीजिए।

नवरात्रों में

मां की चुनरी की बात हो रही थी

और मुझे होलिका की याद हो आई।

अब आप इसे मेरे दिमाग की भटकन ही तो कहेंगे।

लेकिन मैं क्या कर सकती हूं।

जब भी चुनरी की बात उठती है

मुझे होलिका जलती हुई दिखाई देती है,

और दिखाई देती है उसकी उड़ती हुई चुनरी।

कथाओं में पढ़ा है

उसके पास एक वरदान की चुनरी थी ।

शायद वैसी ही कोई चुनरी

जो हम कन्याओं का पूजन करके

उन्हें उढ़ाते हैं और आशीष देते हैं।

किन्तु कभी देखा है आपने

कि इन कन्याओं की चुनरी कब, कहां

और कैसे कैसे उड़ जाती है।

शायद नहीं।

क्योंकि ये सब किस्से कहानियां

इतने आम हो चुके हैं

कि हमें इसमें कुछ भी अनहोनी नहीं लगती।

देखिए, मैं फिर भटक गई बात से

और आपने रोका नहीं मुझे।

बात तो माता की चुनरी और

होलिका की चुनरी की कर रही थी

और मैं कहां कन्या पूजन की बात कर बैठी।

फिर लौटती हूं अपनी बात की आेर,

पता नहीं होलिका मां थी या नहीं।

किन्तु एक भाई की बहिन तो थी ही

और एक कन्या

जिसने भाई की आज्ञा का पालन किया था।

उसके पास एक वरदानमयी चुनरी थी।

और था एक अत्याचारी भाई।

शायद वह जानती भी नहीं थी

भाई के अत्याचारों, अन्याय को

अथवा प्रह्लाद की ईश्वर भक्ति को।

और अपने वरदान या श्राप को।

लेकिन उसने एक बुरी औरत बनकर

बुरे भाई की आज्ञा का पालन किया।

अग्नि देवता आगे आये थे

प्रह्लाद की रक्षा के लिए।

किन्तु होलिका की चुनरी न बचा पाये,

और होलिका जल मरी।

वैसे भी चुनरी की आेर

किसी का ध्यान ही कहां जाता है

हर पल तो उड़ रही हैं चुनरियां।

और हम !

हमारे लिए एक पर्व हो जाता है

एक औरत जलती है

उसकी चुनरी उड़ती है और हम

आग जलाकर खुशियां मनाते हैं।

देखिए, मैं फिर भटक गई बात से

और आपने रोका नहीं मुझे।

अब आग तो बस आग होती है

जलाती है

और जिसे बचाना हो बचा भी लेती है।

अब देखिए न, अग्नि देव ले आये थे

सीता को ले आये थे सुरक्षित बाहर,

पवित्र बताया था उसे।

और राम ने अपनाया था।

किन्तु कहां बच पाई थी उसकी भी चुनरी

घर से बेघर हुई थी अपमानित होकर

फिर मांगा गया था उससे पवित्रता का प्रमाण।

और वह समा गई थी धरा में

एक आग लिए।

कहते हैं धरा के भीतर भी आग है।

आग मेरे भीतर भी धधकती है।

देखिए, मैं फिर भटक गई बात से

और आपने रोका नहीं मुझे।

पर प्यास तो बुझानी है

झुलसते हैं पांव, सीजता है मन, तपता है सूरज, पर प्यास तो बुझानी है

न कोई प्रतियोगिता, न जीवटता, विवशता है हमारी, बस इतनी कहानी है

इसी आवागमन में बीत जाता है सारा जीवन, न कोई यहां समाधान सुझाये

और भी पहलू हैं जिन्दगी के, न जानें हम, बस इतनी सी बात बतानी है

इंसानियत के मीत

अपने भीतर झांककर इंसानियत को जीत

कर सके तो कर अपनी हैवानियत पर जीत

पूजा, अर्चना, आराधना का अर्थ है बस यही

कर ऐसे कर्म बनें सब इंसानियत के मीत

मन में बस सम्बल रखना

चिड़िया के बच्चे सी

उतरी थी मेरे आंगन में।

दुबकी, सहमी सी रहती थी

मेरे आंचल में।

चिड़िया सी चीं-चीं करती

दिन भर

घर-भर में रौनक भरती।

फिर कब पंख उगे

उड़ना सिखलाया तुझको।

धीरे धीरे भरना पग

समझाया तुझको।

दुर्गम हैं राहें,

तपती धरती है,

कंकड़ पत्थर बिखरे हैं,

कदम सम्हलकर रखना

बतलाया तुझको।

हाथ छोड़कर तेरा

पीछे हटती हूं।

अब तुझको

अपने ही दम पर

है आगे बढ़ना।

हिम्मत रखना।

डरना मत ।

जब मन में कुछ भ्रम हो

तो आंखें बन्द कर

करना याद मुझे।

कहीं नहीं जाती हूं

बस तेरे पीछे आती हूं।

मन में बस इतना ही

सम्बल रखना।

विवेक कहां अब नीर क्षीर का

हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं, किससे आस लिये बैठे हैं

अंधे-गूंगे बहरे-नाकारों की बस्ती में विश्वास लिए बैठे हैं

अपने अपने मद में डूबे हम, औरों से क्या लेना देना

विवेक कहां अब नीर क्षीर का, सब ढाल लिए बैठे है।

बालपन को जी लें

अपनी छाया को पुकारा, चल आ जा बालपन को फिर से जी लें

यादों का झुरमुट खोला, चल कंचे, गोली खेलें, पापड़, इमली पी लें

कैसे कैसे दिन थे वे सड़कों पर छुपन छुपाई, गुल्ली डंडा खेला करते

वो निर्बोध प्यार की हंसी ठिठोली, चल उन लम्हों को फिर से जी लें

मैं भी तो

यहां

हर आदमी की ज़ुबान

एक धारदार छुरी है

जब चाहे, जहां चाहे,

छीलने लगती है

कभी कुरेदने तो कभी काटने।

देखने में तुम्हें लगेगी

एकदम अपनी सी।

विनम्र, झुकती, लचीली

तुम्हारे पक्ष में।

लेकिन तुम देर से समझ पाते हो

कि सांप की गति भी

कुछ इसी तरह की होती है।

उसकी फुंकार भी

आकर्षित करती है तुम्हें

किसी मौके पर।

उसका रंग रूप, उसका नृत्य _

बीन की धुन पर उसका झूमना

तुम्हें मोहने लगता है।

तुम उसे दूध पिलाने लगते हो

तो कभी देवता समझ कर

उसकी पूजा करते हो।

यह जानते हुए भी

कि मौका मिलते ही

वह तुम्हें काट डालेगा।

और  तुम भी

सांप पाल लेते हो

अपनी पिटारी में।

प्रकृति के प्रपंच

प्रकृति भी न जाने कहां-कहां क्या-क्या प्रपंच रचा करती है

पत्थरों को जलधार से तराश कर दिल बना दिया करती है

कितना भी सजा संवार लो इस दिल को रंगीनियों से तुम

बिगड़ेगा जब मिज़ाज उसका, पल में सब मिटा दिया करती है

मुखौटे चढ़ाए बेधड़क घूमते हैं

अब

मुखौटे हाथ में लिए घूमते हैं।

डर नहीं रह गया अब,

कोई खींच के उतार न दे मुखौटा

और कोई देख न ले असली चेहरा

तो, कहां छिपते फिरेंगे।

मुखौटों की कीमत पहले भी थी

अब भी है।

फ़र्क बस इतना है

कि अब खुलेआम

बोली लगाये घूमते हैं।

मुखौटे हाथ में लिए घूमते हैं।

बेचते ही नहीं,

खरीदते भी हैं ।

और ज़रूरत आन पड़े

तो बड़ों बड़ों के मुखौटे

अपने चेहरे पर चढ़ाए

बेधड़क घूमते हैं।

किसी का भी चेहरा नोचकर

उसका मुखौटा बना

अपने चेहरे पर

चढ़ाए घूमते हैं।

जो इन मुखौटों से मिल सकता है

वह असली चेहरा कहां दे पाता कीमत

इसलिए

अपना असली चेहरा  

बगल में दबाये घूमते हैं।

मन का दीप प्रज्वलित हो

अपनों का साथ हो
सपनों का राग हो
सम्बन्धों का उन्माद हो
सबसे संवाद हो
मन बाग बाग हो
जीवन में राग राग हो
मधुर मधुर तान हो
भावों में अनुराग हो
मलिनता मिट जाए
दूरियां सिमट जाएं
रिश्तों की गरिमा हो
अपनों की महिमा हो
विश्वास की दमक हो
अपनेपन की महक हो
सहज सहज जीवन हो
सरल पावन मन हो
मन से मन का मिलन हो
न द्वेष का राग हो,
न सत्य से विराग हो
जीवन की सुंदर कहानी हो
अपनों की जु़बानी हो
जगमग जगमग संसार हो
खुशियां अपार हों
पर्वों की सी हरदम आहट हो
बस मन का दीप प्रज्वलित हो।

आदमी आदमी से पूछता

आदमी आदमी से पूछता है

कहां मिलेगा आदमी

आदमी आदमी से पूछता है

कहीं मिलेगा आदमी

आदमी आदमी से डरता है

कहीं मिल न जाये आदमी

आदमी आदमी से पूछता है

क्यों डर कर रहता है आदमी

आदमी आदमी से कहता है

हालात बिगाड़ गया है आदमी

आदमी आदमी को बताता है

कर्त्तव्यों से भागता है आदमी

आदमी आदमी को बताता है

अधिकार की बात करता है आदमी

आदमी आदमी को सताता है

यह बात जानता है हर आदमी

आदमी आदमी को बताता है

हरपल जीकर मरता है आदमी

आदमी आदमी को बताता है

सबसे बेकार जीव है तू आदमी

आदमी आदमी से पूछता है

ऐसा क्यों हो गया है आदमी

आदमी आदमी को समझाता है

आदमी से बचकर रहना हे आदमी

और आदमी, तू ही आदमी है

कैसे भूल गया, तू हे आदमी !

मेरा प्रवचन है

इस छोटी सी उम्र में ही
जान ले ली है मेरी।
बड़ी बड़ी बातें सिखाते हैं
जीवन की राहें बताते हैं
मुझे क्या बनना है जीवन में
सब अपनी-अपनी राय दे जाते हैं।
और न जाने क्या क्या बताते-समझाते हैं।
इस छोटी सी उम्र में ही
एक नियमावली है मेरे लिए
उठने , बैठने, सोने, खाने-पीने की
पढ़ने और अनेक कलाओं में 
पारंगत होने की।

अरे ! 
ज़रा मेरी उम्र तो देखो
मेरा कद, मेरा वजूद तो देखो
मेरा मजमून तो देखो।
किसे किसे समझाउं
मेरे खेलने खाने के दिन हैं।
देख रहे हैं न आप
अभी से मेरे सिर के बाल उड़ गये
आंखों पर चश्मा चढ़ गया।

तो
मैंने भी अपना मार्ग चुन लिया है।
पोथी उठा ली है
धूनी रमा ली है
शाम पांच बजे 
मेरा प्रवचन है
आप सब निमंत्रित हैं।

कुछ चमकते सपने बुनूं

जीवन में अकेलापन

बहुत कुछ बोलता है

कभी कभी

अथाह रस घोलता है।

अपने से ही बोलना

मन के तराने छेड़ना

कुछ पूछना कुछ बताना

अपने आप से ही रूठना, मनाना

उलटना पलटना

कुछ स्मृतियों को।

यहां बैठूं या वहां बैठूं

पेड़ों पर चढ़ जाउं

उपवन में भागूं दौड़ूं

तितली को छू लूं

फूलों को निहारूं

बादलों को पुकारूं

आकाश को पुकारूं

फिर चंदा-तारों को ले मुट्ठी में

कुछ चमकते सपने बुनूं

अपने मन की आहटें सुनूं

अपनी चाहतों को संवारू

फिर

ताज़ी हवा के झोंके के साथ

लौट आउं वर्तमान में

सहज सहज।

शब्द में अभिव्यक्ति हो

मान देकर प्रतिमान की आशा क्यों करें

दान देकर प्रतिदान की आशा क्यों करें

शब्द में अभिव्यक्ति हो पर भाव भी रहे

विश्वास देकर आभार की आशा क्यों करें

शुद्ध जल से आचमन कर ले मेरे मन

जल की धार सी बह रही है ज़िन्दगी

नित नई आस जगा रही है ज़िन्दगी

शुद्ध जल से आचमन कर ले मेरे मन

काल के गाल में समा रही है ज़िन्दगी

मन गया बहक बहक

चिड़िया की कुहुक-कुहुक, फूलों की महक-महक

तुम बोले मधुर मधुर, मन गया बहक बहक

सरगम की तान उठी, साज़ बजे, राग बने,

सतरंगी आभा छाई, ताल बजे ठुमक ठुमक

कहां किस आस में

सूर्य की परिक्रमा के साथ साथ ही परिक्रमा करता है सूर्यमुखी

अक्सर सोचती हूं रात्रि को कहां किस आस में रहता है सूर्यमुखी

सम्भव है सिसकता हो रात भर कहां चला जाता है मेरा हमसफ़र

शायद इसीलिए प्रात में अश्रुओं से नम सुप्त मिलता है सूर्यमुखी

चेहरों पर फूल मन में कांटे

हमारी आदतें भी अजीब सी हैं
बस एक बार तय कर लेते हैं
तो कर लेते हैं।
नज़रिया बदलना ही नहीं चाहते।
वैसे मुद्दे तो बहुत से हैं
किन्तु इस समय मेरी दृष्टि
इन कांटों पर है।
फूलों के रूप, रस, गंध, सौन्दर्य
की तो हम बहुत चर्चा करते हैं
किन्तु जब भी कांटों की बात उठती है
तो उन्हें बस फूलों के
परिप्रेक्ष्य में ही देखते हैं।

पता नहीं फूलों के संग कांटे होते हैं
अथवा कांटों के संग फूल।
लेकिन बात दोनों की अक्सर
साथ साथ होती है।

इधर कांटों में भी फूल खिलने लगे है
और  फूल
कांटों से चुभने लगे हैं।

लेकिन जब कांटों पर खिलते हैं फूल
तो हम कभी उनकी चर्चा ही नहीं करते।
बस इतना ही याद रख लिया है हमने
कि कांटों से चुभन होती है।
हां, होती है कांटों से चुभन।
लेकिन कांटा भी तो
कांटे से ही निकलता है।

और कभी छीलकर देखा है कांटों को
भीतर से कितने रसपूर्ण होते हैं ।
यह कांटे की प्रवृत्ति है
कि बाहर से तीक्ष्ण है,
पर भीतर ही भीतर खिलते हैं फूल।
एक अलग-सा
आकर्षण और सौन्दर्य
निहित होता है इनमें
जिसे परखना पड़ता है।
संजोकर देखना इन्हें,
जीवन भर अक्षुण्ण साथ देते है।

और जब मन में कांटे उगते हैं
तो यह पलभर का उद्वेलन नहीं होता।
जीवन रस
सूख सूख कर कांटों में बदल जाता है।
कोई जान न पाये इसे
इसलिए
कांटों की प्रवृत्ति के विपरीत
हम चेहरों पर फूल उगा लेते हैं
और मन में कांटे संजोये रहते हैं ।

जिन्दगी की आग में सिंकी मां

बहुत याद आती हैं

मां के हाथ की वो दो सूखी रोटियां

आम की फांक के साथ

अखबार के पन्ने में लपेटकर दिया करती थी

स्कूल के लिए।

और उन दो सूखी रोटियों की ताकत से

हम दिन भर मस्त रहते थे।

आम की फांक को तब तक चूसते थे

जब तक उसकी जान नहीं निकल जाती थी।

चूल्हे की आग में तपी रोटियां

एक बेनामी सी दाल-सब्जी

अजब-गजब स्वाद वाली

कटोरियां भर-भर पी जाते थे

आग में भुने आलू-कचालू

नमक के साथ निगल जाते थे।

चूल्हे को घेरकर बैठे

बतियाते, हंसते, लड़ते,

झीना-झपटी करते।

अपनी थाली से ज्यादा स्वाद

दूसरे की थाली में आता था।

रात की बची रोटियों का करारापन

चाय के प्याले के साथ।

और तड़का भात नाश्ते में

खट्टी-मीठी चटनियां

गुड़-शक्कर का मीठा

चूरी के साथ खा जाते थे पूरी रोटी।

जिन्दगी की आग में सिंकी मां,

और उसके हाथ की बनी रोटियों से मिली

संघर्ष की पौष्टिकता

आज भी भीतर ज्वलन्त है।

छप्पन भोग बनाने-खाने के बाद भी

तरसती हूं इस स्वाद के लिए।

बनाने की कोशिश करती हूं

पर वह स्वाद तो मां के साथ चला गया।

अगर आपके घर में हो ऐसी रोटियां और ऐसा स्वाद

तो मुझे ज़रूर न्यौता देना