मन के आतंक के साये में

जिन्दगी

इतनी सरल सहज भी नहीं

कि जब चाहा

उठकर चहक लिए।

एक डर, एक खौफ़

के बीच घूमता है मन।

और यह डर

हर साये में है  रहता है अब।

ज़्यादा सुरक्षा में भी

असुरक्षा का

एहसास सालने लगा है अब।

संदेह की दीवारें, दरारें

बहुत बढ़ गई हैं।

अपने-पराये के बीच का भेद

अब टालने लगा है मन।

किस वेश में कौन मिलेगा

पहचान भूलता जा रहा है मन।

हाथ से हाथ मिलाकर

चलने का रास्ता भूलने लगे हैं

और अपनी अपनी राह

चलने लगे हैं हम।

और जब मन में पसरता है

अपने ही भीतर का आतंकवाद

तब अकेलापन सालता है मन।

आने वाली पीढ़ी को

अपनेपन, शांति, प्रेम, भाईचारे का

पाठ नहीं पढ़ाते हम।

सिखाते हैं उसे

जीवन में कैसे रहना है डर डर कर

अविश्वास, संदेह और बंद तालों में

उसे जीना सिखाते हैं हम।

मुठ्ठियां कस ली हैं

किसी से मिलने-मिलाने के लिए

हाथ नहीं बढ़ाते हैं हम।

बस हर समय

अपने ही मन के

आतंक के साये में जीते हें हम।

साहस है मेरा

साहस है मेरा, इच्छा है मेरी, पर क्यों लोग हस्तक्षेप करने चले आते हैं

जीवन है मेरा, राहें हैं मेरी, पर क्यों लोग “कंधा” देने चले आते हैं

अपने हैं, सपने हैं, कुछ जुड़ते हैं बनते हैं, कुछ मिटते हैं, तुमको क्या

जीती हूं अपनी शर्तों पर, पर पता नहीं क्यों लोग आग लगाने चले आते हैं

मन वन-उपवन में

यहीं कहीं

वन-उपवन में

घन-सघन वन में

उड़ता है मन

तिेतली के संग।

न गगन की उड़ान है

न बादलों की छुअन है

न चांद तारों की चाहत है

इधर-उधर

रंगों से बातें होती हैं

पुष्पों-से भाव

खिल- खिल खिलते हैं

पत्ती-पत्ती छूते हैं

तृण-कंटक हैं तो क्या,

वट-पीपल तो क्या,

सब अपने-से लगते हैं।

बस यहीं कहीं

आस-पास

ढूंढता है मन अपनापन

तितली के संग-संग

घूमता है मन

सुन्दर वन-उपवन में।

रिश्तों की अकुलाहट

बस कहने की ही तो  बातें हैं कि अगला-पिछला छोड़ो रे

किरचों से चुभते हैं टूटे रिश्ते, कितना भी मन को मोड़ो रे

पत्थरों से बांध कर जल में तिरोहित करती रहती हूं बार-बार

फिर मन में क्यों तर आते हैं, क्यों कहते हैं, फिर से जोड़ो रे

आशाओं की चमक

मन के गलियारों में रोशनी भी है और अंधेरा भी
कुछ आवाज़ें रात की हैं और कुछ दिखाती सवेरा भी
कभी सूरज चमकता है और कभी लगता है ग्रहण
आशाओं की चमक से टूटता है निराशाओं का घेरा भी

त्रिवेणी विधा में रचना २

चेहरे अब अपने ही चेहरे पहचानते नहीं

मोहरे अब चालें चलना जानते ही नहीं

रीति बदल गई है यहां प्रहार करने की

त्रिवेणी विधा में रचना

दर्पण में अपने ही चेहरे को देखकर मुस्कुरा देती हूं

फिर उसी मुस्कान को तुम्हारे चेहरे पर लगा देती हूं

पर तुम कहां समझते हो मैंने क्या कहा है तुमसे

कहते हैं कोई ऊपरवाला है

कहते हैं कोई ऊपरवाला है, सब कुछ वो ही तो दिया करता है

पर हमने देखा है, जब चाहे सब कुछ ले भी तो लिया करता है

लोग मांगते हाथ जोड़-जोड़कर, हरदम गिड़गिड़ाया करते हैं

पर देने की बारी सबसे ज़्यादा टाल-मटोल वही किया करता है

मान-सम्मान की आस में

मान-सम्मान की आस में सौ-सौ ग्रंथ लिखकर हम बन-बैठे “कविगण”

स्वयं मंच-सज्जा कर, सौ-सौ बार, करवा रहे इनका नित्य-प्रति विमोचन

नेता हो या अभिनेता, ज्ञानी हो या अज्ञानी कोई फ़र्क नहीं पड़ता

छायाचित्र छप जायें, समाचारों में नाम देखने को तरसें हमरे लोचन

देशभक्ति की बात करें

बन्दूकों के साये तले आज हम देखो गणतन्त्र मनाते

देशभक्ति की बात करें पर कर्त्तव्य-पालन से हैं घबराते

कुछ नारों, गीतों,व्याख्यानों, जय-जय-जयकारों से

देश नहीं चलता,क्यों यह बात हम समझ नहीं पाते

तुम मेरी छाया हो

तुम मेरी छाया हो, प्रतिच्छाया हो

पर तुम्हें

अपने कदमों के निशान नहीं दे रहा हूं।

हर छपक-छपाक के साथ

मिट जाते हैं पिछले निशान

और नये बनते हैं

जो आप ही सिमट जाते हैं

जल की गहराईयों में।

इस छपाछप-छपाछप से देखो तो

बूंदें कैसे मोतियों-सी खिलती हैं।

फिर गगन, हवाओं और सागर के बीच

कहीं छूट जाती हैं,

सतरंगी आभा बिखेरकर

अन्तर्मन को छू जाती हैं।

यह जीवन का आनन्द है।

पर याद रखना

गगन की नीलाभा में

पवन के वेग में

और जल की लहरों पर

कभी कोई छाप नहीं छूटती।

इसके लिए कठोर तपती धरा पर

छोड़ने पड़ते हैं

अपने कदमों के निशान

जो सदियों-सदियों तक

ध्वनित होते हैं

गगन की उंचाईयों में

पवन के वेग में

और जल की लहरों में।

पर यह भी याद रखना

छपक-छपाक, छपाछप-छपाछप

जीवन का उतना ही हिस्सा है

जितना गगन, पवन और जल में

नाम अंकित कर सकना।

आत्मनिर्भर हूं

देशभक्ति बस राजगद्दी पर बैठे लोगों की बपौती नहीं है

तिरंगा बेचती हूं,आत्मनिर्भर हूं,कोई फिरौती नहीं है

भिक्षा नहीं,दान नहीं,दया नहीं,आत्मग्लानि भी नहीं

पीड़ा नहीं कि शिक्षित नहीं हैं,मुस्कानों में कटौती नहीं है

चिंगारी दर चिंगारी सुलगती

अच्छी नहीं लगती

घर के किसी कोने में

चुपचाप जलती अगरबत्ती।

मना करती थी मेरी मां

फूंक मारकर बुझाने के लिए

अगरबत्ती।

मुंह की फूंक से

जूठी हो जाती है।

हाथ की हवा देकर

बुझाई जाती है अगरबत्ती।

डब्बी में सहेजकर

रखी जाती है अगरबत्ती।

खुली नहीं छोड़ी जाती

उड़ जायेगी खुशबू

टूट जायेगी

टूटने नहीं देनी है अगरबत्ती।

क्योंकि सीधी खड़ी कर

लपट दिखाकर

जलानी होती है अगरबत्ती।

लेकिन जल्दी चुक जाती है

मज़ा नहीं देती

लपट के साथ जलती अगरबत्ती।

फिर गिर जाये कहीं

तो सब जला देगी अगरबत्ती।

इसलिए

लपट दिखाकर

अदृश्य धुएं में लिपटी

चिंगारी दर चिंगारी सुलगती

किसी कोने में सजानी होती है अगरबत्ती।

रोज़ डांट खाती हूं मैं।

लपट सहित जलती

छोड़ देती हूं अगरबत्ती।

मन के मन्दिर ध्वस्त हुए हैं

मन के मन्दिर ध्वस्त हुए हैं,नव-नव मन्दिर गढ़ते हैं

अरबों-खरबों की बारिश है,धर्म के गढ़ फिर सजते हैं

आज नहीं तो कल होगा धर्मों का कोई नाम नया होगा

आयुधों पर बैठे हम, कैसी मानवता की बातें करते हैं

 

यह कैसी विडम्बना है

सुना है,

मानव

चांद तक हो आया।

वहां जल की

खोज कर लाया।

ताकती हूं

अक्सर, चांद की ओर

काश !

मेरा घर चांद पर होता

तो मानव

इस रेगिस्तान में भी

जल की खोज कर लेता।

आपको चाहिए क्या पारिजात वृक्ष

कृष्ण के स्वर्ग पहुंचने से पूर्व

इन्द्र आये थे मेरे पास

इस आग्रह के साथ

कि स्वीकार कर लूं मैं

पारिजात वृक्ष, पुष्पित पल्लवित

जो मेरी सब कामनाएं पूर्ण करेगा।

स्वर्ग के लिए प्रस्थान करते समय

कृष्ण ने भी पूछा था मुझसे

किन्तु दोनों का ही

आग्रह अस्वीकार कर दिया था मैंने।

लौटा दिया था ससम्मान।

बात बड़ी नहीं, छोटी-सी है।

पारिजात आ जाएगा

तब जीवन रस ही चुक जायेगा।

सब भाव मिट जायेंगे,

शेष जीवन व्यर्थ हो जायेगा।

 

जब चाहत न होगी, आहत न होगी

न टूटेगा दिल, न कोई दिलासा देगा

न श्रम का स्वेद होगा

न मोतियों सी बूंदे दमकेंगी भाल पर

न सरस-विरस होगा

न लेन-देन की आशाएं-निराशाएं

न कोई उमंग-उल्लास

न कभी घटाएं तो न कभी बरसात

रूठना-मनाना, लेना-दिलाना

जब कभी तरसता है मन

तब आशाओं से सरस होता है मन

और जब पूरी होने लगती हैं आशाएं-आकांक्षाएं

तब

पारिजात पुष्पों के रस से भी अधिक

सरस-सरस होता है मन।

मगन-मगन होता है मन।

बस

बात बड़ी नहीं, छोटी-सी है।

चाहत बड़ी नहीं, छोटी-सी है।

छटा निखर कर आई

शीत ऋतृ ने पंख समेटे धूप निखरकर आई

तितली ने मकरन्द चुना,फूलों ने ली अंगड़ाई

बासन्ती चूनर ओढ़े उपवन ने देखो रंग बदले,

पल्लव निखरे,पुष्प खिले,छटा निखर कर आई

एक सुन्दर सी कृति बनाई मैंने

उपवन में कुछ पत्ते संग टहनी, कुछ फूल झरे थे।

मैं चुन लाई, देखो कितने सुन्दर हैं ये, गिरे पड़े थे।

न डाली पर जायेंगे न गुलदान में अब ये सजेंगे।

एक सुन्दर सी कृति बनाई मैंने, सब देख रहे थे।

 

जिन्दगी का एक नया गीत

चलो

आज जिन्दगी का

एक नया गीत गुनगुनाएं।

न कोई बात हो

न हो कोई किस्सा

फिर भी अकारण ही मुस्कुराएं

ठहाके लगाएं।

न कोई लय हो न धुन

न करें सरगम की चिन्ता

ताल सब बिखर जायें।

कुछ बेसुरी सी लय लेकर

सारी धुनें बदल कर

कुछ बेसुरे से राग नये बनाएं।

अलंकारों को बेसुध कर

तान को बेसुरा गायें।

न कोई ताल हो न कोई सरगम

मंद्र से तार तक

हर सप्तक की धज्जियां उड़ाएं

तानों को खींच खींच कर

पुरज़ोर लड़ाएं

तारों की झंकार, ढोलक की थाप

तबले की धमक, घुंघुरूओं की छनक

बेवजह खनकाएं।

मीठे में नमकीन और नमकीन में

कुछ मीठा बनायें।

चाहने वालों को

ढेर सी मिर्ची खिलाएं।

दिन भर सोयें

और रात को सबको जगाएं।

पतंग के बहाने छत पर चढ़ जाएं

इधर-उधर कुछ पेंच लड़ाएं

कभी डोरी खींचे

तो कभी ढिलकाएं।

और, इस आंख का क्या करें

आप ही बताएं।

श्मशान में देखो

देश-प्रेम की आज क्यों बोली लगने लगी है

मौत पर देखो नोटों की गिनती होने लगी है

राजनीति के गलियारों में अजब-सी हलचल है

श्मशान में देखो वोटों की गिनती होने लगी है

और हम हल नहीं खोजते

बाधाएं-वर्जनाएं 
यूं ही बहुत हैं जीवन में।
पहले तो राहों में 
कांटे बिछाये जाते थे
और अब देखो
जाल बिछाये जा रहे हैं
मकड़जाल बुने जा रहे हैं

दीवारें चुनी जा रही हैं
बाढ़ बांधी जा रही है
कांटों में कांटे उलझाये जा रहे हैं।
कहीं हाथ न बढ़ा लें
कोई आस न बुन लें
कोई विश्वास न बांध लें
कहीं दिल न लगा लें
कहीं राहों में फूल न बिछा दें

ये दीवारें, बाधाएं, बाढ़, मकड़जाल,
कांटों के नहीं अविश्वास के है
हमारे, आपके, सबके भीतर।
चुभते हैं,टीस देते हैं,नासूर बनते हैं
खून रिसता है
अपना या किसी और का।

और हम 
चिन्तित नहीं होते
हल नहीं खोजते,
आनन्दित होते हैं।

पीड़ा की भी
एक आदत हो जाती है
फिर वह
अपनी हो अथवा परायी।

मानवता को मुंडेर पर रख

आस्था, विश्वास,श्रद्धा को हम निर्जीव पत्थरों पर लुटा रहे हैं

अधिकारों के नाम पर जाति-धर्म,आरक्षण का विष पिला रहे हैं

अपने ही घरों में विष-बेल बीज ली है,जानते ही नहीं हम

मानवता को मुंडेर पर रख,अपना घर फूंक ताली बजा रहे हैं

अपने ही घर को लूटने से

कुछ रोशनियां अंधेरे की आहट से ग्रस्त हुआ करती हैं

जलते घरों की आग पर कभी भी रोटियां नहीं सिकती हैं

अंधेरे में हम पहचान नहीं पाते हैं अपने ही घर का द्वार

अपने ही घर को लूटने से तिज़ोरियां नहीं भरती हैं।

अपनी पहचान की तलाश

नाम ढूँढती हूँ पहचान पूछती हूँ ।

मैं कौन हूँ बस अपनी आवाज ढूँढती हूँ ।

प्रमाणपत्र जाँचती हूँ

पहचान पत्र तलाशती हूँ

जन्मपत्री देखती हूँ

जन्म प्रमाणपत्र मांगती हूँ

बस अपना नाम मांगती हूँ।

परेशान घूमती हूँ

पूछती हूँ सब से

बस अपनी पहचान मांगती हूं।

खिलखिलाते हैं सब

अरे ! ये कमला की छुटकी

कमली हो गई है।

नाम  ढूँढती है, पहचान ढूँढती है

अपनी आवाज ढूँढती है।

अरे ! सब जानते हैं

सब पहचानते हैं

नाम जानते हैं।

कमला  की बिटिया, वकील की छोरी

विन्नी बिन्नी की बहना,

हेमू की पत्नी, देवकी की बहू,

और मिठू की अम्मा ।

इतने नाम इतनी पहचान।

फिर भी !

परेशान घूमती है, पहचान पूछती है

नाम मांगती है, आवाज़ मांगती है।

मैं पूछती हूं

फिर ये कविता कौन है

कौन है यह कविता ?

बौखलाई, बौराई घूमती हूं

नाम पूछती हूं, अपनी आवाज ढूँढती हूं

अपनी पहचान मांगती हूं

अपना नाम मांगती हूं।

छोड़ दो अब मुफ्त की बात

क्या तुम्हारी शिक्षा

क्या आयु

कितनी आय

कौन-सी नौकरी

कौन-सा आरक्षण

और इस सबका क्या आधार ?

अनुत्तरित हैं सब प्रश्न।

यह कौन सी आग है

जो अपने-आप को ही जला रही है।

कैसे भूल सकते हैं हम

तिनका-तिनका जोड़कर

बनता है एक घरौंदा।

शताब्दियों से लूटे जाते रहे हम

आततायियों से।

जाने कहां से आते थे

और देश लूटकर चले जाते थे,

अपनों से ही युद्धों में

झोंक दिये जाते थे हम।

कैसे निकले उस सबसे बाहर

फिर शताब्दियां लग गईं,

कैसे भूल सकते हैं हम।

और आज !

अपना ही परिश्रम,

अपनी ही सम्पत्ति

अपना ही घर फूंक रहे हैं हम।

अपने ही भीतर

आततायियों को पाल रहे हैं हम।

किसके झांसे में आ गये हैं हम।

न शिक्षा चाहिए

न विकास, न उद्यम।

खैरात में मिले, नाम बाप के मिले

एक नौकरी सरकारी

धन मिले, घर मिले,

अपना घर फूंककर मिले,

मरे की मिले

या जिंदा दफ़न कर दें तो मिले

लाश पर मिले, श्मशान में मिले

कफ़न बेचकर मिले

बस मुफ्त की मिले

बस जो भी मिले, मुफ्त ही मिले

कन्यादान -परम्परा या रूढ़ि

न तो मैं कोई वस्तु थी

न ही अन्न वस्त्र,

और न ही

घर के किसी कोने में पड़ा

कोई अवांछित, उपेक्षित पात्र

तो फिर हे पिता !

दान क्यों किया तुमने मेरा ?

धर्म, संस्कृति, परम्परा, रीति रिवाज़

सब बदल लिए तुमने अपने हित में।

किन्तु मेरे नाम पर

युगों युगों की परम्परा निभाते रहे हो तुम।

मुझे व्यक्तित्व से वस्तु बनाते रहे हो तुम।

दान करके

सभी दायित्वों से मुक्ति पाते रहे थे तुम।

और इस तरह, मुझे

किसी की निजी सम्पत्ति बनाते रहे तुम।

मेरे नाम से पुण्य कमाते रहे थे तुम ।

अपने लिए स्वर्गारोहण का मार्ग बनाते रहे तुम।

तभी तो मेरे लिए पहले से ही

सृजित कर लिये  कुछ मुहावरे 

“इस घर से डोली उठेगी उस घर से अर्थी”।

पढ़ा है पुस्तकों में मैंने

बड़े वीर हुआ करते थे हमारे पूर्वज

बड़े बड़े युद्ध जीते उन्होंनें

बस बेटियों की ही रक्षा नहीं कर पाते थे।

जौहर करना पड़ता था उन्हें

और तुम उनके उत्तराधिकारी।

युग बदल गये, तुम बदल गये

लेकिन नहीं बदला तो  बस

मुझे देखने का तुम्हारा नज़रिया।

कभी बेटी मानकर तो देखो,

मुझे पहचानकर तो देखो।

खुला आकाश दो, स्वाधीनता का भास दो।

अपनेपन का एहसास दो,

विश्वास का आभास दो।

अधिकार का सन्मार्ग दो,

कर्त्तव्य का भार दो ।

सौंपों मत किसी को।

किसी का मेरे हाथ में हाथ दो,

जीवन भर का साथ दो।

अपनेपन का भान दो।

बस थोड़ा सा मान दो

बस दान मत दो। दान मत दो।

कभी तुम भी अग्नि-परीक्षा में खरे उतरो

ममता, नेह, मातृछाया बरसाने वाली नारी में भी चाहत होती है

कोई उसके मस्तक को भी सहला दे तो कितनी राहत होती है

पावनता के सारे मापदण्ड बने हैं बस एक नारी ही के लिए
कभी तुम भी अग्नि-परीक्षा में खरे उतरो यह भी चाहत होती है

झाड़ पर चढ़ा करता है आदमी

सुना है झाड़ पर चढ़ा करता है आदमी

देखूं ज़रा कहां-कहां पड़ा है आदमी

घास, चारा, दाना-पानी सब खा गया

देखूं अब किस जुगाड़ में लगा है आदमी

 

एक अपनापन यूं ही

सुबह-शाम मिलते रहिए

दुआ-सलाम करते रहिए

बुलाते रहिए अपने  घर

काफ़ी-चाय पिलाते रहिए

और भर दे पिचकारी में

शब्दों में नवरस घोल और भर दे पिचकारी में
स्नेह की बोली बोल और भर दे पिचकारी में
आशाओं-विश्वासों के रंग बना, फिर जल में डाल
इस रंग को रिश्तों में घोल और भर दे पिचकारी में
मन की सारी बातें खोल और भर दे पिचकारी में
मन की बगिया में फूल खिला, और भर दे पिचकारी में
अगली-पिछली भूल, नये भाव जगा,और भर दे पिचकारी में
हंसी-ठिठोली की महफिल रख और भर दे पिचकारी में
सब पर रंग चढ़ा, सबके रंग उड़ा, और भर दे पिचकारी में
मीठे में मिर्ची डाल, मिर्ची में मीठा घोल और भर दे पिचकारी में
इन्द्रधनुष को रोक, रंगों के ढक्कन खोल और भर दे पिचकारी में
मीठा-सा कोई गीत सुना, नई धुन बना और भर दे पिचकारी में

भावों के तार मिला, सुर सजा और भर दे पिचकारी में
तारों की झिलमिल, चंदा की चांदनी धरा पर ला और भर दे पिचकारी में
बच्चे की किलकारी में चिड़िया की चहक मिला और भर  दे पिचकारी में
छन्द की चिन्ता छोड़, टूटा फूटा जोड़ और भर दे पिचकारी में
मात्राओं के बन्धन तोड़, कर ले तू भी होड़ और भर दे पिचकारी में
भावों के तार मिला, सुर सजा और भर दे पिचकारी में
तारों की झिलमिल, चंदा की चांदनी धरा पर ला और भर दे पिचकारी में
बच्चे की किलकारी में चिड़िया की चहक मिला और भर  दे पिचकारी में
इतना ही सूझा है जब और सूझेगा तब फिर भर दूंगी पिचकारी में