सत्य के भी पांव नहीं होते
कहते हैं
झूठ के पांव नहीं होते
किन्तु मैंने तो
कभी सत्य के पांव
भी नहीं देखे।
झूठ अक्सर सबका
एक-सा होता है
पर ऐसा क्यों होता है
कि सत्य
सबका अपना-अपना होता है।
किसी के लिए
रात के अंधेरे ही सत्य हैं
और कोई
चांद की चांदनी को ही
सत्य मानता है।
किसी का सच सावन की घटाएं हैं
तो किसी का सच
सावन का तूफ़ान
जो सब उजाड़ देता है।
किसी के जीवन का सत्य
खिलते पुष्प हैं
तो किसी के जीवन का सत्य
खिलकर मुर्झाते पुष्प ।
किन्तु झूठ
सबका एक-सा होता है,
इसलिए
आज झूठ ही वास्तविक सत्य है
और यही सत्य है।
जल की महिमा
बूंद-बूंद से घट भरे, बूंद-बूंद से न घटे सागर
जल की महिमा वो जाने, जिसके पास न गागर
पानी की बरबादी चुभती है, खड़़े पानी में कीट
अंजुरी-भर पानी ले, सोचिए कैसे रखें पानी बचाकर
भारत
मुझे गहन आश्चर्य हुआ कि मैंने जब भी किसी को “भारत” पर अपने विचार व्यक्त करने के लिए कहा तो जो विचार मुझे मिले उनका सारांश यह था कि भारत एक अत्यन्त प्राचीन, सभ्यता-संस्कृति-सम्पन्न, वेद, पुराण, गीता, रामायण, कृष्ण, राम, बुद्ध, महावीर, नानक आदि की धरती है यह। कुछ ऐसे ही कथन और वक्तव्य का समापन। कुछ लोगों ने इससे आगे बढ़कर आज़ादी और शहीदों की बात की। आज़ादी के वीरों के नाम और उनको नमन।
और जो वर्तमान में थे, उन्होंने भ्रष्टाचार, महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों, रिश्वतखोरी, बिखरते पारिवारिक सम्बन्धों, वर्तमान में भटकी हुई, स्वार्थान्धता में जीती युवा पीढ़ी, आधुनिक नार, आदि के बारे में ही बात की।
मैं चकित !
क्या हमारा भारत बस यहीं तक सीमित है ? जब हम भारत के बारे में बात करते हैं तो इससे आगे कहने के लिए क्या हमारे पास कुछ भी नहीं है? आश्चर्य होता है।
यह हमारे लिए गर्व की बात है कि हम एक संस्कृति-सम्पन्न प्राचीन राष्ट्र के नागरिक हैं। वे, जो हमें आज़ादी के भारत में जीवन दे गये, नमन्य हैं।
किन्तु क्या भारत इतना ही है?
आज हम एक स्वतन्त्र, आत्मनिर्भर, सुशिक्षित, साधन सम्पन्न, विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र, गणतन्त्र, विकसित भारत के नागरिक हैं। भारत एक विकासशील नहीं विकसित देश है। भारतीय नागरिक के पास सर्वाधिक मौलिक अधिकार हैं। सूचना का अधिकार है। यह विश्व का एकमात्र देश है जहां धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक, स्वतन्त्रता है, धर्म, जाति, क्षेत्र से इतर। जल, थल और नभ तीनों क्षेत्रों पर हमारी सेनाओं का अधिकार है। भारत ऐसा पहला देश है जिसने अपनी संचार प्रणाली के लिए स्वदेशी सैटेलाईट का निर्माण किया।
चांद तक की यात्रा भारत ने तय कर ली है। स्वविकसित परमाणु उर्जा से सम्पन्न राष्ट्र होने का गौरव हमें प्राप्त है। विश्व की सवार्धिक 325 भाषाएं तथा 1650 बोलियां भारत में बोली जाती हैं। जिसमें से 29 भाषाएं संविधान में स्वीकृत हैं।
विश्व की चैथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था भारत की है। भारत में जीवन की औसत आयु 32 वर्ष से बढ़कर 65 वर्ष हो गई है। भारतीय नागरिक को आधुनिक सुख सुविधाओं से सम्पन्न जीवन मिला है।
1951 में शिक्षा की दर मात्र 18.23 प्रतिशत थी जो वर्तमान में 77.8 प्रतिशत से भी अधिक हो चुकी है। देश में लगभग 1000 विश्वविद्यालय तथा 45,000 महाविद्यालय हैं। इनके अतिरिक्त लगभग 1500 अन्य क्षेत्रों के उच्च शिक्षा संस्थान हैं। विदेशों से लाखों विद्यार्थी भारत में शिक्षा ग्रहण करने के आते हैं। चिकित्सा की आयुर्वेद पद्धति एवं योग के लिए पूरा विश्व भारत के समक्ष नतमस्तक है।
विश्व के सबसे अधिक समाचार पत्र भारत में प्रकाशित होते हैं।
विश्व में सबसे अधिक दोपहिया वाहनों का निर्माण भारत में होता है। दुग्ध एवं मक्खन का सबसे बड़ा उत्पादक देश है। चीनी उत्पादन के क्षेत्र में दूसरे नम्बर पर तथा कपास के क्षेत्र में तीसरा बड़ा उत्पादक देश है। विश्व का 90 प्रतिशत हीरे तराशने का कार्य भारत में होता है। विश्व के सर्वाधिक बैंक खाते तथा डाकघर भारत में हैं।
विश्व का सबसे बड़ा धार्मिक मेला भारत में कुम्भ का मेला आयोजित होता है जिसमें लगभम 30 करोड़ लोग हिस्सा लेते हैं।
देश ने सर्वांगीण विकास किया है। आज विश्व की निर्भरता भारतीय वैज्ञानिक, चिकित्सक, इंजीनीयर, आई टी, व्यवसायी, पत्रकार, समाजसेवी, सब पर बढ़ी है।
विश्व के बड़े-बड़े देश आज भारतीय मेधा पर आश्रित हैं। डाक्टर, इंजीनियर, आई.टी, के क्षेत्र में पूरे विश्व में भारतीयों की धाक है।
मेरे प्रस्तुत आंकड़े पुराने हो सकते हैं, और इनमें और भी बढ़ोतरी निश्चित रूप से हुई होगी।
फिर भारत के बारे में बात करते हुए हमारा ध्यान इस ओर क्यों नहीं जाता?
यदि कुछ अच्छा नहीं है तो उस पर विचार करें, समाधान का प्रयास करें, अपना सहयोग दें और जो अच्छा है उसकी अधिक से अधिक चर्चा करें, सकारात्मक वातावरण बनायें।
जीवन की यही असली कहानी है
आज आपको दिल की सच्ची बात बतानी है
काम का मन नहीं, सुबह से चादर तानी है
पल-पल बदले है सोच, पल-पल बदले भाव
शायद हर जीवन की यही असली कहानी है।
शिकायतों का पुलिंदा
शिकायतों का
पुलिंदा है मेरे पास।
है तो सबके पास
बस सच बोलने का
मेरा ही ठेका है।
काश!
कि शिकायतें
आपसे होतीं
किसी और से होतीं,
इससे-उससे होतीं,
तब मैं कितनी प्रसन्न होती,
बिखेर देती
सारे जहाँ में।
इसकी, उसकी
बुराईयाँ कर-कर मन भरती।
किन्तु
क्या करुँ
सारी शिकायतें
अपने-आपसे ही हैं।
जहाँ बोलना चाहिए
वहाँ चुप्पी साध लेती हूँ
जहाँ मौन रहना चाहिए
वहाँ बक-झक कर जाती हूँ।
हँसते-हँसते
रोने लग जाती हूँ,
रोते-रोते हँस लेती हूँ।
न खड़े होने का सलीका
न बैठने का
न बात करने का,
बहक-बहक जाती हूँँ
मन कहीं टिकता नहीं
बस
उलझी-उलझी रह जाती हूँ।
अब शब्दों के अर्थ व्यर्थ हो गये हैं
शब्दकोष में अब शब्दों के अर्थ
व्यर्थ हो गये हैं।
हर शब्द
एक नई अभिव्यक्ति लेकर आया है।
जब कोई कहना है अब चारों ओर शांति है
तो मन डरता है
कोई उपद्रव हुआ होगा, कोई दंगा या मारपीट।
और जब समाचार गूंजता है
पुलिस गश्त कर रही है, स्थिति नियन्त्रण में है
तो स्पष्ट जान जाते हैं हम
कि बाहर कर्फ्यू है, कुछ घर जले हैं
कुछ लोग मरे हैं, सड़कों पर घायल पड़े हैं।
शायद, सेना का फ्लैग मार्च हुआ होगा
और हमें अब अपने आपको
घर में बन्द करना होगा ।
अहिंसा के उद्घोष से
घटित हिंसा का बोध होता है।
26 जनवरी, 15 अगस्त जैसे दिन
और बुद्ध, नानक, कबीर, गांधी, महावीर के नाम पर
मात्र एक अवकाश का एहसास होता है
न कि किसी की स्मृति, ज्ञान, शिक्षा, बलिदान का।
धर्म-जाति, धर्मनिरप्रेक्षता, असाम्प्रदायिकता,
सद्भाव, मानवता, समानता, मिलन-समारोह
जैसे शब्द डराते हैं अब।
वहीं, आरोपी, अपराधी, लुटेरे,
स्कैम, घोटाले जैसे शब्द
अब बेमानी हो गये हैं
जो हमें न डराते हैं, और न ही झिंझोड़ते हैं।
“वन्दे मातरम्” अथवा “भारत माता की जय”
के उद्घोष से हमारे भीतर
देश-भक्ति की लहर नहीं दौड़ती
अपितु अपने आस-पास
किसी दल का एहसास खटकता है
और प्राचीन भारतीय योग पद्धति के नाम पर
हमारा मन गर्वोन्नत नहीं होता
अपितु एक अर्धनग्न पुरूष गेरूआ कपड़ा ओढ़े
घनी दाढ़ी और बालों के साथ
कूदता-फांदता दिखाई देता है
जिसने कभी महिला वस्त्र धारण कर
पलायन किया था।
कोई मुझे “बहनजी” पुकारता है
तो मायावती होने का एहसास होता है
और “पप्पू” का अर्थ तो आप जानते ही हैं।
कुछ ज़्यादा तो नहीं हो गया।
कहीं आप उब तो नहीं गये
चलो आज यहीं समाप्त करती हूं
बदले अर्थों वाले शब्दकोष के कुछ नये शब्द लेकर
फिर कभी आउंगी
अभी आप इन्हें तो आत्मसात कर लें
और अन्त में, मैं अब
बुद्धिजीवी, साहित्यकार, कलाकार और
सम्मान शब्दों के
नये अर्थों की खोज करने जा रही हूं।
ज्ञात होते ही आपसे फिर मिलूंगी
या फिर उनमें जा मिलूंगी
फिर कहां मिलूंगी ।।।।।।।
जब भी दूध देखा
सुना ही है
कि भारत में कभी
दूध-घी की
नदियाँ बहा करती थीं।
हमने तो नहीं देखीं।
बहती होंगी किसी युग में।
हमने तो
दूध को सदा
टीन के पीपों से ही
बहते देखा है।
हम तो समझ ही नहीं पाये
कि दूध के लिए
दुधारु पशुओं का नाम
क्यों लिया जाता है।
कैसे उनका दूध समा जाता है
बन्द पीपों में
थैलियों में और बोतलों में।
हमने तो जब भी दूध देखा
सदा पीपों में, थैलियों में
बन्द बोतलों में ही देखा।
विज्ञापन
शहर के बीचों बीच,
चौराहे पर,
हनुमान जी की मूर्ति
खड़ी थी।
गदा
ज़मीन पर टिकाये।
दूसरा हाथ
तथास्तु की मुद्रा में।
साथ की दीवार लिखा था,
गुप्त रोगी मिलें,
हर मंगलवार,
बजरंगी औषधालय,
गली संकटमोचन,ऋषिकेश।
किस शती में जी रहे हैं हम
एक छात्रा के साथ हुई मेरी बातचीत, आपके समक्ष शब्दशः प्रस्तुत
******************-****************-***
जैसा कि आप जानते हैं मैं एक विद्यालय में कार्यरत हूं। एक छात्रा 12 वीं का प्रमाणपत्र लेने के लिए आई तो मैंने देखा] उसकी फ़ाईल में पासपोर्ट है। मैंने उत्सुकतावश पूछा, उच्च शिक्षा के लिए कहां जा रही हा,े और कौन से क्षेत्र में।
उसका उत्तर थाः चीन, एम. बी. बी. एस, एम. डी और एक और डिग्री बताई उसने, कि दस वर्ष की शैक्षणिक अवधि है। मैं चकित।
चीन? क्यों कोई और देश नहीं मिला, क्योंकि इससे पूर्व मैं नहीं जानती थी कि उच्च शिक्षा के लिए हमारे देश के विद्यार्थी चीन को भी चुन रहे हैं।
चीन ही क्यों? उसका सरल सा उत्तर था कि वहां पढ़ाई बहुत सस्ती है, विश्व के प्रत्येक देश से सस्ती। मात्र तीस लाख में पूरा कोर्स होगा।
मात्र तीस लाख उसने ऐसे कहा जैसे हम बचपन में तीन पैसे फीस दिया करते थे। अच्छा मात्र तीस लाख?
भारत में इसकी फीस कितनी है ?
उसने अर्द्धसरकारी एवं निजी संस्थानों की जो फीस बताई वह सुनकर अभी भी मेरी नींद उड़ी हुई है। उसका कथन था कि पंजाब में साधारण से मैडिकल कालेज की फीस भी लगभग डेढ़ करोड़ तक चली जाती है। मुझे लगा मैं ही अभी अट्ठाहरवीं शताब्दी की प्राणी हूं।
वह स्वयं भी कही आहत थी। उसने आगे जानकारी दी।
दो बहनें। एक का विवाह पिछले ही वर्ष हुआ जो कि आई टी सी में कार्यरत थी, किन्तु ससुराल वालों के कहने पर विवाह-पूर्व ही नौकरी छोड़ दी। किन्तु यह वादा किया कि विवाह के बाद उसी शहर में कोई और नौकरी करना चाहे तो कर लेगी। किन्तु जब उसका बैंक में चयन हो गया तो उसे नौकरी की अनुमति नहीं दी जा रही कि घर में किस बात की कमी है जो नौकरी करनी है। इतना उसके विवाह पर खर्च हुआ फिर भी खुश नहीं हैं।
कितना ?
60 लाख।
तो तुम्हारी शादी के लिए भी है?
हां है।
और तुम डाक्टर बन कर लौटी और तुम्हें भी काम नहीं करने दिया गया तो?
वह निरूत्तर थी।
मैंने उससे खुलकर एक प्रश्न किया कि जब तुम्हारी जाति में इतना दहेज लिया जाता है, तो बाहर विवाह क्यों नहीं हो सकते।
नहीं परिवार के सम्मान की बात है। जाति से बाहर विवाह नहीं कर सकते। प्रेम&विवाह भी नहीं , समाज में परिवार का मान नहीं रहता। परिवार बहिष्कृत हो जाते हैं।
धरा पर उतर
चांद को छू ले
एक बार,
फिर धरा पर उतर,
पांव रख।
आज मैं साथ तेरे
कल अकेले
तुझे आप ही
सारी सीढि़यां नापनी होंगी।
जीवन में सीढि़यां चढ़
सहज-सहज
चांद आप ही
तेरे लिए
धरा पर उतर आयेगा।
बस स्नेह की वाणी बोल रे
बस दो मीठे बोल बोल ले
जीवन में मधुरस घोल ले
सहज-सहज बीतेगा जीवन
बस स्नेह की वाणी बोल रे
ज़िन्दगी मिली है आनन्द लीजिए
ज़िन्दगी मिली है आनन्द लीजिए, मौत की क्यों बात कीजिए
मन में कोई भटकन हो तो आईये हमसे दो बात कीजिए
आंख खोलकर देखिए पग-पग पर खुशियां बिखरी पड़ी हैं
आपके हिस्से की बहुत हैं यहां, बस ज़रा सम्हाल कीजिए
तीर खोज रही मैं
गहरे सागर के अंतस में
तीर खोज रही मैं।
ठहरा-ठहरा-सा सागर है,
ठिठका-ठिठका-सा जल।
कुछ परछाईयां झलक रहीं,
नीरवता में डूबा हर पल।
-
चकित हूं मैं,
कैसे द्युतिमान जल है,
लहरें आलोकित हो रहीं,
तुम संग हो मेरे
क्या यह तुम्हारा अक्स है?
मन में बसन्त खिलता है
जीवन में कुछ खुशियां
बसन्त-सी लगती हैं।
और कुछ बरसात के बाद
मिट्टी से उठती
भीनी-भीनी खुशबू-सी।
बसन्त के आगमन की
सूचना देतीं,
आती-जाती सर्द हवाएं,
झरते पत्तों संग खेलती हैं,
और नव-पल्ल्वों को
सहलाकर दुलारती हैं।
पत्तों पर झूमते हैं
तुषार-कण,
धरती भीगी-भीगी-सी
महकने लगती है।
फूलों का खिलना
मुरझाना और झड़ जाना,
और पुनः कलियों का लौट आना,
तितलियों, भंवरों का गुनगुनाना,
मन में यूं ही
बसन्त खिलता है।
काश ! पहाड़-सी होती मेरी ज़िन्दगी
काश ! पहाड़-सी होती मेरी ज़िन्दगी
ज़रा-ज़रा सी बात पर
यूं ही
भरभराकर
नहीं गिर जाते ये पहाड़।
अपने अन्त:करण में
असंख्य ज्वालामुखी समेटे
बांटते हैं
नदियों की तरलता
झरनों की शरारत
नहरों का लचीलापन।
कौन कहेगा इन्हें देखकर
कि इतने भाप्रवण होते हैं ये पहाड़।
पहाड़ों की विशालता
अपने सामने
किसी को बौना नहीं करती।
अपने सीने पर बसाये
एक पूरी दुनिया
ज़मीन से उठकर
कितनी सरलता से
छू लेते हैं आकाश को।
बादलों को सहलाते-दुलारते
बिजली-वर्षा-आंधी
सहते-सहते
कमज़ोर नहीं हो जाते यह पहाड़।
आकाश को छूकर
ज़मीन को नहीं भूल जाते ये पहाड़।
ज़रा-ज़रा सी बात पर
सागर की तरह
उफ़न नहीं पड़ते ये पहाड़।
नदियों-नहरों की तरह
अपने तटबन्धों को नहीं तोड़ते।
बार-बार अपना रास्ता नहीं बदलते
नहरों-झीलों-तालाबों की तरह
झट-से लुप्त नहीं हो जाते।
और मावन-मन की तरह
जगह-जगह नहीं भटकते।
अपनी स्थिरता में
अविचल हैं ये पहाड़।
अपने पैरों से रौंद कर भी
रौंद नहीं सकते तुम पहाड़।
पहाड़ों को उजाड़ कर भी
उजाड़ नहीं सकते तुम पहाड़।
पहाड़ की उंचाई
तो शायद
आंख-भर नाप भी लो
लेकिन नहीं जान सकते कभी
कितने गहरे हैं ये पहाड़।
बहुत बड़ी चाहत है मेरी
काश !
पहाड़-सी होती मेरी ज़िन्दगी।
बारिश के मौसम में
बारिश के मौसम में मन देखो, है भीग रहा
तरल-तरल-सा मन-भाव यूं कुछ पूछ रहा
क्यों मन चंचल है आज यहां कौन आया है
कैसे कह दूं किसकी यादों में मन सीज रहा
दुनिया मेरी मुट्ठी में
बहुत बड़ा है जगत,
फिर भी कुछ सीढ़ियां चढ़कर
एक गुरूर में
अक्सर कह बैठते हैं हम
दुनिया मेरी मुट्ठी में।
सम्बन्ध रिस रहे हैं,
भाव बिखर रहे हैं,
सांसे थम रही हैं,
दूरियां बढ़ रही हैं।
अक्सर विपदाओं में
साथ खड़े होते हैं,
किन्तु यहां सब मुंह फेर पड़े हैं।
सच कहें तो लगता है,
न तेरे वश में, न मेरे वश में,
समझ से बाहर की बात हो गई है।
समय पर चेतते नहीं।
अब हाथ जोड़ें,
या प्रार्थनाएं करें,
बस देखते रहने भर की बात हो गई है।
अपना जीवन है
अपनी इच्छाओं पर जीने का साहस रख
कोई क्या कहता है इससे न मतलब रख
घुट-घुटकर जीना भी कोई जीना है यारो
अपना जीवन है, औरों के आरोप ताक पर रख
ज़िन्दगी के गीत
ज़िन्दगी के कदमों की तरह
बड़ा कठिन होता है
सितार के तारों को साधना।
बड़ा कठिन होता है
इनका पेंच बांधना।
यूँ तो मोतियों के सहारे
बांधी जाती हैं तारें
किन्तु ज़रा-सा
ढिलाई या कसाव
नहीं सह पातीं
जैसे प्यार में ज़िन्दगी।
मंद्र, मध्य, तार सप्तक की तरह
अलग-अलग भावों में
बहती है ज़िन्दगी।
तबले की थाप के बिना
नहीं सजते सितार के सुर
वैसे ही अपनों के साथ
उलझती है जिन्दगी
कभी भागती, कभी रुकती
कभी तानें छेड़ती,
राग गाती,
झाले-सी दनादन बजती,
लड़ती-झगड़ती
मन को आनन्द देती है ज़िन्दगी।
मन में विषधर पाले
विषधर तो है !
लेकिन देखना होगा,
विष कहां है?
आजकल लोग
परिपक्व हो गये हैं,
विष निकाल लिया जाता है,
और इंसान के मुख में
संग्रहीत होता है।
तुम यह समझकर
नाग को मारना,
कुचलना चाहते हो,
कि यही है विषधर
जो तुम्हें काट सकता है।
अब न तो
नाग पकड़ने वाले रह गये,
कि नाग का नृत्य दिखाएंगे,
न नाग पंचमी पर
दुग्ध-दहीं से अभिषेक करने वाले।
मन में विषधर पाले
ढूंढ लो चाहे कितने,
मिल जायेंगे चाहने वाले।
समय जब कटता नहीं
काम है नहीं कोई
इसलिए इधर की उधर
उधर की इधर
करने में लगे हैं हम आजकल ।
अपना नहीं,
औरों का चरित्र निहारने में
लगे हैं आजकल।
पांव धरा पर टिकते नहीं
आकाश को छूने की चाहत
करने लगे हैं हम आजकल।
समय जब कटता नहीं
हर किसी की बखिया उधेड़ने में
लगे रहते हैं हम आजकल।
और कुछ न हो तो
नई पीढ़ी को कोसने में
लगे हैं हम आजकल।
सुनाई देता नहीं, दिखाई देता नहीं
आवाज़ लड़खड़ाती है,
पर सारी दुनिया को
राह दिखाने में लगे हैं हम आजकल।
आत्मविश्वास :यह अंहकार नहीं है
आत्मविश्वास की डोर लिए चलते हैं यह अभिमान नहीं है।
स्वाभिमान हमारा सम्बल है यह दर्प का आधार नहीं है।
साहस दिखलाया आत्मनिर्भरता का, मार्ग यह सुगम नहीं,
अस्तित्व बनाकर अपना, जीते हैं, यह अंहकार नहीं है।
चेतना का जागरण
जब मैं अपना शोध कार्य कर रही थी तब मैंने पढ़ा था कि एक सामाजिक चेतना हुआ करती है जो कालिक होती है। जैसे हिन्दी साहित्य के मध्यकाल में भक्ति भाव की चेतना थी। कवि, चित्रकार, गायक, संगीतकार, शिल्पी सब भक्ति-भाव में डूबे थे। उसके बाद चेतना में परिवर्तन आया और रीति काल का आगमन हुआ। इस काल में सब श्रृंगारिक भाव में डूब गये, यह एक कालिक चेतना हुआ करती थी, जिस कारण सबके मन में एक से ही भाव उमड़ते थे, और समान भाव पर सृजन होता था। यही छायावादी काल, प्रगतिवाद और कुछ और वादों के काल में भी हुआ। यह मैं नहीं कह रही, मैंने कहीं पढ़ा था इस सामाजिक चेतना के बारे में।
आप कहेंगे, आज क्यों याद आ गई मुझे इस चेतना की।
अब मुझे क्यों याद आई इस चेतना की , बताने के लिए ही तो यह लिखना शुरू किया है, यह तो मात्र भूमिका था, आपको उलझाने के लिए।
तो ऐसा है कि पहले यह चेतना शताब्दियों की होती थी। शायद 250-300 वर्षों की। जैसे भक्ति काल और रीति काल। फिर अवधि घटने लगी। दशकों तक आ गई, जैसे भारतेन्दु युग, छायावादी काल, प्रगतिवाद, नई कविता आदि। मेरा ज्ञान थोड़ा कच्चा और जिसे Time out कहते हैं, यदि आपको लगे तो सम्हाल लीजिएगा।
फिर दशक छूटे, साल रह गये। और वर्तमान में यह चेतना दैनिक हो गई है।
मुझे इतना ज्ञान कैसे मिला, यहीं फ़ेसबुक से मित्रो, आपकी जिज्ञासा शांत करती हूं। यह मेरा शोध कार्य है।
वर्तमान में चेतनाओं का रूप बहुत विस्तृत हो गया है।
पिछले वर्ष से कोरोना की चेतना गतिमान है। इस बीच मदिरा की चेतना आई थी और फिर श्रमिकों की। वास्तविक श्रमिक चेतना एक मई को आती है। अनेक बार मातृ चेतना होती है। आजकल सरकारी तौर पर बेटी चेतना का बहुत विस्तार हुआ है।
वर्तमान में चेतनाएं दैनिक अधिक होने लगी हैं, जो कभी-कभी एक-दो दिन तक विस्तारित हो जाती हैं। 14 फ़रवरी को प्रेम के देवता की दैनिक चेतना होती है। ऐसे ही 8 मार्च को महिलाओं की दैनिक चेतना होती है, किसी दिन बेटी की। वर्ष में एक दिन योग की भी चेतना होती है । वर्ष में तीन-चार अलग-अलग दिनों में राष्ट्र प्रेम की चेतना होती है। देवियों की चेतना वर्ष में दो बार नौ-नौ दिन की होती है। पूरे वर्ष में 25-30 या इससे भी ज़्यादा देवी देवताओं की चेतना दैनिक होती है। कुछ चेतनाएं घटनावश सृजित होती हैं। जैसे किसी आतंकवादी घटना के घटने पर, प्राकृतिक प्रकोप पर, मानवीय दुर्घटना आदि पर।
इन सबके अतिरिक्त राजनीतिक चेतना, व्यापारिक चेतना, धार्मिक चेतना, नकल चेतना, रिश्वत चेतना आदि का भी विस्तार है, जिन पर अभी मैं शोध कार्य कर रही हूं।
इनके अतिरिक्त राजनीतिक चेतना, व्यापारिक चेतना, धार्मिक चेतना, नकल चेतना, रिश्वत चेतना आदि चेतनाएँ भी अत्यन्त महत्वपूर्ण चेतनाएँ हैं जिन पर भविष्य में अवश्य एक नवीन चेतना के साथ चिन्तन होगा।बेटा पूछता है, पुत्र दिवस की चेतना कब होती है मां। किसी को पता हो तो बताईएगा।
मैं भी आजकल प्रतिदिन योगासन कर रही हूं नवीन चेतनाओं के जागरण के लिए।