आदरणीय शिव जी पर एक रचना

कुछ कथाएं

मुझे कपोल-कल्पित लगती हैं

एक आख्यान

किसी कवि-कहानीकार की कल्पना

किसी बीते युग का

इतिहास का पुर्नआख्यन,

कहानी में कहानी

कहानी में कहानी और

फिर कहानी में कहानी।

जाने-अनजाने

घर कर गई हैं हमारे भीतर

इतने गहरे तक

कि समझ-बूझ से परे हो जाती हैं।

**     **      **          **
भूत-पिचाश हमारे भीतर

बुद्धि पर भभूत चढ़ी है,

विषधर पाले अपने मन में

नर-मुण्डों-सा भावहीन मन है।

वैरागी की बातें करते

लूट-खसोट मची हुई है।

आंख-कान सब बंद किये हैं

गौरी, सुता सब डरी हुई हैं।

त्रिपुरारी, त्रिशूलधारी की बातें करते

हाथों में खंजर बने हुए हैं।

गंगा की तो बात न करना

भागीरथी रो रही है।

डमरू पर ताण्डव करते

यहां सब डरे हुए हैं।

**     **          **     **

फिर कहते

शिव-शिव, शिव-शिव,

शिव-शिव, शिव-शिव।