अपनों की यादें

अपनों की यादें

कुछ कांटें, कुछ फूल

कुछ घाव, कुछ मरहम

कुछ हँसी, कुछ रुदन

धुंधलाते चेहरे।

.

ज़िन्दगी बीत गई

अपनों-परायों की

पहचान ही न हो पाई।

वे अपने थे या पराये

कभी समझ ही न पाये।

हमारे जीवन के

फीके पड़ते रंगों में

रिश्ते भी

फीके पड़ने लगे।

पहचान मिटने लगी,

नाम सिमटने लगे।

आंधियों में

वे सब

दूर ओट में खड़े

देखते रहे हमें

बिखरते हुए,

और 

इन्द्रधनुष खिलते ही

वे हमें पहचान गये।

अपने कौन होते हैं

आज तक

जान ही न पाये।

 

धागों का रिश्ता
कहने को कच्चे धागों का रिश्ता, पर मज़बूत बड़ा होता है

निःस्वार्थ भावों से जुड़ा यह रिश्ता बहुत अनमोल होता है

भाई यादों में जीता है जब बहना दूर चली चली जाती है

राखी-दूज पर मिलने आती है, तब आनन्द दूना होता है।

माँ का प्यार

माँ का अँक

एक सुरक्षा-कवच

कभी न छूटे

कभी न टूटे

न हो विलग।

 

माँ के प्राण

किसी तोते समान

बसते हैं

अपने शिशु में

कभी न हों  विलग।

जीवन की आस

बस तेरे साथ

जीवन यूँ ही बीते

तेरी साँस मेरी आस।

 

अपनेपन को समझो

रिश्तों में जब बिखराव लगे तो अपनी सीमाएं समझो

किसी और की गलती से पहले अपनी गलती परखो

इससे पहले कि डोरी हाथ से छूटती, टूटती दिखे

कुछ झुक जाओ, कुछ मना लो, अपनेपन को समझो

जीवन की डगर चल रही

राहें पथरीली

सुगम सुहातीं।

कदम-दर कदम

चल रहे

साथ न छूटे

बात न छूटे,

अगली-पिछली भूल

बस बढ़ते जाते।

साथ-साथ

चलते जाते।

क्यों आस करें किसी से

हाथों में हाथ दे

बढ़ते जाते।

जीवन की डगर चल रही,

मंज़िल की ओर बढ़ रही,

न किसी से शिकवा

न शिकायत।

धीरे-धीरे

पग-भर सरक रही,

जीवन की डगर चल रही।

 

मेरे मित्र

उपर वाला

बहुत रिश्ते बांधकर देता है

लेकिन कहता है

कुछ तो अपने लिए

आप भी मेहनत कर

इसलिए जिन्दगी में

दोस्त आप ही ढूंढने पड़ते हैं

लेकिन कभी-कभी उपरवाला भी

दया दिखाता है

और एक अच्छा दोस्त झोली में

डालकर चला जाता है

लेकिन उसे समझना

और पहचानना आप ही पड़ता है।

.

कब क्या कह बैठती हूं

और क्या कहना चाहती हूं

अपने-आप ही समझ नहीं पाती

शब्द खिसकते है

कुछ अर्थ बनते हैं

भाव संवरते हैं

और कभी-कभी लापरवाही

अर्थ को अनर्थ बना देती है

.

सब कहते हैं मुझे

कम बोला कर, कम बोला कर

.

पर न जाने कितने दिन रह गये हैं

जीवन के बोलने के लिए

.

मन करता है

जी भर कर बोलूं

बस बोलती रहूं,  बस बोलती रहूं

.

लेकिन ज्यादा बोलने की आदत

बहुत बार कुछ का कुछ

कहला देती है

जो मेरा अभिप्राय नहीं होता

लेकिन

जब मैं आप ही नहीं समझ पाती

तो किसी और को

कैसे समझा सकती हूं

.

किन्तु सोचती हूं

मेरे मित्र

मेरे भाव को समझेंगे

.

हास-परिहास को समझेंगे

न कि

शब्दों का बुरा मानेंगे

उलझन को सुलझा देंगे

कान खींचोंगे मेरे

आंख तरेरेंगे

न कोई

लकीर बनने दोगे अनबन की।

.

कई बार यूं ही

खिंची लकीर भी

गहरी होती चली जाती है

फिर दरार बनती है

उस पर दीवार चिनती है

इतना होने से पहले ही

सुलझा लेने चाहिए

बेमतलब मामले

तुम मेरे कान खींचो

और मै तुम्हारे

 

 

 

यह रिश्ते

माता-पिता के लिए बच्चे वरदान होते हैं।

बच्चों के लिए माता-पिता सरताज होते हैं।

इन रिश्तों में गंगा-यमुना-सी पवित्र धारा बहती है,

यह रिश्ते मानों जीवन का मधुर साज़ होते हैं।

 

रिश्तों में

माता-पिता न मांगें कभी बच्चों से प्रतिदान।

नेह, प्रेम, अपनापन, सुरक्षा, नहीं कोई एहसान।

इन रिश्तों में लेन-देन की तुला नहीं रहती,

बदले में न मांगें बच्चों से कभी बलिदान।

 

बस नेह मांगती है

कोई मांग नहीं करती बस नेह मांगती है बहन।

आशीष देती, सुख मांगती, भाई के लिए बहन।

दुख-सुख में साथी, पर जीवन अधूरा लगता है,

जब भाई भाव नहीं समझता, तब रोती है बहन।

 

निरन्तर बढ़ रही हैं दूरियां

कुछ शहरों की हैं दूरियां, कुछ काम-काज की दूरियां

मेल-मिलाप कैसे बने, निरन्तर बढ़ रही हैं दूरियां

परिवार निरन्तर छिटक रहे, दूर-पार सब जा रहे,

तकनीक आज मिटा रही हम सबके बीच की दूरियां

 

कहानी टूटे-बिखरे रिश्तों की

कुछ यादें,

कुछ बातें चुभती हैं

शीशे की किरचों-सी।

रिसता है रक्त, धीरे-धीरे।

दाग छोड़ जाता है।

सुना है मैंने

खुरच कर नमक डालने से

खुल जाते हैं ऐसे घाव।

किरचें छिटक जाती हैं।

अलग-से दिखाई देने लगती हैं।

घाव की मरहम-पट्टी को भूलकर,

हम अक्सर उन किरचों को

समेटने की कोशिश करते हैं।

कि अरे !

इस छोटे-से टुकड़े ने

इतने गहरे घाव कर दिये थे,

इतना बहा था रक्त

इतना सहा था दर्द।

और फिर अनजाने में

फिर चुभ जाती हैं वे किरचें।

और यह कहानी

जीवन भर दोहराते रहते हैं हम।

शायद यह कहानी

किरचों की नहीं,

टूटे-बिखरे रिश्तों की है ,

या फिर किरचों की

या फिर टूटे-बिखरे रिश्तों की ।।।।

 

अपनी कमज़ोरियों को बिखेरना मत

 

ज़रा सम्हलकर रहना,

अपनी पकड़ बनाकर रखना।

मन की सीमाओं पर

प्रहरी बिठाकर रखना।

मुट्ठियां बांधकर रखना।

भौंहें तानकर रखना।

अपनी कमज़ोरियों को

मंच पर

बिखेरकर मत रखना।

 

मित्र हो या शत्रु

नहीं पहचान पाते,

जब तक

ठोकर नहीं लगती।

 

फिर आंसू मत बहाना,

कि किसी ने धोखा दिया,

या किया विश्वासघात।

अधूरा लगता है जीवन जब सिर पर मां का हाथ नहीं होता

मां का कोई नाम नहीं होता, मां का कोई दाम नहीं होता

मां तो बस मां होती है उसका कोई अलग पता नहीं होता

घर के कण-कण में, सहज-सहज अनदेखी-अनबोली मां

अधूरा लगता है जीवन जब सिर पर मां का हाथ नहीं होता

क्‍यों करें किसी से गिले

कांटों के संग फूल खिले

अनजाने कुछ मीत मिले

सारी बातें आनी जानी हैं

क्‍यों करें किसी से गिले

ज़िन्दगी में मुश्किल से सम्हलते हैं रिश्ते

वे चुप-चुप थे ज़रा, हमने पूछा कई बार, क्या हुआ है

यूं ही छोटी-छोटी बातों पर भी कभी कोई गैर हुआ है

ज़िन्दगी में मुश्किल से सम्हलते हैं कुछ अच्छे रिश्ते

सबसे हंस-बोलकर समय बीते, ऐसा  कब-कब हुआ है

कच्चे धागों से हैं जीवन के रिश्ते

हर दिन रक्षा बन्धन का-सा हो जीवन में

हर पल सुरक्षा का एहसास हो जीवन में

कच्चे धागों से बंधे हैं जीवन के सब रिश्ते

इन धागों में विश्वास का एहसास हो जीवन में

 

जब मांगो हाथ मदद का तब छिपने के स्थान बहुत हैं

बातों में, घातों में, शूरवीर, बलशाली, बलवान,  बहुत हैं

जब मांगो हाथ मदद का, तब छिपने के स्थान बहुत हैं

कैसे जाना, कितना जाना, किसको माना था अपना,

क्या बतलाएं, कैसे बतलाएं, वैसे लेने को तो नाम बहुत है

तुम अपने होते

तुम अपने होते तो मेरे क्रोध में भी प्यार की तलाश करते

तुम अपने होते तो मेरे मौन में भी एहसास की बात करते

मन की दूरियां मिटाने के लिए साथ होना कोई ज़रूरी नहीं

तुम अपने होते तो मेरे रूठने में भी अपनेपन की पहचान करते

मैं क्यों दोषी बेटा पूछे मुझसे

मैं क्या दत्तक हूं जो मेरी बात कभी न करते, बेटा रूठा बैठा है मुझसे
मैंने ऐसा क्या बुरा किया, हरदम हर कोई कोसे लड़के, बेटा पूछे मुझसे
लड़की को शिक्षा दो, रक्षा दो, आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ाओ, कब रोका मैंने
रीति-रिवाज़, परम्पराओं का बन्धन तुमने डाला, मैं क्यों दोषी, बेटा पूछे मुझसे

जब जैसी आन पड़े वैसी होती है मां

मां मां ही नहीं होती
पूरा घर होती है मां।
दरवाज़े, खिड़कियां, दीवारें, 
चौखट, परछत्ती, परदे, बाग−बगीचे,
बाहर−भीतर सब होती है मां।

चूल्हे की लकड़ी − उपले से लेकर
गैस, माइक्रोवेव और माड्यूल किचन तक होती है मां।
दाल –रोटी, बर्तन –भांडे, कपड़े –लत्ते,
साफ़ सफ़ाई, सब होती है मां।

कैलेण्डर, त्योहार, दिन,तारीख
सब होती है मां।

मीठी चीनी से लेकर नीम की पत्ती, तुलसी,
बर्गर − पिज्जा तक सब होती है मां।

कलम दवात से लेकर
कम्प्यूटर, मोबाईल तक सब होती है मां।

स्कूल की पढ़ाई, कालेज की मस्ती,
जब चाहा जेब खर्च
आंचल मे गलतियों को छुपाती
सब होती है मां।

कभी सोती नहीं, बीमार होती नहीं।
सहज समर्पित, 
रिश्तों को बांधती, सहेजती, समेटती, 
दुर्गा, काली, चंडी,

सहस्रबाहु, सहस्रवाहिनी, 
जब जैसी आन पड़े, वैसी होती है मां।

विचलित करती है यह बात

मां को जब भी लाड़ आता है

तो कहती है

तू तो मेरा कमाउ पूत है।

 

पिता के हाथ में जब

अपनी मेहनत की कमाई रखती हूं

तो एक बार तो शर्म और संकोच से

उनकी आंखें डबडबा जाती हैं

फिर सिर पर हाथ फेरकर

दुलारते हुए कहते हैं

मुझे बड़ा नाज़ है

अपने इस होनहार बेटे पर।

 

किन्तु

मुझे विचलित करती है यह बात

कि मेरे माता पिता को जब भी

मुझ पर गर्व होता है

तो वे मुझे

बेटा कहकर सम्बोधित क्यों करते हैं

बेटी मानकर गर्व क्यों नहीं कर पाते।

कौन से रिश्ते अपने, कौन से पराये

हम रह-रहकर मरम्मत करवाते रहे

लोग टूटी छतें आजमाते रहे।

दरारों से झांकने में

ज़माने को बड़ा मज़ा आता है

मौका मिलते ही दीवारें तुड़वाते रहे।

छत  तक जाने के लिए

सीढ़ियां चिन दी

पर तरपाल डालने से कतराते रहे।

कब आयेगी बरसात, कब उड़ेंगी आंधियां

ज़िन्दगी कभी बताती नहीं है

हम यूं ही लोगों को समझाते रहे।

कौन से रिश्ते अपने, कौन से पराये

उलझते रहे हम यूं ही इन बातों में

पतंग के उलझे मांझे सुलझाते रहे

अपनी उंगलियां यूं ही कटवाते रहे।

अजीब शख्स है अपना भी है और पराया भी

अजीब शख्स है

अपना भी है

और पराया भी।

 

डांटता भी है

मनुहार भी करता है।

 

राहें भी रोकता है

और

राहों में पड़े पत्थर भी संवारता है।

 

कभी फूल-सा बरसता है

तो कभी

चट्टान-सा अडिग बन जाता है।

 

जब बरसता है

मन भीग-भीग जाता है,

कभी बिजली की कड़क-सा

डराकर चला जाता है।

 

कभी रोज़ मिलता है,

कभी चांद-सा गायब हो जाता है।

 

कभी पूर्णिमा-सा दमकता है

कभी अमावस का भास देता है।

कभी दोस्त-सा लगता है

कभी दुश्मन-सा चुभता है।

 

अजीब शख्स है

अपना भी है

और पराया भी।

 

ऐसे शख्स के बिना

ज़िन्दगी

ज़िन्दगी नहीं।