अजीब शख्स है अपना भी है और पराया भी

अजीब शख्स है

अपना भी है

और पराया भी।

 

डांटता भी है

मनुहार भी करता है।

 

राहें भी रोकता है

और

राहों में पड़े पत्थर भी संवारता है।

 

कभी फूल-सा बरसता है

तो कभी

चट्टान-सा अडिग बन जाता है।

 

जब बरसता है

मन भीग-भीग जाता है,

कभी बिजली की कड़क-सा

डराकर चला जाता है।

 

कभी रोज़ मिलता है,

कभी चांद-सा गायब हो जाता है।

 

कभी पूर्णिमा-सा दमकता है

कभी अमावस का भास देता है।

कभी दोस्त-सा लगता है

कभी दुश्मन-सा चुभता है।

 

अजीब शख्स है

अपना भी है

और पराया भी।

 

ऐसे शख्स के बिना

ज़िन्दगी

ज़िन्दगी नहीं।