न लिख पाने की पीड़ा

भावों का बवंडर उठता है मन में, कुछ लिख ले, कहता है

कलम उठती है, भाव सजते हैं, मन में एक लावा बहता है

कहीं से एक लहर आती है, सब छिन्‍न-भिन्‍न कर जाती है

न लिख पाने की पीड़ा कभी कभी यहां मन बहुत सहता है

स्वनियन्त्रण से ही मिटेगा भ्रष्टाचार

नित परखें हम आचार-विचार

औरों की सोच पर करते प्रहार

अपने भाव परखते नहीं हम कभी

स्वनियन्त्रण से ही मिटेगा भ्रष्टाचार

 

 

रंगों की चाहत में बीती जिन्दगी

रंगों की भी अब रंगत बदलने लगी है
सुबह भी अब शाम सी ढलने लगी है
इ्द्र्षधनुषी रंगों की चाहत में बीती जिन्दगी
अब इस मोड़ पर आकर क्यों दरकने लगी है।

सुना है कोई भाग्य विधाता है

सुना है

कोई भाग्य विधाता है

जो सब जानता है।

हमारी होनी-अनहोनी

सब वही लिखता है ,

हम तो बस

उसके हाथ की कठपुतली हैं

जब जैसा चाहे वैसा नचाता है।

 

और यह भी सुना है

कि लेन-देन भी सब

इसी ऊपर वाले के हाथ में है।

जो चाहेगा वह, वही तुम्हें देगा।

बस आस लगाये रखना।

हाथ फैलाये रखना।

कटोरा उठाये रखना।

मुंह बाये रखना।

लेकिन मिलेगा तुम्हें वही

जो तुम्‍हारे  भाग्य में होगा।

 

और यह भी सुना है

कर्म किये जा,

फल की चिन्ता मत कर।

ऊपर वाला सब देगा

जो तुम्हारे भाग्य में लिखा होगा।

और भाग्य उसके हाथ में है

जब चाहे बदल भी सकता है।

बस ध्यान लगाये रखना।

 

और यह भी सुना है

कि जो अपनी सहायता आप करता है

उसका भाग्य ऊपर वाला बनाता है।

इसलिए अपनी भी कमर कस कर रखना

उसके ही भरोसे मत बैठे रहना।

 

और यह भी सुना है

हाथ धोकर

इस ऊपर वाले के पीछे लगे रहना।

तन मन धन सब न्योछावर करना।

मन्दिर, मस्जिद, गुरूद्वारा कुछ न छोड़ना।

नाक कान आंख मुंह

सब उसके द्वार पर रगड़ना।

और फिर कुछ बचे

तो अपने लिए जी लेना

यदि भाग्य में होगा तो।

 

आपको नहीं लगता

हमने कुछ ज़्यादा ही सुन लिया है।

 

अरे यार !

अपनी मस्ती में जिये जा।

जो सामने आये अपना कर्म किये जा।

जो मिलना है मिले

और जो नहीं मिलना है न मिले

बस हंस बोलकर आनन्द में जिये जा।

और मुंह ढककर अच्छी नींद लिये जा।

 

बस नेह मांगती है

कोई मांग नहीं करती बस नेह मांगती है बहन।

आशीष देती, सुख मांगती, भाई के लिए बहन।

दुख-सुख में साथी, पर जीवन अधूरा लगता है,

जब भाई भाव नहीं समझता, तब रोती है बहन।

 

झुकना तो पड़ता ही है

कहां समय  मिलता है

कमर सीधी करने का।

काम कोई भी करें,

घर हो या खलिहान,

झुकना तो पड़ता ही है,

झुककर ही

काम करना पड़ता है।

फिर धीरे-धीरे

आदत हो जाती है,

झुके रहने की।

और फिर एक  समय

ऐसा  आता है

कि सिर उठाकर

चलना ही भूल जाती हैं।

फिर,

कहां कभी सिर  उठाकर

चल पाती हैं।

 

कभी हमारी रचना पर आया कीजिए

समीक्षा कीजिए, जांच कीजिए, पड़ताल कीजिए।

इसी बहाने कभी-कभार रचना पर आया कीजिए।

बहुत आशाएं तो हम करते नहीं समीक्षकों से,

बहुत खूब, बहुत सुन्दर ही लिख जाया कीजिए।

खुशियों के रंग

द्वार पर अल्पना

मानों मन की कोई कल्पना

रंगों में रंग सजाती

मन के द्वार खटखटाती

पाहुन कब आयेगा

द्वार खटखटाएगा।

मन के भीतर

रंगीनियां सजेंगी

घर के भीतर

खुशियां बसेंगीं।

 

मेरे बाबाजी ऐसे क्यों न थे

मेरा यह आलेख उस समय का है जब मीडिया में तरह-तरह के बाबा छाये हुए थे, उनके पास खरीदा हुआ समय था, अपने चैनल थे, बहुत बड़ा प्रचार माध्यम था, जिनमें से आज कुछ कारागार में, कुछ की दुकानदारी बन्द हो चुकी है। किन्तु अपने समय में इन्होने जिन उंचाईयों को छुआ वे समझने वाली थीं। उस पर ही मेरी यह व्यंग्य रचना।

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आजकल जब टी.वी. पर बाबाओं को देखती हूँ  तो मन में एक हूक उठती है, मेरे बाबाजी ऐसे क्यों न थे? यह एक समय की बात है जब मेरे भी एक बाबाजी हुआ करते थे। वैसे मेरे एक नहीं पाँच- पाँच बाबा हुआ करते थे किन्तु मेरे एक भी बाबा ऐसे क्यों न थे यही मेरी पीड़ा है। मेरे बाबा अर्थात् मेरे पिता के पिता जिन्हें आजकल बड़े पा, दादू, दद्दा, बड़े डैड, सीनियर डैड वगैरह कहा जाता है उन्हें ही हमारे ज़माने में बाबाजी कहा जाता था। और फिर मेरे तो एक नहीं पाँच- पाँच बाबा थे। एक मेरे सगे बाबाजी और चार उनके भाई। और वे पाँचों एक ही घर में रहा करते थे। किन्तु मेरा दुख यह कि मेरे एक भी बाबाजी ऐसे क्यों न थे?

अब आप जानना चाहेंगे कि मेरे बाबाजी ‘ऐसे’ क्यों न थे अर्थात् ‘कैसे’ क्यों न थे? अब इसमें बताने की क्या बात है। आज जब मैं टी. वी. पर, समाचार-पत्रों में इन बाबाओं को देखती-सुनती हूँ तो मेरे मन में एक कसक पैदा होती है कि मेरे बाबाजी ऐसे क्यों न थे। मेरे बाबाजी - बड़े हुए, शादी कर ली, ईमानदारी का व्यवसाय किया, परिवार को ईमानदारी, सच्चाई, त्याग, सच्चरित्रता, आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ाया और यही सब कुछ विरासत में अपने परिवार को देकर चल बसे। अब आप ही बताईए कितना पीड़ादायक है ऐसे बाबा के परिवार का सदस्य होना।

एक मेरे बाबा थे और एक ये आजकल के बाबा हैं। हां, धोती-कुर्ता वे भी पहनते थे ये भी पहनते हैं। सच्चाई, ईमानदारी, त्याग, दान का महत्व वे भी समझाते थे और ये भी समझाते हैं। वे भी गांव में पैदा हुए थे और ये भी। किन्तु मेरे बाबाजी मिट्टी को ही सोना कहकर पुकारते रहे और ये मिट्टी में सोना गाढ़ते रहे। मेरे बाबाजी के कुर्ते के नीचे एक बंडी हुआ करती थी और इनके कुर्ते के नीचे बुलेट पू्रफ जैकेट। मेरे बाबाजी ने सारे उपदेश अपने पर थोप रखे थे और इन बाबाओें के उपदेश दूसरों को देने के लिए हैं।

काश! मेरे बाबाओं ने इन आधुनिक बाबाओं से कुछ सीखा होता तो आज हमारा जीवन कितना सुखी-सम्पन्न, आध्यात्मिक होता। एक मेरे बाबा थे छोटा-सा परिवार बसाया, उसके लिए कमाया और चल दिए। और एक ये बाबा हैं सारी दुनिया के लिए कमाते हैं। विवाह नहीं करते क्योंकि पूरा विश्व इनका परिवार है । इसी कारण इतना कमाते हैं कि पूरे विश्व का पालन-पोषण कर सकें; करें या न करें यह अलग बात है। हर गाँव, हर शहर, हर राज्य और और यहां तक कि विदेशों में भी इनके आवास हैं जिन्हें सम्मान से आश्रम कहा जाता है। अब ये आश्रम मेरे बाबाजी के पैतृक घर की तरह मिट्टी-गारे के तो होते नहीं, बायोमीट्रिक होते हैं। अब यह बायोमीट्रिक क्या होता है यह तो मुझे भी पता नहीं किन्तु कुछ तो ज़्यादा ही होता होगा तभी तो चर्चा का विषय बना हुआ है। द्वीपों पर भी इनका साम्राज्य है।

  ये परिवार नहीं समर्थक और अनुयायी पैदा करते हैं। और मेरे पाँचों बाबाओं को देखो, एक ही घर में एक साथ रहते थे। अरे कोई उन्हें सद्बुद्धि देता।  अपने-अपने आश्रम बनाते, क्षमा कीजिएगा अपने-अपने घर बनाते, अपनी-अपनी सम्पत्ति, अपनी-अपनी सत्ता, अपना-अपना धर्म और अपने-अपने अनुयायी। तब आज शायद मैं भी गर्व से अपने बाबाओं को स्मरण करती।

मेरे बाबाजी पैंतीस रुपये महीना कमाते थे और ये पैंतीस करोड़ के कमरे में रहते हैं। किसी के पास पचास हज़ार करोड़ की सम्पत्ति है तो किसी के पास ग्यारह हज़ार करोड़ की।  जब भी एक नया कमरा खोला जाता है तो वहां कुछ किलो सोना-चांदी निकल आता है । इधर तो साड़ियाँ , विदेशी प्रसाधन का सामान और इस तरह का पता नहीं क्या-क्या सामान मिल रहा है। और दूसरी ओर  मेरे बाबाजी तो तोले-माशे की बात करते ही चल बसे और यहां सोना-चांदी किलो में तोला जा रहा है। हमारी सारी आयु बीत गई उन किस्सों को सुनते-सुनते कि तुम्हारे बाबाजी ये हुआ करते थे वे हुआ करते थे। हमारे पास ये था हमारे पास वो था। उनके पास बैल थे, अपना टांगा-गाड़ी थी। घर के आगे आंगन था। अपनी ज़मीन-खेत थे। लेकिन ये बाबा करोड़ों के विमानों, वातानुकूलित गाड़ियों में यात्रा करते हैं। पूरी दुनिया में जहाँ चाहें वहां सरकारी या गैर-सरकारी ज़मीन पर अपना पैर रखकर वैधानिक तौर पर उसे अपना बना लेते की ताकत रखते हैं। हमारे बाबा नून-तेल-लकड़ी में ही उलझे रहे किन्तु इन बाबाओं के अनुयायी इनकी नून-तेल-लड़की क्षमा कीजिए लड़की फिर ज़बान फ़िसल गई मेरा अभिप्राय है लकड़ी  का प्रबन्ध करते हैं क्योंकि इन्हें तो अपने आश्रमों, व्यवसायिक प्रतिष्ठानों, उद्योगों, क्रय-विक्रय, लाभ-हानि, नव-निर्माण, सम्पत्तियों-परिसम्पत्तियों का भी हिसाब रखना होता है। फिर देश-विदेश की यात्राएं, अनुयायियों, समर्थकों को निरन्तर दान देने के लिए प्रेरित  करते रहना, राजनीतिक सम्पर्क बनाए रखना, शिविर लगा-लगाकर उपदेश दे-देकर लोगों को सार्वजनिक तौर पर लूटना जैसे कितने ही महत्वपूर्ण कार्य हैं इनके पास।

लेकिन मेरे बाबाजी ऐसे क्यों न थे?

  

रात से सबको गिला है

रात और चांद का अजीब सा सिलसिला है
चांद तो चाहिए पर रात से सबको गिला है
चांद चाहिए तो रात का खतरा उठाना होगा
चांद या अंधेरा, देखना है, किसे क्या मिला है

पार जरूर उतरना है

चल रे मन !

आज नैया की सैर कराउं !

पतवारों का क्या करना है।

खेवट को क्या रखना है।

बस अपने मन से तरना है।

डूबेंगें, उतरेंगे।

सीपी शंखों को ढूढेंगे।

मोती माणिक का क्या करना है।

उपर नीचे डोलेगी।

हिचकोले ले लेकर बोलेगी।

चल चल सागर के मध्य चलें।

लहरों संग संग तैर चलें।

पानी में छाया को छूलेंगे।

अपनी शक्लें ढूंढेंगे।

बस इतना ही तो करना है

पार जरूर उतरना है।

चल रे मन !

आज नैया की सैर कराउं !


यह अथाह शांत जलराशि

गगन की व्यापकता

ठहरी-ठहरी सी हवा,

निश्चल, निश्छल-सा समां

दूर कहीं घूमतीं

हल्की हल्की सी बदरिया।

तैरने लगती हूं, डूबने लगती हूं

फिर तरती हूं, दूर तक जाती हूं

फिर लौट लौट आती हूं।

इस सूनेपन में,  इक अपनापन है।

 

मोती बनीं सुन्दर
बूँदों का सागर है या सागर में बूँदें

छल-छल-छलक रहीं मदमाती बूँदें

सीपी में बन्द हुईं मोती बनीं सुन्दर

छू लें तो मानों डरकर भाग रही बूँदें

यह मेरा शिमला है

बस एक छोटी सी सूचना मात्र है

तुम्हारे लिए,

कि यह शहर

जहां तुम आये हो,

इंसानों का शहर है।

इसमें इतना चकित होने की

कौन बात है।

कि यह कैसा अद्भुत शहर है।

जहां अभी भी इंसान बसते हैं।

पर तुम्हारा चकित होना,

कहीं उचित भी लगता है ।

क्योंकि ,जिस शहर से तुम आये हो,

वहां सड़कों पर,

पत्थरों को चलते देखा है मैंने,

बातें गाड़ियां और मोटरें करती हैं हवा से।

हंसते और खिलखिलाते हैं

भोंपू और बाजे।

सिक्का रोटी बन गया है।

 पर यह शहर जहां तुम अब आये हो,

यहां अभी भी इंसान ही बसते हैं।

स्वागत है तुम्हारा।

 

तीर और तुक्का
एक बार आसमां पर तीर जरूर तानिए

लौटकर आयेगा, प्रभाव, उसका जानिए

तीर के साथ तुक्के का ध्यान भी रखें

नहीं तो तरकस खाली होगा, यह मानिए

 

जीवन क्या होता है

जीवन में अमृत चाहिए

तो पहले विष पीना पड़ता है।

जीवन में सुख पाना है

तो दुख की सीढ़ी पर भी

चढ़ना पड़ता है।

धूप खिलेगी

तो कल

घटाएँ भी घिर आयेंगी

रिमझिम-रिमझिम बरसातों में

बिजली भी चमकेगी

कब आयेगी आँधी,

कब तूफ़ान से उजड़ेगा सब

नहीं पता।

जीवन में चंदा-सूरज हैं

तो ग्रहण भी तो लगता है

पूनम की रातें होती हैं

अमावस का

अंधियारा भी छाता है।

किसने जाना, किसने समझा

जीवन क्या होता है।

 

कुछ सपने

भाव भी तो लौ-से दमकते हैं

कभी बुझते तो कभी चमकते हैं

मन की बात मन में रह जाती है

कुछ सपने आंखों में ही दरकते हैं

सूख गये सब ताल तलैया

न प्रीत, न मीत के लिए, न मिलन, न विरह के लिए
घट लाई थी पनघट पर जल भर घर ले जाने के लिए
न घटा आई, न जल बरसा, सूख गये सब ताल–तलैया
संभल मानव, कुछ तो अच्छा कर जा अगली पीढ़ी के लिए

जीवन की  नवीन शुरुआत

 जीवन के कुछ पल

अनमोल हुआ करते हैं,

बड़ी मुश्किल से

हाथ आते हैं

जब हम

सारे दायित्वों को

लांघकर

केवल अपने लिए

जीने की कोशिश करते हैं।

नहीं अच्छा लगता

किसी का हस्तक्षेप

किसी का अपनापन

किसी की निकटता

न करे कोई

हमारी वृद्धावस्था की चिन्ता

हमारी हँसी-ठिठोली में

न बने बाधा कोई

न सोचे कोई हमारे लिए

गर्मी-सर्दी या रोग,

अब लेने दो हमें

टेढ़ेपन का आनन्द

ये जीवन की

एक नवीन शुरुआत है।

 

 

 

 

नई राहें

नई राहें

तो सरकार बनवाती है।

कभी मरम्मत करवाती है,

कभी गढ्ढे भरवाती है।

कभी पहाड़ कटते हैं,

तो कभी नदियों के

रास्ते बदलते हैं।

-

और हमारी राहें!

-

राहें तो पुरानी होती हैं

बस हमारी चालें

नई होती हैं।

असमंजस में रहते हैं हम

कितनी बार,

हम समझ ही नहीं पाते,

कि परम्पराओं में जी रहे हैं,

या रूढ़ियों में।

.

दादी की परम्पराएं,

मां के लिए रूढ़ियां थीं,

और मां की परम्पराएं

मुझे रूढ़ियां लगती हैं।

.

हमारी पिछली पीढ़ियां

विरासत में हमें दे जाती हैं,

न जाने कितने अमूल्य विचार,

परम्पराएं, संस्कृति और व्यवहार,

कुछ पुराने यादगार पल।

इस धरोहर को

कभी हम सम्हाल पाते हैं,

और कभी नहीं।

कभी सार्थक लगती हैं,

तो कभी अर्थहीन।

गठरियां बांधकर

रख देते हैं

किसी बन्द कमरे में,

कभी ज़रूरत पड़ी तो देखेंगे,

और भूल जाते हैं।

.

ऐसे ही पीढ़ी-दर-पीढ़ी

सौंपी जाती है विरासत,

किसी की समझ आती है

किसी की नहीं।

किन्तु यह परम्परा

कभी टूटती नहीं,

चाहे गठरियों

या बन्द कमरों में ही रहें,

इतना ही बहुत है।

 

अपनी नज़र से देखने की एक कोशिश

मेरा एक रूप है, शायद !

 

मेरा एक स्वरूप है, शायद !

 

एक व्यक्तित्व है, शायद !

 

अपने-आपको,

अपने से बाहर,

अपनी नज़र से

देखने की,

एक कोशिश की मैंने।

आवरण हटाकर।

अपने आपको जानने की

कोशिश की मैंने।

 

मेरी आंखों के सामने

एक धुंधला चित्र

उभरकर आया,

मेरा ही था।

पर था

अनजाना, अनपहचाना।

जिसने मुझे समझाया,

तू ऐसी ही है,

ऐसी ही रहेगी,

और मुझे डराते हुए,

प्रवेश कर गया मेरे भीतर।

 

कभी-कभी

कितनी भी चाहत कर लें

कभी कुछ नहीं बदलता।

बदल भी नहीं सकता

जब इरादे ही कमज़ोर हों।

किसान क्यों है परेशान

कहते हैं मिट्टी से सोना उगाता है किसान।

पर उसकी मेहनत की कौन करता पहचान।

कैसे कोई समझे उसकी मांगों की सच्चाई,

खुले आकाश तले बैठा आज क्यों परेशान।

हम खाली हाथ रह जाते हैं

नदी

अपनी त्वरित गति में

मुहाने पर

अक्सर

छोड़ जाती है

कुछ निशान।

जब तक हम

समझ सकें,

फिर लौटती है

और ले जाती है

अपने साथ

उन चिन्हों को

जो धाराओं से

बिखरे थे

और हम

फिर खाली हाथ

रह जाते हैं

देखते ।