विश्वास का एहसास

हर दिन रक्षा बन्धन का-सा हो जीवन में

हर पल सुरक्षा का एहसास हो जीवन में

कच्चे धागों से बंधे हैं जीवन के सब रिश्ते

इन धागों में विश्वास का एहसास हो जीवन में

विश्वास का धागा

 भाई-बहन का प्यार है राखी

रिश्तों की मधुर सौगात है राखी

विश्वास का एक धागा होता है

अनुपम रिश्तों का आधार है राखी

मज़दूर दिवस मनाओ

तुम मेरे लिए

मज़दूर दिवस मनाओ

कुछ पन्ने छपवाओ

दीवारों पर लगवाओ

सभाओं का आयोजन करवाओ

मेरी निर्धनता, कर्मठता

पर बातें बनाओ।

मेरे बच्चों की

बाल-मज़दूरी के विरुद्ध

आवाज़ उठाओ।

उनकी शिक्षा पर चर्चा करवाओ।

अपराधियों की भांति

एक पंक्ति में खड़ाकर

कपड़े, रोटी और ढेर सारे

अपराध-बोध बंटवाओ।

एक दिन

बस एक दिन बच्चों को

केक, टाफ़ी, बिस्कुट खिलाओ।

.

कभी समय मिले

तो मेरी मेहनत की कीमत लगाओ

मेरे बनाये महलों के नीचे

दबी मेरी झोंपड़ी

की पन्नी हटवाओ।

मेरी हँसी और खुशी

की कीमत में कभी

अपने महलों की खुशी तुलवाओ।

अतिक्रमण के नाम पर

मेरी उजड़ी झोंपड़ी से

कभी अपने महल की सीमाएँ नपवाओ।

 

नव वर्ष की प्रतीक्षा में

नव वर्ष की प्रतीक्षा में

कामना लिए कुछ नयेपन की

एक बदलाव, एक नये एहसास की,

हम एक पूरा साल

कैलेण्डर की और ताकते रहते हैं।

कैलेण्डर पर तारीखें बदलती हैं।

दिन, महीने बदलते हैं।

और हम पृष्‍ठ  पलटते रहते हैं

उलझे रहते हैं बेमतलब ही कुछ तारीखों-दिनों में।

चिह्नित करते हैं रंगों से

कुछ अच्छे दिनों की आस को।

और उस आस को लिए–लिए

बीत जाता है पूरा साल।

वे अच्छे दिन

टहलते हैं हमारे आस-पास,

जिन्हें हम अक्सर अनदेखा कर जाते हैं

बेमतलब उलझे

काल्पनिक आशंकाओं और चिन्ताओं में।

फिर चौंक कर कहते हैं

अरे ! एक साल और यूं ही बीत गया।

शायद बुरा-सा लगता है कहीं

कि लो, एक साल और बीत गया यूं ही

बस जताते नहीं हैं।

फिर पिछले पूरे साल को

मुट्ठी में समेटकर आगे बढ़ते हैं

फिर से एक नयेपन की

आशाओं-आकांक्षाओं के साथ।


बस एक पल का ही तो अन्तर है

इस नये और पुराने के बीच।

उस एक पल के अन्तर को भूलकर

एक पल के लिए

निरन्तरता में देखें

तो कुछ भी तो नहीं बदलता।

पता नहीं

गत वर्ष के समापन की खुशियां मनाते हैं

या आने वाले दिनों की आस को जगाते हैं

किन्तु वास्तविकता यह

कि हम चाहते ही नहीं

कि कभी साल दर साल बीतें।

बस प्रतीक्षा में रहते हैं

एक नयेपन की , एक परिवर्तन की,

कुछ नई चाहतों की

वह साल हो या कुछ और ।

हर साल, साल-दर-साल

पता नहीं हम

गत वर्ष के समापन की खुशियां मनाते हैं

या आने वाले दिनों की आस को जगाते हैं।

बस देखते रहते हें कैलेण्‍डर की ओर

दिन, महीने, तिथियां बदलती हैं

पृष्‍ठ पलटते हैं

और हम उलझे रहते हैं

बेमतलब कुछ दिनों तारीखों को

किन्तु वास्तविकता यह

कि हम चाहते ही नहीं

कि कभी साल दर साल बीतें।

बस प्रतीक्षा में रहते हैं

एक नयेपन की , एक परिवर्तन की,

कुछ नई चाहतों की

वह साल हो या कुछ और ।

   

एक साल और मिला

अक्सर एक एहसास होता है

या कहूं

कि पता नहीं लग पाता

कि हम नये में जी रहे हैं

या पुराने में।

दिन, महीने, साल

यूं ही बीत जाते हैं,

आगे-पीछे के

सब बदल जाते हैं

किन्तु हम अपने-आपको

वहीं का वहीं

खड़ा पाते हैं।

**    **    **    **

अंगुलियों पर गिनती रही दिन

कब आयेगा वह एक नया दिन

कब बीतेगा यह साल

और सब कहेंगे

मुबारक हो नया साल

बहुत-सी शुभकामनाएं

कुछ स्वाभाविक, कुछ औपचारिक।

**    **    **    **

वह दिन भी

आकर बीत गया

पर इसके बाद भी

कुछ नहीं बदला

**    **    **    **

कोई बात नहीं,

नहीं बदला तो न सही।

पर  चलो

एक दिन की ही

खुशियां बटोर लेते हैं

और खुशियां मनाते हैaa

कि एक साल और मिला

आप सबके साथ जीने के लिए।

   

 

हमारा हिन्दी दिवस

 

वर्ष 1975 में पहली बार किसी राज्य स्तरीय  कवि सम्मेलन में हिस्सा लिया और उसके बाद मेरी प्रतिक्रिया ।

उस समय कवि सम्मेलन में कवियों को सौ रूपये मानदेय मिलता था

**************

हमारा हिन्दी दिवस।

14 सितम्बर हमारा हिन्दी दिवस।

भाषण माला हमारा हिन्दी दिवस।

कवि गोष्ठी हमारा हिन्दी दिवस।

कवि कवि, कवि श्रोता, श्रोता कवि

सारे कवि सारे श्रोता , बस कवि कवि,

सारे श्रोता सारे कवि हमारा हिन्दी दिवस।

-

कुछ नेता कुछ नेता वेत,्ता

कुछ मंत्री, मंत्री के साथ संतरी

हल्ला गुल्ला, तालियां हार मालाएं, उद्घाटन,

फ़ोटो, कैमरा, रेडियो, टी.वी. हमारा हिन्दी दिवस।

 

वादा है सौ रूपये का, कुछ पुरस्कारों, 

मान चिन्हों का, सम्मान पदकों का। मिलेंगे।

कविता, भाषण, साहित्य, सम्मान भाड़ में।

सौ रूपया है, किराया, नई जगह घूमना।

रसद पानी, वाह वाही,

कुछ उखड़ी बिखरी कुछ टूटी फूटी हिन्दी।

हमारा हिन्दी दिवस सम्पन्न।

फिर वर्ष भर का अवकाश।

न हिन्दी न दिवस। न गोष्ठी न रूपये।

वर्ष भर की बेकारी।

मुझे लगता है

हमारा हिन्दी दिवस

सरकार का एक दत्तक पुत्र है

14 सितम्बर 1949 को गोद लिया

और उसी दिन उसकी हत्या कर दी।

अब सरकार हर 14 सितम्बर को

उसकी पुण्य तिथि धूमधाम से मनाती है

उनके नाम पर वर्ष भर से रूके

अपने कई काम पूरे करवाती है

वर्ष भर बाद

कुछ दक्षिणा मिल पाती है।

-

आह ! एक वर्ष !

फिर हिन्दी दिवस ! फिर सौ रूपये

फिर एक वर्ष ! फिर हिन्दी दिवस !

फिर ! फिर ! शायद अब तक

हिन्दी का रेट कुछ बढ़ गया हो।

अच्छा ! अगले वर्ष फिर मिलेंगे

हर वर्ष मिलेंगे।

हम हिन्दी के चौधरी हैं

हिन्दी सिर्फ हमारी बपौती है।

 

बेटी दिवस पर एक रचना

 

बेटियों के बस्तों में

किताबों के साथ

रख दी जाती हैं कुछ सतर्कताएं,

कुछ वर्जनाएं,

कुछ आदेश, और कुछ संदेश।

डर, चिन्ता, असुरक्षा की भावना,

जिन्हें

पैदा होते ही पिला देते हैं

हम उन्हें

घुट्टी की तरह।

बस यहीं नहीं रूकते हम।

और बोझा भरते हैं हम,

परम्पराओं, रीति-रिवाज़

संस्कार, मान्यताओं,

सहनशीलता और चुप्पी का।

 

इनके बोझ तले

दब जाती हैं

उनकी पुस्तकें।

कक्षाएं थम जाती हैं।

हम चाहते हैं

बेटियां आगे बढ़ें,

बेटियां खूब पढें,   

बेबाक, बिन्दास।

पर हमारा नज़र रहती है

हर समय

बेटी की नज़र पर।

 

जैसे ही कोई घटना

घटती है हमारे आस-पास,

हम बेटियों का बस्ता

और भारी कर देते हैं,

और भारी कर देते हैं।

कब दब जाती हैं,

उस भार के नीचे,

सांस घुटती है उनकी,

कराहती हैं,

बिलखती हैं

आज़ादी के लिए

पर हम समझ ही नहीं पाते

उनका कष्ट,

इस अनचाहे बोझ तले,

 कंधे झुक जाते हैं उनके,

और हम कहते हैं,

देखो, कितनी विनम्र

परम्परावदी है यह।

लाल बहादुर शास्त्री की स्मृति में

राजनीति में,

अक्सर

लोग बात करते हैं,

किसी के

पदचिन्हों पर चलने की।

किसी के विचारों का

अनुसरण करने की।

किसी को

अपनी प्रेरणा बनाने की।

एक सादगी, सीधापन,

सरलता और ईमानदारी!

क्यों रास नहीं आई हमें।

क्यों पूरे वर्ष

याद नहीं आती हमें

उस व्यक्तित्व की,

नाम भूल गये,

काम भूल गये,

उनका हम बलिदान भूल गये।

क्या इतना बदल गये हम!

शायद 2 अक्तूबर को

गांधी जी की

जयन्ती न होती

तो हमें

लाल बहादुर शास्त्री

याद ही न आते।

 

हिन्दी कहां गई कि इसको अपना मनवाना है

हिन्दी कहां गई कि इसको अपना मनवाना है 

हिन्दी मेरा मान है,

मेरा भारत महान है।

घूमता जहान है।

किसकी भाषा,

कौन सी भाषा,

किसको कितना ज्ञान है।

जबसे जागे

तब से सुनते,

हिन्दी को अपनाना है।

समझ नहीं पाई आज तक

कहां से इसको लाना है।

जब है ही अपनी

तो फिर से क्यों अपनाना है।

कहां गई थी चली

कि इसको

फिर से अपना मनवाना है।

’’’’’’’’’.’’’’’’

कुछ बातें

समय के साथ

समझ से बाहर हो जाती हैं,

उनमें हिन्दी भी एक है।

काश! कविताएं लिखने से,

एक दिन मना लेने से,

महत्व बताने से,

किसी का कोई भला हो पाता।

मिल जाती किसी को सत्ता,

खोया हुआ सिंहासन,

जिसकी नींव

पिछले 72 वर्षों से

कुरेद रहे हैं।

अपनी ही

भाषाओं और बोलियों के बीच

सत्ता युद्ध करवा रहे हैं।

कबूतर के आंख बंद करने मात्र से

बिल्ली नहीं भाग जाती।

काश!

यह बात हमारी समझ में आ जाती,

चलने दो यारो

जैसा चल रहा है।

हां, हर वर्ष

दो-चार कविताएं लिखने का मौका

ज़रूर हथिया ले लेना

और कोई पुरस्कार मिले

इसका भी जुगाड़ बना लेना।

फिर कहना

हिन्दी मेरा मान है,

मेरा भारत महान है।

सूर्यग्रहण के अवसर पर लिखी गई एक रचना

दूर कहीं गगन में

सूरज को मैंने देखा

चन्दा को मैंने देखा

तारे टिमटिम करते

जीवन में रंग भरते

लुका-छिपी ये खेला करते

कहते हैं दिन-रात हुई

कभी सूरज आता है

कभी चंदा जाता है

और तारे उनके आगे-पीछे

देखो कैसे भागा-भागी करते

कभी लाल-लाल

कभी काली रात डराती

फिर दिन आता

सूरज को ढूंढ रहे

कोहरे ने बाजी मारी

दिन में देखो रात हुई

चंदा ने बाजी मारी

तम की आहट से

दिन में देखो रात हुई

प्रकृति ने नवचित्र रचाया

रेखाओं की आभा ने मन मोहा

दिन-रात का यूं भाव टला

जीवन का यूं चक्र चला

कभी सूरज आगे, कभी चंदा भागे

कभी तारे छिपते, कभी रंग बिखरते

बस, जीवन का यूं चक्र चला

कैसे समझा, किसने समझा

कुछ सपने कुछ अपने

कहने की ही बातें है कि बीते वर्ष अब विदा हुए

सारी यादें, सारी बातें मन ही में हैं लिए हुए

कुछ सपने, कुछ अपने, कुछ हैं, जो खो दिये

आने वाले दिन भी, मन में हैं एक नयी आस लिए

नश्वर जीवन का संदेश

देखिए, दीप की लौ सहज-सहज मुस्काती है

सतरंगी आभा से मन मुदित कर जाती है

दीपदान रह जायेगा लौ रूप बदलती रहती है

मिटकर भी पलभर में कितनी खुशियां बांट जाती है

लहराकर नश्वर जीवन का संदेश हमें दे जाती है

कहते हैं कोई फ़ागुन आया

फ़ागुन आया, फ़ागुन आया, सुनते हैं, इधर कोई फ़ागुन आया
रंग-गुलाल, उमंग-रसरंग, ठिठोली-होली, सुनते हैं फ़ागुन लाया
उपवन खिले, मन-मनमीत मिले, ढोल बजे, कहीं साज सजे
आकुल-्याकुल मन को करता, कहते हैं, कोई फ़ागुन आया।

चेहरा गुलाल हुआ

यादों में उनकी चेहरा गुलाल हुआ

मन की बात कही नहीं, मलाल हुआ

राग बेसुरे हो गये, साज़ बजे नहीं

प्यार करना ही जी का जंजाल हुआ

एक संस्मरण आम का अचार

आम का अचार डालना भी
एक पर्व हुआ करता था परिवार में।
आम पर बूर पड़ने से पहले ही
घर भर में चर्चा शुरू हो जाती थी।
इतनी चर्चा, इतनी बात
कि होली दीपावली पर्व भी फीके पड़ जायें।
परिवार में एक शगुन हुआ करता था
आम का अचार।
इस बार कितने किलो डालना है अचार
कितनी तरह का।
कुतरा भी डलेगा, और गुठली वाला भी
कतौंरा  किससे लायेंगे
फिर थोड़ी-सी सी चटनी भी बनायेंगे।
तेल अलग से लाना होगा
मसाले मंगवाने हैं, धूप लगवानी है
पिछली बार मर्तबान टूट गया था
नया मंगवाना है।
तनाव में रहती थी मां
गर्मी खत्म होने से पहले
और बरसात शुरू होने से पहले
डालना है अचार।
और हम प्रतीक्षा करते थे
कब आयेंगे घर में अचार के आम।
और जब आम आ जाते थे घर में
सुच्चेपन का कर्फ्यू लग जाता था।
और हम आंख बचाकर
दो एक आम चुरा ही लिया करते थे
और चाहते थे कि दो एक आम
तो पके हुए निकल आयें
और हमारे हवाले कर दिये जायें।
लाल मिर्च और नमक लगाकर
धूप में बैठकर दांतों से गुठलियां रगड़ते
और मां चिल्लाती
“ओ मरी जाणयो दंद टुटी जाणे तुहाड़े”।
और जब नया अचार डल जाता था
तो पूरा घर एक आनन्द की सांस लेता था
और दिनों तक महकता था घर
और  जब नया अचार डल जाता था
तब दिनों दिनों तक महकता था घर
उस खुशनुमा एहसास और खुशबू से
और जब नया अचार डल जाता था
मानों कोई किला फ़तह कर लिया जाता था।
और उस रात बड़ी गहरी नींद सोती थी मां।

अब चिन्ता शुरू हो जाती थी
खराब न हो जाये
रोज़ धूप लगवानी है
सीलन से बचाना है
तेल डलवाना है।

फिर पता नहीं किस जादुई कोने से
पिछले साल के अचार का एक मर्तबान
बाहर निकल आता था।
मां खूब हंसती तब
छिपा कर रख छोड़ा था
आने जाने वालों के लिए
तुम तो एक गुठली नहीं छोड़ते।

हिन्दी की हम बात करें

शिक्षा से बाहर हुई, काम काज की भाषा नहीं, हम मानें या न मानें

हिन्दी की हम बात करें , बच्चे पढ़ते अंग्रेज़ी में, यह तो हम हैं जाने

विश्वगुरू बनने चले , अपने घर में मान नहीं है अपनी ही भाषा का

वैज्ञानिक भाषा को रोमन में लिखकर हम अपने को हिन्दीवाला मानें

और भर दे पिचकारी में

शब्दों में नवरस घोल और भर दे पिचकारी में
स्नेह की बोली बोल और भर दे पिचकारी में
आशाओं-विश्वासों के रंग बना, फिर जल में डाल
इस रंग को रिश्तों में घोल और भर दे पिचकारी में
मन की सारी बातें खोल और भर दे पिचकारी में
मन की बगिया में फूल खिला, और भर दे पिचकारी में
अगली-पिछली भूल, नये भाव जगा,और भर दे पिचकारी में
हंसी-ठिठोली की महफिल रख और भर दे पिचकारी में
सब पर रंग चढ़ा, सबके रंग उड़ा, और भर दे पिचकारी में
मीठे में मिर्ची डाल, मिर्ची में मीठा घोल और भर दे पिचकारी में
इन्द्रधनुष को रोक, रंगों के ढक्कन खोल और भर दे पिचकारी में
मीठा-सा कोई गीत सुना, नई धुन बना और भर दे पिचकारी में

भावों के तार मिला, सुर सजा और भर दे पिचकारी में
तारों की झिलमिल, चंदा की चांदनी धरा पर ला और भर दे पिचकारी में
बच्चे की किलकारी में चिड़िया की चहक मिला और भर  दे पिचकारी में
छन्द की चिन्ता छोड़, टूटा फूटा जोड़ और भर दे पिचकारी में
मात्राओं के बन्धन तोड़, कर ले तू भी होड़ और भर दे पिचकारी में
भावों के तार मिला, सुर सजा और भर दे पिचकारी में
तारों की झिलमिल, चंदा की चांदनी धरा पर ला और भर दे पिचकारी में
बच्चे की किलकारी में चिड़िया की चहक मिला और भर  दे पिचकारी में
इतना ही सूझा है जब और सूझेगा तब फिर भर दूंगी पिचकारी में

 

बसन्त पंचमी पर

कामना है बस मेरी

जिह्वा पर सदैव

सरस्वती का वास हो।

वीणा से मधुर स्वर

कमल-सा कोमल भाव

जल-तरंगों की तरलता का आभास हो।

मिथ्या भाषण से दूर

वाणी में निहित

भाव, रस, राग हो।

गगन की आभा, सूर्य की उष्मा

चन्द्र की शीतलता, या हों तारे द्युतिमान

वाणी में सदैव सत्य का प्रकाश हो।

हंस सदैव मोती चुगे

जीवन में ऐसी  शीतलता का भास हो।

किन्तु जब आन पड़े

तब, कलम क्या

वाणी में भी तलवार की धार सा प्रहार हो।

हिन्दी के प्रति

शिक्षा

अब ज्ञान के लिये नहीं

लाभ के लिए

अर्जित की जाती है,

और हिन्दी में

न तो ज्ञान दिखाई देता है

और न ही लाभ।

बस बोलचाल की

भाषा बनकर रह गई है,

कहीं अंग्रेज़ी हिन्दी में

और कहीं हिन्दी

अंग्रेज़ी में ढल गई है।

कुछ पुरस्कारों, दिवसों,

कार्यक्रमों की मोहताज

बन कर रह गई है।

बात तो बहुत करते हैं हम

हिन्दी चाहिए, हिन्दी चाहिए

किन्तु

कभी आन्दोलन नहीं करते

दसवीं के बाद

क्यों नहीं

अनिवार्य पढ़ाई जाती है हिन्दी।

प्रदूषित भाषा को

चुपचाप पचा जाते हैं हम।

सरलता के नाम पर

कुछ भी डकार जाते हैं हम।

गूगल अनुवादक लगाकर

हिन्दी लेखक होने का

गर्व पालते हैं हम।

प्रचार करते हैं

वैज्ञानिक भाषा होने का,

किन्तु लेखन और उच्चारण के

बीच के सम्बन्ध को

तोड़ जाते हैं हम।

कंधों पर उठाये घूम रहे हैं

अवधूत की तरह।

दफ़ना देते हैं

अपराधी की तरह।

और बेताल की तरह,

हर बार

वृक्ष पर लटक जाते हैं

कुछ प्रश्न अनुत्तरित।

हर वर्ष, इसी दिन

चादर बिछाकर

जितनी उगाही हो सके

कर लेते हैं

फिर वृक्ष पर टंग जाता है बेताल

अगली उगाही की प्रतीक्षा में।