क्रोध कोई विकार नहीं

अनैतिकता, अन्याय, अनाचार पर क्या क्रोध नहीं आता, जो बोलते नहीं

केवल विनम्रता, दया, विलाप से यह दुनिया चलती नहीं, क्यों सोचते नहीं

नवरसों में क्रोध कोई विकार नहीं मन की सहज सरल अभिव्यक्ति है

एक सुखद परिवर्तन के लिए खुलकर बोलिए, अपने आप को रोकिए नहीं

कभी-कभी वजह-बेवजह क्रोध करना भी ज़रूरी है

विनम्रता से दुनिया अब नहीं चलती, असहिष्णुता भी ज़रूरी है।

समझौतों से बात अब नहीं बनती, अस्त्र उठाना भी ज़रूरी है।

ऐसा अब होता है जब हम रोते हैं जग हंसता है ताने कसता है

सरलता छोड़, कभी-कभी वजह-बेवजह क्रोध करना भी ज़रूरी है

मानव-मन की थाह कहां पाई

राग-द्वेष ! भाव भिन्न, अर्थ भिन्न, जीवन भर क्यों कर साथ-साथ चलें

मानव-मन की थाह कहां पाई जिससे प्रेम करें उसकी ही सफ़लता खले

हंस-बोलकर जी लें, सबसे हिल-मिल लें, क्या रखा है हेर-फ़ेर में, सोच तू

क्यों बात-बात पर सम्बन्धों की चिता सजायें, ले सबको साथ-साथ चलें

धूप-छांव तो आनी-जानी है हर पल

सोचती कुछ और हूं, समझती कुछ और हूं, लिखती कुछ और हूं

बहकते हैं मन के उद्गार, भीगते हैं नमय, तब बोलती कुछ और हूं

जानती हूं धूप-छांव तो आनी-जानी है हर पल, हर दिन जीवन में

देखती कुछ और हूं, दिखाती कुछ और हूं, अनुभव करती कुछ और हूं

आवरण है जब तक आसानियां बहुत हैं

परेशानियां बहुत हैं, हैरानियां बहुत हैं

कमज़ोरियां बहुत हैं, खामियां बहुत हैं

न अपना-सा है यहां कोई, न पराया

आवरण है जब तक आसानियां बहुत हैं

अपने  विरूद्ध अपनी मौत का सामान लिए

उदार-अनुदार, सहिष्णुता-असहिष्णुता जैसे शब्दों का अब कोई अर्थ नहीं मिलता

हिंसा-अहिंसा, दया-दान, अपनत्व, धर्म, जैसे शब्दों को अब कोई भाव नहीं मिलता

जैसे सब अस्त्र-शस्त्र लिए खड़े हैं अपने ही विरूद्ध अपनी ही मौत का सामान लिए

घोटाले, झूठ, छल, फ़रेब, अपराध, लूट, करने वालों को अब तिरस्कार नहीं मिलता

 

स्वाभिमान हमारा सम्बल है

आत्मविश्वास की डोर लिए चलते हैं यह अभिमान नहीं है

स्वाभिमान हमारा सम्बल है यह दर्प का आधार नहीं है

साहस दिखलाया आत्मनिर्भरता का, मार्ग यह सुगम नहीं,

अस्तित्व बनाकर अपना, जीते हैं, यह अंहकार नहीं है।

कौन देता है आज मान

सादगी, सच्चाई, सीधेपन को कौन देता है आज मान

झूठी चमक, बनावट के पीछे भागे जग, यह ले मान

इस आपा धापी से बचकर रहना रे मन, सुख पायेगा

अमावस हो या ग्रहण लगे, तू ले, सुर में, लम्बी तान

साहस दिखा रास्ते बहुत हैं

घृणा, द्वेष, हिंसा, अपराध, लोभ, भ्रष्टाचार, साम्प्रदायिकता के रावण बहुत हैं।

और हम हाथ जोड़े, बस राम राम पुकारते, दायित्व से भागते, सयाने बहुत हैं।

न आयेंगे अब सतयुग के राम तुम्हारी सहायता के लिए इन का संधान करने।

अपने भीतर तलाश कर, अस्त्र उठा, संधान कर, साहस दिखा, रास्ते बहुत हैं।

जीने का एक नाम भी है साहित्य

मात्र धनार्जन, सम्मान कुछ पदकों का मोहताज नहीं है साहित्य

एक पूरी संस्कृति का संचालक, परिचायक, संवाहक है साहित्य

कुछ गीत, कविताएं, लिख लेने से कोई साहित्यकार नहीं बन जाता

ज़मीनी सच्चाईयों से जुड़कर जीने का एक नाम भी है साहित्य

वक्त कब कहां मिटा देगा

वक्त कब क्यों बदलेगा कौन जाने

वक्त कब बदला लेगा कौन जाने

संभल संभल कर कदम रखना ज़रा

वक्त कब कहां मिटा देगा कौन जाने

अंधविश्वासों में जीते हम

अंधविश्वासों में जीते हम अपने को प्रगतिशील जानते हैं

छींक मारने पर सामने वाले को अच्छे से डांटते हैं

और अगर कहीं रास्ता काट जाये बिल्ली, हमारा तो

न जाने कौन-कौन से टोने-टोटके करके ही मानते हैं

उतरना होगा ज़मीनी सच्चाईयों पर

कभी था समय जब जनता जागती थी साहित्य की ललकार से

आज कहां समय किसी के पास जो जुड़े किसी की पुकार से

मात्र कलम से नहीं बदलने वाली अब समाज की ये दुश्वारियां

उतरना होगा ज़मीनी सच्चाईयों पर आम आदमी की पुकार से

असम्भव कुछ नहीं होता ‘गर ठान ली हो मन में

कहो तो आसमां के चांद तारे तोड़ लाउं तुम्हारे लिए

कहो तो सागर की धारा को मोड़ लाउं तुम्हारे लिए

असम्भव कुछ भी नहीं होता गर ठान ली हो मन में

शब्द भाव समझ लो तो जीवन समर्पित है तुम्हारे लिए

हर किसी में खोट ढूंढने में लगे हैं हम

अच्छाईयों से भी अब डरने लगे हैं हम

हर किसी में खोट ढूंढने में लगे हैं हम

अपने भीतर झांकने की तो आदत नहीं

औरों के पांव के नीचे से चादर खींचने में लगे हैं हम

सीधे-सादे भोले-भाले लोगों की खिल्ली उड़ती है

सीधे-सादे भोले-भाले लोगों की अब खिल्ली देखो उड़ती है

चतुर सुजान लोगों के नामों से अब यह दुनिया चलती है

अच्छे-अच्छे लोगों के अब नाम नहीं जाने कोई यहां पर

कपटी, चोर-उचक्कों के डर से कानूनों की धज्जियां उड़ती हैं

बेवजह जागने की आदत नहीं हमारी

झूठ, छल-कपट, मिथ्या-आचरण, भ्रष्टाचार में जीते हैं हम किसी को क्या

बेवजह जागने की आदत नहीं हमारी, जो भी हो रहा, होता रहे हमें क्या

आराम से खाते-पीते हैं, मज़े से जीते हैं, दुनिया लड़-मर रही, मरती रहे

लहर है तो, सत्य, अहिंसा, प्रेम पर लिखने को जी चाहता है तुम्हें क्या

आतंक मन के भीतर पसरा है

शांत है मेरा शहर फिर भी देखो डरे हुए हैं हम

न चोरी न डाका फिर भी ताले जड़े हुए हैं हम

बाहर है सन्नाटा, आतंक मन के भीतर पसरा है

बेवजह डर डर कर जीना सीखकर बड़े हुए हैं हम

वितंडावाद में चतुर

घात प्रतिघात आघात की बात हम करते रहे है

अपनी नाकामियों का दोष दूसरों पर मढ़ते रहे हैं

भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे कुछ करने का दम नहीं है

वितंडावाद में चतुर जनता को भ्रमित करते रहे हैं

औरों को मत देख बस अपने मन में ठान ले

अपने जीवन को  निष्‍कपट बनाने के लिए क्रांति की जरूरत है

अपने भीतर की बुराईयों को मिटाने के लिए क्रांति की जरूरत है

किसी क्रांतिकारी ने कभी झाड़ू नहीं उठाया था किसी नारे के साथ

औरों को मत देख बस अपने मन में ठान ले इसकी ज़रूरत है

स्वच्छता अभियान की नहीं, स्वच्छ भारत बनाये रखने की ज़रूरत है

जमाना जले तो जलने दो

मौसम आशिकाना है मुहब्बत की बात करो
जमाना जले तो जलने दो इकरार से डरो
उम्र की बात करना मेरे साथ, जी जलता है
नहीं समझ आती मेरी बात तो बाबा बन के मरो

बस स्नेह की वाणी बोल रे

बस दो मीठे बोल बोल ले

जीवन में मधुरस घोल ले

सहज-सहज बीतेगा जीवन

बस स्नेह की वाणी बोल रे

अमृत गरल जो भी मिले

जीवन सरल सहज है बस मस्ती में जिये जा

सुख दुख तो आयेंगे ही घोल पताशा पिये जा

न बोल,बोल कड़वे,हर दिन अच्छा बीतेगा

अमृत गरल जो भी मिले हंस बोलकर लिये जा

कौन क्या कहता है, भूलकर मदमस्त जिये जा

हाथ पर रखें लौ को

रोशनी के लिए दीप प्रज्वलित करते हैं

फिर दीप तले अंधेरे की बात करते हैं

तो हिम्मत करें, हाथ पर रखें लौ को

जो जग से तम मिटाने की बात करते है

न उदास हो मन

पथ पर कंटक होते है तो फूलों की चादर भी होती है

जीवन में दुख होते हैं तो सुख की आशा भी होती है

घनघोर घटाएं छंट जाती हैं फिर धूप छिटकती है

न उदास हो मन, राहें कठिन-सरल सब होती हैं

भोर का सूरज

भोर का सूरज जीवन की आस देता है

भोर का सूरज रोशनी का भास देता है

सुबह से शाम तक ढलते हैं जीवन के रंग

भोर का सूरज नये दिन का विश्वास देता है

गगन पर बिखरी रंगीनिया

सूरज की किरणें देखो नित नया कुछ लाती है

भोर की आभा देखो नित नये रूप सजाती है

पत्ते-पत्ते पर खेल रही ओस की बूंदे झिलमिल

गगन पर बिखरी रंगीनिया देखो नित लुभाती है।

आकाश में अठखेलियां करते देखो बादल

आकाश में अठखेलियां करते देखो बादल

ज्‍यों मां से हाथ छुड़ाकर भागे देखो बादल

डांट पड़ी तो रो दिये,मां का आंचल भीगा

शरारती-से,जाने कहां गये ज़रा देखो बादल

कर्म-काण्ड छोड़कर, बस कर्म करो

राधा बोली कृष्ण से, चल श्याम वन में, रासलीला के लिए

कृष्ण हतप्रभ, बोले गीता में दिया था संदेश हर युग के लिए

बहुत अवतार लिए, युद्ध लड़े, उपदेश दिये तुम्हें हे मानव!

कर्म-काण्ड छोड़कर, बस कर्म करो मेरी आराधना के लिए 

क्यों अनकही बातें नासूर बनकर रहें

मन में कटु भाव रहें, मुख पर हास रहे
इस छल-कपट को कौन कब तक सहे
जो मन में है, खुलकर बोल दिया कर 
क्यों अनकही बातें नासूर बनकर रहें