शोर भीतर की आहटों को
बाहर का शोर
भीतर की आहटों को
अक्सर चुप करवा देता है
और हम
अपने भीतर की आवाज़ों-आहटों को
अनसुना कर
आगे निकल जाते हैं,
अक्सर, गलत राहों पर।
मन के भीतर भी एक शोर है,
खलबली है, द्वंद्व है,
वाद-विवाद, वितंडावाद है
जिसकी हम अक्सर
उपेक्षा कर जाते हैं।
अपने-आप को सुनना ही नहीं चाहते।
कहीं डरते हैं
क्योंकि सच तो वहीं है
और हम
सच का सामना करने से
डरते हैं।
अपने-आप से डरते हैं
क्योंकि
जब भीतर की आवाज़ें
सन्नाटें का चीरती हुई
बाहर निकलेंगी
तब कुछ तो अनघट घटेगा
और हम
उससे ही बचना चाहते हैं
इसीलिए से डरते हैं।
ओस की बूंदें
अंधेरों से निकलकर बहकी-बहकी-सी घूमती हैं ओस की बूंदें ।
पत्तों पर झूमती-मदमाती, लरजतीं] डोलती हैं ओस की बूंदें ।
कब आतीं, कब खो जातीं, झिलमिलातीं, मानों खिलखिलातीं
छूते ही सकुचाकर, सिमटकर कहीं खो जाती हैं ओस की बूंदें।
सूखी धरती करे पुकार
वातानुकूलित भवनों में बैठकर जल की योजनाएं बनाते हैं
खेल के मैदानों पर अपने मनोरंजन के लिए पानी बहाते हैं
बोतलों में बन्द पानी पी पीकर, सूखी धरती को तर करेंगे
सबको समान सुविधाएं मिलेंगी, सुनते हैं कुछ ऐसा कहते हैं
उठ बालिके उठ बालिके
सुनसान, बियाबान-सा
सब लगता है,
मिट्टी के इस ढेर पर
क्यों बैठी हो बालिके,
कौन तुम्हारा यहाँ
कैसे पहुँची,
कौन बिठा गया।
इतनी विशाल
दीमक की बांबी
डर नहीं लगता तुम्हें।
द्वार बन्द पड़े
बीच में गहरी खाई,
सीढ़ियाँ न राह दिखातीं
उठ बालिके।
उठ बालिके,
चल घर चल
अपने कदम आप बढ़ा
अपनी बात आप उठा।
न कर किसी से आस।
कर अपने पर विश्वास।
उठ बालिके।
सिक्के सारे खन-खन गिरते
कहते हैं जी,
हाथ की है मैल रूपया,
थोड़ी मुझको देना भई।
मुट्ठी से रिसता है धन,
गुल्लक मेरी टूट गई।
सिक्के सारे खन-खन गिरते
किसने लूटे पता नहीं।
नोट निकालो नोट निकालो
सुनते-सुनते
नींद हमारी टूट गई।
छल है, मोह-माया है,
चाह नहीं है
कहने की ही बातें हैं।
मेरा पैसा मुझसे छीनें,
ये कैसी सरकार है भैया।
टैक्सों के नये नाम
समझ न आयें
कोई हमको समझाए भैया
किसकी जेबें भर गईं,
किसकी कट गईं,
कोई कैसे जाने भैया।
हाल देख-देखकर सबका
अपनी हो गई ता-ता थैया।
नोटों की गद्दी पर बैठे,
उठने की है चाह नहीं,
मोह-माया सब छूट गई,
बस वैरागी होने को
मन करता है भैया।
आगे-आगे हम हैं
पीछे-पीछे है सरकार,
बचने का है कौन उपाय
कोई हमको सुझाओ दैया।
पर प्यास तो बुझानी है
झुलसते हैं पांव, सीजता है मन, तपता है सूरज, पर प्यास तो बुझानी है
न कोई प्रतियोगिता, न जीवटता, विवशता है हमारी, बस इतनी कहानी है
इसी आवागमन में बीत जाता है सारा जीवन, न कोई यहां समाधान सुझाये
और भी पहलू हैं जिन्दगी के, न जानें हम, बस इतनी सी बात बतानी है
लौटाकर खड़ा कर दिया शून्य पर
अभिमान
अपनी सफ़लता पर।
नशा
उपलब्धियों का।
मस्ती से जीते जीवन।
उन्माद
अपने सामने सब हेठे।
घमण्ड ने
एक दिन लौटाकर
खड़ाकर दिया
शून्य पर।
धरा और आकाश के बीच उलझे स्वप्न
कुछ स्वप्न आकाश में टंगे हैं, कुछ धरा पर पड़े हैं,
किसे छोड़ें, किसे थामें, हम बीच में अड़े खड़े हैं।
असमंजस में उलझे, कोई तो मिले, हाथ थामे,
यहां नीचे कंकड़-पत्थर, उपर से ओले बरस रहे हैं।
मन के सच्चे
कानों के तो कच्चे हैं
लेकिन मन के सच्चे हैं
जो सुनते हैं कह देते हैं
मन में कुछ न रखे हैं।
शिलालेख हैं मेरे भीतर
शिलालेख हैं मेरे भीतर कल की बीती बातों के
अपने ही जब चोट करें तब नासूर बने हैं घातों के
इन रिसते घावों की गांठे बनती हैं न खुलने वाली
अन्तिम यात्रा तक ढोते हैं हम खण्डहर इन आघातों के
जीवन के रंग
द्वार पर आहट हुई,
कुछ रंग खड़े थे
कुछ रंग उदास-से पड़े थे।
मैंने पूछा
कहां रहे पूरे साल ?
बोले,
हम तो यहीं थे
तुम्हारे आस-पास।
बस तुम ही
तारीखें गिनते हो,
दिन परखते हो,
तब खुशियां मनाते हो
मानों प्रायोजित-सी
हर दिन होली-सा देखो
हर रात दीपावली जगमगाओ
जीवन में रंगों की आहट पकड़ो।
हां, जीवन के रंग बहुत हैं
कभी ग़म, कभी खुशी
के संग बहुत हैं,
पर ये आना-जाना तो लगा रहेगा
बस जीवन में
रंगों की हर आहट पकड़ो।
हर दिन होली-सा रंगीन मिलेगा
हर दिन जीवन का रंग खिलेगा।
बस
मन से रंगों की हर आहट पकड़ो।
सच बोलने की आदत है बुरी
सच बोलने की आदत है बुरी।
इसीलिए
सभी लोग रहने लगे हैं किनारे ।
पीठ पर वार करना मुझे भाता नहीं।
चुप रहना मुझे आता नहीं।
भाती नहीं मुझे झूठी मिठास।
मन मसोस कर मैं जीती नहीं।
खरी-खरी कहने से मैं रूकती नहीं।
इसीलिए
सभी लोग रहने लगे हैं किनारे।
-
हालात क्या बदले,
वक्त ने क्या चोट दी,
सब लोग रहने लगे हैं किनारे ।
काश !
कोई तो हमारी डूबती कश्ती में
सवार होता संग हमारे।
कहीं तो हम नाव खेते
किसी के सहारे।
-
किन्तु हालात यूं बदले
न पता लगा, कब टूटे किनारे।
सब लोग जो बैठे थे किनारे।
डूबते-उतरते वे अब ढूंढने लगे सहारे।
तैर कर निकल आये हम तो किनारे।
उसी कश्ती को थाम ,
अब वे भी ढूंढने में लगे हैं किनारे ।
अब मैं शर्मिंदा नहीं होता
अब मैं शर्मिंदा नहीं होता
जब कोई मेरी फ़ोटो खींचता है
मुझे ऐसे-वैसे बैठने
पोज़ बनाने के लिए कहता है।
हाँ, कार्य में व्यवधान आता है
मेरी रोज़ी-रोटी पर
सवाल आता है।
कैमरे के सामने पूछते हैं मुझसे
क्या तुम स्कूल नहीं जाते
तुम्हारे माँ-बाप तुम्हें नहीं पढ़ाते
क्या बाप तुम्हारा कमाता नहीं
अपनी कमाई घर लाता नहीं
कहीं शराब तो पीता-पिलाता नहीं
तुम्हारी माँ को मारता-वारता तो नहीं
अनाथ हो या सनाथ
और कितने भाई-बहन हो
ले जायेगी तुम्हें पुलिस पकड़कर
बाल-श्रम के बारे में क्या जानते हो
किसे अपना माई-बाप मानते हो
सरकारी योजनाओं को जानते हो
उनका लाभ उठाते हो
पूछते-पूछते
उनकी फ़ोटू पूरी हो जाती है
दस रुपये पकड़ाते हैं
और चले जाते हैं
मैं उजबुक-सा बना देखता रह जाता हूँ
और काम पर लौट आता हूँ।
आशाओं-आकांक्षाओं का जाल
यह असमंजस की स्थिति है
कि जब भी मैं
सिर उठाकर
धरती से
आकाश को
निहारती थी
तब चांद-तारे सब
छोटे-छोटे से दिखाई देते थे
कि जब चाहे मुट्ठी में भर लूं।
दमकते सूर्य को
नज़बट्टू बनाकर
द्वार पर टांग लूं।
लेकिन यहां धरती पर
आशाओं-आकांक्षाओं का जाल
निराकार होते हुए भी
इतना बड़ा है
कि न मुट्ठी में आता है
न हृदय में समाता है।
चाहतें बड़ी-बड़ी
विशालकाय
आकाश में भी न समायें।
मन, छोटा-सा
ज़रा-ज़रा-सी बात पर
बड़ा-सा ललचाए।
खुली मुट्ठी बन्द नहीं होती
और बन्द हो जाये
तो खुलती नहीं,
दरकता है सब।
छूटता है सब।
टूटता है सब।
आकाश और धरती के बीच का रास्ता
बहुत लम्बा है
और अनजाना भी
और शायद अकेला भी।
खुली-बन्द होती मुट्ठियों के बीच
बस
रह जाता है आवागमन।
ज्योति प्रज्वलित है
क्यों ढूंढते हो दीप तले अंधेरा जब ज्योति प्रज्वलित है
क्यों देखते हो मुड़कर पीछे, जब सामने प्रशस्त पथ है
जीवन में अमा और पूर्णिमा का आवागमन नियत है
अंधेरे में भी आंख खुली रखें ज़रा, प्रकाश की दमक सरस है
एक सुन्दर सी कृति बनाई मैंने
उपवन में कुछ पत्ते संग टहनी, कुछ फूल झरे थे।
मैं चुन लाई, देखो कितने सुन्दर हैं ये, गिरे पड़े थे।
न डाली पर जायेंगे न गुलदान में अब ये सजेंगे।
एक सुन्दर सी कृति बनाई मैंने, सब देख रहे थे।
चूड़ियां: रूढ़ि या परम्परा
आज मैंने अपने हाथों की
सारी चूड़ियों उतार दी हैं
और उतार कर सहेज नहीं ली हैं
तोड़ दी हैं
और टुकड़े टुकड़े करके
उनका कण-कण
नाली में बहा दिया हैं।
इसे
कोई बचकानी हरकत न समझ लेना।
वास्तव में मैं डर गई थी।
चूड़ियों की खनक से,
उनकी मधुर आवाज़ से,
और उस आवाज़ के प्रति
तुम्हारे आकर्षण से।
और साथ ही चूड़ियों से जुड़े
शताब्दियों से बन रहे
अनेक मुहावरों और कहावतों से।
मैंने सुना है
चूड़ियों वाले हाथ कमज़ोर हुआ करते हैं।
निर्बलता का प्रतीक हैं ये।
और अबला तो मेरा पर्यायवाची
पहले से ही है।
फिर चूड़ी के कलाई में आते ही
सौर्न्दय और प्रदर्शन प्रमुख हो जाता है
और कर्म उपेक्षित।
और सबसे बड़ा खतरा यह
कि पता नहीं
कब, कौन, कहां,
परिचित-अपरिचित
अपना या पराया
दोस्त या दुश्मन
दुनिया के किसी
जाने या अनजाने कोने में
मर जाये
और तुम सब मिलकर
मेरी चूड़ियां तोड़ने लगो।
फ़िलहाल
मैंने इस खतरे को टाल दिया है।
जानती हूं
कि तुम जब यह सब जानेगे
तो बड़ा बुरा मानोगे।
क्योंकि, बड़ी मधुर लगती है
तुम्हें मेरी चूड़ियों की खनक।
तुम्हारे प्रेम और सौन्दर्य गीतों की
प्रेरणा स्त्रोत हैं ये।
फुलका बेलते समय
चूड़ियों से ध्वनित होते स्वर
तुम्हारे लिए अमर संगीत हैं
और तुम
मोहित हो इस सब पर।
पर मैं यह भी जानती हूं
कि इस सबके पीछे
तुम्हारा वह आदिम पुरूष है
जो स्वयं तो पहुंच जाना चाहता है
चांद के चांद पर।
पर मेरे लिए चाहता है
कि मैं,
रसोईघर में,
चकले बेलने की ताल पर,
तुम्हारे लिए,
संगीत के स्वर सर्जित करती रहूं,
तुम्हारी प्रतीक्षा में,
तुम्हारी प्रशंसा के
दो बोल मात्र सुनने के लिए।
पर मैं तुम्हें बता दूं
कि तुम्हारे भीतर का वह आदिम पुरूष
जीवित है अभी तो हो,
किन्तु,
मेरे भीतर की वह आदिम स्त्री
कब की मर चुकी है।
चांद मानों मुस्कुराया
चांद मानों हड़बड़ाया
बादलों की धमक से।
सूरज की रोशनी मिट चुकी थी,
चांद मानों लड़खड़ाया
अंधेरे की धमक से।
लहरों में मची खलबली,
देख तरु लड़खड़ाने लगे।
जल में देख प्रतिबिम्ब,
चांद मानों मुस्कुराया
अपनी ही चमक से।
अंधेरों में भी रोशनी होती है,
चमक होती है, दमक होती है,
यह समझाया हमें चांद ने
अपनेपन से मनन से ।
कैसा है ये अद्भुत दरबार
आर-पार मेरी सरकार।
दे दे दो वोट मेरे यार।
कौन है सच्चा, कौन है झूठा,
बस इनकी जीत, हमारी हार।
इसको छोड़ें उसको पकड़ें,
इसको पकड़ें, उसको छोड़ें,
करें यही हम बारम्बार।
कौन है मंत्री, कौन है सन्तरी,
कैसे समझें हम हर बार।
वोट दिया था किसी को हमने,
सत्ता पर बैठा कोई और।
इस उलट-फेर को
कोई तो समझाओ यार।
कहां पहचान है
किसका सिर और किसका द्वार,
दांत मेरे उखड़ रहे]
टोपी तेरी सरक रही]
कैसा है ये अद्भुत दरबार।
हम गिनते हैं सिक्के,
भूखे मरते हैं लाचार।
कोरोना में झूलें हम,
बाढ़ों में डूबे हम।
करोड़ों में ये बिक रहे,
हम फिर भी वोटों में है सिक रहे।
सारा दिन किसी चलचित्र-सा
इनका मजमा चल रहा
हाथ पर हाथ धरे बैठे हम लाचार।
अपना सिर फोड़ सकें,
लाओ ऐसी कोई दीवार।
जीवन में सुमधुर गीत रचे हैं
एक बार हमारा आतिथेय स्वीकार करके तो देखो
आनन्दित होकर ही जायेंगे, विश्वास करके तो देखो
मन-उपवन में रंग-बिरंगे भावों की बगिया महकी है
जीवन में सुमधुर गीत रचे हैं संग-संग गाकर तो देखो
हमारी राहें ये संवारते हैं
यह उन लोगों का
स्वच्छता अभियान है
जो नहीं जानते
कि राजनीति क्या है
क्या है नारे
कहां हैं पोस्टर
जहां उनकी तस्वीर नहीं छपती
छपती है उन लोगों की छवि
जिनकी
छवि ही नहीं होती
कुछ सफ़ेदपोश
साफ़ सड़कों पर
साफ़ झाड़ू लगाते देखे जाते रहे
और ये लोग उनका मैला ढोते रहे।
प्रकृति भी इनकी परीक्षा लेती है,
तरू अरू पल्लव झरते हैं
एक नये की आस में
हम आगे बढ़ते हैं
हमारी राहें ये
संवारते हैं
और हम इन्हीं को नकारते हैं।
पूजा में हाथ जुड़ते नहीं
पूजा में हाथ जुड़ते नहीं,
आराधना में सिर झुकते नहीं।
मंदिरों में जुटी भीड़ में
भक्ति भाव दिखते नहीं।
पंक्तियां तोड़-तोड़कर
दर्शन कर रहे,
वी आई पी पास बनवा कर
आगे बढ़ रहे।
पण्डित चढ़ावे की थाली देखकर
प्रसाद बांट रहे,
फिल्मी गीतों की धुनों पर
भजन बज रहे,
प्रायोजित हो गई हैं
प्रदर्शन और सजावट
बन गई है पूजा और भक्ति,
शब्दों से लड़ते हैं हम
इंसानियत को भूलकर
जी रहे।
सच्चाई की राह पर हम चलते नहीं।
इंसानियत की पूजा हम करते नहीं।
पत्थरों को जोड़-जोड़कर
कुछ पत्थरों के लिए लड़ मरते हैं।
पर किसी डूबते को
तिनका का सहारा
हम दे सकते नहीं।
शिक्षा के नाम पर पाखण्ड
बांटने से कतराते नहीं।
लेकिन शिक्षा के नाम पर
हम आगे आते नहीं।
कैसे बढ़ेगा देश आगे
जब तक
पिछले कुछ किस्से भूलकर
हम आगे आते नहीं।
कोरोना काल:एक संस्मरण
जीवन और समय कब क्या रूप दिखा दे, पता नहीं होता। परिवार पर एक साथ कई समस्याएं आईं।
पिछले 15 दिन बहुत कठिन थे। मेरे पति को 16 तारीख को सांय अनायास छाती में और बाजू में दर्द हुआ। पहले तो उन्होंने बताया नहीं, जब कष्ट बढ़ा तो बताया और कहने लगे कि शायद कंधे की कोई नस खिंच गई है, जिसके कारण यह दर्द हो रहा है। हमने अपने स्थानीय चिकित्सक से सम्पर्क किया। उन्होंने तत्काल ई. सी. जी. करवाने के लिए कहा। पांच बजे के बाद सब सैंटर बन्द मिले। तो हम सीधे अस्पताल ही भागे। एलकैमिस्ट पंचकूला आपातकालीन में पहुंचे तो पता लगा दिल का दौरा पड़ा है, जिसका हमें एहसास हो चुका था। तीनों arteries में blockage थी, किन्तु जिसके कारण हृदयाघात हुआ था उसमें दो स्टंट डले। शेष चिकित्सा लगभग 6 माह बाद होगी। तीन दिन ICU में काटकर 19 को घर लौटे। स्वास्थ्य सुधर रहा है। इन शहरों का यही लाभ है कि तत्काल चिकित्सा उपलब्ध हो जाती है।
उधर कसौली में मेरे देवर का दिल का आपरेशन 2000 में हुआ था, तब से कोई दवाई नियमित चल रही थी। पिछले दिनों भूलवश उस दवाई का डबल डोज़ ले लिया, वह भी चार-पांच दिन। रक्त स्त्राव होने लगा, और शिमला ICU में भर्ती रहे दस दिन। अभी भी अस्पताल में ही हैं, गम्भीर अवस्था में।
पंचकूला में मेरी भतीजी का संयुक्त परिवार है, 11 सदस्यों में से 5 सदस्य कोरोना पाजिटिव हुए और उनके अतिरिक्त घर में रहने वाला नौकर भी। जो ठीक थे वे 5 बच्चे और एक महिला सदस्य। जबकि पाजिटिव होने वाले दो सदस्य वैक्सीनेशन की पहली डोज़ ले चुके थे । किसी का ब्लड प्रैशर लो तो किसी का आक्सीजन लैवल कम। अब सब ठीक हो रहे हैं, बस यही अच्छी बात है।
और मैं ! मेरे कंधे स्टिफ होने लगे हैं। बेटा कहता है गेम कम खेला करो, उसी का दुष्परिणाम है।
जीवन ऐसे ही चलता रहता है और चलता रहेगा।