आज कुछ नया लिखा जाये

मन किया आज कुछ नया लिखा जाये। किन्तु रोज़-रोज़ नया कहाँ से लायें? तो क्या करें ? मंच-मंच घूमें, रचनाएँ पढ़ें और कुछ नया निकाल लायें और तब लिखें। और नया कैसे लिखें कि नकल का आरोप भी न लगे, ऐसा लिखें आगे बताते हैं आपको।

पहले कुछ और बात।

पता नहीं क्यों पिछले कुछ दिनों से फ़ेसबुकिया साहित्य के क्षेत्र में मुझे अपना-आप महत्वपूर्ण लगने लगा है। आप पूछेंगे क्यों? इधर कुछ दिनों से अत्याधिक निमन्त्रण मिलने लगे हैं समूहों से जुड़ने के लिए। जब समूह की जांच करती तो बड़े-बड़े कवि-साहित्यकार वहाँ दिखते, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर से नीचे की तो बात ही नहीं रही अब। ज़ूम पर कवि-सम्मेलन, विदेशी कवि-कवियत्रियाँ, मुँह में पानी आ जाता था लालच से। आह! इतने बड़े प्रतिष्ठित कवि अपने मंच से मुझे जोड़ रहे हैं, अवसर के नये द्वार खुल रहे हैं और  कुछ तो मेरे लेखन में भी बात होगी, तभी तो उन्होंने मुझे चुना।

हमने भी झट से ऐसे कितने ही मंचों को अपनी स्वीकृति दे दी। और उसके बाद? मैसेंजर में झड़ी लग गई संदेशों की। बड़े-बड़े पोस्टर, महान-महान कवि-कवियत्रियाँ, वीडियो, फ़ोटो और न जाने कितनी तरह के संदेश। यहाँ तक कि व्हाट्सएप में भी समूह बनाकर जोड़ लिया जाता है और दस-बीस नहीं सैंकड़ों संदेश यानी कविताएं, विचार पढ़ने के लिए परोस दिये जाते हैं कि मोबाईल टंगने लगता है। किन्तु अपनी इतनी पाचन-शक्ति कहाँ! और हम! मुँह बाये खड़े। कौन पूछता है हमें। मंच पर रचना पोस्ट करो तो महीना-महीना अप्रूव नहीं होती। हमारी वाॅल पर तो क्या आना, रचनाओं पर कभी एक लाईक तक के लिए तरसते हैं नैन। और दूसरी ओर दस-बीस टैगिंग की मार झेलती हमारी वाॅल।  मैं तो चकित हूँ कि लोग इतनी टैगिंग कर कैसे लेते हैं। मैंने एक बार अपनी वैबसाईट के लिए टैंगिंग का प्रयास किया था मात्र 49 की अनुमति दी फ़ेसबुक ने और मुझे तीन घंटे लग गये। किन्तु इन कवियों को तो महारत है दिन की दस-दस रचनाएँ और 99 टैगिंग और मैसेंजर, व्हाट्सएप में भी संदेश। सत्य में ही ये महानुभाव चरण-रज के योग्य हैं किन्तु अपनी तो वह भी औकात नहीं।

एक बार तो मन किया कि इस आलेख में उन सबको टैग करूं जिनके कारण मेरा मोबाईल टंगने लगता है, फिर सोचा छोड़ो रे, जी लें अपनी ज़िन्दगी।

अब आईये नयी रचनाओं के सृजन पर। रचनाओं की चोरी की बात तो बहुत पुरानी हो गई, आपको एक नया ढंग बताते हैं। इस हेतु एक नवीन अनुसंधान आपके समक्ष रखती हूँ, बस आपमें थोड़ी योग्यता होनी चाहिए।

किसी की रचना से विषय उठाईये, कविता को गज़ल बनाईये, गज़ल को गीत, गीत को मुक्तछन्द, मुक्तछन्द को छन्दबद्ध, आलेख को कथा, कथा को लघु कथा और सृजन के जितने प्रकार हैं, किसी में भी अपनी ‘‘नवीन’’ रचनाओं का सृजन कीजिए। मज़ाल है कि कोई आप पर चोरी का आरोप लगा सके। पात्रों के नाम, स्थान तो आप बदल ही लेंगे बस बन गई नई रचना। एक और तरीका है पर्यायवाची शब्दों के प्रयोग का। जैसे आकाश को व्योम, धरा को भूमि, पवन को हवा, सूरज को रवि, आप समझ गये न मेरा मंतव्य।

क्यों कैसा लगा आपको मेरा परामर्श?

मुझे धन्यवाद अवश्य दें।

 

कौन हैं अपने कौन पराये

कुछ मुखौटै चढ़े हैं, कुछ नकली बने हैं

किसे अपना मानें, कौन पराये बने हैं

मीठी-मीठी बातों पर मत जाना यारो

मानों खेत में खड़े बिजूका से सजे हैं

ग्रह तो ग्रह ही होते हैं

 

यह घटना वर्ष २००९ की है।

यह आलेख एक सत्‍य घटना पर आधारित है।  मेरे अतिरिक्‍त किसी भी व्‍यक्ति  से इसका कोई सम्‍बन्‍ध नहीं है।

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ठीक –ठाक थे मेरे पति। वायु सेना में। मंगल, शनि, संक्रांति, श्राद्ध, नवरात्रि सब एक समान। न मंदिर, न पूजा-पाठ, न कोई पंडित-पुजारियों के चक्‍कर,  मुझे और क्‍या चाहिए था। मैं तो वैसे ही जन्‍म से पूरी नास्तिक । मन निश्चिंत हुआ। 

किन्‍तु समय बदलते या कहूं ग्रहों के बिगड़ते देर नहीं लगती। मेरे साथ भी ऐसा ही कुछ होने वाला था। पन्‍द्रह वर्ष के कार्यकाल के बाद वायुसेना से सेवानिवृत्‍त हुए और व्‍यवसाय में आ गये। अब जब वातावरण, पर्यावरण परिवर्तित हुआ तो कुछ और भी बदल जायेगा ऐसा तो मैंने सोचा ही नहीं था। किन्‍तु ऐसा ही हुआ।

हादसा

समय ठीक नहीं है, तब चलता है। किन्‍तु कोई कहे ग्रह ठीक नहीं हैं, तब डर लगता है। ग्रह कैसे भी हों मुझे पंडित-पुजारी, ज्‍योतिषियों, पूजा-पाठ, मन्दिर, दान वगैरह की याद नहीं सताती। एक तो वैसे ही समस्‍याएं होती हैं, दूसरी ओर पंडित-ज्‍योतिषियों का  परामर्श शुल्‍क, उनके अपने-अपने विभाग के भगवानों के लिए विशेष प्रावधान, उनके विभागीय उपायों की विशेष सामग्री, और न जाने क्‍या–क्‍या। इससे आगे इनकी सांठ-गांठ नग-मोती बेचने वालों के साथ भी रहती है। और जब इस तरह का सिलसिला एक बार चल निकलता है तो उसे रोकना बड़ा कठिन होता है। इसलिए जब कोई कहता है कि आपके ग्रह आजकल ठीक नहीं हैं, कुछ उपाय कीजिए, तो मैं मुंह ढककर सो जाती हूं। (इसे बस एक मुहावरा ही मानकर चलिए)

किन्‍तु तात्‍कालिक चिन्‍ता का विषय यह था कि मेरे पति अनायास ही धार्मिक प्रवृत्ति के होने लगे और मैं आतंकित। ग्रहों की चिन्‍ता में वे प्राय: पंडित-ज्‍योतिषियों के पास जाने लगे। अब जब घर में एक आतंकवादी हो तो प्रभावित और दण्डित तो सारा परिवार होगा ही। कुछ ऐसा ही हमारे परिवार में होने जा रहा था।

अब पति महोदय एक ज्‍योतिषि से ग्रहों की दुर्दशा के उपाय पूछकर आये। अधिकांश पूजा-पाठ, दान आदि तो उनके अपने कर्म-क्षेत्र में आये, कुछ पुत्र के हिस्‍से, किन्‍तु एक ऐसा कार्य था जिसके लिए पण्डि‍त महोदय का सख्‍त निर्देश था कि यह कार्य पत्‍नी द्वारा करने पर ही सुफल मिलेगा।

अ‍ब परिवार की भलाई के लिए कभी न कभी और कहीं न कहीं तो परिवार-पति के समक्ष आत्‍मसमर्पण करना ही पड़ता है, हमने भी कर दिया। उपाय था : कुल 108 दिन तक प्रतिदिन बिना नागा सुन्‍दर काण्‍ड का पाठ। पाठ में आदरणीय पण्डित जी ने यह सुविधा दी थी कि चाहे दोहे-चौपाईयां पढे़ं अथवा हिन्‍दी अनुवाद, फल समान मात्रा में मिलेगा । किन्‍तु व्‍यवधान नहीं आना चाहिए, अथवा पुन: एक से गिनती करनी होगी।

 अब मैं दुविधा-ग्रस्‍त थी। सुन्‍दरकाण्‍ड का ऐसा क्‍या प्रभाव है कि जो समस्‍याएं पिछले पच्‍चीस वर्षों में हमारे कठोर परिश्रम, कर्त्‍तव्‍य-निष्‍ठा, सत्‍य-कर्म और अपनी बुद्धि के अनुसार सब कुछ उचित करने पर भी दूर नहीं हुईं, इस सुन्‍दर-काण्‍ड का 108 बार जाप करने पर दूर हो जायेंगी। किन्‍तु मुझे तर्क का अधिकार नहीं था अब। बस करना था। इस काण्‍ड का अध्‍ययन एम. ए. में अंकों के लिए किया था अब ग्रहों को ठीक करने के लिए करना होगा। तब दोहे, चौपाईयां , भाषा-शैली, अलंकार, आदि की ओर ही ध्‍यान जाता था, इसका एक रूप यह भी है, ज्ञात ही नहीं था। कोई तर्क-बुद्धि नहीं थी कि कथानक में  क्‍यों, कैसे, किसलिए, इसके बारे में कभी सोचा ही नहीं।  बस अंक मिलें, इतनी-सी ही छोटी सोच थी। किन्‍तु अब जब बुद्धि आतंकवादी हो चुकी है तब कुछ भी पढ़ते समय साहित्यिक अथवा धार्मिक विचार उपजते ही नहीं, बम और बारूद ही दिखाई देने लगते हैं। मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ।

कोई बात नहीं, मैंने सोचा, 108 दिन तक सास-बहू के धारावाहिक नहीं देखेंगे, कर लेते हैं पाठ।

संक्षेप में मुझे जो कथा समझ आई वह इस प्रकार है:

 

जब पहली बार सुन्दरकांड का पाठ आरम्भ किया तो ज्ञात हुआ कि तुलसीदास  ने ‘काण्ड’ षब्द का प्रयोग बिल्कुल ठीक किया है। यह कांड हनुमान की लंका यात्रा की कथा पर आधारित है। हनुमान राम के दूत बनकर लंका की ओर सीता को ढूंढने के लिए निकले। मार्ग में अनेक बाधाएं आईं किन्तु क्योंकि वे राम के दूत थे इसलिए सब बाधाओं से पार पा लिया। कभी चार सौ योजन के बन गये तो कभी मच्छर  के समान। लंका में प्रवेष किया। विभीषण से मुलाकात हुई। सीता का एड्र्ेस लिया। सीता को राम के आई-डी प्रूफ़ के रूप में अंगूठी दी। बगीचा उजाड़ा। ब्रम्हास्त्र से बंधकर रावण के दरबार में पहुंचे। राम का गुणगान किया। रावण ने दंडस्वरूप उनकी पंूछ में घी, तेल और कपड़ा बंधवाकर आग लगवाई जिसमें लंका का संपूर्ण घी, तेल और कपड़ा समाप्त हो गया। ;पढ़ते-पढ़ते मेरा ध्यान भटक गया कि इसके बाद बेचारे लंकावासियों ने इन वस्तुओं को कैसे और कहां से प्राप्त किया होगा क्योंकि बीच में तो समुद्र था और आगे राम की सेना खड़ी थी, मैंने इस विषय को भविष्य में कभी षोध कार्य करने के लिए छोड़ दियाद्ध विभीषण का घर छोड़कर हनुमान ने सम्पूर्ण लंका जला डाली। फिर समुद्र में पूंछ बुझाई, सीता से उनके आई डी प्रूफ के रूप में उनकी चूड़ामणि ली और राम के पास लौट आये।

कथा के दूसरे हिस्से में लंका में प्रवेष की योजनाएं, राम की सेना के बल और संख्या का वर्णन आदि, रावण के छद्म दूतों को पकड़ना, उनके हाथ लक्ष्मण द्वारा पत्र भेजना, रावण का उसे पढ़ना, समुद्र पर बांध की तैयारी आदि कथाएं हैं।

इन दो कथाओं के बीच एक तीसरी व मेरी दृष्टि में मुख्य कथा है जिससे मेैं विचलित हूं और जिसका समाधान ढूंढ रही हूं ओैर वह हैै: लंका का राजा कौन? मेरे प्रष्न करते ही तीनों लोकों, चारों दिषाओं से एक ही उत्तर आया: ‘रावण’। मैंने पुनः पूछा: तो विभीषण कौन? तीनों लोकों और चारों दिषाओं से पुनः उत्तर आया: अरे, मूर्ख बालिके, इतना भी नहीं जानती ! विभीषण अर्थात ‘घर का भेदी लंका ढाए’। इतना सुनते ही मैं भगवान रामजी की आस्था के प्रति चिन्तित हो उठी।

विभीषण बड़े सदाचारी थे और सदैव राम का ही ध्यान करते थे। तुलसीदास ने लिखा है कि विभीषण ने रावण को समझाने का बड़ा प्रयास किया किन्तु उसके द्वारा अनादृत होने पर वे अपने साथियों के साथ लंका छोड़कर राम की षरण में आ गए। तुलसीदास ने लिखा है कि विभीषण हर्षित होकर मन में अनेक मनोरथ लेकर राम के पास चले। अब वे मनोरथ क्या थे तुलसी जानें या  विभीषण स्वयं।

तुलसी ने बार-बार यह भी लिखा है कि राम सब की दीनता से बहुत प्रसन्न होते थे। वैसे ही राम विभीषण के दीन वचनों और दण्डवत् से बहुत प्रसन्न हुए। सो राम ने विभीषण को लंकापति और लंकेष कहकर संबोधित किया। अब दोनों एक-दूसरे का स्तुति गान करके परस्पर न्योछावर होने लगे। इसका परिणाम यह हुआ कि राम ने समुद्र्र के जल द्वारा विभीषण का लंका के राजा के रूप में अभिषेक किया और उसे अखंड राज्य दिया। षिवजी ने जो सम्पत्ति रावण को दस सिरों की बलि देने पर दी थी, राम ने वह सब सम्पत्ति विभीषण को दी। मेरे मन में आषंका यह कि राम ने रावण के जीवित रहते हुए किस अधिकार से विभीषण को लंका का राजा घोषित किया और यह सम्पत्ति राम के पास कहां से और कैसे आई। क्योंकि राम तो अयोध्या से सर्वस्व त्याग कर आये थे, कंद-मूल खा रहे थे, कुषा पर सोते थे, वानरों के संग रहते थे, सीता को ढूंढने के लिए वन-वन की ठोकरें खा रहे थे, वानरों-भालुओं की सहायता ले रहे थे। फिर मान लीजिए उन्होंने दे भी दी तो विभीषण ने रखी कहां - इस बात की चर्चा इस ‘कांड’ में कहीं नहीं हैं। किन्तु मेरे मन में इससे भी बड़ी व्यथा उपजी है जो मुझे निरन्तर कचोट रही है, वह यह कि जिस विभीषण को भगवान श्रीरामजी ने लंका का राजा बनाया, उन्हें अखंड राज्य सौंपा, रामजी के इस प्रताप की चर्चा  कभी भी कहीं भी नहीं होती। उसके बाद लंका पर विजय प्राप्त करके राम ने पुनः विभीषण को लंका का राजा बनाया, उसके बाद विभीषण का क्या हुआ किसी को भी पता नहीं। जो भी कहता है वह यही कहता है कि लंका का राजा रावण। और विभीषण घर का भेदी लंका ढाए। इस कांड के अध्ययन के उपरान्त मैं सबसे कहती हूं कि लंका का राजा विभीषण तो सब मेरा उपहास करते हैं। कृपया मेरी सहायता कीजिए। किन्तु मुझे अपनी चिन्ता नहीं है। चिन्ता है तो रामजी की। उनकी ख्याति एवं प्रतिष्ठा की कि जिन्हें उन्होंने लंका का राजा बनाया उसका सब उपहास करते हैं और जिसका उन्होने वध किया उसे सब सोने की लंका का राजा कहते हैं । हे रामजी ! आपकी  प्रतिष्ठा प्रतिस्थापित करने के लिए मैं क्या करुं ? सोचती हूं एक सौ आठ बार सुन्दर कांड ही पढ़ डालूं। ष्षायद इससे ही आपका कुछ भला हो जाए !और इसी कांड में ‘ढोल, गंवार, षूद्र, पषु, नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी’ पंक्तियां भी हैं इन्हें भी मैं 108 बार पढ़ूंगी। अभी तो पाठ करते मात्र 13 ही दिन बीते हैं। श्रीरामजी ही जानें कि मेरा क्या होगा ?

 

बनती रहती हैं गांठें बूंद-बूंद

कहां है अपना वश !
कब के रूके
कहां बह निकलेगें
पता नहीं।
चोट कहीं खाई थी,
जख्म कहीं था,
और किसी और के आगे
बिखर गये।

सबने अपना अपना 
अर्थ निकाल लिया।
अब 
क्या समझाएं
किस-किसको 
क्या-क्या बताएं।
तह-दर-तह
बूंद-बूंद
बनती रहती हैं गांठें
काल की गति में
कुछ उलझी, कुछ सुलझी
और कुछ रिसती

बस यूं ही कह बैठी,
जानती हूं वैसे 
तुम्हारी समझ से बाहर है
यह भावुकता !!!

चिड़-चिड़ करती गौरैया

चिड़-चिड़ करती गौरैया

उड़-उड़ फिरती गौरैया

दाना चुगती, कुछ फैलाती

झट से उड़ जाती गौरैया

परिधान

हमारे समाज में महिलाओं के परिधान की अनेक तरह से बहुत चर्चा होती है। वय-अनुसार, पारिवारिक पोस्ट के अनुसार, अर्थात अविवाहित युवती, भाभी, ननद, बहन, माँ, दादी आदि के लिए। इसके अतिरिक्त भारत में रीति-परम्पराओं, राज्यानुसार प्रचलित, एवं धार्मिक आख्यानों में भी इतनी विविधता है कि उसके अनुसार भी महिलाओं के वस्त्रों पर दृष्टि रहती है।

और सबसे बड़ी बात यह कि हमारे आधुनिक समाज में महिलाओं के परिधानों के अनुसार ही उनका चरित्र-चित्रण किया जाता है। आधुनिक वस्त्र धारण करने वाली युवती के लिए मान लिया जाता है कि यह बहुत तेज़ होगी, घर-गृहस्थी के योग्य नहीं होगी, पति, सास-ससुर की सेवा करने वाली नहीं होगी। ( किन्तु जब महिलाओं की बात होती है तब सेवा-भाव वाली बात आती ही क्यों है, उसके अपने अस्तित्व की बात क्यों नहीं की जाती। परिवार के सदस्य की बात क्यों नहीं आती?, पुरुषों के सन्दर्भ में तो इस तरह की बात कभी नहीं आती। इस विषय पर चर्चा को विराम देती हूँ, यह भिन्न चर्चा का विषय है।)

किन्तु पुरुषों के परिधान, वस्त्रों पर कभी कोई बात नहीं करता।

क्योंकि महिलाएं खुलेआम टिप्पणी नहीं कर पातीं इस कारण कहती नहीं।

सबसे बुरा लगता है जब पुरुष केवल अन्तर्वस्त्रों में अथवा तौलिए में प्रातःकाल बरामदे में घूमते दिखते हैं। गर्मियों में तो जैसे उनका अधिकार होता है अर्द्धनग्न रहना। मुझे नहीं पता कि उनके घर की महिलाएं उन्हें टोकती हैं अथवा नहीं।

मैं शिमला से हूँ। वहां हमने सदैव ही यही देखा है कि पुरुष भी महिलाओं की भांति स्नानागार से पूरे वस्त्रों में ही तैयार होकर निकलते हैं। किन्तु जब मंै यहां आई तो मुझे बहुत शर्म आती थी कि घर के बच्चे क्या, युवा, अधेड़, बुजुर्ग सब आधे-अधूरे कपड़ों में घूमते हैं। हमें यह अश्लील लगता है।  अभिनेत्रियों के वस्त्रों पर भी बहुत कुछ लिखा जाता है किन्तु जब बड़े.बड़े मंचों पर बड़े नामी कलाकार नग्न प्रदर्शन करते हैं तब  वह भव्यता होती है।  इन नग्नता की तुलना हम किसी कार्य या खेल में पहने जाने वस्त्रों से नहीं कर सकते।

पुरुष की वस्त्रहीनता उसका सौन्दर्य है और स्त्री के देह-प्रदर्शनीय वस्त्र अश्लीलता।

सबसे बड़ी बात जो मुझे अचम्भित भी करती है और हमारे समाज की मानसिकता को भी प्रदर्शित करती है वह यह कि हमारे प्रायः सभी प्राचीन पात्रों के चित्रों में  उपरि वस्त्र धारण नहीं दिखाये जाते। फिर वह चित्रकारी हो अथवा अभिनय। किसने देखा है वह काल कि ये लोग उपरि वस्त्र पहनते थे अथवा नहीं। क्यों यह अश्लीलता नहीं दिखती और कभी भी क्यों इस पर आपत्ति नहीं होती। निश्चित रूप से उस युग को तो किसी ने नहीं देखा, यह हमारी ही मानसिकता का प्रतिफल है। किसने देखा है कि देवता, भगवान क्या पहनते थे। यह उस कलाकार की अथवा भक्त की मानसिकता है जो अपने आराध्य की सुन्दर, सुघड़ देहयष्टि दिखाना चाहता है।

 महिलाएं पुरुषों के पहनावे से आहत होती हैं। प्रकृति ने पुरुष को छूट  दी है, यह हमारी सोच है। मुझे आश्चर्य तब होता है जब हम महिलाएं भी उसी बनी.बनाई लीक पर चलती हैं।

एक अन्य तथ्य यह कि जब भी भारतीय संस्कृति, परम्पराओं, रीति-रिवाज़ों के अनुसार पहनावे की बात उठती है तब केवल महिलाओं के सन्दर्भ में ही चर्चा होती है, पुरुषों के पहरावे पर कोई बात नहीं की जाती।

इतना और कहना चाहूंगी कि कमी मर्दों की मानसिकता में नहीं महिलाओं की मानसिकता में है जो पुरुष नग्नता का विरोध नहीं करतीं।

  

 

तितली बोली

तितली उड़ती चुप-चुप, भंवरा करता भुन-भुन

भंवरे से बोली तितली, ज़रा मेरी बात तो सुन

तू काला, मैं सुंदर, रंग-बिरंगी, सबके मन भाती,

फूल-फूल मैं उड़ती फिरती, तू न सपने बुन।

नज़रिया बदलें, नज़ारे बदलेंगे

किसी मित्र ने मुझसे कहा कि आपकी सोच यानी मेरी यानी कविता की सोच बहुत नकारात्मक है। यदि मैं अच्छा सोचूँगी, सकारात्मक रहूँगी तो सब अच्छा ही होगा। इस बात पर उन्होंने एक मुहावरा पढ़ डाला ‘‘नज़रिया बदलें, नज़ारे बदलेंगे’’ किन्तु कैसे उन्होने नहीं बताया।

तो इस मुहावरे पर मेरा एक सरल सा हास्य-व्यंग्य

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आप अवश्य ही सोचेंगे इसकी तो बुद्धि ही उलट-पुलट है। किन्तु जैसी है, वैसी ही है, मैं क्या कर सकती हूँ। आप सब हर विषय पर गम्भीरता का ताना-बाना क्यों ओढ़ लेते हैं?

अब आप कह रहे हैं, नज़रिया बदलें, नज़ारे बदलेंगे। कैसे भई, किस तरह?

अब इस आयु में मैं तो बदलने से रही। कोई भी योगी-महायोगी कहेगा, बदलने, सीखने की कोई उम्र नहीं होती। बस प्रयास करना पड़ता है। अब सारा जीवन प्रयास करते ही निकल गया, कभी किसी के लिए बदले, तो कभी किसी के लिए। बचपन में माँ-पिता, बड़े भाई-बहनों के आदेश-निर्देश बदलने के लिए, फिर ससुराल पक्ष के, उपरान्त बच्चों के और अब आप शुरु हो गये। अब तो थोड़ा मनमर्ज़ी से आराम करने दीजिए।

चलिए, कुछ गम्भीर बात कर लेते हैं। क्या मात्र नज़रिया बदलने से नज़ारे बदल जाते हैं? पता नहीं, चलिए विचार करने का प्रयास करते हैं। मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि नज़ारे बदलें तो नज़रिया अवश्य बदलता है।

मन उदास है और बाहर खिली-खिली धूप है, गुंजन करते भंवरे, हवाओं से लहलहाते पुष्प, पंछियों की चहक, दूर तक फैली हरियाली, देखिए कैसे नज़रिया बदलता है। आप ही चेहरे पर मुस्कुराहट खिल आती है, मन आनन्दमय होने लगता है और चाय पीने का मन हो आता है जिसे हम गुस्से में अन्दर छोड़ आये थे।

कोई यदि हमारे सामने अपशब्दों का प्रयोग करता है तो हम नज़रिया कैसे बदल लें? किन्तु मन खिन्न होने पर हमें कोई सान्त्वना के दो मधुर शब्द बोल देता है, हमारे हित में बात करता है, तो नज़रिया बदल जाता है।

*

किन्तु मैं आपको पहले ही बता चुकी हूँ कि बु़िद्ध उलट-पुलट है। अब आपके पक्ष से विचार करते हैं। नज़रिया बदलें, नज़ारे बदलेंगे।

मैंने नज़रिया बदल लिया।

करेला कड़वा नहीं है, नीम मीठी है। मिर्च तीखी नहीं है, कौआ कितना मीठा गाता है, गोभी का फूल कितना सुन्दर है किसी को भेंट करने के लिए।

हमने करेले-नीम की सब्जी बनाई और यह कहकर सबको खिलाई कि मेरे सकारात्मक विचारों से बनी देखिए कितनी मीठी सब्ज़ी है।

अब यह नज़रिया बदलने पर हमारे क्या नज़ारे बदले न ही पूछिए, क्योंकि हम जानते हैं आप अत्यधिक सकारात्मक विचारों के हैं हमारा दर्द क्या समझेंगे।

  

 

चुन लूं मकरन्द

इन रंगों को

मुट्ठी में बांध लूं

महक को मन में उतार लूं

सौन्दर्य इनका

किसी के गालों पर दमक रहा

कहीं नयनों में छलक रहा

शब्दों में, भावों में

कुछ देखो दमक रहा

अभिलाषाओं का

सागर बहक रहा

चुन लूं मकरन्द

किसी तितली के संग

संवार लूं ज़िन्दगी का हर पल

कड़वा सच पिलवाऊँगा

न मैंने पी है प्यारी

न मैंने ली है।

नई यूनिफ़ार्म

बनवाई है

चुनाव सभा के लिए आई है।

जनसभा से आया हूँ,

कुछ नये नारे

लेकर आया हूँ।

चाय नहीं पीनी है मुझको

जाकर झाड़ू ला।

झाड़ू दूँगा,

हाथ भी दिखलाऊँगा,

फूलों-सा खिल जाऊँगा,

साईकिल भी चलाऊँगा,

हाथी पर तुझको

बिठलाऊँगा,

फिर ढोलक बजवाऊँगा।

वहाँ तीर-कमान भी चलते हैं

मंजी पर बिठलाऊँगा।

आरी भी देखी मैंने

हल-बैल भी घूम रहे,

तुझको

क्या-क्या बतलाउँ मैं।

सूरज-चंदा भी चमके हैं

लालटेन-बल्ब

सब वहाँ लटके हैं।

चल ज़रा मेरे साथ

वहाँ सोने-चाँदी भी चमके है,

टाट-पैबन्द भी लटके हैं,

चल तुझको

असली दुनियाँ दिखलाऊँगा,

चाय-पानी भूलकर

कड़वा सच पिलवाऊँगा।

 

जीने की चाहत

जीवन में

एक समय आता है

जब भीड़ चुभने लगती है।

बस

अपने लिए

अपनी राहों पर

अपने साथ

चलने की चाहत होती है।

बात

रोशनी-अंधेरे की नहीं

बस

अपने-आप से बात होती है।

जीवन की लम्बी राहों पर

कुछ छूट गया

कुछ छोड़ दिया

किसी से नहीं कोई आस होती है।

न किसी मंज़िल की चाहत है

न किसी से नाराज़गी-खुशी

बस अपने अनुसार

जीने की चाहत होती है।

 

निद्रा पर एक झलकी

जब खरीखरी कह लेते हैं,नींद भली-सी आती है

ज़्यादा चिकनी-चुपड़ी ठीक नहीं,चर्बी बढ़ जाती है

हृदयाघात का डर नहीं, औरों की नींद उड़ाते हैं

हमको तो जीने की बस ऐसी ही शैली आती है

खेल फिर शुरू हो जाता है

कभी कभी, समझ नहीं पाती हूं

कि मैं

आतंकित होकर चिल्लती हूं

या आतंक पैदा करने के लिए।

तुमसे डरकर चिल्लती हूं

या तुम्हें डराने के लिए।

लेकिन इतना जानती हूं

कि मेरे भीतर एक डर है

एक औरत होने का डर।

और यह डर

तुम सबने पैदा किया है

तुम्हारा प्यार, तुम्हारी मनुहार

पराया सा अपनापन

और तुम्हारी फ़टकार

फिर मौके बे मौके

उपेक्षा दर्शाता तुम्हारा तिरस्कार

निरन्तर मुझे डराते रहते हैं।

और तुम , अपने अलग अलग रूपों में

विवश करते रहते हो मुझे

चिल्लाते रहने के लिए।

फिर एक समय आता है

कि थककर मेरी चिल्लाहट

रूदन में बदल जाती है।

और तुम मुझे

पुचकारने लगते हो।

*******

खेल, फिर शुरू हो जाता है।

सबके सपनों की गठरी बांधे

परदे में रहती थी पर परदे से बाहर की दुनिया समझाती थी मां

अक्षर ज्ञान नहीं था पर पढ़े-लिखों से ज्यादा ज्ञान रखती थी मां

सबके सपनों की गठरी बांधे,  जाने कब सोती थी कब उठती थी

घर भर में फिरकी सी घूमती पल भर में सब निपटा लेती थी मां

आनन्द उठाने चल रही ज़िन्दगी

 

रंगों के बीच कदम उठाकर चल रही  है  ज़िन्दगी।

चांद की मद्धम रोशनी में पल रही है ज़िन्दगी।

धरा और आकाश में भावों का ज्वार उठ रहा,

एकाकीपन का आनन्द उठाने चल रही है ज़िन्दगी।

  

कलश तेरी माया अद्भुत है

 

कलश तेरी माया अद्भुत है, अद्भुत है तेरी कहानी।

माटी से निर्मित, हमें बताता जीवन की पूरी कहानी।

जल भरकर प्यास बुझाता, पूजा-विधि तेरे बिना अधूरी,

पर, अंतकाल में कलश फूटता, बस यही मेरी कहानी।

कंधों पर सिर लिए घूमते हैं

इस रचना में पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग किया गया है, पर्यायवाची शब्दों में भी अर्थ भेद होता है, इसी अर्थ भेद के कारण मुहावरे बनते हैं, ऐसा मैं समझती हूं, इसी दृष्टि से इस रचना का सृजन हुआ है

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सुनते हैं

अक्ल घास चरने गई है

मति मारी गई है

और समझ भ्रष्ट हो गई है

विवेक-अविवेक का अन्तर

भूल गये हैं

और मनीषा, प्रज्ञा, मेधा 

हमारे ऋषि-मुनियों की

धरोहर हुआ करती थीं

जिन्हें हम सम्हाल नहीं पाये

अपनी धरोहर को।

 बुद्धि-विवेक कहीं राह में छूट गये

और हम

यूं ही

कंधों पर सिर लिए घूमते हैं।

 

 

जीवन कितने पल

किसने जाना जीवन कितने पल।

अनमोल है जीवन का हर पल।

यहां दुख-सुख तो आने जाने हैं

आनन्द उठा जीवन में पल-पल।

   

धागों का रिश्ता
कहने को कच्चे धागों का रिश्ता, पर मज़बूत बड़ा होता है

निःस्वार्थ भावों से जुड़ा यह रिश्ता बहुत अनमोल होता है

भाई यादों में जीता है जब बहना दूर चली चली जाती है

राखी-दूज पर मिलने आती है, तब आनन्द दूना होता है।

झुकना तो पड़ता ही है

कहां समय  मिलता है

कमर सीधी करने का।

काम कोई भी करें,

घर हो या खलिहान,

झुकना तो पड़ता ही है,

झुककर ही

काम करना पड़ता है।

फिर धीरे-धीरे

आदत हो जाती है,

झुके रहने की।

और फिर एक  समय

ऐसा  आता है

कि सिर उठाकर

चलना ही भूल जाती हैं।

फिर,

कहां कभी सिर  उठाकर

चल पाती हैं।

 

ज़िन्दगी के सवाल

ज़िन्दगी के सवाल

कभी भी

पहले और आखिरी नहीं होते।

बस सवाल होते हैं

जो एक-के-बाद एक

लौट-लौटकर

आते ही रहते हैं।

कभी उलझते हैं

कभी सुलझते हैं

और कभी-कभी

पूरा जीवन बीत जाता है

सवालों को समझने में ही।

वैसे ही जैसे

कभी-कभी हम

अपनी उलझनों को

सुलझाने के लिए

या अपनी उलझनों से

बचने के लिए

डायरी के पन्ने

काले करने लगते हैं

पहला पृष्ठ खाली छोड़ देते हैं

जो अन्त तक

पहुँचते-पहुँचते

अक्सर फ़ट जाता है।

तब समझ आता है

कि हम तो जीवन-भर

निरर्थक प्रश्नों में

उलझे रहे

न जीवन का आनन्द लिया

और न खुशियों का स्वागत किया।

और इस तरह

आखिरी पृष्ठ भी

बेकार चला जाता है।

 

धुआँ- धुआँ ज़िन्दगी

कुछ चेतावनियों के साथ

बेहिचक बिकता है

कोई भी, कहीं भी

पी ले

सुट्टा ले

हवा ले और हवाओं में ज़हर घोले

पूर्ण स्वतन्त्र हैं हम।

शानौ-शौकत का प्रतीक बन जाता है।

कहीं गम भुलाने के लिए

तो कहीं सर-दर्द मिटाने के लिए

कभी दोस्ती के लिए

तो कभी

देखकर मन ललचाता है

कुछ आधुनिक दिखने की चाहत

खींच ले जाती है

एकान्त में, छिपकर

फिर दिखाकर

और बाद में अकड़कर।

और जब तक समझ आता है

तब तक

धुआँ- धुआँ हो चुकी होती है ज़िन्दगी।

 

लीक पीटना छोड़ दें

 

युग बदलते हैं भाव कहां बदलते हैं

राम-रावण तो हर युग में पनपते हैं

कथाओं को घोट-घोट कर पी रहे हम]

लीक पीटना छोड़ दें तब जीवन संवरते हैं