प्रलोभनों के पीछे भागता मन

सर्वाधिकार की चाह में बहुत कुछ खो बैठते हैं

और-और की चाह में हर सीमा तोड़ बैठते हैं

प्रलोभनों के पीछे भागता मन, वश कहां रहा

अच्‍छे-बुरे की पहचान भूल, अपकर्म कर बैठते हैं

मन भटकता है यहां-वहां

अपने मन पर भी एकाधिकार कहां

हर पल भटकता है देखो यहां-वहां

दिशाहीन हो, इसकी-उसकी सुनता

लेखन में बिखराव है तभी तो यहां

क्‍यों करें किसी से गिले

कांटों के संग फूल खिले

अनजाने कुछ मीत मिले

सारी बातें आनी जानी हैं

क्‍यों करें किसी से गिले

कहीं लहर-लहर, कभी भंवर-भंवर

जीवन एक बहती धारा है, जब चाहे, नित नई राहें बदले

कभी दुख की घनघोर घटाएं, कभी सरस-सरस घन बरसें

पल-पल साथी बदले, कोई छूटा, कभी नया मीत मिला

कहीं लहर-लहर, कभी भंवर-भंवर यही जीवन है, पगले

हम तो आनन्दित हैं, तुमको क्या

इस जग में एक सुन्दर जीवन मिला है, मर्त्यन लोक है इससे क्या

सुख-दुख तो आने जाने हैं,पतझड़-सावन, प्रकाश-तम है हमको क्या

जब तक जीवन है, भूलकर मृत्यु के डर को जीत लें तो क्या बात है

कोई कुछ भी उपदेश देता रहे, हम तो आनन्दित हैं, तुमको क्या

नहीं चाहते हम हमारी अमरता से कोई घटना घटे

कहीं नोट पर चित्र छपेगा, कहीं सड़क, पुल पर नाम होगा

कोई कहेगा अवकाश कीजिए, कहीं पुस्तकों में एक पाठ होगा

नहीं चाहते हम हमारी अमरता से कोई घटना घटे, दुर्घटना घटे

कहीं झण्डे उठेंगे,डण्डें भिड़ेगें, कहीं बन्द का आह्वान होगा

ठिठुरी ठिठुरी धूप है कुहासे से है लड़ रही

ठिठुरी ठिठुरी धूप है, कुहासे से है लड़ रही

भाव भी हैं सो रहे, कलम हाथ से खिसक रही

दिन-रात का भाव एकमेक हो रहा यहां देखो

कौन करे अब काम, इस बात पर चर्चा हो रही

न इधर मिली न उधर मिली

नहीं जा पाये हम शाला, बाहर पड़ा था गहरा पाला

राह में इधर आई गउशाला, और उधर आई मधुशाला

एक कदम इधर जाता था, एक कदम उधर जाता था

न इधर मिली, न उधर मिली, हम रह गये हाला-बेहाला

जीवन में सुमधुर गीत रचे हैं

एक बार हमारा आतिथेय स्‍वीकार करके तो देखो

आनन्दित होकर ही जायेंगे, विश्‍वास करके तो देखो

मन-उपवन में रंग-बिरंगे भावों की बगिया महकी है

जीवन में सुमधुर गीत रचे हैं संग-संग गाकर तो देखो

अतिथि तुम तिथि देकर आना

शीत बहुत है, अतिथि तुम तिथि देकर आना

रेवड़ी, मूगफ़ली, गचक अच्‍छे से लेकर आना

लोहड़ी आने वाली है, खिचड़ी भी पकनी है

पकाकर हम ही खिलाएंगे, जल्‍दी-जल्‍दी जाना

जीना है तो बुझी राख में भी आग दबाकर रखनी पड़ती है

मन के गह्वर में एक ज्वाला जलाकर रखनी पड़ती है

आंसुओं को सोखकर विचारधारा बनाकर रखनी पड़ती है

ज़्यादा सहनशीलता, कहते हैं निर्बलता का प्रतीक होती है

जीना है तो, बुझी राख में भी आग दबाकर रखनी पड़ती है

दीप तले अंधेरा ढूंढते हैं हम

रोशनी की चकाचौंध में अक्सर अंधकार के भाव को भूल बैठते हैं हम

सूरज की दमक में अक्सर रात्रि के आगमन से मुंह मोड़ बैठते हैं हम

तम की आहट भर से बौखलाकर रोशनी के लिए हाथ जला बैठते हैं

ज्योति प्रज्वलित है, फिर भी दीप तले अंधेरा ही ढूंढने बैठते हैं हम

अपना विकराल रूप दिखाती है ज़िन्दगी

वैकल्पिक अवसर कहां देती है ज़िन्दगी,

जब चाहे कुछ भी छीन लेती है ज़िन्दगी

भाग्य को नहीं मानती मैं, पर फिर भी

अपना विकराल रूप दिखाती है ज़िन्दगी

नहीं जानें कौन अपराधी कौन महान

बहन के मान के लिए रावण ने लगाया था दांव पर सिंहासन

पर-आरोपों के घेरे में राम ने त्यागा पत्नी को बचाया सिंहासन

युग बदला, रावण को हम अपराधी मानें, दुर्गा का करें विसर्जन

विभीषण की न बात करें जिसने कपट कर पाया था सिंहासन

जब चाहिए वरदान तब शीश नवाएं

जब-जब चाहिए वरदान तब तब करते पूजा का विधान

दुर्गा, चण्डी, गौरी सबके आगे शीश नवाएं करते सम्मान

पर्व बीते, भूले अब सब, उठ गई चौकी, चल अब चौके में

तुलसी जी कह गये,नारी ताड़न की अधिकारी यह ले मान।।

ज़िन्दगी में मुश्किल से सम्हलते हैं रिश्ते

वे चुप-चुप थे ज़रा, हमने पूछा कई बार, क्या हुआ है

यूं ही छोटी-छोटी बातों पर भी कभी कोई गैर हुआ है

ज़िन्दगी में मुश्किल से सम्हलते हैं कुछ अच्छे रिश्ते

सबसे हंस-बोलकर समय बीते, ऐसा  कब-कब हुआ है

वैज्ञानिक भाषा को रोमन में लिखकर

शिक्षा से बाहर हुई, काम काज की भाषा नहीं, हम मानें या न मानें

हिन्दी की हम बात करें , बच्चे पढ़ते अंग्रेज़ी में, यह तो हम हैं जाने

विश्वगुरू बनने चले , अपने घर में मान नहीं है अपनी ही भाषा का

वैज्ञानिक भाषा को रोमन में लिखकर हम अपने को हिन्दीवाला मानें

कौन हैं अपने कौन पराये

कुछ मुखौटै चढ़े हैं, कुछ नकली बने हैं

किसे अपना मानें, कौन पराये बने हैं

मीठी-मीठी बातों पर मत जाना यारो

मानों खेत में खड़े बिजूका से सजे हैं

झूठ के आवरण चढ़े हैं

चेहरों पर चेहरे चढ़े हैं

असली तो नीचे गढ़े हैं

कैसे जानें हम किसी को

झूठ के आवरण चढ़े हैं

समय ने बदली है परिवार की परिल्पना

समय ने बदली है परिवार की परिल्पना, रक्त-सम्बन्ध बिखर गये

जहां मिले अपनापन, सुख-दुख हो साझा, वहीं मन-मीत मिल गये

झूठे-रूठे-बिगड़े सम्बन्धों को कब तक ढो-ढोकर जी पायेंगे

कौन है अपना, कौन पराया, स्वार्थान्धता में यहां सब बदल गये

कितने बन्दर झूम रहे हैं

शेर की खाल ओढ़कर शहर में देखो गीदड़ घूम रहे हैं

टूटे ढोल-पोल की ताल पर देखो कितने बन्दर झूम रहे हैं

कौन दहाड़ रहा पता नहीं, और कौन कर रहा हुआं-हुंआ

कौन है असली, कौन है नकली, गली-गली में ढूंढ रहे है।

इंसानियत गमगीन हुई है

जबसे मुट्ठी रंगीन हुई हैं,

तब से भावना क्षीण हुई हैं।

बात करते इंसानियत की

पर इंसानियत

अब कहां मीत हुई है।

रंगों से पहचान रहे,

हम अपनों को  

और परख रहे परायों को,

देखो यहां

इंसानियत गमगीन हुई है।

रंगों को बांधे  मुट्ठी में

इनसे ही अब पहचान हुई है।

बाहर से कुछ और दिखें

भीतर रंगों में तकरार हुई है।

रंगों से मिलती रंगीनियां

ये  पुरानी बात हुई है।

बन्द मुट्ठियों से अब मन डरता है

न जाने कहां क्या बात हुई है।

 

चल मुट्ठियों को खोलें

रंग बिखेरें,

तू मेरा रंग ले ले,

मैं तेरा रंग ले लूं

तब लगेगा, कोई बात हुई है।

कभी कांटों को सहेजकर देखना

फूलों का सौन्दर्य तो बस क्षणिक होता है

रस रंग गंध सबका क्षरण होता है

कभी कांटों को सहेजकर देखना

जीवन भर का अक्षुण्ण साथ होता है

अपनी नज़र से देखने की एक कोशिश

मेरा एक रूप है, शायद !

 

मेरा एक स्वरूप है, शायद !

 

एक व्यक्तित्व है, शायद !

 

अपने-आपको,

अपने से बाहर,

अपनी नज़र से

देखने की,

एक कोशिश की मैंने।

आवरण हटाकर।

अपने आपको जानने की

कोशिश की मैंने।

 

मेरी आंखों के सामने

एक धुंधला चित्र

उभरकर आया,

मेरा ही था।

पर था

अनजाना, अनपहचाना।

जिसने मुझे समझाया,

तू ऐसी ही है,

ऐसी ही रहेगी,

और मुझे डराते हुए,

प्रवेश कर गया मेरे भीतर।

 

कभी-कभी

कितनी भी चाहत कर लें

कभी कुछ नहीं बदलता।

बदल भी नहीं सकता

जब इरादे ही कमज़ोर हों।

खड़ी करनी है मज़बूत इमारत, प्यादों पर भरोसा कीजिए

जोकर, इक्का, बेगम, गुलाम, सबकी चाल चलनी आनी चाहिए

सारी चालें हैं वज़ीर के हाथ, इस बात पर भी ध्यान देना चाहिए

मुहावरों पर मत जाना कि गिरते देखे हैं ताश के महल भरभरा कर

गर खड़ी करनी है मज़बूत इमारत, प्यादों पर भरोसा करना चाहिए

चाय सुबह मिले या शाम को

सुबह की चाय और मीठी नींद की बात ही कुछ और है।

एक से बात कहां बनती है, दो-चार का तो चले दौर है।

ठीक नशे का काम करती है चाय, सुबह मिले या शाम को,

कितनी भी मिल जाये तो भी मन पूछता है, और है? और है?

 

चांदनी को तारे खिल-खिल हंस रहे

चांद से छिटककर चांदनी धरा पर है चली आई                      

पगली-सी डोलती, देखो कहां कहां है घूम आई

देख-देखकर चांदनी को तारे खिल-खिल हंस रहे

रवि की आहट से डर,फिर चांद के पास लौट आई

मुझे तो हर औरत दिखाई देती है


तुम सीता हो या सावित्री
द्रौपदी हो या कुंती
अहिल्या हो या राधा-रूक्मिणी
मैं अक्सर पहचान ही नहीं पाती।
सम्भव है होलिका, अहिल्या,
गांधारी, कुंती, उर्मिला,
अम्बा-अम्बालिका हो।
या नीता, गीता
सुशीला, रमा, शमा कोई भी हो।
और भी बहुत से नाम
स्मरण आ रहे हैं मुझे
किन्तु मैं स्वयं भी
किसी असमंजस में नहीं
पड़ना चाहती,
और न ही चाहती हूं
कि तुम सोचने लगो,
कि इसकी तो बातें
सदैव ही अटपटी-होती हैं
उलझी-उलझी।

तुम्हें क्या लगता है
कौन है यह?
सती-सावित्री?

मुझे तो हर औरत
दिखाई देती है इसके भीतर
सदैव पति के लिए
दुआएं मांगती,
यमराज के आगे सिर झुकाकर
अपनी जीवन देकर ।

दुनिया नित नये रंग बदले

इधर केशों ने रंग बदला और उधर सम्बोधन भी बदल गये

कल तक जो कहते थे बहनजी उनके हम अम्मां जी हो गये

दुनिया नित नये रंग बदले, हमने देखा, परखा, भोगा है जी

तो हमने भी केशों का रंग बदला, अब हम आंटी जी हो गये 

रेखाओं का खेल है प्यारे

रेखाओं का खेल है प्यारे, कुछ शब्दों में ढल जाते हैं कुछ आकारों में

कुछ चित्रों को कलम बनाती, कुछ को उकेरती तूलिका विचारों में

भावों का संसार विचित्र, स्वयं समझ न पायें, औरों को क्या समझायें

न रूप बने न रंग चढ़े, उलझे-सुलझे रह जाते हैं अपने ही उद्गारों में