ये दो दिन
कहते हैं
दुनिया
दो दिन का मेला,
कहाँ लगा
कबसे लगा,
मिला नहीं।
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वैसे भी
69 वर्ष हो गये
ये दो दिन
बीत ही नहीं रहे।
कानून तोड़ना अधिकार हमारा
अधिकारों की बात करें
कर्तव्यो का ज्ञान नहीं,
पढ़े-लिखे अज्ञानी
इनको कौन दे ज्ञान यहां।
कानून तोड़ना अधिकार हमारा।
पकड़े गये अगर
ले-देकर बात करेंगे,
फिर महफिल में बीन बजेगी
रिश्वतखोरी बहुत बढ़ गई,
भ्रष्टाचारी बहुत हो गये,
कैसे अब यह देश चलेगा।
आरोपों की झड़ी लगेगी,
लेने वाला अपराधी है
देने वाला कब होगा ?
रूठकर बैठी हूं
रूठकर बैठी हूं
कभी तो मनाने आओ।
आज मैं नहीं,
तुम खाना बनाओ।
फिर चलेंगे सिनेमा
वहां पापकार्न खिलाओ।
चप्पल टूट गई है मेरी
मैंचिंग सैंडल दिलवाओ।
चलो, इसी बात पर आज
आफ़िस से छुट्टी मनाओ।
अरे!
मत डरो,
कि काम के लिए कह दिया,
चलो फिर,
बस आज बाहर खाना खिलाओ।
दुनिया नित नये रंग बदले
इधर केशों ने रंग बदला और उधर सम्बोधन भी बदल गये
कल तक जो कहते थे बहनजी उनके हम अम्मां जी हो गये
दुनिया नित नये रंग बदले, हमने देखा, परखा, भोगा है जी
तो हमने भी केशों का रंग बदला, अब हम आंटी जी हो गये
ज़िन्दगी एक क्षणिका भी न बन पाई
किसी ने कहा
ज़िन्दगी पर
एक उपन्यास लिखो।
सालों-साल का
हिसाब-बेहिसाब लिखो।
स्मृतियों को
उलटने-पलटने लगी।
समेटने लगी
सालों, महीनों, दिनों
और घंटों का,
पल-पल का गणित।
बांधने लगी पृष्ठ दर पृष्ठ।
न जाने कितने झंझावात,
कितने विप्लव,
कितने भूचाल बिखर गये।
कहीं आंसू, कहीं हर्ष,
कहीं आहों के,
सुख-दुख के सागर उफ़न गये।
न जाने
कितने दिन-महीने, साल लग गये
कथाओं का समेटने में।
और जब
अन्तिम रूप देने का समय आया
तो देखा
एक क्षणिका भी न बन पाई।
कहते हैं कोई ऊपरवाला है
कहते हैं कोई ऊपरवाला है, सब कुछ वो ही तो दिया करता है
पर हमने देखा है, जब चाहे सब कुछ ले भी तो लिया करता है
लोग मांगते हाथ जोड़-जोड़कर, हरदम गिड़गिड़ाया करते हैं
पर देने की बारी सबसे ज़्यादा टाल-मटोल वही किया करता है
न मैं जानूं न तुम जानो फिर भी अच्छे लगते हो
न मैं जानूं न तुम जानो फिर भी अच्छे लगते हो
न तुम बोले न मैं, मुस्कानों में क्यों बातें करते हो
अनजाने-अनपहचाने रिश्ते अपनों से अच्छे लगते हैं
कदम ठिठकते, दहलीज रोकती, यूं ही मन चंचल करते हो
जिन्दगी के अफ़साने
लहरों पर डूबेंगे उतरेंगे, फिर घाट पर मिलेंगे
झंझावात है, भंवर है सब पार कर चलेंगे
मत सोच मन कि साथ दे रहा है कोई या नहीं
बस चलाचल,जिन्दगी के अफ़साने यूं ही बनेंगे
तरुणी की तरुणाई
मौसम की तरुणाई से मन-मग्न हुई तरुणी
बादलों की अंगड़ाई से मन-भीग गई तरूणी
चिड़िया चहकी, कोयल कूकी, मोर बोले मधुर
मन मधुर-मधुर, प्रेम-रस में डूब गई तरुणी
यह कलियुग है रे कृष्ण
देखने में तो
कृष्ण ही लगते हो
कलियुग में आये हो
तो पीसो चक्की।
न मिलेगी
यहां यशोदा, गोपियां
जो बहायेंगी
तुम्हारे लिए
माखन-दहीं की धार
वेरका का दूध-घी
बहुत मंहगा मिलता है रे!
और पतंजलि का
है तो तुम्हारी गैया-मैया का
पर अपने बजट से बाहर है भई।
तुम्हारे इस मोहिनी रूप से
अब राधा नहीं आयेगी
वह भी
कहीं पीसती होगी
जीवन की चक्की।
बस एक ही
प्रार्थना है तुमसे
किसी युग में तो
आम इंसान बनकर
अवतार लो।
अच्छा जा अब,
उतार यह अपना ताम-झाम
और रात की रोटी खानी है तो
जाकर अन्दर से
अनाज की बोरी ला ।
मन के इस बियाबान में
मन के बियाबान में
जब राहें बनती हैं
तब कहीं समझ पाते हैं।
मौसम बदलता है।
कभी सूखा,
तो कभी
हरीतिमा बरसती है।
जि़न्दगी बस
राहें सुझाती है।
उपवन महकता है,
पत्ती-पत्ती गुनगुन करती है।
फिर पतझड़, फिर सूखा।
फिर धरा के भीतर से ,
पनपती है प्यार की पौध।
उसी के इंतजार में खड़े हैं।
मन के इस बियाबान में
एकान्त मन।
कथा प्रकाश की
बुझा भी दोगे इस दीप की लौ को, प्रतिच्छाया मिटा न पाओगे
बूंद बूंद में लिखी जा चुकी है कथा प्रकाश की, मिटा न पाओगे
कांच की दीवार के आर हो या पार, सत्य तो सुरभित होकर रहेगा
बाती और धूम्र पहले ही लिख चुके इतिहास को, मिटा न पाओगे
किस बात का हम मान करें
कहते हैं
मिट्टी की यह देह
मिट्टी में मिल जायेगी।
मिट्टी चुन-चुन
थाप-थापकर
घट का निर्माण करें।
रंग-रूप में,
चमक-दमक में,
अपनी यूं ही शान करें।
ज़रा-सी धमक,
बिखर कर
फिर मिट्टी के नाम करें।
मिट्टी से बनते हैं,
फिर मिट्टी में मिल जाते हैं।
किस बात का हम मान करें।
दिन सभी मुट्ठियों से फ़िसल जायेंगे
किसी ने मुझे कह दिया
दिन
सभी मुट्ठियों से
फ़िसल जायेंगे,
इस डर से
न जाने कब से मैंने
हाथों को समेटना
बन्द कर दिया है
मुट्ठियों को
बांधने से डरने लगी हूँ।
रेखाएँ पढ़ती हूँ
चिन्ह परखती हूँ
अंगुलियों की लम्बाई
जांचती हूँ,
हाथों को
पलट-पलटकर देखती हूँ
पर मुट्ठियाँ बांधने से
डरने लगी हूँ।
इन छोटी -छोटी
दो मुट्ठियों में
कितने समेट लूँगी
जिन्दगी के बेहिसाब पल।
अब डर नहीं लगता
खुली मुट्ठियों में
जीवन को
शुद्ध आचमन-सा
अनुभव करने लगी हूँ,
जीवन जीने लगी हूँ।
उधारों पर दुनिया चलती है
सिक्कों का अब मोल कहाँ
मिट्टी से तो लगते हैं।
पैसे की अब बात कहाँ
रंगे कार्ड-से मिलते हैं।
बचत गई अब कागज़ में
हिसाब कहाँ अब मिलते हैं।
खन-खन करते सिक्के
मुट्ठी में रख लेते थे।
पाँच-दस पैसे से ही तो
नवाब हम हुआ करते थे।
गुल्लक कब की टूट गई
बचत हमारी गोल हुई।
मंहगाई-टैक्सों की चालों से
बुद्धि हमारी भ्रष्ट हुई।
पैसे-पैसे को मोहताज हुए,
किससे मांगें, किसको दे दें।
उधारों पर दुनिया चलती है
शान इसी से बनती है।
वन्दे मातरम् कहें
चलो
आज कुछ नया-सा करें
न करें दुआ-सलाम
न प्रणाम
बस, वन्दे मातरम् कहें।
देश-भक्ति के गीत गायें
पर सत्य का मार्ग भी अपनाएं।
शहीदों की याद में
स्मारक बनाएं
किन्तु उनसे मिली
धरोहर का मान बढ़ाएं।
न जाति पूछें, न धर्म बताएं
बस केवल
इंसानियत का पाठ पढ़ाएं।
झूठे जयकारों से कुछ नहीं होता
नारों-वादों कहावतों से कुछ नहीं होता
बदलना है अगर देश को
तो चलो यारो
आज अपने-आप को परखें
अपनी गद्दारी,
अपनी ईमानदारी को परखें
अपनी जेब टटोलें
पड़ी रेज़गारी को खोलें
और अलग करें
वे सारे सिक्के
जो खोटे हैं।
घर में कुछ दर्पण लगवा लें
प्रात: प्रतिदिन अपना चेहरा
भली-भांति परखें
फिर किसी और को दिखाने का साहस करें।
मन में बस सम्बल रखना
चिड़िया के बच्चे सी
उतरी थी मेरे आंगन में।
दुबकी, सहमी सी रहती थी
मेरे आंचल में।
चिड़िया सी चीं-चीं करती
दिन भर
घर-भर में रौनक भरती।
फिर कब पंख उगे
उड़ना सिखलाया तुझको।
धीरे धीरे भरना पग
समझाया तुझको।
दुर्गम हैं राहें,
तपती धरती है,
कंकड़ पत्थर बिखरे हैं,
कदम सम्हलकर रखना
बतलाया तुझको।
हाथ छोड़कर तेरा
पीछे हटती हूं।
अब तुझको
अपने ही दम पर
है आगे बढ़ना।
हिम्मत रखना।
डरना मत ।
जब मन में कुछ भ्रम हो
तो आंखें बन्द कर
करना याद मुझे।
कहीं नहीं जाती हूं
बस तेरे पीछे आती हूं।
मन में बस इतना ही
सम्बल रखना।
दर्दे दिल के निशान
काश! मेरा मन रेत का कोई बसेरा होता।
सागर तट पर बिखरे कणों का घनेरा होता।
दर्दे दिल के निशान मिटा देतीं लहरें, हवाएं,
सागर तल से उगता हर नया सवेरा होता।
हम तो रह गये पांच जमाती
क्या बतलाएं आज अपनी पीड़ा, टीचर मार-मार रही पढ़ाती
घर आने पर मां कहती गृह कार्य दिखला, बेलन मार लिखाती
पढ़ ले, पढ़ ले,कोई कहता टीचर बन ले, कोई कहता डाक्टर
नहीं ककहरा समझ में आया, हम तो रह गये पांच जमाती
कवियत्रियों की मारक पुकार
आज मेरा मन गद्गद् है। मेरा मन कभी भी इतनी देशीय, देश-भक्त नहीं हुआ जितना कल रात हुआ।
रात के 11 बजे यह हादसा हुआ।
अब कोई मुझसे पूछे कि इतनी रात मैं फ़ेसबुक पर क्या कर रही थी।
वही कर रही थी जो आप सब करते हैं। किन्तु आजकल किसी भी समय फ़ेसबुक पर जाईये आॅन लाईन काव्य पाठ सुनने को मिल जायेगा और जब मिलेगा तो सुनना भी चाहिए, इस आशा में कि शायद कभी मुझे भी इस मंच से काव्य पाठ का अवसर मिल जाये, इसी आशा में सुनना पड़ता है।
अब सीधे-सीधे मुद्दे की बात करती हूं।
रात्रि 11 बजे एक महान कवियत्री आॅन लाइन काव्य पाठ के माध्यम से चीन को सीधे-सीधे चेतावनी दे रही थी, ललकार रही थी, पुकार रही थी, चिल्ला-चिल्लाकर कह रही थी, अरे बाहर निकल, तुझे तो मैं देख लूंगी। उनकी हुंकार से बड़े-बड़े डर जाते, चीन की तो बात ही क्या। तू बाहर निकल कर तो दिखा, इधर नज़र उठाकर तो दिखा। इस देश की अनेक वीरांगनाओं को भी उन्होंने निमन्त्रण दिया। मुझे पहली बार ज्ञात हुआ कि मेरा देश इतनी वीरांगनाओं से प्लावित और ग्रसित है। मेरा तो ज्ञान ही अल्प मात्रा में है, मुझे तो बस एक झांसी की रानी का ही नाम स्मरण था, किन्तु उनका ज्ञान अद्भुत था। वे तो पता नहीं कितनी ही वीरांगनाओं को बुलाकर मंच पर ले आईं। यहां तक कि पद्मिनी जिसने जौहर किया था, उसे भी तलवार के साथ बुला लिया और पांच सौ और महिलाओं को भी आग से बाहर निकाल कर अपने साथ सेना बना ली, आओ, चीन वालो, तुम्हें तो हम ही देख लेंगे। अब रात्रि 11 बजे का समय था, मुझे डर लगने लगा , नींद के झोंके भी थे। किन्तु बीच-बीच में मुझे द्रौपदी, कुंती, राधा, मीरा, उर्वशी तक के भी नाम सुनाई दिये। मैंने जल्दी से पी सी बन्द किया, एक चादर ली और मुंह ढककर सोने का प्रयास करने लगी, कि कवियत्री महोदया ने आॅन-लाईन में मेरा नाम पढ़ लिया होगा, कहीं मुझे न पुकार ले। इस महोदया को तीन लोग सुन रहे थे, जिनमें एक मैं थी।
किन्तु जाने से पहले एक और बात बताना चाहूंगी कि मैंने सुना है कि इधर सीमाओं पर कवियत्रियों की नियुक्ति की जाने वाली है, कवि सम्मेलन आयोजित किये जाने की बात चल रही है, वे सीमाओं पर अपनी ओजपूर्ण, दहाड़पूर्ण, ललकारपूर्ण, हुंकारपूर्ण कविताएं सुनाएंगी, वे भी गा-गाकर, चीनी सेना तो यूं ही भाग लेगी।
सोचती हूं कुछ दिन के लिए कविताएं लिखना बन्द कर दूं।
मन तो बहकेगा ही
कभी बादलों के बीच से झांकता है चांद।
न जाने किस आस में
तारे उसके आगे-पीछे घूम रहे,
तब रूप बदलने लगा ये चांद।
कुछ रंगीनियां बरसती हैं गगन से]
धरा का मन शोख हो उठा ।
तिरती पल्लवों पर लाज की बूंदे
झुकते हैं और धरा को चूमते हैं।
धरा शर्माई-सी,
आनन्द में
पक्षियों के कलरव से गूंजता है गगन।
अब मन तो बहकेगा ही
अब आप ही बताईये
क्या करें।
खत लिखने से डरते थे।
मन ही मन
उनसे प्यार बहुत करते थे
पर खत लिखने से डरते थे।
कच्ची पैंसिल, फटा लिफ़ाफ़ा
आटे की लेई,
कापी का आखिरी पन्ना।
फिर सुन लिया
लोग लिफ़ाफ़ा देखकर
मजमून भांप लिया करते हैं।
उनसे प्यार बहुत करते थे
पर इस कारण
खत लिखने से डरते थे।
अब हमें
मजमून का अर्थ तो पता नहीं था
लेकिन
मजमून से
कुछ मजनूं की-सी ध्वनि
प्रतिध्वनित होती थी।
कुछ लैला-मजनूं की-सी।
और कभी-कभी जूं की-सी।
और
इन सबसे हम डरते थे ।
उनसे प्यार बहुत करते थे
पर इस कारण
खत लिखने से डरते थे।
निःस्वार्थ था उनका बलिदान
ये वे नाम हैं
जिन्हें हम स्मरण करते हैं
बस किसी एक दिन,
उनकी वीरता, साहस,
देश भक्ति और बलिदान।
विदेशी आक्रांताओं से मुक्ति,
स्वाधीन, महान भारत का सपना
हमें देकर गये।
निःस्वार्थ था उनका बलिदान
वे केवल जानते थे
हमारा भारत महान
और हर नागरिक समान।
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देशभक्ति क्या होती है
क्या होता है बलिदान,
काश! हम समझ पाते।
तो आज
न बहता सड़कों पर रक्त
न पूछते हम जाति
न करते किसी धर्म-अधर्म की बात
न पत्थर चिनते,
न दीवारें बनाते,
बस इंसानियत को जीते
और इंसानियत को समझते।
किसी ने कहा था
अच्छा हुआ
आज गांधी ज़िन्दा नहीं हैं
नहीं तो वे
सच को इस तरह सड़कों पर
मरता देख बहुत रोते।
अच्छा हुआ
इनमें से कोई आज ज़िन्दा नहीं है,
वे हमारी सोच देख
सच में ही मर जाते।
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ऐसा क्या हुआ
कि हम
इन्हें अपने भीतर
ज़िन्दा नहीं रख पाये।