हवाओं के रंग नहीं होते

हवाओं के रंग नहीं होते,

हवाओं में रंग होते हैं।

भाव होते हैं,

कभी गर्म , कभी सर्द

तो कभी नम होते हैं।

फूलों संग

हवाएं महकती हैं,

मन को दुलारती, सहलाती हैं।

खुली हवाएं

जीना सिखलाती हैं।

कभी हवाओं के संग

बह-बह जाते हैं भाव,

आकांक्षाएं बहकती हैं,

मन उदास हो तो

सर पर हाथ फेर जाती हैं,

आंसुओं को सोखकर

मुस्कान बना जाती हैं।

चेहरे को छूकर

शर्मा कर बिखर-बिखर जाती हैं।

कानों में सन-सन गूंजती

न जाने कितने संदेश दे जाती हैं।

कभी शरारती-सी,

लटें बिखेरती,

कभी उलझाकर चली जाती हैं।

मन की तरह

बदलते हैं हवाओं के रूख,

कभी-कभी

अपना प्रचण्ड रूप भी दिखलाती हैं।

सुना है,

हवाओं के रूख को

अपने हित में मोड़ना भी एक कला है,

कैसे, यही नहीं समझ पाती हूं।

कुछ पाने के लिए सर टकराने पड़ते हैं

जीवन में

आगे बढ़ने के लिए

खतरे तो उठाने पड़ते हैं।

लीक से हटकर

चलते-चलते

अक्सर झटके भी

खाने पड़ते हैं।

हिमालय की चोटी छूने में

खतरा भी है,

जोखिम भी,

और शायद संकट भी।

जीवन में कुछ पाने के लिए

तीनों से सर

टकराने पड़ते हैं।

रोज़ की ही कहानी है

जब जब कोई घटना घटती है,

हमारी क्रोधाग्नि जगती है।

हमारी कलम

एक नये विषय को पाकर

लिखने के लिए

उतावली होने लगती है।

समाचारों से हम

रचनाएं रचाते हैं।

आंसू शब्द तो सम्मानजनक है,

लिखना चाहिए

टसुए बहाते हैं।

दर्द बिखेरते हैं।

आधी-अधूरी जानकारियों को

राजनीतिज्ञों की तरह

भुनाते हैं।

वे ही चुने शब्द

वे ही मुहावरे

देवी-देवताओं का आख्यान

नारी की महानता का गुणगान।

नारी की बेचारगी,

या फिर

उसकी शक्तियों का आख्यान।

 

पूछती हूं आप सबसे,

कभी अपने आस-पास देखा है,

एक नज़र,

कितना करते हैं हम नारी का सम्मान।

कितना दिया है उसे खुला आसमान।

उसकी वाणी की धार को तराशते हैं,

उसकी आन-बान-शान को संवारते हैं,

या फिर

ऐसे किस्सों से बाहर निकलने के बाद

कुछ अच्छे उपहासात्मक

चुटकुले लिख डालते हैं।

आपसे क्या कहूं,

मैं भी शायद

यहीं कहीं खड़ी हूं।

काजल पोत रहे अंधे

अंधे के हाथ बटेर लगना,

अंधों में काना राजा, 

आंख के अंधे नाम नयनसुख,

सुने थे कुछ ऐसे ही मुहावरे।

पर आज ज्ञात हुआ

यहां तो

काजल पोत रहे अंधे।

बड़ी असमंजस की स्थिति बन आई है।

क्यों काजल पोत रहे अंधे।

किसके चेहरे पर हाथ

साफ़ कर रहे ये बंदे।

काजल लगवाने के लिए

उजले मुख लेकर

कौन घूम रहे बंदे।

अंधे तो पहले ही हैं

और कालिमा लेकर

अब कर रहे कौन ये धंधे।

 

कालिमा लग जाने के बाद

कौन बतलायेगा,

कौन समझायेगा,

कैसे लगी, किसने लगाई।

किसके लगी, कहां से आई।

काजल की है, या कोयले की,

या कर्मोa की,

करेगा कौन निर्णय।

कहीं ऐसा तो नहीं

जो पोत रहे काजल,

सब हैं आंख से चंगे,

और हम ही बन रहे अंधे।

 

क्योंकि हम देखने से डरने लगे हैं।

समझने से कतराने लगे हैं।

सच बोलने से हटने लगे हैं।

अधिकार की बात करने से बचने लगे हैं।

किसी का साथ देने से कटने लगे हैं।

और

गांधी के तीन बन्दर बनने में लगे हैं ।

न देखो, न सुनो, न बोलो।

‘‘बुरा’’ तो गांधी जी के साथ ही चला गया।

 

लाल बहादुर शास्त्री की स्मृति में

राजनीति में,

अक्सर

लोग बात करते हैं,

किसी के

पदचिन्हों पर चलने की।

किसी के विचारों का

अनुसरण करने की।

किसी को

अपनी प्रेरणा बनाने की।

एक सादगी, सीधापन,

सरलता और ईमानदारी!

क्यों रास नहीं आई हमें।

क्यों पूरे वर्ष

याद नहीं आती हमें

उस व्यक्तित्व की,

नाम भूल गये,

काम भूल गये,

उनका हम बलिदान भूल गये।

क्या इतना बदल गये हम!

शायद 2 अक्तूबर को

गांधी जी की

जयन्ती न होती

तो हमें

लाल बहादुर शास्त्री

याद ही न आते।

 

भीड़-तन्त्र

आज दो किस्से हुए।

एक भीड़-तन्त्र स्वतन्त्र हुआ।

मीनारों पर चढ़ा आदमी

आज मस्त हुआ।

28 वर्ष में घुटनों पर चलता बच्चा

युवा हो जाता है,

अपने निर्णय आप लेने वाला।

लेकिन उस भीड़-तन्त्र को

कैसे समझें हम

जो 28 वर्ष पहले दोषी करार दी गई थी।

और आज पता लगा

कितनी निर्दोष थी वह।

हम हतप्रभ से

अभी समझने की कोशिश कर ही रहे थे,

कि ज्ञात हुआ

किसी खेत में

एक मीनार और तोड़ दी

किसी भीड़-तन्त्र ने।

जो एक लाश बनकर लौटी

और आधी रात को जला दी गई।

किसी और भीड़-तन्त्र से बचने के लिए।

28 वर्ष और प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।

यह जानने के लिए

कि अपराधी कौन था,

भीड़-तन्त्र तो आते-जाते रहते हैं,

परिणाम कहां दे पाते हैं।

दूध की तरह उफ़नते हैं ,

और बह जाते हैं।

लेकिन  कभी-कभी

रौंद भी दिये जाते हैं।

 

रंगों में बहकता है

यह अनुपम सौन्दर्य

आकर्षित करता है,

एक लम्बी उड़ान के लिए।

रंगों में बहकता है

किसी के प्यार के लिए।

इन्द्रधनुष-सा रूप लेता है

सौन्दर्य के आख्यान के लिए।

तरू की विशालता

संवरती है बहार के लिए।

दूर-दूर तम फैला शून्य

समझाता है एक संवाद के लिए।

परिदृश्य से झांकती रोशनी

विश्वास देती है एक आस के लिए।

अपने आकर्षण से बाहर निकल

अपने आकर्षण से बाहर निकल।

देख ज़रा

प्रतिच्छाया धुंधलाने लगी है।

रंगों से आभा जाने लगी है।

नृत्य की गति सहमी हुई है

घुंघरूओं की थाप बहरी हुई है।

गति विश्रृंखलित हुई है।

मुद्रा तेरी थकी हुई है।

वन-कानन में खड़ी हुई है।

पीछे मुड़कर देख।

सच्चाईयों से मुंह न मोड़।

भेड़िए बहके हुए हैं।

चेहरों पर आवरण पहने हुए हैं।

पहचान कहीं खो गई है।

सम्हलकर कदम रख।

अपनी हिम्मत को परख।

सौन्दर्य में ही न उलझ।

झूठी प्रशंसाओं से निकल।

सामने वाले की सोच को परख।

तब अपनी मुद्रा में आ।

अस्त्र उठा या

नृत्य से दिल बहला।

 

रोशनी की परछाईयां भी राह दिखा जाती हैं

अजीब है इंसान का मन।

कभी गहरे सागर पार उतरता है।

कभी

आकाश की उंचाईयों को

नापता है।

 

ज़िन्दगी में अक्सर

रोशनी की परछाईयां भी

राह दिखा जाती हैं।

ज़रूरी नहीं

कि सीधे-सीधे

किरणों से टकराओ।

फिर सूरज डूबता है,

या चांद चमकता है,

कोई फ़र्क नहीं पड़ता।

ज़िन्दगी में,

कोई एक पल

तो ऐसा होता है,

जब सागर-तल

और गगन की उंचाईयों का

अन्तर मिट जाता है।

 

बस!

उस पल को पकड़ना,

और मुट्ठी में बांधना ही

ज़रा कठिन होता है।

*-*-*-*-*-*-*-*-*-

कविता  सूद 1.10.2020

चित्र आधारित रचना

यह अनुपम सौन्दर्य

आकर्षित करता है,

एक लम्बी उड़ान के लिए।

रंगों में बहकता है

किसी के प्यार के लिए।

इन्द्रधनुष-सा रूप लेता है

सौन्दर्य के आख्यान के लिए।

तरू की विशालता

संवरती है बहार के लिए।

दूर-दूर तम फैला शून्य

समझाता है एक संवाद के लिए।

परिदृश्य से झांकती रोशनी

विश्वास देती है एक आस के लिए।

 

कामधेनु कुर्सी बनी

 

समुद्र मंथन से मिली सुरभि, मनोकामनाएं पूरी थी करती,

राजाओं, ऋषियों की स्पर्धा बनी, मान दिलाया थी करती,

गायों को अब कौन पूछता, अब कुर्सी की बात करो यारो,

कामधेनु कुर्सी बनी, इसके चैपायों की पूजा दुनिया करती।

इंसान को न धिक्कारो यारो

 

आत्माओं का गुणगान करके इंसान को न धिक्कारो यारो

इंसानियत की नीयत और गुणों में पूरा विश्वास करो यारो

यह जीवन है, अच्छा-बुरा, ,खरा-खोटा तो चला रहेगा

अपनों को अपना लो, फिर जीवन सुगम है, समझो यारो।

हिंदी दिवस की आवश्यकता क्यों

 

14 सितम्बर 1949 को हिन्दी को संविधान में राष्ट््रभाषा के रूप में मान्यता दी गई और हम इस दिन हिन्दी दिवस मनाने लगे। क्यों मनाते हैं हम हिन्दी दिवस? हिन्दी के लिए क्या करते हैं हम इस दिन? कितना चिन्तन होता है इस दिन हिन्दी के बारे में। हिन्दी के प्रचार-प्रसार पर सरकारी, गैर सरकारी हिन्दी संस्थाएं कितनी योजनाएं बनती हैं? अखिल भारतीय स्तर के हिन्दी संस्थान हिन्दी की स्थिति पर क्या चिन्तन करते हैं? क्या कभी इस बात पर किसी भी स्तर पर चिन्तन किया जाता है कि वर्तमान में हिन्दी की देश में स्थिति क्या है और भविष्य के लिए क्या योजना होना चाहिए? शिक्षा में हिन्दी का क्या स्तर है, क्या इस बात पर कभी चर्चा होती है?

इन सभी प्रश्नों के उत्तर नहीं में हैं।

प्रत्येक कार्यालय में हिन्दी दिवस मनाया जाता है। भाषण-प्रतियोगिताएं, लेखन प्रतियोगिताएं, कवि-सम्मेलन, कुछ सम्मान और पुरस्कार, और अन्त में समोसा, चाय, गुलाबजामुन के साथ हिन्दी दिवस सम्पन्न।  तो इसलिए मनाते हैं हम हिन्दी दिवस।

नाम हिन्दी में लिख लिए, नामपट्ट हिन्दी में लगा लिए, जैसे छोटे-छोटे प्रचारात्मक प्रयासों से हिन्दी का क्या होगा?

हम चाहते हैं कि हिन्दी का प्रचार-प्रसार हो, हिन्दी शिक्षा का माध्यम बने, किन्तु क्या हम कोई प्रयास करते हैं? क्या आज तक किसी संस्था ने हिन्दी दिवस के दिन सरकार को कोई ज्ञापन दिया है कि हिन्दी को देश में किस तरह से लागू किया जाना चाहिए। हिन्दी संस्थानों का कार्य केवल हिन्दी की कुछ तथाकथित पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित करना, पुरस्कार बांटना और कुछ छात्रवृत्तियां देने तक ही सीमित है। हां, हिन्दी सरल होनी चाहिए, दूसरी भाषाओं के शब्दों को हिन्दी में लिया जाना चाहिए, हिन्दी बोलचाल की भाषा बननी चाहिए, अंग्रेज़ी का विरोध किया जाना चाहिए, बस हमारी इतनी ही सोच है।

वर्तमान में भारतीय भाषा वैभिन्नय एवं वैश्विक स्तर से यदि देखें तो हिन्दी में] हिन्दी माध्यम में एवं प्रत्येक विधा, ज्ञान का अध्ययन असम्भव प्रायः है, यह बात हमें ईमानदारी से मान लेनी चाहिए। हिन्दी को अपना स्थान चाहिए न कि अन्य भाषाओं का विरोध।

आज हिन्दी वर्णमाला का कोई एक मानक रूप नहीं दिखाई देता। दसवीं कक्षा तक विवशता से हिन्दी पढ़ाई और पढ़ी जाती है। किन्तु यदि हिन्दी विषय को, भाषा, साहित्य, इतिहास को प्रत्येक स्तर पर अनिवार्य कर दिया जाये तब हिन्दी को सम्भवतः उसका स्थान मिल सकता है। उच्च शिक्षा के प्रत्येक स्तर पर हिन्दी की एक परीक्षा, अध्ययन अनिवार्य होना चाहिए, हिन्दी साहित्येतिहास, अनिवार्य कर दिया जाये, तब हिन्दी की स्थिति में सुधार आ सकता है।

आज हम बच्चों के लिए अपनी संस्कृति,परम्पराओं की बात करते हैं। यदि हम हिन्दी पढ़ते हैं तब हम अपनी संस्कृति, सभ्यता, प्राचीन साहित्य, कलाओं, परम्पराओं , सभी का अध्ययन कर सकते हैं। और इसके लिए एक बड़े अभियान की आवश्यकता है न कि हम यह सोच कर प्रसन्न हो लें कि अब तो फ़ेसबुक पर भी सब हिन्दी लिखते हैं।

अतः किसी एक दिन हिन्दी दिवस मनाने की आवश्यकता नहीं है, दीर्घकालीन योजना की आवश्यकता है।

ऋण नहीं मांगता दान नहीं मांगता ​​​​​​​

समय बदला, युग बदले,

ज़मीन से आकाश तक,

चांद तारों को परख आया मानव।

और मैं !! आज भी

उसी खेत में

बंजर ज़मीन पर

अपने उन्हीं बूढ़े दो बैलों के साथ

हल जोतता ताकता हूं आकाश

कब बरसेगा मेह मेरे लिए।

तब धान उगेगा

भरपेट भोजन मिलेगा।

ऋण नहीं मांगता। दान नहीं मांगता।

बस चाहता हूं

अपने परिश्रम की दो रोटी।

नहीं मरना चाहता मैं बेमौत।

अगर यूं ही मरा

तब मेरे नाम पर राजनीति होगी।

सुर्खियों में आयेगा मेरा नाम।

फ़ोटो छपेगी।

मेरी गरीबी और मेरी यह मौत

अनेक लोगों की रोज़ी-रोटी बनेगी।

धन बंटेगा, चर्चाएं होंगी

मेरी उस लाश पर

और भी बहुत कुछ होगा।

 

और इन सबसे दूर

मेरे घर के लोग

इन्हीं दो बैलों के साथ

उसी बंजर ज़मीन पर

मेरी ही तरह

नज़र गढ़ाए बैठे होंगे आकाश पर

कब बरसेगा मेह

और हमें मिलेगी

अपने परिश्रम की दो रोटी

हां ! ये मैं ही हूं

मैमोरैण्डम

हर डायरी के

प्रारम्भ और अन्त में

जड़े कुछ पृष्ठ पर

जिन पर लिखा होता है

‘मैमोरैण्डम’ अर्थात् स्मरणीय।

मैमोरी के लिए

स्मरण रखने के लिए है क्या ?

वे बीते क्षण

जो बीतकर

या तो बीत गये हैं

या बीतकर भी

अनबीते रह गये हैं।

अथवा वे आने वाले क्षण

जो या तो आये ही नहीं

या बिना आये ही चले गये हैं।

बीत गये क्षण: एक व्यर्थता -

बडे़-बड़े विद्वानों ने कहा है

भूत को मत देखो

भविष्य में जिओ।

भविष्य: एक अनबूझ पहेली

उपदेश मिलता है

आने वाले कल की

चिन्ता क्यों करते हो

आज को तो जी लो।

और आज !

आज तो आज है

उसे क्या याद करें।

तो फिर मैमोरैण्डम फाड़ डालें।

किरचों से नहीं संवरते मन और दर्पण

किरचों से नहीं संवरते मन और दर्पण 

कांच पर रंग लगा देने से

वह दर्पण बन जाता है।

इंसान मुखौटे ओढ़ लेता है,

सज्जन कहलाता हैं।

किरचों से नहीं संवरते

मन और दर्पण,

छोटी-छोटी खुशियां समेट लें,

जीवन संवर जाता है।

ज़िन्दगी एक क्षणिका भी न बन पाई

किसी ने कहा

ज़िन्दगी पर

एक उपन्यास लिखो।

सालों-साल का

हिसाब-बेहिसाब लिखो।

स्मृतियों को

उलटने-पलटने लगी।

समेटने लगी

सालों, महीनों, दिनों

और घंटों का,

पल-पल का गणित।

बांधने लगी पृष्ठ दर पृष्ठ।

न जाने कितने झंझावात,

कितने विप्लव,

कितने भूचाल बिखर गये।

कहीं आंसू, कहीं हर्ष,

कहीं आहों के,

सुख-दुख के सागर उफ़न गये।

 

न जाने

कितने दिन-महीने, साल लग गये

कथाओं का समेटने में।

और जब

अन्तिम रूप देने का समय आया

तो देखा

एक क्षणिका भी न बन पाई।

 

मन में सुबोल वरण कर

तर्पण कर,

मन अर्पण कर,

कर समर्पण।

भाव रख, मान रख,

प्रण कर, नमन कर,

सबके हित में नाम कर।

अंजुरि में जल की धार

लेकर सत्य की राह चुन।

मन-मुटाव छांटकर

वैर-भाव तिरोहित कर।

अपनों को स्मरण कर,

उनके गुणों का मनन कर।

राहों की तलाश कर

जल-से तरल भाव कर।

कष्टों का हरण कर,

मन में सुबोल वरण कर।

प्रेम प्रतीक बनाये मानव

चहक-चहक कर

फुदक-फुदक कर

चल आज नया खेल हम खेंलें।

प्रेम प्रतीक बनाये मानव,

चल हम इस पर इठला कर देखें।

तू क्या देखे टुकुर-टुकुर,

तू क्या देखे इधर-उधर,

कुछ बदला है, कुछ बदलेगा।

कर लो तुम सब स्वीकार अगर,

मौसम बदलेगा,

नव-पल्लव तो आयेंगे।

अभी चलें कहीं और

लौटकर अगले मौसम में,

घर हम यहीं बनायेंगे।

हिन्दी कहां गई कि इसको अपना मनवाना है

हिन्दी कहां गई कि इसको अपना मनवाना है 

हिन्दी मेरा मान है,

मेरा भारत महान है।

घूमता जहान है।

किसकी भाषा,

कौन सी भाषा,

किसको कितना ज्ञान है।

जबसे जागे

तब से सुनते,

हिन्दी को अपनाना है।

समझ नहीं पाई आज तक

कहां से इसको लाना है।

जब है ही अपनी

तो फिर से क्यों अपनाना है।

कहां गई थी चली

कि इसको

फिर से अपना मनवाना है।

’’’’’’’’’.’’’’’’

कुछ बातें

समय के साथ

समझ से बाहर हो जाती हैं,

उनमें हिन्दी भी एक है।

काश! कविताएं लिखने से,

एक दिन मना लेने से,

महत्व बताने से,

किसी का कोई भला हो पाता।

मिल जाती किसी को सत्ता,

खोया हुआ सिंहासन,

जिसकी नींव

पिछले 72 वर्षों से

कुरेद रहे हैं।

अपनी ही

भाषाओं और बोलियों के बीच

सत्ता युद्ध करवा रहे हैं।

कबूतर के आंख बंद करने मात्र से

बिल्ली नहीं भाग जाती।

काश!

यह बात हमारी समझ में आ जाती,

चलने दो यारो

जैसा चल रहा है।

हां, हर वर्ष

दो-चार कविताएं लिखने का मौका

ज़रूर हथिया ले लेना

और कोई पुरस्कार मिले

इसका भी जुगाड़ बना लेना।

फिर कहना

हिन्दी मेरा मान है,

मेरा भारत महान है।

बस आपको गरीबी हटाने की बात नहीं करनी चाहिए।

कितना मुश्किल है

गरीबी पर कुछ लिखना।

डर लगता है

कोई अमीर पढ़ न ले,

और रूष्ट हो जाये मुझसे।

मेरे देश के कितने अमीर

आज भी भीतर से

गरीबी से उलझे-दबे बैठै हैं।

गरीबी की रोटियां निचोड़ रहे हैं।

सोने-चांदी के वर्कों में लिपटा आदमी

अपनी गरीबी की कहानी

बताता है हमें,

रटाता है हमें,

बार-बार सुनाता है हमें,

तब कहीं जाकर

गरीबी की महिमा समझ आती है।

तब कहीं जान पाते हैं,

कौन सड़क पर सोया था,

किसने रातें बिताईं थीं

फुटपाथ पर,

किसने क्या बेचा था

और माफ़ करना,

आज भी बेच रहा है।

और कौन रहा था भूखा

दिनों-दिनों तक।

अभी जब यह आदमी

अपनी गरीबी से ही नहीं

निकल पाया

तो देश की गरीबी को क्या जानेगा।

 

बस आपको

गरीबी हटाने की बात करनी आनी चाहिए।

गरीबी हटाने की बात नहीं करनी चाहिए।


 

छोड़ी हमने मोह-माया

नहीं करने हमें

किसी के सपने साकार।

न देखें हमारी आयु छोटी

न समझे कोई हमारे भाव।

मां कहती

पढ़ ले, पढ़ ले।

काम  कर ले ।

पिता कहते

बढ़ ले बढ़ ले।

सब लगाये बैठे

बड़ी-बड़ी आस।

ले लिया हमने

इस दुनिया से सन्यास।

छोड़ी हमने मोह-माया

हो गई हमारी कृश-काया।

हिमालय पर हम जायेंगे।

वहीं पर धूनी रमायेंगे।

आश्रम वहीं बनायेंगे।

आसन वहीं जमायेंगे।

चेले-चपाटे बनायेंगे।

सेवा खूब करायेंगे।

खीर-पूरी खाएंगें।

लौटकर घर न आयेंगे।

नाम हमारा अमर होगा,

धाम हमारा अमर होगा,

ज्ञान हमारा अमर होगा।

जीवन की नैया ऐसी भी होती है

जल इतना

विस्तारित होता है

जाना पहली बार।

अपने छूटे,

घर-वर टूटे।

लकड़ी से घर चलता था।

लकड़ी से घर बनता था।

लकड़ी से चूल्हा जलता था,

लकड़ी की चौखट के भीतर

ठहरी-ठहरी-सी थी ज़िन्दगी।

निडर भाव से जीते थे,

अपनों के दम पर जीते थे।

पर लकड़ी कब लाठी बन जाती है,

राह हमें दिखलाती है,

जाना पहली बार।

अब राहें अकेली दिखती हैं,

अब, राहें बिखरी दिखती हैं,

पानी में कहां-कहां तिरती हैं।

इस विस्तारित सूनेपन में

राहें आप बनानी है,

जीवन की नैया ऐसी भी होती है,

जाना पहली बार।

अब देखें, कब तक लाठी चलती है,

अब देखें, किसकी लाठी चलती है।

मुझको मेरी नज़रों से परखो

मन विचलित होता है।

मन आतंकित होता है।

भूख मरती है।

दीवारें रिसती हैं।

न भावुक होता है।

न रोता है।

आग जलती भी है।

आग बुझती भी है।

कब तक दर्शाओगे

मुझको ऐसे।

कब तक बहाओगे

घड़ियाली आंसू।

बेचारी, अबला, निरीह

कहकर

कब तक मुझ पर

दया दिखलाओगे।

मां मां मां मां कहकर

कब तक

झूठे भाव जताओगे।

बदल गई है दुनिया सारी,

बदल गये हो तुम।

प्यार, नेह, त्याग का अर्थ

पिछड़ापन,

थोथी भावुकता नहीं होता।

यथार्थ, की पटरी पर

चाहे मिले कुछ कटुता,

या फिर कुछ अनचाहापन,

मुझको, मेरी नज़रों से देखो,

मुझको मेरी नज़रों से परखो,

तुम बदले हो

मुझको भी बदली नज़रों से देखो।

यादों के पृष्ठ सिलती रही

ज़िन्दगी,

मेरे लिए

यादों के पृष्ठ लिखती रही।

और मैं उन्हें

सबसे छुपाकर,

एक धागे में सिलती रही।

 

कुछ अनुभव थे,

कुछ उपदेश,

कुछ दिशा-निर्देश,

सालों का हिसाब-बेहिसाब,

कभी पढ़ती,

कभी बिखरती रही।

 

समय की आंधियों में

लिखावट मिट गई,

पृष्ठ जर्जर हुए,

यादें मिट गईं।

 

तब कहीं जाकर

मेरी ज़िन्दगी शुरू हुई।

ज़िन्दगी कहीं सस्ती तो नहीं

बहुत कही जाती है एक बात

कि जब

रिश्तों में गांठें पड़ती हैं,

नहीं आसान होता

उन्हें खोलना, सुलझाना।

कुछ न कुछ निशान तो

छोड़ ही जाती हैं।

 

लेकिन सच कहूं

मुझे अक्सर लगता है,

जीवन में

कुछ बातों में

गांठ बांधना भी

ज़रूरी होता है।

 

टूटी डोर को भी

हम यूं ही नहीं जाने देते

गांठे मार-मारकर

सम्हालते हैं,

जब तक सम्हल सके।

 

ज़िन्दगी कहीं

उससे सस्ती तो नहीं,

फिर क्यों नहीं कोशिश करते,

यहां भी कभी-कभार,

या बार-बार।

 

छोटी रोशनियां सदैव आकाश बड़ा देती हैं

छोटी-सी है अर्चना,

छोटा-सा है भाव।

छोटी-सी है रोशनी।

अर्पित हैं कुछ फूल।

नेह-घृत का दीप समर्पित,

अपनी छाया को निहारे।

तिरते-तिरते जल में

भावों का गहरा सागर।

हाथ जोड़े, आंख मूंदे,

क्या खोया, क्या पाया,

कौन जाने।

छोटी रोशनियां

सदैव आकाश बड़ा देती हैं,

हवाओं से जूझकर

आभास बड़ा देती हैं।

सहज-सहज

जीवन का भास बड़ा देती हैं।

जिए एक नई विधा छन्दमुक्त ग़ज़ल

आज ग़ज़ल लिखने के लिए एक मिसरा मिला

*******************

जाम नजरों से मुझको पिलाओ न तुम

*******************

अब हम गज़ल तो लिखते नहीं

तो कौन कहता है कि मिसरे पर छन्दमुक्त रचना नहीं लिखी जा सकती

लीजिए एक नई विधा छन्दमुक्त ग़ज़ल

*******************

जाम नजरों से मुझको पिलाओ न तुम

कुछ बढ़िया से कट ग्लास लेकर आओ तुम।

अब तो लाॅक डाउन भी खुल गया,

गिलास न होने के

बहाने न बनाओ तुम।

गर जाम नज़रों से पिलाओगे,

तो आंख से आंख  कैसे मिलाओगे तुम।

किसी को टेढ़ी नज़र से देखने

का मज़ा कैसे पाओगे तुम।

आंखों में आंखें डालकर

बात करने का मज़ा ही अलग है,

उसे कैसे छीन पाओगे तुम।

नज़रें फे़रकर कभी निकलेंगे

तो आंख से मोती कैसे लुढ़काओगे तुम।

कभी आंख झुकाओगे,

कभी आंख ही आंख में शरमाओगे,

कभी आंख बन्द कर,

कैसे फिर सपनों में आओगे तुम।

और कहीं नशेमन में आंख मूंद ली

तो आंसुओं की जगह

बह रहे सोमरस को दुनिया से

कैसे छुपाओगे तुम।

मन बहक-बहक जाये

इन फूलों को देखकर

अकारण ही मन मुस्काए।

न जाने

किस की याद आये।

तब, यहां

गुनगुनाती थी चिड़ियां।

तितलियां पास आकर पूछती थीं,

क्यों मन ही मन शरमाये।

उलझी-उलझी सी डालियां,

मानों गलबहियां डाले,

फूलों की ओट में छुप जायें।

हवाओं का रूख भी

अजीब हुआ करता था,

फूलों संग लाड़ करती

शरारती-सी

महक-महक जाये।

खिली-खिली-सी धूप,

बादलों संग करती अठखेलियां,

न जाने क्या कह जाये।

झरते फूलों को

अंजुरि में समेट

मन बहक-बहक जाये।

कृष्ण एक अवतार बचा है ले लो

अपने जन्मदिवस पर,

आनन्द पूर्वक,

परिवार के साथ,

आनन्दमय वातावरण में,

आनन्द मना रही थी।

पता नहीं कहां से

कृष्ण जी पधारे,

बोले, परसों मेरा भी जन्मदिन था।

करोड़ों लोगों ने मनाया।
मैं बोली

 तो मेरे पास क्या करने आये हो?

मैंने तो नहीं मनाया।

बोले,

 इसी लिए तो तुम्हें ही

अपना आशीष देने आया हूं,

बोले] जुग-जुग जीओ बेटा।

पहले तो मैंने उन्हें डांट दिया,

अपना उच्चारण तो ठीक करो,

जुग नहीं होता, युग होता है।

इससे पहले कि वह

डर कर चले जाते,

मैंने रोक लिया और पूछा,

हे कृष्ण! यह तो बताओ

कौन से युग में जीउं ?

मेरे इस प्रश्न पर कृष्ण जी

तांक-झांक करने लगे।

मैंने कहा, केक खाओ,

और मेरे प्रश्न सुलझाओ।

 

हर युग में आये तुम।

हर युग में छाये तुम।

 

पर मेरी समझ कुछ छोटी है

बुद्धि ज़रा मोटी है।

कुछ समझाओ मुझे तुम।

पढ़ा है मैंने

24 अवतार लिए तुमने।

कहते हैं

सतयुग सबसे अच्छा था,

फिर भी पांच अवतार लिये तुमने।

दुष्टों का संहार किया

अच्छों को वरदान दिया।

त्रेता युग में तीन रूप लिये

और द्वापर में अकेले ही चले आये।

 

कहते हैं,

यह कलियुग है,

घोर पाप-अपराध का युग है।

मुझे क्या लेना

किस युग में तुमने क्या किया।

किसे दण्ड दिया,

और किसे अपराध मुक्त किया।

एक अवतार बचा है

ले लो, ले लो,

नयी दुनिया देखो

इस युग में जीओ,

केक खाओ और मौज करो।

 

जीवन आशा प्रत्याशा या निराशा

 

हमारे बड़े-बुज़ुर्ग

सुनाया करते थे कहानियां,

चेचक, हैज़ा,

मलेरिया, डायरिया की,

जब महामारी फैलती थी,

तो सैंकड़ों नहीं

हज़ारों प्राण लेकर जाती थी।

गांव-गांव, शहर-शहर

लील जाती थी।

सूने हो जाते थे घर।

संक्रामक माना जाता था

इन रोगों को,

अलग कोठरी में

डाल दिया जाता था रोगी को,

और वहीं मर जाता था,

या कभी भाग्य अच्छा रहे,

तो बच भी जाया करता था।

और एक समय बाद

सन्नाटे को चीरता,

आप ही गायब हो जाता था रोग।

देसी दवाएं, हकीम, वैद्य

घरेलू काढ़े, हवन-पूजा,

बस यही थे रोग प्रतिरोधक उपाय।

 

और आज,

क्या वही दिन लौट आये हैं?

किसी और नाम से।

विज्ञान के चरम पर बैठे,

पर फिर भी हम बेबस,

हाथ बांधे।

उपाय तो बस दूरियां हैं

अपनों से अपनी मज़बूरियां हैं।

काल काल बनकर खड़ा है,

उपाय न कोई बड़ा है।

रोगी को अलग कर,

हाथ बांधे बस प्रतीक्षा में

बचेगा या पता नहीं मरेगा।

 

निर्मम, निर्मोही

 जीवन-आशा,

जीवन-प्रत्याशा

या जीवन-निराशा ?