समय ने करवट ली है

कभी समय था

जब एक छोटी सी चीख

हमारे अंत:करण को उद्वेलित कर जाती थी।

किसी पर अन्याय होता देख

रूह कांप जाती थी

उनके आंसू हमारे आंसू बन जाते थे

और उनके घाव

हमारे मन से रिसने लगते थे

औरों की किलकारी

हमारी दीपावली हुआ करती थी

और उनका मातम हमारा मुहरर्म।

 

एक आत्मा हुआ करती थी

जो पथभ्रष्ट होने पर हमें धिक्कारती थी

और समय समय पर सन्मार्ग दिखाती थी।

 

पर समय ने करवट ली है।

 

इधर कानों ने सुनना कम कर दिया है

और आंखों ने भी धोखा दे दिया है।

 

सुनने में आया है कि

हमारी आत्मा भी मर चुकी है।

 

इसे ही आधुनिक भाषा में

समय के साथ चलना कहते हैं।

इल्जाम बहुत हैं

इल्जाम बहुत हैं

कि कुछ लोग पत्थर दिल हुआ करते हैं।

पर यूं ही तो नहीं हो जाते होंगे

इंसान

पत्थर दिल ।

कुछ आहत होती होंगी संवेदनाएं,

समाज से मिली होंगी ठोकरें,

किया होगा किसी ने कपट

बिखरे होंगे सपने

और फिर टूटा होगा दिल।

तब  सीमाएं लांघकर

दर्द आंसुओं में बदल जाता है

और ज़माने से छुपाने के लिए

जब आंख में बंध जाता है

तो दिल पत्थर का बन जाता है।

इन पत्थरों पर अंकित होती हैं

भावनाएं,

कविताएं और शायरी।

कभी निकट होकर देखना,

तराशने की कोशिश जरूर करना

न जाने कितने माणिक मोती मिल जायें,

सदियों की जमी बर्फ पिघल जाये,

एक और पावन पवित्र गंगा बह जाये

और पत्थरों के बीच चमन महक जाये।

चलो आज कुछ नया-सा करें

चलो

आज कुछ नया-सा करें

न करें दुआ-सलाम

न प्रणाम

बस, वन्दे मातरम् कहें।

 

देश-भक्ति के न कोई गीत गायें

सब सत्य का मार्ग अपनाएं।

 

शहीदों की याद में

न कोई स्मारक बनाएं

बस उनसे मिली इस

अमूल्य धरोहर का मान बढ़ाएं।

 

न जाति पूछें, न धर्म बताएं

बस केवल

इंसानियत का पाठ पढ़ाएं।

 

झूठे जयकारों से कुछ नहीं होता

नारों-वादों कहावतों से कुछ नहीं होता

बदलना है अगर देश को

तो चलो यारो

आज अपने-आप को परखें

अपनी गद्दारी,

अपनी ईमानदारी को परखें

अपनी जेब टटोलें

पड़ी रेज़गारी को खोलें

और अलग करें

वे सारे सिक्के

जो खोटे हैं।

घर में कुछ दर्पण लगवा लें

प्रात: प्रतिदिन अपना चेहरा

भली-भांति परखें

फिर किसी और को दिखाने का साहस करें।

साक्षरता अभियान से लौटती औरतें

लौट रहीं थीं

वे अपने दड़बों में

सिर से पैर तक औरतें।

उनकी मांग में

लाल घना सिंदूर था

एक बड़ी सी

शुद्ध सोने की टिकुली

माथे पर टीका।

बाल गुंथे हुए लाल परांदे में।

नाक में नथनी। कान में झुमके।

गले में हार मालाएं।

कलाईयों पर रंग बिरंगी चूड़ियां।

पैरों में पायल, बिछुए।

और कई कुछ।

कहीं कुछ छूटा नहीं

जो यह न बता सके

कि वे सब, औरतें हैं बस औरतें।

 

इन सबके उपर

एक लम्बी सी ओढ़नी

जिसमें पीठ पर बंधे

दो एक बच्चे

और एक घूंघट

उनके अस्तित्व को नकारता।

 

इन सबके बीच

मुट्ठी के किसी कोने में

एक प्रमाणपत्र भी था

“अ” से “ज्ञ” तक

जिससे बच्चे खेल रहे थे।

मन हुलसा मन बहका

मन हरषा  ।।

फिर भी नयनों से नीर

क्यों है बरसा

मन भीगा, तन भीगा

घटा छाई

बूंद बूंद धरती पर आई

पत्तों पर ठिठकी

कोने में अटकी

अब गिरती, तब गिरती

माणिक सी चमकी

धरती पर धारा बहती

मन हुलसा, मन बहका

सरस सरस सा

मन हरषा  ।।

आशाओं-आकांक्षाओं का जाल

यह असमंजस की स्थिति है

कि जब भी मैं

सिर उठाकर

धरती से

आकाश को

निहारती थी

तब चांद-तारे सब

छोटे-छोटे से दिखाई देते थे

कि जब चाहे मुट्ठी में भर लूं।

दमकते सूर्य को

नज़बट्टू बनाकर

द्वार पर टांग लूं।

लेकिन  यहां धरती पर

आशाओं-आकांक्षाओं का जाल

निराकार होते हुए भी

इतना बड़ा है  

कि न मुट्ठी में आता है

न हृदय में समाता है।

चाहतें बड़ी-बड़ी

विशालकाय

आकाश में भी न समायें।

मन, छोटा-सा

ज़रा-ज़रा-सी बात पर

बड़ा-सा ललचाए।

खुली मुट्ठी बन्द नहीं होती

और बन्द हो जाये

तो खुलती नहीं,

दरकता है सब।

छूटता है सब।

टूटता है सब।

आकाश और धरती के बीच का रास्ता

बहुत लम्बा है

और अनजाना भी

और शायद अकेला भी।

 

खुली-बन्द होती मुट्ठियों के बीच

बस

रह जाता है आवागमन।

आज जब सच कहने की बात हुई

आज जब

सच कहने की बात हुई

तो अचानक एक शोर उठ खड़ा हुआ।

लोगों के चेहरे क्रोध से तमतमाने लगे।

तरह तरह की बातें होने लगीं।

मेरे व्यक्तित्व पर उंगलियां उठने लगीं।

लोग

मेरे चारों ओर लामबन्द होने लगे।

इधर उधर देखा

तो न जाने कौन-कौन

मेरे पास आ गये।

उनके हाथों में झण्डे थे और तख्तियां थीं

उन पर

सच बोलने के वादे थे, और इरादे थे।

कुछ नारे थे

और मेरे लिए कुछ इशारे थे।

अरे ! तुम तो

ज़रा सी बात पर यूं ही

भावुक हो जाती हो

कि ज़रा सा किसी ने उकसाया नहीं

कि सच बोलने पर उतारू हो जाती हो।

मेरे हाथ में उन्होंने

एक पूरी सूची थमा दी।

हर युग में झूठ की ही तो

सदा जीत होती रही है।

और यह तो

वैसे भी कलियुग है।

 

नारों में जिओ, वादों में जिओ

धोखे में जिओ, झूठ को पियो।

 

फिर अचानक भीड़ बढ़ गई।

मानों कोई मेला लगा हो।

लोग वैसे ही आनन्दित हो रहे थे

मानों रावण दहन चल रहा हो।

सुना होगा आपने

कि रावण-दहन की लकड़ियां

घर में रखने से खुशहाली होती है

और बुरी बलाएं भाग जाती हैं।

और तभी मेरी देह के टुकड़े-टुकड़े होकर

हवा में उड़ने लगे

लोग भागने लगे।

 

जिसके हाथ जो लगा, ले गये।

घर में रखेंगे इन अवशेषों को।

दरवाज़े के बाहर टांगेगे

नजरबट्टू बनाकर।

बताएंगे अगली पीढ़ी को

हमारे ज़माने में

से भी लोग हुआ करते थे।

और शायद एक समय बाद

लाखों करोड़ों कीमत भी मिल जाये

एक पुरातन संग्रहीत वस्तु के रूप में।

बहू ने दो रोटी खा ली

हमारे भारतीय परिवारों में एक परम्परा है कि घर की बहू अन्त में ही खाना खाएगी, तभी वह अच्छी बहू होती है। उसी अच्छी बहू पर एक रचना
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बहू को भूख लग आई 
और बहू ने दो रोटी खा ली।
मरी दिन चढ़े पांच बजे उठी थी।
काम की न काज की, ढाई मन अनाज की।

न चक्की न चूल्हा, न पानी न कुआं
न गाय न गोबर, न पाथी न टब्बर।

और अभी बस बारह ही तो बजे हैं
और इस जन्मजली को देखो
अभी से भूख लग आई, और दो रोटी खा ली।

और करने को होता ही क्या है।
चार जेठ, चार जेठानियां
दो ननदें , दो देवर
बारह पंद्रह बच्चे।
और हम बूढ़े बुढ़िया का क्या
कोने में पड़े रहते हैं। 
और आप ! बिचौली है बस की लाड़ली।
सारा दिन पड़ी रहे।
पर इसका मतलब यह तो नहीं
कि उसे जब-तब भूख लग आये
और दो रोटी खा ले।
आखिर बहू है इज़्जतदार खानदान की।

न बड़ों के पैर छुए, न छोटों को संवारा।
न नहाई न धोई, न मंदिर न तुलसी।

काम भी क्या !
बस ! बड़ों का चाय-नाश्ता
छोटों के लिए कुछ मीठा-नमकीन
कुछ आये गये मेहमान।
खानदानी लोग हैं हम।
लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं
कि बनाते-खिलाते, परोसते-समेटते
उसे भूख लग आये और आप दो रोटी खा ले।

लाखों का सोना लादा
और दे दिया हीरे-सा अपना लल्ला ।
अरे हां ! उसके बारे में तो मैं 
बताना ही भूल गई।

अभी बस ! बारह ही तो बजे हैं।
बेचारा सोकर उठा भी नहीं।
और इस करमजली को देखो
उसके उठने से पहले ही 
भूख लग आई
और दो रोटी खाली।

पता नहीं क्या सिखाते हैं मां बाप
आजकल अपनी लड़कियों को।
नाक कट गई हमारे खानदान की
क्या कहेगी दुनिया
कि बहू को भूख लग आई 
और दो रोटी खा ली।

बाहर निकलना चाहती हूं

निकाल फेंकना चाहती हूं मन की फांस को।

बाहर निकलना चाहती हूं

स्मृतियों के जाल से, जंजाल से

जो जीने नहीं देतीं मुझे अपने आज में।

पर ये कैसी दुविधा है

कि लौट लौटकर झांकती हूं

मन की दरारों में, किवाड़ों में।

जहां अतीत के घाव रिसते हैं

जिनसे बचना चाहती हूं मैं।

एक अदृश्य अभेद्य संसार है मेरे भीतर

जिसे बार बार छू लेती हूं

अनजाने में ही।

खंगालने लगती हूं अतीत की गठरियां

हाथ रक्त रंजित हो जाते हैं

स्मृतियों के दंश देह को निष्प्राण कर देते हैं

फिर एक मकड़जाल

मेरे मन मस्तिष्क को कुंठित कर देता है

और मैं उलझनों में उलझी

न वर्तमान में जी पाती हूं

और  न अतीत को नकार पाती हूं।।।।।।।

काश ! पहाड़-सी होती मेरी ज़िन्दगी

काश !  पहाड़-सी होती मेरी ज़िन्दगी

 

ज़रा-ज़रा सी बात पर

यूं ही

भरभराकर

नहीं गिर जाते ये पहाड़।

अपने अन्त:करण में

असंख्य ज्वालामुखी समेटे

बांटते हैं

नदियों की तरलता

झरनों की शरारत

नहरों का लचीलापन।

कौन कहेगा इन्हें देखकर

कि इतने भाप्रवण होते हैं ये पहाड़।

 

पहाड़ों की विशालता

अपने सामने

किसी को बौना नहीं करती।

अपने सीने पर बसाये

एक पूरी दुनिया

ज़मीन से उठकर

कितनी सरलता से

छू लेते हैं आकाश को।

बादलों को सहलाते-दुलारते

बिजली-वर्षा-आंधी

सहते-सहते

कमज़ोर नहीं हो जाते यह पहाड़।

आकाश को छूकर

ज़मीन को नहीं भूल जाते ये पहाड़।

 

ज़रा-ज़रा सी बात पर

सागर की तरह

उफ़न नहीं पड़ते ये पहाड़।

नदियों-नहरों की तरह

अपने तटबन्धों को नहीं तोड़ते।

बार-बार अपना रास्ता नहीं बदलते

नहरों-झीलों-तालाबों की तरह

झट-से लुप्त नहीं हो जाते।

और मावन-मन की तरह

जगह-जगह नहीं भटकते।

अपनी स्थिरता में

अविचल हैं ये पहाड़।

 

अपने पैरों से रौंद कर भी

रौंद नहीं सकते तुम पहाड़।

 

पहाड़ों को उजाड़ कर भी

उजाड़ नहीं सकते तुम पहाड़।

 

पहाड़ की उंचाई

तो शायद

आंख-भर नाप भी लो

लेकिन नहीं जान सकते कभी

कितने गहरे हैं ये पहाड़।

 

बहुत बड़ी चाहत है मेरी

काश !

पहाड़-सी होती मेरी ज़िन्दगी।

 

 

शब्दों की भाषा समझी न

शब्दों की भाषा समझी न

नयनों की भाषा क्या समझोगे

 

रूदन समझते हो आंसू को

मुस्कानों की भाषा क्या समझोगे

 

मौन की भाषा समझी न

मनुहार की भाषा क्या समझोगे

 

गुलदानों में रखते हो फूलों को

प्यार की भाषा क्या समझोगे

मैं वारिस हूं अकेली अपनी तन्हाईयों की।

मैं हंसती हूं, गाती हूं।

गुनगुनाती हूं, मुस्कुराती हूं

खिलखिलाती हूं।

हंसती हूं

तो हंसती ही चली जाती हूं

बोलती हूं

तो बोलती ही चली जाती हूं

लोग कहते हैं

कितना जीवन्तता भरी है इसके अन्दर

जीवन जीना हो तो कोई इससे सीखे।

 

एक आवरण है यह।

झांक न ले कहीं कोई मेरे भीतर।

न भेद ले मेरे मन की गहराईयों को।

न खटखटाए कोई मेरे मन की सांकल।

छू न ले मेरी तन्हाईयों को।

न भंग हो मेरी खामोशी की चीख।

मेरी अचल अटल सम्पत्ति हैं ये।

कोई लूट न ले

मेरी जीवन भर की अर्जित सम्पदा

मैं वारिस हूं अकेली अपनी तन्हाईयों की।

 

ठकोसले बहुत हैं

न मन थका-हारा, न तन थका-हारा

किसी झूठ, किसी सच में फंसा बेचारा

यहां दुनियादारी के ठकोसले बहुत हैं

किस-किससे निपटे, बुरा फंसा बेचारा

अच्‍छी नींद लेने के लिए

अच्‍छी नींद लेने के लिए बस एक सरकारी कुर्सी चाहिए

कुछ चाय-नाश्‍ता और कमरे में एक ए सी होना चाहिए

फ़ाईलों को बनाईये तकिया, पैर मेज़ पर ज़रा टिकाईये

काम तो होता रहेगा, टालने का तरीका आना चाहिए

दो चाय पिला दो

प्रात की नींद से न अच्‍छा समय कोई

दो चाय पिला दो आपसे अच्‍छा न कोई

मोबाईल की टन-टन न हमें जगा पाये

कुम्‍भकरण से कम न जाने हमें कोई

जो मिला बस उसे संवार

कहते हैं जीवन छोटा है, कठिनाईयां भी हैं और दुश्वारियां भी

किसका संग मिला, कौन साथ चला, किसने निभाई यारियां भी

आते-जाते सब हैं, पर यादों में तो कुछ ही लोग बसा करते हैं

जो मिला बस उसे संवार, फिर देख जीवन में हैं किलकारियां भी

मन के भाव देख प्रेयसी

रंग रूप की ऐसी तैसी

मन के भाव देख प्रेयसी

लीपा-पोती जितनी कर ले

दर्पण बोले दिखती कैसी

नादानियां भी आप ही तो कर रहे हैं हम

बाढ़ की विभीषिका से देखो डर रहे हैं हम

नादानियां भी आप ही तो कर रहे हैं हम

पेड़ काटे, नदी बांधी, जल-प्रवाह रोक लिए

आफ़त के लिए सरकार को कोस रहे हैं हम

पर मूर्ख बहुत था रावण

कहते हैं दुराचारी था, अहंकारी था, पर मूर्ख बहुत था रावण

बहन के मान के लिए उसने दांव पर लगाया था सिंहासन

जानता था जीत नहीं पाउंगा, पर बहन का मान रखना था उसे

अपने ही कपटी थे, जानकर भी,  दांव पर लगाया था सिंहासन

चल आगे बढ़ जि़न्‍दगी

भूल-चूक को भूलकर, चल आगे बढ़ जि़न्‍दगी

अच्‍छा-बुरा सब छोड़कर, चल आगे बढ़ जि़न्‍दगी

हालातों से कभी-कभी समझौता करना पड़ता है

बदले का भाव छोड़कर, चल आगे बढ़ जि़न्‍दगी

द्वार पर सांकल लगने लगी है

उत्‍सवों की चहल-पहल अब भीड़ लगने लगी है

अपनों की आहट अब गमगीन करने लगी है

हवाओं को घोटकर बैठते हैं सिकुड़कर हम

कोई हमें बुला न ले, द्वार पर सांकल लगने लगी है

ज़रा-ज़रा-सी बात पर

ज़रा-ज़रा-सी बात पर यूं ही विश्‍वास चला गया

फूलों को रौंदते, कांटों को सहेजते चला गया

काश, कुछ ठहर कर कही-अनकही सुनी होती

हम रूके नहीं,सिखाते-सिखाते ज़माना चला गया

खालीपन का एहसास

 

घर के आलों में

दीवारों में,

कहीं कोनों में,

पुरानी अलमारियों में,

पुराने कपड़ों की तहों में

छिपाकर रखती रही हूं

न जाने कितने एहसास,

तह-दर-तह

समेटकर रखे थे मैंने

बेमतलब, बेवजह।

सर्दी-गर्मी,

होली-दीपावली पर

जब साफ़-सफ़ाई

होती है घर में,

सबसे पहले,

सब, एक होकर

उनकी ही छंटाई में लग जाते हैं,

कितना बेकार कचरा जमा कर रखा है घर में।

कितनी जगह रूकी है

इनकी वजह से,

कब काम आता है ये सब,

पूछते हैं सब मुझसे।

मेरे पास कोई उत्तर नहीं होता कभी भी।

इसे मेरा समर्पण मानकर

मुझसे पूछे बिना

छंटाई हो जाती है।

घर में जगह बन जाती है।

मैं अपने भीतर भी

एक खालीपन का एहसास करती हूं

पर वहां कुछ नया जमा नहीं पाती।

 

ठेस लगती है कभी

ठेस लगती है कभी, टूटता है कुछ, बता पाते नहीं।

आंख में आंसू आते हैं, किससे कहें, बह पाते नहीं।

कभी किसी को दिखावा लगे, कोई कहे निर्बलता ।

बार-बार का यह टकराव कई बार सह पाते नहीं।

अकारण क्यों हारें

राहों में आते हैं कंकड़-पत्थर, मार ठोकर कर किनारे।

न डर किसी से, बोल दे सबको, मेरी मर्ज़ी, हटो सारे।

जो मन चाहेगा, करें हम, कौन, क्यों रोके हमें यहां।

कर्म का पथ कभी छोड़ा नहीं, फिर अकारण क्यों हारें।

 

अपना ही साथ हो

उम्र के इस पड़ाव पर

अनजान सुनसान राहों पर

जब नहीं पाती हूं

किसी को अपने आस पास

तब अपनी ही प्रतिकृति तराशती हूं ।

मन का कोना कोना खोलती हूं उसके साथ।

बालपन से अब तक की

कितनी ही यादें और कितनी ही बातें

सब सांझा करती हूं इसके साथ।

लौट आता है मेरा बचपना

वह अल्हड़पन और खुशनुमा यादें

वो बेवजह की खिलखिलाहटें

वो क्लास में सोना

कंचे और गोटियां, सड़क पर बजाई सीटियां

छत की पतंग

आमपापड़ और खट्टे का स्वाद

पुरानी कापियां देकर  

चूरन और रेती खाने की उमंग

गुल्लक से चुराए पैसे

फिल्में देखीं कैसे कैसे

टीचर की नकल, उनके नाम

और पता नहीं क्या क्या

अब सब तो बताया नहीं जा सकता।

यूं ही

खुलता है मन का कोना कोना।

बांटती हूं सब अपने ही साथ।

जिन्हें किसी से बांटने के लिए तरसता था मन

अपना ही हाथ पकड़कर आगे बढ़ जाती हूं

नये सिरे से।

यूं ही डरती थी, सहमी थी।

अब जानी हूं

ज़िन्दगी को पहचानी हूं।

विचलित करती है यह बात

मां को जब भी लाड़ आता है

तो कहती है

तू तो मेरा कमाउ पूत है।

 

पिता के हाथ में जब

अपनी मेहनत की कमाई रखती हूं

तो एक बार तो शर्म और संकोच से

उनकी आंखें डबडबा जाती हैं

फिर सिर पर हाथ फेरकर

दुलारते हुए कहते हैं

मुझे बड़ा नाज़ है

अपने इस होनहार बेटे पर।

 

किन्तु

मुझे विचलित करती है यह बात

कि मेरे माता पिता को जब भी

मुझ पर गर्व होता है

तो वे मुझे

बेटा कहकर सम्बोधित क्यों करते हैं

बेटी मानकर गर्व क्यों नहीं कर पाते।

नई शुरूआत

जो मैं हूं

वैसा सब मुझे जान नहीं पाते

और जैसा सब मुझे जान पाते हैं

वह मैं बन नहीं पाती।

बार बार का यह टकराव

हर बार हताश कर जाता है मुझे

फिर साथ ही उकसा जाता है

एक नई शुरूआत के लिए।।।।।।।।।।।

खेल फिर शुरू हो जाता है

कभी कभी, समझ नहीं पाती हूं

कि मैं

आतंकित होकर चिल्लती हूं

या आतंक पैदा करने के लिए।

तुमसे डरकर चिल्लती हूं

या तुम्हें डराने के लिए।

लेकिन इतना जानती हूं

कि मेरे भीतर एक डर है

एक औरत होने का डर।

और यह डर

तुम सबने पैदा किया है

तुम्हारा प्यार, तुम्हारी मनुहार

पराया सा अपनापन

और तुम्हारी फ़टकार

फिर मौके बे मौके

उपेक्षा दर्शाता तुम्हारा तिरस्कार

निरन्तर मुझे डराते रहते हैं।

और तुम , अपने अलग अलग रूपों में

विवश करते रहते हो मुझे

चिल्लाते रहने के लिए।

फिर एक समय आता है

कि थककर मेरी चिल्लाहट

रूदन में बदल जाती है।

और तुम मुझे

पुचकारने लगते हो।

*******

खेल, फिर शुरू हो जाता है।

घुमक्कड़ हो गया है मन

घुमक्कड़ हो गया है मन

बिन पूछे बिन जाने

न जाने

निकल जाता है कहां कहां।

रोकती हूं, समझाती हूं

बिठाती हूं , डराती हूं, सुलाती हूं।

पर सुनता नहीं।

भटकता है, इधर उधर अटकता है।

न जाने किस किस से जाकर लग  जाता है।

फिर लौट कर

छोटी छोटी बात पर

अपने से ही उलझता है।

सुलगता है।

ज्वालामुखी सा भभकता है।

फिर लावा बहता है आंखों से।