ठहरी ठहरी सी लगती है ज़िन्दगी

अब तो

ठहरी-ठहरी-सी

लगती है ज़िन्दगी।

दीवारों के भीतर

सिमटी-सिमटी-सी

लगती है ज़िन्दगी।

द्वार पर पहरे लगे हैं,

मन पर गहरे लगे हैं,

न कोई चोट है कहीं,

न घाव रिसता है,

रक्त के थक्के जमने लगे हैं।

भाव सिमटने लगे हैं,

अभिव्यक्ति के रूप

बदलने लगे हैं।

इच्छाओं पर ताले लगने लगे हैं।

सत्य से मन डरने लगा है,

झूठ के ध्वज फ़हराने लगे हैं।

न करना शिकायत किसी की

न बताना कभी मन के भेद,

लोग बस

तमाशा बनाने में लगे हैं।

न ग्रहण है न अमावस्या,

तब भी जीवन में

अंधेरे गहराने लगे हैं।

जीतने वालों को न पूछता कोई

हारने वालों के नाम

सुर्खियों में चमकने लगे हैं।

अनजाने डर और खौफ़ में जीते

अपने भी अब

पराये-से लगने लगे हैं।