यात्रा

 

अस्पलात से श्मशान घाट तक

अर्थी को कंधे पर उठाये

थक रहे थे चार आदमी।

 

एक लाश थी

और चार आदमी।

अस्पलात से श्मशान घाट दूर था।

वैसे तो मिल जाती

अस्पताल की गाड़ी

अस्पलात से श्मशान घाट।

पर कंधों पर ढोकर

इज़्जत दी जाती है आदमी को

मरने के बाद की।

और वे चार आदमी

उसे इज़्जत दे रहे थे।

और इस इज़्जत के घेरे में

रास्ते में

अर्थी ज़मीन पर रखकर

सुस्ताना मना था।

पर वह आदमी

जो मर चुका था

मरने के बाद की स्थिति में

लाश।

उसे दया आई

उन चारों पर।

बोली

भाईयो,

 

थक गये हो तो सुस्ता लो ज़रा

मैं अपने आपको

बेइज़्जत नहीं मानूंगी।

चारों ने सोचा

लाश की यह अन्तिम इच्छा है

जलने से पहले।

इसकी यह इच्छा

ज़रूर पूरी करनी चाहिए।

और वे चारों

उस मोड़ पर

छायादार वृक्ष के नीचे

अर्थी ज़मीन पर रखकर

आराम फ़रमाने लगे।

अचानक

लाश उठ बैठी।

बोली,

मैं लेटे लेटे थक गई हूं।

बैठकर ज़रा कमर सीधी कर लूं।

तुम चाहो तो लेटकर

कमर सीधी कर लो।

मैं कहां भागी जा रही हूं

लाश ही तो हूं।

और वे चारों आदमी लेट गये

और लाश रखवाली करने लगी।

वे चारों

आज तक सो रहे हैं

और लाश

रखवाली कर रही है।

मतदान मेरा कर्त्तव्य भी है

मतदान मेरा अधिकार है

पर किसने कह दिया

कि ज़िम्मेदारी भी है।

हांअधिकार है मेरा मतदान।

पर कौन समझायेगा

कि अधिकार ही नहीं

कर्त्तव्य भी है।

जिस दिन दोनों के बीच की

समानान्तर रेखा मिट जायेगी

उस दिन मतदान सार्थक होगा।

किन्तु

इतना तो आप भी जानते ही होंगें

कि समानान्तर रेखाएं

कभी मिला नहीं करतीं।

भोर की आस

चिड़िया आई

कहती है

भोर हुई,

उठ जा, भोर हुई।

आ मेरे संग

चल नये तराने गा,

रंगों से

मन में रंगीनीयाँ ला।

चल

एक उड़ान भर

मन में उमंग ला।

धरा पर पाँव रख।

गगन की आस रख।

जीवन में भाव रख।

रात की बात कर

भोर की आस रख।

चल मेरे संग उड़ान भर।

 

एक पंथ दो काज

आजकल ज़िन्दगी

न जाने क्यों

मुहावरों के आस-पास

घूमने लगी है

न तो एक पंथ मिलता है

न ही दो काज हो पाते हैं।

विचारों में भटकाव है

जीवन में टकराव है

राहें चौराहे बन रही हैं

काज कितने हैं

कहाँ सूची बना पाते हैं

कब चयन कर पाते हैं

चौराहों पर खड़े ताकते हैं

काज की सूची

लम्बी होती जाती है

राहें बिखरने लगती हैं।

जो राह हम चुनते हैं

रातों-रात वहां

नई इमारतें खड़ी हो जाती हैं

दोराहे

और न जाने कितने चौराहे

खिंच जाते हैं

और हम जीवन-भर

ऊपर और नीचे

घूमते रह जाते हैं।

 

 

जग में न मिला अपनापन

 

सुख के दिन बीते, दुख के बीहड़ में नहीं दिखता अपनापन

अपने सब दूर हुए, दृग तरसें, ढूंढे जग में न मिला अपनापन

द्वार बन्द मिले, पहचान खो गई, दूर तलक न मिला कोई,

सत्य को जानिए, आप ही बनिए हर हाल में अपना संकटमोचन

 

दीप तले अंधेरा ढूंढते हैं हम

रोशनी की चकाचौंध में अक्सर अंधकार के भाव को भूल बैठते हैं हम

सूरज की दमक में अक्सर रात्रि के आगमन से मुंह मोड़ बैठते हैं हम

तम की आहट भर से बौखलाकर रोशनी के लिए हाथ जला बैठते हैं

ज्योति प्रज्वलित है, फिर भी दीप तले अंधेरा ही ढूंढने बैठते हैं हम

मन टटोलता है प्रस्तर का अंतस

प्रस्तर के अंतस में

सुप्त हैं न जाने कितने जल प्रपात।

कल कल करती नदियां, 

झर झर करते झरने, 

लहराती बलखाती नहरें, 

मन की बहारें, और कितने ही सपने।

जहां अंकुरित होते हैं

नव पुष्प,

पुष्पित पल्लवित होती हैं कामनाएं

जिंदगी महकती है, गाती है,

गुनगुनाती है, कुछ समझाती है।

इन्द्रधनुषी रंगों से

आकाश सराबोर होता है

और मन टटोलता है

प्रस्तर का अंतस।

कयामत के दिन चार होते हैं

 

कहीं से सुन लिया है

कयामत के दिन चार होते हैं,

और ज़िन्दगी भी

चार ही दिन की होती है।

तो क्या कयामत और ज़िन्दगी

एक ही बात है?

नहीं, नहीं,

मैं ऐसे डरने वाली नहीं।

लेकिन

कंधा देने वाले भी तो

चार ही होते हैं

और दो-दूनी भी

चार ही होते हैं।

और हां,

बातें करने वाले भी

चार ही लोग होते हैं,

एक है न कहावत

‘‘चार लोग क्या कहेंगे’’।

वैसे मुझे अक्सर

अपनी ही समझ नहीं आती।।

बात कयामत की करने लगी थी

और दो-दूनी चार के

पहाड़े पढ़ने लगी।

ऐसे थोड़े ही होता है।

चलो, कोई बात नहीं।

फिर कयामत की ही बात करते हैं।

सुना है, कोई

कोरोना आया है,

आयातित,

कहर बनकर ढाया है।

पूरी दुनिया को हिलाया है

भारत पर भी उसकी गहन छाया है।

कहते हैं,

उसके साथ

छुपन-छुपाई खेल लो चार दिन,

भाग जायेगा।

तुम अपने घर में बन्द रहो

मैं अपने घर में।

ढूंढ-ढूंढ थक जायेगा,

और अन्त में थककर मर जायेगा।

तब मिलकर करेंगे ज़िन्दगी

और कयामत की बात,

चार दिन की ही तो बात है,

तो क्या हुआ, बहुत हैं

ये भी बीत जायेंगे।

 

न आंख मूंद समर्थन कर

न आंख मूंद समर्थन कर किसी का, बुद्धि के दरवाज़े खोल,

अंध-भक्ति से हटकर, सोच-समझकर, मोल-तोलकर बोल,

कभी-कभी सूरज को भी दीपक की रोशनी दिखानी पड़ती है,

चेत ले आज, नहीं तो सोचेगा क्यों नहीं मैंने बोले निडर सच्चे बोल

 

मानव-मन की थाह कहां पाई

राग-द्वेष ! भाव भिन्न, अर्थ भिन्न, जीवन भर क्यों कर साथ-साथ चलें

मानव-मन की थाह कहां पाई जिससे प्रेम करें उसकी ही सफ़लता खले

हंस-बोलकर जी लें, सबसे हिल-मिल लें, क्या रखा है हेर-फ़ेर में, सोच तू

क्यों बात-बात पर सम्बन्धों की चिता सजायें, ले सबको साथ-साथ चलें

क्यों मैं नीर भरी दुख की बदरी

(कवियत्री महादेवी वर्मा की प्रसिद्ध रचना की पंक्ति पर आधारित रचना)

• * * * *

क्यों मैं नीर भरी दुख की बदरी

न मैं न नीर भरी दुख की बदरी

न मैं राधा न गोपी, न तेरी हीर परी

न मैं लैला-मजनूं की पीर भरी।

• * * * *

जब कोई कहता है

नारी तू महान है, मेरी जान है

पग-पग तेरा सम्मान है

जब मुझे कोई त्याेग, ममता, नेह,

प्यार की मूर्ति या देवी कहता है

तब मैं एक प्रस्तर-सा अनुभव करती हूं।

जब मेरी तुलना सती-सीता-सावित्री,

मीरा, राधा से की जाती है

तो मैं जली-भुनी, त्याज्य, परकीया-सी

अपमानित महसूस करती हूं।

जब दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती से

तुलना की जाती है

तब मैं खिसियानी सी हंसने लगती हूं।

o * * *

ढेर सारे अर्थहीन श्लाघा-शब्द

मुझे बेधते हैं, उपहास करते हैं मेरा।

• * * * * *

न मुझे आग में जलना है

न मुझे सूली पर चढ़ना है

न महान बनना है,

बेतुके रिश्तों में न बांध मुझे

मुझे बस अपने मन से जीना है,

अपने मन से मरना है।

 

उनकी यादों में

क्यों हमारे दिन सभी मुट्ठियों से फ़िसल जायेंगे

उनकी यादों में जीयेंगे, उनकी यादों में मर जायेंगे

मरने की बात न करना यारो, जीने की बात करें

दिल के आशियाने में उनकी एक तस्वीर सजायेंगे।

कौन-सा विषय चुनूँ

यह दुनिया है। आप कहेंगे कि आपको पता है कि यह दुनिया है। किन्तु बहुत बार ऐसा होता है कि हमें वह भी स्मरण करना पड़ता है जो है, जो दिखाई देता है, सुनाई देता है, चुभता है, चीखता है अथवा जो हम जानते हैं। क्योंकि सत्य का सामना करने में बहुत जोखिम होते हैं, उलझनें, समस्याएँ होती हैं। इस कारण इसे हम नकारते हैं और बस अपना राग अलापते हैं। क्या सच में ही आपके आस-पास कोई हलचल, खलबली, हंगामा, उपद्रव, उथल-पुथल, सनसनी, आन्दोलन नहीं है ? आस-पास, आपके परिवेश में, सड़क पर, समाचार-पत्रों से मिल रहे ज्ञान से, मीडिया से मिलने वाले समाचारों से, न जाने कितने विषय हैं जो हमारे आस-पास तैरते रहते हैं किन्तु हम उन्हें नकारते रहते हैं।

ऐसा तो नहीं हो सकता, कुछ तो होगा और अवश्य होगा। और हम जो तथाकथित कवि अथवा साहित्यकार कहलाते हैं या अपने को ऐसा समझते हैं तो हम ज़्यादा भावुक और संवेदनशील कहलातेे हैं। फिर हमें आज ऐसी आवाज़ें क्यों सुनाई नहीं दे रहीं। सबसे बड़ी समस्या यह कि यदि हम भुक्तभोगी भी होते हैं तब भी ऐसी बात कहने से, अथवा खुली चर्चा से डरने लगे हैं।

 कुछ बने-बनाये विषय हैं आज हमारे पास लेखन के लिए। सबसे बड़ा विषय नारी है, बेचारी है, मति की मारी है, संस्कारी है, लेकिन है बुरी। या तो गंवार है अथवा आधुनिका, किन्तु दोनों ही स्थितियों में वह सामान्य नहीं है।  भ्रूण हत्या है, बेटी है, निर्धनता है आदि-आदि। कहीं बहू बुरी है तो कहीं सास। कहीं दोनों ही। बेटा कुपूत है।  बुरे बहू-बेटा हैं, कुपूत हैं, माता-पिता के धन के लालची हैं, उनकी सेवा न करने वाले बुरे बच्चे हैं। उनकी सम्पत्ति पर नज़र रखे हैं।जितने पति हैं सब पत्नियों के गुलाम हैं। उनके कहने से अपने माता-पिता की सेवा नहीं करते उन्हें वृद्धाश्रम भेज देते हैं।  और जब यह सब चुक जाये तो हम अत्यन्त आस्तिक हैं और इस विषय पर हम अबाध अपनी कलम चला सकते हैं।  विशेषकर फ़ेसबुक का सारा कविता संसार इन्हीं विषयों से घिरा हुआ है। मुझे क्यों आपत्ति? मुझे नहीं आपत्ति। मैं भी तो आप सबके साथ ही हूँ।

सोचती हूँ आज इनमें से कौन-सा विषय चुनूँ कि रचना नवीन प्रतीत हो।

  

नादानियां भी आप ही तो कर रहे हैं हम

बाढ़ की विभीषिका से देखो डर रहे हैं हम

नादानियां भी आप ही तो कर रहे हैं हम

पेड़ काटे, नदी बांधी, जल-प्रवाह रोक लिए

आफ़त के लिए सरकार को कोस रहे हैं हम

मन में एक विश्चास हो

चल आज

इन उमड़ते-घुमड़ते बादलों

में जीवन का

एक मधुर चित्र बनायें।

सूरज की रंगीनियां

बादलों की अठखेलियां

किरणों से बनायें।

दूरियां कितनी भी हों,

जब हाथ में हाथ हो,

मन में एक विश्चास हो,

सहज-सरल-सरस

भाव हों,

बस , हम और आप हों।

 

आत्म संतोष क्या जीवन की उपलब्धि है 2

पिछले कुछ समय से मैं एक गम्भीर प्रश्न का उत्तर ढूंढ रही हूं। प्रश्न आर्थिक/वित्तीय है। अपने इस प्रश्न का उत्तर प्राप्त करने के लिए मैं शहर के विभिन्न बैंकों में गई, वित्तीय संस्थानों में पूछताछ की। स्टॉक एक्सचेंज की खाक छानी, विदेशी मुद्रा विनिमय केन्द्रों में गई, बड़े-बड़े वित्तीय अधिकारियों से मिली, किन्तु मेेरी समस्या का समाधान नहीं हुआ।

अब मैं अपना प्रश्न लेकर आपके सामने उपस्थित हूँ। जब बड़ी-बड़ी संस्थाएँ और बड़े-बडे़ लोग मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं दे पाये तो मैं अपने वयोवृद्ध दादाजी के पास जा बैठी। मुझे रुंआसी देखकर दादाजी ने कारण पूछा। डूबते को क्या चाहिए एक तिनके का सहारा। मैंने अपना प्रश्न दादाजी के मामन रख दिया। दादाजी, लोग रुपये की बात करते हैं डॅालर, पौंड, यूरो और न जाने कितना विदेशी मुद्राओं की बात करते हैं किन्तु मैंने एक नये धन का नाम सुना है जिसे सन्तोष धन कहा जाता है। यह धन तो मैंने किसी के पास नहीं देख।

जिससे पूछती हूं वही मेरा उपहास करता हे कि अरे इस पगली लड़की को देखो, भला आज के ज़माने में भी कहीं संतोष धन पाया जाता है। दादाजी कोई नहीं मानता कि संतोष भी कोई धन होता है। अब आप ही बताईये दादाजी , यह संतोष धन कौन-सा धन है कहां मिलता है, कहां पाया जाता है , कौन प्रयोग करता है । किस काम आता है। यह कैसा गुप्त धन है जिसके बारे में बड़े-बड़े लोग नहीं जानते।

दादाजी मेरी बात सुनकर ठठाकर हंस दिये। बोले बेटी, संतोष धन तो मनुष्य ने सदियों पहले ही खो दिया। और तुम पुरातात्विक विभाग की वस्तु को आधुनिक विज्ञान की मशीनों में खोजोगी तो भला बताओ कैसे मिलेगी? अब आधुनिकता की दौेड़ में जुटे लोगों की रुचि भला पंद्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी की वस्तुओं में कैसे हो सकती है।

लेकिन वे चकित भी थे कि मुझे इस संतोष धन का पता कैसे लगा। क्या मैंने इस धन को पा लिया है। मैं हंस दी नहीं दादाजी मुझे यह धन नहीं मिला। मैंने उन्हें बताया कि कोई कबीरदास हुआ करते थे वे लिख गये हैं जब आवे संतोष धन सब धन धूरी समान। अब दादाजी से तो बहुत बातें हूईं किन्तु उनसे वार्तालाप में मेरे सामने अनेक प्रश्न उठ खड़े हुए। उन्हीं पर चिन्तन करते हुए मैं आपके समक्ष हूं।

क्या सत्य में ही आधुनिकता के पीछे भाग रहे मनुष्य ने संतोष धन खो दिया है। कबीरदास ने कहा कि जिस मनुष्य के पास संतोष धन है उसके सामने सब धन धूल के समान हैं अर्थात उनका कोई महत्व नहीं।

 किन्तु वर्तमान में इस दोहे के अर्थ बदल गये हैं। वर्तमान में इस दोहे का अर्थ है कि जिस व्यक्ति के पास संतोष धन है उसके लिए सब धन धूल के समान हो जातेे हैं अर्थात उसे जीवन में कोई उपलब्धि प्राप्त नहीं हो पाती।

तो क्या जीवन में सचमुच संतोष ही सबसे बड़ी उपलब्धि है? मेरी दृष्टि में नहीं। मेरी दृष्टि में संतोष का अभिप्राय है एक ठहराव, निप्क्रियता, इच्छाओं का दमन। यदि मानव ने अपनी स्थितियों पर संतोेष कर लिया होता तो वह आज भी वन में पत्थर रगड़ कर आग जला रहा होता, पत्तों के वस्त्र धारण कर वृक्षों पर सो रहा होता। मेरी दृप्टि में संतोष न करने का अभिप्राय है, आगे बढ़ने की इच्छा, प्रगति की कामना, प्रतिस्पर्धा, प्रतियोगिता, नव-नवोन्मेष प्रतिभा एवं विचारो का स्तवन, अनुसंधान, स्वाबलम्बन, अच्छे से अच्छा करने की कामना।

संतोष न करने का ही परिणाम हे कि आज हम चांद पर पहुंच गये हैं, समुद्र की अतल गहराईयों को नाप रहे हैं। लाखों मीलों की दूरी कुछ ही घंटों में तय कर लेते हैं।

विश्व के एक कोने में बैठकर सम्पूर्ण विश्व के लोगों से वार्तालाप कर सकते हैं, उन्हें देख सकते हैं।

यदि मैं संतोष धन अपना लूं तो कभी भी अच्छे अंक प्राप्त करने का प्रयास ही न करुं। उत्तीर्ण होकर भी क्या करता है, संतोष धन तो पा ही लिया है। माता-पिता से कहूँगी मैंने संतोष धन प्राप्त कर लिया है मुझे आगे मत पढ़ाईये।

मेरे कुछ साथी संतोष-असंतोष की तुलता कर सकते हैं कि संतोष न होने का अर्थ है असंतोष। किन्तु मेरी दृष्टि में असंतोष एक मानसिक वेदना है जो ईर्ष्या-द्वेष-भाव से उपजती है जबकि संतोष न करने की भावना प्रगति के पथ पर अग्रसर करती है।

  

बुढ़िया सठिया गई है

प्रेम मनुहार की बात करती हूं वो मुझे दवाईयों का बक्सा दिखाता है।

तीज त्योहार पर सोलह श्रृंगार करती हूं वो मुझे आईना दिखाता है।

याद दिलाती हूं वो यौवन के दिन,छिप छिप कर मिलना,रूठना-मनाना ।

कहता है बुढ़िया सठिया गई है, पागलखाने का रास्ता दिखाता है।

किसने मेरी तक़दीर लिखी

न जाने कौन था वह

जिसने मेरी तक़दीर लिखी

ढूँढ रही हूँ उसे

जिसने मेरी तस्वीर बनाई।

मिले कभी तो  पूछूँगी,

किसी जल्दी में थे क्या

आधा-अधूरा लिखा पन्ना

छोड़कर चल दिये।

आधे काॅलम मुझे खाली मिले।

अब बताओ भला

ऐसे कैसे जीऊँ भरपूर ज़िन्दगी।

मिलो तो कभी,

अपनी तक़दीर देना मेरे हाथ

फिर बताऊँगी तुम्हें

कैसे बीतती है ऐसे

आधी-अधूरी ज़िन्दगी।

उलझे बैठे हैं अनजान राहों में

जीवन ऊँची-नीची डगर है।

मन में भावनाओं का समर है।

उलझे बैठे हैं अनजान राहों में

मानों अंधेरों में ही अग्रसर हैं।

हमारा छोटा-सा प्रयास

ये न समझना

कि पीठ दिखाकर जा रहे हैं हम

तुमसे डरकर भाग रहे हैं हम

चेहरे छुपाकर जा रहे हैं हम।

क्या करोगे चेहरे देखकर,

बस हमारा भाव देखो

हमारा छोटा-सा प्रयास देखो

साथ-साथ बढ़ते कदमों का

अंदाज़ देखो।

 

तुम कुछ भी अर्थ निकालते रहो

कितने भी अवरोध बनाते रहो

ठान लिया है

जीवन-पथ पर यूँ ही

आगे बढ़ना है

दुःख-सुख में

साथ निभाना है।

बस

एक प्रतीक-मात्र है

तुम्हें समझाने का।

 

अब वक्त चला गया

 

सहज-सहज करने का युग अब चला गया

हर काम अब आनन-फ़ानन में करना आ गया

आज बीज बोया कल ही फ़सल चाहिए हमें

कच्चा-पक्का यह सोचने का वक्त चला गया

एक फूल झरा

एक फूल झरा।

सबने देखा

रोज़ झरता था एक फूल

देखने के लिए ही

झरता थी फूल।

सबने देखा
और चले गये।

 

 

अपने आकर्षण से बाहर निकल

अपने आकर्षण से बाहर निकल।

देख ज़रा

प्रतिच्छाया धुंधलाने लगी है।

रंगों से आभा जाने लगी है।

नृत्य की गति सहमी हुई है

घुंघरूओं की थाप बहरी हुई है।

गति विश्रृंखलित हुई है।

मुद्रा तेरी थकी हुई है।

वन-कानन में खड़ी हुई है।

पीछे मुड़कर देख।

सच्चाईयों से मुंह न मोड़।

भेड़िए बहके हुए हैं।

चेहरों पर आवरण पहने हुए हैं।

पहचान कहीं खो गई है।

सम्हलकर कदम रख।

अपनी हिम्मत को परख।

सौन्दर्य में ही न उलझ।

झूठी प्रशंसाओं से निकल।

सामने वाले की सोच को परख।

तब अपनी मुद्रा में आ।

अस्त्र उठा या

नृत्य से दिल बहला।