ज़िन्दगी मिली है आनन्द लीजिए

ज़िन्दगी मिली है आनन्द लीजिए, मौत की क्यों बात कीजिए

मन में कोई  भटकन हो तो आईये हमसे दो बात कीजिए

आंख खोलकर देखिए पग-पग पर खुशियां बिखरी पड़ी हैं

आपके हिस्से की बहुत हैं यहां, बस ज़रा सम्हाल कीजिए

पुरानी रचनाओं का करें पिष्ट-पेषण

पुरानी रचनाओं का कब तक करें पिष्ट-पेषण सुहाता नहीं

रोज़ नया क्या लिखें हमें तो समझ कुछ अब आता नहीं

कवियों की नित-नयी रचनाएं पढ़-पढ़कर मन कुढ़ता है

लेखनी न चले तो अपने पर ही दया का भाव भाता नहीं

रात से सबको गिला है

रात और चांद का अजीब सा सिलसिला है
चांद तो चाहिए पर रात से सबको गिला है
चांद चाहिए तो रात का खतरा उठाना होगा
चांद या अंधेरा, देखना है, किसे क्या मिला है

बातों का ज्ञान नहीं

उन बातों पर बात करें, जिन बातों का ज्ञान नहीं

उन बातों पर उलझ पड़ें, जिन बातों का अर्थ नहीं

कुछ काम-काज की बात करें तो  है समय नहीं  

उन बातों पर मर मिटते हैं, जिन बातों का सार नहीं

इंसानियत को जीत

अपने भीतर झांककर इंसानियत को जीत

कर सके तो कर अपनी हैवानियत पर जीत

क्या करेगा किसी के गुण दोष देखकर

पूजा, अर्चना, आराधना का अर्थ है बस यही

कर ऐसे  कर्म बनें सब इंसानियत के मीत

अपने आप को खोजती हूं

अपने आप को खोजती हूं

अपनी ही प्रतिच्छाया में।

यह एकान्त मेरा है

और मैं भी

बस अपनी हूं

कोई नहीं है

मेरे और मेरे स्व के बीच।

यह अगाध जलराशि

मेरे भीतर भी है

जिसकी तरंगे मेरा जीवन हैं

जिसकी हलचल मेरी प्रेरणा है

जिसकी भंवर मेरा संघर्ष है

और मैं हूं और

और है मेरी प्रतिच्छाया

मेरी प्रेरणा

सी मेरी भावनाएं

अपने ही साथ बांटती हूं

यह भावुकता

कहां है अपना वश !

कब के रूके

कहां बह निकलेगें

पता नहीं।

चोट कहीं खाई थी,

जख्म कहीं था,

और किसी और के आगे

बिखर गये।

 

सबने अपना अपना

अर्थ निकाल लिया।

अब

क्या समझाएं

किस-किसको

क्या-क्या बताएं।

तह-दर-तह

बूंद-बूंद

बनती रहती हैं गांठें

काल की गति में

कुछ उलझी, कुछ सुलझी

और कुछ रिसती

 

बस यूं ही कह बैठी,

जानती हूं वैसे

तुम्हारी समझ से बाहर है

यह भावुकता !!!

कितना खोया है मैंने

डायरी लिखते समय
मुझसे
अक्सर 
बीचबीच में
एकाध पन्ना
कोरा छूट जाया करता है
और कभी शब्द टूट जाते हैं
बिखरे से, अधूरे।
पता नहीं
कितना खोया है मैंने
और कितना छुपाना चाहा है
अपनेआप से ही
अनकहाअनलिखा छोड़कर।

जब जैसी आन पड़े वैसी होती है मां

मां मां ही नहीं होती
पूरा घर होती है मां।
दरवाज़े, खिड़कियां, दीवारें, 
चौखट, परछत्ती, परदे, बाग−बगीचे,
बाहर−भीतर सब होती है मां।

चूल्हे की लकड़ी − उपले से लेकर
गैस, माइक्रोवेव और माड्यूल किचन तक होती है मां।
दाल –रोटी, बर्तन –भांडे, कपड़े –लत्ते,
साफ़ सफ़ाई, सब होती है मां।

कैलेण्डर, त्योहार, दिन,तारीख
सब होती है मां।

मीठी चीनी से लेकर नीम की पत्ती, तुलसी,
बर्गर − पिज्जा तक सब होती है मां।

कलम दवात से लेकर
कम्प्यूटर, मोबाईल तक सब होती है मां।

स्कूल की पढ़ाई, कालेज की मस्ती,
जब चाहा जेब खर्च
आंचल मे गलतियों को छुपाती
सब होती है मां।

कभी सोती नहीं, बीमार होती नहीं।
सहज समर्पित, 
रिश्तों को बांधती, सहेजती, समेटती, 
दुर्गा, काली, चंडी,

सहस्रबाहु, सहस्रवाहिनी, 
जब जैसी आन पड़े, वैसी होती है मां।

और हम हार लिए खड़े हैं

पाप का घड़ा

अब फूटता

 नहीं।

जब भराव होता है

तब रिसाव होता है

बनते हैं बुत

कुर्सियों पर जमते हैं।

परत दर परत

सोने चांदी के वर्क

समाज, परिवार,धर्म, राजनीति

सब कहीं जमाव होता है।

 

फिर भराव होता है

फिर रिसाव होता है

फिर बनते हैं बुत

 

और हम हार लिए खड़े हैं.........

 

 

एक बदली सोच के साथ

चौबीसों घंटे चाक-चौबन्द

फेरी वाला, दूध वाला,

राशनवाला,

रोगी वाहन बनी घूम रही।

खाना परोस रही,

रोगियों को अस्पताल ढो रही,

घर में रहो , घर में रहो !!!

कह, सुरक्षा दे रही,

बेघर को घर-घर पहुंचा रही,

आप भूखे पेट

भूखों को भोजन करा रही।

फिर भी

हमारी नाराज़गियां झेल रही

ये हमारी पुलिस कर रही।

पुलिस की गाड़ी की तीखी आवाज़

आज राहत का स्वर दे रही।

गहरी सांस  लेते हैं हम

सुरक्षित हैं हम, सुरक्षित हैं हम।

 

 

सोचती हूं

सोच कैसे बदलती है

क्यों बदलती है सोच।

कभी आपने सोचा है

क्या है आपकी सोच ?

कुछ धारणाएं बनाकर

जीते हैं हम,

जिसे बुरा कहने लगते हैं

बुरा ही कहते हैं हम।

चाहे घर के भीतर हों

या घर के बाहर

चोर तो चोर ही होता है,

यह समझाते हैं हम।

 

 

नाके पर लूटते,

जेबें टटोलते,

अपराधियों के सरगना,

झूठे केस बनाते,

आम आदमी को सताते,

रिश्वतें खाते,

नेताओं की करते चरण-वन्दना।

कितनों से पूछा

आपके साथ कब-कब हुआ ऐसा हादसा ?

उत्तर नहीं में मिला।

तो मैंने कहा

फिर आप क्यो कहते हैं ऐसा।

सब कहते हैं, सब जानते हैं,

बस ,इसीलिए हम भी  कह देते हैं,

और  कहने में  क्या   जाता है ?

 

यह हमारा चरित्र है!!!!!!!

 

न देखी कभी उनकी मज़बूरियां,

न समझी कभी उनकी कहानियां

एक दिन में तो नहीं बदल गया

उनका मिज़ाज़

एक दिन में तो

नहीं बन गये वे अच्छे इंसान।

वे ऐेसे ही थे, वे ऐसे ही हैं।

शायद कभी हुआ होगा

कोई एक हादसा,

जिसकी हमने कहानी बना ली

और वायरल कर दी,

गिरा दिया उनका चरित्र

बिन सोचे-समझे।

 

नमन करती हूं इन्हें ,

कभी समय मिले

तो आप भी स्मरण करना इन्हें ,

 

स्मरण करना इन्हें

एक बदली सोच के साथ

न लिख पाने की पीड़ा

भावों का बवंडर उठता है मन में, कुछ लिख ले, कहता है

कलम उठती है, भाव सजते हैं, मन में एक लावा बहता है

कहीं से एक लहर आती है, सब छिन्‍न-भिन्‍न कर जाती है

न लिख पाने की पीड़ा कभी कभी यहां मन बहुत सहता है

ऐसे ही तो चलती दुनिया

 सूझबूझ से चले न दुनिया

हेरा-फ़ेरी कर ले मुनिया

इसका लेके उसको दे दे

ऐसे ही तो चलती दुनिया

सोचते हैं दिल बदल लें

मायूस दिल को मनाने अब किसे, क्यों यहां आना है
दिल की दर्दे-दवा लगाने अब किसे, क्यों यहां आना है
ज़माना  बहुत निष्ठुर हो गया है, बस तमाशा देख रहा
सोचते हैं दिल बदल लें, देखें किसे यहां घर बसाने आना है।

जैसा सोचो वैसा स्वाद देती है जि़न्दगी

कभी अस्त–व्यस्त सी लगे है जि़न्दगी
कभी मस्त-मस्त सी लगे है जि़न्दगी
झर-पतझड़, कण्टक-सुमन सब हैं यहां
जैसा सोचो वैसा स्वाद देती है जि़न्दगी

जब उसका डमरू बजता है

नज़र दूरियां नापती हैं

हिमशिखर के पार

कहां तक है संसार

राहें

सुगम हों या हों दुर्गम।

 

जगत माया है

मिथ्या है

पता नहीं,

पर

जब

उसका डमरू बजता है

तब, सब

उस जगत के पार ही दिखता है।

समय ने करवट ली है

कभी समय था

जब एक छोटी सी चीख

हमारे अंत:करण को उद्वेलित कर जाती थी।

किसी पर अन्याय होता देख

रूह कांप जाती थी

उनके आंसू हमारे आंसू बन जाते थे

और उनके घाव

हमारे मन से रिसने लगते थे

औरों की किलकारी

हमारी दीपावली हुआ करती थी

और उनका मातम हमारा मुहरर्म।

 

एक आत्मा हुआ करती थी

जो पथभ्रष्ट होने पर हमें धिक्कारती थी

और समय समय पर सन्मार्ग दिखाती थी।

 

पर समय ने करवट ली है।

 

इधर कानों ने सुनना कम कर दिया है

और आंखों ने भी धोखा दे दिया है।

 

सुनने में आया है कि

हमारी आत्मा भी मर चुकी है।

 

इसे ही आधुनिक भाषा में

समय के साथ चलना कहते हैं।

इल्जाम बहुत हैं

इल्जाम बहुत हैं

कि कुछ लोग पत्थर दिल हुआ करते हैं।

पर यूं ही तो नहीं हो जाते होंगे

इंसान

पत्थर दिल ।

कुछ आहत होती होंगी संवेदनाएं,

समाज से मिली होंगी ठोकरें,

किया होगा किसी ने कपट

बिखरे होंगे सपने

और फिर टूटा होगा दिल।

तब  सीमाएं लांघकर

दर्द आंसुओं में बदल जाता है

और ज़माने से छुपाने के लिए

जब आंख में बंध जाता है

तो दिल पत्थर का बन जाता है।

इन पत्थरों पर अंकित होती हैं

भावनाएं,

कविताएं और शायरी।

कभी निकट होकर देखना,

तराशने की कोशिश जरूर करना

न जाने कितने माणिक मोती मिल जायें,

सदियों की जमी बर्फ पिघल जाये,

एक और पावन पवित्र गंगा बह जाये

और पत्थरों के बीच चमन महक जाये।

चलो आज कुछ नया-सा करें

चलो

आज कुछ नया-सा करें

न करें दुआ-सलाम

न प्रणाम

बस, वन्दे मातरम् कहें।

 

देश-भक्ति के न कोई गीत गायें

सब सत्य का मार्ग अपनाएं।

 

शहीदों की याद में

न कोई स्मारक बनाएं

बस उनसे मिली इस

अमूल्य धरोहर का मान बढ़ाएं।

 

न जाति पूछें, न धर्म बताएं

बस केवल

इंसानियत का पाठ पढ़ाएं।

 

झूठे जयकारों से कुछ नहीं होता

नारों-वादों कहावतों से कुछ नहीं होता

बदलना है अगर देश को

तो चलो यारो

आज अपने-आप को परखें

अपनी गद्दारी,

अपनी ईमानदारी को परखें

अपनी जेब टटोलें

पड़ी रेज़गारी को खोलें

और अलग करें

वे सारे सिक्के

जो खोटे हैं।

घर में कुछ दर्पण लगवा लें

प्रात: प्रतिदिन अपना चेहरा

भली-भांति परखें

फिर किसी और को दिखाने का साहस करें।

साक्षरता अभियान से लौटती औरतें

लौट रहीं थीं

वे अपने दड़बों में

सिर से पैर तक औरतें।

उनकी मांग में

लाल घना सिंदूर था

एक बड़ी सी

शुद्ध सोने की टिकुली

माथे पर टीका।

बाल गुंथे हुए लाल परांदे में।

नाक में नथनी। कान में झुमके।

गले में हार मालाएं।

कलाईयों पर रंग बिरंगी चूड़ियां।

पैरों में पायल, बिछुए।

और कई कुछ।

कहीं कुछ छूटा नहीं

जो यह न बता सके

कि वे सब, औरतें हैं बस औरतें।

 

इन सबके उपर

एक लम्बी सी ओढ़नी

जिसमें पीठ पर बंधे

दो एक बच्चे

और एक घूंघट

उनके अस्तित्व को नकारता।

 

इन सबके बीच

मुट्ठी के किसी कोने में

एक प्रमाणपत्र भी था

“अ” से “ज्ञ” तक

जिससे बच्चे खेल रहे थे।

मन हुलसा मन बहका

मन हरषा  ।।

फिर भी नयनों से नीर

क्यों है बरसा

मन भीगा, तन भीगा

घटा छाई

बूंद बूंद धरती पर आई

पत्तों पर ठिठकी

कोने में अटकी

अब गिरती, तब गिरती

माणिक सी चमकी

धरती पर धारा बहती

मन हुलसा, मन बहका

सरस सरस सा

मन हरषा  ।।

आशाओं-आकांक्षाओं का जाल

यह असमंजस की स्थिति है

कि जब भी मैं

सिर उठाकर

धरती से

आकाश को

निहारती थी

तब चांद-तारे सब

छोटे-छोटे से दिखाई देते थे

कि जब चाहे मुट्ठी में भर लूं।

दमकते सूर्य को

नज़बट्टू बनाकर

द्वार पर टांग लूं।

लेकिन  यहां धरती पर

आशाओं-आकांक्षाओं का जाल

निराकार होते हुए भी

इतना बड़ा है  

कि न मुट्ठी में आता है

न हृदय में समाता है।

चाहतें बड़ी-बड़ी

विशालकाय

आकाश में भी न समायें।

मन, छोटा-सा

ज़रा-ज़रा-सी बात पर

बड़ा-सा ललचाए।

खुली मुट्ठी बन्द नहीं होती

और बन्द हो जाये

तो खुलती नहीं,

दरकता है सब।

छूटता है सब।

टूटता है सब।

आकाश और धरती के बीच का रास्ता

बहुत लम्बा है

और अनजाना भी

और शायद अकेला भी।

 

खुली-बन्द होती मुट्ठियों के बीच

बस

रह जाता है आवागमन।

आज जब सच कहने की बात हुई

आज जब

सच कहने की बात हुई

तो अचानक एक शोर उठ खड़ा हुआ।

लोगों के चेहरे क्रोध से तमतमाने लगे।

तरह तरह की बातें होने लगीं।

मेरे व्यक्तित्व पर उंगलियां उठने लगीं।

लोग

मेरे चारों ओर लामबन्द होने लगे।

इधर उधर देखा

तो न जाने कौन-कौन

मेरे पास आ गये।

उनके हाथों में झण्डे थे और तख्तियां थीं

उन पर

सच बोलने के वादे थे, और इरादे थे।

कुछ नारे थे

और मेरे लिए कुछ इशारे थे।

अरे ! तुम तो

ज़रा सी बात पर यूं ही

भावुक हो जाती हो

कि ज़रा सा किसी ने उकसाया नहीं

कि सच बोलने पर उतारू हो जाती हो।

मेरे हाथ में उन्होंने

एक पूरी सूची थमा दी।

हर युग में झूठ की ही तो

सदा जीत होती रही है।

और यह तो

वैसे भी कलियुग है।

 

नारों में जिओ, वादों में जिओ

धोखे में जिओ, झूठ को पियो।

 

फिर अचानक भीड़ बढ़ गई।

मानों कोई मेला लगा हो।

लोग वैसे ही आनन्दित हो रहे थे

मानों रावण दहन चल रहा हो।

सुना होगा आपने

कि रावण-दहन की लकड़ियां

घर में रखने से खुशहाली होती है

और बुरी बलाएं भाग जाती हैं।

और तभी मेरी देह के टुकड़े-टुकड़े होकर

हवा में उड़ने लगे

लोग भागने लगे।

 

जिसके हाथ जो लगा, ले गये।

घर में रखेंगे इन अवशेषों को।

दरवाज़े के बाहर टांगेगे

नजरबट्टू बनाकर।

बताएंगे अगली पीढ़ी को

हमारे ज़माने में

से भी लोग हुआ करते थे।

और शायद एक समय बाद

लाखों करोड़ों कीमत भी मिल जाये

एक पुरातन संग्रहीत वस्तु के रूप में।

बहू ने दो रोटी खा ली

हमारे भारतीय परिवारों में एक परम्परा है कि घर की बहू अन्त में ही खाना खाएगी, तभी वह अच्छी बहू होती है। उसी अच्छी बहू पर एक रचना
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बहू को भूख लग आई 
और बहू ने दो रोटी खा ली।
मरी दिन चढ़े पांच बजे उठी थी।
काम की न काज की, ढाई मन अनाज की।

न चक्की न चूल्हा, न पानी न कुआं
न गाय न गोबर, न पाथी न टब्बर।

और अभी बस बारह ही तो बजे हैं
और इस जन्मजली को देखो
अभी से भूख लग आई, और दो रोटी खा ली।

और करने को होता ही क्या है।
चार जेठ, चार जेठानियां
दो ननदें , दो देवर
बारह पंद्रह बच्चे।
और हम बूढ़े बुढ़िया का क्या
कोने में पड़े रहते हैं। 
और आप ! बिचौली है बस की लाड़ली।
सारा दिन पड़ी रहे।
पर इसका मतलब यह तो नहीं
कि उसे जब-तब भूख लग आये
और दो रोटी खा ले।
आखिर बहू है इज़्जतदार खानदान की।

न बड़ों के पैर छुए, न छोटों को संवारा।
न नहाई न धोई, न मंदिर न तुलसी।

काम भी क्या !
बस ! बड़ों का चाय-नाश्ता
छोटों के लिए कुछ मीठा-नमकीन
कुछ आये गये मेहमान।
खानदानी लोग हैं हम।
लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं
कि बनाते-खिलाते, परोसते-समेटते
उसे भूख लग आये और आप दो रोटी खा ले।

लाखों का सोना लादा
और दे दिया हीरे-सा अपना लल्ला ।
अरे हां ! उसके बारे में तो मैं 
बताना ही भूल गई।

अभी बस ! बारह ही तो बजे हैं।
बेचारा सोकर उठा भी नहीं।
और इस करमजली को देखो
उसके उठने से पहले ही 
भूख लग आई
और दो रोटी खाली।

पता नहीं क्या सिखाते हैं मां बाप
आजकल अपनी लड़कियों को।
नाक कट गई हमारे खानदान की
क्या कहेगी दुनिया
कि बहू को भूख लग आई 
और दो रोटी खा ली।

बाहर निकलना चाहती हूं

निकाल फेंकना चाहती हूं मन की फांस को।

बाहर निकलना चाहती हूं

स्मृतियों के जाल से, जंजाल से

जो जीने नहीं देतीं मुझे अपने आज में।

पर ये कैसी दुविधा है

कि लौट लौटकर झांकती हूं

मन की दरारों में, किवाड़ों में।

जहां अतीत के घाव रिसते हैं

जिनसे बचना चाहती हूं मैं।

एक अदृश्य अभेद्य संसार है मेरे भीतर

जिसे बार बार छू लेती हूं

अनजाने में ही।

खंगालने लगती हूं अतीत की गठरियां

हाथ रक्त रंजित हो जाते हैं

स्मृतियों के दंश देह को निष्प्राण कर देते हैं

फिर एक मकड़जाल

मेरे मन मस्तिष्क को कुंठित कर देता है

और मैं उलझनों में उलझी

न वर्तमान में जी पाती हूं

और  न अतीत को नकार पाती हूं।।।।।।।

काश ! पहाड़-सी होती मेरी ज़िन्दगी

काश !  पहाड़-सी होती मेरी ज़िन्दगी

 

ज़रा-ज़रा सी बात पर

यूं ही

भरभराकर

नहीं गिर जाते ये पहाड़।

अपने अन्त:करण में

असंख्य ज्वालामुखी समेटे

बांटते हैं

नदियों की तरलता

झरनों की शरारत

नहरों का लचीलापन।

कौन कहेगा इन्हें देखकर

कि इतने भाप्रवण होते हैं ये पहाड़।

 

पहाड़ों की विशालता

अपने सामने

किसी को बौना नहीं करती।

अपने सीने पर बसाये

एक पूरी दुनिया

ज़मीन से उठकर

कितनी सरलता से

छू लेते हैं आकाश को।

बादलों को सहलाते-दुलारते

बिजली-वर्षा-आंधी

सहते-सहते

कमज़ोर नहीं हो जाते यह पहाड़।

आकाश को छूकर

ज़मीन को नहीं भूल जाते ये पहाड़।

 

ज़रा-ज़रा सी बात पर

सागर की तरह

उफ़न नहीं पड़ते ये पहाड़।

नदियों-नहरों की तरह

अपने तटबन्धों को नहीं तोड़ते।

बार-बार अपना रास्ता नहीं बदलते

नहरों-झीलों-तालाबों की तरह

झट-से लुप्त नहीं हो जाते।

और मावन-मन की तरह

जगह-जगह नहीं भटकते।

अपनी स्थिरता में

अविचल हैं ये पहाड़।

 

अपने पैरों से रौंद कर भी

रौंद नहीं सकते तुम पहाड़।

 

पहाड़ों को उजाड़ कर भी

उजाड़ नहीं सकते तुम पहाड़।

 

पहाड़ की उंचाई

तो शायद

आंख-भर नाप भी लो

लेकिन नहीं जान सकते कभी

कितने गहरे हैं ये पहाड़।

 

बहुत बड़ी चाहत है मेरी

काश !

पहाड़-सी होती मेरी ज़िन्दगी।

 

 

शब्दों की भाषा समझी न

शब्दों की भाषा समझी न

नयनों की भाषा क्या समझोगे

 

रूदन समझते हो आंसू को

मुस्कानों की भाषा क्या समझोगे

 

मौन की भाषा समझी न

मनुहार की भाषा क्या समझोगे

 

गुलदानों में रखते हो फूलों को

प्यार की भाषा क्या समझोगे

मैं वारिस हूं अकेली अपनी तन्हाईयों की।

मैं हंसती हूं, गाती हूं।

गुनगुनाती हूं, मुस्कुराती हूं

खिलखिलाती हूं।

हंसती हूं

तो हंसती ही चली जाती हूं

बोलती हूं

तो बोलती ही चली जाती हूं

लोग कहते हैं

कितना जीवन्तता भरी है इसके अन्दर

जीवन जीना हो तो कोई इससे सीखे।

 

एक आवरण है यह।

झांक न ले कहीं कोई मेरे भीतर।

न भेद ले मेरे मन की गहराईयों को।

न खटखटाए कोई मेरे मन की सांकल।

छू न ले मेरी तन्हाईयों को।

न भंग हो मेरी खामोशी की चीख।

मेरी अचल अटल सम्पत्ति हैं ये।

कोई लूट न ले

मेरी जीवन भर की अर्जित सम्पदा

मैं वारिस हूं अकेली अपनी तन्हाईयों की।

 

ठकोसले बहुत हैं

न मन थका-हारा, न तन थका-हारा

किसी झूठ, किसी सच में फंसा बेचारा

यहां दुनियादारी के ठकोसले बहुत हैं

किस-किससे निपटे, बुरा फंसा बेचारा

अच्‍छी नींद लेने के लिए

अच्‍छी नींद लेने के लिए बस एक सरकारी कुर्सी चाहिए

कुछ चाय-नाश्‍ता और कमरे में एक ए सी होना चाहिए

फ़ाईलों को बनाईये तकिया, पैर मेज़ पर ज़रा टिकाईये

काम तो होता रहेगा, टालने का तरीका आना चाहिए