सीधे-सादे भोले-भाले लोगों की खिल्ली उड़ती है

सीधे-सादे भोले-भाले लोगों की अब खिल्ली देखो उड़ती है

चतुर सुजान लोगों के नामों से अब यह दुनिया चलती है

अच्छे-अच्छे लोगों के अब नाम नहीं जाने कोई यहां पर

कपटी, चोर-उचक्कों के डर से कानूनों की धज्जियां उड़ती हैं

चतुर सुजान

चतुर सुजान पिछले युग के

सुजान

कहीं पीछे छूटे

चतुर-चतुर यहां बचे

 

चिड़िया से पूछा मैंने

चिड़िया रानी क्या-क्या खाती

राशन-पानी कहाँ से लाती

मुझको तो कुछ न बतलाती

थाली-कटोरी कहाँ से पाती

चोंच में तिनका लेकर घूमे

कहाँ बनाया इसने घर

इसके घर में कितने मैंम्बर

इधर-उधर फुदकती रहती

डाली-डाली घूम रही

फूल-फूल को छू रही

मैं इसके पीछे भागूं

कभी नीचे आती

कभी ऊपर जाती

मेरे हाथ कभी न आती।

भ्रष्टाचार मुक्त समाज की परिकल्पना

सेनानियों की वीरता को हम सदा नमन करते हैं

पर अपना कर्तव्य भी वहन करें यह बात करते हैं

भ्रष्टाचार मुक्त समाज की परिकल्पना को सत्य करें

इस तरह राष्ट्र् के सम्मान की हम बात करते हैं

अगर तुम न होते

अगर तुम न होते

तो दिन में रात होती।

अगर तुम न होते

तो बिन बादल बरसात होती।

अगर तुम न होते

तो सुबह सांझ-सी,

और सांझ

सुबह-सी होती।

अगर तुम न होते

तो कहां

मन में गुलाब खिलते

कहां कांटों की चुभन होती।

अगर तुम न होते

तो मेरे जीवन में

कहां किसी की परछाईं न होती।

अगर तुम न होते

तो ज़िन्दगी

कितनी निराश होती।

अगर तुम न होते

तो भावों की कहां बाढ़ होती।

अगर तुम न होते

तो मन में कहां

नदी-सी तरलता

और पहाड़-सी गरिमा होती।

अगर तुम न होते

तो ज़िन्दगी में

इन्द्रधनुषी रंग न होते ।

अगर तुम न होते

कहां लरजती ओस की बूंदें

कहां चमकती चंदा की चांदनी

और कहां

सुन्दरता की चर्चा होती।

.

अगर तुम न होते

-

ओ मेरे सूरज, मेरे भानु

मेरे दिवाकर, मेरे भास्कर

 मेरे दिनेश, मेरे रवि

मेरे अरुण

-

अगर तुम न होते।

अगर तुम न होते ।

अगर तुम न होते ।

 

कन्यादान -परम्परा या रूढ़ि

न तो मैं कोई वस्तु थी

न ही अन्न वस्त्र,

और न ही

घर के किसी कोने में पड़ा

कोई अवांछित, उपेक्षित पात्र

तो फिर हे पिता !

दान क्यों किया तुमने मेरा ?

धर्म, संस्कृति, परम्परा, रीति रिवाज़

सब बदल लिए तुमने अपने हित में।

किन्तु मेरे नाम पर

युगों युगों की परम्परा निभाते रहे हो तुम।

मुझे व्यक्तित्व से वस्तु बनाते रहे हो तुम।

दान करके

सभी दायित्वों से मुक्ति पाते रहे थे तुम।

और इस तरह, मुझे

किसी की निजी सम्पत्ति बनाते रहे तुम।

मेरे नाम से पुण्य कमाते रहे थे तुम ।

अपने लिए स्वर्गारोहण का मार्ग बनाते रहे तुम।

तभी तो मेरे लिए पहले से ही

सृजित कर लिये  कुछ मुहावरे 

“इस घर से डोली उठेगी उस घर से अर्थी”।

पढ़ा है पुस्तकों में मैंने

बड़े वीर हुआ करते थे हमारे पूर्वज

बड़े बड़े युद्ध जीते उन्होंनें

बस बेटियों की ही रक्षा नहीं कर पाते थे।

जौहर करना पड़ता था उन्हें

और तुम उनके उत्तराधिकारी।

युग बदल गये, तुम बदल गये

लेकिन नहीं बदला तो  बस

मुझे देखने का तुम्हारा नज़रिया।

कभी बेटी मानकर तो देखो,

मुझे पहचानकर तो देखो।

खुला आकाश दो, स्वाधीनता का भास दो।

अपनेपन का एहसास दो,

विश्वास का आभास दो।

अधिकार का सन्मार्ग दो,

कर्त्तव्य का भार दो ।

सौंपों मत किसी को।

किसी का मेरे हाथ में हाथ दो,

जीवन भर का साथ दो।

अपनेपन का भान दो।

बस थोड़ा सा मान दो

बस दान मत दो। दान मत दो।

चोर-चोर मौसरे भाई

कहते हैं

चोर-चोर मौसरे भाई।

यह बात मेरी तो

कभी समझ न आई।

कितने भाई?

केवल मौसेरे ही क्यों भाई?

चचेरे, ममेरे की गिनती

क्यों नहीं आई?

और सगे कोई कम हैं,

उनकी बात क्यों न उठाई?

किसने देखे, किसने जाने

किसने पहचाने?

यूँ ही बदनाम किया

न जाने किसने यह

कहावत बनाई।

आधी रात होने को आई

और मेरी कविता

अभी तक न बन पाई।

और जब बात चोरों की है

तब क्या मौसेरे

और क्या चचेरे

सबसे डर कर रहना भाई।

बात चोरों की चली है

तो दरवाज़े-खिड़कियाँ

सब अच्छे से बन्द हैं

ज़रा देख लेना भाई।

 

समाचार पत्रों के समाचार पर विचार

14.3.2021

आज के एक समाचार पत्र के सम्पादकीय पृष्ठ पर एक आलेख बताता है कि देश में अधिकांश राज्यों में निर्धनों के लिए सस्ता भोजन उपलब्ध करवाया जा रहा है। उड़ीसा के 30 ज़िलों एवं मध्य प्रदेश, राजस्थान में 5  में भोजन, तमिलनाडु में अम्मा कैंटीन में दस रुपये में भोजन, आन्ध्र प्रदेश में एन टी आर अन्ना कैंटीन, एवं दिल्ली, बेंगलुरू आदि और भी शहरों में निर्धनों के लिए सस्ते भोजन की व्यवस्था की जा रही है। किन्तु वास्तव में देश की 25 प्रतिशत जनसंख्या आज भी भूखे पेट सोती है। भूखे देशों की श्रेणी में 118 देशों में भारत  97 स्थान पर है।

दूसरी ओर किसी उत्सव पर हज़ारों किलो का मोदक, केक, मिठाईयां बनती हैं। हमारे आराध्य करोड़ों के आभूषण पहनते हैं, उनका अरबों का बीमा होता है। यह धन कहां से आता है और इनके निवेश का क्या मार्ग है।

इतना तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि सस्ते भोजन का लाभ उठाने वाली जनता एवं 25 प्रतिशत भूखे पेट सोने वाली जनता का भी इस अमीरी में योगदान होता है। आज सस्ता भोजन उपलब्ध करवाने के नाम पर एक नाकारा पीढ़ी तैयार की जा रही है, जिसे बिना काम किये भोजन मिल जाता है, फिर वह काम की खोज क्यों करे और काम ही क्यों करे। बेहतर है वह किसी के साथ जुड़ जाये, आराधना करे, वन्दना करे और मुफ़्त भोजन पाये। परिश्रम और  शिक्षा से ऐसा क्या मिलेगा जो यहां नहीं मिलता। और एक समय बाद यदि निःशुल्क सुविधाएँ जब बन्द हो जायेंगी तो आप समझ ही सकते हैं कि एक अपराधी पीढ़ी की भूमिका लिखी जा रही है, नींव डाली जा रही है।

  

 

जीवन की भाग-दौड़ में

जीवन की भाग-दौड़ में कौन हमराही, हमसफ़र कौन

कौन मिला, कौन छूट गया, हमें यहाँ बतलाएगा कौन

आपा-धापी, इसकी-उसकी, उठा-पटक लगी हुई है

कौन है अपना, कौन पराया, ये हमें समझायेगा कौन

ब्लॉक

कब सालों-साल बीत गये

पता ही नहीं लगा

जीवन बदल गया

दुनिया बदल गई

और मैं

वहीं की वहीं खड़ी

तुम्हारी यादों में।

प्रतिदिन

एक पत्र लिखती

और नष्ट कर देती।

अक्सर सोचा करती थी

जब मिलोगे

तो यह कहूँगी

वह कहूँगी।

किन्तु समय के साथ

पत्र यादों में रहने लगे

स्मृतियाँ धुँधलाने लगी

और चेहरा मिटने लगा।

 

पर उस दिन फ़ेसबुक पर

अनायास तुम्हारा चेहरा

दमक उठा

और मैं

एकाएक

लौट गई सालों पीछे

तुम्हारे साथ।

खोला तुम्हारा खाता

और चलाने लगी अंगुलियाँ

भावों का बांध

बिखरने लगा

अंगुलियाँ कंपकंपान लगीं

क्या कर रही हूँ मैं।

 

इतने सालों बाद

क्या लिखूँ अब

ब्लॉक का बटन दबा दिया।

 

जीवन की डोर पकड़

पुष्प-पल्लवविहीन वृक्षों का

अपना ही

एक सौन्दर्य होता है।

कुछ बिखरी

कुछ उलझी-सुलझी

किसी छत्रछाया-सी

बिना झुके,

मानों गगन को थामे

क्षितिज से रंगीनियाँ

सहेजकर छानतीं,

भोर की मुस्कान बाँटतीं

मानों कह रही

राही बढ़े चल

कुछ पल विश्राम कर

न डर, रह निडर

जीवन की डोर पकड़

राहों पर बढ़ता चल।

 

 

 

कितना मुश्किल होता है

कितना मुश्किल होता है

जब रोटी गोल न पकती है

दूध उफ़नकर बहता है

सब बिखरा-बिखरा रहता है।

 

तब बच्चा दिनभर रोता है

न खाता है न सोता है

मन उखड़ा-उखडा़ रहता है।

 

कितना मुश्किल होता है

जब पैसा पास न होता है

रोज़ नये तकाज़े सुनता

मन सहमा-सहमा रहता है।

 

तब आंखों में रातें कटती हैं

पल-भर काम न होता है

मन हारा-हारा रहता है।

 

कितना मुश्किल होता है,

जब वादा मिलने का करते हैं

पर कह देते हैं भूल गये,

मन तनहा-तनहा रहता है।

 

तब तपता है सावन में जेठ,

आंखों में सागर लहराता है

मन भीगा-भीगा रहता है ।

 

कितना मुश्किल होता है

जब बिजली गुल हो जाती है

रात अंधेरी घबराती है

मन डरा-डरा-सा रहता है।

 

तब तारे टिमटिम करते हैं

चांदी-सी रात चमकती है

मन हरषा-हरषा रहता है।

पश्चाताप
काश हमने भी कुछ वर्ष कष्ट उठाकर एक झोंपड़पट्टी बनाई होती, सरकारी ज़मीन कब्ज़ाई होती तो 6-8 हज़ार किराया देने की बजाय चंडीगढ़ जैसे शहर  में आज की तारीख में छोटे-से ही सही लेकिन एक फ्लैट के मालिक होते। 20 वर्ष में केवल 800 रूपये प्रतिमाह देकर कुल 182000 राशि चुकाकर फ्लैट के मालिक बन जाते। 

आज यदि चंडीगढ़ में ऐसे ही किसी क्षेत्र में ज़मीन-मकान बनाने की सोचें तो 50-60 लाख रूपये चाहिए। और यदि किसी बैंक से ऋण की बात करें तो भी 20-25 लाख तो हाथ में चाहिए ही ओैर बीस वर्ष तक ऋण चुकाते-चुकाते अगली-पिछली दो पीढ़ियां ऋणी हो जाती हैं क्योंकि बैंक का ऋण चुकाने में ब्याज सहित राशि लगभग दो-ढाई गुनी हो जाती है। 6-7 वर्ष तक तो केवल ब्याज ही अदा होता रहता है।

घोर पश्चाताप!!!!! 

  

कैसी कैसी है ज़िन्दगी

कभी-कभी ठहरी-सी लगती है, भागती-दौड़ती ज़िन्दगी ।

कभी-कभी हवाएँ महकी-सी लगती हैं, सुहानी ज़िन्दगी।

गरजते हैं बादल, कड़कती हैं बिजलियाँ, मन यूँ ही डरता है,

कभी-कभी पतझड़-सी लगती है, मायूस डराती ज़िन्दगी।

गहरे सागर में डूबे थे

सपनों की सुहानी दुनिया नयनों में तुमने ही बसाई थी

उन सपनों के लिए हमने अपनी हस्ती तक मिटाई थी

गहरे सागर में डूबे थे उतरे थे माणिक मोती के लिए

कब विप्लव आया और कब तुमने मेरी हस्ती मिटाई थी

अपनी नज़र से देखने की एक कोशिश

मेरा एक रूप है, शायद !

 

मेरा एक स्वरूप है, शायद !

 

एक व्यक्तित्व है, शायद !

 

अपने-आपको,

अपने से बाहर,

अपनी नज़र से

देखने की,

एक कोशिश की मैंने।

आवरण हटाकर।

अपने आपको जानने की

कोशिश की मैंने।

 

मेरी आंखों के सामने

एक धुंधला चित्र

उभरकर आया,

मेरा ही था।

पर था

अनजाना, अनपहचाना।

जिसने मुझे समझाया,

तू ऐसी ही है,

ऐसी ही रहेगी,

और मुझे डराते हुए,

प्रवेश कर गया मेरे भीतर।

 

कभी-कभी

कितनी भी चाहत कर लें

कभी कुछ नहीं बदलता।

बदल भी नहीं सकता

जब इरादे ही कमज़ोर हों।

कौन जाने सूरज उदित हुआ या अस्त

उस दिन जैसे ही सूरज डूबा,

अंधेरा होते ही

सामने के सारे पहाड़ समतल हो गये।

वैसे भी हर अंधेरा

समतल हुआ करता है,

और प्रकाश सतरंगा।

अंधेरा सुविधा हुआ करता है,

औेर प्रकाश सच्चाई।

-

तुम चाहो तो अपने लिए

कोई भी रंग चुन लो।

हर रंग एक आकाश हुआ करता है,

एक अवकाश हुआ करता है।

मैं तो

बस इतना जानती हूं

कि सफ़ेद रंग

सात रंगों का मिश्रण।

यह एकता, शांति

और समझौते का प्रतीक,

-आधार सात रंग।

अतः बस इतना ध्यान रखना

कि सफे़द रंग तक पहुंचने के लिए

तुम्हें सभी रंगों से गुज़रना होगा।

-

पता नहीं सबने कैसे मान लिया

कि सूरज उगा करता है।

मैंने तो जब भी देखा

सूरज को डूबते ही देखा।

हर ओर पश्चिम ही पश्चिम है,

और हर कदम

अंधेरे की ओर बढ़ता कदम।

-  

मैं अक्सर चाहती हूं

कि कभी दिन रहते सूरज डूब जाये,

और दुनिया के लिए

खतरा उठ खड़ा हो।

-

सच कहना

क्या कभी तुमने सूरज उगता देखा है?

-

अगर तुमने कभी

सूरज को

उपर की ओर

आकाश की ओर बढ़ता देख लिया,

आग, तपिश और  रोशनी थी उसमें

बस !

इतने से ही तुमने मान लिया

कि सूरजा उग आया।

-

हर चढ़ता सूरज

मंजिल नहीं हुआ करता।

पता नहीं कब दिन ढल जाये।

और कभी-कभी तो सूरज चढ़ता ही नहीं,

और दिन ढल जाता है।

मैंने तो जब भी देखा

सूरज को ढलते ही देखा।

-

डूबते सूरज की पहचान,

अंधेरे से रोशनी की ओर,

अतल से उपर की ओर।

इसीलिए

मैंने तो जब भी देखा,

सूरज को डूबते ही देखा।

-

हर डूबता दिन,

उगते तारे,

एक नये आने वाले दिन का,

एक नयी जिंदगी का,

संदेश दे जाते हैं।

जाने वाले क्षण

आने वाले क्षणों के पोषक,

बता जाते हैं कि शाम केवल डूबती नहीं,

हर डूबने के पीछे

नया उदय ज़रूरी है।

हर शाम के पीछे

एक सुबह है,

और चांद के पीछे सूरज -

सूरज को तो डूबना ही है,

पर एक उदय का सपना लेकर ।

 

 

खामोश शब्द

भावों को

आकार देने का प्रयास

निरर्थक रहता है अक्सर

शब्द भी

खामोश हो जाते हैं तब

 

प्रतिबन्धित स्मृतियाँ

जब-जब

प्रतिबन्धित स्मृतियों ने

द्वार उन्मुक्त किये हैं

मन हुलस-हुलस जाता है।

कुछ नया, कुछ पुराना

अदल-बदलकर

सामने आ जाता है।

जाने-अनजाने प्रश्न

सर उठाने लगते हैं

शान्त जीवन में

एक उबाल आ जाता है।

जान पाती हूँ

समझ जाती हूँ

सच्चाईयों से

मुँह मोड़कर

ज़िन्दगी नहीं निकलती।

अच्छा-बुरा

खरा-खोटा,

सुन्दर-असुन्दर

सब मेरा ही है

कुछ भोग चुकी

कुछ भोगना है

मुँह चुराने से

पीछा छुड़ाने से

ज़िन्दगी नहीं चलती

कभी-न-कभी

सच सामने आ ही जाता है

इसलिए

प्रतीक्षा करती हूँ

प्रतिबन्धित स्मृतियों का

कब द्वार उन्मुक्त करेंगी

और आ मिलेंगी मुझसे

जीवन को

नये अंदाज़ में

जीने का

सबक देने के लिए।

 

 

कानून तोड़ना हक है मेरा

जीत हार की बात न करना

गाड़ी यहां अड़ी हुई है।

कितने आगे कितने पीछे,

किसकी आगे, किसकी पीछे,

जांच अभी चली हुई है।

दोपहिए पर बैठे पांच,

चौपहिए में दस-दस बैठें,

फिर दौड़ रहे बाजी लेकर,

कानून तोड़ना हक है मेरा

देखें, किसकी दाल यहां गली हुई है।

गली-गली में शोर मचा है

मार-काट यहां मची हुई है।

कौन है राजा, कौन है रंक

जांच अभी चली हुई है।

राजा कहता मैं हूं रंक,

रंक पूछ रहा तो मैं हूं कौन

बात-बात में ठनी हुई है।

सड़कों पर सैलाब उमड़ता

कौन सही है कौन नहीं है,

आज यहां हैं कल वहां थे,

क्यों सोचे हम,

हमको क्या पड़ी हुई है।

कल हम थे, कल भी होंगे,

यही समझकर

अपनी जेब भरी हुई है।


 

अभी तो चल रही दाल-रोटी

जिस दिन अटकेगी

उस दिन हम देखेंगे

कहां-कहां गड़बड़ी हुई है।

अभी क्या जल्दी पड़ी हुई है।

हालात कहाँ बदलते हैं

वर्ष बदलते हैं

दिन-रात बदलते हैं

पर हालात कहाँ बदलते हैं।

 

नया साल आ जाने पर

लगता था

कुछ तो बदलेगा,

यह जानते हुए भी

कि ऐसा सोचना ही

निरर्थक है।

आस-पास

जैसे सब ठहर गया हो।

मन की ऋतुएँ

नहीं बदलतीं अब,

शीत, बसन्त, ग्रीष्म हो

या  हो पतझड़

कोई नयी आस लेकर

नहीं आते अब,

किसी परिवर्तन का

एहसास नहीं कराते अब।

बन्द खिड़कियों से

न मदमाती हवाएँ

रिझाती हैं

और न रिमझिम बरसात

मन को लुभाती है।

 

एक ख़ौफ़ में जीते हैं

डरे-डरे से।

नये-नये नाम

फिर से डराने लगे हैं

हम अन्दर ही अन्दर

घबराने लगे हैं।

द्वार फिर बन्द होने लगे हैं

बाहर निकलने से डरने लगे हैं,

आशाओं-आकांक्षाओं के दम

घुटने लगे हैं

हम पिंजरों के जीव

बनने लगे हैं।

 

 

 

काश ! ऐसा हो जाये

सोचती हूं,

पर पहले ही बता दूं

कि जो मैं सोचती हूं

वह आपकी दृष्टि में

ठीक नहीं होगा,

किन्तु अपनी सोच को

रोक तो नहीं सकती,

और मेरी सोच पर

आप रोक लगा नहीं सकते,

और आपको बिना बताये

मैं रह भी नहीं सकती।

कितना अच्छा हो

कि संविधान में

नियम बन जाये

कि एक वेशभूषा

एक रंग और एक ही ढंग

जैसे विद्यालयों में बच्चों की

यूनिफ़ार्म।

फिर हाथ सामने जोड़ें

माथा टेकें

अथवा आकाश को पुकारें

कहीं कुछ अलग-सा

महसूस नहीं होगा,

चाहे तुम मुझे धूप से बचाओ

या मैं तुम्हें

वर्षा में भीगने के लिए खींच लूं

कोई गलत अर्थ नहीं निकालेगा,

कोई थोथी भावुकता नहीं परोसेगा

और शायद न ही कोई

आरोप जड़ेगा।

चलो,

आज बाज़ार चलकर

एक-सा पहनावा बनवा लें।

चलोगे क्या ??????

 

बस एक हिम्मत की चाह

जीवन बोझ-सा

समस्याएं नाग-सी

तब चाहिए

तुम्हारा साथ

हाथ पकड़ा है

मैं तुम्हें समस्याओं से बचाउं

तुम मेरे साथ

तो जीवन भी बोझ-सा नहीं

बस एक हिम्मत की चाह

होंगे हम साथ-साथ