दो चाय पिला दो
प्रात की नींद से न अच्छा समय कोई
दो चाय पिला दो आपसे अच्छा न कोई
मोबाईल की टन-टन न हमें जगा पाये
कुम्भकरण से कम न जाने हमें कोई
जो मिला बस उसे संवार
कहते हैं जीवन छोटा है, कठिनाईयां भी हैं और दुश्वारियां भी
किसका संग मिला, कौन साथ चला, किसने निभाई यारियां भी
आते-जाते सब हैं, पर यादों में तो कुछ ही लोग बसा करते हैं
जो मिला बस उसे संवार, फिर देख जीवन में हैं किलकारियां भी
मन के भाव देख प्रेयसी
रंग रूप की ऐसी तैसी
मन के भाव देख प्रेयसी
लीपा-पोती जितनी कर ले
दर्पण बोले दिखती कैसी
नादानियां भी आप ही तो कर रहे हैं हम
बाढ़ की विभीषिका से देखो डर रहे हैं हम
नादानियां भी आप ही तो कर रहे हैं हम
पेड़ काटे, नदी बांधी, जल-प्रवाह रोक लिए
आफ़त के लिए सरकार को कोस रहे हैं हम
पर मूर्ख बहुत था रावण
कहते हैं दुराचारी था, अहंकारी था, पर मूर्ख बहुत था रावण
बहन के मान के लिए उसने दांव पर लगाया था सिंहासन
जानता था जीत नहीं पाउंगा, पर बहन का मान रखना था उसे
अपने ही कपटी थे, जानकर भी, दांव पर लगाया था सिंहासन
चल आगे बढ़ जि़न्दगी
भूल-चूक को भूलकर, चल आगे बढ़ जि़न्दगी
अच्छा-बुरा सब छोड़कर, चल आगे बढ़ जि़न्दगी
हालातों से कभी-कभी समझौता करना पड़ता है
बदले का भाव छोड़कर, चल आगे बढ़ जि़न्दगी
द्वार पर सांकल लगने लगी है
उत्सवों की चहल-पहल अब भीड़ लगने लगी है
अपनों की आहट अब गमगीन करने लगी है
हवाओं को घोटकर बैठते हैं सिकुड़कर हम
कोई हमें बुला न ले, द्वार पर सांकल लगने लगी है
ज़रा-ज़रा-सी बात पर
ज़रा-ज़रा-सी बात पर यूं ही विश्वास चला गया
फूलों को रौंदते, कांटों को सहेजते चला गया
काश, कुछ ठहर कर कही-अनकही सुनी होती
हम रूके नहीं,सिखाते-सिखाते ज़माना चला गया
खालीपन का एहसास
घर के आलों में
दीवारों में,
कहीं कोनों में,
पुरानी अलमारियों में,
पुराने कपड़ों की तहों में
छिपाकर रखती रही हूं
न जाने कितने एहसास,
तह-दर-तह
समेटकर रखे थे मैंने
बेमतलब, बेवजह।
सर्दी-गर्मी,
होली-दीपावली पर
जब साफ़-सफ़ाई
होती है घर में,
सबसे पहले,
सब, एक होकर
उनकी ही छंटाई में लग जाते हैं,
कितना बेकार कचरा जमा कर रखा है घर में।
कितनी जगह रूकी है
इनकी वजह से,
कब काम आता है ये सब,
पूछते हैं सब मुझसे।
मेरे पास कोई उत्तर नहीं होता कभी भी।
इसे मेरा समर्पण मानकर
मुझसे पूछे बिना
छंटाई हो जाती है।
घर में जगह बन जाती है।
मैं अपने भीतर भी
एक खालीपन का एहसास करती हूं
पर वहां कुछ नया जमा नहीं पाती।
ठेस लगती है कभी
ठेस लगती है कभी, टूटता है कुछ, बता पाते नहीं।
आंख में आंसू आते हैं, किससे कहें, बह पाते नहीं।
कभी किसी को दिखावा लगे, कोई कहे निर्बलता ।
बार-बार का यह टकराव कई बार सह पाते नहीं।
अकारण क्यों हारें
राहों में आते हैं कंकड़-पत्थर, मार ठोकर कर किनारे।
न डर किसी से, बोल दे सबको, मेरी मर्ज़ी, हटो सारे।
जो मन चाहेगा, करें हम, कौन, क्यों रोके हमें यहां।
कर्म का पथ कभी छोड़ा नहीं, फिर अकारण क्यों हारें।
अपना ही साथ हो
उम्र के इस पड़ाव पर
अनजान सुनसान राहों पर
जब नहीं पाती हूं
किसी को अपने आस पास
तब अपनी ही प्रतिकृति तराशती हूं ।
मन का कोना कोना खोलती हूं उसके साथ।
बालपन से अब तक की
कितनी ही यादें और कितनी ही बातें
सब सांझा करती हूं इसके साथ।
लौट आता है मेरा बचपना
वह अल्हड़पन और खुशनुमा यादें
वो बेवजह की खिलखिलाहटें
वो क्लास में सोना
कंचे और गोटियां, सड़क पर बजाई सीटियां
छत की पतंग
आमपापड़ और खट्टे का स्वाद
पुरानी कापियां देकर
चूरन और रेती खाने की उमंग
गुल्लक से चुराए पैसे
फिल्में देखीं कैसे कैसे
टीचर की नकल, उनके नाम
और पता नहीं क्या क्या
अब सब तो बताया नहीं जा सकता।
यूं ही
खुलता है मन का कोना कोना।
बांटती हूं सब अपने ही साथ।
जिन्हें किसी से बांटने के लिए तरसता था मन
अपना ही हाथ पकड़कर आगे बढ़ जाती हूं
नये सिरे से।
यूं ही डरती थी, सहमी थी।
अब जानी हूं
ज़िन्दगी को पहचानी हूं।
विचलित करती है यह बात
मां को जब भी लाड़ आता है
तो कहती है
तू तो मेरा कमाउ पूत है।
पिता के हाथ में जब
अपनी मेहनत की कमाई रखती हूं
तो एक बार तो शर्म और संकोच से
उनकी आंखें डबडबा जाती हैं
फिर सिर पर हाथ फेरकर
दुलारते हुए कहते हैं
मुझे बड़ा नाज़ है
अपने इस होनहार बेटे पर।
किन्तु
मुझे विचलित करती है यह बात
कि मेरे माता पिता को जब भी
मुझ पर गर्व होता है
तो वे मुझे
बेटा कहकर सम्बोधित क्यों करते हैं
बेटी मानकर गर्व क्यों नहीं कर पाते।
नई शुरूआत
जो मैं हूं
वैसा सब मुझे जान नहीं पाते
और जैसा सब मुझे जान पाते हैं
वह मैं बन नहीं पाती।
बार बार का यह टकराव
हर बार हताश कर जाता है मुझे
फिर साथ ही उकसा जाता है
एक नई शुरूआत के लिए।।।।।।।।।।।
खेल फिर शुरू हो जाता है
कभी कभी, समझ नहीं पाती हूं
कि मैं
आतंकित होकर चिल्लती हूं
या आतंक पैदा करने के लिए।
तुमसे डरकर चिल्लती हूं
या तुम्हें डराने के लिए।
लेकिन इतना जानती हूं
कि मेरे भीतर एक डर है
एक औरत होने का डर।
और यह डर
तुम सबने पैदा किया है
तुम्हारा प्यार, तुम्हारी मनुहार
पराया सा अपनापन
और तुम्हारी फ़टकार
फिर मौके बे मौके
उपेक्षा दर्शाता तुम्हारा तिरस्कार
निरन्तर मुझे डराते रहते हैं।
और तुम , अपने अलग अलग रूपों में
विवश करते रहते हो मुझे
चिल्लाते रहने के लिए।
फिर एक समय आता है
कि थककर मेरी चिल्लाहट
रूदन में बदल जाती है।
और तुम मुझे
पुचकारने लगते हो।
*******
खेल, फिर शुरू हो जाता है।
घुमक्कड़ हो गया है मन
घुमक्कड़ हो गया है मन
बिन पूछे बिन जाने
न जाने
निकल जाता है कहां कहां।
रोकती हूं, समझाती हूं
बिठाती हूं , डराती हूं, सुलाती हूं।
पर सुनता नहीं।
भटकता है, इधर उधर अटकता है।
न जाने किस किस से जाकर लग जाता है।
फिर लौट कर
छोटी छोटी बात पर
अपने से ही उलझता है।
सुलगता है।
ज्वालामुखी सा भभकता है।
फिर लावा बहता है आंखों से।
मेरे देश को रावणों की ज़रूरत है
मेरे देश को रावणों की ज़रूरत है।
चौराहे पर रीता, बैठक में मीता
दफ्तर में नीता, मन्दिर में गीता
वन वन सीता,
कहती है
रावण आओ, मुझे बचाओ
अपहरण कर लो मेरा
अशोक वाटिका बनवाओ।
ऋषि मुनियों की, विद्वानों की
बलशाली बाहुबलियों की
पितृभक्तों-मातृभक्तों की
सत्यवादी, मर्यादावादी, वचनबद्धों की
अगणित गाथाएं हैं।
वेद-ज्ञाता, जन-जन के हितकारी
धर्मों के नायक और गायक
भीष्म प्रतिज्ञाधारी, राजाज्ञा के अनुचारी
धर्मों के गायक और नायक
वचनों से भारी।
कर्म बड़े हैं, धर्म बड़े हैं
नियम बड़े हैं, कर्म बड़े हैं।
नाक काट लो, देह बांट लो
संदेह करो और त्याग करो।
वस्त्र उतार लो, वस्त्र चढ़ा दो।
श्रापित कर दो, शिला बना दो।
मुक्ति दिला दो। परीक्षा ले लो।
कथा बना लो।चरित्र गिरा दो।
देवी बना दो, पूजा कर लो
विसर्जित कर दो।
हरम सजा लो, भोग लगा लो।
नाच नचा लो, दुकान सजा लो।
भाव लगा लो। बेचो-बेचो और खरीदो।
बलात् बिठा लो, बलात् भगा लो।
मूर्ख बहुत था रावण।
जीत चुका था जीवन ,हार चुकी थी मौत।
विश्व-विजेता, ज्ञानी-ध्यानी
ऋद्धि-सिद्धि का स्वामी।
न चेहरा देखा, न स्पर्श किया।
पत्नी बना लूं, हरम सजा लूं
दासी बना लूं
बिना स्वीकृति कैसे छू लूं
सोचा करता था रावण।
मूर्ख बहुत था रावण।
सुरक्षा दी, सुविधाएं दी
इच्छा पूछी, विनम्र बना था रावण।
दूर दूर रहता था रावण।
मूर्ख बहुत था रावण।
धर्म-विरोधी, काण्ड-विरोधी
निर्मम, निर्दयी, हत्यारा,
असुर बुद्धि था रावण।
पर औरत को औरत माना
मूर्ख बहुत था रावण।
अपमान हुआ था एक बहन का
था लगाया दांव पर सिहांसन।
राजा था, बलशाली था
पर याचक बन बैठा था रावण
मूर्ख बहुत था रावण।
एक बोध कथा
बचपन में
एक बोध कथा पढ़ाई जाती थी:
आंधी की आहट से आशंकित
घास ने
बड़े बड़े वृक्षों से कहा
विनम्रता से झुक जाओ
नहीं तो यह आंधी
तुम्हें नष्ट कर देगी।
वृक्ष सुनकर मुस्कुरा दिये
और आकाश की ओर सिर उठाये
वैसे ही तनकर खड़े रहे।
आंधी के गुज़र जाने के बाद
घास मुस्कुरा रही थी
और वृक्ष धराशायी थे।
किन्तु बोध कथा के दूसरे भाग में
जो कभी समझाई नहीं गई
वृक्ष फिर से उठ खड़े हुए
अपनी जड़ों से
आकाश की ओर बढ़ते हुए
एक नई आंधी का सामना करने के लिए
और झुकी हुई घास
सदैव पैरों तले रौंदी जाती रही।
दो घूंट
छोड़ के देख
एक बार
बस एक बार
दो घूंट
छोड़ के देख
दो घूंट का लालच।
शाम ढले घर लौट
पर छोड़ के
दो घूंट का लालच।
फिर देख,
पहली बार देख
महकते हैं
तेरी बगिया में फूल।
पर एक बार
बस एक बार
छोड़ के देख
दो घूंट का लालच।
देख
फिर देख
जिन्दगी उदास है।
द्वार पर टिकी
एक मूरत।
निहारती है
सूनी सड़क।
रोज़
दो आंखें पीती हैं।
जिन्हें, देख नहीं पाता तू।
क्योंकि
पी के आता है
तू
दो घूंट।
डरते हैं,
रोते भी हैं
फूल।
और सहमकर
बेमौसम ही
मुरझा भी जाते हैं ये फूल।
कैसे जान पायेगा तू ये सब
पी के जो लौटता है
दो घूंट।
एक बार, बस एक बार
छोड़ के देख दो घूंट।
चेहरे पर उतर आयेगी
सुबह की सुहानी धूप।
बस उसी रोज़, बस उसी रोज़
जान पायेगा
कि महकते ही नहीं
चहकते भी हैं फूल।
जिन्दगी सुहानी है
हाथ की तेरे बात है
बस छोड़ दे, बस छोड़ दे
दो घूंट।
बस एक बार, छोड़ के देख
दो घूंट का लालच ।
आंख को धुंधला अहं भी कर देता है
लोग, अंधेरे से घबराते हैं
मुझे, उजालों से डर लगता है।
प्रकाश देखती हूं
मन घबराने लगता है
सूरज निकलता है
आंखें चौंधिया जाती हैं
ज़्यादा रोशनी
आंख को अंधा कर देती है।
फिर
पैर ठोकर खाने लगते हैं,
गिर भी सकती हूं,
चोट भी लग सकती है,
और जान भी जा सकती है।
किन्तु जब अंधेरा होता है,
तब आंखें फाड़-फाड़ कर देखने का प्रयास
मुझे रास्ता दिखाने लगता है।
गिरने का भय नहीं रहता।
और उजाले की अपेक्षा
कहीं ज़्यादा दिखाई देने लगता है।
आंखें
अभ्यस्त हो जाती हैं
नये-नये पथ खोजने की
डरती नहीं
पैर भी नहीं डगमगाते
वे जान जाते हैं
आगे अवरोध ही होंगे
पत्थर ही नहीं, गढ्ढे भी होंगे।
पर अंधेरे की अभ्यस्त आंखें
प्रकाश की आंखों की तरह
चौंधिया नहीं जातीं।
राहों को तलाशती
सही राह पहचानतीं
ठोकर खाकर भी आगे बढ़ती हैं
प्रकाश की आंखों की तरह
एक अहं से नहीं भर जातीं।
आंख को धुंधला
केवल आंसू ही नहीं करते
अहं भी कर देता है।
वैसे मैं तुम्हें यह भी बता दूं
कि ज़्यादा प्रकाश
आंख के आगे अंधेरा कर देता है
और ज़्यादा अंधेरा
आंख को रोशन
अत:
मैं रोशनी का अंधापन नहीं चाहती
मुझे
अंधेरे की नज़र चाहिए
जो रात में दिन का उजाला खोज सके
जो अंधेरे में
प्रकाश की किरणें बो सके
और प्रकाश के अंधों को
अंधेरे की तलाश
और उसकी पहचान बता सके।
हादसा
यह रचना मैंने उस समय लिखी थी जब 1987 में चौधरी चरण सिंह की मृत्यु हुई थी और उसी समय लालडू में दो बसों से उतारकर 43 और 47 सिखों को मौत के घाट उतार दिया था।)
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भूचाल, बाढ़, सूखा।
सामूहिक हत्याएं, साम्प्रदायिक दंगे।
दुर्घटनाएं और दुर्घटनाएं।
लाखों लोग दब गये, बह गये, मर गये।
बचे घायल, बेघर।
प्रशासन निर्दोष। प्राकृतिक प्रकोप।
खानदानी शत्रुता। शरारती तत्व।
विदेशी हाथ।
सरकार का कर्त्तव्य
आंकड़े और न्यायिक जांच।
पदयात्राएं, आयोग और सुझाव।
चोट और मौत के अनुसार राहत।
विपक्षी दल
बन्द का आह्वान।
फिर दंगे, फिर मौत।
सवा सौ करोड़ में
ऐसी रोज़मर्रा की घटनाएं
हादसा नहीं हुआ करतीं।
हादसा तब हुआ
जब एक नब्बे वर्षीय युवा,
राजनीति में सक्रिय
स्वतन्त्रता सेनानी
सच्चा देशभक्त
सर्वगुण सम्पन्न चरित्र
असमय, बेमौत चल बसा
अस्पताल में
दस वर्षों की लम्बी प्रतीक्षा के बाद।
हादसा ! बस उसी दिन हुआ।
देश शोक संतप्त।
देश का एक कर्णधार कम हुआ।
हादसे का दर्द
बड़ा गहरा है
देश के दिल में।
क्षतिपूर्ति असम्भव।
और दवा -
सरकारी अवकाश,
राजकीय शोक, झुके झण्डे
घाट और समाधियां,
गीता, रामायण, बाईबल, कुरान, ग्रंथ साहिब
सब आकाशवाणी और दूरदर्शन पर।
अब हर वर्ष
इस हादसे का दर्द बोलेगा
देश के दिल में
नारों, भाषणों, श्रद्धांजलियों
और शोक संदेशों के साथ।
ईश्वर उनकी दिवंगत आत्मा को
शांति देना।
कहते हैं जब जागो तभी सवेरा
कहते हैं जब जागो तभी सवेरा, पर ऐसा कहां हो पाता है
आधे टूटे-छूटे सपनों से जीवन-भर न पीछा छूट पाता है
रात और दिन के अंधेरे-उजियारे में उलझा रहता है मन
सपनों की गठरी रिसती है यह मन कभी समझ न पाता
किसके हाथ में डोर है
नगर नगर में शोर है यहां गली-गली में चोर है
मुंह ढककर बैठे हैं सारे, देखो अन्याय यह घोर है
समझौते की बात हुई, कोई किसी का नाम न ले
धरने पर बैठै हैं सारे, ढूंढों किसके हाथ में डोर है
होगा कैसे मनोरंजन
कौन कहे ताक-झांक की आदत बुरी, होगा कैसे मनोरंजन
किस घर में क्या पकता, नहीं पता तो कैसे मानेगा मन
अपने बर्तन-भांडों की खट-पट चाहे सुनाये पूरी कथा
औरों की सीवन उधेड़ कर ही तो मिलता है चैन-अमन
सर्वगुण सम्पन्न कोई नहीं होता
जान लें हम सर्वगुण सम्पन्न तो यहां कोई नहीं होता
अच्छाई-बुराई सब साथ चले, मन यूं ही दुख में रोता
राम-रावण जीवन्त हैं यहां, किस-किस की बात करें
अन्तद्र्वन्द्व में जी रहे, नहीं जानते, कौन कहां सजग होता
राम से मैंने कहा
राम से मैंने कहा, लौटकर न आना कभी इस धरा पर किसी रूप में।
सीता, लक्ष्मण, सुग्रीव, हनुमान, उर्मिला नहीं मिलेंगें किसी रूप में।
किसने अपकर्म किया, किसे दण्ड मिला, कुछ तो था जो सालता है,
वही पुरानी लीक पीट रहे, सोच-समझ पर भारी धर्मान्धता हर रूप में
रूठकर बैठी हूं
रूठकर बैठी हूं
कभी तो मनाने आओ।
आज मैं नहीं,
तुम खाना बनाओ।
फिर चलेंगे सिनेमा
वहां पापकार्न खिलाओ।
चप्पल टूट गई है मेरी
मैंचिंग सैंडल दिलवाओ।
चलो, इसी बात पर आज
आफ़िस से छुट्टी मनाओ।
अरे!
मत डरो,
कि काम के लिए कह दिया,
चलो फिर,
बस आज बाहर खाना खिलाओ।
इक फूल-सा ख्वाबों में
जब भी
उनसे मिलने को मन करता है
इक फूल-सा ख्वाबों में
खिलता नज़र आता है।
पतझड़ में भी
बहार की आस जगती है
आकाश गंगा में
फूलों का झरना नज़र आता है।
फूल तो खिले नहीं
पर जीवन-मकरन्द का
सौन्दर्य नज़र आता है।
तितलियों की छोटी-छोटी उड़ान में
भावों का सागर
चांद पर टहलता नज़र आता है।
चिड़िया की चहक में
न जाने कितने गीत बजते हैं
उनके मिलन की आस में
मन गीत गुनगुनाता नज़र आता है।
सांझ ढले
जब मन स्मृतियों के साये में ढलता है
तब लुक-छुप करती रंगीनियों में
मन बहकता नज़र आता है।
जब-जब तेरी स्मृतियों से
बच निकलने की कोशिश की
मन बहकता-सा नज़र आता है।
कौन से रिश्ते अपने, कौन से पराये
हम रह-रहकर मरम्मत करवाते रहे
लोग टूटी छतें आजमाते रहे।
दरारों से झांकने में
ज़माने को बड़ा मज़ा आता है
मौका मिलते ही दीवारें तुड़वाते रहे।
छत तक जाने के लिए
सीढ़ियां चिन दी
पर तरपाल डालने से कतराते रहे।
कब आयेगी बरसात, कब उड़ेंगी आंधियां
ज़िन्दगी कभी बताती नहीं है
हम यूं ही लोगों को समझाते रहे।
कौन से रिश्ते अपने, कौन से पराये
उलझते रहे हम यूं ही इन बातों में
पतंग के उलझे मांझे सुलझाते रहे
अपनी उंगलियां यूं ही कटवाते रहे।
जीवन कोई विवाद नहीं
जीवन में डर का भाव
कभी-कभी ज़रूरी होता है,
शेर के पिंजरे के आगे
शान दिखाना तो ठीक है,
किन्तु खुले शेर को ललकारना
पता नहीं क्या होता है!
जीवन में दो कदम
पीछे लेना
सदा डर नहीं होता।
जीवन कोई विवाद नहीं
कि हम हर बात का मुद्दा बनाएं,
कभी-कभी उलझने से
बेहतर होता है
पीछे हट जाना,
चाहे कोई हमें डरपोक बताए।
जीवन कोई तर्क भी नहीं
कि हम सदा
वाद-विवाद में उलझे रहें
और जीवन
वितण्डावाद बनकर रह जाये।
शत्रु से बचकर मैदान छोड़ना
सदा डर नहीं होता,
जान बचाकर भागना
सदा कायरता नहीं होती,
नयी सोच के लिए,
राहें उन्मुक्त करने के लिए,
बचाना पड़ता है जीवन,
छोड़नी पड़ती हैं राहें,
किसी अपने के लिए,
किसी सपने के लिए,
किन्हीं चाहतों के लिए।
फिर आप इसे डर समझें,
या कायरता
आपकी समझ।