कलश तेरी माया अद्भुत है

 

कलश तेरी माया अद्भुत है, अद्भुत है तेरी कहानी।

माटी से निर्मित, हमें बताता जीवन की पूरी कहानी।

जल भरकर प्यास बुझाता, पूजा-विधि तेरे बिना अधूरी,

पर, अंतकाल में कलश फूटता, बस यही मेरी कहानी।

क्रांति

क्रांति उस चिड़िया का नाम है

जिसे नई पीढ़ी ने जन्म दिया।

पुरानी पीढ़ी उसके पैदा होते ही

उसके पंख काट देना चाहती है।

लेकिन नई पीढ़ी उसे उड़ना सिखाती है।

जब वह उड़ना सीख जाती है

तो पुरानी पीढ़ी

उसके लिए,

एक सोने का पिंजरा बनवाती है

और यह कहकर उसे कैद कर लेती है

कि नई पीढ़ी तो उसे मार ही डालती।

यह तो उसकी सुरक्षा सुविधा का प्रबन्ध है।

 

वर्षों बाद

जब वह उड़ना भूल जाती है

तो पिंजरा खोल दिया जाता है

क्योंकि

अब तक चिड़िया उड़ना भूल गई है

और सोने का मूल्य भी बढ़ गया है

इसलिए उसे बेच दिया जाता हे

नया लोहे का लिया जाता है

जिसमें नई पीढ़ी को

इस अपराध में बन्द कर दिया जाता है

आजीवन

कि उसने हमें खत्म करने,

मारने का षड्यन्त्र रचा था

हत्या करनी चाही थी हमारी।

जब प्रेम कहीं से मिलता है

अनबोले शब्दों की चोटें

भावों को ठूंठ बना जाती हैं।

कब रस-पल्लव झड़ गये

जान नहीं पाते हैं।

जब प्रेम कहीं से मिलता है,

तब मन कोमल कोंपल हो जाता है।

रूखे-रूखे भावों से आहत,

मन तरल-तरल हो जाता है।

बिखरे सम्बन्धों के तार कहीं जुड़ते हैं।

जीवन हरा-भरा हो जाता है।

मुस्काते हैं कुछ नव-पल्ल्व,

कुछ कलियां करवट लेती हैं,

जीवन इक खिली-खिली

बगिया-सा हो जाता है।

    

यह दिल की बात है

कभी दिल है

कभी दिलदार होगा

बादलों में

यूं हमारा नाम होगा

कभी होती है झड़ी

कभी चांद का रोब-दाब होगा

देखो , झांकती है रोशनी

कहती है दिलदार से

दीदार होगा

कभी टूटते हैं

कभी जुड़ते हैं दिल

इस बात का भी

कोई तो जवाबदार होगा

ज़रा-सी आह से

पिघल जाते हैं,

ऐसे दिल से दिल लगाकर,

कौन-सा सरोकार होगा

बदलते मौसम के आसार हैं ये

न दिल लगा

नहीं तो बुरा हाल होगा

 

आज हम जीते हैं अपने हेतु बस अपने हेतु

मंदिरों की नींव में

निहित होती हैं हमारी आस्थाएं।

द्वार पर विद्यमान होती हैं

हमारी प्रार्थनाएं।

प्रांगण में विराजित होती हैं

हमारी कामनाएं।

और गुम्बदों पर लहराती हैं

हमारी सदाएं।

हम पत्थरों को तराशते हैं।

मूर्तियां गढ़ते हैं।

रंगरूप देते हैं।

सौन्दर्य निरूपित करते हैं।

नेह, अपनत्व, विश्वास और श्रद्धा से

श्रृंगार करते हैं उनका।

और उन्हें ईश्वरीय प्रतिष्ठा प्रदान करते हैं।

करते करते कर लिए हमने

चौरासी करोड़ देवी देवता।

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समय प्रवाह में मूत्तियां खण्डित होने लगती हैं

और खण्डित मू्र्तियों की पूजा का विधान नहीं है।

खण्डित मू्र्तियों को तिरोहित कर दिया जाता है

कहीं जल प्रवाह में।

और इन खण्डित होती मू्र्तियों के साथ ही

तिरोहित होने लगती हैं

हमारी आस्थाएं, विश्वास, अपनत्व और नेह।

श्रद्धा और विश्वास अंधविश्वास हो गये।

आस्थाएं विस्थापित होने लगीं

प्रार्थनाएं बिखरने लगीं

सदाएं कपट हो गईं

और मन मन्दिर ध्वस्त हो गये।

उलझने लगे हम, सहमने लगे हम,

डरने लगे हम, बिखरने लगे हम,

अपनी ही कृतियों से, अपनी ही धर्मिता से

बंटनेबांटने लगे हम।

और आज हम जीते हैं अपने हेतु

बस अपने हेतु।

 

उधारों पर दुनिया चलती है

सिक्कों का अब मोल कहाँ

मिट्टी से तो लगते हैं।

पैसे की अब बात कहाँ

रंगे कार्ड-से मिलते हैं।

बचत गई अब कागज़ में

हिसाब कहाँ अब मिलते हैं।

खन-खन करते सिक्के

मुट्ठी में रख लेते थे।

पाँच-दस पैसे से ही तो

नवाब हम हुआ करते थे।

गुल्लक कब की टूट गई

बचत हमारी गोल हुई।

मंहगाई-टैक्सों की चालों से

बुद्धि हमारी भ्रष्ट हुई।

पैसे-पैसे को मोहताज हुए,

किससे मांगें, किसको दे दें।

उधारों पर दुनिया चलती है

शान इसी से बनती है।

 

अपने  विरूद्ध अपनी मौत का सामान लिए

उदार-अनुदार, सहिष्णुता-असहिष्णुता जैसे शब्दों का अब कोई अर्थ नहीं मिलता

हिंसा-अहिंसा, दया-दान, अपनत्व, धर्म, जैसे शब्दों को अब कोई भाव नहीं मिलता

जैसे सब अस्त्र-शस्त्र लिए खड़े हैं अपने ही विरूद्ध अपनी ही मौत का सामान लिए

घोटाले, झूठ, छल, फ़रेब, अपराध, लूट, करने वालों को अब तिरस्कार नहीं मिलता

 

द्वार पर सांकल लगने लगी है

उत्‍सवों की चहल-पहल अब भीड़ लगने लगी है

अपनों की आहट अब गमगीन करने लगी है

हवाओं को घोटकर बैठते हैं सिकुड़कर हम

कोई हमें बुला न ले, द्वार पर सांकल लगने लगी है

प्रभास है जीवन

हास है, परिहास है, विश्वास है जीवन

हर दिन एक नया प्रयास है जीवन

सूरज भी चंदा के पीछे छिप जाता है,

आप मुस्कुरा दें तो तो प्रभास है जीवन

अलगाव

द्वंद्व में फ़ंसी मै सोचती हूं,

मैं और तुम कितने एक हैं,

पर दो भी हैं।

शायद इसीलिए एक हैं।

नहीं ! शायद

एक होने के लिए दो हैं।

पहले एक हैं या पहले दो ?

एक ज़्यादा हैं या दो ?

या केवल एक ही हैं,

या केवल दो ही।

इस एक और दो के

द्वंद्व के बीच,

कहीं मैंने जाना,

कि हम

न एक रह गये हैं

न ही दो।

हम दोनों

एक-एक हो गये हैं।

 

हर दिन जीवन

जीवन का हर पल

अनमोल हुआ करता है

कुछ कल मिला था,

कुछ आज चला है

न जाने कितने अच्छे पल

भवितव्य में छिपे बैठे हैं

बस आस बनाये रखना

हर दिन खुशियां लाये जीवन में

एक आस बनाये रखना

मत सोचना कभी

कि जीवन घटता है।

बात यही कि

हर दिन जीवन

एक और,

एक और दिन का

सुख देता है।

फूलों में, कलियों में,

कल-कल बहती नदियों में

एक मधुर संगीत सुनाई देता है

प्रकृति का कण-कण

मधुर संगीत प्रवाहित करता है।

 

रेखाएं बोलती हैं

घर की सारी

खिड़कियां-दरवाज़े

बन्द रखने पर भी

न जाने कहां से

धूल आ पसरती है

भीतर तक।

जाने-अनजाने

हाथ लग जाते हैं।

शीशों पर अंगुलियां घुमाती हूं,

रेखाएं खींचती हूं।

गर्द बोलने लगती है,

आकृतियों में, शब्दों में।

गर्द उड़ने लगती है

आकृतियां और शब्द

बदलने लगते हैं।

एक साफ़ कपड़े से

अच्छे से साफ़ करती हूं,

किन्तु जहां-तहां

कुछ लकीरें छूट जाती हैं

और फिर आकृतियां बनने लगती हैं,

शब्द घेरने लगते हैं मुझे।

अरे!

डरना क्या!

इसी बात पर मुस्कुरा देने में क्या लगता है।

 
 

एक साल और मिला

अक्सर एक एहसास होता है

या कहूं

कि पता नहीं लग पाता

कि हम नये में जी रहे हैं

या पुराने में।

दिन, महीने, साल

यूं ही बीत जाते हैं,

आगे-पीछे के

सब बदल जाते हैं

किन्तु हम अपने-आपको

वहीं का वहीं

खड़ा पाते हैं।

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अंगुलियों पर गिनती रही दिन

कब आयेगा वह एक नया दिन

कब बीतेगा यह साल

और सब कहेंगे

मुबारक हो नया साल

बहुत-सी शुभकामनाएं

कुछ स्वाभाविक, कुछ औपचारिक।

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वह दिन भी

आकर बीत गया

पर इसके बाद भी

कुछ नहीं बदला

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कोई बात नहीं,

नहीं बदला तो न सही।

पर  चलो

एक दिन की ही

खुशियां बटोर लेते हैं

और खुशियां मनाते हैaa

कि एक साल और मिला

आप सबके साथ जीने के लिए।

   

 

वक्त कहां किसी का

वक्‍त को

जब मैं वक्‍त नहीं दे पाई

तो वह कहां मेरा होता ।

कहा मेरे साथ चल, हंस दिया।

कहा, ठहर ज़रा,

मैं तैयार तो हो लूं  

साथ तेरे चलने के लिए,

उपहास किया मेरा।

 

कौन-सा विषय चुनूँ

यह दुनिया है। आप कहेंगे कि आपको पता है कि यह दुनिया है। किन्तु बहुत बार ऐसा होता है कि हमें वह भी स्मरण करना पड़ता है जो है, जो दिखाई देता है, सुनाई देता है, चुभता है, चीखता है अथवा जो हम जानते हैं। क्योंकि सत्य का सामना करने में बहुत जोखिम होते हैं, उलझनें, समस्याएँ होती हैं। इस कारण इसे हम नकारते हैं और बस अपना राग अलापते हैं। क्या सच में ही आपके आस-पास कोई हलचल, खलबली, हंगामा, उपद्रव, उथल-पुथल, सनसनी, आन्दोलन नहीं है ? आस-पास, आपके परिवेश में, सड़क पर, समाचार-पत्रों से मिल रहे ज्ञान से, मीडिया से मिलने वाले समाचारों से, न जाने कितने विषय हैं जो हमारे आस-पास तैरते रहते हैं किन्तु हम उन्हें नकारते रहते हैं।

ऐसा तो नहीं हो सकता, कुछ तो होगा और अवश्य होगा। और हम जो तथाकथित कवि अथवा साहित्यकार कहलाते हैं या अपने को ऐसा समझते हैं तो हम ज़्यादा भावुक और संवेदनशील कहलातेे हैं। फिर हमें आज ऐसी आवाज़ें क्यों सुनाई नहीं दे रहीं। सबसे बड़ी समस्या यह कि यदि हम भुक्तभोगी भी होते हैं तब भी ऐसी बात कहने से, अथवा खुली चर्चा से डरने लगे हैं।

 कुछ बने-बनाये विषय हैं आज हमारे पास लेखन के लिए। सबसे बड़ा विषय नारी है, बेचारी है, मति की मारी है, संस्कारी है, लेकिन है बुरी। या तो गंवार है अथवा आधुनिका, किन्तु दोनों ही स्थितियों में वह सामान्य नहीं है।  भ्रूण हत्या है, बेटी है, निर्धनता है आदि-आदि। कहीं बहू बुरी है तो कहीं सास। कहीं दोनों ही। बेटा कुपूत है।  बुरे बहू-बेटा हैं, कुपूत हैं, माता-पिता के धन के लालची हैं, उनकी सेवा न करने वाले बुरे बच्चे हैं। उनकी सम्पत्ति पर नज़र रखे हैं।जितने पति हैं सब पत्नियों के गुलाम हैं। उनके कहने से अपने माता-पिता की सेवा नहीं करते उन्हें वृद्धाश्रम भेज देते हैं।  और जब यह सब चुक जाये तो हम अत्यन्त आस्तिक हैं और इस विषय पर हम अबाध अपनी कलम चला सकते हैं।  विशेषकर फ़ेसबुक का सारा कविता संसार इन्हीं विषयों से घिरा हुआ है। मुझे क्यों आपत्ति? मुझे नहीं आपत्ति। मैं भी तो आप सबके साथ ही हूँ।

सोचती हूँ आज इनमें से कौन-सा विषय चुनूँ कि रचना नवीन प्रतीत हो।

  

कंधों पर सिर लिए घूमते हैं

इस रचना में पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग किया गया है, पर्यायवाची शब्दों में भी अर्थ भेद होता है, इसी अर्थ भेद के कारण मुहावरे बनते हैं, ऐसा मैं समझती हूं, इसी दृष्टि से इस रचना का सृजन हुआ है

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सुनते हैं

अक्ल घास चरने गई है

मति मारी गई है

और समझ भ्रष्ट हो गई है

विवेक-अविवेक का अन्तर

भूल गये हैं

और मनीषा, प्रज्ञा, मेधा 

हमारे ऋषि-मुनियों की

धरोहर हुआ करती थीं

जिन्हें हम सम्हाल नहीं पाये

अपनी धरोहर को।

 बुद्धि-विवेक कहीं राह में छूट गये

और हम

यूं ही

कंधों पर सिर लिए घूमते हैं।

 

 

स्थायी समाधान की बात मत करना
हर रोज़ नहीं करते हम

चिन्ता किसी भी समस्या की,

जब तक विकराल न हो जाये।

बात तो करते हैं

किन्तु समाधान ढूँढना

हमारा काम नहीं है।

हाँ, नौटंकी हम खूब

करना जानते हैं।

खूब चिन्ताएँ परोसते हैं

नारे बनाते हैं

बातें बनाते हैं।

ग्रीष्म ऋतु में ही

हमें याद आता है

जल संरक्षण

शीत ऋतु में आप

स्वतन्त्र हैं

बर्बादी के लिए।

जल की ही क्यों,

समस्या हो पर्यावरण की

वृक्षारोपण की बात हो

अथवा वृक्षों को बचाने की

या हो बात

पशु-पक्षियों के हित की

याद आ जाती है

कभी-कभी,

खाना डालिए, पानी रखिए,

बातें बनाईये

और कोई नई समस्या ढूँढिये

चर्चा के लिए।

बस

स्थायी समाधान की बात मत करना।

 

गहरे सागर में डूबे थे

सपनों की सुहानी दुनिया नयनों में तुमने ही बसाई थी

उन सपनों के लिए हमने अपनी हस्ती तक मिटाई थी

गहरे सागर में डूबे थे उतरे थे माणिक मोती के लिए

कब विप्लव आया और कब तुमने मेरी हस्ती मिटाई थी

बुढ़िया सठिया गई है

प्रेम मनुहार की बात करती हूं वो मुझे दवाईयों का बक्सा दिखाता है।

तीज त्योहार पर सोलह श्रृंगार करती हूं वो मुझे आईना दिखाता है।

याद दिलाती हूं वो यौवन के दिन,छिप छिप कर मिलना,रूठना-मनाना ।

कहता है बुढ़िया सठिया गई है, पागलखाने का रास्ता दिखाता है।

सचेत रहना या संदेह करना To
कुछ समय पूर्व मेरी अपनी महिला सहकर्मी से चर्चा हुई फेसबुक मित्रों पर, जो मेरी फेसबुक मित्र भी है। उसने बताया कि उसके फेसबुक मित्रों में केवल परिवार के अथवा पूर्व परिचित लोग ही हैं, कोई भी अपरिचित नहीं है जिसे उसने फेसबुक पर ही मित्र बनाया हो । वाट्सएप, एवं अन्य प्रकार से भी वे उसी दायरे में हैं। मैंने सोचा तो नया क्‍या ।

मैंने बताया कि एक अपने पुत्र, उसके मित्र एवं कुछ महिला मित्रों के अतिरिक्त मेरी मित्र सूची में अधिकांश अपरिचित हैं जिन्हें मैंने फेसबुक पर ही मित्र बनाया है। अलग से उनसे न तो कोई पारिवारिक, मैत्री सम्बन्ध है, न कोई पूर्व परिचय। ऐसे ही कुछ समूहों की भी सदस्य हूं और  वहां भी कोई पूर्व परिचित नहीं है।
आज ज्ञानचक्षु खुले , बात एक ही है।
मेरे संदेश बाक्स में प्रतिदिन लगभग दस मित्रों के सुप्रभात से लेकर शुभरात्रि तक के संदेश प्राप्त् होते थे, जिनका मैं यथासमय उत्तर भी देती हूं। पिछले एक माह से संदेश निरन्तर आ रहे हैं मैं उत्तर नहीं दे पाई, किन्तु। एक भी प्रश्न नहीं हैं, ‘’कहां हैं आप’’।
शिकायत नहीं है किसी से, मैं भी कौन-सा किसी को पूछती हूं।

फिर मैंने और  जानने का प्रयास किया तो जाना कि अधिकांश महिलाओं की मित्र सूची में  परिवार के अथवा पूर्व परिचित लोग ही हैं। अर्थात वे अपने सामाजिक, पारिवारिक जीवन में, मोबाईल, वाट्स एप पर भी उनसे निरन्तर सम्पर्क में हैं और  वे ही फेसबुक पर भी हैं।

फिर फेसबुक पर उनके लिए नया क्या ?

क्या हमें सत्य ही इतना डर कर रहना चाहिए जितना डराया जाता है।

क्यों हम सदैव ही किसी अपरिचित को अविश्वास की दृष्टि से ही देखे ?

जीवन में यदि हम अपरिचितों की उपेक्षा, संदेह, दूरियां ही बनाये रखेंगे तो समाज कैसे चलेगा।

सचेत रहना अलग बात है, अकारण संदेह में रहना अलग बात।

  

बेनाम वीरों को नमन करूं

किस-किस का नाम लूं

किसी-किस को छोड़ दूं

कहां तक गिनूं,

किसे न नमन करूं

सैंकड़ों नहीं लाखों हैं वे

देश के लिए मर मिटे

इन बेनाम वीरों को

क्‍यों न नमन करूं।

कोई घर बैठे कर्म कर रहा था

तो कोई राहों में अड़ा था

किसी के हाथ में बन्‍दूक थी

तो कोई सबके आगे

प्रेरणा-स्रोत बन खड़ा था।

कोई कलम का सिपाही था

तो कोई राजनीति में पड़ा था।

कुछ को नाम मिला

और कुछ बेनाम ही

मर मिटे थे

सालों-साल कारागृह में पड़े रहे,  

लाखों-लाखों की एक भीड़ थी

एक ध्‍वज के मान में

देश की शान में

मर मिटी थी

इसी बेनाम को नमन करूं

इसी बेनाम को स्‍मरण करूं। 

 

उलझनों से भागकर सहज लगता है जीवन

तितलियों संग देखो उड़ता फिरता है मन

चांद-तारो संग देखो मुस्कुराता है गगन

चल कहीं आज किसी के संग बैठें यूं ही

उलझनों से भागकर सहज लगता है जीवन

तुम्हारा अंहकार हावी रहा मेरे वादों पर

जीवन में सारे काम

सदा

जल्दबाज़ी से नहीं होते।

कभी-कभी

प्रतीक्षा के दो पल

बड़े लाभकारी होते हैं।

बिगड़ी को बना देते हैं

ठहरी हुई

ज़िन्दगियों को संवार देते हैं।

समझाया था तुम्हें

पर तुम्हारा

अंहकार हावी रहा

मेरे वादों पर।

मैंने कब इंकार किया था

कि नहीं दूंगी साथ तुम्हारा

जीवन की राहों में।

हाथ थामना ही ज़रूरी नहीं होता

एक विश्वास की झलक भी

अक्सर राहें उन्मुक्त कर जाती है।

किन्तु

तुम्हारा अंहकार हावी रहा,

मेरे वादों पर।

अब न सुनाओ मुझे

कि मैं अकेले ही चलता रहा।

ये चयन तुम्हारा था।