प्रकृति का सौन्दर्य चित्र

कभी-कभी सूरज

के सामने ही

बादल बरसने लगते हैं।

और जल-कण,

रजत-से

दमकने लगते हैं।

तम

खण्डित होने लगता है,

घटाएं

किनारा कर जाती हैं।

वे भी

इस सौन्दय-पाश में

बंध दर्शक बन जाती हैं।

फिर

मानव-मन कहां

तटस्थ रह पाता है,

सरस-रस से सराबोर

मद-मस्त हो जाता है।

याद आता है भूला बचपन

कहते हैं जीवन है इक उपवन

महका-महका-सा है जीवन

कभी कभी जब कांटे चुभते हैं

तब याद आता है भूला बचपन

मन में बोनसाई रोप दिये हैं

विश्वास का आकाश

आज भी उतना ही विस्तारित है

जितना पहले हुआ करता था।

बस इतनी सी बात है

कि हमने, अपने मन में बसे

पीपल, वट-वृक्ष को

कांट-छांट कर

बोनसाई रोप दिये हैं,

और हर समय खुरपा लेकर

जड़ों को खोदते रहते हैं,

कहने को निखारते हैं,

सजाते-संवारते हैं,

किन्तु, वास्तव में

अपनी ही कृति पर अविश्वास करते हैं।

तो फिर किसी और से कैसी आशा।

 

 

 

मन के भाव देख प्रेयसी

रंग रूप की ऐसी तैसी

मन के भाव देख प्रेयसी

लीपा-पोती जितनी कर ले

दर्पण बोले दिखती कैसी

मन टटोलता है प्रस्तर का अंतस

प्रस्तर के अंतस में

सुप्त हैं न जाने कितने जल प्रपात।

कल कल करती नदियां, 

झर झर करते झरने, 

लहराती बलखाती नहरें, 

मन की बहारें, और कितने ही सपने।

जहां अंकुरित होते हैं

नव पुष्प,

पुष्पित पल्लवित होती हैं कामनाएं

जिंदगी महकती है, गाती है,

गुनगुनाती है, कुछ समझाती है।

इन्द्रधनुषी रंगों से

आकाश सराबोर होता है

और मन टटोलता है

प्रस्तर का अंतस।

बहकती हैं पत्तियों पर ओस की बूंदें

 

छू मत देना इन मोतियों को टूट न जायें कहीं।

आनन्द का आन्तरिक स्त्रोत हैं छूट न जाये कहीं।

जब बहकती देखती हूं इन पत्तियों पर ओस की बूंदे ,

बोलती हूं, ठहर-ठहर देखो, ये फूट न जाये कहीं ।

चल आज गंगा स्नान कर लें

चल आज गंगा स्नान कर लें

पाप-पुण्य का लेखा कर लें

अगले-पिछले पाप धो लें

स्वर्ग-नरक से मुक्ति लें लें

*    

भीड़ पड़ी है भारी देख

कूड़ा-कचरा फैला देख

अपने मन में मैला देख

लगा हुआ ये मेला देख

वी आई का रेला देख

चुनावों का आगाज़ तू देख

धर्मों का अंदाज़ तू देख

धर्मों का उपहास तू देख

नित नये बाबाओं का मेला देख

हाथी, घोड़े, उंट सवारी

उन पर बैठे बाबा भारी

मोटी-मोटी मालाएं देख

जटाओं का ;s स्टाईल तू देख

लैपटाप-मोबाईल देख

इनका नया अंदाज़ यहां

नित नई आवाज़ यहां

पण्डों-पुजारियों के पाखण्ड तू देख

नये-पुराने रिवाज़ तू देख

बाजों-गाजों संग आगाज़ तू देख।

पैसे का यहां खेला देख

अपने मन का मैला देख

चल आज गंगा स्नान कर लें

   

चिन्ता में पड़ी हूँ मैं

सब्ज़ी वाला आया न, सुबह से द्वार खड़ी हूँ मैं

आते होंगे भोजन के लिए, चिन्ता में पड़ी हूँ मैं

स्कूटी मेरी पंक्चर खड़ी, मण्डी तक जाऊँ कैसे

काम में हाथ बंटाया करो कितनी बार लड़ी हूँ मैं

रिश्तों की अकुलाहट

बस कहने की ही तो  बातें हैं कि अगला-पिछला छोड़ो रे

किरचों से चुभते हैं टूटे रिश्ते, कितना भी मन को मोड़ो रे

पत्थरों से बांध कर जल में तिरोहित करती रहती हूं बार-बार

फिर मन में क्यों तर आते हैं, क्यों कहते हैं, फिर से जोड़ो रे

बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ

इधर बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ

अभियान ज़ोरों पर है।

विज्ञापनों में भरपूर छाया है

जिसे देखो वही आगे आया है।

भ्रूण हत्याओं के विरूद्ध नारे लग रहे हैं

लोग इस हेतु

घरों से निकलकर सड़कों पर आ रहे हैं,

मोमबत्तियां जला रहे हैं।

लेकिन क्या सच में ही

बदली है हमारी मानसिकता !

प्रत्येक नवजात के चेहरे पर

बालक की ही छवि दिखाई देती है

बालिका तो कहीं

दूर दूर तक नज़र नहीं आती है।

इस चित्र में एक मासूम की यह छवि

किसी की दृष्टि में चमकता सितारा है

तो कहीं मसीहा और जग का तारणहार।

कहीं आंखों का तारा है तो कहीं राजदुलारा।

एक साधारण बालिका की चाह तो

हमने कब की त्याग दी है

अब हम लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा

की भी बात नहीं करते।

कभी लक्ष्मीबाई की चर्चा हुआ करती थी

अब तो हम उसको भी याद नहीं करते।

पी. टी. उषा, मैरी काम, सान्या, बिछेन्द्री पाल

को तो हम जानते ही नहीं

कि कहें

कि ईश्वर इन जैसी संतान देना।

कोई उपमाएं, प्रतीक नहीं हैं हमारे पास

अपनी बेटियों के जन्म की खुशी मनाने के लिए।

शायद आपको लग रहा होगा

मैं विषय-भ्रम में हूं।

जी नहीं,

इस नवजात को मैं भी देख रही हूं

एक चमकते सितारे की तरह

रोशनी से भरपूर।

किन्तु मैं यह नहीं समझ पा रही हूं

कि इस चित्र में सबको

एक नवजात बालक की ही प्रतीति

क्यों है

बालिका की क्यों नहीं।

वह घाव पुराना

अपनी गलती का एहसास कर

सालता रहता है मन,

जब नहीं होता है काफ़ी

अफ़सोस का मरहम।

और कई बातों का जब

लग जाता है बन्धन

तो भूल जाती है वह घुटन।

लेकिन होता है जब कोई

वैसा ही एहसास दुबारा,

नासूर बन जाता है

तब वह घाव पुराना।

 

बुढ़िया सठिया गई है

प्रेम मनुहार की बात करती हूं वो मुझे दवाईयों का बक्सा दिखाता है।

तीज त्योहार पर सोलह श्रृंगार करती हूं वो मुझे आईना दिखाता है।

याद दिलाती हूं वो यौवन के दिन,छिप छिप कर मिलना,रूठना-मनाना ।

कहता है बुढ़िया सठिया गई है, पागलखाने का रास्ता दिखाता है।

मुस्कानों को नहीं छीन सकता कोई

ज़िन्दगियाँ पानी-पानी हो रहीं

जंग खातीं काली-काली हो रहीं

मुस्कानों को नहीं छीन सकता कोई

चाहें थालियाँ खाली-खाली हो रहीं।

लौटा दो मेरे बीते दिन

अब पानी में लहरें

हिलोरें नहीं लेतीं,

एक अजीब-सा

ठहराव दिखता है,

चंचलता मानों प्रश्न करती है,

किश्तियां ठहरी-ठहरी-सी

उदास

किसी प्रिय की आस में।

पर्वत सूने,

ताकते आकाश ,

न सफ़ेदी चमकती है

न हरियाली दमकती हैं।

फूल मुस्कुराते नहीं

भंवरे गुनगुनाते नहीं,

तितलियां

पराग चुनने से डरने लगी हैं।

केसर महकता नहीं,

चिड़िया चहकती नहीं,

इन सबकी यादें

कहीं पीछे छूटने लगी हैं।

जल में चांद का रूप

नहीं निखरता,

सौन्दर्य की तलाश में

आस बिखरने लगी है।

 

बस दूरियां ही दूरियां,

मन निराश करती हैं।

 

लौटा दो

मेरे बीते दिन।

हम खाली हाथ रह जाते हैं

नदी

अपनी त्वरित गति में

मुहाने पर

अक्सर

छोड़ जाती है

कुछ निशान।

जब तक हम

समझ सकें,

फिर लौटती है

और ले जाती है

अपने साथ

उन चिन्हों को

जो धाराओं से

बिखरे थे

और हम

फिर खाली हाथ

रह जाते हैं

देखते ।

 

ढोल की थाप पर

संगीत के स्वरों में कुछ रंग ढलते हैं

मनमीत के संग जीवन के पल संवरते हैं

ढोल की थाप पर तो नाचती है दुनिया

हम आनन्द के कुछ पल सृजित करते हैं।

 

रिश्तों में

माता-पिता न मांगें कभी बच्चों से प्रतिदान।

नेह, प्रेम, अपनापन, सुरक्षा, नहीं कोई एहसान।

इन रिश्तों में लेन-देन की तुला नहीं रहती,

बदले में न मांगें बच्चों से कभी बलिदान।

 

किसकी डोर किसके हाथ

कहां समझे हैं हम, 

जीवन की सच्‍चाईयों और

चित्रों में बहुत अन्‍तर होता है।

कठपुतली नाच और

जीवन के रंगमंच के

नाटक का

अन्‍त अलग-अलग होता है।

स्‍वप्‍न और सत्‍य में

धरा-आकाश का अन्‍तर होता है।

इस चित्र को देखकर मन बहला लो ।

कटाक्ष और व्‍यंग्‍य का

पटल बड़ा होता है।

किसकी डोर किसके हाथ

यह कहां पता होता है।

कहने और लिखने की बात और है,

जीवन का सत्‍य क्‍या है,

यह सबको पता होता है ।

 

कैसे आया बसन्त

बसन्त यूँ ही नहीं आ जाता

कि वर्ष, तिथि, दिन बदले

और लीजिए

आ गया बसन्त।

-

मन के उपवन में

सुमधुर भावों की रिमझिम

कुछ ओस की बूंदें बहकीं

कुछ खुशबू कुछ रंगों के संग

कहीं दूर कोयल कूक उठी।

 

आँसू और मुस्कुराहट

तुम्हारी छोटी-छोटी बातें

अक्सर

बड़ी चोट दे जाती हैं

पूछते नहीं तुम

क्या हुआ

बस डाँटकर

चल देते हो।

मैं भी आँसुओं के भीतर

मुस्कुरा कर रह जाती हूँ।

ये गर्मी और ये उमस

ये गर्मी और ये उमस हर वर्ष यूं ही तपाती है
बिजली देती धोखा तर पसीने में काम करवाती है
फिर नखरे सहो सबके ये या वो क्यों नहीं बनाया
ज़रा आग के आगे खड़े तो हो,नानी याद करवाती है

 

निर्दोष

तुमने,

मुझसे उम्मीदें की।

मैंने,

तुम्हारे लिए

उम्मीदों के बीज बोये।

फिर, उन पर

डाल दिया पानी।

अब,

बीज नहीं उगे,

तो, मेरा दोष कहां !

-

ज़िन्दगी के रास्ते

यह निर्विवाद सत्य है

कि ज़िन्दगी

बने-बनाये रास्तों पर नहीं चलती।

कितनी कोशिश करते हैं हम

जीवन में

सीधी राहों पर चलने की।

निश्चित करते हैं कुछ लक्ष्य

निर्धारित करते हैं राहें

पर परख नहीं पाते

जीवन की चालें

और अपनी चाहतें।

ज़िन्दगी

एक बहकी हुई

नदी-सी लगती है,

तटों से टकराती

कभी झूमती, कभी गाती।

राहें बदलती

नवीन राहें बनाती।

किन्तु

बार-बार बदलती हैं राहें

बार-बार बदलती हैं चाहतें

बस,

शायद यही अटूट सत्य है।