रंग-बिरंगी आभा लेकर
काली-काली घनघोर घटाएं, बिजुरी चमके, मन बहके
झर-झर-झर बूंदें झरतीं, चीं-चीं-चीं-चीं चिड़िया चहके
पीछे से कहीं आया इन्द्रधनुष रंग-बिरंगी आभा लेकर
मदमस्त पवन, धरा निखरी, उपवन देखो महके-महके
मन आनन्दित होता है
लेन-देन में क्या बुराई
जितना चाहो देना भाई
मन आनन्दित होता है
खाकर पराई दूध-मलाई
तुम तो चांद से ही जलने लगीं
तुम्हें चांद क्या कह दिया मैंने, तुम तो चांद से ही जलने लगीं
सीढ़ियां तानकर गगन से चांद को उतारने की बात करने लगीं
अरे, चांद का तो हर रात आवागमन रहता है टिकता नहीं कभी
हमारे जीवन में बस पूर्णिमा है,इस बात को क्यों न समझने लगीं
किस असमंजस में पड़ी है ज़िन्दगी
गत-आगत के मोह से जुड़ी है ज़िन्दगी
स्मृतियों के जोड़ पर खड़ी है ज़िन्दगी
मीठी-खट्टी जो भी हैं, हैं तो सब अपनी
जाने किस असमंजस में पड़ी है ज़िन्दगी
कड़वाहटों को बो रहे हैं हम
गत-आगत के मोह में आज को खो रहे हैं हम
जो मिला या न मिला इस आस को ढो रहे हैं हम
यहां-वहां, कहां-कहां, किस-किसके पास क्या है
इसी कशमकश में कड़वाहटों को बो रहे हैं हम
सोचने का वक्त ही कहां मिला
ज़िन्दगी की खरीदारी में मोल-भाव कभी कर न पाई
तराजू लेकर बैठी रही खरीद-फरोख्त कभी कर न पाई
कहां लाभ, कहां हानि, सोचने का वक्त ही कहां मिला
इसी उधेड़बुन में उलझी जिन्दगी कभी सम्हल न पाई
मत विश्वास कर परछाईयों पर
कौन कहता है दर्पण सदैव सच बताता है
हम जो देखना चाहें अक्सर वही दिखाता है
मत विश्वास कर इन परछाईयों-अक्सों पर
बायें को दायां और दायें को बायां बताता है
कहते हैं हाथ की है मैल रूपया
जब से आया बजट है भैया, अपनी हो गई ता-ता थैया
जब से सुना बजट है वैरागी होने को मन करता है भैया
मेरा पैसा मुझसे छीनें, ये कैसी सरकार है भैया
देखो-देखो टैक्स बरसते, छाता कहां से लाउं मैया
कहते हैं हाथ की है मैल रूपया, थोड़ी मुझको देना भैया
छल है, मोह-माया है, चाह नहीं, कहने की ही बातें भैया
टैक्स भरो, टैक्स भरो, सुनते-सुनते नींद हमारी टूट गई
मुट्ठी से रिसता है धन, गुल्लक मेरी टूट गई
जब से सुना बजट है भैया, मोह-माया सब छूट गई
सिक्के सारे खन-खन गिरते किसने लूटे पता नहीं
मेरी पूंजी किसने लूटी, कैसे लूटी मुझको यह तो पता नहीं
किसकी जेबें भर गईं, किसकी कट गईं, कोई न जानें भैया
इससे बेहतर योग चला लें, चल मुफ्त की रोटी खाएं भैया
नासूर सी चुभती हैं बातें
काश मैं वह सब बोल पाती, कुछ सीमाओं को तोड़ पाती
नासूर सी चुभती हैं कितनी ही बातें, क्यों नहीं मैं रोक पाती
न शब्द मिलें, न आज़ादी, और न नैतिकता अनुमति देती है
पर्यावरण के शाब्दिक प्रदूषण का मैं खुलकर, कर विरोध पाती
ये चिड़िया क्या स्कूल नहीं जाती
मां मुझको बतलाना
ये चिड़िया
क्या स्कूल नहीं जाती ?
सारा दिन बैठी&बैठी,
दाना खाती, पानी पीती,
चीं-चीं करती शोर मचाती।
क्या इसकी टीचर
इसको नहीं डराती।
इसकी मम्मी कहां जाती ,
होमवर्क नहीं करवाती।
सारा दिन गाना गाती,
जब देखो तब उड़ती फिरती।
कब पढ़ती है,
कब लिखती है,
कब करती है पाठ याद
इसको क्यों नहीं कुछ भी कहती।
अपने-आपको अपने साथ ही बांटिये अपने-आप से मिलिए
हम अक्सर सन्नाटे और
शांति को एक समझ बैठते हैं।
शांति भीतर होती है,
और सन्नाटा !!
बाहर का सन्नाटा
जब भीतर पसरता है
बाहर से भीतर तक घेरता है,
तब तोड़ता है।
अन्तर्मन झिंझोड़ता है।
सन्नाटे में अक्सर
कुछ अशांत ध्वनियां होती हैं।
हवाएं चीरती हैं
पत्ते खड़खड़ाते हैं,
चिलचिलाती धूप में
बेवजह सनसनाती आवाज़ें,
लम्बी सूनी सड़कें
डराती हैं,
आंधियां अक्सर भीतर तक
झकझोरती हैं,
बड़ी दूर से आती हैं
कुत्ते की रोने की आवाज़ें,
बिल्लियां रिरियाती है।
पक्षियों की सहज बोली
चीख-सी लगने लगती है,
चेहरे बदनुमा दिखने लगते हैं।
हम वजह-बेवजह
अन्दर ही अन्दर घुटते हैं,
सोच-समझ
कुंद होने लगती है,
तब शांति की तलाश में निकलते हैं
किन्तु भीतर का सन्नाटा छोड़ता नहीं।
कोई न मिले
तो अपने-आपको
अपने साथ ही बांटिये,
अपने-आप से मिलिए,
लड़िए, झगड़िए, रूठिए,मनाईये।
कुछ खट्टा-मीठा, मिर्चीनुमा बनाईये
खाईए, और सन्नाटे को तोड़ डालिए।
याद है आपको डंडे खाया करते थे
याद है आपको, भूगोल की कक्षा में ग्लोब घुमाया करते थे
शहरों की गलत पहचान करने पर कितने डंडे खाया करते थे
नदी, रेल, सड़क, सूखा, हरियाली के चिह्न याद नहीं होते थे
मास्टर जी के जाते ही ग्लोब को गेंद बनाकर नचाया करते थे
मन की बगिया महक रही देखो मैं बहक रही
फुलवारी में फूल खिले हैं मन की बगिया भी महक रही
पेड़ों पर बूर पड़े,कलियों ने करवट ली,देखो महक रहीं
तितली ने पंख पसारे,फूलों से देखो तो गुपचुप बात हुई
अन्तर्मन में चाहत की हूक उठी, देखो तो मैं बहक रही
कच्चे धागों से हैं जीवन के रिश्ते
हर दिन रक्षा बन्धन का-सा हो जीवन में
हर पल सुरक्षा का एहसास हो जीवन में
कच्चे धागों से बंधे हैं जीवन के सब रिश्ते
इन धागों में विश्वास का एहसास हो जीवन में
कल डाली पर था आज गुलदान में
कवियों की सोच को न जाने क्या हुआ है, बस फूलों पर मन फिदा हुआ है
किसी के बालों में, किसी के गालों में, दिखता उन्हें एक फूल सजा हुआ है
प्रेम, सौन्दर्य, रस का प्रतीक मानकर हरदम फूलों की चर्चा में लगे हुये हैं
कल डाली पर था, आज गुलदान में, और अब देखो धरा पर पड़ा हुआ है।
अपमान-सम्मान की परिभाषा क्या करे कोई
बस दो अक्षर का फेर है और भाव बदल जाता है
दिल को छू जाये बात तो अंदाज़ बदल जाता है
अपमान-सम्मान की परिभाषा क्या करे कोई
साथ-साथ चलते हैं दोनों, कौन समझ पाता है
जब मांगो हाथ मदद का तब छिपने के स्थान बहुत हैं
बातों में, घातों में, शूरवीर, बलशाली, बलवान, बहुत हैं
जब मांगो हाथ मदद का, तब छिपने के स्थान बहुत हैं
कैसे जाना, कितना जाना, किसको माना था अपना,
क्या बतलाएं, कैसे बतलाएं, वैसे लेने को तो नाम बहुत है
नाप-तोल के माप बदल गये
नाप-तोल के माप बदल गये, सवा सेर अब रहे नहीं
किसको नापें किसको तोलें, यह समझ तो रही नहीं
मील पत्थर सब टूट गये, तभी तो राहों से भटक रहे
किसको परखें किसको छोड़ें, अपना ही जब पता नहीं
मन से अब भी बच्चे हैं
हाव-भाव भी अच्छे हैं
मन के भी हम सच्चे हैं
सूरत पर तो जाना मत
मन से अब भी बच्चे हैं
वादों की फुलवारी
यादों का झुरमुट, वादों की फुलवारी
जीवन की बगिया , मुस्कानों की क्यारी
सुधि लेते रहना मेरी पल-पल, हर पल
मैं तुझ पर, तू मुझ पर हर पल बलिहारी
प्यार का रस घोला होता
दिल में झांक कर देखा होता तो आज यह हाल न होता
काट कर रख दिये सारे अरमान जग यह बेहाल न होता
यह मिठास तो चुक जायेगी मौसम बदलने के साथ ही
प्यार का रस घोला होता तो आज यह हाल न होता
माणिक मोती ढलते हैं
सीपी में गिरती हैं बूंदे तब माणिक मोती ढलते हैं
नयनों से बहती हैं तब भावों के सागर बनते हैं
अदा इनकी मुस्कानों के संग निराली होती है
भीतर-भीतर रिसती हैं तब गहरे घाव पनपते हैं
कहना सबका काम है कहने दो
लोक लाज के भय से करो न कोई काम
जितनी चादर अपनी, उतने पसारो पांव
कहना सबका काम है कहने दो कुछ भी
जो जो मन को भाये वही करो तुम काम
आशा अब नहीं रहती
औरों की क्या बात करें, अब तो अपनी खोज-खबर नहीं रहती,
इतनी उम्र बीत गई, क्या कर गई, क्या करना है सोचती रहती,
किसने साथ दिया था जीवन में, कौन छोड़ गया था मझधार में
रिश्ते बिगड़े,आघात हुए, पर लौटेंगे शायद, आशा अब नहीं रहती
आई आंधी टूटे पल्लव पल भर में सब अनजाने
जीवन बीत गया बुनने में रिश्तों के ताने बाने।
दिल बहला था सबके सब हैं अपने जाने पहचाने।
पलट गए कब सारे पन्ने और मिट गए सारे लेख
आई आंधी, टूटे पल्लव,पल भर में सब अनजाने !!
बस बातों का यह युग है
हाथ में लतवार लेकर अमन की बात करते हैं
प्रगति के नाम पर विज्ञापनों में बात करते हैं
आश्वासनों, वादों, इरादों, हादसों का यह युग है
हवा-हवाई में नियमित मन की बात करते हैं
पता नहीं क्या क्या मन करता है आजकल
रजाई खींच कर, देर तक सोने का बहुत मन करता है रे ! आजकल।
बना-बनाया भोजन परस जाये थाली में बहुत मन करता है आजकल।
एक मेरी जान के दुश्मन ये चिकित्सक, कह दिया रक्तचाप अधिक है
सैर के लिए जाना ज़रूरी है, संध्या समय घर से निकाल देते हैं आजकल
प्रात कोई चाय पिला दे, देर तक सोते रहें, यही मन करता है आजकल
अधिकारों की बात करें
अधिकारों की बात करें, कर्त्तव्यों का बोध नहीं
झूठ का पलड़ा भारी है, सत्य का है बोध नहीं
औरों के कंधे पर रख बन्दूक चलानी आती है
संस्कारों की बात करें, व्यवहारों का बोध नहीं
जीवन है मेरा राहें हैं मेरी सपने हैं अपने हैं
साहस है मेरा, इच्छा है मेरी, पर क्यों लोग हस्तक्षेप करने चले आते हैं
जीवन है मेरा, राहें हैं मेरी, पर क्यों लोग “कंधा” देने चले आते हैं
अपने हैं, सपने हैं, कुछ जुड़ते हैं बनते हैं, कुछ मिटते हैं, तुमको क्या
जीती हूं अपनी शर्तों पर, पर पता नहीं क्यों लोग आग लगाने चले आते हैं
तुम अपने होते
तुम अपने होते तो मेरे क्रोध में भी प्यार की तलाश करते
तुम अपने होते तो मेरे मौन में भी एहसास की बात करते
मन की दूरियां मिटाने के लिए साथ होना कोई ज़रूरी नहीं
तुम अपने होते तो मेरे रूठने में भी अपनेपन की पहचान करते