कहां समझ पाता है कोई

न आकाश की समझ

न धरा की,

अक्सर नहीं दिखाई देता

किनारा कोई।

हर साल,बार-बार,

जिन्दगी  यूं भी तिरती है,

कहां समझ पाता है कोई।

सुना है दुनिया बहुत बड़ी है,

देखते हैं, पानी पर रेंगती

हमारी इस दुनिया को,

कहां मिल पाता है किनारा कोई।

सुना है,

आकाश से निहारते हैं हमें,

अट्टालिकाओं से जांचते हैं

इस जल- प्रलय को।

जब पानी उतर जाता है

तब बताता है कोई।

विमानों में उड़ते

देख लेते हैं गहराई तक

कितने डूबे, कितने तिर रहे,

फिर वहीं से घोषणाएं करते हैं

नहीं मरेगा

भूखा या डूबकर कोई।

पानी में रहकर

तरसते हैं दो घूंट पानी के लिए,

कब तक

हमारा तमाशा बनाएगा हर कोई।

अब न दिखाना किसी घर का सपना,

न फेंकना आकाश से

रोटियों के टुकड़े,

जी रहे हैं, अपने हाल में

आप ही जी लेंगे हम

न दिखाना अब

दया हम पर आप में से कोई।