औरत होती है एक किताब

औरत होती है एक किताब।

सबको चाहिए

पुरानी, नई, जैसी भी।

अपनी-अपनी ज़रूरत

अपनी-अपनी पसन्द।

उस एक किताब की

अपने अनुसार

बनवा लेते हैं

कई प्रतियाँ,

नामकरण करते हैं

बड़े सम्मान से।

सबका अपना-अपना अधिकार

उपयोग का

अपना-अपना तरीका

अदला-बदली भी चलती है।

कुछ पृष्ठ कोरे रखे जाते है

इस किताब में

अपनी मनमर्ज़ी का

लिखने के लिए।

और जब चाहे

फाड़ दिये जाते हैं कुछ पृष्ठ।

सब मालिकाना हक़

जताते हैं इस किताब पर,

किन्तु कीमत के नाम पर

सब चुप्पी साध जाते हैं।

सबसे बड़ा आश्चर्य यह

कि पढ़ता कोई नहीं

इस किताब को

दावा सब करते हैं।

उपयोगी-अनुपयोगी की

बहस चलती रहती है

दिन-रात।

वैसे कोई रैसिपी की

किताब तो नहीं होती यह

किन्तु सबसे ज़्यादा

काम यहीं आती है।

अपने-आप में

एक पूरा युग जीती है

यह किताब

हर पन्ने पर

लिखा होता है

युगों का हिसाब।

अद्भुत है यह किताब

अपने-आपको ही पढ़ती है

समझने की कोशिश करती है

पर कहाँ समझ पाती है।

 

मन को किसी गह्वर में रखना है मुझे

कल तक

एक घर मेरा था।

आज अचानक

सब बदल गया।

-

यह रूप-श्रृंगार

यह स्वर्ण-माल

मेरे

अगले जीवन का आधार

एक नया परिवार।

-

मात्र, एक पल लगा

मुझे एक से

दूसरे में बदलने में।

नाम-धाम सब सिमटने में।

-

नये सम्बन्ध, नये भाव

नये कर्तव्य और

पता नहीं कितने अधिकार।

सुना करती थी

बचपन से

पराया धन ! पराया धन !!

आज समझ पाई।

-

यह एक पल

न काम आती है

शिक्षा, न ज्ञान, न अभिमान

बस जीवन-परिवर्तन।

नहीं जानती

क्या मिला, क्या पाया, क्या खोया।

-

एक परिवार था मेरे पास

उसे मैं अपने जीवन के

पच्चीस वर्षों में न समझ पाई

किन्तु

एक नये परिवार को समझने के लिए

मुझे नहीं मिलेंगे

पच्चीस मिनट भी।

शायद पच्चीस पल में ही

मुझे सम्हालने होंगे

सारे नये सम्बन्ध

नये भाव, नया घर, नये लोग,

नई आशाएँ, आकांक्षाएँ।

-

मस्तिष्क एक डायरी बन गया।

-

पिछला क्या-क्या भूल जाना है मुझे

तिलांजलि देनी है

कौन-से सम्बन्धों को

और नया

क्या-क्या याद रखना है मुझे,

कितने कदम पीछे हटना है मुझे

कितने कदम आगे बढ़ना है मुझे।

ड्योढ़ी से अन्दर कदम रखते ही

ज्ञात हो जाना चाहिए सब मुझे।

रिश्तों के नये ताने-बाने को

संवारना है मुझे

सबकी भूख-प्यास का हिसाब

रखना है मुझे

अपने मन को किसी गह्वर में रखना है मुझे।

कर लो नारी पर वार

जब कुछ न लिखने को मिले तो कर लो नारी पर वार।

वाह-वाही भरपूर मिलेगी, वैसे समझते उसको लाचार।

कल तक माँ-माँ लिख नहीं अघाते थे सारे साहित्यकार

आज उसी में खोट दिखे, समझती देखो पति को दास

पत्नी भी माँ है क्यों कभी नहीं देख पाते हो तुम

यदि माता-पिता को वृद्धाश्रम भेजा, किसका है यह दोष

परिवारों में निर्णय पर हावी होते सदा पुरुष के भाव

जब मन में आता है कर लेते नारी के चरित्र पर प्रहार।

लिखने से पहले मुड़ अपनी पत्नी पर दृष्टि डालें एक बार ।

अपने बच्चों की माँ के मान की भी सोच लिया करो कभी कभार

 

जल लेने जाते कुएँ-ताल

बाईसवीं सदी के

मुहाने पर खड़े हम,

चाँद पर जल ढूँढ लाये

पर इस धरा पर

अभी भी

कुएँ, बावड़ियों की बात

बड़े गुरूर से करते हैं

कितना सरल लगता है

कह देना

चली गोरी

ले गागर नीर भरन को।

रसपान करते हैं

महिलाओं के सौन्दर्य का

उनकी कमनीय चाल का

घट भरकर लातीं

प्रेमरस में भिगोती

सखियों संग मदमाती

कहीं पिया की आस

कहीं राधा की प्यास।

नहीं दिखती हमें

आकाश से बरसती आग

बीहड़ वन-कानन

समस्याओं का जंजाल

कभी पुरुषों को नहीं देखा

सुबह-दोपहर-शाम

जल लेने जाते कुएँ-ताल।

 

शब्दों के घाव

दिल के

कुछ ज़ख्मों का दर्द

मानों दर्द नहीं होता,

स्मृतियों का

खजाना होता है,

उनकी टीस

आनन्द देती है

कुछ यादें

कुछ वफ़ाएँ

कुछ बेवफ़ाएँ

शब्दों के घाव

रिसते रहते हैं

चुभते हैं

पर भरने का

मन नहीं करता

आँखें बन्द कर

कुरेदने में मज़ा आता है

और जब आँख का पानी

रिसता है

उन जख़्मों पर,

तब टीस

और गहरी होती है

और आनन्द और ज़्यादा।

 

मर्यादाओं की चादर ओढ़े

मर्यादाओं की चादर में लिपटी खड़ी है नारी

न इधर राह न उधर राह, देख रही है नारी

किसको पूछे, किससे  कह दे मन की व्यथा

फ़टी-पुरानी, उधड़ी चादर ओढ़े खड़ी है नारी

महिला अन्तर्राष्ट्रीय वर्ष

1975 में लिखी गई रचना

************-*********

तुम हर युग में बनो रहो राम

पर मैं नहीं बनूंगी सीता।

तुम बने रहो अंधे धृतराष्ट्र्

पर मैं बनूंगी गांधारी।

 

तुम बजाओ मुरली

पर मैं नहीं बनूंगी राधा।

उर्मिला हूं अगर

तो नहीं बैठी रहूंगी

चौदह वर्ष तुम्हारी प्रतीक्षा में।

मैं ब्याही गई थी तुम संग

या तुम ब्याहे गये थे राम संग।

राम संग गई थी सीता

किसे छोड़ गये थे तुम मेरे संग।

 

द्रौपदी हूं अगर

तो पांडवों की चालाकी जान चुकी हूं।

माता की आज्ञा के इतने ही थे अनुसार

तो क्यों खाने पहुंचे थे

दुर्योधन से जुए में हार।

द्रौपदी अब बनेगी नारी

नहीं चाहिए उसे तुम्हारे मणि हार।

नहीं रह गई है वह केवल

तुम्हारी इच्छा पूर्त्तियों का आधार।

कर लेगी वह अपनी रक्षा

स्वयं ही जयद्रथ से

हे युधिष्ठिर !

नहीं चाहिए उसे तुम्हारी सम्बल।

तुम स्वयं तो बच लो पहले कर्ण से।

 

तुम्हारी सोलह हज़ार रानियों में

हे कृष्ण ! नहीं चाहिए स्थान मुझे।

रह लूंगी कुंवारी ही

नहीं चाहिए तुम्हारा एहसान मुझे।

 

तुम्हारे लिए हे राम !

मैंने छोड़ी सारी सुख सुविधा, राज पाट

और तुमने ! तुमने !

एक धोबी के कहने से छोड़ दिया मुझे।

तो स्वयं ही सिद्ध किया

कि अग्नि-परीक्षा

मेरे अपमान का एक अद्भुत ढंग था।

और बहाना  ! क्या सुन्दर था।

प्रजा का सुख था।

मैंने छोड़ दिया था तुम्हारे लिए सुख साज।

तो क्या तुम नहीं छोड़ सकते थे

मेरे लिए वही सुख राज।

 

और अब चाहते हो मैं गांधारी बनूं

फिरूं तुम्हारे पीछे पीछे आंखों पर पट्टी बांधे।

नहीं ! उस बंधी पट्टी को खोल

अपनी दृष्टि अपने पर ही डाल

बनूंगी स्वयं ही वज्र।

पर जानती हूं यह भी,

कि कृष्ण और दुर्योधन

अभी भी तुम्हारे अन्दर विद्यमान हैं।

लेकिन फिर भी हे पुरूष !

हर युग में तुम आओगे

मेरे ही आगे हाथ पसारे

हे मात: ! मुझे बना दो वज्र समान

जिससे, हर युग में मैं

कभी राम तो कभी कृष्ण

कभी कौरव तो कभी पाण्डव

तो कभी धृतराष्ट्र् बनकर

तुम्हें ही चोट पर चोट दे सकूं।

तुम्हारे ही अस्त्र से तुम्हें ही दबाउं

मुक्ति के गीत सुनाकर तुम्हें ही बन्दी बनाउं।

 

पर आज !

आज भी क्या है मेरे पास ?

सीता न बनूं, न बनूं गांधारी

राधा न बनूं, न बनूं द्रौपदी

या गांधारी भी न बनूं

तो क्या बन कर रहूं

बीसवीं सदी की नारी?

तो क्या यहां स्थितियां कुछ नेक हैं ?

हां हैं !

तुम्हारे हथकण्डे नये, बढ़िया, अनेक हैं।

या यूं कहूं फारेन मेक हैं।

यहां जकड़न और भी गहरी है।

नारी अभिशप्त हर जगह बेचारी है।

उसे देवी के आसन पर बिठाओ

मुक्ति के गीत सुनाओ, स्वपन दिखाओ

हर  जगह तुम्हारी जीत है।

हर जगह तुम्हारी जीत है।

आज तो तुमने नया हथकण्डा अपनाया है

सारे संसार में

महिला अन्तर्राष्ट्रीय वर्ष का नारा गुंजाया है।

नारी को स्वाधीन बनाने का,

अधिकार दिलाने का स्वांग रचाया है।

तुम देवी हो, तुममें प्रतिभा है,

बुद्धिमती हो, तुम सब कुछ कर सकती हो।

सफल गृहिणी हो।

यानी कि आया भी हो

मेहरी भी हो अवैतनिक

और रसोईये का काम तो

भली भांति जानती ही हो।

और दफ्तर !

वहां तो आज नारी ही प्रधान है।

बिल्कुल ठीक !

पहले पिसती थी एक पाट में

अब उसे पीसो चक्की के दो पाटों में।

घर के भीतर भी और घर के बाहर भी।

इस तरह नारी के शोषण की

व्यंग्य प्रहारों से उसे पीड़ित करने की

एक नई राह पाई है।

नारी ने एक बार फिर मार खाई है।

हर युग में यही होता आया है

यह युग भी इसका अपवाद नहीं।

यत्र नारयस्तु पूजयन्ते, रमन्ते तत्र देवता

भुलावे का मन्त्र यह,

नारी का जीवन था, नारी का जीवन है।

 

नहीं बनना मुझे नारायणी

लालसा है मेरी

एक ऐसे जीवन की

एक ऐसा जीवन जीने की

जहाँ मैं रहूँ

सदा एक आम इंसान।

नहीं चाहिए

कोई पदवी कोई सम्मान

कोई वन्दन कोई अभिनन्दन।

रिश्तों में बाँध-बाँधकर मुझे

सूली पर चढ़ाते रहते हो।

रिश्ते निभाते-निभाते

जीवन बीत जाता है

पर कहाँ कुछ समझ आता है,

जोड़-तोड़-मोड़ में

सब कुछ उलझा-उलझा-सा

रह जाता है।

शताब्दियों से

एकत्र की गई

सम्मानों की, बलिदान की

एहसान की चुनरियाँ

उढ़ा देते हो मुझे।

इतनी आकांक्षाएँ

इतनी आशाएँ

जता देते हो मुझे।

पूरी नहीं कर पाती मैं

कहीं तो हारती मैं

कहीं तो मन मारती मैं।

अपने मन से कभी

कुछ सोच ही नहीं पाती मैं।

दुर्गा, काली, सीता, राधा, चण्डी,

नारायणी, देवी,

चंदा, चांदनी, रूपमती

झांसी की रानी, पद्मावती

और न जाने क्या-क्या

सब बना डालते हो मुझे।

किन्तु कभी एक नारी की तरह

भी जीने दो मुझे।

नहीं जीतना यह संसार मुझे।

दो रोटी खाकर,

धूप सेंकती,

अपने मन से सोती-जागती

एक आम नारी रहने दो मुझे।

नहीं हूँ मैं नारायणी।

नहीं बनना मुझे नारायणी ।

 

आत्मश्लाघा का आनन्द

अच्छा लगता है

जब

किसी-किसी एक दिन

पूरे साल में

बड़े सम्मान से

स्मरण करते हो मुझे।

मुझे ज्ञात होता है

कितनी महत्वपूर्ण हूं मैं

कितनी गुणी, जगद्जननी

मां, सुता, देवी, त्याग की मूर्ति,

इतने शब्द, इतनी सराहना

लबालब भर जाता है मेरा मन

और उलीचने लगते हैं भाव।

 

फिर

सालती हैं 

यह स्मृतियां पूरे साल।

सम्मान पत्र

व्यंग्योक्तियों से

महिमा-मण्डित होने लगते हैं।

रसोई में टांग देती हूं

सम्मान-पत्रों को

हल्दी-नमक से

तिलक करती हूं सारा साल]

कभी-कभी

बर्तनों की धुलाई में

मिट जाती है लिखाई

निकल बह जाते हैं

नाली से

लुगदी बन फंसतीं है कहीं

और फिर पूरा वर्ष

निकल जाता है

सफ़ाई अभियान में।

 

वर्ष में कई बार याद आता है

नारी तू नारायणी।

और हम चहक उठते हैं

मिले इस कुछ दिवसीय सम्मान से।

अपना गुणगान

आप ही करने लगते हैं।

आत्मश्लाघा का भी तो

एक अपना ही आनन्द होता है।

 

 

 

 

नारी स्वाधीनता की  बात

मैं अक्सर

नारी स्वाधीनता की

बहुत बात करती हूँ।

रूढ़ियों के विरुद्ध

बहुत आलेख लिखती हूँ।

पर अक्सर

यह भी सोचती हूँ

कि समाज और जीवन की

सच्चाई से

हम मुँह तो मोड़ नहीं सकते।

जीवन तो जीवन है

उसकी धार के विपरीत

तो जा नहीं सकते।

वैवाहिक संस्था को हम

नकार तो नहीं सकते।

मानती हूँ मैं

कि नारी-हित में

शिक्षा से बड़ी कोई बात नहीं।

किन्तु परिवार को हम

बेड़ियाँ क्यों मानने लगे हैं

रिश्तों में हम

जकड़न क्यों महसूस करने लगे हैं।

पर्व-त्यौहार

क्यों हमें चुभने लगे हैं,

रीति-रिवाज़ों से क्यों हम

कतराने लगे हैं।

परिवार और शिक्षा

कोई समानान्तर रेखाएँ नहीं।

जीवन का आधार हैं ये

भरा-पूरा संसार हैं ये।

रूढ़ियों को हटायें

हाथ थाम आगे बढ़ाएँ।

जीवन को सरल-सुगम बनाएँ।

 

भुगतो अब

कल तक कहते थे

तू बोलती नहीं

भाव अपने तोलती नहीं।

अभिव्यक्ति की आज़ादी लो

अपनी बात खुलकर बोल दो।

चुप रहना अपराध है

न सुन किसी की ग़लत बात

न सहना किसी का बेबात घात

सच कहना सीख

गलत को गलत कहना सीख।

सही की सही परख कर,

आवरण हटा

खुलकर जीना सीख।

 

किन्तु

क्यों ऐसा हुआ

ज्यों ही मैं बोली

एक तहलका-सा मचा हुआ।

दूर-दूर तक शोर हुआ।

किसी की पोल खुली।

किसी की ढोल बजी।

किसी के झूठ की बोली लगी।

कभी सन्नाटा छाया

तो कभी सन्नाटा टूटा।

 

भीड़ बढ़ी, भीड़ बढी,

चिल्लाई मुझ पर

बस करो, अब बस करो!

 

पर अब कैसे बस करो।

पर अब क्यों बस करो।

भुगतो अब!!!

 

 

विध्वंस की बात कर सकें

कहीं अच्छा लगता है मुझे

जब मैं देखती हूं

कि

नवरात्र आरम्भ होते ही

याद आती हैं मां

आह्वान करते हैं

दुर्गा, काली, चण्डी

सहस्त्रबाहु, सहस्त्रवाहिनी का ,

मूर्तियां सजाते हैं

शक्तियों की बात करते हैं।

शीश नवाते हैं

मांगते हैं कृपा, आशीष, रक्षा-कवच।

दुख-निवारण की बात करते हैं,

दुष्टों के संहार की आस करते हैं।

बस आशाएं, आकांक्षाएं, दया, कृपा

की मांग करते हैं।

याद आते हैं तो चढ़ावे

मन्नतें, मान्यताएं,

कन्या पूजन, व्रतोपवास,गरबा।

मन्दिरों की कतारें,

उत्सव ही उत्सव मनाते हैं,

अच्छा लगता है सब।

मन मुदित होता है

इस आनन्दमय संसार को देखकर।

किन्तु क्यों हम

आह्वान नहीं करते

कि मां

हमें भी दे वह शक्ति

जो दुष्टों का संहार कर सके

आवश्यकता पड़ने पर धार बन सके

प्रपंच छोड़कर

जीवन का आधार बन सके

उन नव रूपों का

कुछ अंश आत्मसात कर सकें

रोना-गिड़गिड़ाना छोड़कर

आत्मसम्मान की बात कर सकें

सिसकना छोड़कर

स्वाभिमान की बात कर सकें।

दुर्गा, काली, चण्डी,

सहस्त्रबाहु, सहस्त्रवाहिनी

जब जैसी आन पड़े

वैसा रूप धर सकें

यूं तो निर्माण की बात करते हैं

पर ज़रूरत पड़ने पर

विध्वंस की बात कर सकें।

 

 

अपना मान करना सीख

आधुनिकता के द्वार पर खड़ी नारी

कहने को आकाश छू रही है

पाताल नाप रही है

पुरुषों के साथ

कंधे से कंधा मिलाकर

चलने की शान मार रही है

घर-बाहर दोनों मोर्चों पर

जीतती नज़र आ रही है।

अपने अधिकारों की बात करती

कहीं भी कमतर

नज़र न आ रही है।

किन्तु यहां

क्यों मौन साध रही है?

न मोम की गुड़िया है,

न लाचार, अपंग।

फिर क्यों इस मोर्चे पर

हर बार

पराजित-सी हार रही है।

.

पाखण्डों और परम्पराओं में

भेद करना सीख।

अपने हित में

अपने लिए बात करना सीख।

रूढ़ियों और रीतियों में

पहचान करना सीख।

अपनी कोमल-कान्त छवि से

बाहर निकल

गलत-सही में भेद करना सीख।

आवाज़ उठा

अपने लिए निर्णय लेना सीख।

सिर उठा,

आंख तरेर, आंख दिखा

आंख से आंख मिला

न डर।

तर्क कर, वितर्क कर

दो की चार कर

अपनी राहें आप नाप

हो निडर।

अपने कंधे पर अपना हाथ रख

अपने हाथ में अपना हाथ ले

न डर

सब बदल गये, सब बदल गया

तू भी बदल

अपना मान करना सीख

अपना मान रखना सीख।

 

बेटा-बेटी एक समान

बेटी ने पूछा

मां, बेटा-बेटी एक समान!

मां बोली,

हां हां, बेटा-बेटी एक समान!

बेटी बोली,

मां तो अब से कहना

मैं अपने बेटे को

बेटी समान मानती हूं।

 

कभी धरा कभी गगन को छू लें

चल री सखी

आज झूला झूलें,

कभी धरा

तो कभी

गगन को छू लें,

डोर हमारी अपने हाथ

जहां चाहे

वहां घूमें।

चिन्ताएं छूटीं

बाधाएं टूटीं

सखियों संग

हिल-मिल मन की

बातें हो लीं,

कुछ गीत रचें

कुछ नवगीत रचें,

मन के सब मेले खेंलें

अपने मन की खुशियां लें लें।

नव-श्रृंगार करें

मन से सज-संवर लें

कुछ हंसी-ठिठोली

कुछ रूसवाई

कभी मनवाई हो ली।

मेंहदी के रंग रचें

फूलों के संग चलें

कभी बरसे हैं घन

कभी तरसे है मन

आशाओं के दीप जलें

हर दिन यूं ही महक रहे

हर दिन यूं ही चहक रहे।

चल री सखी

आज झूला झूलें

कभी धरा

तो कभी

गगन को छू लें।

कच्चे घड़े-सी युवतियां

कच्चे घड़े-सी होती हैं

ये युवतियां।

घड़ों पर रचती कलाकृति

न जाने क्या सोचती हैं

ये युवतियां।

रंग-बिरंगे वस्त्रों से सज्जित

श्रृंगार का रूप होती हैं

ये युवतियां।

रंग सदा रंगीन नहीं होते

ये बात जानती हैं

केवल, ये युवतियां।

हाट सजता है,

बाट लगता है,

ठोक-बजाकर बिकता है,

ये बात जानती हैं

केवल, ये युवतियां।

कला-संस्कृति के नाम पर

बैठक की सजावट बनते हैं]

सजते हैं घट

और चाहिए एक ओढ़नी

जानती हैं सब

केवल, ये युवतियां।

बातें आसमां की करते हैं

पर इनके जीवन में तो

ठीक से धरा भी नहीं है

ये बात जानती हैं

केवल, ये युवतियां।

कच्चे घड़ों की ज़िन्दगी

होती है छोटी

इस बात को

सबसे ज़्यादा जानती हैं

ये युवतियां।

चाहिए जल की तरलता, शीतलता

किन्तु आग पर सिंक कर

पकते हैं घट

ये बात जानती हैं

केवल, ये युवतियां।

 

ज़्यादा मत उड़

कौन सी वास्तविकता है

और कौन सा छल,

अक्सर असमंजस में रह जाती हूं।

रोज़ हर रोज़

समाचारों में गूंजती हैं आवाजे़ं

देखो हमने

नारी को

कहां से कहां पहुंचा दिया।

किसी ने चूल्हा बांटा ,

किसी ने गैस,

किसी की सब्सिडी छीनी        

तो किसी की आस।

नौकरियां बांट रहे।

घर संवार रहे।

मौज करवा रहे।

स्टेटस दिलवा रहे।

कभी चांद पर खड़ी दिखी।

कभी मंच पर अड़ी दिखी।

आधुनिकता की सीढ़ी पर

आगे और आगे बढ़ी।

अपना यह चित्र देख अघाती नहीं।

अंधविश्वासों    ,

कुरीतियों का विरोध कर

मदमाती रही।

प्रंशसा के अंबार लगने लगे।

तुम्हारे नाम के कसीदे

बनने लगे।

साथ ही सब कहने लगे

ऐसी औरतें घर-बार की रहती नहीं

पर तुम अड़ी रही

ज़रा भी डिगी नहीं।

-

ज़्यादा मत उड़ ।

कहीं भी हो आओ

लौटकर यहीं,

यही चूल्हा-चौका करना है।

परम्पराओं के नाम पर

घूंघट की ओट में जीना है।

और ऐसे ही मरना है।।।

 

ककहरा जान लेने से ज़िन्दगियां नहीं बदल जातीं

इस चित्र को देखकर सोचा था,

 

आज मैं भी

कोई अच्छी-सी रचना रचूंगी।

मां-बेटी की बात करूंगी।

लड़कियों की शिक्षा,

प्रगति को लेकर बड़ी-बड़ी

बात करूंगी।

पर क्या करूं अपनी इस सोच का,

अपनी इस नज़र का,

मुझे न तो मां दिखाई दी इस चित्र में,

किसी बेटी के लिए आधुनिकता-शिक्षा के

सपने बुनती हुई ,

और न बेटी एवरेस्ट पर चढ़ती हुई।

मुझे दिखाई दे रही है,

एक तख्ती परे सरकती हुई,

कुछ गुम हुए, धुंधलाते अक्षरों के साथ,

और एक छोटी-सी बालिका।

यहां कहां बेटी पढ़ाने की बात है।

कहां कुछ सिखाने की बात है।

नहीं है कोई सपना।

नहीं है कोई आस।

जीवन की दोहरी चालों में उलझे,

तख्ती, चाक और लिखावट

तो बस दिखावे की बात है।

एक ओर  तो पढ़ ले,पढ़ ले,

का राग गा रहे हैं,

दूसरी ओर

इस छोटी सी बालिका को

सजा-धजाकर बिठा रहे हैं।

कोई मां नहीं बुनती

ऐसे हवाई सपने

अपनी बेटियों के लिए।

जानती है गहरे से,

ककहरा जान लेने से

ज़िन्दगियां नहीं बदल जातीं,

भाव और परम्पराएं नहीं उलट जातीं।

.

आज ही देख रही है ,

उसमें अपना प्रतिरूप।

.

सच कड़वा होता है

किन्तु यही सच है।

 

न समझना हाथ चलते नहीं हैं

हाथों में मेंहदी लगी,

यह न समझना हाथ चलते नहीं हैं

केवल बेलन ही नहीं

छुरियां और कांटे भी

इन्हीं हाथों से सजते यहीं हैं

नमक-मिर्च लगाना भी आता है

और यदि किसी की दाल न गलती हो,

तो बड़ों-बड़ों की

दाल गलाना भी हमें आता है।

बिना गैस-तीली

आग लगाना भी हमें आता है।

अब आपसे क्या छुपाना

दिल तो बड़ों-बड़ों के जलाये हैं,

और  न जाने

कितने दिलजले तो  आज भी

आगे-पीछे घूम रहे हैं ,

और जलने वाले

आज भी जल रहे हैं।
तड़के की जैसी खुशबू हम रचते हैं,

बड़े-बड़े महारथी

हमारे आगे पानी भरते हैं।

मेंहदी तो इक बहाना है

आज घर का सारा काम

उनसे जो करवाना है।

 

 

नये सिरे से

मां कहती थी

किसी जाते हुए को

पीठ पीछे पुकारना अपशगुन होता है।

और यदि कोई तुम्हें पुकार भी ले

तो अनसुना करके चले जाना,

पलटकर मत देखना, उत्तर मत देना।

लेकिन, मैं क्या करूं इन आवाजों का

जो मेरी पीठ पीछे

मुझे निरन्तर पुकारती हैं,

मैं मुड़कर नहीं देखती

अनसुना कर आगे बढ़ जाती हूं।

तब वे आवाजें

मेरे पीछे दौड़ने लगती हैं,

उनके कदमों की धमक

मुझे डराने लगती है।

मैं और तेज दौडने लगती हूं।

तब वे आवाजें

एक शोर का रूप लेकर

मेरे भीतर तक उतर जाती हैं,

मेरे दिल-दिमाग को झिंझोड़ते हुये।

मैं फिर भी नहीं रूकती।

किन्तु इन आवाजों की गति

मुझसे कहीं तेज है।

वे आकर

मेरी पीठ से टकराने लगती हैं,

भीतर तक गहराती हैं

बेधड़क मेरे शरीर में।

सामने आकर राह रोक लेती हैं मेरा।

पूछने लगती हैं मुझसे

वे सारे प्रश्न,

जिन्हें हल न कर पाई मैं जीवन-भर,

इसीलिए नकारती आई थी उन्हें,

छोड़ आई थी कहीं अनुत्तरित।

जीवन के इस मोड़ पर ,

अब क्या करूंगी इनका समाधान,

और क्या उपलब्धि प्राप्त कर लूंगी,

पूछती हूं अपने-आपसे ही।

किन्तु इन आवाजों को

मेरा यह पलायन का स्वर भाता नहीं।

अंधायुग में कृष्ण ने कहा था

“समय अब भी है, अब भी समय है

हर क्षण इतिहास बदलने का क्षण होता है”।

किन्तु

उस महाभारत में तो

कुरूक्षेत्र के रणक्षेत्र में

अट्ठारह अक्षौहिणी सेना थी।

 

और यहां अकेली मैं।

मेरे भीतर ही हैं सब कौरव-पांडव,

सारे चक्र-कुचक्र और चक्रव्यूह,

अट्ठारह दिन का युद्ध,

अकेली ही लड़ रही हूं।

 

तो क्या मुझे

मां की सीख को अनसुना कर,

पीछे मुड़कर

इन आवाजों को,

फिर से,

नये सिरे से भोगना होगा,

अपने जीवन का वह हर पल,

जिससे भाग रही थी मैं

जिन्हें मैंने इतिहास की वस्तु समझकर

अपने जीवन का गुमशुदा हिस्सा मान लिया था।

मां ! तू अब है नहीं

कौन बतायेगा मुझे !!!

 

एहसास

किसी के भूलने के

एहसास की वह तीखी गंध,

उतरती चली जाती है,

गहरी, कहीं,अंदर ही अंदर,

और कचोटता रहता है मन,

कि वह भूल

सचमुच ही एक भूल थी,

या केवल एक अदा।

फिर

उस एक एहसास के साथ

जुड़ जाती हैं,

न जाने, कितनी

पुरानी यादें भी,

जो सभी मिलकर,

मन-मस्तिष्क पर ,

बुन जाती हैं,

नासमझी का

एक मोटा ताना-बाना,

जो गलत और ठीक को

समझने नहीं देता।

ये सब एहसास मिलकर

मन पर,

उदासी का,

एक पर्दा डाल जाते हैं,

जो आक्रोश, झुंझलाहट

और निरुत्साह की हवा लगते ही

नम हो उठता है ,

और यह नमी,

न चाहते हुए भी

आंखों में उतर आती है।

न जाने क्या है ये सब,

पर लोग, अक्सर इसे

भावुकता का नाम दे जाते हैं।

 

 

 

 

एक आदमी मरा

एक आदमी मरा।

अक्सर एक आदमी मरता है।

जब तक वह जिंदा  था

वह बहुत कुछ था।

उसके बार में बहुत सारे लोग

बहुत-सी बातें जानते थे।

वह समझदार, उत्तरदायी

प्यारा इंसान था।

उसके फूल-से कोमल दो बच्चे थे।

या फिर वह शराबी, आवारा बदमाश था।

पत्नी को पीटता था।

उसकी कमाई पर ऐश करता था।

बच्चे पैदा करता था।

पर बच्चों के दायित्व के नाम पर

उन्हें हरामी के पिल्ले कहता था।

वह आदमी एक औरत का पति था।

वह औरत रोज़ उसके लिए रोटी बनाती थीं,

उसका बिस्तर बिछाती थी,

और बिछ जाती थी।

उस आदमी के मरने पर

पांच सौ आदमी

उसकी लाश के आस-पास एकत्र थे।

वे सब थे, जो उसके बारे में

कुछ भी जानते थे।

वे सब भी थे

जो उसके बारे में तो नहीं जानते थे

किन्तु उसकी पत्नी और बच्चों के बारे

में कुछ जानते थे।

कुछ ऐसे भी थे जो कुछ भी नहीं जानते थे

लेकिन फिर भी वहां थे।

उन पांच सौ   लोगों में

एक भी ऐसा आदमी नहीं था,

जिसे उसके मरने का

अफ़सोस न हो रहा हो।

लेकिन अफ़सोस का कारण

कोई नहीं बता पा रहा था।

अब उसकी लाश ले जाने का

समय आ गया था।

पांच सौ आदमी छंटने लगे थे।

श्‍मशान घाट तक पहुंचते-पहुंचते

बस कुछ ही लोग बचे थे।

लाश   जल रही थी,भीड़ छंट रही थी ।

एक आदमी मरा। एक औरत बची।

 

पता नहीं वह कैसी औरत थी।

अच्छी थी या बुरी

गुणी थी या कुलच्छनी।  

पर एक औरत बची।

एक आदमी से

पहचानी जाने वाली औरत।

अच्छे या बुरे आदमी की एक औरत।

दो अच्छे बच्चों की

या फिर हरामी पिल्लों की मां।

अभी तक उस औरत के पास

एक आदमी का नाम था।

वह कौन था, क्या था,

अच्छा था या बुरा,

इससे किसी को क्या लेना।

बस हर औरत के पीछे

एक अदद आदमी का नाम होने से ही

कोई भी औरत

एक औेरत हो जाती है।

और आदमी के मरते ही

औरत औरत न रहकर

पता नहीं क्या-क्या बन जाती है।

-

अब उस औरत को

एक नया आदमी मिला।

क्या फर्क पड़ता है कि वह

चालीस साल का है

अथवा चार साल का।

आदमी तो आदमी ही होता है।

 

उस दिन  हज़ार से भी ज़्यादा

आदमी एकत्र थे।

एक चार साल के आदमी को

पगड़ी पहना दी गई।

सत्ता दी गई उस आदमी की

जो मरा था।

अब वह उस मरे हुए आदमी का

उत्तरााधिकारी था ,

और उस औरत का भी।

उस नये आदमी की सत्ता की सुरक्षा के लिए

औरत का रंगीन दुपट्टा

और कांच की चूड़ियां उतार दी गईं।

-

एक आदमी मरा।

-

नहीं ! एक औरत मरी।

 

अपनी इच्छाओं के कसीदे

चोरी-चोरी, चुपके-चुपके

अपनी इच्छाओं के

कसीदे बुना करती थी।

पहले-पहल गुड्डे-गुड़िया

कुछ खेल-खिलौने, कंचे-गोटी

छुपन-छुपाई, कट्टी-मिट्टा,

इमली खट्टी, सब बुनती थी।

फिर सुना, गुड्डे-गुड़िया बड़े हो गये

और उनका विवाह हो गया।

अनायास एक दिन

सब कहीं खो गये।

-

और मुझे भी पता लगा

कि मैं भी बड़ी हो गई।

-

मेरी कसीदे की चादर

अब उधड़ने लगी थी,

एक हाथ से दूसरे हाथ

घूमने लगी थी।

जिसका जो जी चाहा

उस पर काढ़ने में लगा था,

मैं जी-जान से उस सबको

संवारने में लगी थी।

पर, हर धागा कहां संवरता है,

हर कसीदा कहां कुछ बोल पाता है।

-

और मैं

आज भी उस उधड़ी-अधबुनी चादर को

बांहों में लपेटे घूम रही हूं,

एक आस में।

लोग कहते है बुढ़िया सठिया गई है।