शांति बनाये रखने के लिए
अक्सर मुझे
बहुत-सी बातें
समझ नहीं आतीं।
विश्व शांति चाहता है
हर देश चाहता है
कि युद्ध न हों
सब अपने-आपमें
स्वतन्त्र-प्रसन्न रहें।
किन्तु
इस शांति को
बनाये रखने के लिए
भूख, ग़रीबी, शिक्षा
और रोज़गार को पीछे छोड़,
बनाने पड़ते हैं
अरबों-खरबों के
अस्त्र-शस्त्र
लाखों की संख्या में
तैयार किये जाते हैं सैनिक
सीमाएँ बांधी जाती हैं
समझौते किये जाते हैं
मीलों-मील दूर बैठे
निशाने बांध लिए जाते हैं।
जब हम
शांति के लिए
इतनी तैयारी करते हैं
तो युद्ध क्यों हो जाते हैं?
स्थायी समाधान की बात मत करना
हर रोज़ नहीं करते हम
चिन्ता किसी भी समस्या की,
जब तक विकराल न हो जाये।
बात तो करते हैं
किन्तु समाधान ढूँढना
हमारा काम नहीं है।
हाँ, नौटंकी हम खूब
करना जानते हैं।
खूब चिन्ताएँ परोसते हैं
नारे बनाते हैं
बातें बनाते हैं।
ग्रीष्म ऋतु में ही
हमें याद आता है
जल संरक्षण
शीत ऋतु में आप
स्वतन्त्र हैं
बर्बादी के लिए।
जल की ही क्यों,
समस्या हो पर्यावरण की
वृक्षारोपण की बात हो
अथवा वृक्षों को बचाने की।
या हो बात
पशु-पक्षियों के हित की
याद आ जाती है
कभी-कभी,
खाना डालिए, पानी रखिए,
बातें बनाईये
और कोई नई समस्या ढूँढिये
चर्चा के लिए।
बस
स्थायी समाधान की बात मत करना।
पावस की पहली बूंद
पावस की पहली बूंद
धरा तक पहुंचते-पहुंचते ही
सूख जाती है।
तपती धरा
और तपती हवाएं
नमी सोख ले जाती हैं।
अब पावस की पहली बूंद
कहां नम करती है मन।
कहां उमड़ती हैं
मन में प्रेम-प्यार,
मनुहार की बातें।
समाचार डराते हैं,
पावस की पहली बूंद
आने से पहले ही
चेतावनियां जारी करते हैं।
सम्हल कर रहना,
सामान बांधकर रख लो,
राशन समेट लो।
कभी भी उड़ा ले जायेंगी हवाएँ।
अब पावस की बूंद,
बूंद नहीं आती,
महावृष्टि बनकर आती है।
कहीं बिजली गिरी
कहीं जल-प्लावन।
क्या जायेगा
क्या रह जायेगा
बस इसी सोच में
रह जाते हैं हम।
क्या उजड़ा, क्या बह गया
क्या बचा
बस यही देखते रह जाते हैं हम
और अगली पावस की प्रतीक्षा
करते हैं हम
इस बार देखें क्या होगा!!!
राख पर किसी का नाम नहीं होता
युद्ध की विभीषिका
देश, शहर
दुनिया या इंसान नहीं पूछती
बस पीढ़ियों को
बरबादी की राह दिखाती है।
हम समझते हैं
कि हमने सामने वाले को
बरबाद कर दिया
किन्तु युद्ध में
इंसान मारने से
पहले भी मरता है
और मारने के बाद भी।
बच्चों की किलकारियाँ
कब रुदन में बदल जाती हैं
अपनों को अपनों से दूर ले जाती हैं
हम समझ ही नहीं पाते।
और जब तक समझ आता है
तब तक
इंसानियत
राख के ढेर में बदल चुकी होती है
किन्तु हम पहचान नहीं पाते
कि यह राख हमारी है
या किसी और की।
विश्व-शांति के लिए
विश्व-शांति के लिए
बनाने पड़ते हैं आयुध
रचनी पड़ती हैं कूटनीतियाँ
धर्म, जाति
और देश के नाम पर
बाँटना पड़ता है,
चिननी पड़ती हैं
संदेह की दीवारें
अपनी सुरक्षा के नाम पर।
युद्धों का
आह्वान करना पड़ता है
देश की रक्षा की
सौगन्ध उठाकर
झोंक दिये जाते हैं
युद्धों में
अनजान, अपरिचित,
किसी एक की लालसा,
महत्वाकांक्षा
ले डूबती है
पूरी मानवता
पूरा इतिहास।
एक मानवता को बसाने में
ये धुएँ का गुबार
और चमकती रोशनियाँ
पीढ़ियों को लील जाती हैं
अपना-पराया नहीं पहचानतीं
बस विध्वंस को जानती हैं।
किसी गोलमेज़ पर
चर्चा अधूरी रह जाती है
और परिणामस्वरूप
धमाके होने लगते हैं
बम फटने लगते हैं
लोग सड़कों-राहों पर
मरने लगते हैं।
क्यों, कैसे, किसलिए
कुछ नहीं होता।
शताब्दियाँ लग जाती हैं
एक मानवता को बसाने में
और पल लगता है
उसको उजाड़ कर चले जाने में।
फिर मलबों के ढेर में
खोजते हैं
इंसान और इंसानियत,
कुछ रुपये फेंकते हैं
उनके मुँह पर
ज़हरीले आंसुओं से सींचते हैं
उनके घावों को
बदले की आग में झोंकते हैं
उनकी मानसिकता को
और फिर एक
गोलमेज़ सजाने लगते हैं।
कौन है अपना कौन पराया कैसे जानें हम
अधिकार भी व्यापार हो गये हैं
तंग गलियों में हथियार हो गये हैं।
किसको मारें किसको काटें
कौन जलेगा, कहां मरेगा
अब क्या जानें हम।
अंधेरी राहों में भटक रहे हैं
अपने ही चेहरों से अनजाने हम।
दिन की भटकन छूट गई
रातें भीतर बिखर गईं
कौन है अपना कौन पराया
कैसे जानें हम।
अनजानी राहों पर
किसके पीछे
क्यों निकल पड़े हैं
इतना भी न जाने हम।
अपना ही घर फूंक रहे हैं,
राख में मोती ढूंढ रहे हैं,
श्मशानों में न घर बनते
इतना कब जानेंगे हम।
जीवन आशा प्रत्याशा या निराशा
हमारे बड़े-बुज़ुर्ग
सुनाया करते थे कहानियां,
चेचक, हैज़ा,
मलेरिया, डायरिया की,
जब महामारी फैलती थी,
तो सैंकड़ों नहीं
हज़ारों प्राण लेकर जाती थी।
गांव-गांव, शहर-शहर
लील जाती थी।
सूने हो जाते थे घर।
संक्रामक माना जाता था
इन रोगों को,
अलग कोठरी में
डाल दिया जाता था रोगी को,
और वहीं मर जाता था,
या कभी भाग्य अच्छा रहे,
तो बच भी जाया करता था।
और एक समय बाद
सन्नाटे को चीरता,
आप ही गायब हो जाता था रोग।
देसी दवाएं, हकीम, वैद्य
घरेलू काढ़े, हवन-पूजा,
बस यही थे रोग प्रतिरोधक उपाय।
और आज,
क्या वही दिन लौट आये हैं?
किसी और नाम से।
विज्ञान के चरम पर बैठे,
पर फिर भी हम बेबस,
हाथ बांधे।
उपाय तो बस दूरियां हैं
अपनों से अपनी मज़बूरियां हैं।
काल काल बनकर खड़ा है,
उपाय न कोई बड़ा है।
रोगी को अलग कर,
हाथ बांधे बस प्रतीक्षा में
बचेगा या पता नहीं मरेगा।
निर्मम, निर्मोही
जीवन-आशा,
जीवन-प्रत्याशा
या जीवन-निराशा ?
कहां समझ पाता है कोई
न आकाश की समझ
न धरा की,
अक्सर नहीं दिखाई देता
किनारा कोई।
हर साल,बार-बार,
जिन्दगी यूं भी तिरती है,
कहां समझ पाता है कोई।
सुना है दुनिया बहुत बड़ी है,
देखते हैं, पानी पर रेंगती
हमारी इस दुनिया को,
कहां मिल पाता है किनारा कोई।
सुना है,
आकाश से निहारते हैं हमें,
अट्टालिकाओं से जांचते हैं
इस जल- प्रलय को।
जब पानी उतर जाता है
तब बताता है कोई।
विमानों में उड़ते
देख लेते हैं गहराई तक
कितने डूबे, कितने तिर रहे,
फिर वहीं से घोषणाएं करते हैं
नहीं मरेगा
भूखा या डूबकर कोई।
पानी में रहकर
तरसते हैं दो घूंट पानी के लिए,
कब तक
हमारा तमाशा बनाएगा हर कोई।
अब न दिखाना किसी घर का सपना,
न फेंकना आकाश से
रोटियों के टुकड़े,
जी रहे हैं, अपने हाल में
आप ही जी लेंगे हम
न दिखाना अब
दया हम पर आप में से कोई।
सबकी ही तो हार हुई है
जब भी तकरार हुई है
सबकी ही तो हार हुई है।
इन राहों पर अब जीत कहां
बस मार-मारकर ही तो बात हुई है।
हाथ मिलाने निकले थे,
क्यों मारा-मारी की बात हुई है।
बात-बात में हो गई हाथापाई,
न जाने क्यों
हाथ मिलाने की न बात हुई है।
समझ-बूझ से चले है दुनिया,
गोला-बारी से तो
इंसानियत बरबाद हुई है।
जब भी युद्धों का बिगुल बजा है,
पूरी दुनिया आक्रांत हुई है।
समझ सकें तो समझें हम,
आयुधों पर लगते हैं अरबों-खरबों,
और इधर अक्सर
भुखमरी-गरीबी पर बात हुई है।
महामारी से त्रस्त है दुनिया
औषधियां खोजने की बात हुई है।
चल मिल-जुलकर बात करें।
तुम भी जीओ, हम भी जी लें।
मार-काट से चले न दुनिया,
इतना जानें, तब आगे बढ़े है दुनिया।
एक बदली सोच के साथ
चौबीसों घंटे चाक-चौबन्द
फेरी वाला, दूध वाला,
राशनवाला,
रोगी वाहन बनी घूम रही।
खाना परोस रही,
रोगियों को अस्पताल ढो रही,
घर में रहो , घर में रहो !!!
कह, सुरक्षा दे रही,
बेघर को घर-घर पहुंचा रही,
आप भूखे पेट
भूखों को भोजन करा रही।
फिर भी
हमारी नाराज़गियां झेल रही
ये हमारी पुलिस कर रही।
पुलिस की गाड़ी की तीखी आवाज़
आज राहत का स्वर दे रही।
गहरी सांस लेते हैं हम
सुरक्षित हैं हम, सुरक्षित हैं हम।
सोचती हूं
सोच कैसे बदलती है
क्यों बदलती है सोच।
कभी आपने सोचा है
क्या है आपकी सोच ?
कुछ धारणाएं बनाकर
जीते हैं हम,
जिसे बुरा कहने लगते हैं
बुरा ही कहते हैं हम।
चाहे घर के भीतर हों
या घर के बाहर
चोर तो चोर ही होता है,
यह समझाते हैं हम।
नाके पर लूटते,
जेबें टटोलते,
अपराधियों के सरगना,
झूठे केस बनाते,
आम आदमी को सताते,
रिश्वतें खाते,
नेताओं की करते चरण-वन्दना।
कितनों से पूछा
आपके साथ कब-कब हुआ ऐसा हादसा ?
उत्तर नहीं में मिला।
तो मैंने कहा
फिर आप क्यो कहते हैं ऐसा।
सब कहते हैं, सब जानते हैं,
बस ,इसीलिए हम भी कह देते हैं,
और कहने में क्या जाता है ?
यह हमारा चरित्र है!!!!!!!
न देखी कभी उनकी मज़बूरियां,
न समझी कभी उनकी कहानियां
एक दिन में तो नहीं बदल गया
उनका मिज़ाज़
एक दिन में तो
नहीं बन गये वे अच्छे इंसान।
वे ऐेसे ही थे, वे ऐसे ही हैं।
शायद कभी हुआ होगा
कोई एक हादसा,
जिसकी हमने कहानी बना ली
और वायरल कर दी,
गिरा दिया उनका चरित्र
बिन सोचे-समझे।
नमन करती हूं इन्हें ,
कभी समय मिले
तो आप भी स्मरण करना इन्हें ,
स्मरण करना इन्हें
एक बदली सोच के साथ
नादानियां भी आप ही तो कर रहे हैं हम
बाढ़ की विभीषिका से देखो डर रहे हैं हम
नादानियां भी आप ही तो कर रहे हैं हम
पेड़ काटे, नदी बांधी, जल-प्रवाह रोक लिए
आफ़त के लिए सरकार को कोस रहे हैं हम
हादसा
यह रचना मैंने उस समय लिखी थी जब 1987 में चौधरी चरण सिंह की मृत्यु हुई थी और उसी समय लालडू में दो बसों से उतारकर 43 और 47 सिखों को मौत के घाट उतार दिया था।)
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भूचाल, बाढ़, सूखा।
सामूहिक हत्याएं, साम्प्रदायिक दंगे।
दुर्घटनाएं और दुर्घटनाएं।
लाखों लोग दब गये, बह गये, मर गये।
बचे घायल, बेघर।
प्रशासन निर्दोष। प्राकृतिक प्रकोप।
खानदानी शत्रुता। शरारती तत्व।
विदेशी हाथ।
सरकार का कर्त्तव्य
आंकड़े और न्यायिक जांच।
पदयात्राएं, आयोग और सुझाव।
चोट और मौत के अनुसार राहत।
विपक्षी दल
बन्द का आह्वान।
फिर दंगे, फिर मौत।
सवा सौ करोड़ में
ऐसी रोज़मर्रा की घटनाएं
हादसा नहीं हुआ करतीं।
हादसा तब हुआ
जब एक नब्बे वर्षीय युवा,
राजनीति में सक्रिय
स्वतन्त्रता सेनानी
सच्चा देशभक्त
सर्वगुण सम्पन्न चरित्र
असमय, बेमौत चल बसा
अस्पताल में
दस वर्षों की लम्बी प्रतीक्षा के बाद।
हादसा ! बस उसी दिन हुआ।
देश शोक संतप्त।
देश का एक कर्णधार कम हुआ।
हादसे का दर्द
बड़ा गहरा है
देश के दिल में।
क्षतिपूर्ति असम्भव।
और दवा -
सरकारी अवकाश,
राजकीय शोक, झुके झण्डे
घाट और समाधियां,
गीता, रामायण, बाईबल, कुरान, ग्रंथ साहिब
सब आकाशवाणी और दूरदर्शन पर।
अब हर वर्ष
इस हादसे का दर्द बोलेगा
देश के दिल में
नारों, भाषणों, श्रद्धांजलियों
और शोक संदेशों के साथ।
ईश्वर उनकी दिवंगत आत्मा को
शांति देना।