देश और ध्वज
देश
केवल एक देश नहीं होता
देश होता है
एक भाव, पूजा, अर्चना,
और भक्ति का आधार।
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ध्वज
केवल एक ध्वज नहीं होता
ध्वज होता है प्रतीक
देश की आन, बान,
सम्मान और शान का।
.
और यह देश भारत है
और है आकाश में लहराता
हमारा तिरंगा
और जब वह भारत हो
और हो हमारा तिरंगा
तब शीश स्वयं झुकता है
शीश मान से उठता है
जब आकाश में लहराता है तिरंगा।
.
रंगों की आभा बिखेरता
शक्ति, साहस
सत्य और शांति का संदेश देता
हमारे मन में
गौरव का भाव जगाता है तिरंगा।
.
जब हम
निरखते हैं तिरंगे की आभा,
गीत गाते हैं
भारत के गौरव के,
शस्य-श्यामला
धरा की बात करते हैं
तल से अतल तक विस्तार से
गर्वोन्नत होते हैं
तब हमारा शीश झुकता है
उन वीरों की स्मृति में
जिनके रक्त से सिंची थी यह धरा।
.
स्वर्णिम आज़ादी का
उपहार दे गये हमें।
आत्मसम्मान, स्वाभिमान
का भान दे गये हमें
देश के लिए जिएँ
देश के लिए मरें
यह ज्ञान दे गये हमें।
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स्वर्णिम आज़ादी का
उपहार दे गये हमें।
आत्मसम्मान, स्वाभिमान
का भान दे गये हमें
हम सब कैसे एक हैं
उलझता है बालपन
पूछता है कुछ प्रश्न
लिखा है पुस्तकों में
और पढ़ते हैं हम,
हम सब एक हैं,
हम सब एक हैं।
साथ-साथ रहते
साथ-साथ पढ़ते
एक से कपड़े पहन,
खाते-पीते , खेलते।
फिर आज
यह क्या हो गया
इसे हिन्दू बना दिया गया
मुझे मुसलमान
और इसे इसाई।
और कुछ मित्र बने हैं
सिख, जैनी, बौद्ध।
फिर कह रहे हैं
हम सब एक हैं।
बच्चे हैं हम।
समझ नहीं पा रहे हैं
कल तक भी तो
हम सब एक-से थे।
फिर आज
यूं
अलग-अलग बनाकर
क्यों कह रहे हैं
हम सब एक हैं,
हम सब एक हैं।
आत्मश्लाघा का आनन्द
अच्छा लगता है
जब
किसी-किसी एक दिन
पूरे साल में
बड़े सम्मान से
स्मरण करते हो मुझे।
मुझे ज्ञात होता है
कितनी महत्वपूर्ण हूं मैं
कितनी गुणी, जगद्जननी
मां, सुता, देवी, त्याग की मूर्ति,
इतने शब्द, इतनी सराहना
लबालब भर जाता है मेरा मन
और उलीचने लगते हैं भाव।
फिर
सालती हैं
यह स्मृतियां पूरे साल।
सम्मान पत्र
व्यंग्योक्तियों से
महिमा-मण्डित होने लगते हैं।
रसोई में टांग देती हूं
सम्मान-पत्रों को
हल्दी-नमक से
तिलक करती हूं सारा साल]
कभी-कभी
बर्तनों की धुलाई में
मिट जाती है लिखाई
निकल बह जाते हैं
नाली से
लुगदी बन फंसतीं है कहीं
और फिर पूरा वर्ष
निकल जाता है
सफ़ाई अभियान में।
वर्ष में कई बार याद आता है
नारी तू नारायणी।
और हम चहक उठते हैं
मिले इस कुछ दिवसीय सम्मान से।
अपना गुणगान
आप ही करने लगते हैं।
आत्मश्लाघा का भी तो
एक अपना ही आनन्द होता है।
प्रेम की एक नवीन धारा
हां, प्रेम सच्चा रहे,
हां , प्रेम सच्चा रहे,
हर मुस्कुराहट में
हर आहट में
रूदन में या स्मित में
प्रेम की धारा बही
मन की शुष्क भूमि पर
प्रेम-रस की
एक नवीन छाया पड़ी।
पल-पल मानांे बोलता है
हर पल नवरस घोलता है
एक संगीत गूंजता है
हास की वाणी बोलता है
दूरियां सिमटने लगीं
आहटें मिटने लगीं
सबका मन
प्रेम की बोली बोलता है
दिन-रात का भान न रहा
दिन में भी
चंदा चांदनी बिखेरने लगा
टिमटिमाने लगे तारे
रवि रात में भी घाम देने लगा
इन पलों का एहसास
शब्दातीत होने लगा
बस इतना ही
हां, प्रेम सच्चा रहे
हां, प्रेम सच्चा लगे
मन तो बहकेगा ही
कभी बादलों के बीच से झांकता है चांद।
न जाने किस आस में
तारे उसके आगे-पीछे घूम रहे,
तब रूप बदलने लगा ये चांद।
कुछ रंगीनियां बरसती हैं गगन से]
धरा का मन शोख हो उठा ।
तिरती पल्लवों पर लाज की बूंदे
झुकते हैं और धरा को चूमते हैं।
धरा शर्माई-सी,
आनन्द में
पक्षियों के कलरव से गूंजता है गगन।
अब मन तो बहकेगा ही
अब आप ही बताईये
क्या करें।
शुष्कता को जीवन में रोपते हैं
भावहीन मन,
उजड़े-बिखरे रिश्ते,
नेह के अभाव में
अर्थहीन जीवन,
किसी निर्जन वन-कानन में
अन्तिम सांसे गिन रहे
किसी सूखे वृक्ष-सा
टूटता है, बिखरता है।
बस
वृक्ष नहीं काटने,
वृक्ष नहीं काटने,
सोच-सोचकर हम
शुष्कता को जीवन में
रोपते रहते हैं।
रसहीन ठूंठ को पकड़े,
अपनी जड़ें छोड़ चुके,
दीमक लगी जड़ों को
न जाने किस आस में
सींचते रहते हैं।
समय कहता है,
पहचान कर
मृत और जीवन्त में।
नवजीवन के लिए
नवसंचार करना ही होगा।
रोपने होंगे नये वृ़क्ष,
जैसे सूखे वृक्षों पर फल नहीं आते
पक्षी बसेरा नहीं बनाते
वैसे ही मृत आकांक्षाओं पर
जीवन नहीं चलता।
भावुक न बन।
अन्तर्मन का पंछी
अन्तर्मन का पंछी
कब क्या बोले,
क्या जानें।
कुछ टुक-टुक
कुछ कुट-कुट
कुछ उलझे, कुछ सुलझे
किससे क्या कह डाले
कब क्या सुन ले
आैर किससे क्या कह डाले
क्या जानें।
यूं तो पोथी-पोथी पढ़ता
आैर बात नासमझों-सी करता।
कब किसका चुग्गा
चुग डाले
आैर कब
माणिक –मोती ठुकराकर चल दे
क्या जाने।
भावों की लेखी
लिख डाले
किस भाषा में
किन शब्दों में
न हम जानें।
शांति और सन्नाटा
हम अक्सर सन्नाटे और
शांति को एक समझ बैठते हैं।
शांति भीतर होती है,
और सन्नाटा !!
बाहर का सन्नाटा
जब भीतर पसरता है
बाहर से भीतर तक घेरता है,
तब तोड़ता है।
अन्तर्मन झिंझोड़ता है।
सन्नाटे में अक्सर
कुछ अशांत ध्वनियां होती हैं।
हवाएं चीरती हैं
पत्ते खड़खड़ाते हैं,
चिलचिलाती धूप में
बेवजह सनसनाती आवाज़ें,
लम्बी सूनी सड़कें
डराती हैं,
आंधियां अक्सर भीतर तक
झकझोरती हैं,
बड़ी दूर से आती हैं
कुत्ते की रोने की आवाज़ें,
बिल्लियां रिरियाती है।
पक्षियों की सहज बोली
चीख-सी लगने लगती है,
चेहरे बदनुमा दिखने लगते हैं।
हम वजह-बेवजह
अन्दर ही अन्दर घुटते हैं,
सोच-समझ
कुंद होने लगती है,
तब शांति की तलाश में निकलते हैं
किन्तु भीतर का सन्नाटा छोड़ता नहीं।
कोई न मिले
तो अपने-आपको
अपने साथ ही बांटिये,
अपने-आप से मिलिए,
लड़िए, झगड़िए, रूठिए,मनाईये।
कुछ खट्टा-मीठा, मिर्चीनुमा बनाईये
खाईए, और सन्नाटे को तोड़ डालिए।
चल आज लड़की-लड़की खेलें
चल आज लड़की-लड़की खेलें।
-
साल में
तीन सौ पैंसठ दिन।
कुछ तुम्हारे नाम
कुछ हमारे नाम
कुछ इसके नाम
कुछ उसके नाम।
रोज़ सोचना पड़ता है
आज का दिन
किसके नाम?
कुछ झुनझुने लेकर
घूमते हैं हम।
आम से खास बनाने की
चाह लिए
जूझते हैं हम।
समस्याओं से भागते
कुछ नारे
गूंथते हैं हम।
कभी सरकार को कोसते
कभी हालात पर बोलते
नित नये नारे
जोड़ते हैं हम।
हालात को समझते नहीं
खोखले नारों से हटते नहीं
वास्तविकता के धरातल पर
चलते नहीं
सच्चाई को परखते नहीं
ज़िन्दगी को समझते नहीं
उधेड़-बुन में लगे हैं
मन से जुड़ते नहीं
जो करना चाहिए
वह करते नहीं
बस बेचारगी का मज़ा लेते हैं
फिर आनन्द से
अगले दिन पर लिखने के लिए
मचलते हैं।
नारी स्वाधीनता की बात
मैं अक्सर
नारी स्वाधीनता की
बहुत बात करती हूँ।
रूढ़ियों के विरुद्ध
बहुत आलेख लिखती हूँ।
पर अक्सर
यह भी सोचती हूँ
कि समाज और जीवन की
सच्चाई से
हम मुँह तो मोड़ नहीं सकते।
जीवन तो जीवन है
उसकी धार के विपरीत
तो जा नहीं सकते।
वैवाहिक संस्था को हम
नकार तो नहीं सकते।
मानती हूँ मैं
कि नारी-हित में
शिक्षा से बड़ी कोई बात नहीं।
किन्तु परिवार को हम
बेड़ियाँ क्यों मानने लगे हैं
रिश्तों में हम
जकड़न क्यों महसूस करने लगे हैं।
पर्व-त्यौहार
क्यों हमें चुभने लगे हैं,
रीति-रिवाज़ों से क्यों हम
कतराने लगे हैं।
परिवार और शिक्षा
कोई समानान्तर रेखाएँ नहीं।
जीवन का आधार हैं ये
भरा-पूरा संसार हैं ये।
रूढ़ियों को हटायें
हाथ थाम आगे बढ़ाएँ।
जीवन को सरल-सुगम बनाएँ।
कुछ तो हुआ होगा
कुछ तो हुआ होगा
जो हाथों में मशालें उठीं
कुछ तो किया होगा
जो सड़कों पर आहें उगीं
कुछ तो जला होगा
जो नारों से गलियां गूंजीं
कुछ तो सहा होगा
जो शहर-शहर भीड़ उमड़ी
इतना आसान नहीं लगता मुझे
कि शहर-शहर
किसी एक बात को लेकर
किसी को यूं भड़काया जा सके
युवक ही नहीं
युवतियों को भी उकसाया जा सके
पुस्तकालयों में पढ़ते बच्चे
कैसे सड़कों पर आ बैठे
नहीं जानते हम, नहीं पढ़ते हम
नहीं समझते हम
सुनी-सुनाई, अधकचरी सूचनाओं से
भड़कते हम।
बस , कचरा परोसा जा रहा
गली-गली परनाले बहते
हम उसे उंडेल उंडेल कर
नाक सिकुड़ते, भौं मरोड़ते
सच्चाई के पीछे भागते
तो हाथ जलते
कहां से शुरू हो रहा
और कहां होगा अन्त
नहीं जानते हम।
कोशिश तो करते हैं
लिखने की
कोशिश तो करते हैं
पर क्या करें हे राम!
छुट्टी के दिन करने होते हैं
घर के बचे-खुचे कुछ काम।
धूप बुलाती आंगन में
ले ले, ले ले विटामिन डी
एक बजे तक सेंकते हैं
धूप जी-भरकर जी।
फिर करके भारी-भारी भोजन
लेते हैं लम्बी नींद जी।
संध्या समय
मंथन पढ़ते-पढ़ते ही
रह जाते हैं हम
जब तक सोंचे
कमेंट करें
आठ बज जाते हैं जी।
फिर भी
लिखने की
कोशिश तो करते हैं
पर क्या करें हे राम!
कानून तोड़ना अधिकार हमारा
अधिकारों की बात करें
कर्तव्यो का ज्ञान नहीं,
पढ़े-लिखे अज्ञानी
इनको कौन दे ज्ञान यहां।
कानून तोड़ना अधिकार हमारा।
पकड़े गये अगर
ले-देकर बात करेंगे,
फिर महफिल में बीन बजेगी
रिश्वतखोरी बहुत बढ़ गई,
भ्रष्टाचारी बहुत हो गये,
कैसे अब यह देश चलेगा।
आरोपों की झड़ी लगेगी,
लेने वाला अपराधी है
देने वाला कब होगा ?
दीप प्रज्वलित कर न पाई
मैं चाहकर भी
दीप प्रज्वलित कर न पाई।
घृत भी था, दीप भी था,
पर भाव ला न पाई,
मैं चाहकर भी
दीप प्रज्वलित कर न पाई।
लौ भीतर कौंधती थी,
सोचती रह गई,
समय कब बीत गया
जान ही न पाई।
मैं चाहकर भी
दीप प्रज्वलित कर न पाई।
मित्रों ने गीत गाये,
झूम-झूम नाचे गाये,
कहीं से आरती की धुन,
कहीं से ढोल की थाप
बुला रही थी मुझे
दुख मना रहे हैं या खुशियां
समझ न पाई।
कुछ अफ़वाहें
हवा में प्रदूषण फैला रही थी।
समस्या से जूझ रहे इंसानों को छोड़
धर्म-जाति का विष फैला रही थीं।
लोग सड़कों पर उतर आये,
कुछ पटाखे फोड़े,
पटाखों की रोशनाई
दिल दहला रहीं थी,
आवाज़ें कान फोड़ती थी।
अंधेरी रात में
दूर तक दीप जगमगाये,
पुलिस के सायरन की आवाज़ें
कान चीरती थीं।
दीप हाथ में था
ज्योति थी,
हाथ में जलती शलाका
कब अंगुलियों को छू गई
देख ही न पाई।
सीत्कार कर मैं पीछे हटी,
हाथ से दीप छूटा
भीतर कहीं कुछ और टूटा।
क्या कहूं , कैसे कहूं।
पर ध्यान कहीं और था।
घृत भी था, दीप भी था,
पर भाव ला न पाई,
मैं चाहकर भी
दीप प्रज्वलित कर न पाई।
उतर कभी धरा पर
अक्सर मन करता है
पूछूं चांद से
कहीं दूर
गगन में चमकता है
उतर कभी धरा पर
फिर देख कैसे
अंधेरा लीलता है,
भरपूर रोशनी में भी
कैसे अंधेरा बोलता है।
मुझको क्या करना है
मुझको कल पेपर देना है
कोई नकल करवा दे रे।
पढ़ते-पढ़ते सो जाती हूं,
कोई मुझको उठवा दे रे।
अंग्रेज, गणित भूगोल समझ न आये
कोई मुझको समझा दे रे।
नामों की सूची इतनी लम्बी
कोई तो मुझको याद करवा दे रे ।
क्या करना है मुझको
कि सूरज और चंदा कितनी दूर।
क्या करना है मुझको
कि दुनिया में कितने देश और कितनी दूर।
हे इन्द्र देवता
कल शहर में
भारी बारिश करवा दे रे।
जाम लगे और सड़कें बन्द हों,
पेपर रूकवा दे रे।
क्यों इतने युद्ध हुए
किसने करवाये
क्यों करवाये
कोई मुझको बतला दे रे।
पढ़-पढ़कर सर चकराता है
कोई मुझको
अदरक वाली चाय पिलवा दे रे।
जीवन के कितने पल
वियोग-संयोग भाग्य के लेखे
अपने-पराये कब किसने देखे
दुःख-सुख तो आने-जाने हैं
जीवन के कितने पल किसने देखे।
अपना साहस परखता हूँ मैं
आसमान में तिरता हूँ मैं।
धरा को निहारता हूँ मैं।
अपना साहस परखता हूँ मैं।
मंज़िल पाने के लिए
खतरों से खेलता हूँ मैं।
यूँ भी जीवन का क्या भरोसा
लेकिन अपने भरोसे
आगे बढ़ता ही बढ़ता हूँ मैं।
हवाएँ घेरती हैं मुझे,
ज़माने की हवाओं को
परखता हूँ मैं।
साथी नहीं, हमसफ़र नहीं
अकेले ही
अपनी राहों को
तलाशता हूँ मैं।
भेड़-चाल की बात
कभी आपने महसूस किया है
कि भीड़ होने के बावजूद
एक अकेलापन खलता है।
लोग समूहों में तो
दिखते हैं
किन्तु सूनापन खलता है।
कहा जाता था
झुंड पशुओं के होते हैं
और समूह इंसानों के।
किन्तु आजकल
दोनों ही नहीं दिखते।
सब अपने-अपने दड़बों में
बन्द होकर
एक-दूसरे को परख रहे हैं।
कभी भेड़ों के समूह के लिए
भेड़-चाल की
बहुत बात हुआ करती थी
जहाँ उनके साथ
सदैव
एक गड़रिया रहा करता था,
उनका मालिक,
और एक कुत्ता।
भेड़ें तो
अपनी भेड़-चाल चलती रहती थीं
नासमझों की तरह।
गड़रिया
बस एक डण्डा लिए
हांकता रहता था उन्हें।
किन्तु कुत्ता !
घूमता रहता था
उनके चारों ओर
गीदड़ और सियार से
उनकी रक्षा के लिए।
अब
भेड़ों के समूह तो बिखर गये।
कुत्ते, सियार और गीदड़
मिलकर
नये-नये समूह बनाये घूम रहे हैं
आप दड़बों में बन्द रहिए
वे आपको समूह का महत्व समझा रहे हैं।
इरादे नेक हों तो
सिर उठाकर जीने का
मज़ा ही कुछ और है।
बाधाओं को तोड़कर
राहें बनाने का
मज़ा ही कुछ और है।
इरादे नेक हों तो
बड़े-बड़े पर्वत ढह जाते हैं
इस धरा और पाषाणों को भेदकर
गगन को देखने का
मज़ा ही कुछ और है।
बहुत कुछ सिखा जाता है यह अंकुरण
सुविधाओं में तो
सभी पनप लेते हैं
अपनी हिम्मत से
अपनी राहें बनाने मज़ा ही कुछ और है।
चोर-चोर मौसरे भाई
कहते हैं
चोर-चोर मौसरे भाई।
यह बात मेरी तो
कभी समझ न आई।
कितने भाई?
केवल मौसेरे ही क्यों भाई?
चचेरे, ममेरे की गिनती
क्यों नहीं आई?
और सगे कोई कम हैं,
उनकी बात क्यों न उठाई?
किसने देखे, किसने जाने
किसने पहचाने?
यूँ ही बदनाम किया
न जाने किसने यह
कहावत बनाई।
आधी रात होने को आई
और मेरी कविता
अभी तक न बन पाई।
और जब बात चोरों की है
तब क्या मौसेरे
और क्या चचेरे
सबसे डर कर रहना भाई।
बात चोरों की चली है
तो दरवाज़े-खिड़कियाँ
सब अच्छे से बन्द हैं
ज़रा देख लेना भाई।
चिड़िया से पूछा मैंने
चिड़िया रानी क्या-क्या खाती
राशन-पानी कहाँ से लाती
मुझको तो कुछ न बतलाती
थाली-कटोरी कहाँ से पाती
चोंच में तिनका लेकर घूमे
कहाँ बनाया इसने घर
इसके घर में कितने मैंम्बर
इधर-उधर फुदकती रहती
डाली-डाली घूम रही
फूल-फूल को छू रही
मैं इसके पीछे भागूं
कभी नीचे आती
कभी ऊपर जाती
मेरे हाथ कभी न आती।
नई राहें
नई राहें
तो सरकार बनवाती है।
कभी मरम्मत करवाती है,
कभी गढ्ढे भरवाती है।
कभी पहाड़ कटते हैं,
तो कभी नदियों के
रास्ते बदलते हैं।
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और हमारी राहें!
-
राहें तो पुरानी होती हैं
बस हमारी चालें
नई होती हैं।
ओस की बूंदें
अंधेरों से निकलकर बहकी-बहकी-सी घूमती हैं ओस की बूंदें ।
पत्तों पर झूमती-मदमाती, लरजतीं] डोलती हैं ओस की बूंदें ।
कब आतीं, कब खो जातीं, झिलमिलातीं, मानों खिलखिलातीं
छूते ही सकुचाकर, सिमटकर कहीं खो जाती हैं ओस की बूंदें।
अपनेपन को समझो
रिश्तों में जब बिखराव लगे तो अपनी सीमाएं समझो
किसी और की गलती से पहले अपनी गलती परखो
इससे पहले कि डोरी हाथ से छूटती, टूटती दिखे
कुछ झुक जाओ, कुछ मना लो, अपनेपन को समझो
उलझे बैठे हैं अनजान राहों में
जीवन ऊँची-नीची डगर है।
मन में भावनाओं का समर है।
उलझे बैठे हैं अनजान राहों में
मानों अंधेरों में ही अग्रसर हैं।
मन सूना लगता है
दुनिया चाहे सम्मान दे, पर अपने मन को परखिए।
क्या पाया, क्या खाया, क्या गंवाया, जांच कीजिए।
कीर्ति पताकाएँ लहराती हैं, महिमा-गान हो रहा,
फिर भी मन सूना लगता है, इसका कारण जांचिए।
मुस्कुराहटें बांटती हूँ
टोकरी-भर मुस्कुराहटें बांटती हूँ।
जीवन बोझ नहीं, ऐसा मानती हूँ।
काम जब ईमान हो तो डर कैसा,
नहीं किसी का एहसान माँगती हूँ।
हालात कहाँ बदलते हैं
वर्ष बदलते हैं
दिन-रात बदलते हैं
पर हालात कहाँ बदलते हैं।
नया साल आ जाने पर
लगता था
कुछ तो बदलेगा,
यह जानते हुए भी
कि ऐसा सोचना ही
निरर्थक है।
आस-पास
जैसे सब ठहर गया हो।
मन की ऋतुएँ
नहीं बदलतीं अब,
शीत, बसन्त, ग्रीष्म हो
या हो पतझड़
कोई नयी आस लेकर
नहीं आते अब,
किसी परिवर्तन का
एहसास नहीं कराते अब।
बन्द खिड़कियों से
न मदमाती हवाएँ
रिझाती हैं
और न रिमझिम बरसात
मन को लुभाती है।
एक ख़ौफ़ में जीते हैं
डरे-डरे से।
नये-नये नाम
फिर से डराने लगे हैं
हम अन्दर ही अन्दर
घबराने लगे हैं।
द्वार फिर बन्द होने लगे हैं
बाहर निकलने से डरने लगे हैं,
आशाओं-आकांक्षाओं के दम
घुटने लगे हैं
हम पिंजरों के जीव
बनने लगे हैं।
उधारों पर दुनिया चलती है
सिक्कों का अब मोल कहाँ
मिट्टी से तो लगते हैं।
पैसे की अब बात कहाँ
रंगे कार्ड-से मिलते हैं।
बचत गई अब कागज़ में
हिसाब कहाँ अब मिलते हैं।
खन-खन करते सिक्के
मुट्ठी में रख लेते थे।
पाँच-दस पैसे से ही तो
नवाब हम हुआ करते थे।
गुल्लक कब की टूट गई
बचत हमारी गोल हुई।
मंहगाई-टैक्सों की चालों से
बुद्धि हमारी भ्रष्ट हुई।
पैसे-पैसे को मोहताज हुए,
किससे मांगें, किसको दे दें।
उधारों पर दुनिया चलती है
शान इसी से बनती है।