कविता लिखने की रैसिपी

काव्य-सृजन एवं स्वाधीनता के बीच की एवं मेरे जीवन की यह एक सत्य-कथा है

इधर मेरे लेखन में बहुत परिवर्तन आया है, आभारी हूं आप सब मित्रों की, साहित्यिक समूहों की, अन्यथा मेरी रचनाओं में बहुत ही नकारात्मकता रहती थी एवं सबसे बड़ी समस्या यह थी कि मेरी कविताएंनारीनुमाकही जाती थी। एेसा मेरे कवि-मित्र कहा करते थे कि मेरी रचनाओं में नारी के अतिरिक्त कोई विषय ही नहीं होता।

बहुत पुरानी बात है, शायद 1996-97 की। 15 अगस्त पर होने वाले कवि-सम्मेलन के निमन्त्रण के साथ ही मुझे यह धमकी भी मिली कि मैं इस कवि-सम्मेलन में कोई नारीनुमा रचना लेकर नहीं आउंगी, देश-प्रेम की ही रचना होनी चाहिए। जब मैंने यह कहा कि मेरे मन में जो भाव उद्वेलित करते हैं उन पर ही लिख पाती हूं, तो उत्तर में संचालक महोदय ने मुझसे पूछा कि मेरे भीतर देश-भक्ति की भावना नहीं है? और  यह भी समझाया कि देश-भक्ति पर कविता लिखना तो सबसे सरल है।

अब उन्होंने मुझे देश-भक्ति की रचना लिखने का लिए जो रैसिपी दी आप भी लीजिए, कवियों के स्वास्थ्य के लिए पर्याप्त लाभप्रद है।

उन्होंने मुझे समझाया कि मैं अपने पुत्र की पांचवी-छठी कक्षा की राजनीति की कोई पुस्तक लूं और  उसमें से स्वाधीनता सेनानियों के नाम लिख लूं। जैसे लाल, बाल, गोपाल, नेहरू, गांधी, पटेल, भगतसिंह, राजगुरू, चंद्रशेखर आज़ाद, तिलक, झांसी की रानी, नाना और   जाने कितने ही नाम। अब इनके साथ जलियांवाला बाग,  स्वीधनता, आज़ादी, देश-प्रेम, त्याग, बलिदान, आहुति, फांसी, शहीद, वतन, देश, अंग्रेज, विदेशी, आततायी, राष्ट्र् जैसे शब्दों को लूं इन सबको मिलाकर थोड़ी सी तुकबन्दी और  देशभक्ति की कविता तैयार।

क्या आप मित्रों के पास है कोई नुस्खा कविताएं लिखने का ?

  

ओस की बूंदें

अंधेरों से निकलकर बहकी-बहकी-सी घूमती हैं ओस की बूंदें ।

पत्तों पर झूमती-मदमाती, लरजतीं] डोलती हैं ओस की बूंदें ।

कब आतीं, कब खो जातीं, झिलमिलातीं, मानों खिलखिलातीं

छूते ही सकुचाकर, सिमटकर कहीं खो जाती हैं ओस की बूंदें। 

गीत मधुर हम गायेंगे

गीत मधुर हम गायेंगे 

गई थी मैं दाना लाने

क्यों बैठी है मुख को ताने।

दो चींटी, दो पतंगे,

तितली तीन लाई हूं।

अच्छे से खाकर

फिर तुझको उड़ना

सिखलाउंगी।

पानी पीकर

फिर सो जाना,

इधर-उधर नहीं है जाना।

आंधी-बारिश आती है,

सब उजाड़ ले जाती है।

नीड़ से बाहर नहीं है आना।

मैं अम्मां के घर लेकर जाउंगी।

देती है वो चावल-रोटी

कभी-कभी देर तक सोती।

कई दिन से देखा न उसको,

द्वार उसका खटखटाउंगी,

हाल-चाल पूछकर उसका

जल्दी ही लौटकर आउंगी।

फिर मिलकर खिचड़ी खायेंगे,

गीत मधुर हम गायेंगे।

    

 

 

एक अपनापन यूं ही

सुबह-शाम मिलते रहिए

दुआ-सलाम करते रहिए

बुलाते रहिए अपने  घर

काफ़ी-चाय पिलाते रहिए

आत्म संतोष क्या जीवन की उपलब्धि है

प्रायः कहा जाता है कि जीवन में आत्म-संतोष ही जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है, यही परम संतोष है।

किन्तु आत्म संतोष क्या है?

क्या अपनी इच्छाओं, अभिलाषाओं का दमन आत्म-संतोष का मार्ग है?

वास्तविक धरातल पर जीवन जीना जितना कठिन और कटु है  उपदेश देना और सुनाना उतना ही सरल।

पर उपदेश कुशल बहुतेरे।

वर्तमान उलझनों भरे जीवन, भागम-भाग की जीवन शैली, प्रतियोगिताओं, एक-दूसरे से आगे निकल जाने की दौड़, प्रतिदिन कुछ नया पाने की चाहत, पुरातनता और  नवीनता के बीच उलझते, परम्पराओं, संस्कृति और आधुनिकतम जीवन शैली; तब आत्म संतोष कहाँ और परम संतोष कहाँ! हम अपनी इच्छाओं, आवश्यकताओं को किसी सीमा में नहीं बांध सकते, क्योंकि हमारी इच्छाएँ और सीमाएँ केवल हमारी नहीं होती, हमारे परिवेश से जुड़ी होती हैं।

आत्म संतोष की सीमा क्या है, कौन सा द्वार है जहाँ पहुँच कर हम यह समझ लें कि अब बस। जीवन की समस्त उपलब्धियाँ प्राप्त कर ली हमने। अब परम धाम चलते हैं। क्या ऐसा सम्भव है?

जी नहीं, बनी-बनाई उपदेशात्मक सूक्तियाँ सुना देना, कुछ आप्त वाक्य बोल देना, ग्रंथों से सूक्तियाँ उद्धृत करना और यह कहना कि हममें आत्म संतोष होना चाहिए और वह ही परम संतोष है, किसी के भी जीवन का सबसे बड़ा झूठ और छल है।

हम यह नहीं कह सकते कि आत्म-संतोष मिल गया और हम परम संतोष की अवस्था में पहुँच गये।

मेरे विचार में आत्म संतोष क्षणिक है, सीमित है, इसका विस्तार जीवनगत नहीं है। जैसे हम कहते हैं आज मेरे बच्चे को मेरा बनाया भोजन बहुत पसन्द आया, मुझे आत्म संतोष मिला। अथवा आज मैंने किसी की सहायता की, मन आत्म-संतोष से भर गया, और मैं परम संतोष की अवस्था में पहुँच गई। अथवा मेरे व्यवहार से वे प्रसन्न हुए, मुझे आत्म-संतोष मिला अथवा परम संतोष मिला।

संतोष की अन्तिम स्थिति हमारे जीवन में सम्भव ही नहीं क्योंकि हम सामाजिक, पारिवारिक प्राणी हैं और आत्म संतोष एवं परम संतोष के लिए प्रतिदिन हम प्रयासरत रहते हैं।

सामाजिक जीवन में, समाज में रहते हुए, अपनी इच्छाओं का दमन करना आत्म संतोष नहीं है, आत्म-संतोष है जीवन में उपलब्धि, लक्ष्य की प्राप्ति, सफ़लता। जीवन में आत्म संतोष किसी एक कार्य से नहीं मिलता, प्रति दिन और बार-बार किये जाने वाले कार्यों से मिलता रहता है, यह एक आजीवन प्रक्रिया है।

अतः आत्म संतोष अथवा परम संतोष जीवन की चरम प्राप्ति अथवा उपलब्धि नहीं है, हमारे कार्यों, व्यवहार से उपजा भाव है जिसकी प्राप्ति के लिए हम हर समय प्रयासरत रहते हैं।

  

अन्तर्मन की आग जला ले

अन्तर्मन की आग जला ले

उन लपटों को बाहर दिखला दे

रोना-धोना बन्द कर अब

क्यों जिसका जी चाहे कर ले तब

सबको अपना संसार दिखा ले

अपनी दुनिया आप बसा ले

ठोक-बजाकर जीना सीख

कर ले अपने मन की रीत

कोई नहीं तुझे जलाता

तेरी निर्बलता तुझ पर हावी

अपनी रीत आप बना ले

पाखण्डों की बीन बजा देे

मनचाही तू रीत कर ले

इसकी-उसकी सुनना बन्द कर

बेचारगी का ढोंग बन्द कर

दया-दया की मांग मतकर

बेबस बन कर जीना बन्द कर

अपने मन के गीत बजा ले

घुटते-घुटते रोना बन्द कर

रो-रोकर दिखलाना बन्द कर

इसकी-उसकी सुनना बन्द कर

अपने मन से जीना सीख

अन्तर्मन की आग जला ले

 उन लपटों को बाहर दिखला दे

 

सोचते हैं दिल बदल लें

मायूस दिल को मनाने अब किसे, क्यों यहां आना है
दिल की दर्दे-दवा लगाने अब किसे, क्यों यहां आना है
ज़माना  बहुत निष्ठुर हो गया है, बस तमाशा देख रहा
सोचते हैं दिल बदल लें, देखें किसे यहां घर बसाने आना है।

शिक्षा की यह राह देखकर

शिक्षा की कौन-सी राह है यह

मैं समझ नहीं पाई।

आजकल

बेटियां-बेटियां

सुनने में बहुत आ रहा है।

उनको ऐसी नई राहों पर

चलना सिखलाया जा रहा है।

सामान ढोने वाली

कुण्डियों पर लटकाया जा रहा है

और शायद

विद्यालय का मार्ग दिखलाया जा रहा है।

बच्चियां हैं ये अभी

नहीं जानती कि

राहें बड़ी लम्बी, गहरी

और दलदल भरी होती हैं।

न पैरों के नीचे धरा है

न सिर पर छाया,

बस दिवा- स्वप्न दिखा-दिखाकर

अधर में फ़ंसाया जा रहा है।

अवसर मिलते ही

डराने लगते हैं हम

धमकाने लगते हैं हम।

और कभी उनका

अति गुणगान कर

भटकाने लगते हैं हम।

ये राहें दिखाकर

उनके हौंसले

तोड़ने पर लगे हैं।

नौटंकियां करने में कुशल हैं।

चांद पर पहुंच गये,

आधुनिकता के चरम पर बैठे,

लेकिन

शिक्षा की यह राह देखकर

चुल्लू भर पानी में

डूब मरने को मन करता है।

किन्तु किससे कहें,

यहां तो सभी

गुणगान करने  में जुटे हैं।

 

हम किसे फूंकें

कहते हैं

दूध का जला

छाछ को  भी

फूंक-फूंक कर पीता है

किन्तु हम तो छाछ के जले हैं

हम किसे फूंकें

बतायेगा कोई

पीछे मुड़कर क्या देखना

जीवन के उतार-चढ़ाव को

समझाती हैं ये सीढ़ियां

दुख-सुख के पल आते-जाते हैं

ये समझा जाती हैं ये सीढ़ियां

जीवन में

कुछ गहराते अंधेरे  हैं

और कुछ होती हैं रोशनियां

हिम्मत करें

तो अंधेरे को बेधकर

रोशनी का मार्ग

दिखाती हैं ये सीढ़ियां

जो बीत गया

सो बीत गया

पीछे मुड़कर क्या देखना

आगे की राह

दिखाती हैं ये सीढि़यां

तुम मेरी छाया हो

तुम मेरी छाया हो, प्रतिच्छाया हो

पर तुम्हें

अपने कदमों के निशान नहीं दे रहा हूं।

हर छपक-छपाक के साथ

मिट जाते हैं पिछले निशान

और नये बनते हैं

जो आप ही सिमट जाते हैं

जल की गहराईयों में।

इस छपाछप-छपाछप से देखो तो

बूंदें कैसे मोतियों-सी खिलती हैं।

फिर गगन, हवाओं और सागर के बीच

कहीं छूट जाती हैं,

सतरंगी आभा बिखेरकर

अन्तर्मन को छू जाती हैं।

यह जीवन का आनन्द है।

पर याद रखना

गगन की नीलाभा में

पवन के वेग में

और जल की लहरों पर

कभी कोई छाप नहीं छूटती।

इसके लिए कठोर तपती धरा पर

छोड़ने पड़ते हैं

अपने कदमों के निशान

जो सदियों-सदियों तक

ध्वनित होते हैं

गगन की उंचाईयों में

पवन के वेग में

और जल की लहरों में।

पर यह भी याद रखना

छपक-छपाक, छपाछप-छपाछप

जीवन का उतना ही हिस्सा है

जितना गगन, पवन और जल में

नाम अंकित कर सकना।

जिन्दगी की आग में सिंकी मां

बहुत याद आती हैं

मां के हाथ की वो दो सूखी रोटियां

आम की फांक के साथ

अखबार के पन्ने में लपेटकर दिया करती थी

स्कूल के लिए।

और उन दो सूखी रोटियों की ताकत से

हम दिन भर मस्त रहते थे।

आम की फांक को तब तक चूसते थे

जब तक उसकी जान नहीं निकल जाती थी।

चूल्हे की आग में तपी रोटियां

एक बेनामी सी दाल-सब्जी

अजब-गजब स्वाद वाली

कटोरियां भर-भर पी जाते थे

आग में भुने आलू-कचालू

नमक के साथ निगल जाते थे।

चूल्हे को घेरकर बैठे

बतियाते, हंसते, लड़ते,

झीना-झपटी करते।

अपनी थाली से ज्यादा स्वाद

दूसरे की थाली में आता था।

रात की बची रोटियों का करारापन

चाय के प्याले के साथ।

और तड़का भात नाश्ते में

खट्टी-मीठी चटनियां

गुड़-शक्कर का मीठा

चूरी के साथ खा जाते थे पूरी रोटी।

जिन्दगी की आग में सिंकी मां,

और उसके हाथ की बनी रोटियों से मिली

संघर्ष की पौष्टिकता

आज भी भीतर ज्वलन्त है।

छप्पन भोग बनाने-खाने के बाद भी

तरसती हूं इस स्वाद के लिए।

बनाने की कोशिश करती हूं

पर वह स्वाद तो मां के साथ चला गया।

अगर आपके घर में हो ऐसी रोटियां और ऐसा स्वाद

तो मुझे ज़रूर न्यौता देना

पावस की पहली बूंद

पावस की पहली बूंद

धरा तक पहुंचते-पहुंचते ही

सूख जाती है।

तपती धरा

और तपती हवाएं

नमी सोख ले जाती हैं।

अब पावस की पहली बूंद

कहां नम करती है मन।

कहां उमड़ती हैं

मन में प्रेम-प्यार,

मनुहार की बातें।

समाचार डराते हैं,

पावस की पहली बूंद

आने से पहले ही

चेतावनियां जारी करते हैं।

सम्हल कर रहना,

सामान बांधकर रख लो,

राशन समेट लो।

कभी भी उड़ा ले जायेंगी हवाएँ।

अब पावस की बूंद,

बूंद नहीं आती,

महावृष्टि बनकर आती है।

कहीं बिजली गिरी

कहीं जल-प्लावन।

क्या जायेगा

क्या रह जायेगा

बस इसी सोच में

रह जाते हैं हम।

क्या उजड़ा, क्या बह गया

क्या बचा

बस यही देखते रह जाते हैं हम

और अगली पावस की प्रतीक्षा

करते हैं हम

इस बार देखें क्या होगा!!!

 

 

सत्ता की चाहत है बहुत बड़ी

साईकिल, हाथी, पंखा, छाता, लिए हाथ  में खड़े  रहे

जब  से आया झाड़ूवाला सब इधर-उधर हैं दौड़ रहे

छूट न जाये,रूठ न जाये, सत्ता की चाहत है बहुत बड़ी

देखेंगे गिनती के बाद कौन-कौन कहां-कहां हैं गढ़े रहे

कोई हमें आंख दिखाये  सह नहीं सकते

त्याग, अहिंसा, शांति के नाम पर आज हम पीछे हट नहीं सकते

शक्ति-प्रदर्शन चाहिए, किसी की चेतावनियों से डर नहीं सकते

धरा से गगन तक एक आवाज़ दी है हमने, विश्व को जताते हैं

आत्मरक्षा में सजग, कोई हमें आंख दिखायेसह नहीं सकते

 

प्रकृति का सौन्दर्य

फूलों पर मंडराती तितली को मदमाते देखा

भंवरे को फूलों से गुपचुप पराग चुराते देखा

सूरज की गुनगुनी धूप, चंदा से चांदनी आई

हमने गिरगिट को कभी न रंग बदलते देखा

 

फूल खिलखिलाए

बारिश के बाद धूप निखरी
आंसुओं के बाद मुस्कान बिखरी
बदलते मौसम के एहसास हैं ये
फूल खिलखिलाए, महक बिखरी

 

जीवन की डगर चल रही

राहें पथरीली

सुगम सुहातीं।

कदम-दर कदम

चल रहे

साथ न छूटे

बात न छूटे,

अगली-पिछली भूल

बस बढ़ते जाते।

साथ-साथ

चलते जाते।

क्यों आस करें किसी से

हाथों में हाथ दे

बढ़ते जाते।

जीवन की डगर चल रही,

मंज़िल की ओर बढ़ रही,

न किसी से शिकवा

न शिकायत।

धीरे-धीरे

पग-भर सरक रही,

जीवन की डगर चल रही।

 

सीधी राहों की तलाश में जीवन

अपने दायरे आप खींच

न तकलीफ़ों से आंखें मींच

.

हाथों की लकीरें

अजब-सी

आड़ी-तिरछी होती हैं,

जीवन की राहें भी

शायद इसीलिए

इतनी घुमावदार होती हैं।

किन्तु इन

घुमावदार राहों

पर खिंची

आड़ी-तिरछी लकीरें

गोल दायरों में घुमाती रहती हैं

जीवन भर

और हम

इन राहों के आड़े-तिरछेपन,

और गोल दायरों के बीच

अपने लिए

सीधी राहों की तलाश में

घूमते रहते हैं जीवन भर।

 

हांजी बजट बिगड़ गया

हांजी , बजट बिगड़ गया। सुना है इधर मंहगाई बहुत हो गई है। आलू पच्चीस रूपये किलो, प्याज भी पच्चीस तीस रूपये किलो और  टमाटर भी। अब बताईये भला आम आदमी जाये तो जाये कहां और  खाये तो खाये क्या। अब महीने में चार पांच किलो प्याज, इतने ही आलू टमाटर का तो खर्चा हो ही जाता है।सिलेंडर भी शायद 14_16 रूपये मंहगा हो रहा है।  कहां से लाये आम आदमी इतने पैसे , कैसे भरे बच्चों का पेट और  कैसे जिये इस मंहगाई के ज़माने में। 

घर में जितने सदस्य हैं उनसे ज़्यादा मोबाईल घर में हैं। बीस पच्चीस रूपये महीने के नहीं, हज़ारों के। और  हर वर्ष नये फीचर्स के साथ नया मोबाईल तो लेना ही पड़ता है। यहां मंहगाई की बात कहां से गई। हर मोबाईल का हर महीने का बिल हज़ार पंद्रह सौ रूपये तो ही जाता है। नैट भी चाहिए। यह तो आज के जीवन की मूलभूत आवश्यकताएं हैं। जितने सदस्य उतनी गाड़ियां। और  एकफोर व्हीलरभी रखना ही पड़ता है। अब समय किसके पास है कि एक दूसरे को लिफ्ट दें  सबका अपना अपना समय और  सुविधाएं। और  स्टेटस भी तो कोई चीज़ है। अब पैट्रोल पर महीने का पांच सात हज़ार खर्च हो भी जाता है तो क्या। 18 वर्ष से छोटे बच्चों को तो आजकल गाड़ी देनी ही पड़ती है। साईकिल का युग तो रह नहीं गया। चालान होगा तो भुगत लेंगे। कई तरीके आते हैं। अब यहां मंहगाई कहां से आड़े गई। हर महीने एक दो आउटिंग तो हो ही जाती है। अब घर के चार पांच लोग बाहर घूमने जाएंगे , खाएंगे पीयेंगे तो पांच सात हज़ार तो खर्च हो ही जाता है। भई कमा किस लिए रहे हैं। महीने में एकाध फिल्म। अब जन्मदिन अथवा किसी शुभ दिन पर हलवा पूरी का तो ज़माना रह नहीं गया। अच्छा आयोजन तो करना ही पड़ता है। हज़ारों नहीं, लाखों में भी खर्च हो सकता है। तब क्या। और  मरण_पुण्य तिथि पर तो शायद इससे भी ज़्यादा। और  शादी_ब्याह की तो बात ही मत कीजिए, आजकल तो दस बीस लाख से नीचे की बात ही नहीं है। 

लेकिन आलू प्याज टमाटर मंहगा हो गया है। बजट बिगड़ गया।

मर्यादाओं की चादर ओढ़े

मर्यादाओं की चादर में लिपटी खड़ी है नारी

न इधर राह न उधर राह, देख रही है नारी

किसको पूछे, किससे  कह दे मन की व्यथा

फ़टी-पुरानी, उधड़ी चादर ओढ़े खड़ी है नारी

सचेत रहना या संदेह करना To
कुछ समय पूर्व मेरी अपनी महिला सहकर्मी से चर्चा हुई फेसबुक मित्रों पर, जो मेरी फेसबुक मित्र भी है। उसने बताया कि उसके फेसबुक मित्रों में केवल परिवार के अथवा पूर्व परिचित लोग ही हैं, कोई भी अपरिचित नहीं है जिसे उसने फेसबुक पर ही मित्र बनाया हो । वाट्सएप, एवं अन्य प्रकार से भी वे उसी दायरे में हैं। मैंने सोचा तो नया क्‍या ।

मैंने बताया कि एक अपने पुत्र, उसके मित्र एवं कुछ महिला मित्रों के अतिरिक्त मेरी मित्र सूची में अधिकांश अपरिचित हैं जिन्हें मैंने फेसबुक पर ही मित्र बनाया है। अलग से उनसे न तो कोई पारिवारिक, मैत्री सम्बन्ध है, न कोई पूर्व परिचय। ऐसे ही कुछ समूहों की भी सदस्य हूं और  वहां भी कोई पूर्व परिचित नहीं है।
आज ज्ञानचक्षु खुले , बात एक ही है।
मेरे संदेश बाक्स में प्रतिदिन लगभग दस मित्रों के सुप्रभात से लेकर शुभरात्रि तक के संदेश प्राप्त् होते थे, जिनका मैं यथासमय उत्तर भी देती हूं। पिछले एक माह से संदेश निरन्तर आ रहे हैं मैं उत्तर नहीं दे पाई, किन्तु। एक भी प्रश्न नहीं हैं, ‘’कहां हैं आप’’।
शिकायत नहीं है किसी से, मैं भी कौन-सा किसी को पूछती हूं।

फिर मैंने और  जानने का प्रयास किया तो जाना कि अधिकांश महिलाओं की मित्र सूची में  परिवार के अथवा पूर्व परिचित लोग ही हैं। अर्थात वे अपने सामाजिक, पारिवारिक जीवन में, मोबाईल, वाट्स एप पर भी उनसे निरन्तर सम्पर्क में हैं और  वे ही फेसबुक पर भी हैं।

फिर फेसबुक पर उनके लिए नया क्या ?

क्या हमें सत्य ही इतना डर कर रहना चाहिए जितना डराया जाता है।

क्यों हम सदैव ही किसी अपरिचित को अविश्वास की दृष्टि से ही देखे ?

जीवन में यदि हम अपरिचितों की उपेक्षा, संदेह, दूरियां ही बनाये रखेंगे तो समाज कैसे चलेगा।

सचेत रहना अलग बात है, अकारण संदेह में रहना अलग बात।

  

मैं वारिस हूं अकेली अपनी तन्हाईयों की।

मैं हंसती हूं, गाती हूं।

गुनगुनाती हूं, मुस्कुराती हूं

खिलखिलाती हूं।

हंसती हूं

तो हंसती ही चली जाती हूं

बोलती हूं

तो बोलती ही चली जाती हूं

लोग कहते हैं

कितना जीवन्तता भरी है इसके अन्दर

जीवन जीना हो तो कोई इससे सीखे।

 

एक आवरण है यह।

झांक न ले कहीं कोई मेरे भीतर।

न भेद ले मेरे मन की गहराईयों को।

न खटखटाए कोई मेरे मन की सांकल।

छू न ले मेरी तन्हाईयों को।

न भंग हो मेरी खामोशी की चीख।

मेरी अचल अटल सम्पत्ति हैं ये।

कोई लूट न ले

मेरी जीवन भर की अर्जित सम्पदा

मैं वारिस हूं अकेली अपनी तन्हाईयों की।