सुन्दर-सुन्दर दुनियाd
परीलोक के सपने मन में
झूला झूलें नील गगन में
सुन्दर-सुन्दर दुनिया सारी
चंदा-तारों संग मन मगन में
हम सजग प्रहरी
द्वार के दोनों ओर खड़े हैं हम सजग प्रहरी
परस्पर हमारी न शत्रुता, न कोई भागीदारी
मध्य में एक रेखा खींचकर हमें किया विलग
इसी विभाजन के समक्ष हमारी मित्रता हारी
मानसिकता कहां बदली है
मांग भर कर रखना बेटी, सास ससुर की सब सहना बेटी
शिक्षा, स्वाबलम्बन भूलकर बस चक्की चूल्हा देखना बेटी
इस घर से डोली उठे, उस घर से अर्थी, मुड़कर न देखना कभी
कहने को इक्कीसवीं सदी है, पर मानसिकता कहां बदली है बेटी
चल आगे बढ़ जि़न्दगी
भूल-चूक को भूलकर, चल आगे बढ़ जि़न्दगी
अच्छा-बुरा सब छोड़कर, चल आगे बढ़ जि़न्दगी
हालातों से कभी-कभी समझौता करना पड़ता है
बदले का भाव छोड़कर, चल आगे बढ़ जि़न्दगी
कुछ सपने बोले थे कुछ डोले थे
कागज की कश्ती में
कुछ सपने थे
कुछ अपने थे
कुछ सच्चे, कुछ झूठ थे
कुछ सपने बोले थे
कुछ डोले थे
कुछ उलझ गये
कुछ बिखर गये
कुछ को मैंने पानी में छोड़ दिया
कुछ को गठरी में बांध लिया
पानी में कश्ती
इधर-उधर तिरती
हिलती
हिचकोले खाती
कहती जाती
कुछ टूटेंगे
कुछ नये बनेंगे
कुछ संवरेंगे
गठरी खुल जायेगी
बिखर-बिखर जायेगी
डरना मत
फिर नये सपने बुनना
नई नाव खेना
कुछ नया चुनना
बस तिरते रहना
बुनते रहना
बहते रहना
पीतल है या सोना
सोना वही सोना है, जिस पर अब हाॅलमार्क होगा।
मां, दादी से मिले आभूषण, मिट्टी का मोल होगा।
वैसे भी लाॅकर में बन्द पड़े हैं, पीतल है या सोना,
सोने के भाव राशन मिले, तब सोने का क्या होगा।
यही ठीक रहेगाः नहीं
एक अजीब सी दुविधा में थी वह। दो वर्ष का परिचय प्रगाढ़ सम्बन्ध में बदल चुका था। दोनो एक दूसरे को पसन्द भी करते थे और दोनों ही परिवारों में विवाह हेतु भी स्वीकृति मिल चुकी थी। एक शालीन सम्बन्ध था दोनों के बीच।
रचना कविता-कहानियां लिखती, पत्रकारिता के क्षेत्र में अपनी एक अच्छी पहचान लिए हुए थी, तीन पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकी थीं और उसका नाम इस क्षेत्र में बड़े सम्मान से लिया जाता था। उसकी अपनी एक अलग पहचान थी और नाम था।
रमन एक बड़ी कम्पनी में उच्चाधिकारी, दोनों ही अपने -अपने कार्य के प्रति आश्वस्त और परस्पर एक-दूसरे के काम का सम्मान भी करते थे।
बात आगे बढ़ी और एक दिन रचना और रमन अपने भावी जीवन की उड़ान की बात करने लगे। रमन ने हंस कर कहा अब दो महीने बाद तो तुम रचना वर्मा नहीं रचना माहेश्वरी के नाम से जानी जाओगी।
रचना एकदम चैंककर बोली, “ क्यों , मेरा नाम क्यों बदलेगा “?
“अरे मैं नाम की नहीं उपनाम की बात कर रहा हूं। विवाहोपरान्त लड़की को अपना उपनाम तो पति का ही रखना पड़ता है, इतना भी नहीं जानती तुम“?
“हां जानती हूं किन्तु किस कानून में लिखा है कि अवश्य ही बदलना पड़ता है।“
“अरे ये तो हमारी परम्पराएं हैं, हमारी संस्कृति है।“
“तुम कब से इतने पारम्परिक और सांस्कृतिक हो गये रमन? और जो मेरी अपनी पहचान है, अपने नाम की पहचान है, इतने वर्षों से मैंने बनाई है उसका क्या“?
“क्या तुम नहीं जानती कि विवाहोपरान्त तो लड़की की पहचान पति से होती है उसके नाम और उपनाम से होती है, विवाहोपरान्त तो तुम्हारी पहचान श्रीमती रमन माहेश्वरी ही होगी या चलो रचना माहेश्वरी, रचना वर्मा को तो तुम्हें भूलना होगा।“
“नहीं , रमन मैं ऐसा नहीं कर सकती, मैं अपने नाम, अपनी पहचान के साथ ही तुम्हारी जीवन-संगिनी बनना चाहती हूं न कि अपना नाम अपनी पहचान खोकर। निश्चित रूप से मेरी पहचान तुम्हारी पत्नी के रूप में तो होगी ही, किन्तु क्या तुम्हारे लिए मेरी व्यक्तिगत पहचान कोई अर्थ नहीं रखती, उसे कैसे खो सकती हूं मैं।“
“रमन का स्पष्ट उत्तर था, अगर मुझसे शादी करनी है तो तुम्हें अब मेरी पहचान, मेरे नाम को ही अपना बनाना होगा, तुम्हारे व्यक्तिगत नाम को मेरे नाम से ही जाना जायेगा, अन्यथा नहीं। “
रचना ने कहा, “हां यही ठीक रहेगाः नहीं“ !!!!!
जीवन अंधेरे और रोशनियों के बीच
अंधेरे को चीरती
ये झिलमिलाती रोशनियां,
अनायास,
उड़ती हैं
आकाश की ओर।
एक चमक और आकर्षण के साथ,
कुछ नये ध्वन्यात्मक स्वर बिखेरतीं,
फिर लौट आती हैं धरा पर,
धीरे-धीरे सिमटती हैं,
एक चमक के साथ,
कभी-कभी
धमाकेदार आवाज़ के साथ,
फिर अंधेरे में घिर जाती हैं।
जीवन जब
अंधेरे और रोशनियों में उलझता है,
तब चमक भी होती है,
चिंगारियां भी,
कुछ मधुर ध्वनियां भी
और धमाके भी,
आकाश और धरा के बीच
जीवन ऐसे ही चलता है।
कड़वा-कड़वा देते रहना
नीम करेले का रस पी ले
हंस-बोलकर जीवन जी ले
कड़वा-कड़वा देते रहना
खट्टे की खुद चटनी पी ले
नेह की चांदनी
स्मृतियों से निकलकर
सच बनने लगी हो।
मन में एक उमंग
भरने लगी हो।
गगन के चांद सी
आभा लेकर आई
जीवन में तुम्हारी मुस्कान,
तुम भाने लगी हो।
अतीत की
धुंधलाती तस्वीरें
रंगों में ढलने लगी हैं।
भूले प्रेम की तरंगे
स्वर-लहरियों में
गुनगुनाने लगी हैं।
नेह की चांदनी
भिगोने लगी है,
धरा-गगन
एक होने लगे हैं।
रंगों के भेद
मिटने लगे हैं।
गहराती रोशनियों में
आशाएं दमकने लगी हैं।
सलाह की कोई कीमत नहीं होती
मेरे पिता कहा करते थे
सलाह की
कोई कीमत नहीं होती
लेकिन इसका यह मतलब नहीं
कि यूं ही मुफ़्त में बांटते फ़िरो।
कभी-कभी मुफ़्त में
दी गई सलाह की
बड़ी कीमत
हाथ-पैरों, हड्डियों को
चुकानी पड़ती है,
ध्यान रहे।
.
और मेरे पिता
यह भी कहा करते थे
कि सलाह की
कोई कीमत नहीं होती
जो दे,
बस चुपचाप ले लिया करो,
और जोड़ते रहो
मन की तिजोरी में।
बिना कीमत की सलाह
कभी-कभी
बड़ी कीमती होती है।
लेकिन
यह भी कहा करते थे
कि जब तक
मिली सलाह की
कीमत समझ आती है
उसकी
एक्सपायरी डेट
निकल चुकी होती है।
-
और हंस देते थे
इसे मेरी
कीमती सलाह समझना।
जीवन महकता है
जीवन महकता है
गुलाब-सा
जब मनमीत मिलता है
अपने ख्वाब-सा
रंग भरे
महकते फूल
जीवन में आस देते हैं
एक विश्वास देते हैं
अपनेपन का आभास देते हैं।
सूखेंगे कभी ज़रूर
सूखने देना।
पत्ती –पत्ती सहेजना
यादों की, वादों की
मधुर-मधुर भावों से
जीवन-भर यूं ही मन हेलना ।
कुछ कह रही ओस की बूंदे
रंग-बिरंगी आभाओं से सजकर रवि हुआ उदित
चिड़ियां चहकीं, फूल खिले, पल्लव हुए मुदित
देखो भाग-भागकर कुछ कह रही ओस की बूंदे
इस मधुर भाव में मन क्यों न हो जाये प्रफुल्लित
भ्रष्टाचार मुक्त समाज की परिकल्पना
सेनानियों की वीरता को हम सदा नमन करते हैं
पर अपना कर्तव्य भी वहन करें यह बात करते हैं
भ्रष्टाचार मुक्त समाज की परिकल्पना को सत्य करें
इस तरह राष्ट्र् के सम्मान की हम बात करते हैं
अपने-आपसे करते हैं हम फ़रेब
अपने-आपसे करते हैं
हम फ़रेब
जब झूठ का
पर्दाफ़ाश नहीं करते।
किसी के धोखे को
सहन कर जाते हैं,
जब हँसकर
सह लेते हैं
किसी के अपशब्द।
हमारी सच्चाई
ईमानदारी का
जब कोई अपमान करता है
और हम
मन मसोसकर
रह जाते हैं
कोई प्रतिवाद नहीं करते।
हमारी राहों में
जब कोई कंकड़ बिछाता है
हम
अपनी ही भूल समझकर
चले रहते हैं
रक्त-रंजित।
औरों के फ़रेब पर
तालियाँ पीटते हैं
और अपने नाम पर
शर्मिंदा होते हैं।
कितना खोया है मैंने
डायरी लिखते समय
मुझसे
अक्सर
बीच−बीच में
एकाध पन्ना
कोरा छूट जाया करता है
और कभी शब्द टूट जाते हैं
बिखरे से, अधूरे।
पता नहीं
कितना खोया है मैंने
और कितना छुपाना चाहा है
अपने–आप से ही
अनकहा–अनलिखा छोड़कर।
न जाने अब क्या हो
बस शैल्टर में बैठे दो
सोच रहे हैं न जाने क्या हो।
‘गर बस न आई तो क्या हो।
दोनों सोचे दूजा बोले
तो कुछ तो साहस हो।
बारिश शुरु होने को है
‘गर हो गई तो
भीग जायेंगे
कहीं बुखार हो गया तो।
कोरोना का डर लागे है
पास होकर पूछें तो।
घर भी मेरा दूर है
क्या इससे बात करुँ
साथ चलेगा ‘गर जो
बस न आई अगर
कैसे जाउंगी मैं घर को।
यह अनजान आदमी
अगर बोल ले बोल दो।
तो कुछ साहस होगा जो
सांझ ढल रही,
लाॅक डाउन का समय हो गया
अंधेरा घिर रहा
न जाने अब क्या हो।
अब शब्दों के अर्थ व्यर्थ हो गये हैं
शब्दकोष में अब शब्दों के अर्थ
व्यर्थ हो गये हैं।
हर शब्द
एक नई अभिव्यक्ति लेकर आया है।
जब कोई कहना है अब चारों ओर शांति है
तो मन डरता है
कोई उपद्रव हुआ होगा, कोई दंगा या मारपीट।
और जब समाचार गूंजता है
पुलिस गश्त कर रही है, स्थिति नियन्त्रण में है
तो स्पष्ट जान जाते हैं हम
कि बाहर कर्फ्यू है, कुछ घर जले हैं
कुछ लोग मरे हैं, सड़कों पर घायल पड़े हैं।
शायद, सेना का फ्लैग मार्च हुआ होगा
और हमें अब अपने आपको
घर में बन्द करना होगा ।
अहिंसा के उद्घोष से
घटित हिंसा का बोध होता है।
26 जनवरी, 15 अगस्त जैसे दिन
और बुद्ध, नानक, कबीर, गांधी, महावीर के नाम पर
मात्र एक अवकाश का एहसास होता है
न कि किसी की स्मृति, ज्ञान, शिक्षा, बलिदान का।
धर्म-जाति, धर्मनिरप्रेक्षता, असाम्प्रदायिकता,
सद्भाव, मानवता, समानता, मिलन-समारोह
जैसे शब्द डराते हैं अब।
वहीं, आरोपी, अपराधी, लुटेरे,
स्कैम, घोटाले जैसे शब्द
अब बेमानी हो गये हैं
जो हमें न डराते हैं, और न ही झिंझोड़ते हैं।
“वन्दे मातरम्” अथवा “भारत माता की जय”
के उद्घोष से हमारे भीतर
देश-भक्ति की लहर नहीं दौड़ती
अपितु अपने आस-पास
किसी दल का एहसास खटकता है
और प्राचीन भारतीय योग पद्धति के नाम पर
हमारा मन गर्वोन्नत नहीं होता
अपितु एक अर्धनग्न पुरूष गेरूआ कपड़ा ओढ़े
घनी दाढ़ी और बालों के साथ
कूदता-फांदता दिखाई देता है
जिसने कभी महिला वस्त्र धारण कर
पलायन किया था।
कोई मुझे “बहनजी” पुकारता है
तो मायावती होने का एहसास होता है
और “पप्पू” का अर्थ तो आप जानते ही हैं।
कुछ ज़्यादा तो नहीं हो गया।
कहीं आप उब तो नहीं गये
चलो आज यहीं समाप्त करती हूं
बदले अर्थों वाले शब्दकोष के कुछ नये शब्द लेकर
फिर कभी आउंगी
अभी आप इन्हें तो आत्मसात कर लें
और अन्त में, मैं अब
बुद्धिजीवी, साहित्यकार, कलाकार और
सम्मान शब्दों के
नये अर्थों की खोज करने जा रही हूं।
ज्ञात होते ही आपसे फिर मिलूंगी
या फिर उनमें जा मिलूंगी
फिर कहां मिलूंगी ।।।।।।।
मुझे तो हर औरत दिखाई देती है
तुम सीता हो या सावित्री
द्रौपदी हो या कुंती
अहिल्या हो या राधा-रूक्मिणी
मैं अक्सर पहचान ही नहीं पाती।
सम्भव है होलिका, अहिल्या,
गांधारी, कुंती, उर्मिला,
अम्बा-अम्बालिका हो।
या नीता, गीता
सुशीला, रमा, शमा कोई भी हो।
और भी बहुत से नाम
स्मरण आ रहे हैं मुझे
किन्तु मैं स्वयं भी
किसी असमंजस में नहीं
पड़ना चाहती,
और न ही चाहती हूं
कि तुम सोचने लगो,
कि इसकी तो बातें
सदैव ही अटपटी-होती हैं
उलझी-उलझी।
तुम्हें क्या लगता है
कौन है यह?
सती-सावित्री?
मुझे तो हर औरत
दिखाई देती है इसके भीतर
सदैव पति के लिए
दुआएं मांगती,
यमराज के आगे सिर झुकाकर
अपनी जीवन देकर ।
द्वार पर सांकल लगने लगी है
उत्सवों की चहल-पहल अब भीड़ लगने लगी है
अपनों की आहट अब गमगीन करने लगी है
हवाओं को घोटकर बैठते हैं सिकुड़कर हम
कोई हमें बुला न ले, द्वार पर सांकल लगने लगी है
मन आनन्दित होता है
लेन-देन में क्या बुराई
जितना चाहो देना भाई
मन आनन्दित होता है
खाकर पराई दूध-मलाई
ज़िन्दगी आंसुओं के सैलाब में नहीं बीतती
नयनों पर परदे पड़े हैं
आंसुओं पर ताले लगे हैं
मुंह पर मुखौट बंधे हैं।
बोलना मना है,
आंख खोलना मना है,
देखना और बताना मना है।
इसलिए मस्तिष्क में बीज बोकर रख।
दिल में आस जगाकर रख।
आंसुओं को आग में तपाकर रख।
औरों के मुखौटे उतार,
अपनी धार साधकर रख।
ज़िन्दगी आंख मूंदकर,
जिह्वा दबाकर,
आंसुओं के सैलाब में नहीं बीतती,
बस इतना याद रख।
चोर-चोर मौसरे भाई
कहते हैं
चोर-चोर मौसरे भाई।
यह बात मेरी तो
कभी समझ न आई।
कितने भाई?
केवल मौसेरे ही क्यों भाई?
चचेरे, ममेरे की गिनती
क्यों नहीं आई?
और सगे कोई कम हैं,
उनकी बात क्यों न उठाई?
किसने देखे, किसने जाने
किसने पहचाने?
यूँ ही बदनाम किया
न जाने किसने यह
कहावत बनाई।
आधी रात होने को आई
और मेरी कविता
अभी तक न बन पाई।
और जब बात चोरों की है
तब क्या मौसेरे
और क्या चचेरे
सबसे डर कर रहना भाई।
बात चोरों की चली है
तो दरवाज़े-खिड़कियाँ
सब अच्छे से बन्द हैं
ज़रा देख लेना भाई।