पुल अपनों और सपनों के बीच
सारा जीवन बीत गया
इसी उहापोह में
क्या पाया, क्या गंवाया।
बस आकाश ही आकाश
दिखाई देता था
पैर ज़मीन पर न टिकते थे।
मिट्टी को मिट्टी समझ
पैरों तले रौंदते थे।
लेकिन, एक समय आया
जब मिट्टी में हाथ डाला
तो, मिट्टी ने चूल्हा दिया,
घर दिया,
और दिया भरपेट भोजन।
मिट्टी से सने हाथों से ही
साकार हुए वे सारे स्वर्णिम सपने
जो आकाश में टंगे
दिखाई देते थे,
और बन गया एक पुल
ज़मीन और आकाश के बीच।
अपनों और सपनों के बीच।
बड़े मसले हैं रोटी के
बड़े मसले हैं रोटी के।
रोटी बनाने
और खाने से पहले
एक लम्बी प्रक्रिया से
गुज़रना पड़ता है
हम महिलाओं को।
इस जग में
कौन समझा है
हमारा दर्द।
बस थाली में रोटी देखते ही
टूट पड़ते हैं।
मिट्टी से लेकर
रसोई तक पहुंचते-पहुंचते
किसे कितना दर्द होता है
और कितना आनन्द मिलता है
कौन समझ पाता है।
जब बच्चा
रोटी का पहला कौर खाता है
तब मां का आनन्द
कौन समझ पाता है।
जब किसी की आंखों में
तृप्ति दिखती है
तब रोटी बनाने की
मानों कीमत मिल जाती है।
लेकिन बस
इतना ही समझ नहीं आया
मुझे आज तक
कि रोटी गोल ही क्यों।
ठीक है
दुनिया गोल, धरती गोल
सूरज-चंदा गोल,
नज़रें गोल,
जीवन का पहिया गोल
पता नहीं और कितने गोल।
तो भले-मानुष
रोटी चपटी ही खा लो।
वही स्वाद मिलेगा।
कितने सबक देती है ज़िन्दगी
भाग-दौड़ में लगी है ज़िन्दगी।
खेल-खेल में रमी है ज़िन्दगी।
धूल-मिट्टी में आनन्द देती
मज़े-मजे़ से बीतती है ज़िन्दगी।
तू हाथ बढ़ा, मैं हाथ थामूँ,
धक्का-मुक्की, उठन-उठाई
नाम तेरा यही है ज़िन्दगी।
आगे-पीछे देखकर चलना
बायें-दायें, सीधे-सीधे
या पलट-पलटकर,
सम्हल-सम्हलकर।
तब भी न जाने
कितने सबक देती है ज़िन्दगी।
देखो किसके कितने ठाठ
एक-दो-तीन-चार
पांच-छः-सात-आठ
देखो किसके कितने ठाठ
इसको रोटी, उसको दूध
किसी को पानी
किसी को भूख
किसकी कितनी हिम्मत
देखें आज
देखो तुम सब
हमरे ठाठ
किके्रट टीम तो बनी नहीं
किस खेल में होते आठ
अपनी टीम बनाएंगे
मौज खूब उड़ायेंगे
सस्ते में सब निपटायेंगे
पढ़ना-लिखना हुआ है मंहगा
बना ले घर में ही टीम
पढ़ोगे-लिखोगे होंगे खराब
खेलोगे-कूदोगे बनोगे नवाब
एक शुरूआत की ज़रूरत है
सुना और पढ़ा है मैंने
कि कोई
पाप का घड़ा हुआ करता था
और सब
हाथ पर हाथ धरे
प्रतीक्षा में बैठे रहते थे
कि एक दिन तो भरेगा
और फूटेगा] तब देखेंगे।
मैं समझ नहीं पाई
आज तक
कि हम प्रतीक्षा क्यों करते हैं
कि पहले तो घड़ा भरे
फिर फूटे, फिर देखेंगे,
बतायेगा कोई मुझे
कि क्या देखेंगे ?
और यह भी
कि अगर घड़ा भरकर
फूटता है
तो उसका क्या किया जाता था।
और अगर घड़ा भरता ही जाता था
भरता ही जाता था
और फूटता नहीं था
तब क्या करते थे ?
पलायन का यह स्वर
मुझे भाता नहीं
इंतज़ार करना मुझे आता नहीं
आह्वान करती हूं,
घरों से बाहर निकलिए
घड़ों की शवयात्रा निकालिए।
श्मशान घाट में जाकर
सारे घड़े फोड़ डालिए।
बस पाप को नापना नहीं।
छोटा-बड़ा जांचना नहीं।
बस एक शुरूआत की ज़रूरत है।
बस एक से शुरूआत की ज़रूरत है।।।
एकाकी हो गये हैं
अकारण
ही सोचते रहना ठीक नहीं होता
किन्तु खाली दिमाग़ करे भी तो क्या करे।
किसी के फ़टे में टाँग अड़ाने के
दिन तो अब चले गये
अपनी ही ढपली बजाने में लगे रहते हैं।
समय ने
ऐसी चाल बदली
कि सब
अपने अन्दर तो अन्दर
बाहर भी एकाकी हो गये हैं।
शाम को काॅफ़ी हाउस में
या माॅल रोड पर
कंधे से कंधे टकराती भीड़
सब कहीं खो गई है।
पान की दुकान की
खिलखिलाहटें
गोलगप्पे-टिक्की पर
मिर्च से सीं-सीं करती आवाजे़ं
सिर से सिर जोड़कर
खुसुर-पुसुर करती आवाजे़ं
सब कहीं गुम हो गई हैं।
सड़क किनारे
गप्पबाजी करते,
पार्क में खेलते बच्चों के समूह
नहीं दिखते अब।
बन्दर का नाच, भालू का खेल
या रस्सी पर चलती लड़की
अब आते ही नहीं ये सब
जिनका कौशल देखने के लिए
सड़कों पर
जमघट लगते थे कभी।
अब तो बस
दो ही दल बचे हैं
जो अब भी चल रहे हैं
एक तो टिड्डी दल
और दूसरे केवल दल
यानी दलदल।
ज़रा सम्हल के।
जीवन संवर-संवर जाता है
बादलों की ओट से
निरखता है सूरज।
बदलियों को
रँगों से भरता
ताक-झाँक
करता है सूरज।
सूरज से रँग बरसें
हाथों में थामकर
जीवन को रंगीन बनायें।
लहरें रंग-बिरँगी
मानों कोई स्वर-लहरी
जीवन-संगीत संवार लें।
जब मिलकर हाथ बंधते हैं
तब आकाश
हाथों में ठहर-ठहर जाता है।
अंधेरे से निपटते हैं
जीवन संवर-संवर जाता है।
नेह की डोर
कुछ बन्धन
विश्वास के होते हैं
कुछ अपनेपन के
और कुछ एहसासों के।
एक नेह की डोर
बंधी रहती है इनमें
जिसका
ओर-छोर नहीं होता
गांठें भी नहीं होतीं
बस
अदृश्य भावों से जुड़ी
मन में बसीं
बेनाम
बेमिसाल
बेशकीमती।
हमारी अपनी आवाज़ें गायब हो गई हैं
आवाज़ें निरन्तर गूंजती हैं
मेरे आस-पास।
कभी धीमी, कभी तेज़।
कुछ सुनाई देती हैं
कुछ नहीं।
हमारे कान फ़टते हैं
दुनिया भर की
आवाज़ें सुनते-सुनते।
इस शोर में
इतना खो गये हैं हम
कि अपनी ही आवाज़ से
कतराने में लगे हैं
अपनी ही आवाज़ को
भुलाने में लगे हैं।
हमारे भीतर का सच
झूठ बनने लगा है
दूर से आती आवाज़ों से
मन भरमाने में लगे हैं।
छोटी-छोटी आवाज़ों से
मिलने वाला आनन्द
कहीं खो गया है
हम बस यूं ही
चिल्लाने में लगे हैं।
गुमराह करती
आवाजों के पीछे
हम भागने में लगे हैं।
ऊँची आवाज़ें
हमारी नियामक हो गई हैं
हमारी अपनी आवाज़ें
कहीं गायब हो गई हैं।
सच बोलने लग जाती हूँ
मन में
न जाने क्यों
कभी-कभी
बुरे ख़याल आने लगते हैं
और मैं
सच बोलने लग जाती हूँ।
मेरी कही बातों पर
ध्यान मत देना।
एक प्रलाप समझकर
झटक देना।
मूर्ख
बहुत देखे होंगे दुनिया में,
किन्तु
मुझसे बड़ा मूर्ख कोई नहीं
यह समझ लेना।
मैं तो ऐसी हूँ
जैसी हूँ, वैसी हूँ।
बस
तुम अपना ध्यान रखना।
सच को झूठ
और झूठ को सच
सिद्ध करने की
हिम्मत रखना।
फिर भी
मन में मेरे
बुरे-बुरे ख़याल आते हैं
बस
अपना ध्यान रखना।।।
मेंहदी के रंगों की तरह
जीवन के रंग भी अद्भुत हैं।
हरी मेंहदी
लाल रंग छोड़ जाती है।
ढलते-ढलते गुलाबी होकर
मिट जाती है
लेकिन अक्सर
हाथों के किसी कोने में
कुछ निशान छोड़ जाती है
जो देर तक बने रहते हैं
स्मृतियों के घेरे में
यादों के, रिश्तों के,
सम्बन्धों के,
अपने-परायों के
प्रेम-प्यार के
जो उम्र के साथ
ढलते हैं, बदलते हैं
और अन्त में
कितने तो मिट जाते हैं
मेंहदी के रंगों की तरह।
जैसे हम नहीं जानते
जीवन में
कब हरीतिमा होगी,
कब पतझड़-सा पीलापन
और कब छायेगी फूलों की लाली।
कुर्सियां
भूल हो गई मुझसे
मैं पूछ बैठी
कुर्सी की
चार टांगें क्यों होती हैं?
हम आराम से
दो पैरों पर चलकर
जीवन बिता लेते हैं
तो कुर्सी की
चार टांगें क्यों होती हैं?
कुर्सियां झूलती हैं।
कुर्सियां झूमती हैं।
कुर्सियां नाचती हैं।
कुर्सियां घूमती हैं।
चेहरे बदलती हैं,
आकार-प्रकार बांटती हैं,
पहियों पर दौड़ती हैं।
अनोखी होती हैं कुर्सियां।
किन्तु
चार टांगें क्यों होती हैं?
जिनसे पूछा
वे रुष्ट हुए
बोले,
तुम्हें अपनी दो
सलामत चाहिए कि नहीं !
दो और नहीं मिलेंगीं
और कुर्सी की तो
कभी भी नहीं मिलेंगी।
मैं डर गई
और मैंने कहा
कि मैं दो पर ही ठीक हूँ
मुझे चौपाया नहीं बनना।
मेरी आंखों में आँसू देख
मुझसे
प्याज न कटवाया करो।
मुझे
प्याज के आँसू न रुलाया करो।
मेरी आंखों में आँसू देख
न मुस्कुराया करो।
खाना बनाने की
रोज़-रोज़
नई-नई
फ़रमाईशें न बताया करो।
रोज़-रोज़ मुझसे खाना बनवाते हो
कभी तो बनाकर खिलाया करो।
चलो, न बनाओ
तो बस
कभी तो हाथ बंटाया करो।
श्रृंगार किये बैठी थी मैं
कुछ तो
मुझ पर तरस खाया करो।
श्रृंगार का सामान मांगती हूँ
तब मँहगाई का राग न गाया करो।
मेरी आँसू देखकर
न जाने कितनी कहानियाँ बनेंगीं,
हँस-हँसकर मुझे न चिड़ाया करो।
शब्दों से न सही
भावों से ही
कभी तो प्रेम-भाव जतलाया करो।
रूठकर बैठती हूँ
कभी तो मनाने आ जाया करो।
ईर्ष्या होती है चाँद से
ईर्ष्या होती है चाँद से
जब देखो
मनचाहा घूमता है
इधर-उधर डोलता
घर-घर झांकता
साथ चाँदनी लिए।
चांँदनी को देखो
निरखती है दूर गगन से
धरा तक आते-आते
बिखर-बिखर जाती है।
हाथ बढ़ाकर
थामना चाहती हूँ
चाँदनी या चाँद को।
दोनों ही चंचल
अपना रूप बदल
इधर-उधर हो जाते हैं
झुरमुट में उलझे
झांक-झांक मुस्काते हैं
मुझको पास बुलाते हैं
और फिर
यहीं-कहीं छिप जाते हैं।
खुशियों के रंग
द्वार पर अल्पना
मानों मन की कोई कल्पना
रंगों में रंग सजाती
मन के द्वार खटखटाती
पाहुन कब आयेगा
द्वार खटखटाएगा।
मन के भीतर
रंगीनियां सजेंगी
घर के भीतर
खुशियां बसेंगीं।
आंखों देखी दुनिया
कथा है
कि मिट्टी खाने पर
यशोदा ने कृष्ण को
मुँह खोलकर
दिखाने के लिए कहा था
और यशोदा ने
कृष्ण के मुँह में
ब्रह्माण्ड के दर्शन किये थे।
कुछ ऐसा ही ब्रह्माण्ड
हमारी आंखों के भीतर भी है
जिसे हम देख नहीं पाते,
किसी और को क्या दिखाना
हम स्वयं ही
समझ भी नहीं पाते।
बड़ी प्रचलित कहावत है
आंखों देखी दुनिया।
किन्तु आश्चर्य कि
हम दुनिया को
कभी भी खुली आंखों से
देख नहीं पाते।
जब भी दुनिया को समझना होता है
हम आंखें बन्द कर लेते हैं
और शिकायत करते हैं
हमारी समझ से बाहर है यह दुनिया।
श्वेत हंसों का जोड़ा
अपनी छाया से मोहित मन-मग्न हुआ हंसों का जोड़ा
चंदा-तारों को देखा तो कुछ शरमाया हंसों का जोड़ा
इस मिलन की रात को देख चंदा-तारे भी मग्न हुए
नभ-जल की नीलिमा में खो गया श्वेत हंसों का जोड़ा
जीवन कितने पल
किसने जाना जीवन कितने पल।
अनमोल है जीवन का हर पल।
यहां दुख-सुख तो आने जाने हैं
आनन्द उठा जीवन में पल-पल।
कांटों की बुआई में
तीर की जगह तुक्का चलाना आ गया।
झूठ को सच, सच को झूठ बनाना आ गया।
कांटों की बुआई में हाथ बहुत साफ़ है,
किसी की चुभन देख मुस्कुराना आ गया।
अंधेरे का सहारा
ज़्यादा रोशनी की चाहत में
सूरज को
सीधे सीधे
आंख उठाकर मत देखना
आंखें चौंधिया जायेंगी।
अंधेरे का अनुभव होगा।
बस ज़रा सहज सहज
अंधेरे का सहारा लेकर
आगे बढ़ना।
भूलना मत
अंधेरे के बाद की
रोशनी तो सहज होती है
पर रोशनी के बाद का
अंधेरा हम सह नहीं पाते
बस इतना ध्यान रखना।
कुछ तो करवा दो सरकार
कुएँ बन्द करवा दो सरकार।
अब तो मेरे घर नल लगवा दो सरकार।
इस घाघर में काम न होते
मुझको भी एक सूट सिलवा दो सरकार।
चलते-चलते कांटे चुभते हैं
मुझको भी एक चप्पल दिलवा दो सरकार।
कच्ची सड़कें, पथरीली धरती
कार न सही,
इक साईकिल ही दिलवा दो सरकार।
मैं कोमल-काया, नाज़ुक-नाज़ुक
तुम भी कभी घट भरकर ला दो सरकार।
कान्हा-वान्हा, गोपी-वोपी,
प्रेम-प्यार के किस्से हुए पुराने
तुम भी कुछ नया सोचो सरकार।
शहरी बाबू बनकर रोब जमाते फ़िरते हो
दो कक्षा
मुझको भी अब तो पढ़वा दो सरकार।
अजब-सी भटकन है
फ़िरकी की तरह
घूमती है ज़िन्दगी।
कभी इधर, कभी उधर।
दुनियादारी में उलझी
कभी सुलझी, कभी न सुलझी।
अपनी-सी न लगती
जैसे उधारी किसी की।
अजब-सी भटकन है
कामनाओं का पर्वत है
उम्र पूछती है नाम।
अक्सर मन करता है
चादर ले
सिर ढक और लम्बी तान।
किन्तु
उन सलवटों का क्या करुं
जिन्हें वर्षों से छुपाती आ रही हूँ,
उन धागों का क्या करुँ
जिन्हें दुनिया-भर में तानती आ रही हूँ।
.
यार ! छोड़ अब ये ढकोसले।
बस, अपनी छान।
चादर ले
सिर ढक और लम्बी तान।
सूरज को रोककर मैंने पूछा
सूरज को रोककर
मैंने पूछा
चलोगे मेरे साथ ?
-
हँस दिया सूरज
मैं तो चलता ही चलता हूँ।
तुम अपनी बोलो
चलोगे मेरे साथ ?
-
कभी रुका नहीं
कभी थका नहीं।
तुम अपनी बोलो
चलोगे मेरे साथ ?
-
दिन-रात घूमता हूँ
सबके हाल पूछता हूँ।
तुम अपनी बोलो
चलोगे मेरे साथ ?
-
रंगीनियों को सहेजता हूँ।
रंगों को बिखेरता हूँ।
तुम अपनी बोलो
चलोगे मेरे साथ ?
-
चँदा-तारे मेरे साथी
कौन तुम्हारे साथ ?
तुम अपनी बोलो
चलोगे मेरे साथ ?
-
बादल-वर्षा, आंधी-तूफ़ान
ग्रीष्म-शिशिर सब मेरे साथी।
तुम अपनी बोलो
चलोगे मेरे साथ ?
-
विस्तार गगन का
किसने नापा।
तुम अपनी बोलो
चलोगे मेरे साथ ?
सन्दर्भ तो बहुत थे
जीवन में
सन्दर्भ तो बहुत थे
बस उनको भावों से
जोड़ ही नहीं पाये।
कब, कहाँ, कौन-सा
सन्दर्भ छूट गया,
कौन-सा विफ़ल रहा,
समझ ही नहीं पाये।
ऐसा क्यों हुआ
कि प्रेम, मनुहार
अपनापन
विश्वास और आस भी
सन्दर्भ बनते चले गये
और हम जीवन-भर
न जाने कहाँ-कहाँ
उलझते-सुलझते रह गये।
झूला झुलाये जिन्दगी
कहीं झूला झुलाये जिन्दगी
कभी उपर तो कभी नीचे
लेकर आये जिन्दगी
रस्सियों पर झूलती
दूर से तो दिखती है
आनन्द देती जिन्दगी
बैठना कभी झूले पर
आकाश और धरा
एक साथ दिखा देती है जिन्दगी
कभी हाथ छूटा, कभी तार टूटी
तो दिन में ही
तारे दिखा देती है जिन्दगी
सम्हलकर बैठना जरा
कभी-कभी सीधे
उपर भी ले जाती है जिन्दगी
दिल आजमाने में लगे हैं
अब गुब्बारों में दिल सजाने लगे हैं
उनकी कीमत हम लगाने लगे हैं
पांच-सात रूपये में ले जाईये मनचाहे
फुलाईये, फोड़िए
या यूं ही समय बिताने में लगे हैं
मायूसे दिल की ओर तो कोई देखता ही नहीं
सोने चांदी के भाव अब लगाने लगे हैं
दिल कहां, दिलदार कहां अब
बातें करते बहुत
पर असल ज़िन्दगी में टांके लगाने लगे हैं
कुछ तुम दीजिए, कुछ हमसे लीजिए
पर न फोड़ना इस दिल को
न काटना इसे
असलियत निकल आयेगी
न खून बहेगा, न आस आहें भरेंगी
बस रोंआ-रोंआ बिखरेगा
सरकार ने प्लास्टिक बन्द कर दिया है
बस इतनी सी बात हम बताने में लगे हैं
समझ आया हो कुछ, तो ठीक
नहीं तो हम
कहीं और दिल आजमाने में लगे हैं।
झूठ का ज़माना है
एक अर्थहीन रचना
सजन रे झूठ मत बोलो
कौन बोला, कौन बोला
-
सजन रे झूठ मत बोलो
कौन बोला, कौन बोला
-
झूठ का ज़माना है
सच को क्यों आजमाना है
इधर की उधर कर
उधर की इधर कर
बस ऐसे ही नाम कमाना है
सच में अड़ंगे हैं
इधर-उधर हो रहे दंगे हैं
झूठ से आवृत्त करो
मन की हरमन करो,
नैनों की है बात यहां
टिम-टिम देखो करते
यहां-वहां अटके
टेढ़े -टेढ़े भटके
किसी से नैन-मटक्के
कहीं देख न ले सजन
बिगड़ा ये ज़माना है
किसे –किसे बताना है
कैसे किसी को समझाना है
छोड़ो ये ढकोसले
क्यों किसी को आजमाना है
-
झूठ बोलो, झूठ बोलो
कौन बोला, कौन बोला
समझ लो क्या होते हैं कुकुरमुत्ते
बस कहने की बात है
बस मुहावरा भर है
कि उगते हैं कुकुरमुत्ते-से।
चले गये वे दिन
जब यहां वहां
जहां-तहां
दिखाई देते थे कुकुरमुत्ते।
लेकिन
अब नहीं दिखाई देते
कुकुरमुत्ते
जंगली नहीं रह गये
अब कुकुरमुत्ते
कीमत हो गई है इनकी
बिकते और खरीदे जाते हैं
वातानुकूलित भवनों में उगते हैं
भाव रखते हैं
ताव रखते हैं
किसी की ज़िन्दगी जीने का
हिसाब रखते हैं
घर-घर होते हैं कुकुरमुत्ते।
कहने को हैं
सब्जी-भर
समझ सको तो
समझ लो
अब क्या होते हैं कुकुरमुत्ते।
अपना मान करना सीख
आधुनिकता के द्वार पर खड़ी नारी
कहने को आकाश छू रही है
पाताल नाप रही है
पुरुषों के साथ
कंधे से कंधा मिलाकर
चलने की शान मार रही है
घर-बाहर दोनों मोर्चों पर
जीतती नज़र आ रही है।
अपने अधिकारों की बात करती
कहीं भी कमतर
नज़र न आ रही है।
किन्तु यहां
क्यों मौन साध रही है?
न मोम की गुड़िया है,
न लाचार, अपंग।
फिर क्यों इस मोर्चे पर
हर बार
पराजित-सी हार रही है।
.
पाखण्डों और परम्पराओं में
भेद करना सीख।
अपने हित में
अपने लिए बात करना सीख।
रूढ़ियों और रीतियों में
पहचान करना सीख।
अपनी कोमल-कान्त छवि से
बाहर निकल
गलत-सही में भेद करना सीख।
आवाज़ उठा
अपने लिए निर्णय लेना सीख।
सिर उठा,
आंख तरेर, आंख दिखा
आंख से आंख मिला
न डर।
तर्क कर, वितर्क कर
दो की चार कर
अपनी राहें आप नाप
हो निडर।
अपने कंधे पर अपना हाथ रख
अपने हाथ में अपना हाथ ले
न डर।
सब बदल गये, सब बदल गया।
तू भी बदल।
अपना मान करना सीख।
अपना मान रखना सीख।
कर्म कर और फल की चिन्ता कर
कहते हैं,
कहते क्या हैं,
सुना है मैंने,
न-न
पता नहीं
कितनी पुस्तकों में
पढ़ा और गुना है मैंने।
बहुत समय पहले
कोई आये थे
और कह गये
कर्म किये जा
फल की चिन्ता मत कर।
पता नहीं
उन्होंने ऐसा क्यों कहा
मैं आज तक
समझ नहीं पाई।
अब आम का पेड़ बोयेंगे
तो आम तो देखने पड़ेंगे।
वैसे भी
किसी और ने भी तो कहा है
कि बोया पेड़ बबूल का
तो आम कहां से पाये।
सब बस कहने की ही बाते हैं
जो फल की चिन्ता नहीं करते
वे कर्म की भी चिन्ता नहीं करते
ज़माना बदल गया है
युग नया है
मुफ्तखोरी की आदत न डाल
कर्म कर और फल
के लिए खाद-पानी डाल
पेड़ पर चढ़
पर डाल न काट।
उपर बैठकर न देख
जमीनी सच्चाईओं पर उतर
कर्म कर पर फल न पाकर
हार न मान।
बस कर्म कर और
फल की चिन्ता कर।