कूड़े-कचरे में बचपन बिखरा है

आंखें बोलती हैं

कहां पढ़ पाते हैं हम

कुछ किस्से  खोलती हैं

कहां समझ पाते हैं हम

किसी की मानवता जागी

किसी की ममता उठ बैठी

पल भर के लिए

मन हुआ द्रवित

भूख से बिलखते बच्चे

बेसहारा अनाथ

चल आज इनको रोटी डालें

दो कपड़े पुराने साथ।

फिर भूल गये हम

इनका कोई सपना होगा

या इनका कोई अपना होगा,

कहां रहे, क्या कह रहे

क्यों ऐसे हाल में है

हमारी एक पीढ़ी

कूड़े-कचरे में बचपन बिखरा है

किस पर डालें दोष

किस पर जड़ दें आरोप

इस चर्चा में दिन बीत गया !!

 

सांझ हुई

अपनी आंखों के सपने जागे

मित्रों की महफ़िल जमी

कुछ गीत बजे, कुछ जाम भरे

सौ-सौ पकवान सजे

जूठन से पंडाल भरा

अनायास मन भर आया

दया-भाव मन पर छाया

उन आंखों का सपना भागा आया

जूठन के ढेर बनाये

उन आंखों में सपने जगाये

भर-भर उनको खूब खिलाये

एक सुन्दर-सा चित्र बनाया

फे़सबुक पर खूब सजाया

चर्चा का माहौल बनाया

अगले चुनाव में खड़े हो रहे हम

आप सबको अभी से करते हैं नमन

दुराशा

जब भी मैंने

चलने की कोशिश की

मुझे

खड़े होने लायक

जगह दे दी गई।

जब मैंने खड़ा होना चाहा

मुझे बिठा दिया गया।

और ज्यों ही मैंने

बैठने का प्रयास किया

मुझे नींद की गोली दे दी गई।

 

चलने से लेकर नींद तक।

लेकिन मुझे फिर लौटना है

नींद से लेकर चलने तक।

जैसे ही

गोली का खुमार टूटता है

मैं

फिर

 चलने की कोशिश

करने लगती हूं।

 

 

मन चंचल करती तन्हाईयां

जीवन की धार में

कुछ चमकते पल हैं

कुछ झिलमिलाती रोशनियां

कुछ अवलम्ब हैं

तो कुछ

एकाकीपन की झलकियां

स्मृतियों को संजोये

मन लेता अंगड़ाईयां

मन को विह्वल करती

बहती हैं पुरवाईयां

कुछ ठिठके-ठिठके से पल हैं

कुछ मन चंचल करती तन्हाईयां

 

 

 

पार जरूर उतरना है

चल रे मन !

आज नैया की सैर कराउं !

पतवारों का क्या करना है।

खेवट को क्या रखना है।

बस अपने मन से तरना है।

डूबेंगें, उतरेंगे।

सीपी शंखों को ढूढेंगे।

मोती माणिक का क्या करना है।

उपर नीचे डोलेगी।

हिचकोले ले लेकर बोलेगी।

चल चल सागर के मध्य चलें।

लहरों संग संग तैर चलें।

पानी में छाया को छूलेंगे।

अपनी शक्लें ढूंढेंगे।

बस इतना ही तो करना है

पार जरूर उतरना है।

चल रे मन !

आज नैया की सैर कराउं !


यह अथाह शांत जलराशि

गगन की व्यापकता

ठहरी-ठहरी सी हवा,

निश्चल, निश्छल-सा समां

दूर कहीं घूमतीं

हल्की हल्की सी बदरिया।

तैरने लगती हूं, डूबने लगती हूं

फिर तरती हूं, दूर तक जाती हूं

फिर लौट लौट आती हूं।

इस सूनेपन में,  इक अपनापन है।

 

सुना है अच्छे दिन आने वाले हैं

सुना है

किसी वंशी की धुन पर

सारा गोकुल

मुग्ध हुआ करता था

ग्वाल-बाल, राधा-गोपियां

नृत्य-मग्न हुआ करते थे।

वे

हवाओं से बहकने वाले

वंशी के सुर

आज लाठी पर अटक गये

जीवन की धूप में

स्वर बहक गये

नृत्य-संगीत की गति

ठहर-ठहर-सी गई

खिलखिलाती गति

कुछ रूकी-सी

मुस्कानों में बदल गई

दूर कहीं भविष्य

देखती हैं आंखें

सुना है

कुछ अच्छे दिन आने वाले हैं

क्यों इस आस में

बहकती हैं आंखें

 

 

हर दिन जीवन

जीवन का हर पल

अनमोल हुआ करता है

कुछ कल मिला था,

कुछ आज चला है

न जाने कितने अच्छे पल

भवितव्य में छिपे बैठे हैं

बस आस बनाये रखना

हर दिन खुशियां लाये जीवन में

एक आस बनाये रखना

मत सोचना कभी

कि जीवन घटता है।

बात यही कि

हर दिन जीवन

एक और,

एक और दिन का

सुख देता है।

फूलों में, कलियों में,

कल-कल बहती नदियों में

एक मधुर संगीत सुनाई देता है

प्रकृति का कण-कण

मधुर संगीत प्रवाहित करता है।

 

एक उपहार है ज़िन्दगी

हर रोज़ एक नई कथा पढ़ाती है जिन्दगी

हर दिन एक नई आस लाती है ज़िन्दगी

कभी हंसाती-रूलाती-जताती है ज़िन्दगी

हर दिन एक नई राह दिखाती है ज़िन्दगी

कदम दर कदम नई आस दिलाती है जिन्दगी

घनघोर घटाओं में भी धूप दिखाती है जिन्दगी

कभी बादलों में कड़कती-चमकती-सी है ज़िन्दगी

कुछ पाने के लिए निरन्तर भगाती है जिन्दगी

भोर से शाम तक देखो जगमगाती है जिन्दगी

झड़ी में भी कभी-कभी धूप दिखाती है जिन्दगी

कभी आशाओं का सागर लहराती है जिन्दगी

और कभी कभी खूब धमकाती भी है जिन्दगी

तब दांव पर पूरी लगानी पड़ती है जिन्दगी

यूं ही तो नहीं  आकाश दिला देती है जिन्दगी

पर कुल मिलाकर देखें तो एक उपहार है ज़िन्दगी

 

भूल-भुलैया की इक नगरी होती

भूल-भुलैया की इक नगरी होती

इसकी-उसकी बात न होती

सुबह-शाम कोई बात न होती

हर दिन नई मुलाकात तो होती

इसने ऐसा, उसने वैसा

ऐसे कैसे, वैसे कैसे

कोई न कहता।

रोज़ नई-नई बात तो होती

गिले-शिकवों की गली न होती,

चाहे राहें छोटी होतीं

या चौड़ी-चौड़ी होतीं

बस प्रेम-प्रीत की नगरी होती

इसकी-उसकी, किसकी कैसे

ऐसी कभी कोई बात न होती

 

 

 

ख्वाहिशों की  लकीर

ख्वाहिशों की एक
लम्बी-सी लकीर होती है
ज़िन्दगी में
आप ही खींचते हैं
और आप ही
उस पर दौड़ते-दौड़ते
उसे मिटा बैठते है।

 


 

बहुत किरकिरी होती है

अनुभव की बात कहती हूं
अनधिकार को
कभी मान मत देना
जिस घट में छिद्र हो
उसमें जल संग्रहण नहीं होता
कृत्रिम पुष्पों से
सज्जित रंग-रूप देकर
भले ही कुछ दिन सहेज लें
किन्तु दरारें तो फूटेंगी ही
फिर जो मिट्टी बिखरती है
बहुत किरकिरी होती है

 



 

भीड़ में अकेलापन

एक मुसाफ़िर के रूप में

कहां पूरी हो पाती हैं

जीवन भर यात्राएं

कहां कर पाते हैं

कोई सफ़र अन्तहीन।

लोग कहते हैं

अकेल आये थे

और अकेले ही जाना है

किन्तु

जीवन-यात्रा का

आरम्भ हो

या हो अन्तिम यात्रा, ं

देखती हूं

जाने-अनजाने लोगों की

भीड़,

ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा

समझाते हुए,

जीवन-दर्शन बघारते हुए।

किन्तु इनमें से

कोई भी तो समय नहीं होता

यह सब समझने के लिए।

 

और जब समझने का

समय होता है

तब भीड़ में भी

अकेलापन मिलता है।

दर्शन

तब भी बघारती है भीड़

बस तुम्हारे नकारते हुए

 

हम खाली हाथ रह जाते हैं

नदी

अपनी त्वरित गति में

मुहाने पर

अक्सर

छोड़ जाती है

कुछ निशान।

जब तक हम

समझ सकें,

फिर लौटती है

और ले जाती है

अपने साथ

उन चिन्हों को

जो धाराओं से

बिखरे थे

और हम

फिर खाली हाथ

रह जाते हैं

देखते ।

 

पलायन का स्वर भाता नहीं

अरे! क्यों छोड़ो भी

कोई बात हुई, कि छोड़ो भी

यह पलायन का स्वर मुझे  भाता नहीं।

मुझे इस तरह से बात करना आता नहीं।

कोई छेड़ गया, कोई बोल गया

कोई छू गया।

किसी की वाणाी से अपशब्द झरे,

कोई मेरा अधिकार मार गया,

किसी के शब्द-वाण झरे,

ढूंढकर मुहावरे पढ़े।

हरदम छोटेपन का एहसास कराते

कहीं दो वर्ष की बच्ची

अथवा अस्सी की वृद्धा

नहीं छोड़ी जी,

और आप कहते हैं

छोड़ो जी।

छोटी-छोटी बातों को

हम कह देते हैं छोड़ो जी

कब बन जाता

इस राई का पहाड़

यह भी तो देखो जी।

 

छोड़ो जी कहकर

हम देते हिम्मत उन लोगों को

जो नहीं मानते

कि गलत राहें छोड़ो जी।

इसलिए मैं तो मानूं

कि क्यों छोड़ो जी।

न जी न,

न छोड़ो जी।

 

बेभाव अपनापन बांटते हैं

किसी को

अपना बना सकें तो क्या बात है।

जब रह रह कर

 मन उदास होता है,

तब बिना वजह

 खिलखिला सकें तो क्या बात है।

चलो आज

उड़ती चिड़िया के पंख गिने,

जो काम कोई न कर सकता

वही आज कर लें

 तो क्या बात है।

किसी की

प्यास बुझा सकें तो क्या बात है।

चलो,

आज बेभाव अपनापन बांटते हैं,

किसी अपने को

 सच में

 अपना बना सकें तो क्या बात है।

 

 

मन कुहुकने लगा है

इधर भीतर का मौसम

करवटें लेने लगा है

बाहर शिशिर है

पर मन बहकने लगा है

चली है बासंती बयार

मन कुहुकने लगा है

तुम्हारी बस याद ही आई

मन महकने लगा है

 

 

 

 

न सावन हरे न भादों सूखे

रोज़ी-रोटी के लिए

कुछ लकड़ियां छीलता हूं

मेरा घर चलता है

बुढ़ापे की लाठी टेकता हूं

बच्चों खेलते हैं छड़ी-छड़ी

कुछ अंगीठी जलाता हूं

बची राख से बर्तन मांजता हूं।

 

मैं पेड़ नहीं पहचानता

मैं पर्यावरण नहीं जानता

वृक्ष बचाओ, धरा बचाओ

मैं नहीं जानता

बस कुछ सूखी टहनियां

मेरे जीवन का सहारा बनती हैं

जिन्हें तुम अक्सर छीन ले जाते हो

अपने कमरों की सजावट के लिए।

 

क्यों पड़ता है सूखा

और क्यों होती है अतिवृष्टि

मैं नहीं जानता

क्योंकि

मेरे लिए न सावन हरे

न भादों सूखे

हां, कभी -कभी देखता हूं

हमारे खेतों को सपाट कर

बन गई हैं बहुमंजिला इमारतें

विकास के नाम पर

तुम्हारा धुंआ झेलते हैं हम

और मेरे जीवन का आसरा

ये सूखी टहनियां

छोड़ दो मेरे लिए।

 

 

समय आत्ममंथन का

पता नहीं यह कैसे हो गया ?

मुझे, अपने पैरों के नीचे की ज़मीन की

फ़िसलन का पता ही न लगा

और आकाश की उंचाई का अनुमान।

बस एक कल्पना भर थी

एक आकांक्षा, एक चाहत।

और मैंने छलांग लगा दी ।

आकाश कुछ ज़्यादा ही उंचा निकला

और ज़मीन कुछ ज़्यादा ही चिकनी।

मैं थी बेखबर, आकाश पकड़ न सकी

और पैर ज़मीन पर टिके नहीं।

 

दु:ख गिरने का नहीं

क्षोभ चोट लगने का नहीं।

पीड़ा हारने की नहीं।

ये सब तो सहज परिणाम हैं,

अनुभव की खान हैं

किसी की हिम्मत के।

समय आत्ममंथन का।

कितना कठिन होता है

अपने आप से पूछना।

और कितना सहज होता है

किसी को गिरते देखना

उस पर खिलखिलाना

और ताली बजाना।

 

कितना आसान होता है

चारों ओर भीड़ का मजमा लगाना।

ढोल बजा बजा कर दुनिया को बताना।

जख़्मों को कुरेद कुरेद कर दिखाना।

 

और कितना मुश्किल होता है

किसी के जख़्मों की तह तक जाना

उसकी राह में पड़े पत्थरों को हटाना

और सही मौके पर सही राह बताना।

 

 

 

मन से मन मिले हैं

यूं तो

मेरा मन करता है

नित्य ही

पूजा-आराधना करुँ।

किन्तु

पूजा के भी

बहुत नियम-विधान हैं

इसलिए

डरती हूं पूजा करने से।

ऐसा नहीं

कि मैं

नियमों का पालन करने में

असमर्थ हूँ

किन्तु जहाँ भाव हों

वहाँ विधान कैसा ?

जहाँ नेह हो

वहां दान कैसा ?

जहाँ भरोसा हो

वहाँ प्रदर्शन कैसा ?

जब

मन से मन मिले हैं

तो बुलावा कैसा ?

जब अन्तर्मन से जुड़े हैं

तो दिनों का निर्धारण कैसा ?

 

 

 

अनजान राही

एक अनजान राही से

एक छोटी-सी

मुस्कान का आदान-प्रदान।

ज़रा-सा रुकना,

झिझकना,

और देखते-देखते

चले जाना।

अनायास ही

दूर हो जाती है

जीवन की उदासी

मिलता है असीम आनन्द।

 

प्रकृति का सौन्दर्य निरख

सांसें

जब रुकती हैं,

मन भीगता है,

कहीं दर्द होता है,

अकेलापन सालता है।

तब प्रकृति

अपने अनुपम रूप में

बुलाती है

समझाती है,

खिलते हैं फूल,

तितलियां पंख फैलाती हैं,

चिड़िया चहकती है,

डालियां

झुक-झुक मन मदमाती हैं।

सब कहती हैं

समय बदलता है।

धूप है तो बरसात भी।

आंधी है तो पतझड़ भी।

सूखा है तो ताल भी।

मन मत हो उदास

प्रकृति का सौन्दर्य निरख।

आनन्द में रह।

 

अजीब होती हैं  ये हवाएँ भी

अजीब होती हैं

ये हवाएँ भी।

बहुत रुख बदलती हैं

ये हवाएँ भी।

फूलों से गुज़रती

मदमाती हैं

ये हवाएँ भी।

बादलों संग आती हैं

तो झरती-झरती-सी लगती हैं

ये हवाएँ भी।

मन उदास हो तो

सर्द-सर्द लगती हैं

ये हवाएँ भी।

और जब मन में झड़ी हो

तो भिगो-भिगो जाती हैं

ये हवाएँ भी।

क्रोध में बहुत बिखरती हैं

ये हवाएँ भी।

सागर में उठते बवंडर-सा

भीतर ही भीतर

सब तहस-नहस कर जाती हैं

ये हवाएं भी।

इन हवाओं से बचकर रहना

बहुत आशिकाना होती हैं

ये हवाएँ भी।

 

ख़ुद में कमियाँ निकालते रहना

मेरा अपना मन है।

बताने की बात तो नहीं,

फिर भी मैंने सोचा

आपको बता दूं

कि मेरा अपना मन है।

आपको अच्छा लगे

या बुरा,

आज,

मैंने आपको बताना

ज़रूरी समझा कि

मेरा अपना मन है।

 

यह बताना

इसलिए भी ज़रूरी समझा

कि मैं जैसी भी हूॅं,

अच्छी या बुरी,

अपने लिए हूॅं

क्योंकि मेरा अपना मन है।

 

यह बताना

इसलिए भी

ज़रूरी हो गया था

कि मेरा अपना मन है,

कि मैं अपनी कमियाॅं

जानती हूॅं

नहीं जानना चाहती आपसे

क्योंकि मेरा अपना मन है।

 

जैसी भी हूॅं, जो भी हूॅं

अपने जैसी हूॅं,

क्योंकि मेरा अपना मन है।

 

चाहती हू

किसी की कमियाॅं न देखूॅं

बस अपनी कमियाॅं निकालती रहूॅं

क्योंकि मेरा अपना मन है।

 

ज़िन्दगी के रास्ते

यह निर्विवाद सत्य है

कि ज़िन्दगी

बने-बनाये रास्तों पर नहीं चलती।

कितनी कोशिश करते हैं हम

जीवन में

सीधी राहों पर चलने की।

निश्चित करते हैं कुछ लक्ष्य

निर्धारित करते हैं राहें

पर परख नहीं पाते

जीवन की चालें

और अपनी चाहतें।

ज़िन्दगी

एक बहकी हुई

नदी-सी लगती है,

तटों से टकराती

कभी झूमती, कभी गाती।

राहें बदलती

नवीन राहें बनाती।

किन्तु

बार-बार बदलती हैं राहें

बार-बार बदलती हैं चाहतें

बस,

शायद यही अटूट सत्य है।

 

 

जीवन यूं ही चलता है

पीतल की एक गगरी होती

मुस्कानों की नगरी होती

सुबह शाम की बात यह होती

जल-जीवन की बात यह होती

जीवन यूं ही चलता है

कुछ रूकता है, कुछ बहता है

धूप-छांव सब सहता है।

छोड़ो राहें मेरी

मां देखती राह,

मुझको पानी लेकर

जल्दी घर जाना है

न कर तू चिन्ता मेरी

जीवन यूं ही चलता है

सहज-सहज सब लगता है।

कभी हंसता है, कभी सहता है।

न कर तू चिन्ता मेरी।

सहज-सहज सब लगता है।

 

गुनगुनाता है चांद

शाम से ही

गुनगुना रहा है चांद।

रोज ही की बात है

शाम से ही

गुनगुनाता है चांद।

सितारों की उलझनों में

वृक्षों की आड़ में

नभ की गहराती नीलिमा में

पत्‍तों के झरोखों से,

अटपटी रात में

कभी इधर से,

कभी उधर से

झांकता है चांद।

छुप-छुपकर देखता है

सुनता है,

समझता है सब चांद।

कुछ वादे, कुछ इरादे

जीवन भर

साथ निभाने की बातें

प्रेम, प्‍यार के किस्‍से,

कुछ सच्‍चे, कुछ झूठे

कुछ मरने-जीने की बातें

सब जानता है

इसीलिए तो

रोज ही की बात है

शाम से ही

गुनगुनाता है चांद

 

 

 

नव वर्ष की प्रतीक्षा में

नव वर्ष की प्रतीक्षा में

कामना लिए कुछ नयेपन की

एक बदलाव, एक नये एहसास की,

हम एक पूरा साल

कैलेण्डर की और ताकते रहते हैं।

कैलेण्डर पर तारीखें बदलती हैं।

दिन, महीने बदलते हैं।

और हम पृष्‍ठ  पलटते रहते हैं

उलझे रहते हैं बेमतलब ही कुछ तारीखों-दिनों में।

चिह्नित करते हैं रंगों से

कुछ अच्छे दिनों की आस को।

और उस आस को लिए–लिए

बीत जाता है पूरा साल।

वे अच्छे दिन

टहलते हैं हमारे आस-पास,

जिन्हें हम अक्सर अनदेखा कर जाते हैं

बेमतलब उलझे

काल्पनिक आशंकाओं और चिन्ताओं में।

फिर चौंक कर कहते हैं

अरे ! एक साल और यूं ही बीत गया।

शायद बुरा-सा लगता है कहीं

कि लो, एक साल और बीत गया यूं ही

बस जताते नहीं हैं।

फिर पिछले पूरे साल को

मुट्ठी में समेटकर आगे बढ़ते हैं

फिर से एक नयेपन की

आशाओं-आकांक्षाओं के साथ।


बस एक पल का ही तो अन्तर है

इस नये और पुराने के बीच।

उस एक पल के अन्तर को भूलकर

एक पल के लिए

निरन्तरता में देखें

तो कुछ भी तो नहीं बदलता।

पता नहीं

गत वर्ष के समापन की खुशियां मनाते हैं

या आने वाले दिनों की आस को जगाते हैं

किन्तु वास्तविकता यह

कि हम चाहते ही नहीं

कि कभी साल दर साल बीतें।

बस प्रतीक्षा में रहते हैं

एक नयेपन की , एक परिवर्तन की,

कुछ नई चाहतों की

वह साल हो या कुछ और ।

हर साल, साल-दर-साल

पता नहीं हम

गत वर्ष के समापन की खुशियां मनाते हैं

या आने वाले दिनों की आस को जगाते हैं।

बस देखते रहते हें कैलेण्‍डर की ओर

दिन, महीने, तिथियां बदलती हैं

पृष्‍ठ पलटते हैं

और हम उलझे रहते हैं

बेमतलब कुछ दिनों तारीखों को

किन्तु वास्तविकता यह

कि हम चाहते ही नहीं

कि कभी साल दर साल बीतें।

बस प्रतीक्षा में रहते हैं

एक नयेपन की , एक परिवर्तन की,

कुछ नई चाहतों की

वह साल हो या कुछ और ।

   

एक साल और मिला

अक्सर एक एहसास होता है

या कहूं

कि पता नहीं लग पाता

कि हम नये में जी रहे हैं

या पुराने में।

दिन, महीने, साल

यूं ही बीत जाते हैं,

आगे-पीछे के

सब बदल जाते हैं

किन्तु हम अपने-आपको

वहीं का वहीं

खड़ा पाते हैं।

**    **    **    **

अंगुलियों पर गिनती रही दिन

कब आयेगा वह एक नया दिन

कब बीतेगा यह साल

और सब कहेंगे

मुबारक हो नया साल

बहुत-सी शुभकामनाएं

कुछ स्वाभाविक, कुछ औपचारिक।

**    **    **    **

वह दिन भी

आकर बीत गया

पर इसके बाद भी

कुछ नहीं बदला

**    **    **    **

कोई बात नहीं,

नहीं बदला तो न सही।

पर  चलो

एक दिन की ही

खुशियां बटोर लेते हैं

और खुशियां मनाते हैaa

कि एक साल और मिला

आप सबके साथ जीने के लिए।

   

 

चल आज गंगा स्नान कर लें

चल आज गंगा स्नान कर लें

पाप-पुण्य का लेखा कर लें

अगले-पिछले पाप धो लें

स्वर्ग-नरक से मुक्ति लें लें

*    

भीड़ पड़ी है भारी देख

कूड़ा-कचरा फैला देख

अपने मन में मैला देख

लगा हुआ ये मेला देख

वी आई का रेला देख

चुनावों का आगाज़ तू देख

धर्मों का अंदाज़ तू देख

धर्मों का उपहास तू देख

नित नये बाबाओं का मेला देख

हाथी, घोड़े, उंट सवारी

उन पर बैठे बाबा भारी

मोटी-मोटी मालाएं देख

जटाओं का ;s स्टाईल तू देख

लैपटाप-मोबाईल देख

इनका नया अंदाज़ यहां

नित नई आवाज़ यहां

पण्डों-पुजारियों के पाखण्ड तू देख

नये-पुराने रिवाज़ तू देख

बाजों-गाजों संग आगाज़ तू देख।

पैसे का यहां खेला देख

अपने मन का मैला देख

चल आज गंगा स्नान कर लें

   

बेटा-बेटी एक समान

बेटी ने पूछा

मां, बेटा-बेटी एक समान!

मां बोली,

हां हां, बेटा-बेटी एक समान!

बेटी बोली,

मां तो अब से कहना

मैं अपने बेटे को

बेटी समान मानती हूं।

 

हम नित मूरख बन जायें

ज्ञानी-ध्यानी

पंडित-पंडे

भारी-भरकम।

पोथी बांचे

ज्ञान बांटें

हरदम।

गद्दी छोटी

पोटली मोटी

हम जैसे

अनपढ़।

डर का पाठ

हमें पढ़ाएं,

ईश्वर से डरना

हमें सिखाएं,

झूठ-सच से

हमें डराएं।

दान-दक्षिणा

से भरमाएं।

जेब हमारी खाली

हम नित

मूरख बन जायें।