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विश्व-शांति के लिए
बनाने पड़ते हैं आयुध
रचनी पड़ती हैं कूटनीतियाँ
धर्म, जाति
और देश के नाम पर
बाँटना पड़ता है,
चिननी पड़ती हैं
संदेह की दीवारें
अपनी सुरक्षा के नाम पर।
युद्धों का
आह्वान करना पड़ता है
देश की रक्षा की
सौगन्ध उठाकर
झोंक दिये जाते हैं
युद्धों में
अनजान, अपरिचित,
किसी एक की लालसा,
महत्वाकांक्षा
ले डूबती है
पूरी मानवता
पूरा इतिहास।
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द्वार खुले हैं तेरे लिए
विदा तो करना बेटी को किन्तु कभी अलविदा न कहना
समाज की झूठी रीतियों के लिए बेटी को न पड़े कुछ सहना
खीलें फेंकी थीं पीठ पीछे छूट गया मेरा मायका सदा के लिए
हर घड़ी द्वार खुले हैं तेरे लिए,उसे कहना,इस विश्वास में रहना
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आंखों में तिरते हैं सपने
आंखों में तिरते हैं सपने,
कुछ गहरे हैं कुछ अपने।
पलकों के साये में
लिखते रहे
प्यार की कहानियां,
कागज़ पर न उकेरी कभी
तेरी मेरी रूमानियां।
कुछ मोती हैं,
नयनों के भीतर
कोई देख न ले,
पलकें मूंद सकते नहीं
कोई भेद न ले।
यूं तो कजराने नयना
काजर से सजते हैं
पर जब तुम्हारी बात उठती है
तब नयनों में तारे सजते हैं।
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दीप तले अंधेरे की बात करते हैं
सूरज तो सबका है,
सबके अंधेरे दूर करता है।
किन्तु उसकी रोशनी से
अपना मन कहां भरमाता है ।
-
अपनी रोशनी के लिए,
अपने गुरूर से
अपना दीप प्रज्वलित करते है।
और अंधेरा मिटाने की बात करते हैं।
-
फिर भी अक्सर
न जाने क्यों
दीप तले अंधेरे की बात करते हैं।
-
तो हिम्मत करें,
हाथ पर रखें लौ को
तब जग से
तम मिटाने की बात करते हैं।
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काश ! इंसान वट वृक्ष सा होता
कहते हैं
जड़ें ज़मीन में जितनी गहरी हों
वृक्ष उतने ही फलते-फूलते हैं।
अपनी मिट्टी की पकड़
उन्हें उर्वरा बनाये रखती है।
किन्तु वट-वृक्ष !
मैं नहीं जानती
कि ज़मीन के नीचे
इसकी कहां तक पैठ है।
किन्तु इतना समझती हूं
कि अपनी जड़ों को
यह धरा पर भी ले आया है।
डाल से डाल निकलती है
उलझती हैं,सुलझती हैं
बिखरती हैं, संवरती हैं,
वृक्ष से वृक्ष बनते हैं।
धरा से गगन,
और गगन से धरा की आेर
बार-बार लौटती हैं इसकी जड़ें
नव-सृजन के लिए।
-
बस
इंसान की हद का ही पता नहीं लगता
कि कितना ज़मीन के उपर है
और कितना ज़मीन के भीतर।
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गीत मधुर हम गायेंगे
गीत मधुर हम गायेंगे
गई थी मैं दाना लाने
क्यों बैठी है मुख को ताने।
दो चींटी, दो पतंगे,
तितली तीन लाई हूं।
अच्छे से खाकर
फिर तुझको उड़ना
सिखलाउंगी।
पानी पीकर
फिर सो जाना,
इधर-उधर नहीं है जाना।
आंधी-बारिश आती है,
सब उजाड़ ले जाती है।
नीड़ से बाहर नहीं है आना।
मैं अम्मां के घर लेकर जाउंगी।
देती है वो चावल-रोटी
कभी-कभी देर तक सोती।
कई दिन से देखा न उसको,
द्वार उसका खटखटाउंगी,
हाल-चाल पूछकर उसका
जल्दी ही लौटकर आउंगी।
फिर मिलकर खिचड़ी खायेंगे,
गीत मधुर हम गायेंगे।
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एक मुस्कान का आदान-प्रदान
क्या आपके साथ
हुआ है कभी ऐसा,
राह चलते-चलते,
सामने से आते
किसी अजनबी का चेहरा,
अपना-सा लगा हो।
बस यूं ही,
एक मुस्कान का आदान-प्रदान।
फिर पीछे मुड़कर देखना ,
कहीं देखा-सा लगता है चेहरा।
दोनों के चेहरे पर एक-से भाव।
फिर,
एक हिचकिचाहट-भरी मुस्कान।
और अपनी-अपनी राह बढ़ जाना।
-
सालों-साल,
याद रहती है यह मुस्कान,
और अकारण ही
चेहरे पर मुस्कान ले आती है।
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तितली को तितली मिली
तितली को तितली मिली,
मुस्कुराहट खिली।
कुछ गीत गुनगुनाएं,
कुछ हंसे, कुछ मुस्कुराएं,
कहीं फूल खिले,
कहीं शाम हंसाए,
रोशनी की चमक,
रंगों की दमक,
हवाओं की लहक,
फूलों की महक,
मन को रिझाए।
सुन्दर है,
सुहानी है ज़िन्दगी।
बस यूं ही खुशनुमा
बितानी है ज़िन्दगी।
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स्वर्गिक सौन्दर्य रूप
रूईं के फ़ाहे गिरते थे हम हाथों से सहलाते थे।
वो हाड़ कंपाती सर्दी में बर्फ़ की कुल्फ़ी खाते थे।
रंग-बिरंगी दुनिया श्वेत चादर में छिप जाती थी,
स्वर्गिक सौन्दर्य-रूप, मन आनन्दित कर जाते थे।
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आज मुझे देश की याद सता गई
सोच में पड़ गई
आज न तो गणतन्त्र दिवस है,
न स्वाधीनता दिवस, न शहीदी दिवस
और न ही किसी बड़े नेता की जयन्ती ।
न ही समाचारों में ऐसा कुछ देखा
कि देश की याद सता जाती।
फिर आज मुझे
देश की याद क्यों सता गई ।
कुछ गिने-चुने दिनों पर ही तो
याद आती है हमें अपने देश की,
जब एक दिन का अवकाश मिलता है।
और हम आगे-पीछे के दिन गिनकर
छुट्टियां मनाने निकल जाते हैं
अन्यथा अपने स्वार्थ में डूबे,
जोड़-तोड़ में लगे,
कुछ भी अच्छा-बुरा होने पर
सरकार को कोसते,
अपना पल्ला झाड़ते
चाय की चुस्कियों के साथ राजनीति डकारते
अच्छा समय बिताते हैं।
पर सोच में पड़
आज मुझे देश की याद क्यों सता गई
पर कहीं अच्छा भी लगा
कि अकारण ही
आज मुझे देश की याद सता गई ।
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विश्वगुरू बनने की बात करें
विश्वगुरू बनने की बात करें, विज्ञान की प्राचीन कथाएं पढ़े हम शान से।
सवा सौ करोड़ में सवा लाख सम्हलते नहीं, रहें न जाने किस मान में।
अपने ही नागरिक प्रवासी कहलाते, विश्व-पर्यटन का कीर्तिमान बना
अब लोकल-वोकल की बात करें, यही कथाएं चल रहीं हिन्दुस्तान में।